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Tuesday, July 27, 2021

मानस अमरकंटक - 863


Ram Katha - 863 

Amarkantak

माँ नर्मदा की उद्गम स्थली, खूबसूरत झरने, पवित्र कुण्ड, ऊंची पहाड़ियों और घने जंगलों से आच्छादित प्रकृति एवं अध्यात्म से ओतप्रोत पर्वतमाला तीर्थ अमरकंटक में परम पूज्य तपस्वी बाबा कल्याण दास जी महाराज के पावन सान्न्ध्यि में मोरारी बापू द्वारा कोरोना नियमों के पूर्ण पालन के साथ पूर्व आमंत्रित सीमित श्रोताओं के संग आयोजित "863वीं राम कथा" का कल्याण सेवा आश्रम, अमरकंटक, मध्य प्रदेश से सीधा प्रसारण देखिए

 

31 जुलाई 2021, सायं 4:00 से 6:00 बजे

1 से 8 अगस्त 2021, प्रातः 10:00 से 1:30 बजे तक आस्था चैनल एवम चित्रकूटधाम तलगजरड़ा यूट्यूब चैनल द्वारा ।

 

Source Link 

 

રામ કથા - 863

માનસ અમરકંટક

मानस अमरकंटक

અમરકંટક

શનિવાર, તારીખ ૩૧/૦૭/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૦૮/૦૮/૨૦૨૧

મુખ્ય પંક્તિ

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी।

सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥

सुरसरि  सरसइ  दिनकर  कन्या। 

मेकलसुता  गोदावरि  धन्या॥

 

 

૧ શનિવાર, ૩૧/૦૭/૨૦૨૧

 

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥

सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥

यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥

 

बिबुध  बिपिन  जहँ  लगि  जग  माहीं।  देखि  रामबनु  सकल  सिहाहीं॥

सुरसरि  सरसइ  दिनकर  कन्या।  मेकलसुता  गोदावरि  धन्या॥2॥

 

जगत  में  जहाँ  तक  (जितने)  देवताओं  के  वन  हैं,  सब  श्री  रामजी  के  वन  को  देखकर  सिहाते  हैं,  गंगा,  सरस्वती,  सूर्यकुमारी  यमुना,  नर्मदा,  गोदावरी  आदि  धन्य  (पुण्यमयी)  नदियाँ,॥2॥ 

 

आध्यात्म जगत में कंटक अमरता प्रदान करते हैं।

 

त्रिजग देव नर जोइ तनु धरऊँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ।।

एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ।।1।।

 

तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी) देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस शरीरमें) मैं श्रीरामजी का भदजन जारी रखता। [इस प्रकार मैं सुखी हो गया ] परन्तु एक शूल मुझे बना रहा। गुरुजी का कोमल, सुशील स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता (अर्थात् मैंने ऐसा कोमल स्वभाव दयालु गुरुका अपमान किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)।1।।

यह स्थल पर देहधारी गुरु एक शूल दे दे तो उसको फलित होने में देर नहीं लगती

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

 

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

यह मेकल सुता अष्ट सिद्धि देती हैं और शुद्धि भी देती है

 

ધૂણી રે ધખાવી બેલી અમે તારા નામની

ધૂણી રે ધખાવી બેલી અમે તારા નામની

 

भगवत कथा के पांच कारण हैं।

१          हमारे पूर्वज के पून्य से राम कथा, सतसंग में प्रवेश मिलता हाइं

२          हमारे पूर्व शुभ कर्म से

३          वर्तमान समय के अच्छे कर्म से

४          अस्तित्त्वकी ईच्छा से

५          अपने बुध्ध पुरुष की कृपा भगवत कथा को अवतरीत करते हैं।

 

वाल्मीकि रामायण का प्राण सत हैं, योग वशिष्ट रामायण का केन्द्र चित हैं, आनंद रामायण केन्द्र आनंद प्रधान हैं जब कि तुलसी का राम चरित मानस का सत चित आनंद तीनो प्रधान हैं।

साधु मोसम को भी बदल देता हैं, यह एक सिद्धि हैं।

शुद्धि बिना की सिद्धि पतन करा देती हैं।

मन, बुद्धि, चित, अंतःकरण सब गुरु कृपा से शुद्ध हो, उसमें भजन का दारुगोला भरा है और समय आने पर मोती पिरा लेना हैं।

अष्ट सिद्धि नव निद्धि के दाता …………..

नयन शुद्धि, श्रवण शुद्धि, वाणी शुद्धि, कर्म शुद्धि, संकल्प शुद्धि, मनोरथ शुद्धि बगेरे यह सब अष्ट सिद्धि हैं।

भजन करने वाले की नींदा होगी हि। भजन करनेबाले को ऐसे विघ्न की तैयारी रखनी चाहिये।

विश्वास, विचार और वैराग्य यह तीन पहाड हैं।

पहाड गहराई का पहाड हैं।

वैराग्य हि अभय प्रदान देता हैं।

 

 2

Sunday, 01/08/2021

 

गंगा का स्नान, यमुना का पान, सरस्वती का गान, सरजु के पास ध्यान का महातम हैं लेकिन  मेकल सुता के केवल दर्शन की महातम हैं।

सुहागन नारी का दर्शन का महत्व हैं, गंगा स्वरुप मातृ शरीर, पयपान कराती मातृ शरीर का निर्दोष भावसे दर्शन, कुंवारी कन्या का दर्शन महिमावंत हैं।

संगीत उहापोह नहीं हैं एक संगती हैं। शुद्ध संगीत की साधनामें आवाज का महत्व हैं, शुद्ध संगीत में आवाज होता हि हैं।
जनक के सामने गायी गई अष्टवक्र गीता एक महत्वपूर्ण गीता हैं। महाभारत के युद्ध के दरम्यान कृष्ण द्वारा गायी गई गीता का महत्व हैं।

प्रवृति मार्ग में एक राग होता हि हैं, संगीत भी एक प्रवृति होनेके नाते उसमें राग आता हि हैं।

बुद्ध पुरुष रात में जाग कर अपना ईष्ट का स्मरण और अपने शिष्य की चिंता करता हैं – चिंतन करता हैं।

मौन जब भीगा होता हैं तो उअसमें से फूल फलित होता हैं।

निवृत्ति में द्वेष पेदा होता हैं, धर्म मार्ग में भी निवृति के बाद द्वेष पेदा होता हैं।

मेकल सुता रेवा नर्मदा का आध्यात्मिक नाम हैं, रेवा कुंवारी हैं, उसके दर्शन की महिमा हैं।

 

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥

नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥

 

वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥

अमरकंटक तीन नदीयो का उद्गम स्थान हैं।

रोष व्यक्ति को उलटी दिशा में ले जाता हैं।

मेकल सुता भी रोष वष उलटी दिशा में जाती हैं, जो शरणागती की दिशा, शरणागति का प्रवाह हैं। यह शरणागति के प्रवाह की कुछ बाधा भगवान शंकर गाते हैं।

भीष्म की मति भी कुंवारी हैं।

हमारी शरणागति रीझकर कुंवारी होनी चाहिये।

आसुरी वृत्ति ६ हैं।

राम का चित्र धर्म का चित्र हैं। राम रणरंग धीरम्‌ हैं। संसार एक रण हैं – युद्ध हैं जिसमें धैर्य रखना चाहिये।

संसारमें अनेक विकार हैं। क्रोध, दंभासुर, दर्प – अभिमानम भ्रमित बुद्धि, व्रकता – आडोडाई, (नाचवुं न होय तो कहे आंगणुं वांकु ए आडोडाई छे),

एक व्यक्ति की वक्र गति पुरे संसारको बिगाड देती हैं।

 

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।

 

  •        16.4।।हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेकका होना भी -- ये सभी आसुरीसम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
  •        16.4।। हे पार्थ ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी (पारुष्य) और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है।।
  •         16.4।।अब आगे आसुरी सम्पत्ति कही जाती है --, दम्भ -- धर्मध्वजीपन? दर्प -- धनपरिवार आदिके निमित्तसे होनेवाला गर्व? अतिमान -- पहले कही हुई अपनेमें अतिशय पूज्य भावना तथा क्रोध और पारुष्य यानी कठोर वचन जैसे ( आक्षेपसे ) कानेको अच्छे नेत्रोंवाला? कुरूपको रूपवान् और हीन जातिवालेको उत्तम जातिवाला बतलाना इत्यादि। अज्ञान अर्थात् अविवेक -- कर्तव्य और अकर्तव्यादिके विषयमें उलटा निश्चय करना। हे पार्थ ये सब लक्षण? आसुरी सम्पत्तिको ग्रहण करके उत्पन्न हुए मनुष्यके हैं? अर्थात् जो असुरोंकी सम्पत्ति है उससे युक्त होकर उत्पन्न हुए मनुष्यके चिह्न हैं।

अभिमान में मैं सबसे बडा हुं और दूसरे सब मुझ से छोटे हैं, ऐसा लगता हैं, जब कि दर्प मैं जो हुं सो हुं वह दूसरों की नहीं सोचता हैं – दूसरे मुझ से छोटे हैं ऐसा नहीं सोचता हैं।

मगर अहंकार का प्रतीक हैं।

युद्ध से पहले संधी करनी चाहिये, आज कल पहले युद्ध होता हैं बादमें संधी करते हैं।

 

काम  कोह  मद  मान  न  मोहा।  लोभ  न  छोभ  न  राग  न  द्रोहा॥

जिन्ह  कें  कपट  दंभ  नहिं  माया।  तिन्ह  कें  हृदय  बसहु  रघुराया॥1॥

 

जिनके  न  तो  काम,  क्रोध,  मद,  अभिमान  और  मोह  हैं,  न  लोभ  है,  न  क्षोभ  है,  न  राग  है,  न  द्वेष  है  और  न  कपट,  दम्भ  और  माया  ही  है-  हे  रघुराज!  आप  उनके  हृदय  में  निवास  कीजिए॥1॥ 

 

दादा की पागडी ने सत्य दिया, पोथी ने प्रेम दिया और पादूकाने करुणा दिया।

शरणागति सोच समज कर करनी चाहिये, चाहे समजनेमें एक जन्म भी क्यों न नीकल जाय।

हमारी कुंवारी शरणागति विश्वास के पहाड से नीकलती हैं।

ओपरेशन थियेटर में डोक्टर और प्रवचन थियेटर में  वक्ता को हिलाना – खलेल पहुंचाने से - गंभीर परिणाम आता हैं, एक खतरा हैं।

कथा श्रवण अनेक जन्मो के पून्य से मिलता हैं।

विषयो के विलास से वैराग्य आना चाहिये।

मेकल सुता में हर कंकर शंकर हो जाते हैं, हम भी ऐसे कंकर बन जाय तो शंकर होनेकी संभावना हैं।

 

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

 

इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥1॥

श्री राधे ऐसा नाम हैं जो समाधि लगा शकता हैं और शंकर भगवान की ग्लानी की समाधि से बाहर भी ला शकता हैं – ग्लानी समाधि छूडा शकता हैं।

कथा श्रवण भी तप हैं।

 

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

 

भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं॥1॥

तुलसीदासजी कथा श्रोता के लक्षण भरद्वाज मुनि के लक्षण द्वारा बताते हैं कि श्रोता तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर होना चाहिये।

 

3

Monday, 02/08/2021

शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।

सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥

 

त्वदम्बु लीन दीन मीन दिव्य सम्प्रदायकम

कलौ मलौघ भारहारि सर्वतीर्थ नायकं

 

इस के साथ – मेकल सुता के साथ यदु वंश का संबंध हैं।

हमारी श्रद्धा जड बन गई हैं।

भजनानंदी किसी भी रचना का मूल नहीं भूलता हैं – रचनाकार का संदर्भ – अवस्था  क्या हैं वह जानना चाहिये, शास्त्र बिना गुरु मुख समझमें नहीं आता।

कृष्ण कभी भी रोये हैं? कृष्ण का त्रिभुवन विमोहित मुस्कहारट एक पेटन्ट हैं। ऐसी मुस्कहराट कोई भी नहीं कर शकता हैं, कृष्ण मुस्कराते हुए दिखाई देते हैं लेकिन शास्त्रानुसार वह भी रोये हैं।

गोपी जरुर रोती हैं।

आंसु के जलाशय से हि मुस्कहारट का कमल खिलता हैं।

आंसु के समुद्र से जो मुस्कहराट आती हैं वह शास्वत हैं। ऐसी मुस्कहारट त्रिभुवन को भी विमोहित करती हैं, ऐसी मुस्कहारट से बचना चाहिये, बुद्ध पुरुष की मुस्कहारट से बचना चाहिये। पहुंचे हुए फकिर की मुस्कहारट मार डालती हैं।

वेद के भगवान कौन हैं यह एक चिंतनीय हैं।

जो पाप पुरुष – पाप वृत्ति और पाप दोनो का नाश करे वह भगवान हैं।

गीता में भी भगवान उवाच कहा गया हैं, कृष्ण उवाच ऐसा नहीं कहा गया हैं।

संप्रदाय किसे कहना चाहिये?

हमारे जैसे जीव यह सब कैसे समज पायेगा?

एक बुद्ध पुरुष के पीछे कई अन्य बुद्ध पुरुष आते हैं।

अनेक महा पुरुष गादी पर बैठ कर अन्य की नींदा हि करते रहते हैं, यह व्यासापराध हैं।

हमें अपने भरोंसे पर भरोंसा रखना चाहिये, दूसरे लोग क्या कहते हैं उसे कुछ भी महत्व नहीं देना चाहिये।

प्रतिक्षा करनेवाले राह हि देखते रहते हैं, घडी नहीं देखते हैं।

प्रेम मार्ग में परीक्षा या समिक्षा नहीं होती हैं, सिर्फ प्रतिक्षा हि होती हैं।

आत्मा की प्यास सिर्फ तरस से हि मिटती हैं, लेकिन शरीर की प्यास पानी से मिटती हैं।

लोक मान्यता अग्नि हैं।

कथा में बोर नहीं होना हैं लेकिन सराबोर होना हैं।

कोई शक्ति का जागरण हि वैराग्य पेदा कर शकता हैं। यशोधरा का जागरण हि सिद्धार्थ के महाभिनिषक्रमण का कारण हैं।

जहां मातृ शक्ति का अपमान होता हैं वह सभा अपूर्ण हैं, अधुरी हैं।

वैदिक सभा गार्गी, मैत्री के बिना अधुरी रहती थी।

यह कुंवारी मेकल सुता का संबंध यदु वंश से हैं।

भगवान के ८ लक्षण हैं। भगवान पाप वृत्ति और पाप पुरुष दोनों का नाश करता हैं।

रावण में दंभ नहीं था।

कर्ण जो महा दानी हैं वह सतो गुण से कृष्ण को भजता था। विकर्ण रजो गुण से और कुंभकर्ण तमो गुण से कृष्ण को पाया हैं।

 

समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥

दंड एक रथ देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥2॥

 

रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथजी के रथ को ढँक दिया। एक दण्ड (घड़ी) तक रथ दिखलाई न पड़ा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो॥2॥

 

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥

कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥

 

हे वीर! साँवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?॥4॥

 

मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥

की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥5॥

 

मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं या आप दोनों नर और नारायण हैं॥5॥

 

जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।

की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥1॥

 

अथवा आप जगत्‌ के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान्‌ हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है?॥1॥

 

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥

नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥

 

(श्री रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी॥1॥

युद्ध दरम्यान रावण ने राम को लक्ष्य में नहीं रखा लेकिन राम को अपनी नाभी में रखा था।

राम महा विष्णु हैं, परम विष्णु हैं।

जटायु द्वारा श्रीराम स्तुति

 

जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।

दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥

पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।

नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥

 

हे रामजी! आपकी जय हो। आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणों के (माया के) प्रेरक हैं। दस सिर वाले रावण की प्रचण्ड भुजाओं को खंड-खंड करने के लिए प्रचण्ड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और (लाल) कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और भव-भय से छुड़ाने वाले कृपालु श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥1॥

 

बलमप्रमेयमनादिमजम-ब्यक्तमेकमगोचरं।

गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥

जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।

नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥2॥

 

आप अपरिमित बलवाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविंद (वेद वाक्यों द्वारा जानने योग्य), इंद्रियों से अतीत, (जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि) द्वंद्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो संत राम मंत्र को जपते हैं, उन अनन्त सेवकों के मन को आनंद देने वाले हैं। उन निष्कामप्रिय (निष्कामजनों के प्रेमी अथवा उन्हें प्रिय) तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट वृत्तियों) के दल का दलन करने वाले श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥2॥

 

जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।

करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥

सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।

मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥3॥

जिनको श्रुतियाँ निरंजन (माया से परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्मरहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं। वे ही करुणाकन्द, शोभा के समूह (स्वयं श्री भगवान्‌) प्रकट होकर जड़-चेतन समस्त जगत्‌ को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय कमल के भ्रमर रूप उनके अंग-अंग में बहुत से कामदेवों की छवि शोभा पा रही है॥3॥

 

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।

पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥

सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।

मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥

 

जो अगम और सुगम हैं, निर्मल स्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शांत) हैं। मन और इंद्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्री रामजी निरंतर अपने दासों के वश में रहते हैं। वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है॥4॥

 

राम का निज आयुध अलग हैं।

 

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥

 

निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥

बुद्ध पुरुष हमारे जैसे जीवो के उद्धार के लिये अपने साथ अनेक अन्य बुद्ध पुरुष के साथ जन्म लेता हैं।

कोई भी घटना के साथ एक लंभी यात्रा जुडी हुई होती हैं।

यदुवंशी को श्राप हैं कि उस का कोई भी राजा नहीं बन शकता हैं, भगवान कृष्ण द्वारकाधिश होते हुए राजा नहीं थे, उस समय गणतंत्र था, और राजा उग्रसेन था। लेकिन कृतविर्य यदु वंश में राजा बनता हैं। उसने ४ वरदान मांगे थे – सब जगह मेरा राज्य हो, धर्म विरुद्ध कोई आचरण न हो, इस दुनिया में मैं अपराजीत रहुं, मैं अपने राजय में कुछ गलत होता हैं तो छोटे से छोटा व्यक्ति भी मुझे मेरी गलती बता शकता हैं, मेरी मृत्यु रण मेदान में मेरे से ज्यादा शुरवीर के हाथ से हो। मेकल सुता के प्रवाह को क्रुतवीर्य रोकता हैं।

रावण राम के हाथ से मरा हैं लेकिन भीष्म शीखंडी से हार जाता हैं।

મૃત્યુની ઠેસ વાગશે તો શું થશે ‘જલન,

જીવનની ઠેસની હજુ કળ વળી નથી.

                                                                                              જલન માતરી

कृष्ण वंश के कई पूर्वजो के साथ मेकल सुता का प्रवाह जुडा हैं।

भगवान शंकर संप्रदायक का उल्लेख करते हैं।

संप्रदाय का अर्थ - जो संस्कार दे वह संप्रदाय हैं, कई संप्रदाय व्यसन वगेरे छूडाते हैं, समाज को शीलवान बनाते हैं।

कई संप्रदाय का नायक हमें संतुष्ट कर देते हैं, हमें एक डकार आ जाती हैं, संतोष प्रदान कराता हैं।

संप्रदाय दैवि संपदा से भर देता हैं।

संप्रदाय हमे संघर्ष में हमारे साथ रहे, और जब हमें रास्ता न मिले तब वह नायक – संप्रदाय हमारा राहबर बन जाय ओर हमारे आगे चलकर रास्ता बताए।

संप्रदाय संवाद करे, विवाद न करे।

ईन्सान हि किसी को गोद में ले शकता है।

पशु अपने बच्चे को चाट कर वात्सल्य करता हैं।

भगवदगीता कृष्ण अर्जुन संवाद हैं।

संप्रदाय हमारा संबंध ब्रह्म के साथ जोड दे।

संप्रदाय निरंतर हमें परम का संस्मरण कराता हैं।

 

कई साधु राजकीय साधु होते हैं, कई राष्ट्रीय साधु होते हैं, कोई पारिवारिक साधु होते हैं, कई साधु वैश्विक साधु होते हैं।

 

त्वदम्बुलीनदीनमीनदिव्यसम्प्रदायकं

कलौ मलौघभारहारिसर्वतीर्थनायकम् ।

सुमच्छकच्छनक्रचक्रवाकचक्रशर्मदे

त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥ २॥

 

नर्मदा सदा कुंवारी रहेगी, कभी भी नाश नहीं होगी।

हर बुद्ध पुरुष समय, परिस्थिति और योग के अनुसार आते हैं।

मन संकल्प विकल्प करता हैं, निर्णय बुद्धि करती हैं।

मन वैश्य हैं, देह शुद्र हैं, आत्मा क्षत्रिय हैं, समर्पण करे वह ब्राह्मण हैं।

 

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥2॥

 

तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा-) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है॥2॥

देहवादी मनुष्य शुद्र हैं, जो अपने देह से ओर कुछ सोचता हि नहीं हैं।

संप्रदाय हमें कोई संत से मिला देता हैं।

मन वैश्य हैं, जो मन वादी होता हैं वह कोई निर्णय नहीं कर शकता हैं, संकल्प विकल्प करता हैं।

तृष्णा की बढोती करता हैं वह वैश्य हैं।

देह की कामना करता हैं वह शुद्र हैं।

आत्मा जो क्षत्रिय हैं वह संकल्प करता हैं। क्षत्रिय संकल्प करता हैं, मन संकल्प विकल्प करता हैं।

एकलव्य क्षत्रिय हैं जो अपना अंगुठा काटकर अपने गुरु को अर्पण करनेका संकल्प करता हैं।

जो ब्रह्म को जानता हैं वह ब्राह्मण हैं।

बुद्ध पुरुष शरीर नहीं छोडता हैं, बुद्ध पुरुष जिस को पकडता हैं उसे कभी भी छोडता हि नहीं हैं, वह अपने शरीर को भी पकड कर कभी भी छोडता हि नहीं हैं, सिर्फ रुप बदलता हैं। बुद्ध पुरुष अनेक रुप रुपाय हैं।

बुद्ध पुरुष अकेला नहीं आता हैं, पुरी बारात के साथ आता हैं।

गुरु कुंभार हैं शिष्य घडा हैं जहां कुंभार घडा को चोट मारता हैं, और अंदर हाथ रखकर संभालता हैं, गुरु कलेजे में हाथ डालता हैं।

4

Tuesday, 03/08/2021

भगवान शंकर को मेकल सुता जैसी हि राम कथा प्रिय हैं, और यह दोनों सकल सिद्धि, सकल सुख और सकल  संपत्ति के दाता हैं।

यह सब आध्यात्मिक सिद्धि, सुख और संपत्ति का अर्थ क्या हैं?

योगी सिद्धि की वजह से उडान भी भर शकता हैं ऐसा उल्लेख भी हैं, सिद्धि के कारण व्यक्ति परकाया प्रवेश भी कर शकता हैं।

रक्त का रंग भी सिद्धि की वजह से बदल शकता हैं।

वाक सिद्धि भी एक सिद्धि हैं।

आध्यात्मिक सिद्धि क्या हैं?


जिति  सुरसरि  कीरति  सरि  तोरी।  गवनु  कीन्ह  बिधि  अंड  करोरी॥

गंग  अवनि  थल  तीनि  बड़ेरे।  एहिं  किए  साधु  समाज  घनेरे॥2॥

 

तेरी  कीर्ति  रूपी  नदी  देवनदी  गंगाजी  को  भी  जीतकर  (जो  एक  ही  ब्रह्माण्ड  में  बहती  है)  करोड़ों  ब्रह्माण्डों  में  बह  चली  है।  गंगाजी  ने  तो  पृथ्वी  पर  तीन  ही  स्थानों  (हरिद्वार,  प्रयागराज  और  गंगासागर)  को  बड़ा  (तीर्थ)  बनाया  है।  पर  तेरी  इस  कीर्ति  नदी  ने  तो  अनेकों  संत  समाज  रूपी  तीर्थ  स्थान  बना  दिए  हैं॥2॥

भरत और गोपी का साधन प्रेम हैं और सिद्धि भी प्रेम हैं।

परम चरन में प्रीति सभी विद्या प्रदान करती हैं।

शिव सुख की जन्म भूमि हैं। भव विवेक शंकर कृपा बिना शक्य नहीं हैं।

 

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।

सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भबं भवानीसहितं नमामि।।


है- कर्पूरगौरं- कर्पूर के समान गौर वर्ण वाले, करुणावतारं- करुणा के जो साक्षात् अवतार हैं, अर्थात- जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव माता भवानी सहित मेरे ह्रदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा नमन है ।1

 

परम चरन में प्रीति हि सकल सिद्धि हैं।

प्रेम का बुलावा आता हैं तब जप तप सब छूट जाता हैं।

सच्चे पेर्मी का कभी भी पतन नहीं होता हैं।


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।

 

  • ।।4.8।। साधुओं-(भक्तों-) की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
  • ।।4.8।। साधु पुरुषों के रक्षण,  दुष्कृत्य करने वालों के नाश,  तथा धर्म संस्थापना के लिये,  मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।

 

कृष्ण का तीन हि संकल्प - कार्य हैं। कृष्ण को समजना कठिन हैं। कृष्ण युद्ध के पक्ष में नहीं हैं, जो बांसुरी बजाता हैं वह युद्ध कैसे कर शकता हैं?

साधु का परित्राण, पापीओ का नाश और धर्म संस्थापना यह कृष्ण के तीन संकल्प हैं।

कृष्ण सर संधान नहीं करता हैं लेकिन सुर संधान करता हैं।
जब काल निकट आता हैं तब व्यक्ति विवेक शुन्य हि जाता हैं।

युद्ध जितने के लिये संख्या का महत्व नहीं हैं लेकिन व्युह रचना का महत्व हैं।

कृष्ण का दर्शन हि करो, समिक्षा न करो।

कृष्ण और कर्ण में कई साम्य हैं।

 

नतरु  जाहिं  बन  तीनिउ  भाई।  बहुरिअ  सीय  सहित  रघुराई॥

जेहि  बिधि  प्रभु  प्रसन्न  मन  होई।  करुना  सागर  कीजिअ  सोई॥1॥

अथवा  हम  तीनों  भाई  वन  चले  जाएँ  और  हे  श्री  रघुनाथजी!  आप  श्री  सीताजी  सहित  (अयोध्या  को)  लौट  जाइए।  हे  दयासागर!  जिस  प्रकार  से  प्रभु  का  मन  प्रसन्न  हो,  वही  कीजिए॥1॥

 

परमारथ  स्वारथ  सुख  सारे।  भरत  न  सपनेहुँ  मनहुँ  निहारे॥

साधन  सिद्धि  राम  पग  नेहू।  मोहि  लखि  परत  भरत  मत  एहू॥4॥

 

(श्री  रामचन्द्रजी  के  प्रति  अनन्य  प्रेम  को  छोड़कर)  भरतजी  ने  समस्त  परमार्थ,  स्वार्थ  और  सुखों  की  ओर  स्वप्न  मं   भी  मन  से  भी  नहीं  ताका  है।  श्री  रामजी  के  चरणों  का  प्रेम  ही  उनका  साधन  है  और  वही  सिद्धि  है।  मुझे  तो  भरतजी  का  बस,  यही  एक  मात्र  सिद्धांत  जान  पड़ता  है॥4॥

बुद्ध पुरुष की सब बात – चेष्टा समजने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये, ऐसा करोगे तो भटक जाओगे। बुद्ध पुरुष को समजना मुश्किल हैं।

आध्यात्म यात्रा नकशे के मुजब नहीं होती हैं, NOT AS MENTIONED – DIRECTED IN THE DIRECTION MAP.

गुरु जनो को पुरा मत जानो लेकिन उसे पुरा पा लागो। गुरु हमें जान ले वहीं पर्याप्त हैं।

आध्यात्म सकल सुख क्या हैं?

संसारिक सुख के पीछे दुःख आता हि हैं।

स्वान्तः सुख, आत्म सुख, निज सुख वगेरे आध्यात्म सुख हैं।

 

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥

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Wednesday, 04/08/2021

 

अलक्ष्यलक्षकिन्नरामरासुरादिपूजितं

सुलक्षनीरतीरधीरपक्षिलक्षकूजितम् ।

वसिष्ठशिष्टपिप्पलादिकर्दमादिशर्मदे

त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥ ५॥

 

यह प्रवाह को करिबर गामिनी – गज गामिनी क्यों कहा है?

शबरी भामीनी हैं जब कि जानकी करीबर हैं

अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥

 

जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ॥2॥

पांडवो के लिये कृष्ण दूत बनता हैं, सारथि बनता हैं।

गोविंद और राम में कोई भेद नहीं हैं, गोविंद नाम जैसी ओर कोई औषधि नहीं हैं।

सदा सफल रहे वहीं सच्चा प्रेम – परम प्रेम हैं।

जब पुरा अंतःकरण - मन, बुद्धि, चित, अहंकार - छूट जाय तब श्रवण पूर्णता पर आ गया समजो।

कृष्ण में माता का दर्शन - को देखना यह चैतन्य हैं।

पति परमेश्वर हैं यह तो ठिक हैं लेकिन परमेश्वर में पति देखना चैतन्य हैं।

भजनानंदी का परिवार एक व्यवस्था के रुप में आता हैं, सभी परिवार जन भजनानंदी को सहयोग करते हैं।

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

 

(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥

साधु और साधो में क्या अंतर हैं?

कबीर साधो शब्द कहते हैं, साधो पाकृत भाषा का शब्द हैं जब कि साधु संस्कृत शब्द हैं, साधो का संकेत परस्पर कि ओर हैं।

साधु एक वचन हैं।

कथा में अकेले जाना चाहिये, प्रसन्न चित से श्रवण करना चाहिये, ऐसा लगना चाहिये कि मैं अकेला हि कथा सुनता हुं। वक्ता को भी लगना चाहिये वह भी किसी एक श्रोता को हि कथा सुनाते हैं।

एकान्ते सुखमास्यताम्।

छिना हुआ अमृत अमर बना देता हैं, लेकिन निर्भयता – अभय नहीं देता हैं।

साधो परस्पर हैं, साधु एक वचन हैं।

सिंह राशी में म और ट हैं, म का अर्थ महंत हैं और ट का अर्थ टहलना हैं जो महंताई लेकर भी टहलता हैं वह साधु हैं।

साधु सिंह हैं।

गोपाल गोविंद वल्लभी ………….

विदुर घर जाय ………

अवज्ञा करनेवाले के साथ भी कृष्ण अवज्ञा नहीं करता हैं।

व्यासपीठ के पास और दूसरा कोई होता हि नहीं हैं, एक हि श्रोता होता हैं भले हि अनेक श्रोता हुते हुए।

रामायण गीता मारी अंतर आंखो ………..

 

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥

जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥

 

मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥

जानकी जो भक्ति हैं बह भक्ति को गज गामिनि कहा हैं, एक रुपक हैं।

हाथी और भक्ति के ९ लक्षण हैं।

हाथी और भक्ति बहुत बडी होती हैं। भगवान भी भक्ति के वश में हैं।
भक्ति और हाथी का मस्तक विशालता का संदर्भ हैं।

भक्ति बहुत उदार होती हैं।

 

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

 

(हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं – भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप – ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल – परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।)  ॥ 9॥

 

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका  स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥

 

हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। परन्तु हे प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।) ॥ 1॥

हरिनाम सब विशेषण से मुक्त हैं, हरिनाम छोटा या बडा नहीं होता हैं।
हाथी की आंख छोटी हैं, भक्ति सुक्ष्मतम को पकडती हैं।

हाथी के दांत बडे होते हैं, लेकिन यह दांत काटने वाले नहीं हैं, दर्शनीय हैं, भक्ति भी दर्शनीय होती हैं, रक्षण करती हैं।

हाथी के कान बडे हैं, भक्ति सब सुनती हैं।

भक्त मदमस्त होकर नाचता हैं।

हाथी बहुत दोडता हैं, भक्ति भी तिव्र गति वाली होती लेकिन भक्ति गजगामिनि जैसी होती हैं।

तुलसीदास उनके नाम के उल्लेख में तुलसीदास, तुलसी, दास तुलसी, कवि तुलसी वगेरे करते हैं।

तुलसीदास का अर्थ वह वृंदावन में हैं, ज्ब तुलसीदास शब्द प्रयोग आता हैं तब तुलसीदास वृंदावन में हैं।

जब तुलसी शब्द प्रयोग होता हैं तब उस का संदर्भ उनकी जन्म भूमि राजापुर हैं।

जब दास तुलसी शब्द प्र्योग होता हैं तब वह काशी में हैं।

जब कवि तुलसी शब्द प्रयोग होता हैं तब उसका संदर्भ राम चरित मानस हैं।

ज्ञानी विचार करता हैं जब कि भक्त पुकार करता हैं।