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Sunday, December 19, 2021

માનસ પરમાનંદ, मानस परमानंद

 

રામ કથા

માનસ પરમાનંદ

મુંબઈ

શનિવાર, તારીખ ૧૮/૧૨/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૨૬/૧૨/૨૦૨૧

મુખ્ય ચોપાઈ

परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥

परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥

 

 

શનિવાર, ૧૮/૧૨/૨૦૨૧

परमानंद के कई उद्‌भव स्थान हैं।

 

जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥

परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥

 

जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकर) राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ॥3॥

 

परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥

यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3॥

 

परम आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में (तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो॥3॥

जब मन पुरा भर जाय य मन पुरा शून्य हो जाय, या मन पूर्ण भर जाय तब परमानंद प्राप्त होता हैं। योगीओ का मन पूर्ण तरह भर जाता हैं।

गुरु विवेक की लाठी से हमारे भटकेल ठिक करता हैं।

गुरु अगर हमारी अपेक्षा पूर्ण न करे तो हमें कोई ग्लानी नहीं होनी चाहिये।

गुरु, परमात्मा हि समय आने पर हमें शरण में ले लेता हैं।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

 

।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

रावण को अशोक वृक्ष बहूत प्रिय थे।

 

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥

 

हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

आश्रित शरण में लेवानी मागणी करता हैं।

बुद्ध पुरुष स्वयं परमानंद रुप हैं।

 

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

 

मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

 

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥

सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥

 

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥

ईश्वर जो सहन न कर शके उस से ज्यादा सहन बुद्ध पुरुष करता हैं।

 

नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।

नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।।

भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।

गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।।

 

आकाशमें बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओंके झुंड-के-झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानन्द प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदिसहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और सक्ति लिये हुए सुशोभित हैं।।1।।

 

 

2

Sunday, 19/12/2021

जब हमारा मन परमानंद में डूब जाय तो क्या करना चाहिये?

परमानंद भक्ति वाचक हैं, परमानंद मे समाधि भी लग शकती हैं।

परमानंद की उत्पत्ति के १२ केन्द्र हैं।

सुख और आनंद अलग हैं। परमानंद का – आनंद का भी एक  सुख हो शकता हैं।

आनंद तो सागर हैं, सात सागर के मुजब आनंद भी सात हैं।

चार घटना आने के बाद परमानंद आता हैं।

ब्रहानंद ज्ञान परख हैं, परमानंद भक्ति परख हैं।

जब हम सहज रहते हैं तब मानो वहां कथा चलती हैं।

अपना ईष्ट ग्रंथ में परमात्मा की लीला का चरित्र जब हमें याद आने लगे तब परमानंद के प्रारंभ का प्रथम सोपान हैं।

और पुरे शरीर में एक रोमांच आ जायम प्रेम प्रगट हो जाय तब परमानंद मिलता हैं।

 

चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।

बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

 

गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है? ॥103॥

नेत्र में जब अश्रु आ जाय तब परमानंद आता हैं।

शास्त्र कथित रुप जब आमने सामने दिखाई दे तब परमानंद का सुख मिलता हैं।

 

हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥

श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥4॥

 

श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया॥4॥

 

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

 

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा॥6॥

तन का अर्थ लघुता होता हैं – अति सुक्ष्म होता हैं।

 

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।

मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।

कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥

 

वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)॥3॥

यह सब भगवत अनुग्रह से हि प्राप्त होता हैं।

निर्दोषता आनंद हि परमात्मा हैं।

 

निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।

निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥

 

(वह मन ही मन सोचने लगा-) अपने परम प्रियतम को देखकर नेत्रों को सफल करके सुख पाऊँगा। जानकीजी सहित और छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत कृपानिधान श्री रामजी के चरणों में मन लगाऊँगा। जिनका क्रोध भी मोक्ष देने वाला है और जिनकी भक्ति उन अवश (किसी के वश में न होने वाले, स्वतंत्र भगवान) को भी वश में करने वाली है, अब वे ही आनंद के समुद्र श्री हरि अपने हाथों से बाण सन्धानकर मेरा वध करेंगे।

विस्मृति -भूलजाना भी वरदान हैं।

 

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहे किन कोऊ॥

मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥3॥

 

आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)॥3॥

 

जिस का मन मुनि मन होता हैं वह किसी का परावज किये बिना नृत्य करता हैं। मुनि मन निर्दोष होता हैं।

 

 

3

Monday, 20/12/2021

निर्दोष सुख और निर्दोष आनंद में क्या फर्क हैं?

सुख कभी भी निर्दोष होई नहीं शकता, सुख सापेक्ष हैं। सुख दुःख सापेक्ष हैं।

आनंद कभी भी दोषित होता नहीं हैं।

आनंद परमात्मा का रुप हैं, सच्चिदानंद हैं।

 

 

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥4॥

 

हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं। श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है॥4॥

अहंता का मतलब ममता हैं जिस में किसी चीज के प्रति हमारी ममता हैं जब कि कुछ नहीं होते हुए उस चीज का होना ऐसा वर्ताव अभिमान हैं, अभिमानमें हमारे पास कुछ नहीं हैं फिर भी वह चीज के लिये हम अभिमान करते हैं।

राम स्वयं परमानंद हैं, पुरान पुरुष हैं।

 

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥

 

हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें॥1॥

 

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2॥

 

हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥

परमात्मा प्रेम से प्रगट होता हैं और प्रेम प्रगट होने के ८ स्थान हैं।

 

मिलनि  प्रीति  किमि  जाइ  बखानी।  कबिकुल  अगम  करम  मन  बानी॥

परम  प्रेम  पूरन  दोउ  भाई।  मन  बुधि  चित  अहमिति  बिसराई॥1॥

 

मिलन  की  प्रीति  कैसे  बखानी  जाए?  वह  तो  कविकुल  के  लिए  कर्म,  मन,  वाणी  तीनों  से  अगम  है।  दोनों  भाई  (भरतजी  और  श्री  रामजी)  मन,  बुद्धि,  चित्त  और  अहंकार  को  भुलाकर  परम  प्रेम  से  पूर्ण  हो  रहे  हैं॥1॥

पादूका फर्निचर नहीं हैं, अपना फ्युचर हैं।

शरणागति केवल एक की हि होनी चाहिये और केवल एकबार हि लि जाती हैं।

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मनुष्य शरीर, मनुषत्व और सज्जन का संग दुर्लभ हैं …………… आदि शंकर

श्रद्धा और साधु संग और भजन क्रिया प्रेम प्रगट करने के बिंदु हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

 

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

 मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

दोहा :

 

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

 

 तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

चौपाई :

 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

 

 मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमंर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

निष्ठा अमुल्य हैं, प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं हैं।

परमानंद का रस लेने के लिये दीक्षित मन जरुरी हैं। मन कृष्ण की विभूति हैं।

ईन्द्रीयो का दमन न करो और दहन – नाश  भी न करो, सिर्फ गुरु चरन रज से मन पवित्र करके दर्शन करो।

 

 

4

Tuesday, 21/12/2021

कथा के सभी श्रोता युवान हि होता हैं।

सभी स्तोत्र में ध्यान आता हि हैं।

किस का ध्यान करनेसे परमानंद प्राप्त होता हैं? हम जैसे संसारीओ के लिये गुर जो साक्षात परम ब्रह्म हैं उस का ध्यान करने – रसमय ध्यान करने से परमानंद प्राप्त होता हैं।

 

मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।

रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111।

 

शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥111॥

 

परमात्मा हि रस हैं, रसौ वैसः

ध्यान रसमय होना चाहिये, ध्यान दरम्यान अश्रु बहने चाहिये।

गुरु जो बोलता हैं – गुरु वाक्य - वह मंत्र हैं।

 

सहज  सनेहँ  स्वामि  सेवकाई।  स्वारथ  छल  फल  चारि  बिहाई॥

अग्यासम    सुसाहिब  सेवा।  सो  प्रसादु  जन  पावै  देवा।2॥

 

वह  रुचि  है-  कपट,  स्वार्थ  और  (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष  रूप)  चारों  फलों  को  छोड़कर  स्वाभाविक  प्रेम  से  स्वामी  की  सेवा  करना।  और  आज्ञा  पालन  के  समान  श्रेष्ठ  स्वामी  की  और  कोई  सेवा  नहीं  है।  हे  देव!  अब  वही  आज्ञा  रूप  प्रसाद  सेवक  को  मिल  जाए॥2॥

  कभी कभी गुरु आज्ञा विचित्र – असंगत भी होती हैं। फिर भी ऐसी आज्ञा का पालन करना चाहिये। गुरु आज्ञा प्रसाद हैं, ऐसा प्रसाद मिल जाय तो बेडा पार हो जाता हैं।

गुरु आज्ञा में कोई संगती नहीं होती हैं।

गुरु गति – गुरु आज्ञा - विहंगा चाल होती हैं।

गुरु आज्ञा में कोई संगति नहीं होती हैं फिर भी गुरु की संगति करनी चहिये।

 

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

 

शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥

 

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥

गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

 

शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥

 

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

 

एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥

गंगा स्नान करने से भी परमानंद प्राप्त होता हैं।

यमुना पान का अर्थ हरि नाम का पान हैं, ऐसा पान भी परमानंद की अनुभुति कराता हैं।

दान से भी परमानंद की अनुभुति होती हैं – सच्चे दिलसे क्षमा करना दान हैं, क्षमा भी एक तिर्थ हैं, क्षमा पृथ्वी जैसी होनी चाहिये।

जब तक मरण न आये या जन्मो जन्म धैर्य रखो, सहन करो।

 

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥

 

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥

भगवान की कीर्ति, लीला का गान और आत्म ज्ञान – आत्म बोध भी परमानंद की अनुभुति कराता हैं।

जानकी, ऊमा, स्वयं नवदुर्गा हैं।

 

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥

उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥3॥

 

(इस प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि-) मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो॥3॥

हनुमान ९ बार जानकी को मा कहते हैं, और ३ बार जननी कहते हैं और यह ९+३=१२ का मतलब बारह ज्योतिर्लिंग हनुमान जो शिवावतार हैं वह कहता हैं।

 

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥

यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥

 

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥5॥

 

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥

उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥5॥

 

हनुमान्‌जी ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥5॥

5

Wednesday, 22/12/2021

कभी कभ कोई शेरी – गली - से पसार होने दरम्यान भॉ परमानंद प्राप्त होता हैं।

 

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

 

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।

वाणी भी एक छल हैं, अगर ऐसी वाणी विनायकी वाणी नहीं हैं तो।

राम बाप हैं और काम राम का बेटा हैं ईसी लिये राम और काम एक साथ रहे तो राम काम को नियंत्रित करेंगे।

 

 

7, Friday,

24/12/2021

परमानंद अहर अमर होता हैं, सुख और दुःख की आयु हैं।

आनंद में रहना चाहिये लेकिन आनंद में रहने दरम्यान संगत, संपति के वजह से हम आनंद भ्रष्ट हो जाते हैं।

परमानंद - अखंड आनंद का ईच्छा मरण होता हैं।

जो भ्रष्ट नहीं होता हैं उसका आनंद नष्ट नहीं होता हैं।

अपने विश्वास को कभी भी भ्रष्ट नहीं होने देना चाहिये।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार रथ के घोडा हैं और उस का चालक कृष्ण हैं, अर्जुन पुरुषार्थ करता हैं और कृष्ण कृपा करता हैं।

अति कृपा पाचक नहीं होती हैं।

हम अमृत के संतान हैं ……….. वेद

हम अग्नि के संतान हैं।

हम भारत माता के संतान हैं।

हम गाय की संतान हैं।

शंकर रजत वर्ण हैं, लेकिन हनुमान सुवर्ण वर्ण हैं।

जीवन में विषम परिस्थिति हि विष हैं, सिर्फ महादेव हि हमे ऐसी परिस्थिति से बचाता हैं।

HOW ARE YOU?

WHO ARE YOU?

WHERE ARE YOU?

 

सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।

सब मम प्रिय, सब मम अपनाए।

परमानंद ईच्छा मरण हैं।

व्यापक स्थळांतर नहीं कर शकता हैं, अद्रश्य हो शकता हैं।
मा अपने बच्चे को जितना जरुरी हैं इतना हि दूध पिलातई हैं, परमात्मा भॉ जितनी पच शके ईतनी हो कृपा करता हैं।

अनुंबंध का अर्थ एक प्रमाणिक दुरी हैं।

परमानंद मिला हैं उसे कैसे पहचाने?

जब परमानंद प्राप्त होता हैं तब हमे कुछ बाजे बचानेकी ईच्छा होती हैं, नर्तन करने की, गाने की ईच्छा होती हैं, कुछ अच्छा श्रवण करनेकी ईच्छा होती हैं, परमानंद अकेले नहीं भोग शकते हैं, परमानंद में दुसरो को सामेल करने की ईच्छा होती हैं, शारिरिक परिवर्तन होता हैं, प्रेम बढता हैं, मन प्रफुल्लित होता हैं,

रास परमानंद का एक अवसर हैं।

घर में जब कुछ पारायण या धार्मिक प्रसंग का आयोजन होता हैं तब हम दूसरो को आमंत्रित करके परमानंद में सामिल करते हैं।

अभाव का भी एक आनंद होता हैं।

गरीबी भी एक अमीरी होती हैं।

 

8

Saturday, 25/12/2021

परमानंद का कोई स्थायी भाव हैं?

भ्रह्मानंद ज्ञान परख हैं, परमानंद प्रेमीओका, भजनानंदीओका, शव्द भ्रह्म हैं।

ईश्वर और जीव जब तक दो रहे तब तक परमानंद नहीं जब यह दो एक हो हाय तब परमानंद प्राप्त होता हैं, ईश्वर और जीव का एक भाव हो जाना हि स्थायी भाव हैं।

नदी जब सागर में मिल जाती हैं तब वह सागर में लीन हो जाती हैं नदी नहीं रहती हैं। यही परमानंद का स्थायी भाव हैं।

पद प्रतिष्ठा विकार हैं और उस की बदबु कभी न कभी आती हैं।

 

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥

सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥

 

जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है॥4॥
परमानंद का स्थायी भाव प्राप्त होने के बाद एक हि बार बोलना आता हिं कि “अहं ब्रह्मास्मि” – जय सियाराम – जय श्री राम – जय श्री कृष्ण वगेर - और कुछ बोलना रहता हि नहीं हैं।

 

जनम जनम सिव पद अनुरागा॥

ईश्वर में लीन हो जाना परमानंद हैं।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

भगवान की कथा कई रुप में हमें आनंद देती हैं।

हनुमानजी के ८ गुण ……….

 

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

 

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

 

महादेव के आठ अवगुण सनतकुमार कहते हैं।

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥

बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

 

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्‌जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥

 

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

 

जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी चले॥4॥

 

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥

 

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥

 

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥

कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

 

फिर मन को सावधान करके शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे- हनुमान्‌जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया॥2॥

जो कथा कंथा पहना दे वैराग्य पेदा कर दे वहीं सच्ची कथा हैं। ……………………………  अतुल क्रिष्न

 

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।

प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।

 

आप परमानन्दस्वरूप कृपाके धाम और मनकी कामनाओंको परिपूर्ण करनेवाले हैं। हे श्रीरामजी ! हमको अपनी अविचल प्रेमा भक्ति दीजिये।।34।।

 

यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥

 

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥

काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥

 

मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥6॥

9

Sunday, 26/12/2021

सम्यक

कथा में जो बोला जाय वह बुद्ध पुरुष की एक अनुभूति हैं।

कथा श्रवण के बाद अनुभूति में प्रवेश करे।

परमानंद प्राप्ति के १४ केन्द्र हैं।

शव्द, स्पर्श, रस, रुप और गंध यह हमारी पांच ईन्द्रीयो के विषय हैं। और यह विषय सम्यक होना चाहिये।

हमारी ईन्द्रीयों बुद्ध पुरुष की चरण रज से दीक्षित होती हैं।

ज्यादा कथा श्रवण का अहंकार नहीं आना चाहिये।

रुप की एक महिमा हैं अगर देखना सम्यक हो जाय, रुप की आलोचना नहीं करनी चाहिये।

गुरु हमें याद करे – स्मरण करे और उस से हमारी चेतना जाग जाय यह स्मरण दीक्षा हैं।

सुर्य भी हो और बादल भी बरसे उस में स्नान करना दिव्य स्नान हैं।

स्मृति स्नान सब से अच्छा स्नान हैं, किसी के याद में स्नान करना।

पंच तत्व के साथ अम्यकता रखने से, उस से दीक्षित होने से परमानंद की प्राप्ति होती।

पृथ्वी का गुण धैर्य हैं ईसी लिये हमें सम्यक धैर्य अपने विवेक द्वारा रखना चाहिये। हर कार्य उस के समय पर करनी चाहिये, की कार्य करने में धैर्य नहीं रख शकते हैं।

 

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥

 

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥

व्रत रखने में कभी कभी आकरी कसोटी भी आती हैं।

કિડી ને કોશનો ડામ ન દેવાય.

सम्यक जल में रहना चाहिये।

झांझर, करधनी, चुडियां और गले का हार और शिर का मुगुट अपने स्थान के अनुसार आवाज करते हैं।

वायु भी सम्यक होना चाहिये।

आकाश में अपनी औकात के अनुसार सम्यक रहकर उडान करनी चाहिये, ऐसी उडान परमानंद का केन्द्र बिंदु हैं।

मन. बुद्धि, चित और अहंकार जब सम्यक रहे तो वह भी परमानंद की अनुभूति करा शकते हैं।

 

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥

सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥

 

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥

चित को ऐसी जगह रखे जिस से चिय ज्यादा संकल्प विकल्प न करे।

दीनता और दंभ अलग हैं, कभी कभी ज्यादा दीनता में दंभ दिखाई देता हैं।

अपनेपन की अस्मिता रखनी चाहिये और ऐसी अस्मिता अहंकार नहीं हैं।

भगवान राम के ९ अनुग्रह -निज ईच्छा प्रगट होना, दशरथ के आंगन में बाल लीला, उद्धारक लीला, मारिच को प्ररम प्रेमी बनाना, स्वीकार करना - अहल्या का स्वीकार, धनुष्य भंग और परशुराम की विदाय, विवाह लीला, वन लीला, चित्रकूट में विहार लीला, लंका युद्ध में रण लीला और राम राज्य लीला हैं।

बुद्ध पुरुष के लिये कोई अधम नहीं हैं।

मुनि मति और सुर वृत्ति हो तो संगीत से भी परमानंद प्राप्त होता हैं।

 

नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।।

भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।

गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।।

 

आकाशमें बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओंके झुंड-के-झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानन्द प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदिसहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और सक्ति लिये हुए सुशोभित हैं।।1।।