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Saturday, June 17, 2023

માનસ કર્ણપ્રયાગ - 919

 

રામ કથા- 919

માનસ કર્ણપ્રયાગ

ઉત્તરાખંડ

શનિવાર તારીખ 17/06/2023 થી રવિવાર તારીખ 25/06/2023

કેન્દ્રીય વિચારની પંક્તિ

जिन्ह  के  श्रवन  समुद्र  समाना। 

कथा  तुम्हारि  सुभग  सरि  नाना॥

भरहिं  निरंतर  होहिं    पूरे। 

तिन्ह  के  हिय  तुम्ह  कहुँ  गुह  रूरे॥

 

1

Saturday, 17/06/2023

सुनहु  राम  अब  कहउँ  निकेता।  जहाँ  बसहु  सिय  लखन  समेता॥

जिन्ह  के  श्रवन  समुद्र  समाना।  कथा  तुम्हारि  सुभग  सरि  नाना॥2॥

 

हे  रामजी!  सुनिए,  अब  मैं  वे  स्थान  बताता  हूँ,  जहाँ  आप,  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  समेत  निवास  कीजिए।  जिनके  कान  समुद्र  की  भाँति  आपकी  सुंदर  कथा  रूपी  अनेक  सुंदर  नदियों  से-॥2॥

 

भरहिं  निरंतर  होहिं    पूरे।  तिन्ह  के  हिय  तुम्ह  कहुँ  गुह  रूरे॥

लोचन  चातक  जिन्ह  करि  राखे।  रहहिं  दरस  जलधर  अभिलाषे॥3॥

 

निरंतर  भरते  रहते  हैं,  परन्तु  कभी  पूरे  (तृप्त)  नहीं  होते,  उनके  हृदय  आपके  लिए  सुंदर  घर  हैं  और  जिन्होंने  अपने  नेत्रों  को  चातक  बना  रखा  है,  जो  आपके  दर्शन  रूपी  मेघ  के  लिए  सदा  लालायित  रहते  हैं,॥3॥

परी को पंख होती हैं, और उपरी (उपरी अधिकारीको) को आंख होती हैं जो सब पर नजर रखता हैं।

कर्ण का पर्याय श्रवण हैं, श्रवण जो कर्ण – कान नाम की ईद्रीय हैं।

 कर्ण नाम हैं और श्रावण क्रिया हैं।

हमारा कान कर्णप्रयाग हैं। हमें कर्ण – कान को प्रयाग बनाना हैं।

कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग की बात सुननी चाहिये। कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग श्रवण से हि होती हैं।

श्रवण एक परम विज्ञान हैं।

 

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। )

 

कर्ण एक छिद्र हैं और यह ऐसा छिद्र हैं जो हमें अछिद्र बना देता हैं।

गुरु अछिद्र की चाबी देता हैं।

स्थुल ब्रह्म के आठ हाथ हैं।

सुक्ष्म ब्रह्म के छर हाथ है जो विष्णु हैं।

परापर ब्रह्म राम हैं जिस के दो हाथ हैं।

 

श्रुति  सेतु  पालक  राम  तुम्ह  जगदीस  माया  जानकी।

जो  सृजति  जगु  पालति  हरति  रुख  पाइ  कृपानिधान  की॥

जो  सहससीसु  अहीसु  महिधरु  लखनु  सचराचर  धनी।

सुर  काज  धरि  नरराज  तनु  चले  दलन  खल  निसिचर  अनी॥

 

हे  राम!  आप  वेद  की  मर्यादा  के  रक्षक  जगदीश्वर  हैं  और  जानकीजी  (आपकी  स्वरूप  भूता)  माया  हैं,  जो  कृपा  के  भंडार  आपका  रुख  पाकर  जगत  का  सृजन,  पालन  और  संहार  करती  हैं।  जो  हजार  मस्तक  वाले  सर्पों  के  स्वामी  और  पृथ्वी  को  अपने  सिर  पर  धारण  करने  वाले  हैं,  वही  चराचर  के  स्वामी  शेषजी  लक्ष्मण  हैं।  देवताओं  के  कार्य  के  लिए  आप  राजा  का  शरीर  धारण  करके  दुष्ट  राक्षसों  की  सेना  का  नाश  करने  के  लिए  चले  हैं।

 

राम  सरूप  तुम्हार  बचन  अगोचर  बुद्धिपर।

अबिगत  अकथ  अपार  नेति  नेति  नित  निगम  कह।126॥

 

हे  राम!  आपका  स्वरूप  वाणी  के  अगोचर,  बुद्धि  से  परे,  अव्यक्त,  अकथनीय  और  अपार  है।  वेद  निरंतर  उसका  'नेति-नेति'  कहकर  वर्णन  करते  हैं॥126॥ 

 2

Sunday, 18/06/2023

श्रवण विधा नहीं हैं लेकिन विद्या हैं, विज्ञान हैं।

वक्ता अपने वकतव्य की आड में सुनता हैं।

भगवान राम भरत को पादूका देते हैं। यह पादूका कहां से आयी?

पादूका आध्यात्म वस्तु हैं जो कृपा से मिलती हैं।

भरत जब भगवान राम को मिलने के लिये जाते हैं तब राज्याभिषेकी सब सामग्री साथ में लेके जाते हैं और यह सामग्री में रत्नजडीत पादूका भी थी।

राज्याभिषेक के समय पादूका दी जाती हैं।

 

भरत  सील  गुर  सचिव  समाजू।  सकुच  सनेह  बिबस  रघुराजू॥

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2॥

 

इधर  तो  भरतजी  का  शील  (प्रेम)  और  उधर  गुरुजनों,  मंत्रियों  तथा  समाज  की  उपस्थिति!  यह  देखकर  श्री  रघुनाथजी  संकोच  तथा  स्नेह  के  विशेष  वशीभूत  हो  गए  (अर्थात  भरतजी  के  प्रेमवश  उन्हें  पाँवरी  देना  चाहते  हैं,  किन्तु  साथ  ही  गुरु  आदि  का  संकोच  भी  होता  है।)  आखिर  (भरतजी  के  प्रेमवश)  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कृपा  कर  खड़ाऊँ  दे  दीं  और  भरतजी  ने  उन्हें  आदरपूर्वक  सिर  पर  धारण  कर  लिया॥2॥

 

चरनपीठ  करुनानिधान  के।  जनु  जुग  जामिक  प्रजा  प्रान  के॥

संपुट  भरत  सनेह  रतन  के।  आखर  जुग  जनु  जीव  जतन  के॥3॥

 

करुणानिधान  श्री  रामचंद्रजी  के  दोनों  ख़ड़ाऊँ  प्रजा  के  प्राणों  की  रक्षा  के  लिए  मानो  दो  पहरेदार  हैं।  भरतजी  के  प्रेमरूपी  रत्न  के  लिए  मानो  डिब्बा  है  और  जीव  के  साधन  के  लिए  मानो  राम-नाम  के  दो  अक्षर  हैं॥3॥

अप्रिय सत्य सत्या की मात्रा घटा देता हैं।

बुद्ध पुरुष सात्य पुरुष हैं, परम पुरुष हैं।
जिसकी बानी पद प्रतिष्ठा के लिये न हो लेकिन परोपकार के लिये, परहित के लिये, विश्वमंगल के लिये हो उसकी बानी अकथ्य नहीं हो शकती हैं, फगती नहीं हैं।

जिस की बानी में बुद्धि की मलिनता न हो उसकी बानी फलती नहीं हैं।

जिस की बुद्धि में भेद बुद्धि न हो उसकी बानी फगती नहीं हैं।

व्यभिचारिणी भक्ति हमारी बुद्धि को मलिन करती हैं।

जिसकी बुद्धिमें अहंकार आ गया हो उसकी बुद्धि मलिन हो जाती हैं।

जिस की बानी स्पर्धा के लिये न हो और जिस की बानीमें गुणातित श्रद्धा हो उसकी बानी फगती नहीं हैं।

जिसकी बानी सहज हो उसकी बानी फगती नहीं हैं।

अप्रिय प्रारब्ध सद्‍गुरु मिटा शकता हैं, ग्रंथ मिटा शकता हैं कयों की ग्रंथ भी सदगुरु हैं।

सुबह में ऊठते समय नाम स्मरण से स्मृति बढती हैं, दोपहर के भोजन के समय  नाम स्मरण से शक्ति मिलती हैं और रातको सोने से पहले नाम स्मरण से शांति मिलती हैं।

सत्य धारदार नहीं हैं लेकिन तेजस्वी हैं जो शांति प्रदान करती हैं।

2

Sunday, 18/06/2023

श्रवण विधा नहीं हैं लेकिन विद्या हैं, विज्ञान हैं।

वक्ता अपने वकतव्य की आड में सुनता हैं।

भगवान राम भरत को पादूका देते हैं। यह पादूका कहां से आयी?

पादूका आध्यात्म वस्तु हैं जो कृपा से मिलती हैं।

भरत जब भगवान राम को मिलने के लिये जाते हैं तब राज्याभिषेकी सब सामग्री साथ में लेके जाते हैं और यह सामग्री में रत्नजडीत पादूका भी थी।

राज्याभिषेक के समय पादूका दी जाती हैं।

 

भरत  सील  गुर  सचिव  समाजू।  सकुच  सनेह  बिबस  रघुराजू॥

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2॥

 

इधर  तो  भरतजी  का  शील  (प्रेम)  और  उधर  गुरुजनों,  मंत्रियों  तथा  समाज  की  उपस्थिति!  यह  देखकर  श्री  रघुनाथजी  संकोच  तथा  स्नेह  के  विशेष  वशीभूत  हो  गए  (अर्थात  भरतजी  के  प्रेमवश  उन्हें  पाँवरी  देना  चाहते  हैं,  किन्तु  साथ  ही  गुरु  आदि  का  संकोच  भी  होता  है।)  आखिर  (भरतजी  के  प्रेमवश)  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कृपा  कर  खड़ाऊँ  दे  दीं  और  भरतजी  ने  उन्हें  आदरपूर्वक  सिर  पर  धारण  कर  लिया॥2॥

 

चरनपीठ  करुनानिधान  के।  जनु  जुग  जामिक  प्रजा  प्रान  के॥

संपुट  भरत  सनेह  रतन  के।  आखर  जुग  जनु  जीव  जतन  के॥3॥

 

करुणानिधान  श्री  रामचंद्रजी  के  दोनों  ख़ड़ाऊँ  प्रजा  के  प्राणों  की  रक्षा  के  लिए  मानो  दो  पहरेदार  हैं।  भरतजी  के  प्रेमरूपी  रत्न  के  लिए  मानो  डिब्बा  है  और  जीव  के  साधन  के  लिए  मानो  राम-नाम  के  दो  अक्षर  हैं॥3॥

अप्रिय सत्य सत्या की मात्रा घटा देता हैं।

बुद्ध पुरुष सात्य पुरुष हैं, परम पुरुष हैं।
जिसकी बानी पद प्रतिष्ठा के लिये न हो लेकिन परोपकार के लिये, परहित के लिये, विश्वमंगल के लिये हो उसकी बानी अकथ्य नहीं हो शकती हैं, फगती नहीं हैं।

जिस की बानी में बुद्धि की मलिनता न हो उसकी बानी फलती नहीं हैं।

जिस की बुद्धि में भेद बुद्धि न हो उसकी बानी फगती नहीं हैं।

व्यभिचारिणी भक्ति हमारी बुद्धि को मलिन करती हैं।

जिसकी बुद्धिमें अहंकार आ गया हो उसकी बुद्धि मलिन हो जाती हैं।

जिस की बानी स्पर्धा के लिये न हो और जिस की बानीमें गुणातित श्रद्धा हो उसकी बानी फगती नहीं हैं।

जिसकी बानी सहज हो उसकी बानी फगती नहीं हैं।

अप्रिय प्रारब्ध सद्‍गुरु मिटा शकता हैं, ग्रंथ मिटा शकता हैं कयों की ग्रंथ भी सदगुरु हैं।

सुबह में ऊठते समय नाम स्मरण से स्मृति बढती हैं, दोपहर के भोजन के समय  नाम स्मरण से शक्ति मिलती हैं और रातको सोने से पहले नाम स्मरण से शांति मिलती हैं।

सत्य धारदार नहीं हैं लेकिन तेजस्वी हैं जो शांति प्रदान करती हैं।

3

Monday, 19/06/2023

वाल्मीकि ॠषि कहते हें कि हे राम जिसके श्रवण समुद्र समान हैं ऐए श्रोताका ह्मदय आपका घर हैं।

निंदा रुपी बहन हमारे कानमें घुसकर हमें श्रवण नहीं करने देती हैं।

हमारे कानको भद्र – सत्य, स्गुद्ध सत्य सुनना चाहिये।

अगर हम कानको स्वच्छ नहीं रखेगे तो कानमें मेल भर जायेगा। औए मल श्रवण विद्या का बाधक हैं।

कनकी औकात से ज्यादा मात्राकी आवाज बाधक हैं, हदसे ज्यादा तीव्र आवाज भी बाधक हैं।

कानमें पानी भर जानेसे कम सुनाई देता हैं।

बुढापेमें कान कम सुनते हैं।

अगर हम कर्ण वेध करते हैं तो उससे श्वास कम चढता हैं।

विधा एक पद्धति हैं जो बंधन भी हैं। जब की श्रवण विद्या बंधन नहीं हैं, और श्रवण विद्या मुक्ति देती हैं।

कर्ण कर्म योग हैं, विकर्ण ज्ञान योग हैं और कुंभकर्ण भक्ति योग हैं।

कुंभकर्ण में भक्ति योग होनेसे वह कहता हैं कि ……..

 

सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥

धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥4॥

 

(कुंभकर्ण ने कहा-) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥4॥

 

बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥5॥

 

हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥5॥

भक्ति में जिसको रुची हो वहीं भजन करनेके लिये कह शकता हैं।

विकर्ण में ज्ञान योग होनेसे वह समज गया कि यह सभामें बैठना नहीं चाहिये, यह उसके विवेककी ज्ञान धारा हैं।

 

सचिव  सत्य  श्रद्धा  प्रिय  नारी।  माधव  सरिस  मीतु  हितकारी॥

चारि  पदारथ  भरा  भँडारू।  पुन्य  प्रदेस  देस  अति  चारू॥2॥

 

उस  राजा  का  सत्य  मंत्री  है,  श्रद्धा  प्यारी  स्त्री  है  और  श्री  वेणीमाधवजी  सरीखे  हितकारी  मित्र  हैं।  चार  पदार्थों  (धर्म,  अर्थ,  काम  और  मोक्ष)  से  भंडार  भरा  है  और  वह  पुण्यमय  प्रांत  ही  उस  राजा  का  सुंदर  देश  है॥2॥

 

छेत्रु  अगम  गढ़ु  गाढ़  सुहावा।  सपनेहुँ  नहिं  प्रतिपच्छिन्ह  पावा॥

सेन  सकल  तीरथ  बर  बीरा।  कलुष  अनीक  दलन  रनधीरा॥3॥

 

प्रयाग  क्षेत्र  ही  दुर्गम,  मजबूत  और  सुंदर  गढ़  (किला)  है,  जिसको  स्वप्न  में  भी  (पाप  रूपी)  शत्रु  नहीं  पा  सके  हैं।  संपूर्ण  तीर्थ  ही  उसके  श्रेष्ठ  वीर  सैनिक  हैं,  जो  पाप  की  सेना  को  कुचल  डालने  वाले  और  बड़े  रणधीर  हैं॥3॥ 

 

संगमु  सिंहासनु  सुठि  सोहा।  छत्रु  अखयबटु  मुनि  मनु  मोहा॥

चवँर  जमुन  अरु  गंग  तरंगा।  देखि  होहिं  दुख  दारिद  भंगा॥4॥

 

((गंगा,  यमुना  और  सरस्वती  का)  संगम  ही  उसका  अत्यन्त  सुशोभित  सिंहासन  है।  अक्षयवट  छत्र  है,  जो  मुनियों  के  भी  मन  को  मोहित  कर  लेता  है।  यमुनाजी  और  गंगाजी  की  तरंगें  उसके  (श्याम  और  श्वेत)  चँवर  हैं,  जिनको  देखकर  ही  दुःख  और  दरिद्रता  नष्ट  हो  जाती  है॥4॥ 

ईश्वर कान द्वारा हमारेमें प्रवेश करता हैं।

राम सत्य पुतुष हैं।

भरत प्रेम पुरुष हैं।

शिवजी करुणा पुरुष हैं।

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।

नकशा न लो, नौका भी न लो सिर्फ नाम लो – हरि नाम लो।

4

Tuesday, 20/06/2023

भगवान की कथा अशुभ प्रारब्ध बदल देती हैं।

अहल्या में धैर्य हैं, शबरी में प्रतिक्षा हैं।

जिसका सरल चहरा हो, निर्दोष आंखे हो, सरल स्वभाव हो, कोइ अहंकार न हो, किसीका कभी भी विश्वासभंग न किया हो उसकी कथा सुनो।

 

सचिव  सत्य  श्रद्धा  प्रिय  नारी।  माधव  सरिस  मीतु  हितकारी॥

चारि  पदारथ  भरा  भँडारू।  पुन्य  प्रदेस  देस  अति  चारू॥2॥

 

उस  राजा  का  सत्य  मंत्री  है,  श्रद्धा  प्यारी  स्त्री  है  और  श्री  वेणीमाधवजी  सरीखे  हितकारी  मित्र  हैं।  चार  पदार्थों  (धर्म,  अर्थ,  काम  और  मोक्ष)  से  भंडार  भरा  है  और  वह  पुण्यमय  प्रांत  ही  उस  राजा  का  सुंदर  देश  है॥2॥

 

छेत्रु  अगम  गढ़ु  गाढ़  सुहावा।  सपनेहुँ  नहिं  प्रतिपच्छिन्ह  पावा॥

सेन  सकल  तीरथ  बर  बीरा।  कलुष  अनीक  दलन  रनधीरा॥3॥

 

प्रयाग  क्षेत्र  ही  दुर्गम,  मजबूत  और  सुंदर  गढ़  (किला)  है,  जिसको  स्वप्न  में  भी  (पाप  रूपी)  शत्रु  नहीं  पा  सके  हैं।  संपूर्ण  तीर्थ  ही  उसके  श्रेष्ठ  वीर  सैनिक  हैं,  जो  पाप  की  सेना  को  कुचल  डालने  वाले  और  बड़े  रणधीर  हैं॥3॥ 

 

संगमु  सिंहासनु  सुठि  सोहा।  छत्रु  अखयबटु  मुनि  मनु  मोहा॥

चवँर  जमुन  अरु  गंग  तरंगा।  देखि  होहिं  दुख  दारिद  भंगा॥4॥

 

((गंगा,  यमुना  और  सरस्वती  का)  संगम  ही  उसका  अत्यन्त  सुशोभित  सिंहासन  है।  अक्षयवट  छत्र  है,  जो  मुनियों  के  भी  मन  को  मोहित  कर  लेता  है।  यमुनाजी  और  गंगाजी  की  तरंगें  उसके  (श्याम  और  श्वेत)  चँवर  हैं,  जिनको  देखकर  ही  दुःख  और  दरिद्रता  नष्ट  हो  जाती  है॥4॥ 

प्रयाग राजा हैं और राजा के पास ६ वस्तु (सचिव, राणी, अच्छा मित्र, सिंहासन, छत्र, सैन्य, किल्ला) होनी चाहिये।

सत्य सचिव हैं जो सही सलाह देता हैं।

भगवदकथा का संवाद अमूल्य हैं, दुर्लभ हैं।

कथा श्रवण करनेके लिये गुणातित श्रद्धा के साथ जानेसे हमारे कर्ण श्रवण विद्या – कर्ण विज्ञान प्राप्त होगा।

अच्छे मित्र को साथ लेकर कथा श्रवण करनेसे हमें कर्ण विज्ञान प्राप्त होगा।

कथा त्रिवेणी हैं, इसीलिये कथा में संगम के लिये आये।

 सिंहासन उपर छत्र होता हैं। अक्षय वट – अटल विश्वास हि छत्र हैं।

 

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥

 

(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥

 

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।

राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।90क।।

 

बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्तिके बिना श्रीरामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्रीरामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पाता।।90(क)।।

6

Thursday, 22/06/2023

कथा श्रवण भजन हैं।

सप्त समुद्र का उल्लेख हैं।

मैं प्रेम  की भिक्षा देता हुं। …… बापु

वेणुगीत आमंत्रण हैं, निमंत्रण हैं।

प्रणय गीत

गोपी गीत विरहगीत हैं।

युगल गीत

भवर गीत – अलीगीत, अली का अर्थ सखी हैं, भवर हैं।

श्रवण विद्या के सप्त बिंदु हैं।

                  असंग होकर कथा श्रवण करना

                 कथा अदंभ भावसे सुनना,

                 अगेह बनकर कथा सुनना, मेरा कोई घर नहीं हैं ऐसा भाव रखकर कथा श्रवण करना।

 

नाथ जबहिं कोसलपुरीं हो‍इहि तिलक तुम्हार।

कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ।।115।।

 

हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा ।।115।।

 

करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥

नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥

 

जब शिवजी विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले- हे शार्गं धनुष के धारण करने वाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए-॥1॥

 

सकुल सदल प्रभु रावन मार्‌यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्‌यो॥

दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥2॥

 

आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की॥2॥

 

अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जन करिअ समर श्रम छीजे॥

देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥3॥

 

अब हे प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और सम्पत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए॥3॥

 

सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥

सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥

 

हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए। विभीषणजी के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥4॥

आश्रित का कोई घर नहीं होता हैं, अपने गुरु का गृह हि आश्रित का गृह हैं।

                 अनिह बनकर कथा श्रवण करना, कोई भी ईच्छा न रखकर कथा शवण करना।

                 अक्रिय बनकर कथा श्रवण करना। कथा श्रवण दरम्यान ओर कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये, कोई दूसरा विचार भी नहीं करना चाहिये।

                 अहंकार छोडकर कथा श्रवण करनी चाहिये।

                अनिंद के साथ कथा श्रवण करना, जिसका मतलब हैं कि कथा में नींद नही आनी चाहिये और कथा शरव करकर किसी की निंदा नहीं करनी चाहिये।

 

7

Friday, 23/06/2023

 

श्रुतेः शतगुणं विद्यान्मननं मननादपि।

निदिंध्यासं लक्षगुणमनन्तं निर्विकल्पकम्॥ ३६४॥

                                                                                            વિવેકા ચુડામણી - શ્લોક 365

શુદ્ધ સત્ય પર વિચારવું/પ્રતિબિંબિત કરવું (મનન) સાંભળવું (શ્રુતિ) કરતાં સો ગણું (શત ગુણ) સારું છે. પરંતુ પ્રતિબિંબ કરતાં સો હજાર ગણું (લક્ષ ગુણ) વધુ સારું છે ઊંડું ધ્યાન (નિદિધ્યાસ). પણ નિર્વિકલ્પ સમાધિનું મૂલ્ય બધા કરતાં ઘણું ચડિયાતું છે.

શબ્દ માટે શબ્દ અનુવાદ:

શ્રુતેઃ: શ્રુતિ ( શ્રુતિ ) તરીકે

શત-ગુણમ: સો વખત (વધુ સારું, શત - ગુણ )

વિદ્યાત : એક વિચારે છે ("જાણવું", વિડ )

મનનમ : પ્રતિબિંબ, ચિંતન ( મનન )

મનનત: વિચારવું, ચિંતન કરવું

api : પણ ( api )

નિદિધ્યાસમ: ધ્યાન કરનાર ( નિદિધ્યાસ )

લક્ષ-ગુણમ: સો હજાર વખત (વધુ સારું, લક્ષ - ગુણ )

અનંતમ : અનંત (વધુ સારું, અનંત )

નિર્વિકલ્પકમ : અકલ્પિત (શોષણની સ્થિતિ, નિર્વિકલ્પક ) || 365 ||

તે ચાર પગલાં છે. સૌપ્રથમ કરવાનું છે સાંભળવું, સાંભળવું, જેને શ્રુતિ અથવા શ્રવણ પણ કહી શકાય. આ શ્લોકમાં તે શ્રુતિની વાત કરે છે. સાંભળવું મહત્વપૂર્ણ છે. તમે મને સાંભળી રહ્યાં છો, ઉદાહરણ તરીકે, અને તે સારું છે. અથવા તમે વાંચો છો અથવા તમે લેક્ચરમાં જાઓ છો. તમે યોગ વિદ્યા આશ્રમમાં જાઓ અને વેદાંત પરના સેમિનારમાં હાજરી આપો . અમારી પાસે ઘણા છે. અમારી પાસે વિવેકા ચૂડામણિ, તત્વ બોધ , આત્મા બોધ , યોગ વસિષ્ઠ , ઉપનિષદ , અપરોક્ષા અનુભૂતિ પર સેમિનાર છે . સાંભળવું મહત્વપૂર્ણ છે, પરંતુ પૂરતું નથી.

આગળ વિચારવાની બાબત એ છે કે જેને મનના તરીકે પણ ઓળખવામાં આવે છે તેના પર વિચાર કરવોનિયુક્ત. અને તેથી હું આશા રાખું છું કે તમે સાંભળ્યા પછી, તમે તેના વિશે પણ વિચારશો, ફક્ત આગળની વાત સાંભળો નહીં, પરંતુ એક ક્ષણ માટે વિચારો. તે તમારા માટે શું અર્થ છે? બ્રાહ્મણ શું છે ? તમે કોણ છો? અને તમે તેનો અમલ કેવી રીતે કરી શકો?

તેના વિશે વિચારવા કરતાં પણ વધુ સારું છે ઊંડું ધ્યાન , નિદિધ્યાસન . રોજબરોજના જીવનમાં તેના વિશે વિચારવું મહત્વપૂર્ણ છે, પરંતુ તેના પર ઊંડું મનન કરવું તે પણ વધુ મહત્વપૂર્ણ છે. ક્યારેક વેદાંત ધ્યાન પણ કરો. વિડિયો અને ઓડિયો કોર્સ વેદાંત ધ્યાન અને જ્ઞાન યોગ પણ છે, 20 પાઠ જેમાં હું તમને 20 વિવિધ વેદાંત ધ્યાનનો પરિચય કરાવું છું. આ નિદિધ્યાસન તકનીકો તમને વિવેકા ચુડામણિમાં હું અહીં જે વાત કરી રહ્યો છું તેને ઊંડાણપૂર્વક સમજવામાં મદદ કરશે. પરંતુ પછી નિર્વિકલ્પ સમાધિ , જેને અપરોક્ષા અનુભૂતિ અથવા અનુભવ પણ કહેવાય છે, તે દરેક વસ્તુથી શ્રેષ્ઠ છે. ધ્યાનથી સમાધિ આવે છે . નિર્વિકલ્પ સમાધિમાંથી મુક્તિ મળે છે .

 

हमारे पास कान दो हैं  लेकिन श्रवण एक हैं, आंख दो हैं लेकिन दर्शन एक हैं, पांव दो हैं लेकिन यात्रा एक हैं, हाथ दो हैं लेकिन कर्म एक हैं, होठ दो हैं लेकिन शब्द एक हैं।

 

 

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Saturday, 24/06/2023

सुनने योग्य सुनना श्रवण् विद्या हैं।

भगवान् शंकर अष्टमूर्ति हैं।

एक् मूर्ति जल मूर्ति हैं।

जब  कथा श्रवण दरम्यान हमारी आंखमें अश्रु आते हैं तब वह अश्रु भगवान शम्कर कि जल मूर्ति हैं।

हरिनाम की एक कथा जब पूर्ण होती हैं तब हम दूसरू कथा कब शुरु होगी उसका इन्तजार करते हैं, यह इन्तजार एक विरह वेदना हैं जो भगवान शंकर की अग्नि मूर्ति हैं, गो कथाके बिच का समय का विरह अग्नि मूर्ति हैं।

कथा श्रवण दरम्याअन जब एक भीतरी प्रकाश दीखाई दे, भीतरी सूरज का अनुभव हो वह भगवान शंकर की दिन मूर्ति हैं।

रात्रि मूर्त

आकाश मूर्ति – जब हम शून्य हो जाय, विकार समाप्त हो जाय तब वह भगवान शंकर की आकाशमूर्ति हैं।

पृथ्वी मूर्ति – जब हमारे में धैर्य और सहनशीलता आ जाय तब वह भगवान शंकर की पृथ्वी मूर्ति हैं।

यजमान मूर्ति – कथा की यजमानी कैलाशवासी करता हैं, कथा का यजमान महादेव हि हैं। भगवान शंकर जब किसीको कथा का आयोजन करनेके लिये उसे संकेत करते हैं तब हि वह मनुष्य कथा का निमित्त मात्र यजमान बनता हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

सब नदीयां जो सागर में मील जाती हैं उस सब का पानी स्वादु हैं – मीठा हैं खारा नहीं हैं, नमकीन नहीं है, लेकिन सागर खारा हैं। भगवान की कथा समुद्र समान  हैं, भगवान की कथा नमकीन हैं – स्वादु हैं। नमक को साधु गण रामरस कहते हैं।

 

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥

 

हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप - ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।

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Sunday, 25/06/2023

कान समुद्र हैं, मनन करना मंथन हैं जिस से १४ रत्न नीकलते हैं।

 

पेम  अमिअ  मंदरु  बिरहु  भरतु  पयोधि  गँभीर।

मथि  प्रगटेउ  सुर  साधु  हित  कृपासिंधु  रघुबीर॥238॥

 

प्रेम  अमृत  है,  विरह  मंदराचल  पर्वत  है,  भरतजी  गहरे  समुद्र  हैं।  कृपा  के  समुद्र  श्री  रामचन्द्रजी  ने  देवता  और  साधुओं  के  हित  के  लिए  स्वयं  (इस  भरत  रूपी  गहरे  समुद्र  को  अपने  विरह  रूपी  मंदराचल  से)  मथकर  यह  प्रेम  रूपी  अमृत  प्रकट  किया  है॥238॥

प्रेम अमृत हैं।

भरत समुद्र हैं और १४ साल का विरह मंदराचल हैं, जिससे प्रेम अमृत नीकलता हैं।

कथा केवल प्रेम के लिये हि हैं।

मानस के सात सोपान हैं और हरेक सोपान से दो दो रत्न नीकलते हैं।

बालकांड का रत्न सुख प्रदान करता हैं, यह ऐसा सुख हैं जिसमें अंतःकरण सर्वदा सुख पाता हैं जो उपकरण आधारित नहीं हैं।

बालकांड का दूसरा रत्न उत्साह वर्धन हैं।

 

सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।

तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥361॥

 

श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे, उनके लिए सदा उत्साह (आनंद) ही उत्साह है, क्योंकि श्री रामचन्द्रजी का यश मंगल का धाम है॥361॥

ऊमरके कारण ऊर्जा कम होती हैं लेकिन उत्साह कम नहीं होता हैं।

अयोध्याकांड के दो रत्न सीतारामजी के चरणोमें प्रेम और संसार रस की विरक्ति हैं।

अरण्यकांड के दो रत्न

 

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।

भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥46 ख॥

 

युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर और सदा सत्संग कर॥46 (ख)॥

किषकिन्धाकांड के दो रत्न नाम आश्रय और हनुमंत आश्रय हैं।

सुंदरकांड के दो रत्न

लंकाकांड के दो रत्न विजय और विवेक हैं, ऐश्वर्य को भी रत्न कहा हैं।

उत्तरकांड के दो रत्न विज्ञान और भक्ति हैं।

हमें ९ वस्तुका ध्यान रखना हैं।

१ और २ हमें राम भजन और आंतरबाह्य प्रकाशके लिये दो दीप जलाने हैं।

३ और ४ हमें अपने घरमें अपने बुद्ध पुरुष की पादूका रखनी चाहिये। पादूका FURNITURE नहीं हैं लेकिन हमारा FUTURE हैं।

       और ६ हमें कंठमें तुलसी या रुद्राक्ष की माला धारण करनी चाहिये और करमें बेरखा या माला रखनी चाहिये, कंठ और कर माला। ७ और ८ हमें अपने घरमें रामायण और गीता का ग्रंथ रखना चाहिये।

       हमें रामनाम का मंत्र या अपना ईष्ट मंत्र जपना चाहिये।

गुरु पूर्णिमा त्रिभुवनीय दिन हैं।

हमारा शरीर पंच तत्व से बना हैम और गुरु का शरीर भी पंच तत्व से बना हैं, लेकिन गुरु के पंच तत्व का गुणधर्म अलग हैं।

 

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥2॥

 

तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा-) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है॥2॥

पृथ्वी तत्व में कभी भूकंप आता हैं, कभि लावारस भी नीकलता हैं।

लेकिन गुरु परम तत्व हैं जिसमें कभी भी भूकंप नहीं आता हैं, और कभी भी लावा नहीं नीकलेगा। गुरु जैसा धैर्यवान और सहनशील ओर कोई हैं हि नहीं।

 गुरु का जल तत्व उसके अंतःकरण का जल हैं जो निर्मल हैं। गुरु जगत के लिये परिश्रम करता हैं।

गुरु कृपा सिंधु, करुणा सिंधु, बहती गंगा, चलता फिरता तिर्थ हैं। गुरु विरडो हैं।

गुरु का अग्नि तत्व उसका ज्ञानाग्नि हैं जिसमें आश्रित के सब कर्म भस्म हो जाते हैं। गुरु का अग्नि तत्व विरह की अग्नि हैं। यह आअग हमारे लिये शीतल हैं।

वायु मंद, शीतल, सुगंधित होता हैं।

गुरु का वायु तत्व आश्रित की पात्रता अनुसार मंद, मध्यम, तेज चलता हैं।

आश्रित गुरु का सानिध्य गुरु से दूर रहकर भी महसुस करता हैं, और यह सानिध्य एक शांति प्रदान करता हैं।

गुरु शीतलता का रिमोट अपने पास रखता हैं।

गुरु की नुरानी खूश्बु होति हैं, जो DIVINE SMELL हैं।

आकाश तत्व – घटाकाश, मठाकाश

गुरु के पास चिदाकाश होता हैं जो सब को समाविष्ठ करता हैं।

 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।

 

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः

अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्

 

 

महेश से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से उपर कोई सत्य नहीं।

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।