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Wednesday, March 22, 2023

માનસ ગૌરી સ્તુતિ - 914

 

રામ કથા - 914

માનસ ગૌરી સ્તુતિ

નવસારી, ગુજરાત

બુધવાર, તારીખ 22/03/2023 થી ગુરુવાર, તારીખ 30/03/2023

મુખ્ય ચોપાઈ

जय जय गिरिबरराज किसोरीजय महेस मुख चंद चकोरी

 जय गजबदन षडानन माताजगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

 

 

1

Wednesday, 22/03/2023

 

जय जय गिरिबरराज किसोरीजय महेस मुख चंद चकोरी

 जय गजबदन षडानन माताजगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

 

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की 

(ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले 

स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥

આ કથાના યજમાન પરિવારમાં સેવા, સમર્પણ અને સ્મરણ છે.

રામ ચરિત માનસ સ્વયં જગદંબા છે.

જો સમ – સમતા, સંતોષ, દયા અને વિવેક આવે તો ઘણા પ્રશ્નો હલ થઈ જાય.

રામ ચરિત માનસનો આશ્રય કરવાથી પુરુષત્વ અને પુરુષાર્થ – ઉત્સાહ પ્રાપ્ત થાય છે.


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Thursday, 23/03/2023

 

સ્તુતિના ૮ લક્ષણ છે. આ એક અષ્ટક છે.

       જે દેવની સ્તુતિ કરીએ તે સ્તુતિ વિનય પૂર્વક કરવાની હોય, તેમાં આદેશ ન હોય અને અહંકાર પણ ન હોવો જોઈએ.

       સ્તુતિ પ્રીતિ પ્રધાન હોવી જોઈએ. વિનય પૂર્વક ની હોવી જોઈએ.

 

बिनय प्रेम बस भई भवानीखसी माल मूरति मुसुकानी

 

       સ્તુતિ પ્રેય – પોતાના સ્વાર્થ માટે ન હોવી જોઈએ પણ શ્રેય – બધાના માટે હોવી જોઈએ.

         હવે “સર્વ ભૂત હિતાય” અને “સર્વ ભૂય પ્રીતાય” ની આવશ્યકતા છે.

         આજ ના કાળમાં પ્રદુષણના કારણે રોગ વૃદ્ધિ થઈ છે.

       સ્તુતિ ખુશામત કે કોઈ કામ કઢાવવા માટે ન હોવી જોઈએ.

       સ્તુતિ પવિત્ર ભાવથી કરવી જોઈએ.

       સ્તુતિ દેખાદેખી ન કરવી જોઈએ. સ્ત્તુતિ એ તો આપણી આંતરિક સંપદા છે.

       સ્તુતિ અપેક્ષા મુક્ત હોવી જોઈએ.

       સ્તુતિ નકલી ન હોવી જોઈએ.

 

नहिं तव आदि मध्य अवसानाअमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना

भव भव बिभव पराभव कारिनिबिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

आपका आदि है, मध्य है और अंत हैआपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानतेआप संसार को 

उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैंविश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥

ગુરુ તેના આશ્રિત માટે જ જીવે છે.

વહેમનું જવું એ જ હેમપણું છે.

 

જાનકી એ ગૌરી ની કરેલ સ્તુતિ ……….

 

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्हीचारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही

गई भवानी भवन बहोरीबंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥

तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। 

सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥

 

जय जय गिरिबरराज किसोरीजय महेस मुख चंद चकोरी

जय गजबदन षडानन माताजगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

 

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की 

(ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले 

स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥

 

नहिं तव आदि मध्य अवसानाअमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना

भव भव बिभव पराभव कारिनिबिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

आपका आदि है, मध्य है और अंत हैआपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानतेआप संसार को 

उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैंविश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥

 

3

Friday, 24/03/2023

રામ ચરિત માનસમાં તુલસીદાસજીએ ૩૦ વખત અસ્તુતિ શબ્દ વર્ણવ્યો છે. તુલસીદાસજી સ્તુતિ ની જગાસે અસ્તુતિ શબ્દ પ્રયોગ કરે છે.

અત્યંત સ્તુતિ કરનાર ક્યારેક નિંદા પણ કરે છે, સ્તુતિ અને નિંદા સાપેક્ષ હૈં।

જ્યારે વાણી સત્યને સાંભળે છે ત્યારે સત્ય પણ વાણી ને સાંભળે છે. …….. વિનોબા ભાવે

દિવ્ય વાણીને, નિર્મળ વાણીને સત્ય જેવા શ્રોતા મળે છે.

 

निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।

ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।

 

जिन्हें निन्दा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और 

सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं।।38।।

અસ્તુતિ એને કહેવાય જેમાં નિંદાને સ્થાન નથી.

 

ચંદ્રમુખ, ગજાનન મુખ અને ષડાનન મુખની પ્રસ્તુતિ મુખ્ય ચોપાઈમાં છે.

પૂર્ણ ચંદ્રની ૧૬ કળા હોય છે, ભગવાબન શંકરની પણ ૧૬ કળા છે.

ભગવાન શંકરમાં ભક્તિના નવ પ્રકારની કળા અને જ્ઞાનની સાત ભૂમિકાની ૭ કળા છે જે કુલ ૧૬ કળા છે.

જ્ઞાન એટલે યોગ્ય સમજણ.

સમજના સાત પ્રકાર …….

સુસમજ – યોગ્ય સમજ, જેમ છે તેમ સમજવું.

ગેરસમજ – દૂધમાંથી પોરા કાઢવા જેવી સમજ, પોરામાંથી દૂધ કાઢવા જેવી સમજ.

સમ્યક સમજ – આ ભગવાન બુદ્ધ ની વ્યાખ્યા છે.

હદ કરતાં વધે તેને ઝેર કહેવાય.  સ્વમી વિવેકાનંદ

સમજ્યા છતાં વિરોધ કરવાની વૃત્તિ જેવી સમજ.

સત્ય જાણવા છતાં તેનો વિરોધ કરવો.

જેને કોઈ સંશય નથી થયો એવી સમજ

 

નવ પ્રકારની ભક્તિ ……….

 

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहींसावधान सुनु धरु मन माहीं

प्रथम भगति संतन्ह कर संगादूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

 

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँतू सावधान होकर सुन और मन में धारण करपहली भक्ति है संतों 

का सत्संगदूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

 

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

 

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर 

मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासापंचम भजन सो बेद प्रकासा

छठ दम सील बिरति बहु करमानिरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

 

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमंर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध हैछठी भक्ति है इंद्रियों 

का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे 

रहना॥1॥

सातवँ सम मोहि मय जग देखामोतें संत अधिक करि लेखा

आठवँ जथालाभ संतोषासपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

 

सातवीं भक्ति है जगत्भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके 

माननाआठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को देखना॥2॥

नवम सरल सब सन छलहीनामम भरोस हियँ हरष दीना

नव महुँ एकउ जिन्ह कें होईनारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

 

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी 

अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का होनाइन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन 

कोई भी हो-॥3॥

ભગવાન શંકરમાં આ નવેય પ્રકારની ભક્તિ છે.

અસ્તુતિ શબ્દ પ્ર્યોગની પંક્તિઓ …………

 

सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर

अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥

 

मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने 

लगेतब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥185॥

 

बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजीगहगहि गगन दुंदुभी बाजी

अस्तुति करहिं नाग मुनि देवाबहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥

 

और सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगेआकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगेनाग, मुनि और 

देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भेंट करने लगे॥4॥

 

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता

माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥

 

दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँवेद और पुराण तुम को माया

गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैंश्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का 

धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट 

हुए हैं॥2॥

अस्तुति करि जाइ भय मानाजगत पिता मैं सुत करि जाना

हरि जननी बहुबिधि समुझाईयह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥

 

(माता से) स्तुति भी नहीं की जातीवह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जानाश्री हरि ने माता 

को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं॥4॥

 

पावक सर सुबाहु पुनि माराअनुज निसाचर कटकु सँघारा

मारि असुर द्विज निर्भयकारीअस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥3॥

 

फिर सुबाहु को अग्निबाण माराइधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डालाइस प्रकार श्री 

रामजी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दियातब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे॥3॥

 

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई

अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई

मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई

राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥

 

फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त कीतब अत्यन्त 

निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं 

(सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के 

शत्रु हैंहे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए

रक्षा कीजिए॥2॥

 

प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि

मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥

 

प्रभु आसन पर विराजमान हैंनेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने 

लगे॥3॥

रिषि निकाय मुनिबर गति देखीसुखी भए निज हृदयँ बिसेषी

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदाजयति प्रनत हित करुना कंदा॥2॥

 

ऋषि समूह मुनि श्रेष्ठ शरभंगजी की यह (दुर्लभ) गति देखकर अपने हृदय में विशेष रूप से सुखी हुएसमस्त 

मुनिवृंद श्री रामजी की स्तुति कर रहे हैं (और कह रहे हैं) शरणागत हितकारी करुणा कन्द (करुणा के मूल) प्रभु 

की जय हो!॥2॥

 

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरीअस्तुति करौं कवन बिधि तोरी

महिमा अमित मोरि मति थोरीरबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥

 

मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिएमैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और 

मेरी बुद्धि अल्प हैजैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥1॥

 

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान

अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥20

 

देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैंफिर वे सब स्तुति कर-करके अनेकों विमानों 

पर सुशोभित हुए चले गए॥20 ()॥

 

गीध देह तजि धरि हरि रूपाभूषन बहु पट पीत अनूपा

स्याम गात बिसाल भुज चारीअस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥

 

जटायु ने गीध की देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य

पीताम्बर पहन लिएश्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रों में (प्रेम तथा आनंद के आँसुओं का) जल 

भरकर वह स्तुति कर रहा है-॥1॥

 

पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ीप्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी

केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारीअधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥

 


फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईंप्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा-) मैं किस 

प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ॥1॥

 

तहँ पुनि सकल देव मुनि आएअस्तुति करि निज धाम सिधाए

बैठे परम प्रसन्न कृपालाकहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥

 

फिर वहाँ सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गएकृपालु श्री रामजी परम 

प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मणजी से रसीली कथाएँ कह रहे हैं॥2॥

 

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्हीहरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही

मोर न्याउ मैं पूछा साईंतुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥

 

फिर धीरज धर कर स्तुति कीअपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्जी ने कहा-) हे 

स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी 

वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप 

मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥

 

सोइ रावन कहुँ बनी सहाईअस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई

अवसर जानि बिभीषनु आवाभ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

 

रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) बनी हैमंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसीसमय

अवसर जानकर विभीषणजी आएउन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया॥1॥

 

सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिंअस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं

करि बिनती सुर सकल सिधाएतेही समय देवरिषि आए॥5॥

 

देवता नगाड़े बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैंविनती करके सब देवता चले गए। 

उसी समय देवर्षि नारद आए॥5॥

 

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाएलछिमन कृपासिंधु पहिं आए

सुत बध सुना दसानन जबहींमुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥3॥

 

देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आएरावण ने ज्यों ही 

पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥

 

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्हीदारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही

अब जनि राम खेलावहु एहीअतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥

 

इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे श्री रामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैंअब आप इसे (अधिक) खेलाइए। 

जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥3॥

 

अस्तुति करत देवतन्हि देखेंभयउँ एक मैं इन्ह के लेखें

सठहु सदा तुम्ह मोर मरायलअस कहि कोपि गगन पर धायल॥3॥

 

देवताओं को श्री रामजी की स्तुति करते देख कर रावण ने सोचा, मैं इनकी समझ में एक हो गया, (परन्तु इन्हें यह 

पता नहीं कि इनके लिए मैं एक ही बहुत हूँ) और कहा- अरे मूर्खों! तुम तो सदा के ही मेरे मरैल (मेरी मार खाने 

वाले) होऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाश पर (देवताओं की ओर) दौड़ा॥3॥

 

तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचनाकीन्ही जाइ तिलक की रचना

सादर सिंहासन बैठारीतिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥3॥

 

प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था कीआदर के साथ 

विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥3॥

 

करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि

अति सप्रेम तन पु‍लकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥

 

विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहेतब अत्यंत प्रेम से पुलकित शरीर होकर 

ब्रह्माजी स्तुति करने लगे-- ॥110॥

 

अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस

सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।।112।।

 

छोटे भाई लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित परम कुशल प्रभु श्रीकोसलाधीश की शोभा देखकर देवराज इंद्र मन में 

हर्षित होकर स्तुति करने लगे- ।।112।।

 

तुरत पवनसुत गवनत भयऊतब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ

नाना बिधि मुनि पूजा कीन्हीअस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥

 

पवनपुत्र हनुमान्जी तुरंत ही चल दिएतब प्रभु भरद्वाजजी के पास गएमुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों 

प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया॥2॥

 

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम

बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।12।।

 

सब देवता अलग-अलग स्तुति करके अपनेअपने लोक को चले गयेतब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद 

पहाँ आये जहाँ श्रीरामजी थे।।12()।।

 

सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारीपुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।

जय भगवंत अनंत अनामयअनघ अनेक एक करुनामय।।1।।

 

 

प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे-हे भगवान् आपकी जय होआप 

अन्तरहित, पापरहित अनेक (सब रूपोंमें प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं।।1।

 

बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ

ब्रह्म भवन सनकादिक गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।

 

प्रेमसहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यन्त मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि 

ब्रह्यलोकको गये।।35।।

 

निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज

ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।

 

जिन्हें निन्दा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और 

सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं।।38।।

 

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस

जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।63।।

 

पक्षिराज गरुड़जीने कोमल वचन कहे-आप तो सदा ही कृतार्थरूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने 

आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है।।63()।।

 5

Sunday, 26/03/2023

રામ ચરિત માનસમાં ગૌરી શબ્દ ……….

જાનકી અને ગૌરી એ બંને માતૃ શરીરનાં ત્રણ સ્તર છે – કન્યા સ્તર, નવવધૂ સ્તર અને માતા સ્તર.

જાનકીનાં ત્રણ સ્તર …

જનકસુતા

જગ જનની

અતિસય પ્રિય કરુનાનિધાનની

 

जनकसुता जग जननि जानकीअतिसय प्रिय करुनानिधान की

ताके जुग पद कमल मनावउँजासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

 

राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥

ગૌરીનાં ત્રણ સ્તર ……..

ગિરિવરની રાજ કિશોરી

મહેશની ચંદ્ર ચકોરી

ગણેશ અને ષડાનની માતા

 

जय जय गिरिबरराज किसोरीजय महेस मुख चंद चकोरी

जय गजबदन षडानन माताजगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

 

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥

માતૃ શક્તિ પુત્રી રુપમાં મહદ રુપે પિતાનું વધારે ધ્યાન રાખે, પત્ની રુપમાં પતિનું ધ્યાન રાખે અને  માતૃ રુપમાં સદમાતા પોતાના પુત્રોનું ધ્યાન રાખે.

કોઈ બીજાના જીવનમાં સહાય કરવા દાખલ થઈ શકે પણ તેણે તેના જીવનમાં ડખલ ન કરવી જોઈએ.

 

मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी

 

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली हैमेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी हैप्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगीश्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है

રાધા અને જાનકી આલ્હાદિની શક્તિ છે, તત્વતઃ એક જ છે પણ કાળભેદ, યુગ ભેદ પ્રમાણે અલગ લીલા કરે છે.

રાધા

જાનકી

ત્રેતાયુગ

દ્વાપર યુગ

પ્રેમિકા છે

સેવિકા છે

રાધા લીલા પ્રધાન છે.

જાનકી ચરિત્ર પ્રધાન છે.

વ્રજરાજ રાણી છે.

મહારાણી છે.

ગ્રામ્ય કન્યા છે, ગોપ કન્યા છે.

નાગરી કન્યા છે.

બહું ફર્યા નથી.

વનવાસ દરમ્યાન બહું ફર્યા છે.

ગોપીજન ગોપી તળાવમાં સમાઈ જાય છે.

સીતા પૃથ્વીમાં સમાઈ જાય છે.

રાધાનું અપહરણ નથી થયું. રાધાએ સમર્પણ જ કર્યું છે.

જાનકીનું લીલા માટે અપહરણ થયું છે.

રાધા કૃષ્ણ કરતાં ઊંમરમાં મોટાં છે.

પ્રેમ ધર્મ ઊંચો જ હોય.

સીતા રામ કરતાં નાના છે.

સેવક નાના જ હોય.

 

ગૌરી અને જાનકી વચ્ચેનું સામ્ય

ગૌરી

જાનકી

રાજકુંવરી છે, પહાડ કન્યા છે.

ભૂમિજા છે.

પતિ પ્રત્યે અદ્વિતીય સમર્પણ છે.

પતિ પ્રત્યે અદ્વિતીય સમર્પણ છે.

ગૌરીને બે પુત્રો છે.

જાનકીને પણ બે પુત્રો છે.

પતિવ્રતા ધર્મની આચાર્યા છે.

પતિવ્રતા ધર્મની આચાર્યા છે.

 

વધ અને હત્યામાં ફેર છે, વધ એ વિશ્વ કલ્યાણ માટે લેવાયેલો દુર્ભાગ્યપૂર્ણ નિર્ણય છે જ્યારે હત્યા એ એક યોજના પૂર્વકની ક્રિયા છે.

શક્તિ સ્વરુપા પાસેથી શક્તિ અને શાંતિ બંને મળે.

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Monday, 27/03/2023

વેદમાં સાત મર્યાદાનો અને ગીતામાં સાત વિભૂતિનો ઉલ્લેખ છે.

अथर्ववेद का मंत्र

 

सप्त मर्यादा:

कवयस्ततक्षुस्तासामिदेकामभ्यं हुरो गात् आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरूणेषु तस्थौ आत्म

अनुशासन के लिए वेद हमें सात तरह के व्यवहार के बारे में बताते हैं, जो भी इन सातों अनुशासन के सूत्रों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं उनके लिए जीवन में कुछ भी पाना मुश्किल नहीं रह जाता तथा वे महान लोगों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं

वेदों द्वारा बताई गई सात व्यवहार/मर्यादायें हैं

1. चोरी करना

2. कामुकता से दूर रहना

3. हिंसा से दूर रहना

4. अनावश्यक गर्भपात कराना

5. दुराचार से दूर रहना

6. झूठ बोलना

7. मदिरा आदि का पान करना

માતૃ શરીરની કન્યા રુપે ૩ મર્યાદા, વધૂ રુપે ૨ મર્યાદા અને માતૃ રુપે ૨ મર્યાદા છે.

જગદંબામાં તેના જાગરણની પ્રભા છે.

વેદ પ્રમાણે સાત માર્યાદા …….

માતૃ શરીર કોઈની હત્યા ન કરે, હિંસા ન કરે.

માતૃ શરીર જગ કલ્યાણ માટે વધ કરે, હત્યા અને વધ અલગ છે.

માટ્રુ શરીર નવસર્જન માટે નરસંહાર કરે છે.

માતૃ શરીર કોઈ દિવસ કપટ કે ચોરી ન કરે.

માતૃ  શરીર સંગ્રહ કરે પણ પરિવારના કપરા સમયમાં તેનો સહારો મળે તે માટે કરે.

માટ્રુ શરીર કોઈ દિવસ શીલ/મર્યાદા ન ચૂકે. અપવાદ હોઈ શકે.

માતૃ શરીર પોતાના પાલવથી બીજાને ઢાંકે.

અગ્નિની સાક્ષીએ જોડાણ થાય છે.

સૂર્ય, ચંદ્ર, અગ્નિ વગેરે બાર જણા બધા ઉપત નજર રાખે છે.

 

मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बाराबैठ रहेउँ मैं करत बिचारा

गगन पंथ देखी मैं जातापरबस परी बहुत बिलपाता॥2॥

 

मैं एक बार यहाँ मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा थातब मैंने पराए (शत्रु) के वश में पड़ी बहुत

विलाप करती हुई सीताजी को आकाश मार्ग से जाते देखा था॥2॥

 

राम राम हा राम पुकारीहमहि देखि दीन्हेउ पट डारी

मागा राम तुरत तेहिं दीन्हापट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥3॥

 

हमें देखकर उन्होंने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर वस्त्र गिरा दिया थाश्री रामजी ने उसे माँगा, तब सुग्रीव ने

तुरंत ही दे दियावस्त्र को हृदय से लगाकर रामचंद्रजी ने बहुत ही सोच किया॥3॥

જાનકીનો મંત્ર હરિ છે, રામ નથી.

રામ એ મહામંત્ર છે જે આર્ત સમયે નીકળે છે.

સીતા વસ્ત્ર ફેંકે છે જે એક પટ મર્યાદા છે, પાલવ મર્યાદા છે.

દ્રૌપદીના વસ્ત્રાહરણ વખતે કૃષ્ણ મા બનીને વસ્ત્રથી મર્યાદા નિભાવે છે.

માતૃ શરીર પોતાના સંતાનોને એવા સંસ્કાર અને સમજણ આપે છે જેથી તેમનો અભાવગ્રસ્તતાનો ક્ષોભ ન થાય.

માતૃ શરીર પોતાના વડિલ સામે પ્રત્યક્ષ વાત ન કરે, વડિલ સામે બોલાવાની મર્યાદા જાળવે.

માતૃ શરીર પોતાના મૃત્યુ સુધી મૌન રહી ખાનદાનની મર્યાદા સાચવે.

ગીતાની સાત મર્યાદા ……..

 

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।10.34।।

 

।10.34।। सबका हरण करनेवाली मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उभ्दव मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ

।।10.34।। मैं सर्वभक्षक मृत्यु और भविष्य में होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूँ; स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।।

કીર્તિ – માતૃ શરીરના લીધે જ કીર્તિ ટકે છે.

શ્રી – લક્ષ્મી

વાક્‌ - વાણી

સ્મૃતિ

મેઘા – બુદ્ધિમત્તા

ધીરજ

ક્ષમા

 

धीरज धर्म मित्र अरु नारीआपद काल परिखिअहिं चारी

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीनाअंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥

 

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती हैवृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥

તલગાજરડા – બાપુ અનુસાર સાત મર્યાદા

માતૃ શરીરના કન્યા રુપે ૩ લક્ષણ ………

કન્યાને ખબર હોય છે – વિવેક હોય છે કે કોના ખોળામાં બેસાય.

કન્યા માટે માતાનો ખોળો, પત્ની માટે પતિનો ખોળો અને પૌત્રો માટે દાદાનો ખોળો હોય છે.

આ એક ગોદ વિવેક છે.

દીકરીને ખબર હોય છે કે કોની સાથે રમવું અને કોની સાથે ન રમવું.

વાત વિવેક

માતૃ શરીરનો પત્ની તરીકે નો વિવેક/લક્ષણ

વાણી

વસ્ત્ર – મર્યાદા પ્રમાણે વસ્ત્ર ધારણ કરવાં.

માતૃ શરીરનિ માતૃ શક્તિ પ્રમાણેનો વિવેક/લક્ષણ

ઉદાસીનતા

પરિવારજનોને ખબર ન પડે તેમ મમતા ઓછી કરવી.

 

नहिं तव आदि मध्य अवसानाअमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना

भव भव बिभव पराभव कारिनिबिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

 

आपका आदि है, मध्य है और अंत हैआपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानतेआप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैंविश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥

7

Tuesday, 28/03/2023

જ્યારે કોઈ શબ્દની આગળ શ્રી અક્ષર લાગે છે ત્યારે તેમાં માતૃત્વનું દર્શન થાય છે.

 

उभय बीच श्री सोहइ कैसीब्रह्म जीव बिच माया जैसी

सरिता बन गिरि अवघट घाटापति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥

 

दोनों के बीच में श्री जानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया होनदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामी को पहचानकर सुंदर रास्ता दे देते हैं॥2॥

 

श्री सूक्तम्‌ ॥

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्

चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो वह ॥1॥

 

हे सर्वज्ञ अग्निदेव ! सुवर्ण के रंग वाली, सोने और चाँदी के हार पहनने वाली, चन्द्रमा के समान प्रसन्नकांति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिये आवाहन करो

 

तां वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्

यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥

 

अग्ने ! उन लक्ष्मीदेवी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिये आवाहन करो

 

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्

श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥3॥

 

जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मीदेवी मुझे प्राप्त हों

 

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रांज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्

पद्मेस्थितां पद्मवर्णांतामिहोप ह्वये श्रियम् ॥4॥

 

जो साक्षात ब्रह्मरूपा, मंद-मंद मुसकराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, अपने भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ

 

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्

तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥5॥

 

मैं चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँमेरा दारिद्र्य दूर हो जायमैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ

 

आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः

तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥

 

हे सूर्य के समान प्रकाशस्वरूपे ! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआउसके फल हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्र्य को दूर करें

 

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह

प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥7॥

 

देवि ! देवसखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों अर्थात मुझे धन और यश की प्राप्ति होमैं इस राष्ट्र में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें

 

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्

अभूतिमसमृद्धिं सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥8॥

 

लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन और क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँदेवि ! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को दूर करो

 

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्

ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥9॥

 

जो दुराधर्षा और नित्यपुष्टा हैं तथा गोबर से ( पशुओं से ) युक्त गन्धगुणवती हैंपृथ्वी ही जिनका स्वरुप है, सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ अपने घर में आवाहन करता हूँ

 

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि

पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥10॥

 

मन की कामनाओं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त होगौ आदि पशु एवं विभिन्न प्रकार के अन्न भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश के रूप में श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें

 

कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम

श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥11॥

 

लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैंकर्दम ऋषि ! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्मों की माला धारण करनेवाली माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित करें

 

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे

नि देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥12॥

 

जल स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करेलक्ष्मीपुत्र चिक्लीत ! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मीदेवी का मेरे कुल में निवास करायें

 

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्

चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो वह ॥13॥

 

अग्ने ! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों की माला धारण करनेवाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे यहाँ आवाहन करें

 

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्

सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो वह ॥14॥

 

अग्ने ! जो दुष्टों का निग्रह करनेवाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करनेवाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें

 

तां वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्

यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम् ॥15॥

 

अग्ने ! कभी नष्ट होनेवाली उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, गौएँ, दासियाँ, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें

 

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्

सूक्तं पञ्चदशर्चं श्रीकामः सततं जपेत् ॥16॥

 

जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त का निरन्तर पाठ करे

 

पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि

विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सं नि धत्स्व ॥17॥

 

कमल के समान मुखवाली ! कमलदल पर अपने चरणकमल रखनेवाली ! कमल में प्रीति रखनेवाली ! कमलदल के समान विशाल नेत्रोंवाली ! समग्र संसार के लिये प्रिय ! भगवान विष्णु के मन के अनुकूल आचरण करनेवाली ! आप अपने चरणकमल को मेरे हृदय में स्थापित करें

 

पद्मानने पद्मऊरु पद्माक्षि पद्मसम्भवे

तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥18॥

 

कमल के समान मुखमण्डल वाली ! कमल के समान ऊरुप्रदेश वाली ! कमल के समान नेत्रोंवाली ! कमल से आविर्भूत होनेवाली ! पद्माक्षि ! आप उसी प्रकार मेरा पालन करें, जिससे मुझे सुख प्राप्त हो

 

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने

धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥19॥

 

अर्थअश्वदायिनी, गोदायिनी, धनदायिनी, महाधनस्वरूपिणी हे देवि ! मेरे पास सदा धन रहे, आप मुझे सभी अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करें

 

पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वाश्वतरी रथम्

प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे ॥20॥

 

आप प्राणियों की माता हैंमेरे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, खच्चर तथा रथ को दीर्घ आयु से सम्पन्न करें

 

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः

धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणो धनमश्विना ॥21॥

 

अग्नि, वायु, सूर्य, वसुगण, इन्द्र, बृहस्पति, वरुण तथा अश्विनी कुमारये सब वैभवस्वरुप हैं

 

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा

सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥22॥

 

हे गरुड ! आप सोमपान करेंवृत्रासुर के विनाशक इन्द्र सोमपान करेंवे गरुड तथा इन्द्र धनवान सोमपान करने की इच्छा वाले के सोम को मुझ सोमपान की अभिलाषा वाले को प्रदान करें

 

क्रोधो मात्सर्यं लोभो नाशुभा मतिः

भवन्ति कृतपुण्यानां भक्त्या श्रीसूक्तजापिनाम् ॥23॥

 

भक्तिपूर्वक श्री सूक्त का जप करनेवाले, पुण्यशाली लोगों को क्रोध होता है, ईर्ष्या होती है, लोभ ग्रसित कर सकता है और उनकी बुद्धि दूषित ही होती है

 

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे

भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्र सीद मह्यम् ॥24॥

 

कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करनेवाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होनेवाली, भगवान विष्णु की प्रिया लावण्यमयी तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली हे भगवति ! मुझपर प्रसन्न होइये

 

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्

लक्ष्मीं प्रियसखीं भूमिं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥25॥

 

भगवान विष्णु की भार्या, क्षमास्वरूपिणी, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युतवल्लभा, भूदेवी भगवती लक्ष्मी को मैं नमस्कार करता हूँ

 

महालक्ष्म्यै विद्महे विष्णुपत्न्यै धीमहि

तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥26॥

 

हम विष्णु पत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैंवे लक्ष्मीजी सन्मार्ग पर चलने के लिये हमें प्रेरणा प्रदान करें

 

आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः

ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः ॥27॥

 

पूर्व कल्प में जो आनन्द, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत नामक विख्यात चार ऋषि हुए थेउसी नाम से दूसरे कल्प में भी वे ही सब लक्ष्मी के पुत्र हुएबाद में उन्हीं पुत्रों से महालक्ष्मी अति प्रकाशमान शरीर वाली हुईं, उन्हीं महालक्ष्मी से देवता भी अनुगृहीत हुए

 

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः

भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥28॥

 

ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदिये सभी मेरी बाधाएँ सदा के लिये नष्ट हो जाएँ

 

श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते

धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥29॥

 

भगवती महालक्ष्मी मानव के लिये ओज, आयुष्य, आरोग्य, धन-धान्य, पशु, अनेक पुत्रों की प्राप्ति तथा सौ वर्ष के दीर्घ जीवन का विधान करें और मानव इनसे मण्डित होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करे

 

ऋग्वेद वर्णित श्री सूक्त सम्पूर्ण

 

श्री सूक्तम માં મા જગદંબાને હેમવર્ણી, ગૌરવર્ણી, ગૌરી કહી છે.

બધાની જનેતા સોનાની જ હોય છે.

પોતાના સ્વભાવથી વિરુદ્ધ કાર્ય કરવા જતાં ઓગળી જવાય, ડૂબી જવાય, તણાઈ જવાય.

 

बिषई  साधक  सिद्ध  सयाने।  त्रिबिध  जीव  जग  बेद  बखाने

राम  सनेह  सरस  मन  जासू।  साधु  सभाँ  बड़  आदर  तासू॥2॥

 

विषयीसाधक  और  ज्ञानवान  सिद्ध  पुरुषजगत  में  तीन  प्रकार  के  जीव  वेदों  ने  बताए  हैं।  इन  तीनों  

में  जिसका  चित्त  श्री  रामजी  के  स्नेह  से  सरस  (सराबोररहता  हैसाधुओं  की  सभा  में  उसी  का  बड़ा  

आदर  होता  है॥2॥

જગદંબા કન્યારુપમાં દીકરી તરીકે સાધક છે.

દીકરી જ્યારે કન્યા રુપમાં હોય છે ત્યારે સાધક છે.

પાર્વતીનું કન્યાકાળ દરમ્યાનનું તપ સાધકનું ઉદાહરણ છે.

યુવાનોએ જ્ઞાનનો કોઈ દિવસ અનાદર ન કરવો, શ્રદ્ધાનો કોઈ વિકલ્પ નથી એવો દ્રઢ ભરોંસો રાખવો અને

પોતાના સામર્થ્યનો જગર માટે વહેંચવો જોઈએ.

સહજ પ્રસન્નતા આવે એવો માર્ગ સ્વીકારવો.

બાપુની પ્રતિક્ષા જેટલી બને તેટલી કથા ગાન કરવાની, સંવાદ કરવાની અને બીજા જન્મમાં કૈલાશની કથા કરવાની છે.

જે ઘડીએ આનંદ, પરમાનંદ, બ્રહ્માનંદ ની અનુભૂતી થાય તે ઘડી એ રામ જન્મની ઘડી છે.

હવા ચાલતી હોય અને છતાંય દીવો ઝળહળે તે જ સાધના છે.

માળા હોય પણ સ્મરણ ન હોય, આસન હોય પણ ધ્યાન ન હોય, ગ્રંથ હોય પણ ગ્રંથી ન છૂટે, એકાન્ત હોય પણ એકાગ્રતા ન હોય તેનો કોઈ અર્થ નથી.

જો આપણી પાસે માળા હશે તો તે માળા કોઈક દિવસ સ્મરણ સુધી લઈ જશે.

માતૃત્વ એ સિદ્ધપણું છે.

પત્નીવ્રતા કાળ એ વિષયીપણું છે.

 

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

 

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की 

(ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले 

स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥

 

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

 

आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को 

उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥

 

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥

सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥

गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। 

सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे 

बोलीं-॥3॥

 8

Wednesday, 29/03/2023

 

 

दुर्गा सूक्तम्

ॐ ॥ जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑ मरातीय॒तो निद॑हाति॒ वेदः॑ ।

स नः॑ पर्-ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिन्धुं॑ दुरि॒ताऽत्य॒ग्निः ॥

 

ताम॒ग्निव॑र्णां तप॑सा ज्वलं॒तीं वै॑रोच॒नीं क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा᳚म् ।

दु॒र्गां दे॒वीग्ं शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॑ नमः॑ ॥

 

ॐ का॒त्या॒य॒नाय॑ वि॒द्महे॑ कन्यकु॒मारि॑ धीमहि । तन्नो॑ दुर्गिः प्रचो॒दया᳚त् ॥

 

ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥

 

પૂર્ણ રુપે જેનું ભાષાંતર ન થઈ શકે તે જ વેદ કહેવાય.

 

सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥

भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥

 

वशिष्ठजी ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए॥3॥

નામકરણની ચોપાઈ

 

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

 

ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥

 

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥

 

जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है॥4॥

 

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।

गुरु बसिष्ठछ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥

 

जो शुभ लक्षणों के धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठाजी ने उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठन नाम रखा है॥197॥

 

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥

मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥

 

गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥

રામ નામ લેવાની સાથે સાથે જગતનું પોષણ કરવાથી આપણા આંતરિક શત્રુ જેવા કે કામ, ક્રોધ વગેરેનો નાશ થાય છે તેમજ ઘરકામમાંથી નિવૃત્તિ મળે છે.

જેનું ચરિત્ર નિર્માણ થાય તેની જ કથા થાય,

નિંદા સહન કરી લેવી એ પણ તપ છે.