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Saturday, April 3, 2021

માનસ હરિદ્વાર, मानस हरिद्वार

 

राम कथा – 858

मानस हरिद्वार

हरिद्वार, उत्तराखंड

शनिवार, तारीख ०३/०४/२०२१ से रविवार, ११/०४/२०२१

केन्द्रीय बिचारकी पंक्ति

हरि अनंत हरि कथा अनंता।

कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

 

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ।

जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥

 

 

 

1

Saturday, 03/04/2021

व्यास आसन सर्वोच आसन हैं, उसका सन्मान करना चाहिये।

व्यासासिन पीठाधिश्वरको सब कुछ दिखायी देता हैं।

 

हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3॥

 

श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3॥

 

जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥2॥

 

हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्री हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं॥2॥

भजन बढे ऐसा आशीर्वाद प्राप्त करनेका मौका चूकना नहीं चाहिये।

हरेक हरि कथा हरिन – लीलीच्छ्म होनी चाहिये।

जानकी भगवान राम की छाया होनेके नाते उसे कोई शोक नहीं हैं, सिर्फ शोकातुर होने का नाटक करती थी। जानकी जो परम अवस्था हैं, उस की मूलतः अवस्था तो अशोक अवस्था हैं।

 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

 

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

विद्या अविद्या को नाश करनेके लिये हैं, छल करनेके लिये नहीं हैं।

 प्रणाम करने का संकेत हैं कि अब हम अप्रमाणिक नहीं बनेगें।

 

 

2

Sunday, 04/04/2021

आचार्य किसको कहते हैं?

निरंतर हरि कथा कौन कहता हैं?

अनादि प्रवक्ता भगवान शिव निरंतर कथा गान नहीं कहते हैं। भगवान शंकर की लीला संहार लीला हैं।

तीर्थराज प्रयाग में गंगा, सरस्वती, यमुना कायम बहती हैं, यहां याज्ञवल्क का कथा गान निरंतर चलती रहती हैं, क्यों कि उन्होंने कथा समाप्त करी की नहीं उसका उल्लेख नहीं मिलता हैं।

एक मात्र काकभुशुण्डि निरंतर कथा गान कहते हैं। काक भूषंडी का नाश नहीं होता हैं।

शरीर के बिना हरि भजन नहीं होता हैं।

वेदज्ञ वह हैं जो जानता हैं।

भगवत कथा भजन हि हैं।

काकभुशुण्डि एकदम स्वस्थ हैं।

निरंतर कथा गान के लिये शरीर स्वस्थ होना चाहिये। तीन वस्तु - धन, शरीर और मन स्वस्थ होना चाहिये। धन कम – धन की आस्क्ति कम होनी चाहिये, शरीर मध्यम – शरीर बहूत बडा या बहूत छोटा नहीं होना चाहिये और मन बहूत बडा होना चाहिये।

 

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।

उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।1।।

 

बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादिके करनेसे श्रीरधुनाथजी नहीं मिलते। [अतएव तुम सत्संग के लिये वहाँ जाओ जहाँ] उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं।।1।।

 

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।

राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।2।।

 

वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं, और बहुत कालके हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदरसहित सुनते हैं।।2।।

काकभुशुण्डि परम विवेकी हैं, उन्हे विवेक अपनी मा - हंसिनी माता से मिला हैं।

 

नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।

आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहिं काज।।63क।।

 

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

 

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

 किसी वस्तु के खंडनमें उसका नवसर्जन छीपा हुआ हैं। हरेक घटनामें नुतनता का राज हैं।

लाभ हानि होनेपर जिसका भाव बदलता नहीं हैं वह निरोगी रह शकता हैं।

विकास के लिये जानना जरुरी हैं और विश्राम के लिये न जानना जरुरी हैं।

सदा उजाला अच्छा नहीं हैं कुछ अंधेरा भी जरुरी हैं।

बहूत जानकरी अच्छी नहीं हैं, कुछ अज्ञान जरुरी हैं।

कथा गान और कथा श्रवण के लिये स्वस्थ शरीर जरुरी हैं।

तेरी मुक्तिका मैं वचन देता हुं – यह गुरु के मुख से नीकला हुआ एक वचन हैं।

कौआ किसीका वाहन नहीं बना हैं। काकभुशुण्डि राम कथा का वाहन हैं।

आचार्य के लक्षण – आचार्यकी परिभाषा

आचार्य वेद संपन्न होता हैं।

आचार्य विष्नु भक्त होता हैं।

आचार्य में मत्सर – ईर्षा नहीं होती हैं, विमत्सर होता हैं।

जिसका अपना पराया का भेद समाप्त हो जाय वह निरोगी रह शकता हैं।

आचार्य मंत्र का जानकार होता हैं।

आचार्य स्वयं मंत्रका उपासक होता हैं और सदा सदा मंत्र का आश्रय रखता हैं।

आचार्य बाह्य और भीतरसे पवित्र होता हैं।

आचार्य अपने गुरु भक्तिमें पूर्ण रहता हैं, अपने गुरु को प्रथम रखता हैं।

आचार्य पुराणका जानकार होता हैं।

आचार्य के पास कुछ विशेष संपदा होती हैं।

यह सब लक्षण आचार्य के है और गुरु के भी हैं।

 

मानस में जहां काकभुसुंडि शब्द आया हैं, ऐसी कुछ पंक्तियां नीम्न तरह हैं। भूलचूक हो शकती हैं।

 

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥

सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥

शिवजी ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया॥2॥ औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥

 

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥

काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥

 

हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि (श्री रामजी के चरणों में) बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका॥2॥

 

हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा।।

तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभुसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।4।।

 

हे नाथ ! आपने श्रीरामचरितमानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुन्दर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कहीं थी-।।4।।

 

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।

उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।1।।

 

बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादिके करनेसे श्रीरधुनाथजी नहीं मिलते। [अतएव तुम सत्संग के लिये वहाँ जाओ जहाँ] उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं।।1।।

 

बोलेउ काकभुसंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी।।

सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।1।।

 

काकभुशुण्डिजीने कहा-पक्षिराजपर उनका प्रेम कम न था (अर्थात् बहुत था)- हे नाथ ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्रीरघुनाथजीके कृपापात्र हैं।।1।।

 

काकभुसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।

अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि।।83ख।।

 

हे काकभुशुण्डि ! तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा सम्पूर्ण सुखों की खान मोक्ष।।83(ख)।।

 

3

Monday, 05/04/1968

हरिनाम लेने में अपराध की चिंता मत करो, हरिनाम लिया करो, गुरु मंत्र जो मिला हैं उसे लिया करो, अगर गुरु मंत्र बदलना हैं तो गुरु को विनय पूर्वक विनंति करो।

राम चरित मानस की आरति में भी काकभुशुण्डि शब्द आया हैं।

पांच ज्ञानेन्द्रीय, पांच कम्रेन्द्रीय और मन, बुद्धि, चित और अहंकार मिलाकार १४ होता हैं।

 

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥

 

गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥

 

गुरु द्वार के दो द्वार पाल पैकी गुरु द्वार का एक द्वार पाल आशंका हैं, और दूसरा द्वार पाल श्रद्धा हैं।

गुरि निष्ठ व्यक्ति अपनी आशंका - संशय – वेदना – जिज्ञासा अपने गुरु के पास कहता हैं। गुरु जवाब दे य न दे उसकी चिंता न करो।

पार्वति अपना संशय लेकर भगवान महादेव के पास जाती हैं।

 

ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।

ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।।62क।।

 

जो ज्ञानीयोंमें और भक्तोंमें शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं।।62(क)।।

गरुड ज्ञानी हैं, श्रद्धावान भी हैं।

 

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

 

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

हरिद्वार हरका भी द्वार हैं।

राज द्वार पर न्याय मांगा जाता हैं, राज द्वार पर न्याय मिलता हैं।

नगर द्वार पर समयसर प्रवेश करना पडता हैं और प्रवेश करने के बाद आश्रय मिलता हैं।

मोक्ष द्वार – मानव शरीर मोक्ष द्वार हैं।

नर्क के तीन द्वार काम, क्रोध और लोभ हैं। यह तीन द्वार के द्वार पाल कौन हैं?

शरीर की ईन्द्रीयो भी द्वार हैं।

4

Tuesday, 06-04-2021

हरि कथा अनंत हैं और हरिके साथ संलग्न सभी चीजोकी कथा भी अनंत हैं।

हरिके जुडे हुए सभी तत्व अनंत हैं।

चित अगर सम्यक नहीं हैं तो कोई ग्रंथ पढना नहीं चाहिये, लेकिन किसी महापुरुषके मुखसे यह ग्रंथ श्रवण कर लेना चाहिये।

अगर एक चितसे हम अपने गुरुके प्रति संपूर्ण शरणागति रखते हैं तो गुरुपादुका सब कुछ कर शकती हैं।

बुद्ध पुरुष ॠतु परिवर्तन करनेकी क्षमता रखता हैं।

अत्रि ॠषिने १० प्रकारके ब्राह्मणकी चर्चा की हैं।

 

नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥

भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥

 

हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥

निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥

 

आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥

 

प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥

निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥

 

हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥

 

दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥

मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥4॥

 

सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥

मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं॥

विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥

 

आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥

 

नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥

भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥

 

हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता हूँ! हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ॥6॥

 

त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सराः॥

पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥7॥

 

जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरंगों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते)॥7॥

विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा॥

निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं॥8॥

 

जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं॥8॥

 

तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥

 

उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥

 

भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥

स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥

 

(तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष (अर्थात्‌ उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरंतर भजता हूँ॥10॥

 

अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥

प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥

 

हे अनुपम सुंदर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥11॥

 

पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥

व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥

 

जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं॥12॥

 

दोहा :

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।

चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥4॥

 

मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े॥4॥

जो ब्रह्म को जानता हैं वही ब्राह्मण हैं।

आनंद की स्थिति की और समाधि की स्थिति का वर्णन कोई नहीं कर शकता हैं, व्याख्या नहीं हो शकती हैं।

वक्ता रघुवंश के नाथ – विश्वामित्र जैसी विचारधारा वाला होना चाहिये। विश्वामित्र रघुवंश का नाथ हैं।

क्रोध चांडाल हैं।

क्रोध के दो द्वारपाल - दैत और द्वेष हैं।

रावण कहता हैं कि ….

 

होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥

जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥

 

इस तामस शरीर से भजन तो होगा नहीं, अतएव मन, वचन और कर्म से यही दृढ़ निश्चय है। और यदि वे मनुष्य रूप कोई राजकुमार होंगे तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूँगा॥3॥

नाम प्रभाव को जानने – हरि नाम लेनेके लिये के लिये ५ वस्तु का ध्यान रखना चाहिये।

          भजन विवेक युक्त होना चाहिये, भजन करने वाले में विवेक होना चाहिये। भजनानंदी व्यक्ति विवेक का शास्त्र, विवेक की किताब जैसा होता हैं।

          भजन विश्वास युक्त होना चाहिये, जिसका नाम का रटण करते हो उस नाम पर विश्वास होना चाहिये।

          भजन संयम युक्त होना चाहिये – कुछ नियम का संयम होना चाहिये।

          भजन सदाभाव रखकर करना चाहिये, जो भजन नहीं करते हैं उसकी आलोचना भजन करनेवाले को नहीं करनी चाहिये।

          भजन पावित्रयुक्त होना चाहिये, भजन करते समय पावित्र होना चाहिये।

रावण को राम नाम उपर भरोंसा नहीं हैं ईसीलिये रामनाम नहीं लेता हैं, आखिरी बार राम नाम लेता हैं वह भी कुछ अलग भावसे लेता हैं।

गोद सचेतन स्पर्श छे, खोयु अचेतन स्पर्श हैं।

जब बालक बहुत परेशान करता हैं यब मा उस बालकको अपने गोद से हटाकत खोया में डाल देती हैं, गुरु भी ऐसा हि करता करता हैं। लेकिन सदगुरु ऐसा नहीं करता हैं।

मा सुलाती हैं लेकिन साधु – सदगुरु जगाता हैं।

पादूका द्वारपाल हैं।

जब दूसरा कोई हैं – द्वैत होता हैं तब क्रोध आता हैं। जब हममें द्वैष आता हैं तब भी क्रोध आता हैं। क्रोध के कारण हम दूसरोंका दोष नीकालते हैं, वह अक्षम्य हैं।

रुप और स्पर्श काम के द्वार हैं। रुप परमात्माका आशीर्वाद हैं इसीलिये रुप पर ममत्व न रखो लेकिन रुप को महत्व जरुर देना चाहिये। अर्थ को महत्व देना चाहिये, अर्थ पर ममत्व नहीं होना चाहिये।

धर्मका महत्व होना चाहिये लेकिन धर्मका ममत्व – मोह नहीं होना चाहिये। अर्थ को रमता रमता – खेल खेल में छोड देना चाहिये।

गंगा ५ हैं, - स्थुल गंगा, राम भगती, राम कथा, गुरु मुखी वचन, गंगा स्वरुप मातॄ शरीर ।

 

 

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥

नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥

 

वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥

मेरा धर्म हि सही हैं एसा युद्ध को निमंत्रण देता हैं।

 

 

5

Wednesday, 07/04/2021

हरि कथा अनंत हैं, असिम हैं।

         

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥

कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥1॥

 

इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुंदर लीलाएँ करते हैं,॥1॥

 

तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥

बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥2॥

 

तब-तब मुनीश्वरों ने परम पवित्र काव्य रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है और भाँति-भाँति के अनुपम प्रसंगों का वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य नहीं

तीन को कथा – जिसको संतान नहीं हैं, जिसको कोई गुरु नहीं हैं और जिस का चित स्थिर् नहीं हैं - नहीं सुनानी चाहिये ।

परमहंस ठाकुर कहते हैं कि शिष्यको गुरु के सानिध्यमें हि ठाकुर के पास् जाना चाहिये, गुरु हि ठाकुर हैं, ईष्ट हि गुरु हैं।   

शास्त्र स्वयं गुरु हैं।

 

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

 

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

५ वस्तु स्वीकार हो जाय तो गुरु हि ईष्ट समजमें आ जायेगा।

                  आज्ञा पालन करना।

                 गुरु की संज्ञाका पालन करना।

                 यज्ञा पालक बनना। आश्रितको जब गुरु यज्ञ करे तब अस्तित्वमय हो जाना चाहिये– यज्ञा यज्ञ की विभूति हैं।

                 सर्वज्ञा पालक बनना। अपने गुरु को कभी भी अलप्ज्ञ नहीं समजना चाहिये। गुरु सर्वज्ञ हैं ऐसा समजना चाहिये।

                 अगर किसी दाता प्रसाद देता हैं तो कहीं चूक न हो जाय उसका ध्यान रखना चाहिये।

 

त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।

कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥

 

(और कहा-) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥

 

हमे देख कर अगर गुरुके अश्रु गीरे तो समजो यह प्रसाद हैं।

दीक्षा देनेवाला ईश्ट हि हैं।

 

सहज  सनेहँ  स्वामि  सेवकाई।  स्वारथ  छल  फल  चारि  बिहाई॥

अग्यासम    सुसाहिब  सेवा।  सो  प्रसादु  जन  पावै  देवा।2॥

 

वह  रुचि  है-  कपट,  स्वार्थ  और  (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष  रूप)  चारों  फलों  को  छोड़कर  स्वाभाविक  प्रेम  से  स्वामी  की  सेवा  करना।  और  आज्ञा  पालन  के  समान  श्रेष्ठ  स्वामी  की  और  कोई  सेवा  नहीं  है।  हे  देव!  अब  वही  आज्ञा  रूप  प्रसाद  सेवक  को  मिल  जाए॥2॥

प्रसाद तब हि पाया जाता हैं जब प्रसाद देनेवाले प्रसाद दे।

गोकुलवन वैकुंठ हि हैं।

नंद स्वयं आनंद हैं।

जशोदा स्वयं मुक्ति हैं, देवकी नख शीश दया की मूर्ति हैं, नारद सखा हैं, कलियुग स्वयं कंस बनकर आया हैं, वसुदेव स्वयं वेद हैं, कृष्ण बलराम वेदोका अर्क हैं।

जब हम कोई भजनानंदी को दंभी समजने लगे तब हमारेमें कलियुग आ गया हैं।

 

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥

सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥1॥

 

जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा॥1॥

मुख रुपी द्वार के द्वारपाल हरि नाम - राम नाम हैं– उपर का होठ रा हैं और नीचेका होठ म हैं,

 

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

 

तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख॥21॥      

 

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥30॥

 

(हनुमान्‌जी ने कहा-) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥

 

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Thursday, 08/04/2021

खल और भल साथ साथ चलते हैं।

ज्ञान दो को एक करता हैं, अद्वैत स्थापित करना हैं।

हंस जल और दूध को अलग करता हैं।

ज्ञानी में विवेक आवश्यक हैं, संसारी को एक ऐसी व्यक्ति की आवश्यक्ता हैं जो हमें परख करावे – खल और भल की पहछान करावे।

 

 

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

 

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

 

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥

 

भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे॥3॥

 

बिषई  साधक  सिद्ध  सयाने।  त्रिबिध  जीव  जग  बेद  बखाने॥

राम  सनेह  सरस  मन  जासू।  साधु  सभाँ  बड़  आदर  तासू॥2॥

 

विषयी,  साधक  और  ज्ञानवान  सिद्ध  पुरुष-  जगत  में  तीन  प्रकार  के  जीव  वेदों  ने  बताए  हैं।  इन  तीनों  में  जिसका  चित्त  श्री  रामजी  के  स्नेह  से  सरस  (सराबोर)  रहता  है,  साधुओं  की  सभा  में  उसी  का  बड़ा  आदर  होता  है॥2॥

 

तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

 

सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।

गोस्वामीजी कहते हैं विविध कर्म अधर्म हैं, और अनेक मत लेना शोक देता हैं।

ईसीलिये योगेश्वर सर्व धर्म को त्याग करना कहते हैं,

धर्म अशांति देता हैं।

जिसको चिर शांति मिली हैं उसे चराग जलागेनी की जरुर नहीं हैं।

ग्रंथ को भी वर्मामान के परिपेक्षमें देखना चाहिये।

त्यागसे शांति मिलेगी।

 

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

 

सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।

 

तुलसी कहते हैं कि विश्वास रखकर राम के चरणोंमें प्रेम करो, और ऐसा भी अर्थ हैं कि तुलसी विश्वास पूर्वक कहते हैं कि राम के चरणों में प्रेम करो।

विषयी जीव को शिक्षा – शिख की आवश्यकता हैं, साधक को दीक्षा दी जाती हैं, और सिद्ध को विशाद मुक्त भिक्षा दे जाती हैं – विशाद मुक्तता दी जाती हैं।

अर्जुन शुद्ध हैं।

काम नर्कका द्वार हैं।

धर्म बैराग्य का द्वार हैं।

अर्थका द्वार दो हैं – प्रारब्ध और पुरुषार्थ यह द्वार हैं।

शरीर के नव द्वार हैं।

ईश्वरकी सृष्टीमें कोइ बेचारा नहीं हैं।

अपना बुद्ध पुरुष हि अपना प्रारब्ध हैं।

मोक्ष का द्वार मानव शरीर हैं।

सर्प वक्राकार गति करता हैं लेकिन अपने दर में जाता हैं तब सिधा गति करता हैं।

हमें भी अपने दरमें जाते समय अपनी गति सिधी करनी चाहिये।

साधु कर्म – अक्रिया कर्म – ब्रह्म कर्म - सर्व श्रेष्ठ कर्म हैं। ऐसा कर्म कोई उपाधि नहीं हैं लेकिन समाधि हैं।

 

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।

7

Friday, 09/04/2021

हमारे हर लोक के द्वार पर कोई न कोई द्वारपाल हैं, ब्रह्म लोकका द्वारपाल विधात्री हैं।

लंकिनी द्वारपाली करती हैं।

 

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥

 

हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

वैंकुठ के द्वारपाल जय विजय हैं।

द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ।

जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥

 

 

कैलास लोक का द्वारपाल नंदी हैं।

अगर द्वारपाल भूल करता हैं तो गलत संदेश प्रसारीत हो जाता हैं।

राम का द्वारपाल हनुमानजी हैं। राम विष्णु नहीं हैं। राम आखिरी द्वार हैं।

राम दुआरे तुम रखवारे

भगवान और भगवान शब्द भी पंचभूत से समाहित हैं।

तुलसी में राम, लक्ष्मण और सीता समाहित हैं, - तु, ल और सी।

भारतीय संस्कृति का दीप जलता रहे इसीलिये जब जब आवश्यक्ता आयी हैं तब तब कोई न कोई महापुरुष आया हैं, भारतीय संस्कृति कभी भी नष्ट नहीं होगी।

काम को देव कहा गया हैं, लेकिन क्रोध, लोभ को देव नहीं कहा गया हैं, क्रोध चंडाल हैं, धर्म से विरुद्ध नहीं हैं ऐसा काम भगवान कृष्ण की विभूति हैं।

खुद को जब खुद से डर लगे तब समजो तुम्ह कुछ गलत कर रहे हो।

 

रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई।।

कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।4।।

 

हे भाई ! वह बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती है। और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देती हैं।।4।।

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

 

तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख॥21॥

राम नाम मनि अखंड ज्योति प्रदान करता हैं।

 

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Saturday, 10/04/2021

ध्यानका भूषण त्याग हैं, त्याग का भूषण शांति हैं, दिन का भूषण सूर्य हैं।

ज्ञान मोक्ष का दरवाजा हैं, शरीर और ज्ञान मोक्ष का दवराजा हैं।

देह चेतन नहीं हैं। देह जड हैं, देह को ज्ञान हो जाय तो देह भी मोक्ष का द्वार हैं।

त्याग से अखंड शांति मिलती हैं।

जब बुद्ध पुरुष बोलता हैं तब वह प्रवचन नहीं हैं लेकिन एक आदेश हैं। बुद्ध पुरुष उपदेश नहीं देता हैं लेकिन आदेश – आज्ञा देता हैं।

जब कोई जिज्ञासु कुछ पूछता हैं तब उसे उपदेश दिया जाता हैं।

सामान्य जनताको बुद्ध पुरुष संदेश देता हैं।

मन, बुद्धि, चित और अहंकार का कोई द्वार नहीं हैं लेकिन उसके द्वारपाल जरुर हैं।

मन का द्वारपाल संकल्प विकल्प हैं।

बुद्धिका द्वारपाल निर्णायक बुद्धि और अनिर्णायक बुद्धि हैं।

मनको स्थिर करनेके लिये निर्णायक बुद्धिका द्वार खोलना चाहिये। मनमें जो हैं उसे विचारमें व्यक्त करना चाहिये। जो विचारमें हैं वहीं उच्चार में आ जाय और जो उच्चार – वाणी में आ जाय वह आचरणमें आना चाहिये।  ऐसी स्थितिमें अगर कोई गुरुका हाथ मिल जाय – गुरु प्रसाद मिल जाय तो बुद्धि नर्तन करने लगती हैं। गुरु का ऐसा प्रसाद सबको बांटना चाहिये, अपने पास न रखकर त्याग करना चाहिये। इसीलिये ध्यानका भूषण त्याग कहा गया हैं। और ऐसा प्रसाद बांटनेके बाद बांटनेका अहंकार शून्य हो जाना चाहिये।

 

कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।

तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।

ब्राह्मण, सुथार, सुनार और दरजी की कहानी – सुथार वृक्षको काटकर लकडेकी एक मूर्ति बनाता हैं, उस मूर्तिको दरजीने कपडे पहनाये, सुनार – सोनी ने आभूषण बनाकर पहनाया, ब्राह्मणने मंत्रोचार करके उस मूर्तिमें प्राण का संचार किया। अब उस मूर्तिका मालिक कौन उसकी चर्चा चली, संघर्ष पेदा हुआ। तब एक मार्गी साधु यह संघर्षका सुझाव देता हैं और कहता हैं कि उस मूर्तिको हि उसका निर्णय करने दो। तब वह प्राणवान मूर्ति कहति हैं कि मैं तो वृक्षकी हुं ओर किसीकी नहीं हुं।

मोक्षको महत्व दो लेकिन मोक्षका ममत्व न दो।

 

न मोक्षस्याकांक्षा भवविभववांछापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥

अरथ    धरम    काम  रुचि  गति    चहउँ  निरबान।

जनम-जनम  रति  राम  पद  यह  बरदानु    आन॥204॥

 

मुझे    अर्थ  की  रुचि  (इच्छा)  है,    धर्म  की,    काम  की  और    मैं  मोक्ष  ही  चाहता  हूँ।  जन्म-जन्म  में  मेरा  श्री  रामजी  के  चरणों  में  प्रेम  हो,  बस,  यही  वरदान  माँगता  हूँ,  दूसरा  कुछ  नहीं॥204॥

 

गोपाल गोकुल वल्लभे, प्रिय गोप गोसुत वल्लभं ।

चरणारविन्दमहं भजे, भजनीय सुरमुनि दुर्लभं ॥

घनश्याम काम अनेक छवि, लोकाभिराम मनोहरं ।

किंजल्क वसन किशोर मूरति, भूरिगुण करुणाकरं ॥

सिरकेकी पच्छ विलोलकुण्डल, अरुण वनरुहु लोचनं ।

कुजव दंस विचित्र सब अंग, दातु भवभय मोचनं ॥

कच कुटिल सुन्दर तिलक, ब्रुराकामयंक समाननं ।

अपहरण तुलसीदास, त्रास बिहारी बृन्दाकाननं ॥

गोपाल गोकुल वल्लभे, प्रिय गोप गोसुत वल्लभं ।

चरणारविन्दमहं भजे, भजनीय सुरमुनि दुर्लभं ॥

- गोस्वामी तुलसीदास

 

निर्वाणकी चाह – मोक्षकी ईच्छा भी एक बंधन हैं।

रातका भूषण चांद हैं, दिनका भूषण सूर्य हैं, भक्ति का भूषण ज्ञान हैं, ज्ञानका भूषण त्याग हैं, त्यागका भूषण शांति हैं।

शस्त्र और शास्त्र की सार्थकता तब हैं जब वह कृष्णार्पण जो जाय।

समस्याके निवारणके लिये शरणागत बनकर सावधान रहना हैं।

कुल १८ समस्या हैं जिसमें संत भरतको ५ समस्या – १ अपना व्रत भंग, २ समाजमें गेरसमज -निषादके मनमें गेरसमज, ३ ॠषि द्वारा कसोटी, ४ देवता द्वारा विरोध और ५ अपने सगे संबंधी परिवारजन द्वारा विरोध -  आती हैं। संतको लोकमंगलके लिये अपना व्रतका भंग करना चाहिये, व्रत जड नहीं होना चाहिये, प्रवाहमान होना चाहिये।

हनुमंत की ६ समस्या – भूख, रास्ता भूल जाना, मैनाकम सुरसा, सिंहिका, लंकिनी हैं।

राम की ७ समस्या – ताडका, मारीच सुबाहु< परशुराम, सुर्पंखा, खरदूषण,  कबंध, और रावण हैं।

यह १८ समस्या का निवारण १८ मनकेका बेरखा घुमाते घुमाते स्मरण करनेसे हलकी हो जाती हैं, समस्या शृंगार बन जाती हैं।

चितका द्वारपाल

अहंकारका द्वारपाल

 

राम  राम  कहि  राम  कहि  राम  राम  कहि  राम।

तनु  परिहरि  रघुबर  बिरहँ  राउ  गयउ  सुरधाम॥155॥

राम-राम  कहकर,  फिर  राम  कहकर,  फिर  राम-राम  कहकर  और  फिर  राम  कहकर  राजा  श्री  राम  के  विरह  में  शरीर  त्याग  कर  सुरलोक  को  सिधार  गए॥155॥

 

बिलपत  राउ  बिकल  बहु  भाँती।  भइ  जुग  सरिस  सिराति    राती॥

तापस  अंध  साप  सुधि  आई।  कौसल्यहि  सब  कथा  सुनाई॥2॥

 

राजा  व्याकुल  होकर  बहुत  प्रकार  से  विलाप  कर  रहे  हैं।  वह  रात  युग  के  समान  बड़ी  हो  गई,  बीतती  ही  नहीं।  राजा  को  अंधे  तपस्वी  (श्रवणकुमार  के  पिता)  के  शाप  की  याद    गई।  उन्होंने  सब  कथा  कौसल्या  को  कह  सुनाई॥2॥

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Sunday, 11/04/2021

हरि कथा हि ईश्वर हैं। …….. स्वामी अवधेशानंदगिरिजी

रावण वैश्विक समस्या हैं और हनुमानजी वैश्विक समाधान हैं।

परमात्मा समस्या आनेसे पहले उसका समाधान प्रदान करता हैं। प्यास लगनेसे पहले पानी, भूख लगनेसे पहले अन्नका प्रावधान परमात्मा करता हैं।

मा जानकी हनुमानजीको आशीर्वाद देते हुए कहती हैं ….

 

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

 

हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥

मा कभी भी हारती नहीं हैं।

भक्ति – जानकी अपने भक्तको - हनुमानजीको सात्विक आहार लेनेके लिये कहती हैं।

वक्र रोड उपर ड्राईवरकी कसोटी होती हैं।

कुटिलके साथ प्रेम करना चाहिये।

भगवान शंकर वक्र चंद्रको अपने शिर पर धारण करते हैं।

 

श्रुति  सेतु  पालक  राम  तुम्ह  जगदीस  माया  जानकी।

जो  सृजति  जगु  पालति  हरति  रुख  पाइ  कृपानिधान  की॥

जो  सहससीसु  अहीसु  महिधरु  लखनु  सचराचर  धनी।

सुर  काज  धरि  नरराज  तनु  चले  दलन  खल  निसिचर  अनी॥

 

हे  राम!  आप  वेद  की  मर्यादा  के  रक्षक  जगदीश्वर  हैं  और  जानकीजी  (आपकी  स्वरूप  भूता)  माया  हैं,  जो  कृपा  के  भंडार  आपका  रुख  पाकर  जगत  का  सृजन,  पालन  और  संहार  करती  हैं।  जो  हजार  मस्तक  वाले  सर्पों  के  स्वामी  और  पृथ्वी  को  अपने  सिर  पर  धारण  करने  वाले  हैं,  वही  चराचर  के  स्वामी  शेषजी  लक्ष्मण  हैं।  देवताओं  के  कार्य  के  लिए  आप  राजा  का  शरीर  धारण  करके  दुष्ट  राक्षसों  की  सेना  का  नाश  करने  के  लिए  चले  हैं।

मानसमें पाल शब्द …..

सेतु का समनवय जड तत्वको देरे से भी स्वीकार करना पडता हैं।

राम नाम रटनेवाला राम बन जाता हैं।

मानसमें कई पथ्थर ---- हो गये।

राम का ईश्वर सेतु बंध हैं, समाजमें जहां सेतु बंध होता हैं वही रामेश्वर – रामके ईश्वर हैं। ईसीलिये सेतु बंध रामेश्वर कहते हैं।

 

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥

 

निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥

 

जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।

सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।124क।।

 

जिनका नाम जन्म मरण रूपी रोग की [अव्यर्थ] औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरनेवाला है, वे कृपालु श्रीरामजी मुझपर और आपपर सदा प्रसन्न रहें।।124(क)।।

 

जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।

जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥

आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।

तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

 

दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान्‌ को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।

 

इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।

सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥119 क॥

 

मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की। तदनन्तर कृपानिधान श्री रामजी ने सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया॥119 (क)॥

राम कहते हैं कि मैं ने सेतु बांधा हैं।

 

मारुत सुत मैं कपि हनूमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।4।

 

[भरतजीने पूछा-] हे तात ! तुम कौन हो ? और कहाँ से आये हो ? [जो] तुमने मुझको [ये] परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द देने वाले वचन सुनाये [हनुमान् जी ने कहा-] हे कृपानिधान ! सुनिये; मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ; मेरा नाम हनुमान् है।।4।।

 

धरे मनोहर मनुज सरीरा।।

 

चालीसा का अर्थ हैं – चा का अर्थ चाहत हैं, ली का अर्थ लीन हो जाना हैं और सा का अर्थ साक्षात्कार हैं।

 

अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।

कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।

 

उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गये और सबसे [एक ही साथ] यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियों को शोकसे रहित कर दिया।।3।।

 

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग  सीतासमारोपितवामभागम्‌।

पाणौ  महासायकचारुचापं  नमामि  रामं  रघुवंशनाथम्‌॥3॥

 

नीले  कमल  के  समान  श्याम  और  कोमल  जिनके  अंग  हैं,  श्री  सीताजी  जिनके  वाम  भाग  में  विराजमान  हैं  और  जिनके  हाथों  में  (क्रमशः)  अमोघ  बाण  और  सुंदर  धनुष  है,  उन  रघुवंश  के  स्वामी  श्री  रामचन्द्रजी  को  मैं  नमस्कार  करता  हूँ॥3॥

 

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहिं जनं।।

अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।

 

हे राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी ! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।

 

दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।

रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।

 

हे दस सिर और बीस भुजाओंवाले रावणका विनाश करके पृथ्वीके सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीरामजी ! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपको बाणरूपी अग्नि के प्रचण्ड तेजसे भस्म हो गये।।2।।

 

महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।

मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।

 

आप पृथ्वी मण्डल के अत्यन्त आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुश और तरकस धारण किये हुए हैं। महान् मद मोह और ममतारूपी रात्रिके अन्धकार समूहके नाश करनेके लिये आप सूर्य तेजोमय किरणसमूह हैं।।3।।

 

मनजात किरात निपातकिए। मृग लोक कुभोग सरेन हिए।।

हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।

 

कामदेवरूपी भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ ! हे [पाप-तापका हरण करनेवाले] हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये।।4।।

 

बहुरोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंध्रि निरादर के फल ए।।

भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।

 

लोग बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे अथाह भव सागर में पड़े रहते हैं।।5।।

 

अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं।।

अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।

 

जिन्हें आपके चरणकमलोंमें प्रीति नहीं है, वे नित्य ही अत्यन्त दीन, मलीन (उदास) और दुखी रहते हैं। और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं।।6।।

 

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।

 

मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति और आपके भक्तोंका सत्संग सदा प्रात हो। हे लक्ष्मीपते ! हर्षित होकर मुझे यही दीजिये।

…..

 

 

हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥

 

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥

 

 

सत्य एकवचन हैं, प्रेम द्वि वचन हैं – प्रेम में दो चाहिये, करुणा बहु वचन हैं। करुणा सब जगह सब पर बरसती हि रहती हैं।

 

 

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

 

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

 

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।