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Saturday, November 27, 2021

માનસ અયોધ્યાકાંડ, मानस अयोध्याकांड

રામકથા - 868

માનસ અયોધ્યાકાંડ

અયોધ્યા

શનિવાર, તારીખ ૨૭/૧૧/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૦૫/૧૨/૨૦૨૧

કેન્દ્રીય વિચાર બિન્દુની પંક્તિઓ


बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। 

पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। 

लै पादुका अवधपुर आए।।


***** 

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।

पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।1।।

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।

बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।2।।

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।

करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।3।।

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।

भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट बरनी।।4।।

 

1

Saturday, 27/111/2021

 

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।

पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।1।।

 

फिर श्रीरामजीके राज्याभिषेक का प्रसंग, फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेकके आनन्द) में भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्रीराम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा।।1।।

 

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।

बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।2।।

 

श्रीराम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्रीरामजीका मिलन और जैसे भगवान् चित्रकूटमें बसे, वह सब कहा।।2।।

 

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।

करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।3।।

 

फिर मन्त्री सुमन्त्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का [ननिहालसे] अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजाकी अन्त्येष्टि क्रिया करके नगरवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गये, जहाँ सुख की राशि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे।।3।।

 

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।

भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट बरनी।।4।।

 

फिर श्रीरघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया; जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आये, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दिग्राम में रहने की रीति, इन्द्रपुत्र जयन्त की नीच करनी और फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी और आत्रिजी का मिलाप वर्णन किया।।4।।

 

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥

नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥

 

वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥

 

अयोध्या का यह मंदिर दिव्य, भव्य और भी सेव्य हैं। यह विश्व के लिये एक सगुण हैं, विश्व में कुछ अच्छा होनेवाला हैं उसका सगुन हैं।

श्रद्धा से हि ज्ञान की प्राप्ति होती हैं।

 

जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।

तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

 

जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। (अर्थात्‌ श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)॥38॥

 

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥

 

शिवजी की चैतसिक अवस्था समान रुप में हैं। शिवजी सम चित हैं।

भुशुंडी सरल चित के वक्ता हैं, याज्ञ्य्वल्क प्ररम विवेकी हैं उनका चित सम्यक चित हैं, तुलसीदासजी कोमल चित के वक्ता हैं।

मा की गोद, पत्नी की मर्यादापूर्वक की पति की गोद में रहना, और व्यास की गोद – व्यासपीठ की महिमा हैं।

श्रोताओ को प्रसन्न चित से श्रवण करना चाहिये।

 

धन्य अवध जो राम बखानी।।

 

2

Sunday, 28/11/2021

मंगलाचरण के २३ मंत्र हैं। उत्तर्कांड में २ मंत्र हैं।

२५ मंत्र का एक विशिष्ट सांख्य हैं, दशावतार और २४ अवतार भी हैं, राम चरित मानस २४ अवतार का प्रतिनिधीत्व करता हैं।

२५ वा मंत्र रामचरित मानसवतार हैं जो हमारे पास हैं, हमारी झोली में हैं जिसे ह्मदय में ऊतारना हैं। गुरु बचन आखिरी होता हैं।

समस्या भूतकालिन हैं उसका समाधान वर्तमान काल में परिपेक्षमें करना चाहिये।

बुद्ध पुरुष की आंख हि औषधि हैं।

अयोध्याकांड में ३ मंत्र मंगलाचरन के हैं।

 

यस्यांके  च  विभाति  भूधरसुता  देवापगा  मस्तके

भाले  बालविधुर्गले  च  गरलं  यस्योरसि  व्यालराट्।

सोऽयं  भूतिविभूषणः  सुरवरः  सर्वाधिपः  सर्वदा

शर्वः  सर्वगतः  शिवः  शशिनिभः  श्री  शंकरः  पातु  माम्‌॥1॥

 

जिनकी  गोद  में  हिमाचलसुता  पार्वतीजी,  मस्तक  पर  गंगाजी,  ललाट  पर  द्वितीया  का  चन्द्रमा,  कंठ  में  हलाहल  विष  और  वक्षःस्थल  पर  सर्पराज  शेषजी  सुशोभित  हैं,  वे  भस्म  से  विभूषित,  देवताओं  में  श्रेष्ठ,  सर्वेश्वर,  संहारकर्ता  (या  भक्तों  के  पापनाशक),  सर्वव्यापक,  कल्याण  रूप,  चन्द्रमा  के  समान  शुभ्रवर्ण  श्री  शंकरजी  सदा  मेरी  रक्षा  करें॥1॥

बालकांड बाल्यावस्था का कांड हैं, अयोध्याकांड युवानी की अवस्था का कांड हैं। शिव सुंदर दांपत्य कैसा होना चाहिये वह भगवान शिव बताते हैं।

मा की गोद, पत्नी के लिये अपने पति की मर्यादापूर्ण गोद, आश्रित को अपने गुरु की गोद, मित्र के लिये एक वरिष्ठ मित्र की गोद, व्यास गादी की गोद – व्यास पीठ वगेरे सात गोद की महिमा हैं।

गंगा विवेके का प्रतीक हैं।

पूर्णिमा आते हि क्षय पक्ष शुरु हो जाता हैं।

जीवन में झहर भी पीना पडेगा, यह झहर को पेट में नहीं ऊतारना हैं, नहीं उसका वमन करना हैं केवल कंठ की शोभा बनाना हैं।

साधु सदा युवान होता हैं और उसे सदा झहर पीना पडता हैं।

सब को एक दूसरे का प्रभाव और स्वभाव कबुल करना चाहिये।

उपर यह पहला श्लोक जो भगवान शिव के लिये हैं सिद्धप्रज्ञ स्थिति का श्लोक हैं।

दूसरा श्लोक जो भगवान राम के लिये हैं वह स्थितप्रज्ञ स्थिति का श्लोक हैं।

सावधान रहकर, मिट्टी में रहकर जो तापस स्वभाव रखता हैं वह साधु हैं।

 

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा  की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥ 

 

प्रसन्नतां  या  न  गताभिषेकतस्तथा  न  मम्ले  वनवासदुःखतः।

मुखाम्बुजश्री  रघुनन्दनस्य  मे  सदास्तु  सा  मंजुलमंगलप्रदा॥2॥

 

रघुकुल  को  आनंद  देने  वाले  श्री  रामचन्द्रजी  के  मुखारविंद  की  जो  शोभा  राज्याभिषेक  से  (राज्याभिषेक  की  बात  सुनकर)  न  तो  प्रसन्नता  को  प्राप्त  हुई  और  न  वनवास  के  दुःख  से  मलिन  ही  हुई,  वह  (मुखकमल  की  छबि)  मेरे  लिए  सदा  सुंदर  मंगलों  की  देने  वाली  हो॥2॥ 

 

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥

 

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग  सीतासमारोपितवामभागम्‌।

पाणौ  महासायकचारुचापं  नमामि  रामं  रघुवंशनाथम्‌॥3॥

 

नीले  कमल  के  समान  श्याम  और  कोमल  जिनके  अंग  हैं,  श्री  सीताजी  जिनके  वाम  भाग  में  विराजमान  हैं  और  जिनके  हाथों  में  (क्रमशः)  अमोघ  बाण  और  सुंदर  धनुष  है,  उन  रघुवंश  के  स्वामी  श्री  रामचन्द्रजी  को  मैं  नमस्कार  करता  हूँ॥3॥

यह स्मित प्रज्ञ स्थिति का श्लोक हैं।

बुद्ध पुरुष का हाथ समग्र संताप की औषधि हैं।

गुरु की रज का सेवन करने से स्मित प्रज्ञ स्थिति मिलती हैं।

 

श्री  गुरु  चरन  सरोज  रज  निज  मनु  मुकुरु  सुधारि।

बरनउँ  रघुबर  बिमल  जसु  जो  दायकु  फल  चारि॥

 

श्री  गुरुजी  के  चरण  कमलों  की  रज  से  अपने  मन  रूपी  दर्पण  को  साफ  करके  मैं  श्री  रघुनाथजी  के  उस  निर्मल  यश  का  वर्णन  करता  हूँ,  जो  चारों  फलों  को  (धर्म,  अर्थ,  काम,  मोक्ष  को)  देने  वाला  है।

ठाकुर रस हैं – रसौवैसः

कान गुर जो कान में मंत्र देता हैं, दीक्षा गुरु, दीशा गुरु जो लक्ष्य दिखाता हैं, ज्ञान गुरु, जिस का मुख देखकर हमारा शिर झूक जाय वह मान गुरु हैं, यह गुरु हमें उसकी तरफ हमें खीचता हैं।

गुरु शिष्य एक साथ चले यह श्रेष्ठ जोडी हैं।

 

जब  तें  रामु  ब्याहि  घर  आए।  नित  नव  मंगल  मोद  बधाए॥

भुवन  चारिदस  भूधर  भारी।  सुकृत  मेघ  बरषहिं  सुख  बारी॥1॥

 

जब  से  श्री  रामचन्द्रजी  विवाह  करके  घर  आए,  तब  से  (अयोध्या  में)  नित्य  नए  मंगल  हो  रहे  हैं  और  आनंद  के  बधावे  बज  रहे  हैं।  चौदहों  लोक  रूपी  बड़े  भारी  पर्वतों  पर  पुण्य  रूपी  मेघ  सुख  रूपी  जल  बरसा  रहे  हैं॥1॥ 

 

रिधि  सिधि  संपति  नदीं  सुहाई।  उमगि  अवध  अंबुधि  कहुँ  आई॥

मनिगन  पुर  नर  नारि  सुजाती।  सुचि  अमोल  सुंदर  सब  भाँती॥2॥

 

ऋद्धि-सिद्धि  और  सम्पत्ति  रूपी  सुहावनी  नदियाँ  उमड़-उमड़कर  अयोध्या  रूपी  समुद्र  में  आ  मिलीं।  नगर  के  स्त्री-पुरुष  अच्छी  जाति  के  मणियों  के  समूह  हैं,  जो  सब  प्रकार  से  पवित्र,  अमूल्य  और  सुंदर  हैं॥2॥ 

 

कहि  न  जाइ  कछु  नगर  बिभूती।  जनु  एतनिअ  बिरंचि  करतूती॥

सब  बिधि  सब  पुर  लोग  सुखारी।  रामचंद  मुख  चंदु  निहारी॥3॥

 

नगर  का  ऐश्वर्य  कुछ  कहा  नहीं  जाता।  ऐसा  जान  पड़ता  है,  मानो  ब्रह्माजी  की  कारीगरी  बस  इतनी  ही  है।  सब  नगर  निवासी  श्री  रामचन्द्रजी  के  मुखचन्द्र  को  देखकर  सब  प्रकार  से  सुखी  हैं॥3॥ 

 

मुदित  मातु  सब  सखीं  सहेली।  फलित  बिलोकि  मनोरथ  बेली॥

राम  रूपु  गुन  सीलु  सुभाऊ।  प्रमुदित  होइ  देखि  सुनि  राऊ॥4॥

 

सब  माताएँ  और  सखी-सहेलियाँ  अपनी  मनोरथ  रूपी  बेल  को  फली  हुई  देखकर  आनंदित  हैं।  श्री  रामचन्द्रजी  के  रूप,  गुण,  शील  और  स्वभाव  को  देख-सुनकर  राजा  दशरथजी  बहुत  ही  आनंदित  होते  हैं॥4॥ 

वर्षा होना अच्छी हैं लेकिन निरंतर वर्षा अच्छी नहीं हैं।

 

मंगलमूल  रामु  सुत  जासू।  जो  कछु  कहिअ  थोर  सबु  तासू॥

रायँ  सुभायँ  मुकुरु  कर  लीन्हा।  बदनु  बिलोकि  मुकुटु  सम  कीन्हा॥3॥

 

मंगलों  के  मूल  श्री  रामचन्द्रजी  जिनके  पुत्र  हैं,  उनके  लिए  जो  कुछ  कहा  जाए  सब  थोड़ा  है।  राजा  ने  स्वाभाविक  ही  हाथ  में  दर्पण  ले  लिया  और  उसमें  अपना  मुँह  देखकर  मुकुट  को  सीधा  किया॥3॥ 

यह निज दर्शन का संकेत हैं।

 

श्रवन  समीप  भए  सित  केसा।  मनहुँ  जरठपनु  अस  उपदेसा॥

नृप  जुबराजु  राम  कहुँ  देहू।  जीवन  जनम  लाहु  किन  लेहू॥4॥

 

(देखा  कि)  कानों  के  पास  बाल  सफेद  हो  गए  हैं,  मानो  बुढ़ापा  ऐसा  उपदेश  कर  रहा  है  कि  हे  राजन्‌!  श्री  रामचन्द्रजी  को  युवराज  पद  देकर  अपने  जीवन  और  जन्म  का  लाभ  क्यों  नहीं  लेते॥4॥

जीवन की समस्या के लिये गुरुद्वार जल्दी जाना चाहिये।

 

सेवक  सदन  स्वामि  आगमनू।  मंगल  मूल  अमंगल  दमनू॥

तदपि  उचित  जनु  बोलि  सप्रीती।  पठइअ  काज  नाथ  असि  नीती॥3॥

 

यद्यपि  सेवक  के  घर  स्वामी  का  पधारना  मंगलों  का  मूल  और  अमंगलों  का  नाश  करने  वाला  होता  है,  तथापि  हे  नाथ!  उचित  तो  यही  था  कि  प्रेमपूर्वक  दास  को  ही  कार्य  के  लिए  बुला  भेजते,  ऐसी  ही  नीति  है॥3॥ 

 

प्रभुता  तजि  प्रभु  कीन्ह  सनेहू।  भयउ  पुनीत  आजु  यहु  गेहू॥

आयसु  होइ  सो  करौं  गोसाईं।  सेवकु  लइह  स्वामि  सेवकाईं॥4॥

 

परन्तु  प्रभु  (आप)  ने  प्रभुता  छोड़कर  (स्वयं  यहाँ  पधारकर)  जो  स्नेह  किया,  इससे  आज  यह  घर  पवित्र  हो  गया!  हे  गोसाईं!  (अब)  जो  आज्ञा  हो,  मैं  वही  करूँ।  स्वामी  की  सेवा  में  ही  सेवक  का  लाभ  है॥4॥

 

साँझ  समय  सानंद  नृपु  गयउ  कैकई  गेहँ।

गवनु  निठुरता  निकट  किय  जनु  धरि  देह  सनेहँ॥24॥

 

संध्या  के  समय  राजा  दशरथ  आनंद  के  साथ  कैकेयी  के  महल  में  गए।  मानो  साक्षात  स्नेह  ही  शरीर  धारण  कर  निष्ठुरता  के  पास  गया  हो!॥24॥ 

 

नामु  मंथरा  मंदमति  चेरी  कैकइ  केरि।

अजस  पेटारी  ताहि  करि  गई  गिरा  मति  फेरि॥12॥

 

मन्थरा  नाम  की  कैकेई  की  एक  मंदबुद्धि  दासी  थी,  उसे  अपयश  की  पिटारी  बनाकर  सरस्वती  उसकी  बुद्धि  को  फेरकर  चली  गईं॥12॥ 

 

दीख  मंथरा  नगरु  बनावा।  मंजुल  मंगल  बाज  बधावा॥

पूछेसि  लोगन्ह  काह  उछाहू।  राम  तिलकु  सुनि  भा  उर  दाहू॥1॥

 

मंथरा  ने  देखा  कि  नगर  सजाया  हुआ  है।  सुंदर  मंगलमय  बधावे  बज  रहे  हैं।  उसने  लोगों  से  पूछा  कि  कैसा  उत्सव  है?  (उनसे)  श्री  रामचन्द्रजी  के  राजतिलक  की  बात  सुनते  ही  उसका  हृदय  जल  उठा॥1॥ 

 

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

 

राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥


4

Tuesday, 30/11/2021

श्रूंगेर्श्वरपुर धाम

सात्विक, तात्विक और वास्विक संवाद होना चाहिये।

यह महर्शि श्रीगिरि ॠषि का जन्म स्थान हैं।

पुर स्थान में कोई न कोई चेतना निवास करती हैं।

तमसा के अर्थ में त का अर्थ तपस्वी ब्राह्मण हैं, म का अर्थ

राज्य चलाने के लिये राम भरत को कहते हैं कि तुने नास्तिक, प्रमादीओका संग तो नहीं करना चाहिये, साधु का अपमान नहीं करना चाहिये, अकेले निर्णय नहीं करना चाहिये, किसी की नींदा नहीं करनी चाहिये, बारंबार क्रोध नहीं करना चाहिये,

जहां पादुका का स्थापन हो वहां किसी की नींदा नहीं होनी चाहिये, किसी का द्वेष नहीं करना चाहिये, प्रसन्न रहना चाहिये, मन में कोई ईर्षा नहीं आनी चाहिये, गुरु के साथ साथ चलना चाहिये – न आगे चलना चाहिये, न पीछे चलना चाहिये, दूसरे दोष न देखकर उसमें जो गुण हैं उसे देखो,

संस्कार से विकार बहुत प्रबल होता हैं – कुछ समय के लिये प्रबल रहता हैं, संस्कार साश्वत हैं, विकार नाशवंत हैं।

जीवन में कुछ भी सिद्ध न करि सिर्फ शुद्ध बननेका प्रयत्न करना चाहिये।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

फकिर मस्त होना चाहिये और भजन में व्यस्त भी होना चाहिये।

 

लखन  सचिवँ  सियँ  किए  प्रनामा।  सबहि  सहित  सुखु  पायउ  रामा॥

गंग  सकल  मुद  मंगल  मूला।  सब  सुख  करनि  हरनि  सब  सूला॥2॥

 

लक्ष्मणजी,  सुमंत्र  और  सीताजी  ने  भी  प्रणाम  किया।  सबके  साथ  श्री  रामचन्द्रजी  ने  सुख  पाया।  गंगाजी  समस्त  आनंद-मंगलों  की  मूल  हैं।  वे  सब  सुखों  को  करने  वाली  और  सब  पीड़ाओं  को  हरने  वाली  हैं॥2॥

 

कहि  कहि  कोटिक  कथा  प्रसंगा।  रामु  बिलोकहिं  गंग  तरंगा॥

सचिवहि  अनुजहि  प्रियहि  सुनाई।  बिबुध  नदी  महिमा  अधिकाई॥3॥

 

अनेक  कथा  प्रसंग  कहते  हुए  श्री  रामजी  गंगाजी  की  तरंगों  को  देख  रहे  हैं।  उन्होंने  मंत्री  को,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  को  और  प्रिया  सीताजी  को  देवनदी  गंगाजी  की  बड़ी  महिमा  सुनाई॥3॥

सत्य के पास जानेका कोई रास्ता नहीं हैं, सत्य हि अपने पास आता हैं …. रजनीश

 5

Wednesday, 01/12/2021

प्रयागराज

सत्य जहां से मिले उसे स्वीकार करो और उस अनुसार वर्तन करो।

कथा विमुख रहकर – कथा को अनसुनी करना - भी सुन शकते हैं। सती विमुख रहकर कथा सुनती हैं।

 

सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।

हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥

अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।

अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥

 

सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं।

कथा कुमुख से भी सुनी जाती हैं, मंथरा कुमुख रहकर कथा सुनती हैं।

 

संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं

धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥2॥

 

वे सुकृती (पुण्यात्मा पुरुष) धन्य हैं जो वेद रूपी समुद्र (के मथने) से उत्पन्न हुए कलियुग के मल को सर्वथा नष्ट कर देने वाले, अविनाशी, भगवान श्री शंभु के सुंदर एवं श्रेष्ठ मुख रूपी चंद्रमा में सदा शोभायमान, जन्म-मरण रूपी रोग के औषध, सबको सुख देने वाले और श्री जानकीजी के जीवनस्वरूप श्री राम नाम रूपी अमृत का निरंतर पान करते रहते हैं॥2॥

गोपीजन कथामृत पीकर हि जी रही हैं।

परस्पर देवो भवः ………….. रंगावधूत महाराज

वक्ता लौकिक द्रष्टांत कुशल होना चाहिये।

 

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥

बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥

 

देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥

कथा राम रस हैं, मधुर रस हैं।

मर्यादा में रहकर मौज करो।

गुरु मुखसे सुनना – त्रिभुवन गुरु मुखसे– साधु मुखसे सुनना श्रेष्ठ श्रवण हैं।

धर्म फल हैं और उसका रस वैराग्य – रस पूर्ण वैराग्य हैं।

 

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥

जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥

 

धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है॥1॥

केवल सनातन धर्ममें हि पादुका का महत्व हैं, पादुका हमारे घर की रक्षा करती हैं। पादुका जीवंत तत्व हैं।

 

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2॥

 

नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।

 

हे गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके नचाये] नाचते हैं। ब्रह्माणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं।।1।।

अर्थ का रस द्रव्य का द्रविभूत होना हैं।

काम का रस क्रमशः प्रीति हैं, मोक्ष का रस साधुओ की मस्ती हैं।

6

Thursday, 02/12/2021

वाल्मीकि आश्रम, चित्रकूट

कथा में वय भेद नहीं रहता हैं, कथा के श्रोता व्यातित होती हैं, वय से बाहर होती हैं।

जीवन यात्रामय होना चाहिये, साधु तो चलता भला, एक जगह रहने में अधिकारभाव के अहंकार आता हैं, जीवन मात्रामय भी होना चाहिये, जीवन सूत्रामय भी होना चाहिये – जीवन में कोई सूत्र होना चाहिये।

बहता पानी हि स्वच्छ होता है, बंधियार पानी अस्वच्छ हो जाता हैं। ऐसा हि जीवन के लिये भी हैं।

राम की आगेवानी में यात्रा करो।

भरत की आगेवानी में भी यात्रा हुई हैं जिस में मंथरा भी सामिल हुई हैं।

प्रेम आंखो से बोलता हैं।

बिना प्रेम किये मरना आत्महत्या हैं, सतसंग से विवेक मिलने के बाद किया हुआ प्रेम हि प्रेम है

राम की अगवानी की यात्रा सत्य की यात्रा हैं, भरत की अगवानी की यात्रा प्रेम यात्रा हैं, सीता की अगवानी की यात्रा करुणा की यात्रा हैं।

छाड़हु  बचनु  कि  धीरजु  धरहू।  जनि  अबला  जिमि  करुना  करहू॥

तनु  तिय  तनय  धामु  धनु  धरनी।  सत्यसंध  कहुँ  तृन  सम  बरनी॥4॥

 

या  तो  वचन  (प्रतिज्ञा)  ही  छोड़  दीजिए  या  धैर्य  धारण  कीजिए।  यों  असहाय  स्त्री  की  भाँति  रोइए-पीटिए  नहीं।  सत्यव्रती  के  लिए  तो  शरीर,  स्त्री,  पुत्र,  घर,  धन  और  पृथ्वी-  सब  तिनके  के  बराबर  कहे  गए  हैं॥4॥ 

दशरथ राजा यह सब करते हैं, राम – सत्य के लिये सब छोड दिया हैं।

राम सत्य मूर्ति हैं, भरत प्रेम मूर्ति हैं, जानकि करुणा मूर्ति हैं।

जानकी की अडवानी की यात्रा करुणा की यात्रा हैं
भूमि शयन से सहनशीलता और धैर्य जैसे दो गुण आते हैं।

आकाश के नीचे सोने से साधक में औदार्य आता हैं, खुल्ले में सोने साधक की दशा बदल जाती हैं।

 

 

जागिये कृपानिधान जानराय, रामचन्द्र! जननी कहै बार - बार, भोर भयो प्यारे॥

राजिवलोचन बिसाल, प्रीति बापिका मराल, ललित कमल - बदन ऊपर मदन कोटि बारे॥

अरुन उदित, बिगत सर्बरी, ससांक - किरन ही, दीन दीप - ज्योति मलिन - दुति समूह तारे॥

मनहुँ ग्यान घन प्रकास बीते सब भव बिलास, आस त्रास तिमिर - तोष - तरनि - तेज जारे॥

बोलत खग निकर मुखर, मधुर, करि प्रतीति, सुनहु स्त्रवन, प्रान जीवन धन, मेरे तुम बारे॥

मनहुँ बेद बंदी मुनिबृन्द सूत मागधादि बिरुद- बदत 'जय जय जय जयति कैटभारे॥

बिकसित कमलावली, चले प्रपुंज चंचरीक, गुंजत कल कोमल धुनि त्यगि कंज न्यारे।

जनु बिराग पाइ सकल सोक-कूप-गृह बिहाइ॥

भृत्य प्रेममत्त फिरत गुनत गुन तिहारे, सुनत बचन प्रिय रसाल जागे अतिसय दयाल।

भागे जंजाल बिपुल, दुख-कदम्ब दारे।

तुलसीदास अति अनन्द, देखिकै मुखारबिंद, छूटे भ्रमफंद परम मंद द्वंद भारे॥

 

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साभार bhartdiscovery.org

यह रसिक वैराग्य हैं।

हनुमान के पीछे यात्रा करना वैराग्य की यात्रा हैं।

राम चरित मानस महा सूत्र हैं।

 

सीता  सचिव  सहित  दोउ  भाई।  सृंगबेरपुर  पहुँचे  जाई॥

उतरे  राम  देवसरि  देखी।  कीन्ह  दंडवत  हरषु  बिसेषी॥1॥

 

सीताजी  और  मंत्री  सहित  दोनों  भाई  श्रृंगवेरपुर  जा  पहुँचे।  वहाँ  गंगाजी  को  देखकर  श्री  रामजी  रथ  से  उतर  पड़े  और  बड़े  हर्ष  के  साथ  उन्होंने  दण्डवत  की॥1॥

राम नाम एक राज मार्ग हैं – ६ लेन का राज मार्ग हैं जिस में ६ शास्त्र समाहित हैं।

 

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥

जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥

 

सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती॥1॥

 

एक बुरो प्रेम को पंथ, बुरो जंगल में बासो

बुरो नारी से नेह बुरो, बुरो मूरख में हँसो

बुरो सूम की सेव, बुरो भगिनी घर भाई

बुरी नारी कुलक्ष, सास घर बुरो जमाई

बुरो ठनठन पाल है बुरो सुरन में हँसनों

कवि गंग कहे सुन शाह अकबर सबते बुरो माँगनो

 

विचारवानो को करुणा का आदर करना चाहिये, विचारवान को करुणा के पीछे रहकर यात्रा करनी चाहिये। सुमंत जानकी के पीछे यात्रा करते हैं।

 

सीता  सचिव  सहित  दोउ  भाई।  सृंगबेरपुर  पहुँचे  जाई॥

उतरे  राम  देवसरि  देखी।  कीन्ह  दंडवत  हरषु  बिसेषी॥1॥

 

सीताजी  और  मंत्री  सहित  दोनों  भाई  श्रृंगवेरपुर  जा  पहुँचे।  वहाँ  गंगाजी  को  देखकर  श्री  रामजी  रथ  से  उतर  पड़े  और  बड़े  हर्ष  के  साथ  उन्होंने  दण्डवत  की॥1॥

 

लखन  सचिवँ  सियँ  किए  प्रनामा।  सबहि  सहित  सुखु  पायउ  रामा॥

गंग  सकल  मुद  मंगल  मूला।  सब  सुख  करनि  हरनि  सब  सूला॥2॥

 

लक्ष्मणजी,  सुमंत्र  और  सीताजी  ने  भी  प्रणाम  किया।  सबके  साथ  श्री  रामचन्द्रजी  ने  सुख  पाया।  गंगाजी  समस्त  आनंद-मंगलों  की  मूल  हैं।  वे  सब  सुखों  को  करने  वाली  और  सब  पीड़ाओं  को  हरने  वाली  हैं॥2॥

 

कहि  कहि  कोटिक  कथा  प्रसंगा।  रामु  बिलोकहिं  गंग  तरंगा॥

सचिवहि  अनुजहि  प्रियहि  सुनाई।  बिबुध  नदी  महिमा  अधिकाई॥3॥

 

अनेक  कथा  प्रसंग  कहते  हुए  श्री  रामजी  गंगाजी  की  तरंगों  को  देख  रहे  हैं।  उन्होंने  मंत्री  को,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  को  और  प्रिया  सीताजी  को  देवनदी  गंगाजी  की  बड़ी  महिमा  सुनाई॥3॥

 

बोले  लखन  मधुर  मृदु  बानी।  ग्यान  बिराग  भगति  रस  सानी॥

काहु  न  कोउ  सुख  दुख  कर  दाता।  निज  कृत  करम  भोग  सबु  भ्राता॥2॥

 

तब  लक्ष्मणजी  ज्ञान,  वैराग्य  और  भक्ति  के  रस  से  सनी  हुई  मीठी  और  कोमल  वाणी  बोले-  हे  भाई!  कोई  किसी  को  सुख-दुःख  का  देने  वाला  नहीं  है।  सब  अपने  ही  किए  हुए  कर्मों  का  फल  भोगते  हैं॥2॥

 

जोग  बियोग  भोग  भल  मंदा।  हित  अनहित  मध्यम  भ्रम  फंदा॥

जनमु  मरनु  जहँ  लगि  जग  जालू।  संपति  बिपति  करमु  अरु  कालू॥3॥

 

संयोग  (मिलना),  वियोग  (बिछुड़ना),  भले-बुरे  भोग,  शत्रु,  मित्र  और  उदासीन-  ये  सभी  भ्रम  के  फंदे  हैं।  जन्म-मृत्यु,  सम्पत्ति-विपत्ति,  कर्म  और  काल-  जहाँ  तक  जगत  के  जंजाल  हैं,॥3॥

 

दरनि  धामु  धनु  पुर  परिवारू।  सरगु  नरकु  जहँ  लगि  ब्यवहारू॥

देखिअ  सुनिअ  गुनिअ  मन  माहीं।  मोह  मूल  परमारथु  नाहीं॥4॥

 

धरती,  घर,  धन,  नगर,  परिवार,  स्वर्ग  और  नरक  आदि  जहाँ  तक  व्यवहार  हैं,  जो  देखने,  सुनने  और  मन  के  अंदर  विचारने  में  आते  हैं,  इन  सबका  मूल  मोह  (अज्ञान)  ही  है।  परमार्थतः  ये  नहीं  हैं॥4॥

 

होइ  बिबेकु  मोह  भ्रम  भागा।  तब  रघुनाथ  चरन  अनुरागा॥

सखा  परम  परमारथु  एहू।  मन  क्रम  बचन  राम  पद  नेहू॥3॥

 

विवेक  होने  पर  मोह  रूपी  भ्रम  भाग  जाता  है,  तब  (अज्ञान  का  नाश  होने  पर)  श्री  रघुनाथजी  के  चरणों  में  प्रेम  होता  है।  हे  सखा!  मन,  वचन  और  कर्म  से  श्री  रामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होना,  यही  सर्वश्रेष्ठ  परमार्थ  (पुरुषार्थ)  है॥3॥

 

राम  ब्रह्म  परमारथ  रूपा।  अबिगत  अलख  अनादि  अनूपा॥

सकल  बिकार  रहित  गतभेदा।  कहि  नित  नेति  निरूपहिं  बेदा॥4॥

 

श्री  रामजी  परमार्थस्वरूप  (परमवस्तु)  परब्रह्म  हैं।  वे  अविगत  (जानने  में  न  आने  वाले)  अलख  (स्थूल  दृष्टि  से  देखने  में  न  आने  वाले),  अनादि  (आदिरहित),  अनुपम  (उपमारहित)  सब  विकारों  से  रहति  और  भेद  शून्य  हैं,  वेद  जिनका  नित्य  'नेति-नेति'  कहकर  निरूपण  करते  हैं॥4॥

 

भगत  भूमि  भूसुर  सुरभि  सुर  हित  लागि  कृपाल।

करत  चरित  धरि  मनुज  तनु  सुनत  मिटहिं  जग  जाल॥93॥

 

वही  कृपालु  श्री  रामचन्द्रजी  भक्त,  भूमि,  ब्राह्मण,  गो  और  देवताओं  के  हित  के  लिए  मनुष्य  शरीर  धारण  करके  लीलाएँ  करते  हैं,  जिनके  सुनने  से  जगत  के  जंजाल  मिट  जाते  हैं॥93॥

 

सखा  समुझि  अस  परिहरि  मोहू।  सिय  रघुबीर  चरन  रत  होहू॥

कहत  राम  गुन  भा  भिनुसारा।  जागे  जग  मंगल  सुखदारा॥1॥

 

हे  सखा!  ऐसा  समझ,  मोह  को  त्यागकर  श्री  सीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  करो।  इस  प्रकार  श्री  रामचन्द्रजी  के  गुण  कहते-कहते  सबेरा  हो  गया!  तब  जगत  का  मंगल  करने  वाले  और  उसे  सुख  देने  वाले  श्री  रामजी  जागे॥1॥

 

सकल  सौच  करि  राम  नहावा।  सुचि  सुजान  बट  छीर  मगावा॥

अनुज  सहित  सिर  जटा  बनाए।  देखि  सुमंत्र  नयन  जल  छाए॥

 

शौच  के  सब  कार्य  करके  (नित्य)  पवित्र  और  सुजान  श्री  रामचन्द्रजी  ने  स्नान  किया।  फिर  बड़  का  दूध  मँगाया  और  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  सहित  उस  दूध  से  सिर  पर  जटाएँ  बनाईं।  यह  देखकर  सुमंत्रजी  के  नेत्रों  में  जल  छा  गया॥2॥

 

तात  कृपा  करि  कीजिअ  सोई।  जातें  अवध  अनाथ  न  होई॥

मंत्रिहि  राम  उठाइ  प्रबोधा।  तात  धरम  मतु  तुम्ह  सबु  सोधा॥1॥

 

(और  कहा  -)  हे  तात  !  कृपा  करके  वही  कीजिए  जिससे  अयोध्या  अनाथ  न  हो  श्री  रामजी  ने  मंत्री  को  उठाकर  धैर्य  बँधाते  हुए  समझाया  कि  हे  तात  !  आपने  तो  धर्म  के  सभी  सिद्धांतों  को  छान  डाला  है॥1॥ 

 

सिबि  दधीच  हरिचंद  नरेसा।  सहे  धरम  हित  कोटि  कलेसा॥

रंतिदेव  बलि  भूप  सुजाना।  धरमु  धरेउ  सहि  संकट  नाना॥2॥

 

शिबि,  दधीचि  और  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  धर्म  के  लिए  करोड़ों  (अनेकों)  कष्ट  सहे  थे।  बुद्धिमान  राजा  रन्तिदेव  और  बलि  बहुत  से  संकट  सहकर  भी  धर्म  को  पकड़े  रहे  (उन्होंने  धर्म  का  परित्याग  नहीं  किया)॥2॥ 

 

धरमु  न  दूसर  सत्य  समाना।  आगम  निगम  पुरान  बखाना॥

मैं  सोइ  धरमु  सुलभ  करि  पावा।  तजें  तिहूँ  पुर  अपजसु  छावा॥3॥

 

वेद,  शास्त्र  और  पुराणों  में  कहा  गया  है  कि  सत्य  के  समान  दूसरा  धर्म  नहीं  है।  मैंने  उस  धर्म  को  सहज  ही  पा  लिया  है।  इस  (सत्य  रूपी  धर्म)  का  त्याग  करने  से  तीनों  लोकों  में  अपयश  छा  जाएगा॥3॥ 

२.४७

7

Friday, 03/12/2021

चित्रकूट

चित्रकूट महिमावंत हैं, यहां से भगवान राम एक कदम भी कहीं नहीं गये हैं।

 

चित्रकूट अति बिचित्र, सुन्दर बन, महि पबित्र,

पावनि पय-सरित सकल मल-निकन्दिनी |

 

संत, हनुमंत और भगवान राम की यात्रा में ५ विघ्न निश्चिंत हैं।

 

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।

तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥

 

 

तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें श्री सीतारामजी विहार करते हैं॥31॥

 

तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।

तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा।।3।।

 

आपसे लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाशमें उड़ते हैं, किन्तु आकाश का अन्त कोई नहीं पाते। इसी प्रकार हे तात ! श्रीरघुनाथजीकी महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?

रामकथा ध्वन्यात्मक हैं – कुछ ध्वनि नीकलती हैं।

विश्वामित्र का राम को मागना पहला विघ्न हैं।

हनुमंत यात्रा के ५ विघ्न हैं।

भरत की यात्रा में भी ५ विघ्न हैं।

 

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥

पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥

 

मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही॥6॥

 

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥

 

गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥210॥

 

परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

 

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

 

एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।

मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥

सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।

अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥

 

वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुंदरी! महान्‌ संदेह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-

 

भरत  बिनय  सादर  सुनिअ  करिअ  बिचारु  बहोरि।

करब  साधुमत  लोकमत  नृपनय  निगम  निचोरि॥258॥

 

पहले  भरत  की  विनती  आदरपूर्वक  सुन  लीजिए,  फिर  उस  पर  विचार  कीजिए।  तब  साधुमत,  लोकमत,  राजनीति  और  वेदों  का  निचोड़  (सार)  निकालकर  वैसा  ही  (उसी  के  अनुसार)  कीजिए॥258॥

 

सहज  सरल  सुनि  रघुबर  बानी।  साधु  साधु  बोले  मुनि  ग्यानी॥

कस  न  कहहु  अस  रघुकुलकेतू।  तुम्ह  पालक  संतत  श्रुति  सेतू॥4॥

 

श्री  रामजी  की  सहज  ही  सरल  वाणी  सुनकर  ज्ञानी  मुनि  वाल्मीकि  बोले-  धन्य!  धन्य!  हे  रघुकुल  के  ध्वजास्वरूप!  आप  ऐसा  क्यों  न  कहेंगे?  आप  सदैव  वेद  की  मर्यादा  का  पालन  (रक्षण)  करते  हैं॥4॥

 

श्रुति  सेतु  पालक  राम  तुम्ह  जगदीस  माया  जानकी।

जो  सृजति  जगु  पालति  हरति  रुख  पाइ  कृपानिधान  की॥

जो  सहससीसु  अहीसु  महिधरु  लखनु  सचराचर  धनी।

सुर  काज  धरि  नरराज  तनु  चले  दलन  खल  निसिचर  अनी॥

 

हे  राम!  आप  वेद  की  मर्यादा  के  रक्षक  जगदीश्वर  हैं  और  जानकीजी  (आपकी  स्वरूप  भूता)  माया  हैं,  जो  कृपा  के  भंडार  आपका  रुख  पाकर  जगत  का  सृजन,  पालन  और  संहार  करती  हैं।  जो  हजार  मस्तक  वाले  सर्पों  के  स्वामी  और  पृथ्वी  को  अपने  सिर  पर  धारण  करने  वाले  हैं,  वही  चराचर  के  स्वामी  शेषजी  लक्ष्मण  हैं।  देवताओं  के  कार्य  के  लिए  आप  राजा  का  शरीर  धारण  करके  दुष्ट  राक्षसों  की  सेना  का  नाश  करने  के  लिए  चले  हैं।

राम  सरूप  तुम्हार  बचन  अगोचर  बुद्धिपर।

अबिगत  अकथ  अपार  नेति  नेति  नित  निगम  कह।126॥

 

हे  राम!  आपका  स्वरूप  वाणी  के  अगोचर,  बुद्धि  से  परे,  अव्यक्त,  अकथनीय  और  अपार  है।  वेद  निरंतर  उसका  'नेति-नेति'  कहकर  वर्णन  करते  हैं॥126॥ 

 

जगु  पेखन  तुम्ह  देखनिहारे।  बिधि  हरि  संभु  नचावनिहारे॥

तेउ  न  जानहिं  मरमु  तुम्हारा।  औरु  तुम्हहि  को  जाननिहारा॥1॥

 

हे  राम!  जगत  दृश्य  है,  आप  उसके  देखने  वाले  हैं।  आप  ब्रह्मा,  विष्णु  और  शंकर  को  भी  नचाने  वाले  हैं।  जब  वे  भी  आपके  मर्म  को  नहीं  जानते,  तब  और  कौन  आपको  जानने  वाला  है?॥1॥ 

 

सोइ  जानइ  जेहि  देहु  जनाई।  जानत  तुम्हहि  तुम्हइ  होइ  जाई॥

तुम्हरिहि  कृपाँ  तुम्हहि  रघुनंदन।  जानहिं  भगत  भगत  उर  चंदन॥2॥

 

वही  आपको  जानता  है,  जिसे  आप  जना  देते  हैं  और  जानते  ही  वह  आपका  ही  स्वरूप  बन  जाता  है।  हे  रघुनंदन!  हे  भक्तों  के  हृदय  को  शीतल  करने  वाले  चंदन!  आपकी  ही  कृपा  से  भक्त  आपको  जान  पाते  हैं॥2॥

सुनहु  राम  अब  कहउँ  निकेता।  जहाँ  बसहु  सिय  लखन  समेता॥

जिन्ह  के  श्रवन  समुद्र  समाना।  कथा  तुम्हारि  सुभग  सरि  नाना॥2॥

 

हे  रामजी!  सुनिए,  अब  मैं  वे  स्थान  बताता  हूँ,  जहाँ  आप,  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  समेत  निवास  कीजिए।  जिनके  कान  समुद्र  की  भाँति  आपकी  सुंदर  कथा  रूपी  अनेक  सुंदर  नदियों  से-॥2॥

 

भरहिं  निरंतर  होहिं  न  पूरे।  तिन्ह  के  हिय  तुम्ह  कहुँ  गुह  रूरे॥

लोचन  चातक  जिन्ह  करि  राखे।  रहहिं  दरस  जलधर  अभिलाषे॥3॥

 

निरंतर  भरते  रहते  हैं,  परन्तु  कभी  पूरे  (तृप्त)  नहीं  होते,  उनके  हृदय  आपके  लिए  सुंदर  घर  हैं  और  जिन्होंने  अपने  नेत्रों  को  चातक  बना  रखा  है,  जो  आपके  दर्शन  रूपी  मेघ  के  लिए  सदा  लालायित  रहते  हैं,॥3॥

 

निदरहिं  सरित  सिंधु  सर  भारी।  रूप  बिंदु  जल  होहिं  सुखारी॥

तिन्ह  कें  हृदय  सदन  सुखदायक।  बसहु  बंधु  सिय  सह  रघुनायक॥4॥

 

तथा  जो  भारी-भारी  नदियों,  समुद्रों  और  झीलों  का  निरादर  करते  हैं  और  आपके  सौंदर्य  (रूपी  मेघ)  की  एक  बूँद  जल  से  सुखी  हो  जाते  हैं  (अर्थात  आपके  दिव्य  सच्चिदानन्दमय  स्वरूप  के  किसी  एक  अंग  की  जरा  सी  भी  झाँकी  के  सामने  स्थूल,  सूक्ष्म  और  कारण  तीनों  जगत  के  अर्थात  पृथ्वी,  स्वर्ग  और  ब्रह्मलोक  तक  के  सौंदर्य  का  तिरस्कार  करते  हैं),  हे  रघुनाथजी!  उन  लोगों  के  हृदय  रूपी  सुखदायी  भवनों  में  आप  भाई  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  सहित  निवास  कीजिए॥4॥

 

जसु  तुम्हार  मानस  बिमल  हंसिनि  जीहा  जासु।

मुकताहल  गुन  गन  चुनइ  राम  बसहु  हियँ  तासु॥128॥

 

आपके  यश  रूपी  निर्मल  मानसरोवर  में  जिसकी  जीभ  हंसिनी  बनी  हुई  आपके  गुण  समूह  रूपी  मोतियों  को  चुगती  रहती  है,  हे  रामजी!  आप  उसके  हृदय  में  बसिए॥128॥

 

प्रभु  प्रसाद  सुचि  सुभग  सुबासा।  सादर  जासु  लहइ  नित  नासा॥

तुम्हहि  निबेदित  भोजन  करहीं।  प्रभु  प्रसाद  पट  भूषन  धरहीं॥1॥

 

जिसकी  नासिका  प्रभु  (आप)  के  पवित्र  और  सुगंधित  (पुष्पादि)  सुंदर  प्रसाद  को  नित्य  आदर  के  साथ  ग्रहण  करती  (सूँघती)  है  और  जो  आपको  अर्पण  करके  भोजन  करते  हैं  और  आपके  प्रसाद  रूप  ही  वस्त्राभूषण  धारण  करते  हैं,॥1॥

 

सीस  नवहिं  सुर  गुरु  द्विज  देखी।  प्रीति  सहित  करि  बिनय  बिसेषी॥

कर  नित  करहिं  राम  पद  पूजा।  राम  भरोस  हृदयँ  नहिं  दूजा॥2॥

 

जिनके  मस्तक  देवता,  गुरु  और  ब्राह्मणों  को  देखकर  बड़ी  नम्रता  के  साथ  प्रेम  सहित  झुक  जाते  हैं,  जिनके  हाथ  नित्य  श्री  रामचन्द्रजी  (आप)  के  चरणों  की  पूजा  करते  हैं  और  जिनके  हृदय  में  श्री  रामचन्द्रजी  (आप)  का  ही  भरोसा  है,  दूसरा  नहीं,॥2॥

 

चरन  राम  तीरथ  चलि  जाहीं।  राम  बसहु  तिन्ह  के  मन  माहीं॥

मंत्रराजु  नित  जपहिं  तुम्हारा।  पूजहिं  तुम्हहि  सहित  परिवारा॥3॥

 

तथा  जिनके  चरण  श्री  रामचन्द्रजी  (आप)  के  तीर्थों  में  चलकर  जाते  हैं,  हे  रामजी!  आप  उनके  मन  में  निवास  कीजिए।  जो  नित्य  आपके  (राम  नाम  रूप)  मंत्रराज  को  जपते  हैं  और  परिवार  (परिकर)  सहित  आपकी  पूजा  करते  हैं॥3॥

 

तरपन  होम  करहिं  बिधि  नाना।  बिप्र  जेवाँइ  देहिं  बहु  दाना॥

तुम्ह  तें  अधिक  गुरहि  जियँ  जानी।  सकल  भायँ  सेवहिं  सनमानी॥4॥

 

जो  अनेक  प्रकार  से  तर्पण  और  हवन  करते  हैं  तथा  ब्राह्मणों  को  भोजन  कराकर  बहुत  दान  देते  हैं  तथा  जो  गुरु  को  हृदय  में  आपसे  भी  अधिक  (बड़ा)  जानकर  सर्वभाव  से  सम्मान  करके  उनकी  सेवा  करते  हैं,॥4॥

दोहा  :

 

सबु  करि  मागहिं  एक  फलु  राम  चरन  रति  होउ।

तिन्ह  कें  मन  मंदिर  बसहु  सिय  रघुनंदन  दोउ॥129॥

 

और  ये  सब  कर्म  करके  सबका  एक  मात्र  यही  फल  माँगते  हैं  कि  श्री  रामचन्द्रजी  के  चरणों  में  हमारी  प्रीति  हो,  उन  लोगों  के  मन  रूपी  मंदिरों  में  सीताजी  और  रघुकुल  को  आनंदित  करने  वाले  आप  दोनों  बसिए॥129॥

चौपाई  : 

 

काम  कोह  मद  मान  न  मोहा।  लोभ  न  छोभ  न  राग  न  द्रोहा॥

जिन्ह  कें  कपट  दंभ  नहिं  माया।  तिन्ह  कें  हृदय  बसहु  रघुराया॥1॥

 

जिनके  न  तो  काम,  क्रोध,  मद,  अभिमान  और  मोह  हैं,  न  लोभ  है,  न  क्षोभ  है,  न  राग  है,  न  द्वेष  है  और  न  कपट,  दम्भ  और  माया  ही  है-  हे  रघुराज!  आप  उनके  हृदय  में  निवास  कीजिए॥1॥ 

 

सब  के  प्रिय  सब  के  हितकारी।  दुख  सुख  सरिस  प्रसंसा  गारी॥

कहहिं  सत्य  प्रिय  बचन  बिचारी।  जागत  सोवत  सरन  तुम्हारी॥2॥

 

जो  सबके  प्रिय  और  सबका  हित  करने  वाले  हैं,  जिन्हें  दुःख  और  सुख  तथा  प्रशंसा  (बड़ाई)  और  गाली  (निंदा)  समान  है,  जो  विचारकर  सत्य  और  प्रिय  वचन  बोलते  हैं  तथा  जो  जागते-सोते  आपकी  ही  शरण  हैं,॥2॥

 

तुम्हहि  छाड़ि  गति  दूसरि  नाहीं।  राम  बसहु  तिन्ह  के  मन  माहीं॥

जननी  सम  जानहिं  परनारी।  धनु  पराव  बिष  तें  बिष  भारी॥3॥

 

और  आपको  छोड़कर  जिनके  दूसरे  कोई  गति  (आश्रय)  नहीं  है,  हे  रामजी!  आप  उनके  मन  में  बसिए।  जो  पराई  स्त्री  को  जन्म  देने  वाली  माता  के  समान  जानते  हैं  और  पराया  धन  जिन्हें  विष  से  भी  भारी  विष  है,॥3॥

 

जे  हरषहिं  पर  संपति  देखी।  दुखित  होहिं  पर  बिपति  बिसेषी॥

जिन्हहि  राम  तुम्ह  प्रान  पिआरे।  तिन्ह  के  मन  सुभ  सदन  तुम्हारे॥4॥

 

जो  दूसरे  की  सम्पत्ति  देखकर  हर्षित  होते  हैं  और  दूसरे  की  विपत्ति  देखकर  विशेष  रूप  से  दुःखी  होते  हैं  और  हे  रामजी!  जिन्हें  आप  प्राणों  के  समान  प्यारे  हैं,  उनके  मन  आपके  रहने  योग्य  शुभ  भवन  हैं॥4॥

दोहा  :

 

स्वामि  सखा  पितु  मातु  गुर  जिन्ह  के  सब  तुम्ह  तात।

मन  मंदिर  तिन्ह  कें  बसहु  सीय  सहित  दोउ  भ्रात॥130॥

 

हे  तात!  जिनके  स्वामी,  सखा,  पिता,  माता  और  गुरु  सब  कुछ  आप  ही  हैं,  उनके  मन  रूपी  मंदिर  में  सीता  सहित  आप  दोनों  भाई  निवास  कीजिए॥130॥

चौपाई  :

 

अवगुन  तजि  सब  के  गुन  गहहीं।  बिप्र  धेनु  हित  संकट  सहहीं॥

नीति  निपुन  जिन्ह  कइ  जग  लीका।  घर  तुम्हार  तिन्ह  कर  मनु  नीका॥1॥

 

जो  अवगुणों  को  छोड़कर  सबके  गुणों  को  ग्रहण  करते  हैं,  ब्राह्मण  और  गो  के  लिए  संकट  सहते  हैं,  नीति-निपुणता  में  जिनकी  जगत  में  मर्यादा  है,  उनका  सुंदर  मन  आपका  घर  है॥1॥

 

गुन  तुम्हार  समुझइ  निज  दोसा।  जेहि  सब  भाँति  तुम्हार  भरोसा॥

राम  भगत  प्रिय  लागहिं  जेही।  तेहि  उर  बसहु  सहित  बैदेही॥2॥

 

जो  गुणों  को  आपका  और  दोषों  को  अपना  समझता  है,  जिसे  सब  प्रकार  से  आपका  ही  भरोसा  है  और  राम  भक्त  जिसे  प्यारे  लगते  हैं,  उसके  हृदय  में  आप  सीता  सहित  निवास  कीजिए॥2॥

 

जाति  पाँति  धनु  धरमु  बड़ाई।  प्रिय  परिवार  सदन  सुखदाई॥

सब  तजि  तुम्हहि  रहइ  उर  लाई।  तेहि  के  हृदयँ  रहहु  रघुराई॥3॥

 

जाति,  पाँति,  धन,  धर्म,  बड़ाई,  प्यारा  परिवार  और  सुख  देने  वाला  घर,  सबको  छोड़कर  जो  केवल  आपको  ही  हृदय  में  धारण  किए  रहता  है,  हे  रघुनाथजी!  आप  उसके  हृदय  में  रहिए॥3॥

 

सरगु  नरकु  अपबरगु  समाना।  जहँ  तहँ  देख  धरें  धनु  बाना॥

करम  बचन  मन  राउर  चेरा।  राम  करहु  तेहि  कें  उर  डेरा॥4॥

 

स्वर्ग,  नरक  और  मोक्ष  जिसकी  दृष्टि  में  समान  हैं,  क्योंकि  वह  जहाँ-तहाँ  (सब  जगह)  केवल  धनुष-बाण  धारण  किए  आपको  ही  देखता  है  और  जो  कर्म  से,  वचन  से  और  मन  से  आपका  दास  है,  हे  रामजी!  आप  उसके  हृदय  में  डेरा  कीजिए॥4॥

दोहा  : 

 

जाहि  न  चाहिअ  कबहुँ  कछु  तुम्ह  सन  सहज  सनेहु।

बसहु  निरंतर  तासु  मन  सो  राउर  निज  गेहु॥131॥

 

जिसको  कभी  कुछ  भी  नहीं  चाहिए  और  जिसका  आपसे  स्वाभाविक  प्रेम  है,  आप  उसके  मन  में  निरंतर  निवास  कीजिए,  वह  आपका  अपना  घर  है॥131॥ 

 

राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई।।

जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं।।1।।

 

हे पक्षिराज गरुड़जी ! श्रीरामजीकी कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिये। जब-जब श्रीरामचन्द्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिये बहुत-सी लीलाएँ करते हैं,।।1।।

 

तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ।

जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई।।2।।

 

तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म महोत्व देखता हूँ और [भगवान् की शिशुलीलामें] लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ।।2।।

 

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Saturday, 04/12/2021

अयोध्या – अवध

भगवान राम ने २१ महानुभावो से जिज्ञासा की हैं – प्रश्न पूछे हैं।

बुद्ध पुरुष की आंखो से गीरे हुए आंसु कहां जाते हैं? ऐसे समय यह द्रश्य देखकर आश्रित की आंखो से गीरे हुए आंसु कहां जाते हैं?

बुद्ध पुरुष की आंखे से गीरे हुए आंसु ठाकुरजी के चरण में जाते हैं। जिस की स्मरण में ऐसे आंसु गीरकर जिसका स्मरण किया हें उस के चरण में जाते हैं और ऐसे आंसु देखकर आश्रित की आंखो से गीरे हुए आंसु अपने बुद्ध पुरुष के चरण में जाते हैं।

आंसु अहंकार को कम करता हैं।

 

कबीरा हंसना छोड़ दे , रोने से कर प्रीत ।

रोने से कित पा लिए , प्रेम पियारे मीत !!

 

हे कबीरा ! प्रेम के आँसुऔ से कितने ही प्रेमियों ने प्रभु को पा लिया इसलिए रोने से प्रीत कर !!

 

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार |

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ||

 

बिधाता ( ब्रह्मा जी ) ने इस सारी सृष्टि ( चाहे वो जड़ हो अथवा चेतन )को गुन और दोष से युक्त बनाया है, कहने का भाव इस संसार में जितने भी जड़ चेतन हैं उनमें गुण और दोष दोनों ही हैं | एक परमात्मा को छोड़कर चाहे बड़े से बड़े सिद्ध क्यों न हों कुछ न कुछ दोष सबके अन्दर रहती हैं , लेकिन गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि इस संसार में जो संत रूपी हंस हैं वे दोष रूपी पानी का त्याग करके गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं अथवा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दूसरों के दोष को देखने वाले की बड़ी हानि होती है | जैसे - जब हम दूसरों के दोष को देखते हैं तो उसका चिंतन करते हैं और चिंतन करते करते धीरे-धीरे वह दोष हमारे कर्म में आ जाता हैं |

दूसरा- जब हम किसी के दोष को देखते हैं तो हम अन्य लोंगों के सामने उसकी निंदा करते हैं , इस पर गोस्वामी जी ने कहा है कि - सब कै निंदा जे जड़ करिहहिं | ते चमगादुर होइ अवतरहीं ||

वशिष्ट विधाता के लेख को भी रद करने में सक्षम हैं। वशिष्ट ब्रह्मा के पुत्र हैं।

सदगुरु – बुद्ध पुरुष कुछ भी करने के लिये सक्षम होते हैं।

मरण तिथीनो महिमा छे मोटो ……………..

साधु पुरुष अंत समय में भगवान के नाम, रुप, लीला या धाम या विग्रह को याद कर देह छोडता हैं।

राम और भरत यह दो दशरथ राजा और सुमंत की दो आंखे थी, सुमंत भी पिता समान हैं।

मानस का संजय सुमंत हैं।

सुख सपना, दुःख बुद्बुदा …………

सुख दुःख घट साथे रे घडिया ………………..

जो संसार के प्रपंच से दूर हैं वही जागृत हैं – जागा हुआ हैं।

 

एहिं  जग  जामिनि  जागहिं  जोगी।  परमारथी  प्रपंच  बियोगी॥

जानिअ  तबहिं  जीव  जग  जागा।  जब  सब  बिषय  बिलास  बिरागा॥2॥

 

इस  जगत  रूपी  रात्रि  में  योगी  लोग  जागते  हैं,  जो  परमार्थी  हैं  और  प्रपंच  (मायिक  जगत)  से  छूटे  हुए  हैं।  जगत  में  जीव  को  जागा  हुआ  तभी  जानना  चाहिए,  जब  सम्पूर्ण  भोग-विलासों  से  वैराग्य  हो  जाए॥2॥ 

विषयो का विलास में अतिरेक नहीं होना चाहिये।

परमात्मा जरुरियात पुरी करता हैं, लेकिन अपेक्षा को पुरी नहीं करता हैं।

मरते समय किसी का भी द्वेष नहीं होना चाहिये – किसी के प्रति भी कोई कटूता नहीं आनी चाहिये।

 

हा  रघुनंदन  प्रान  पिरीते।  तुम्ह  बिनु  जिअत  बहुत  दिन  बीते॥

हा  जानकी  लखन  हा  रघुबर।  हा  पितु  हित  चित  चातक  जलधर॥4॥

 

हा  रघुकुल  को  आनंद  देने  वाले  मेरे  प्राण  प्यारे  राम!  तुम्हारे  बिना  जीते  हुए  मुझे  बहुत  दिन  बीत  गए।  हा  जानकी,  लक्ष्मण!  हा  रघुवीर!  हा  पिता  के  चित्त  रूपी  चातक  के  हित  करने  वाले  मेघ!॥4॥ 

ब्रह्म के बाप को भी कर्म भोगना पडता हैं।

 

बिलपत  राउ  बिकल  बहु  भाँती।  भइ  जुग  सरिस  सिराति  न  राती॥

तापस  अंध  साप  सुधि  आई।  कौसल्यहि  सब  कथा  सुनाई॥2॥

 

राजा  व्याकुल  होकर  बहुत  प्रकार  से  विलाप  कर  रहे  हैं।  वह  रात  युग  के  समान  बड़ी  हो  गई,  बीतती  ही  नहीं।  राजा  को  अंधे  तपस्वी  (श्रवणकुमार  के  पिता)  के  शाप  की  याद  आ  गई।  उन्होंने  सब  कथा  कौसल्या  को  कह  सुनाई॥2॥

 

राम  राम  कहि  राम  कहि  राम  राम  कहि  राम।

तनु  परिहरि  रघुबर  बिरहँ  राउ  गयउ  सुरधाम॥155॥

 

राम-राम  कहकर,  फिर  राम  कहकर,  फिर  राम-राम  कहकर  और  फिर  राम  कहकर  राजा  श्री  राम  के  विरह  में  शरीर  त्याग  कर  सुरलोक  को  सिधार  गए॥155॥

 

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।

जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।

गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥2॥

 

हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए ॥2॥

६ बार राम राम कहने का अर्थ हैं -राम नाम ६ शास्त्रो का सार हैं, छठ्ठा दिन हैं, तीनो के लिये राम राम, सुमंत, कौशल्या और सुमित्रा को राम राम किया।

विपत्ति में विवेक काम आता हैं।

शिव अभिषेक – शिव स्मरण अमंगल घटना में राहत देता हैं।

परम प्रेम किये बिना मरना आत्महत्या हैं।

प्रेमी को अपने प्रियतम की हर क्रिया का समय का पता होता हैं।

गेर समज करनेवाले कुछ लोग हि होते हैं – ज्यादा मात्रा में नहीं होते हैं।

 

तात  बात  मैं  सकल  सँवारी।  भै  मंथरा  सहाय  बिचारी॥

कछुक  काज  बिधि  बीच  बिगारेउ।  भूपति  सुरपति  पुर  पगु  धारेउ॥1॥

 

हे  तात!  मैंने  सारी  बात  बना  ली  थी।  बेचारी  मंथरा  सहायक  हुई।  पर  विधाता  ने  बीच  में  जरा  सा  काम  बिगाड़  दिया।  वह  यह  कि  राजा  देवलोक  को  पधार  गए॥1॥

 

सुनत  भरतु  भए  बिबस  बिषादा।  जनु  सहमेउ  करि  केहरि  नादा॥

तात  तात  हा  तात  पुकारी।  परे  भूमितल  ब्याकुल  भारी॥2॥

 

भरत  यह  सुनते  ही  विषाद  के  मारे  विवश  (बेहाल)  हो  गए।  मानो  सिंह  की  गर्जना  सुनकर  हाथी  सहम  गया  हो।  वे  'तात!  तात!  हा  तात!'  पुकारते  हुए  अत्यन्त  व्याकुल  होकर  जमीन  पर  गिर  पड़े॥2॥

 

पितु  हित  भरत  कीन्हि  जसि  करनी।  सो  मुख  लाख  जाइ  नहिं  बरनी॥

सुदिनु  सोधि  मुनिबर  तब  आए।  सचिव  महाजन  सकल  बोलाए॥1॥

 

पिताजी  के  लिए  भरतजी  ने  जैसी  करनी  की  वह  लाखों  मुखों  से  भी  वर्णन  नहीं  की  जा  सकती।  तब  शुभ  दिन  शोधकर  श्रेष्ठ  मुनि  वशिष्ठजी  आए  और  उन्होंने  मंत्रियों  तथा  सब  महाजनों  को  बुलवाया॥1॥

साधु के अवसान के बाद शोक सभा नहीं लेकिन श्लोक सभा होती हैं।

संत भरत की यात्रा – राम तक पहुंचने - में ५ विघ्न आते हैं – व्रत भंग नियम – व्रत जाहेर नही होना चाहिये, -  समाज अकारण गेरसमज करेगा, ॠषि गण परीक्षा करने के लिये वैभव पेदा कर कसोटी करते हैं, देवगण विघ्न पेदा करते हैं, अपने स्वजन विरोध करते हैं और मारने तक की बात करते हैं।

 

अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥

जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥2॥

 

मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, (क्योंकि) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं॥2॥

आत्मश्लाघा करने से अपना सुक्रित खत्म हो जाते हैं।

 

सनमानि  सुर  मुनि  बंदि  बैठे  उतर  दिसि  देखत  भए।

नभ  धूरि  खग  मृग  भूरि  भागे  बिकल  प्रभु  आश्रम  गए॥

तुलसी  उठे  अवलोकि  कारनु  काह  चित  सचकित  रहे।

सब  समाचार  किरात  कोलन्हि  आइ  तेहि  अवसर  कहे॥

 

देवताओं  का  सम्मान  (पूजन)  और  मुनियों  की  वंदना  करके  श्री  रामचंद्रजी  बैठ  गए  और  उत्तर  दिशा  की  ओर  देखने  लगे।  आकाश  में  धूल  छा  रही  है,  बहुत  से  पक्षी  और  पशु  व्याकुल  होकर  भागे  हुए  प्रभु  के  आश्रम  को  आ  रहे  हैं।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  प्रभु  श्री  रामचंद्रजी  यह  देखकर  उठे  और  सोचने  लगे  कि  क्या  कारण  है?  वे  चित्त  में  आश्चर्ययुक्त  हो  गए।  उसी  समय  कोल-भीलों  ने  आकर  सब  समाचार  कहे। 

 

सुनत  सुमंगल  बैन  मन  प्रमोद  तन  पुलक  भर।

सरद  सरोरुह  नैन  तुलसी  भरे  सनेह  जल॥226॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  सुंदर  मंगल  वचन  सुनते  ही  श्री  रामचंद्रजी  के  मन  में  बड़ा  आनंद  हुआ।  शरीर  में  पुलकावली  छा  गई  और  शरद्  ऋतु  के  कमल  के  समान  नेत्र  प्रेमाश्रुओं  से  भर  गए॥226॥

 

बहुरि  सोचबस  भे  सियरवनू।  कारन  कवन  भरत  आगवनू॥

एक  आइ  अस  कहा  बहोरी।  सेन  संग  चतुरंग  न  थोरी॥1॥

 

सीतापति  श्री  रामचंद्रजी  पुनः  सोच  के  वश  हो  गए  कि  भरत  के  आने  का  क्या  कारण  है?  फिर  एक  ने  आकर  ऐसा  कहा  कि  उनके  साथ  में  बड़ी  भारी  चतुरंगिणी  सेना  भी  है॥1॥

 

 

बिषई  जीव  पाइ  प्रभुताई।  मूढ़  मोह  बस  होहिं  जनाई॥

भरतु  नीति  रत  साधु  सुजाना।  प्रभु  पद  प्रेमु  सकल  जगु  जाना॥1॥

 

परंतु  मूढ़  विषयी  जीव  प्रभुता  पाकर  मोहवश  अपने  असली  स्वरूप  को  प्रकट  कर  देते  हैं।  भरत  नीतिपरायण,  साधु  और  चतुर  हैं  तथा  प्रभु  (आप)  के  चरणों  में  उनका  प्रेम  है,  इस  बात  को  सारा  जगत्‌  जानता  है॥1॥

 

मसक  फूँक  मकु  मेरु  उड़ाई।  होइ  न  नृपमदु  भरतहि  भाई॥

लखन  तुम्हार  सपथ  पितु  आना।  सुचि  सुबंधु  नहिं  भरत  समाना॥2॥

 

मच्छर  की  फूँक  से  चाहे  सुमेरु  उड़  जाए,  परन्तु  हे  भाई!  भरत  को  राजमद  कभी  नहीं  हो  सकता।  हे  लक्ष्मण!  मैं  तुम्हारी  शपथ  और  पिताजी  की  सौगंध  खाकर  कहता  हूँ,  भरत  के  समान  पवित्र  और  उत्तम  भाई  संसार  में  नहीं  है॥2॥

 

 

सगुनु  खीरु  अवगुन  जलु  ताता।  मिलइ  रचइ  परपंचु  बिधाता॥

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा।  जनमि  कीन्ह  गुन  दोष  बिभागा॥3॥

 

हे  तात!  गुरु  रूपी  दूध  और  अवगुण  रूपी  जल  को  मिलाकर  विधाता  इस  दृश्य  प्रपंच  (जगत्‌)  को  रचता  है,  परन्तु  भरत  ने  सूर्यवंश  रूपी  तालाब  में  हंस  रूप  जन्म  लेकर  गुण  और  दोष  का  विभाग  कर  दिया  (दोनों  को  अलग-अलग  कर  दिया)॥3॥

 

सानुज  सखा  समेत  मगन  मन।  बिसरे  हरष  सोक  सुख  दुख  गन॥

पाहि  नाथ  कहि  पाहि  गोसाईं।  भूतल  परे  लकुट  की  नाईं॥1॥

 

छोटे  भाई  शत्रुघ्न  और  सखा  निषादराज  समेत  भरतजी  का  मन  (प्रेम  में)  मग्न  हो  रहा  है।  हर्ष-शोक,  सुख-दुःख  आदि  सब  भूल  गए।  हे  नाथ!  रक्षा  कीजिए,  हे  गुसाईं!  रक्षा  कीजिए'  ऐसा  कहकर  वे  पृथ्वी  पर  दण्ड  की  तरह  गिर  पड़े॥1॥

 

कहत  सप्रेम  नाइ  महि  माथा।  भरत  प्रनाम  करत  रघुनाथा॥

उठे  रामु  सुनि  पेम  अधीरा।  कहुँ  पट  कहुँ  निषंग  धनु  तीरा॥4॥

 

लक्ष्मणजी  ने  प्रेम  सहित  पृथ्वी  पर  मस्तक  नवाकर  कहा-  हे  रघुनाथजी!  भरतजी  प्रणाम  कर  रहे  हैं।  यह  सुनते  ही  श्री  रघुनाथजी  प्रेम  में  अधीर  होकर  उठे।  कहीं  वस्त्र  गिरा,  कहीं  तरकस,  कहीं  धनुष  और  कहीं  बाण॥4॥

 

बरबस  लिए  उठाइ  उर  लाए  कृपानिधान।

भरत  राम  की  मिलनि  लखि  बिसरे  सबहि  अपान॥240॥

 

कृपा  निधान  श्री  रामचन्द्रजी  ने  उनको  जबरदस्ती  उठाकर  हृदय  से  लगा  लिया!  भरतजी  और  श्री  रामजी  के  मिलन  की  रीति  को  देखकर  सबको  अपनी  सुध  भूल  गई॥240॥

 

भरत  सील  गुर  सचिव  समाजू।  सकुच  सनेह  बिबस  रघुराजू॥

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2॥

 

इधर  तो  भरतजी  का  शील  (प्रेम)  और  उधर  गुरुजनों,  मंत्रियों  तथा  समाज  की  उपस्थिति!  यह  देखकर  श्री  रघुनाथजी  संकोच  तथा  स्नेह  के  विशेष  वशीभूत  हो  गए  (अर्थात  भरतजी  के  प्रेमवश  उन्हें  पाँवरी  देना  चाहते  हैं,  किन्तु  साथ  ही  गुरु  आदि  का  संकोच  भी  होता  है।)  आखिर  (भरतजी  के  प्रेमवश)  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कृपा  कर  खड़ाऊँ  दे  दीं  और  भरतजी  ने  उन्हें  आदरपूर्वक  सिर  पर  धारण  कर  लिया॥2॥

 

चरनपीठ  करुनानिधान  के।  जनु  जुग  जामिक  प्रजा  प्रान  के॥

संपुट  भरत  सनेह  रतन  के।  आखर  जुग  जनु  जीव  जतन  के॥3॥

 

करुणानिधान  श्री  रामचंद्रजी  के  दोनों  ख़ड़ाऊँ  प्रजा  के  प्राणों  की  रक्षा  के  लिए  मानो  दो  पहरेदार  हैं।  भरतजी  के  प्रेमरूपी  रत्न  के  लिए  मानो  डिब्बा  है  और  जीव  के  साधन  के  लिए  मानो  राम-नाम  के  दो  अक्षर  हैं॥3॥

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Sunday, 05/12/2021

नंदीगांव

आश्रित की आंख में आंसु कहां से आते हैं?

अपने बुद्ध पुरुष का तीव्र वियोग, अत्यंत विहवला आने से- होने से आश्रित की आंखो में आंसु आते हैं।

अश्रु हमारे मद और अहंकार को क्रमशः कम करते हैं।

महापुरुष के मिलन का अकल्पित योग मिल जाने पर साधक की आंखो में अश्रु आते हैं।

साधु में सब – महापुरुष, सदगुरु -समाहित हैं

जब कभी अपने बुद्ध पुरुष का साधक से जाने अनजाने में अपराध हो गया हो और उस अपराध का जब साधक को पता लगता हैं तब उस की आंखो में अश्रु आते हैं।

हमारी पात्रता अपात्रता देखे बिना जब बुद्ध पुरुष हमें कोई सेवा का मौका दे दे तब साधक की आंखो में अश्रु आते हैं।

यह चार आश्रित के आंसु के केन्द्र बिंदु हैं।

जब अपना बुद्ध पुरुष हमें दांटे तब हमें उत्सव मनाना चाहिये, क्योंकि जब बुद्ध पुरुष हमें अपना समजता हैं तब हि वह हमें दांटता हैं। ऐसे समय भी साधक की आंख में अश्रु आते हैं।

लक्ष्मी भी साधु की सेवा नहीं कर शकती हैं।

शुन्यता हि साधु का वैभव हैं,

सब मम प्रिय सब मम उपजाये ………….

सब मम प्रिय सब मम अपनाये …………

भरत चरित्र से क्या शीख लेनी चाहिये?

भरत चरित्र से स्वयं की खोज करे, समाज की सेवा निरंतर करे, परमात्मा से प्रेम करे, यह तीन शीख हैं।

 

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

 

इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

पादुका  अष्टकम्‌ ………..

 

राजधरम  सरबसु  एतनोई।  जिमि  मन  माहँ  मनोरथ  गोई॥

बंधु  प्रबोधु  कीन्ह  बहु  भाँती।  बिनु  अधार  मन  तोषु  न  साँती॥1॥

 

राजधर्म  का  सर्वस्व  (सार)  भी  इतना  ही  है।  जैसे  मन  के  भीतर  मनोरथ  छिपा  रहता  है।  श्री  रघुनाथजी  ने  भाई  भरत  को  बहुत  प्रकार  से  समझाया,  परन्तु  कोई  अवलम्बन  पाए  बिना  उनके  मन  में  न  संतोष  हुआ,  न  शान्ति॥1॥

 

भरत  सील  गुर  सचिव  समाजू।  सकुच  सनेह  बिबस  रघुराजू॥

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2॥

 

इधर  तो  भरतजी  का  शील  (प्रेम)  और  उधर  गुरुजनों,  मंत्रियों  तथा  समाज  की  उपस्थिति!  यह  देखकर  श्री  रघुनाथजी  संकोच  तथा  स्नेह  के  विशेष  वशीभूत  हो  गए  (अर्थात  भरतजी  के  प्रेमवश  उन्हें  पाँवरी  देना  चाहते  हैं,  किन्तु  साथ  ही  गुरु  आदि  का  संकोच  भी  होता  है।)  आखिर  (भरतजी  के  प्रेमवश)  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कृपा  कर  खड़ाऊँ  दे  दीं  और  भरतजी  ने  उन्हें  आदरपूर्वक  सिर  पर  धारण  कर  लिया॥2॥

पहले शब्द की महिमा जाननी चाहिये बाद में शब्द की मर्यादा जाननी चाहिये और आखिर में शब्द से भी मुक्ति होनी चाहिये ……………….. आदि शंकर

जाने बिना ईश्वर कैसे माने और अगर जान लिया तो वह ईश्वर कैसे हो शकता है? ईश्वर जाना नहीं जाता।

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

 

हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।

 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।

 

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।।2।।

 

तुषाराद्रि संकाश गौरं गमीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। तसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।

 

जो हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, जिसके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।।3।।

 

चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।

मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।

 

जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।

 

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।

 

प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथमें त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।5।।

 

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।

चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद पसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।

 

कलाओं से परे, कल्याण, स्वरुप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरनेवाले, मनको मथ डालनेवाले कामदेव के शत्रु हे प्रभो ! प्रसन्न हूजिये प्रसन्न हूजिये।।6।।

 

न यावद् उमानाथ पादारविन्द। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।

 

जबतक पार्वती के पति आपके चरणकमलों से मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हूजिये।।7।।

 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

 

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।

 

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।9।।

 

भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिये ब्राह्मणद्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं, उनपर भगवान् शम्भु प्रसन्न हो जाते हैं।।9।।

शब्द ब्रह्म हैं।

शिखर पर पहुंचने के बाद अपना नाम भी बोज लगता हैं।

ईश्वर को खुश करना आसान हैं लेकिन यह जगत को खुश करना मुश्किल हैं।

उपवास करने के बाद हि उसके नकदिक वास मिलता हैं।

सीता ने पुत्रो ………………

 

चरनपीठ  करुनानिधान  के।  जनु  जुग  जामिक  प्रजा  प्रान  के॥

संपुट  भरत  सनेह  रतन  के।  आखर  जुग  जनु  जीव  जतन  के॥3॥

 

करुणानिधान  श्री  रामचंद्रजी  के  दोनों  ख़ड़ाऊँ  प्रजा  के  प्राणों  की  रक्षा  के  लिए  मानो  दो  पहरेदार  हैं।  भरतजी  के  प्रेमरूपी  रत्न  के  लिए  मानो  डिब्बा  है  और  जीव  के  साधन  के  लिए  मानो  राम-नाम  के  दो  अक्षर  हैं॥3॥

 

कुल  कपाट  कर  कुसल  करम  के।  बिमल  नयन  सेवा  सुधरम  के॥

भरत  मुदित  अवलंब  लहे  तें।  अस  सुख  जस  सिय  रामु  रहे  तें॥4॥

 

रघुकुल  (की  रक्षा)  के  लिए  दो  किवाड़  हैं।  कुशल  (श्रेष्ठ)  कर्म  करने  के  लिए  दो  हाथ  की  भाँति  (सहायक)  हैं  और  सेवा  रूपी  श्रेष्ठ  धर्म  के  सुझाने  के  लिए  निर्मल  नेत्र  हैं।  भरतजी  इस  अवलंब  के  मिल  जाने  से  परम  आनंदित  हैं।  उन्हें  ऐसा  ही  सुख  हुआ,  जैसा  श्री  सीता-रामजी  के  रहने  से  होता  है॥4॥

 

प्राण बल होना चाहिये और उससे स्नेह होना चाहिये, बाद में हरिनाम भी होना चाहिये, कूल की मर्यादा भी होनी चाहिये।

सेवा करने के लिये निर्मल – विमल नेत्र होने चाहिये।

एक पादुका सीता हैं और दूसरी पादुका राम हैं।

 

राम  मातु  गुर  पद  सिरु  नाई।  प्रभु  पद  पीठ  रजायसु  पाई॥

नंदिगाँव  करि  परन  कुटीरा।  कीन्ह  निवासु  धरम  धुर  धीरा॥1॥

 

फिर  श्री  रामजी  की  माता  कौसल्याजी  और  गुरुजी  के  चरणों  में  सिर  नवाकर  और  प्रभु  की  चरणपादुकाओं  की  आज्ञा  पाकर  धर्म  की  धुरी  धारण  करने  में  धीर  भरतजी  ने  नन्दिग्राम  में  पर्णकुटी  बनाकर  उसी  में  निवास  किया॥1॥

 

तेहिं  पुर  बसत  भरत  बिनु  रागा।  चंचरीक  जिमि  चंपक  बागा॥

रमा  बिलासु  राम  अनुरागी।  तजत  बमन  जिमि  जन  बड़भागी॥4॥

 

उसी  अयोध्यापुरी  में  भरतजी  अनासक्त  होकर  इस  प्रकार  निवास  कर  रहे  हैं,  जैसे  चम्पा  के  बाग  में  भौंरा।  श्री  रामचन्द्रजी  के  प्रेमी  बड़भागी  पुरुष  लक्ष्मी  के  विलास  (भोगैश्वर्य)  को  वमन  की  भाँति  त्याग  देते  हैं  (फिर  उसकी  ओर  ताकते  भी  नहीं)॥4॥

 

सिय  राम  प्रेम  पियूष  पूरन  होत  जनमु  न  भरत  को।

मुनि  मन  अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

श्री  सीतारामजी  के  प्रेमरूपी  अमृत  से  परिपूर्ण  भरतजी  का  जन्म  यदि  न  होता,  तो  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  यम,  नियम,  शम,  दम  आदि  कठिन  व्रतों  का  आचरण  कौन  करता?  दुःख,  संताप,  दरिद्रता,  दम्भ  आदि  दोषों  को  अपने  सुयश  के  बहाने  कौन  हरण  करता?  तथा  कलिकाल  में  तुलसीदास  जैसे  शठों  को  हठपूर्वक  कौन  श्री  रामजी  के  सम्मुख  करता?

 

भरत  चरित  करि  नेमु  तुलसी  जो  सादर  सुनहिं।

सीय  राम  पद  पेमु  अवसि  होइ  भव  रस  बिरति॥326॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं-  जो  कोई  भरतजी  के  चरित्र  को  नियम  से  आदरपूर्वक  सुनेंगे,  उनको  अवश्य  ही  श्रीसीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होगा  और  सांसारिक  विषय  रस  से  वैराग्य  होगा॥326॥

 

इति  श्रीमद्रामचरितमानसे  सकलकलिकलुषविध्वंसने  द्वितीयः  सोपानः  समाप्तः।  कलियुग  के  सम्पूर्ण  पापों  को  विध्वंस  करने  वाले  श्री  रामचरित  मानस  का  यह  दूसरा  सोपान  समाप्त  हुआ॥