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Friday, December 25, 2020

ભગવ‌દ્‌ ગીતા

 

શ્રી મ‌દ્‌ ભગવદ્‌ ગીતા વિશે મહાપુરુષોના ઉદ્‌ગારો

 

1.    

  1. ગીતાજીમાં તમામ સમસ્યાઓનું સમાધાન છે. જ્યારે હું મુંઝાઈ જતો ત્યારે ગીતા માતા પાસેથી મને સમાધાન મળતું.   ……………….. મહાત્મા ગાંધી
  2. મારું શરીર માતાના દુધથી પોષાયેલું છે પણ તેથીય વિશેષ મારું હ્મદય અને બુદ્ધિ એ બંનેનું પોષણ ગીતા માતાના દૂધથી વધારે થયું છે. ………………… વિનોબા ભાવે
  3. ગીતા એટલે અતિ પ્રેમને લીધે જગદંબાના સ્તનમાંથી જે ધાવણ આવવા લાગ્યું એ સ્તન્ય.  ………………. પ. પૂ. પાંડુરંગ દાદાજી
  4. ભગવાન દેવકીનંદન શ્રીકૃષ્ણે જેનું ગાન કરેલું છે તે ભગવદ્‌ ગીતાજી એ સર્વોપરી શાસ્ત્ર છે. વેદમાં જે સંદેહ રહેતા ત્યાં તે સર્વે સંદેહોનું નિવારણ ભગવદ્‍ ગીતામાં થાય છે. ………… શ્રીવલ્લભાચાર્યજી
  5. શ્રી મદ્‌ ભગવદ્‌ ગીતા એ ઉપનિષદ રૂપી બગીચાઓમાંથી વીણી કાઢેલા આધ્યાત્મિક સત્યોરૂપી પુષ્પોથી ગુંથેલી સુંદર કલગી છે.    ………………. સ્વામી વિવેકાનંદજી

ગીતા જયંતિ ૨૦૨૦

 

  • આજે વિક્રમ સંવત ૨૦૭૭,  માગશર સુદ એકાદશી – મોક્ષદા એકાદશી, શુક્રવાર, તારીખ ૨૫ ડિસેમ્બર, ૨૦૨૦ - ગીતા જયંતિ નો પવિત્ર દિવસ છે.

  • Geeta Jayanti falls on the Shukla Ekadashi of the waxing phase of Moon in the Hindu month of Margashirsha. It symbolizes the birth of Shrimad Bhagavad-Gita, the sacred text of the Hindus.

  • Gita Jayanti Mahotsav possesses huge significance and importance as it is regarded as the birthday of Bhagavad-Gita which is considered as the most pious and influential scriptures of Hindu mythology. It comprises political, spiritual, psychological, practical and philosophical values.

  • हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि पर हिंदू धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ गीता की जयंती मनाई जाती है। पूरे विश्व में यही एक ग्रंथ है जिसकी जयंती मनाई जाती है। ब्रह्मपुराण के अनुसार, द्वापर युग में मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को श्रीकृष्ण ने इसी दिन गीता का उपदेश दिया था। गीता का उपदेश मोह का क्षय करने के लिए है, इसीलिए एकादशी को मोक्षदा कहा गया। गीता जयंती के दिन मोक्षदा एकादशी भी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र अर्जुन के मन में महाभारत के युद्ध के दौरान पैदा होने वाले भ्रम को दूर करते हुए जीवन को सुखी और सफल बनाने के लिए उपदेश दिए थे।

 

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Saturday, December 19, 2020

માનસ માલ્યવંત

 

રામ કથા

કથા ક્રમાંક ૮૫૨

માનસ માલ્યવંત

શુક્રલતાલ તીર્થ, ઉત્તર પ્રદેશ

શનિવાર, તારીખ ૧૯/૧૨/૨૦૨૦ થી રવિવાર, તારીખ ૨૭/૧૨/૨૦૨૦

મુખ્ય પંક્તિઓ

माल्यवंत अति सचिव सयाना

तासु बचन सुनि अति सुख माना

माल्यवंत गह गयउ बहोरी

कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी

 

 

શનિવાર, ૧૯/૧૨/૨૦૨૦

 

माल्यवंत अति सचिव सयानातासु बचन सुनि अति सुख माना

तात अनुज तव नीति बिभूषनसो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥

 

माल्यवान्नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री थाउसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) हे तात! आपके छोटे भाई नीति विभूषण (नीति को भूषण रूप में धारण करने वाले अर्थात्नीतिमान्‌) हैंविभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिए॥1॥

 

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊदूरि करहु इहाँ हइ कोऊ

माल्यवंत गह गयउ बहोरीकहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी2॥

 

(रावन ने कहा-) ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैंयहाँ कोई है? इन्हें दूर करो ! तब माल्यवान्तो घर लौट गया और विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे-॥2॥

भगवान शुकदेवजीने यहां परीक्षित राजा को भगवत सुनाने के लिये कथा का गान किया था।

માલ્યવંત અસુર છે પણ રાવણનો સચિવ છે.

माल्यवंत सयाना सचिव हैं।

माल्यवंत रावण के उद्धार की बात रावण को समजाता हैं।

शुकदेवजी जो जो बोले हैं वहीं बाते माल्यवंत भी कही हैं।

માલ્યવંત નો અર્થ માલા વાળો માણસ થાય છે.

कथा दरम्यान श्रोता वक्ता का एक तार मेल होना चाहिये।

मन न भये दश बिस, मन तो एक हि हैं, जो क्रिष्ण के साथ चला गया हैं।

 

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।

मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥

 

अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

 

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥

 

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥

 

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

 

ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥

तुलसी उत्तरकांड के अंत में भी नारी की चर्चा करते हैं, हालाकि यह मातृ शरीर का संदर्भ अलग हैं।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

राम चरित मानस ग्रंथ मातृ स्वरुपा हैं।

मातृ देवो भव का संदर्भ वेद काल से चलता हैं, बहुत पुराना संबंद हैं।

बोध नित्य रहना चाहिये।

साधु के गुनो का वर्णन कोई नहीं कर शकता हैं।

 

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥

सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥

 

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥

 

कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।

अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥

सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।

ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥

'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान्‌ के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।

 

साधु हमें तीन वस्तु देता हैं, १ साधु हमें परम तत्व से कम कुछ नहीं देता हैं, २ साधु हमें परम प्रेम देता हैं जहां मोह के प्रवेश का अधिकार हि न रहें और, ३ साधु हमें परम प्रसन्नता से भर देता हैं, ऐसा परम प्रेम ओर परम प्रसन्नता ओर कोई नहीं दे शकता हैं। साधु हमारा दिल खोलता नहीं हैं लेकिन हमारा दिल तो साधु के सामने खुल्ला ही रहता हैं।

 

गुरु के बिना ग्रंथ में जो लिखा नहीं गया हैं और जिसका संकेत हैं वह समजमें नहीं आता हैं।

 

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्

रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा

भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥

 

अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥

अकेलापन ईस लिये महसुस होता हैं कि उसमें किसी की गेर हाजरी हैं जब के एकान्त वह हैं जिस में मैं अकेला हि पर्याप्त हुं, काफी हैं।

निज सुख दूसरे उपर आधारीत नहीं होता हैं।

 

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।

करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥

जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥1॥

 

मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।

जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥

 

जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥

 

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।

करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥

 

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान्‌ (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥

 

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।

जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥

 

जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥

 

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

 

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

बुद्ध पुरुष में सभी पंच देव मोजुद हैं, गुरु निष्ठा में सब कुछ समाहित हैं।

 

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

 

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

 

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

 

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

 

श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥

 

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

 

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥

 

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।

कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

 

जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥

 

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

 

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥

ऑशो का वकत्व्य हैं कि में आप सब के – सब आश्रितो के गुरुओ से सावधान रहता हुं लेकिन आप सब – सब आश्रित - मेरे चेले से सावधान रहना हैं।

जब कुछ भी नहीं था तब भी गुरु था, गुरु कभी भी समज में नहीं आता हैं, जो समज में आ जाय वह गुरु हैं ह नहीं।

जिस की आंख पवित्र हैं, स्वच्छ हैं उसके सूत्रों में बल बहुत होता हैं, उसका रुप कोई समज नहीं पाता हैं।

आंख पवित्र होने के बाद कोई किसी की भी नींदा नहीं कर शकता हैं।

 

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥

 

संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥

हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥

 

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥

 

(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥

 

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥

 

जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥

 

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥

 

 

चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥1॥


2

Sunday, 20/12/2020

 

यं प्रव्रजन्तमनुपेतम्पेतकृत्यं  द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव I

पुत्रेति तन्मयतया तरवोsभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोsस्मि II२II

 

श्रीमदभागवत जी के महात्म के प्रथम अध्याय के द्वितीय श्लोक में व्यास जी के पुत्र श्री शुकदेव मुनि को नमन किया गया है, व्यास जी के पुत्र श्री शुकदेव मुनि का यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ था तथा उन्हें किसी भी प्रकार के लौकिक जगत के वैदिक अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था उससे पूर्व ही श्री शुकदेव मुनि स्वेच्छा से सन्यास गृहण करने के लिये घर से चल पड़े, इस दृश्य के देख उनके पिता व्यास जी उनकी विरह से व्याकुल होकर उनके पीछे पीछे चल पड़े और उन्हें पुत्र-पुत्र कहकर पुकारने लगे कि बेटा कहां जा रहे हो I  श्री शुकदेव मुनि  जन्म से ही आत्म ज्ञानी थे आत्म भाव में निरन्तर लीन रहते थे, वो वस्त्र भी धारण नहीं करते थे वो परमात्म भाव में तल्लीन थे सो उन्होने पिता की आवाज नहीं सुनी, और उनकी तरफ़ से वृक्षों ने व्यास जी उत्तर दिया था, ऐसे परमात्म भाव में निरनतर तल्लीन रहने वाले शुकदेव मुनि को नमन है I

सात नगरी जो मोक्ष दायीनी हैं, उसके अलावा तीन निर्वाण दायी वस्तु यह स्थल पर हैं जो यह हैं - १ गंगा मुक्ति दायीनी हैं, जंगम तीर्थ हैं, प्रवाहमान, गतिशील, कर्म शील हैं, २ भागवत मोक्ष दायीनी ग्रंथ हैं, ३ शुकवेवजी प्रवाहमान योगी हैं, स्वयं शुकदेवजी मोक्षदायी हैं – मुक्ति दाता हैं – मोक्ष स्वरुप हैं।

कली प्रभाव से हमें सावधान रहना चाहिये।

सुख दुःख, पाप पून्य, सापेक्ष हैं, ईसी लिये यह सब का स्वीकार करना चाहिये या दोनों से मुक्ति पानी चाहिये।

कृष्ण स्मृतिमें अश्रु आ जाय तो यह एक प्रसाद हैं।

परमात्मा का सत्य निरपेक्ष हैं, सापेक्ष नहीं हैं।

शिक्षक, मार्ग दर्शक जिसको शरीर परिवर्तन लागु होता है, वह अनेक हो शकते हैं, लेकिन गुरु एक ही हैं। गुरु को शरीर परिवर्तन लागु नहीं पडता हैं, गुरु को कभी बुढापा नहीं आता हैं।

 

यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥

 

"The infinite is bliss. There is no bliss in anything finite. Only the Infinite is bliss. One must desire to understand the Infinite." "Venerable Sir, I desire to understand the Infinite."

प्रमादमें भी जिसको झूठ – असत्य नहीं हैं वह मुनि हैं।

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम्

निराकारमोङ्करमूलं तुरीयंगिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकालकालं कृपालंगुणागारसंसारपारं नतोहम्

 

 

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।

तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥

 

O Lord, who blesses all creatures by revealing the Vedas, deign to make us happy by Thy calm and blissful self, which roots out terror as well as sin.

हे प्रभु! वेदों को प्रकाशित कर तू सभी प्राणियों पर कृपा की वर्षा करता है, अपने शान्त और आनन्दमय रूप द्वारा हम सब को प्रसन्न रखने का अनुग्रह करता है जिससे भय और पाप दोनों नष्ट हो जाते हैं।

 

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

 

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

 

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

 

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

 

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

 

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥

 

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

 

श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥

 

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

 

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥

गुरु वंदना, हनुमान चालीसा, रुद्राष्टकम्‌, अत्रि स्तुति, भुषंडी पाठ को याद रखना चाहिये।

अगर आप क्रम रखना चाहे तो पहला क्रम सुबह ऊठते समय हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिये, स्नान करते समय रुद्राष्टकम्‌ का पाठ करना चाहिये, पूजा पाठ करते समय गुरु वंदना, बाद में कभी भी अत्रि स्तुति और संध्या समय भुषुंडी पाठ करना चाहिये।

 

एक बुरो प्रेम को पंथ, बुरो जंगल में बासो

बुरो नारी से नेह बुरो, बुरो मूरख में हँसो

बुरो सूम की सेव, बुरो भगिनी घर भाई

बुरी नारी कुलक्ष, सास घर बुरो जमाई

बुरो ठनठन पाल है बुरो सुरन में हँसनों

कवि गंग कहे सुन शाह अकबर सबते बुरो माँगनो

 

प्रेम की गति वक्राकार - सर्पाकार हैं लेकिन जैसे सर्प अपने दर में सीधा जाता हैं ऐसे प्रेम अपने अंतिम लक्ष्य में सर्पाकार नहीं हैं लेकिन उस समय सीधा मार्ग होता हैं।

काम, क्रोध क्षणिक हैं लेकिन लोभ कायम रहता हैं।

 

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

 

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।

 

केहि  हेतु  रानि  रिसानि  परसत  पानि  पतिहि  नेवारई।

मानहुँ  सरोष  भुअंग  भामिनि  बिषम  भाँति  निहारई॥

दोउ  बासना  रसना  दसन  बर  मरम  ठाहरु  देखई।

तुलसी  नृपति  भवतब्यता  बस  काम  कौतुक  लेखई॥

 

'हे  रानी!  किसलिए  रूठी  हो?'  यह  कहकर  राजा  उसे  हाथ  से  स्पर्श  करते  हैं,  तो  वह  उनके  हाथ  को  (झटककर)  हटा  देती  है  और  ऐसे  देखती  है  मानो  क्रोध  में  भरी  हुई  नागिन  क्रूर  दृष्टि  से  देख  रही  हो।  दोनों  (वरदानों  की)  वासनाएँ  उस  नागिन  की  दो  जीभें  हैं  और  दोनों  वरदान  दाँत  हैं,  वह  काटने  के  लिए  मर्मस्थान  देख  रही  है।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  राजा  दशरथ  होनहार  के  वश  में  होकर  इसे  (इस  प्रकार  हाथ  झटकने  और  नागिन  की  भाँति  देखने  को)  कामदेव  की  क्रीड़ा  ही  समझ  रहे  हैं। 

 

‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं ।

उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।

 

जो मनुष्य किसी के सामने हाथ फैलाने जाते हैं, वे मृतक के समान हैं। और वे लोग तो पहले से ही मृतक हैं, मरे हुए हैं, जो माँगने पर भी साफ इन्कार कर देते हैं।

 

न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेद:

पिता नैव मे नैव माता न जन्म

न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥५॥

 

न मुझे मृत्य-भय है (मृत्यु भी कैसी?), न स्व-प्रति संदेह, न भेद जाति का न मेरा कोई पिता है, न माता और न लिया ही है मैंने कोई जन्म कोई बन्धु भी नहीं, न मित्र कोई और न कोई गुरु या शिष्य ही वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

 

अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्

न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेय:

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥६॥

 

मैं हूँ संदेह रहित निर्विकल्प, आकार रहित हूँ सर्वव्याप्त, सर्वभूत, समस्त इन्द्रिय-व्याप्त स्थित हूँ 

न मुझमें मुक्ति है न बंधन; सब कहीं, सब कुछ, सभी क्षण साम्य स्थित वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

 

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम्

न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता

चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥४॥

 

न मुझमें पुण्य है न पाप है, न मैं सुख-दुख की भावना से युक्त ही हूँ मन्त्र और तीर्थ भी नहीं, वेद और यज्ञ भी नहीं मैं त्रिसंयुज (भोजन, भोज्य, भोक्ता) भी नहीं हूँ वस्तुतः मैं चिर आनन्द हूँ, चिन्मय रूप शिव हूँ, शिव हूँ।

 

विभीषण की गति बहिर हैं जब कि माल्यवंत की गति आंतर गति हैं।

 

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।

जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।

गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥2॥

 

हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए ॥2॥

 

राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।

सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥10॥

 

श्री रामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके बालि ने शरीर को वैसे ही (आसानी से) त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना न जाने॥103

Monday, 21/12/2020

वणिक, साधु, बिक्षुक और तपस्वी और राजा चातुरमास दरम्यान प्रवास नहीं करते हैं।

प्रवर्षण पर्वत का सगोत्री शब्द माल्यवंत हैं।

राम और लखन माल्यवंत के ह्मदयमें निवास करते हैं।

माल्यवंत एक औषधि का नाम भी हैं, पुरानी औषधि हैं।

माल्यवंत माला वाला हैं, भजन में रुची रखता हैं। माल्यवंत शयाना सचिव भी हैं।

माल्यवंत की बानी अनुभव की बानी हैं, उस की बानी में कुछ दम – मतलब हैं।

गुरु आज्ञा की अवहेलना न करे, हालाकि गुरु कभी नाराज नहीं होता हैं, गुरु की अवज्ञा अस्तित्त्व – महेश स्वीकार नहीं कर शकता हैं।

गुरु तो विवेक सागर हैं।

गुरु बद्री फल देता हैं।

 

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।

 

अर्थात (Meaning in Hindi): दुर्जन-सज्जन एकसाथ नहीं रह सकते। यदि साथ रहें तो हानि सज्जन की होती है, दुर्जन का कुछ नहीं बिगड़ता।

 

रहीम कहते हें बेर और केले के पेड़ आसपास उगे हों तो उनकी संगत कैसे निभ सकती है? दोनों का अलग-अलग स्वभाव है। बेर के पेड़ में कांटे उगते हैं तो केले का पेड़ नरम होता है। हवा के झोंकों से बेर की डालियां मस्ती में हिलती-डुलती हैं तो केले के पेड़ का अंग-अंग छिल जाता है।

मंदाकिनी नदी प्रवाहमान नहीं हैं, यह नदी चित्रकूट में स्थिर हो जाती हैं।

शूर्पणखा के बचन जो रावण को सलाह देती हैं, उस के बचन हमें प्रेरित क्रे ऐसे हैं।

 

धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥

बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥

 

खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥3॥

 

करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥

संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥

 

शराब पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा,॥4-5॥

प्रीति में – रति में विन्रमता होनी चाहिये।

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥

 

नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है॥6॥

सोरठा :

रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।

अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥21 क॥

 

शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी॥21 (क)॥

नाग का एक अर्थ हाथी होता हैं।

रोग और शत्रु को पेदा होते ही खत्म कर देना चाहिये।

शंख में जब पानी भर कर उसके छंटकाव करने पर पाप नष्ट हो जाते हैं, शंख जल जहां पर गिरते हैं, जिस के उपर गिरते हैं उस के पाप नष्ट हो जाते हैं।

शंख स्नान करने से – शंख में पानी भरके उस जल से स्नान करनेसे पाप नष्ट हो जाते हैं।

मारीच भी रावण को समजाता हैं।

कुदरती गरीबी – रंक स्वभाव – असली अमीरी हैं। …. सुक्रात

 

दया, गरीबी, बन्दगी, समता शील उपकार।

ईत्ने लक्षण साधु के, कहें कबीर विचार॥

 

अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन पुरुष में निम्न गुणों का होना आवश्यक है- सभी के लिए दया भाव, अभिमान भाव की गरीबी, इश्वर की भक्ति, सभी के लिए समानता का विचार, मन की शीतलता एवं परोपकार।

 

तुलसी हाय गरीब की कबहु न खाली जाय,

मरे ढोर के चाम से लोहा भस्म हो जाय|

 

भगवान की कथा भी शंख स्नान हैं, कंठ को शंख की उपमा दी गई हैं, उसी कंठ से नीकली कथा शंख स्नान हैं।

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Tuesday, 22/12/2020

शुक प्रत्येक जड चेतने में समाहित हो गये हैं ऐसा वृक्ष के पत्ते व्यास को जवाब देते हैं।

ब्रह्मानंद और परमानंद ऐसे दो आनंद हैं।

ब्रह्मानंद में ब्रह्म का अनुसंधान होता हैं। ब्रह्मानंद संबंध मुक्त हैं जब कि परमानंद में संबंध होता हैं।

साधक को जब अपने बुद्ध पुरुष की याद आ जाय या बुद्ध पुरुष साधक को जगाता हैं तब परमानंद की अनुभूति होती हैं, ब्रह्मानंद में गद्गद गिरा होती हैं, अश्रु बहने लगते हैं, जब कि ऐसा ब्रह्मानंद में नहीं होता हैं।

ऑशोने जीवन के सात सात साल का विभाजन किया हैं, यह एक अभ्यास पूर्ण विभाजन हैं।

माल्यवंत प्रज्ञावान मंत्री हैं।

माल्यवंत, जामवंत, ब्रह्माजी, सुमंत, जटायु, संपाति, वगेरे जरठ - बुढा – वयोवृद्ध – जिस को बहूत अनुभव हैं।

फकिर के संग करने से मन और तन स्वस्थ रहेगा। फकिर एक हकिम हैं जो बोलकर बानी से ईलाज करते हैं।

भगवत कथा चैतसिक संचार करती हैं।

सेवा मिल जाय तो माला या पूजा पाठ छूट जाय तो भी चिंता न करो। सेवा करना कठिन हैं, बुद्ध पुरुष का संग स्थुल रुप में या सुक्ष्म रूप में करो। फकिर के संग में काम नहीं जगता हैं लेकिन राम जगता हैं।

उर्मिला वह हैं जो उरमें राम जगा दे।

राम बान जिसको लगता हैं उसकी बानी भी राम जैसी बानी हो जाती हैं। मारीच को राम बान लगने के बाद वह लक्ष्मण को पुकारता हैं तब जानकी को उसकी बानी राम की बानी जैसी हि लगती हैं।

काम का अर्थ कामना - वासना हैं जो शरीर धर्मी हैं और दूसरा अर्थ प्रेम हैं, शास्वत प्रेम हैं, गोपी का कृष्ण की कामना एक अदभूत प्रेम हैं, शरीर धर्मी कामना नहीं हैं।

भरत काम हैं, प्रेम मूर्ति हैं। लक्ष्मण अर्थ हैं – सेवा हैं, शत्रुघ्न मोक्ष हैं और राम धर्म हैं।

पत्नी वह हैं जो पति में काम नहीं लेकिन राम जगा दे।

 

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे! तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम: !!

 

हे सत् चित्त आनंद! हे संसार की उत्पत्ति के कारण! हे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनो तापों का विनाश करने वाले महाप्रभु! हे श्रीकृष्ण! आपको कोटि कोटि नमन. हे लीलाधर! हे मुरलीधर! संसार आपकी लीलामात्र का प्रतिबिंब है. हे योगेश्वर! आप अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री के स्वामी हैं लेकिन इसके साथ साथ आप अनंत ज्ञान और अनंत वैराग्य के भी दाता हैं. हे योगिराज कृष्ण! आपके महान गीता ज्ञान का आलोक आज तक हमारा पथप्रदर्शक है लेकिन हम मर्त्य प्राणी आपके इस अपार सामर्थ्य को भूलकर उस माया में डूबे हुए हैं जो हमें आपके वास्तविक स्वरुप का भान नहीं होने देती है. हे अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी! इस बार जन्माष्टमी पर हम भक्तजन आपके योद्धा कृष्ण, नीतीज्ञ केशव, योगिराज माधव स्वरुप की शपथ लेते हैं, कि हम सदैव आपके चरणकमलों का अनुगमन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलेंगे.

 

मंत्री के चार प्रकार हैं १ असमज – जिस को कुछ समज नहीं हैं फिर भि मंत्री बन गया हैं, जिसमें विवेक और समज नहीं हैं, २ सयाने मंत्री विवेक पूर्ण हैं जो सब जानता हैं, ३ अति सयाना मंत्री वह हैं जो सामनेवाला का हित हो ऐसा सोचता हैं, ४ ----

 

संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥

 

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Tuesday, 23/12/2020

दो बुद्ध पुरुष का सतसंग परम हैं।

कथा श्रवण के अनेक नियम हैं, अगर श्रोता उसे निभा शके तो अच्छा हैं, लेकिन अगर न निभा शको तो भी श्रवण अच्छा हैं।

मौन सतसंग की बात ही अनेरी हैं।

मुक्त सतसंग में हर कोई विनय के साथ भगवत चर्चा करते हैं।

जब दो चेतनाए चर्चा करते हैं – सतसंग करते हैं तब आखरी वस्तु एक ही निकलती हैं – हरि नाम हि पर्याप्त हैं।

ठाकुर वृंदावन छोड कर – ठाकुर की चेतना वृंदावन छोडकर एक कदम भी नहीं गये हैं, जो गया हैं वह ठाकुर का विग्रह गया हैं।

सिर्फ कान हि सुने ये पर्याप्त नहीं हैं हमारा रोम रोम श्रवण करना चाहिये – भगवत चर्चा का श्रवण करना चाहिये।

कृष्ण भाव की बात कहींसे भी स्वीकार करनी चाहिये।

सत्य को असत्य से विवेक पूर्ण रीतसे दूर हो जाना चाहिये।

गिरनार के गुरु दत्त और शुक्रताल के शुकदेवजी अवधूती की पराकाष्ठा हैं।

श्रवण की विधा क्या हैं?

श्रोता विनयी होना चाहिये। श्रोता में कथा श्रवण के लिये उत्सुकता होनी चाहिये

 श्रोता संयमी होना चाहिये – श्रोता को किसी को विक्षेप नहीं करना चाहिये।

श्रोता धर्मी होना चाहिये। अधर्मी श्रोता भी क्रमशः धर्मी हो जाता हैं।

साधु लगभग संबंध बनाता नहीं हैं और जब भी संबंध बनाता हैं तो उसे तोडता नहीं हैं।

श्रोता दयनीय होना चाहिये, जो कोई शिकायत न करे वह दयनीय हैं।

श्रोता कर्मी होना चाहिये – श्रोता प्रमादी न होना चाहिये, उसे संसार के सभी कर्म करना चाहिये, कथा सुनने के बाद भी कर्म बंध नहीं करना चाहिये।

श्रोता मर्मी होना चहिये – श्रवण दरम्यान सब मर्म समज जाता हैं।

श्रोता विनयी होना चाहिये।

कुछ श्रोता भ्रम पेदा करे ऐसे होते हैं, यह भर्मी श्रोता हैं।

कुछ श्रोता शर्मी होते हैं, ऐसा श्रोता संकोच बहुत रखते हैं।

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Thursday, 24/12/2020

हमारे लिये राम कथा ही एक आश्रय हैं।

सर्ग का अर्थ संपर्क हैं।

भागवत में १० लक्षण हैं जब कि मानस में एक हि लक्षण हैं और वह हैं आश्रय।

भगवत कथा पोषण की कथा हैं। भागवत कथा कभी भी शोषण नहीं करेगा।

सत्य, प्रेम और करुणा का द्रढाश्रय करना चाहिये।

आश्रित को अपने बुद्ध पुरुष के सिवाय ओर किसी का अभिप्राय लेना नहीं चाहिये।

 

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥

अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

 

रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर विभीषणजी आए। उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया॥1॥

 

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥

जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥2॥

 

फिर से सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये वचन बोले- हे कृपाल जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है, तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ-॥2॥

 

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥

सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥3॥

 

जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात्‌ जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥3॥

 

चंद्र चतुर्थी के दिन गुरु अपराध करता हैं, अपने गुरु की पत्नी उपर बुरी नजर करता हैं, इसी लिये हम चतुर्थी के चांद को देखते नहीं हैं।

 

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

 

चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥4॥

 

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥

 

हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥

 

६ समय क्रोध नहीं करना चाहिये, सुबह जागते हि क्रोध न करे, पूजा पाठ करते समय – भजन के समय क्रोध न करो,  घर से बाहर जाय तब क्रोध न करे, कार्य करके घर में प्रवेश करते समय क्रोध न करो, राते शयन करते समय क्रोध न करे।

 

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥

ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥

 

हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार) भगवान्‌ हैं, वे निरामय (विकाररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं॥1॥

 

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥

 

उन कृपा के समुद्र भगवान्‌ ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥2॥

 

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥

 

वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥3॥

 

 

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥

 

जिसे संपूर्ण जगत्‌ से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्‌) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए॥4॥

 

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।

परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥39क॥

 

 

हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए॥39 (क)॥

 

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।

तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥39ख॥

 

मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु (आप) से कह दी॥39 (ख)॥

 

साधु की आंखे हि उसकी आत्म कथा हैं।

ईश्वर भी हमें साधु की आंखे से देखता हैं।

प्रेम मार्ग की साधनामें तो आंख ही हैं।

 

 7

Friday, 25/12/2020

जिस को ज्ञान वैराग्य की पंख लग जाती हैं उसे पथिक कैसे पकड पाता हैं, वह तो उडता हि जाता हैं।

गीता का आरंभ एक संदेह हैं - विषाद हैं, गीता का मध्य समाधान हैं जो योगेह्स्वर कृष्ण ने अपने विराट रुप का दर्शन कराके करते हैं, गीता का अंत शरणागति हैं। यह संदेह से शरणागति वाया समाधान की गीता की यात्रा हैं।

 गीता की १२ बात परम महत्व की हैं। यह बारह वस्तु हि हमारे लिये कृष्ण हैं।

गीता कोर्ट का हि नहीं हार्ट का भी ग्रंथ हैं।

राम विश्राम देते हैं, कृष्ण आकर्षित करते हैं, शिव कल्याण करते हैं।

राम सत्य शिखाते हैं, कृष्ण प्रेम शिखाते हैं, शिव करुणा करते हैं, शिखाते हैं।

यह १२ वस्तु निम्न श्लोक में प्रस्तुत हैं।

 

 

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।

 

।9.16 -- 9.18।।  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।

 

।।9.18।। गति (लक्ष्य), भरण-पोषण करने वाला, प्रभु (स्वामी), साक्षी, निवास, शरणस्थान तथा मित्र और उत्पत्ति, प्रलयरूप तथा स्थान (आधार), निधान और अव्यय कारण भी मैं हूँ।।

।9.18।।तथा मैं ही --, गति – कर्मफल, भर्ता -- सबका पोषण करनेवाला, प्रभु -- सबका स्वामी, प्राणियोंके कर्म और अकर्मका साक्षी, जिसमें प्राणी निवास करते हैं वह वासस्थान, शरण अर्थात् शरणमें आये हुए दुःखियोंका दुःख दूर करनेवाला, सुहृत् -- प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करनेवाला, प्रभव -- जगत्की उत्पत्तिका कारण और,जिसमें सब लीन हो जाते हैं वह प्रलय भी मैं ही हूँ। तथा जिसमें सब स्थित होते हैं वह स्थान, प्राणियोंके कालान्तरमें उपभोग करनेयोग्य कर्मोंका भण्डाररूप निधान और अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ अर्थात् उत्पत्तिशील वस्तुओंकी उत्पत्तिका अविनाशी कारण मैं ही हूँ। जबतक संसार है तबतक उसका बीज भी अवश्य रहता है। इसलिये बीजको अविनाशी कहा है क्योंकि बिना बीजके कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और उत्पत्ति नित्य देखी जाती है, इससे यह जाना जाता है कि बीजकी परम्पराका नाश नहीं होता।

·        मैं (गतिः) स्थिति (भर्ता) भरण-पोषण करनेवाला (प्रभुः) स्वामी (साक्षी) शुभाशुभका देखनेवाला (निवासः) वासस्थान (शरणम्) शरण लेने योग्य (सुहृत्) प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला (प्रभवः, प्रलयः) सबकी उत्पतिप्रलयका हेतु (स्थानम्) स्थितिका आधार (निधानम्) निधान और (अव्ययम्) अविनाशी (बीजम्) कारण हूँ।

·        प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान (प्रलयकाल में संपूर्ण भूत सूक्ष्म रूप से जिसमें लय होते हैं उसका नाम 'निधान' है) और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ।

 

जयति तेsधिकं जन्मना ब्रज:श्रयत इन्द्रिरा शश्व दत्र हि

द्यति द्दश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते !!

 

हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोडकर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे है वन वन में भटक ढूँढ रही है.

प, फ, ब, भ, म

प – जहां पाप पून्य नहीं लगता हैं

फ – फल की अपेक्षा मत रखो

ब –

भ – जहां कोई भय नहीं हैं।

म – जहां मृत्यु नहीं हैं

ऐसा जहां नहीं हैं – प, फ, ब, भ, म वह अप वर्ग हैं।