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Sunday, January 14, 2024

માનસ વનવાસ - 930

 

રામ કથા - 930

માનસ વનવાસ

જેતવન,

શનિવાર, તારીખ 13/01/2024 થી રવિવાર, તારીખ 21/01/2024

બીજ પંક્તિઓ

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी। 

चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

जौं  पितु  मातु  कहेउ  बन  जाना। 

तौ  कानन  सत  अवध  समाना॥1॥

 

 

1

Saturday, 13/01/2024

 

अयोध्याकांड में महारानी कैकेयी कहती हैं कि ………..

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥ 

योध्याकांडमें महारानी कौशल्या कहती हैं कि ………..

 

जौं  केवल  पितु  आयसु  ताता।  तौ  जनि  जाहु  जानि  बड़ि  माता॥

जौं  पितु  मातु  कहेउ  बन  जाना।  तौ  कानन  सत  अवध  समाना॥1॥

 

हे  तात!  यदि  केवल  पिताजी  की  ही  आज्ञा,  हो  तो  माता  को  (पिता  से)  बड़ी  जानकर  वन  को  मत  जाओ,  किन्तु  यदि  पिता-माता  दोनों  ने  वन  जाने  को  कहा  हो,  तो  वन  तुम्हारे  लिए  सैकड़ों  अयोध्या  के  समान  है॥1॥ 

बिना आश्रय बनायागया आश्रम श्रम से सिवा ओर कुछ नहीं हैं।

साधु वर्ण से पर हैं।

2

Sunday, 14/01/2024

 

नामु  मंथरा  मंदमति  चेरी  कैकइ  केरि।

अजस  पेटारी  ताहि  करि  गई  गिरा  मति  फेरि॥12॥

 

मन्थरा  नाम  की  कैकेई  की  एक  मंदबुद्धि  दासी  थी,  उसे  अपयश  की  पिटारी  बनाकर  सरस्वती  उसकी  बुद्धि  को  फेरकर  चली  गईं॥12॥ 

 

केहि  हेतु  रानि  रिसानि  परसत  पानि  पतिहि  नेवारई।

मानहुँ  सरोष  भुअंग  भामिनि  बिषम  भाँति  निहारई॥

दोउ  बासना  रसना  दसन  बर  मरम  ठाहरु  देखई।

तुलसी  नृपति  भवतब्यता  बस  काम  कौतुक  लेखई॥

 

'हे  रानी!  किसलिए  रूठी  हो?'  यह  कहकर  राजा  उसे  हाथ  से  स्पर्श  करते  हैं,  तो  वह  उनके  हाथ  को  (झटककर)  हटा  देती  है  और  ऐसे  देखती  है  मानो  क्रोध  में  भरी  हुई  नागिन  क्रूर  दृष्टि  से  देख  रही  हो।  दोनों  (वरदानों  की)  वासनाएँ  उस  नागिन  की  दो  जीभें  हैं  और  दोनों  वरदान  दाँत  हैं,  वह  काटने  के  लिए  मर्मस्थान  देख  रही  है।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  राजा  दशरथ  होनहार  के  वश  में  होकर  इसे  (इस  प्रकार  हाथ  झटकने  और  नागिन  की  भाँति  देखने  को)  कामदेव  की  क्रीड़ा  ही  समझ  रहे  हैं। 

सुनना और श्रवण करना अलग अलग हैं, श्रवण क्रिया और उपकरण हैं जब कि सुनना केवल क्रिया हैं।

भवनमें रहकर अपनी वृत्तिमें रुक जाना भवन में वनवास हैं। वनवास एकांत हैं।

वनमाली माला हैं, बेरखा हैं, गुरु की स्मृति हैं।

१० वस्तु से बुद्धत्व प्राप्त होता हैं।

बुद्ध कोई भी हो शकता हैं।

पारमिता का अर्थ संपूर्ण पूर्णता हैं, उस में कुछ कमी नहीं हैं, परिपूर्णता हैं।

 

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥

सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥

 

यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥

शरणागत हो कर श्रवण करो।

श्रवण के पांच सूत्र हैं।

1.       प्रसन्न होकर सुनना।

2.      शांत रहकर सुनना

3.      सहज भाव से सुनना, अपनी बगलवाले क्या कर रहे हैं उसे अन्देखा करकर सुननना चाहिये।

4.      एक इत से शर्वण करो, चित का विरोध न करो और निरोध भी न करो।

5.      किसी की शरण में रहकर श्रवण करो।

श्रवण भजन हैं भक्ति हैं।

 

सुनहु  प्रानप्रिय  भावत  जी  का।  देहु  एक  बर  भरतहि  टीका॥

मागउँ  दूसर  बर  कर  जोरी।  पुरवहु  नाथ  मनोरथ  मोरी॥1॥

 

(वह  बोली-)  हे  प्राण  प्यारे!  सुनिए,  मेरे  मन  को  भाने  वाला  एक  वर  तो  दीजिए,  भरत  को  राजतिलक  और  हे  नाथ!  दूसरा  वर  भी  मैं  हाथ  जोड़कर  माँगती  हूँ,  मेरा  मनोरथ  पूरा  कीजिए-॥1॥ 

 

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा  की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥ 

 

3

Monday, 15/01/2024

भगवान बुद्ध के ६ सूत्र हैं।

1.       स्वदर्शन करना

2.      सम दर्शन करना

3.      छाया दर्शन – छाया दर्शन भ्रांति को नष्ट करता हैं, छाया भ्रमित करती हैं।

4.      सिद्ध दर्शन

5.      स्वप्न दर्शन

6.      शुद्ध दर्शन

मन का संग हि कुसंग हैं, अगर वह मन दुष्ट मन हैं तो।

बिना स्वप्न की निंद्रा समाधि हैं ……. विनोबा भावे

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Tuesday, 16/01/2024

परम प्रेम, परम विवेक, परम सत्य, परम वैराग्य और परम साधु पंचक हैं।

करुणा और मैत्री की छाया में प्रेम सुखदायी हैं।

तापस बेष की व्याख्या बताते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि ……….

 

तेहि  अवसर  एक  तापसु  आवा।  तेजपुंज  लघुबयस  सुहावा॥

कबि  अलखित  गति  बेषु  बिरागी।  मन  क्रम  बचन  राम  अनुरागी॥4॥

 

उसी  अवसर  पर  वहाँ  एक  तपस्वी  आया,  जो  तेज  का  पुंज,  छोटी  अवस्था  का  और  सुंदर  था।  उसकी  गति  कवि  नहीं  जानते  (अथवा  वह  कवि  था  जो  अपना  परिचय  नहीं  देना  चाहता)।  वह  वैरागी  के  वेष  में  था  और  मन,  वचन  तथा  कर्म  से  श्री  रामचन्द्रजी  का  प्रेमी  था॥4॥

वैराग्य की व्याख्या करते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि ……..

 

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥

 

ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान्‌ कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥4॥

 

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥

 

मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-॥3॥

 

सजल  नयन  तन  पुलकि  निज  इष्टदेउ  पहिचानि।

परेउ  दंड  जिमि  धरनितल  दसा  न  जाइ  बखानि॥110॥

 

अपने  इष्टदेव  को  पहचानकर  उसके  नेत्रों  में  जल  भर  आया  और  शरीर  पुलकित  हो  गया।  वह  दण्ड  की  भाँति  पृथ्वी  पर  गिर  पड़ा,  उसकी  (प्रेम  विह्वल)  दशा  का  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता॥110॥

 

राम  सप्रेम  पुलकि  उर  लावा।  परम  रंक  जनु  पारसु  पावा॥

मनहुँ  प्रेमु  परमारथु  दोऊ।  मिलत  धरें  तन  कह  सबु  कोऊ॥1॥

 

श्री  रामजी  ने  प्रेमपूर्वक  पुलकित  होकर  उसको  हृदय  से  लगा  लिया।  (उसे  इतना  आनंद  हुआ)  मानो  कोई  महादरिद्री  मनुष्य  पारस  पा  गया  हो।  सब  कोई  (देखने  वाले)  कहने  लगे  कि  मानो  प्रेम  और  परमार्थ  (परम  तत्व)  दोनों  शरीर  धारण  करके  मिल  रहे  हैं॥1॥

प्रेम तपस्वी हैं, प्रेम प्रकाशमय हैं, प्रेम बुढा नहीं होता हैं, प्रेम स्सुंदर हैं, अकथनीय हैं।

प्रेम परम वैराग्य हैं, परम संन्यासी हैं।

मानस में मध्य में प्रेम हैं और तुलसी लिखते हैं कि ….

 

सिय  राम  प्रेम पियूष  पूरन  होत  जनमु  न  भरत  को।

मुनि  मन  अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

श्री  सीतारामजी  के  प्रेमरूपी  अमृत  से  परिपूर्ण  भरतजी  का  जन्म  यदि  न  होता,  तो  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  यम,  नियम,  शम,  दम  आदि  कठिन  व्रतों  का  आचरण  कौन  करता?  दुःख,  संताप,  दरिद्रता,  दम्भ  आदि  दोषों  को  अपने  सुयश  के  बहाने  कौन  हरण  करता?  तथा  कलिकाल  में  तुलसीदास  जैसे  शठों  को  हठपूर्वक  कौन  श्री  रामजी  के  सम्मुख  करता?

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Wednesday, 17/01/2024

१४ केन्द्र ऐसे हैं जिसका पालन करने से कोई भी व्यक्ति, कहीं भी, किसी भी समय वनवासी बन शकता हैं।

जीवन एक वन हैं जिस में हम निरंतर वनवासी बन शकते हैं।

निरंतर वर्तमान में जीना हि जीवन हैं।

बुद्ध पुरुष के पास बैठना एक बडा खजाना हैं।

१४    केन्द्र

1        वृंदावन जो प्रेम भूमि हैं, जहां किसी के प्रति नफरत, द्वैष पेदा नहीं होता हैं। अगर ऐसा हम जीते हैं तो हम वृंदावनवासी वनवासी हैं।

2       कामदवन – चित्रकूट का वन कामदवन हैं, यह वन हमारी कामना पुरी करनेवाला वन हैं, कामद का अर्थ कामना पुरी करनेवाला होता हैं। कामदवन में हमारी कामना सीताराम की चरणरज प्राप्ति की होनी चाहिये।

3       आनंदवन जो काशी में हैं, काशी रहनेवाला वनवासी हैं।

4       उपवन – जंगल के पास रहना

 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥

 

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

5       नैमिषवन जो साधना की सफलता का वन हैं, साधन सिद्धि का वन हैं।

6       मधुवन जहां अत्यंत मधुरता की प्राप्ति हो वह मधुवन हैं, सीताराम हि मधुर हैं।

7       अशोकवन जहां बैठकर शोक छूट जाय और श्लोक की धून लग जाय वह अशिकवन हैं।

8       दंडकवन जहां केवल काष्ट का वन हैं। ऐसी श्रापित भूमि भजन से, स्मरण की धारा से मीट जाती हैं।

9       तपोवन जहां तप करने की इच्छा पेदा हो वह तपोवन हैं।

10     त्रिभुवन जहां निरंतर गुरु का स्मरण होता हैं।

11      नंदनवन जहां आनंद हि बरसता रहे।

12     विंद्याचलवन ऐसे वन में प्रलोभन और कुसंग का खतरा रहता हैं, अगर हम कोई प्रलोभन वृत्ति न रखे और कुसंगी वृत्ति न रखे तो वह विंद्याचलवन का वनवास हैं।

13     मानसवन – मानस भी एक वन हैं।

14     बद्रीवन – यह तपस्या की भूमि हैं।