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Wednesday, August 12, 2020

मानस समाधि, માનસ સમાધિ

राम कथा

मानस समाधि

सेंजल धाम, गुजरात

शनिवार, तारीख १५/०८/२०२० थी रविवार, तारीख २३/०८/२०२०

मुख्य चोपाई

संकर सहज सरूपु सम्हारा।

लागि समाधि अखंड अपारा॥

बीतें संबत सहस सतासी।

तजी समाधि संभु अबिनासी॥

शनिवार, १५/०८/२०२०

 

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4

 

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4

 

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥

बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1

 

दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1

 

आदि अंतको जासु न पावा

जगतमें गुरु पद सबसे ऊंचा पद हैं। कैलाश सबसे ऊंचा हैं।

जहां समाधि लग जाय उस स्थानका महत्व हैं।

जो समाधि लग जाय वहा समाधि अखंड होती हैं।

प्रेम तत्त्वका राधा तत्त्वका भी अष्ट योग हैं।

सागर, पृथ्वी, वायु, अग्नि वगेरेको आत्मसाध किया जा शकता हैं पकडा नहीं जा शकता हैं।

महादेव पार्वतीको कथा सुनानेके लिये समाधि त्यज देते हैं। शंकर अविनाशी हैं।

परम तत्त्वको पानेके लिये परम तत्त्वको भी गोपीभावमें आना पडता हैं, कृष्णको भी कृष्णको पानेके लिये गोपी बनना पडता हैं।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।

आसक्तिके ११ प्रकार हैं।

प्रेम धारामें यम, नियम, आसन, प्राणायम, ध्यान, धारणा क्या हैं?

प्रेम मार्गमें यम संयम हैं, सच्चा प्रेमी समुहमें कभी संयम भंग नहीं करेगा।

प्रेम धारामें कोई नियम नहीं हैं।

प्रेम धारामें, भक्ति मार्गमें, अखंड समाधिमें आसन हैं आस न कोई – कोई आशा न रखना हैं।

गोपी गीत ….

आशा रखकर प्रेम करना प्रेम अपराध हैं।

काम, क्रोध  …..

जिन्ह  के  श्रवन  समुद्र  समाना। 

कथा  तुम्हारि  सुभग  सरि  नाना॥2॥

 

प्रेम मार्गका प्राणायम प्राणका संकटमें होना हैं।

શ્યામ વિના મને સુનું સુનું લાગે ….

रुप, गुण, शील और स्वभावका सुमिरन होता हैं।

दुनिया कभी भी साधु पुरुषको समज नहीं पायेगी।

प्रेम मार्गमें प्रति पल हरि नाम का आहार करना ही प्रत्याहार हैं।

प्रेम मार्गमें धारणा हरिको धारण करना हैं।

प्रेम मार्गमें समाधि

८७००० सालकी समाधिका मतलब क्या हैं?

 राम चरित मानसमें समाधि/समाधी शब्दका उपयोग हुआ हो ऐसी पंक्तियां नीचे मुजब हैं।

1

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥

 

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥

 

2

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥

बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥

 

दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥

 

3

सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।

चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥

 

कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाए) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥86॥

4

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥

 

भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥

 

कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥2॥

 

5

सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।

सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।

 

सनकादि मुनि नारद जी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे [रामकथा सुननेके] श्रेष्ठ अधिकारी हैं।।4।।

6

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए साधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121क।।

 

एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे ?।।121(क)।।

7

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥

 

पर्वत, नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादरजी का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई॥2॥

 

8

सभा  सकल  सुनि  रघुबर  बानी। प्रेम  पयोधि  अमिअँ  जनु  सानी॥

सिथिल  समाज  सनेह  समाधी।  देखि  दसा  चुप  सारद  साधी॥1॥

 

श्री  रघुनाथजी  की  वाणी  सुनकर,  जो  मानो  प्रेम  रूपी  समुद्र  के  (मंथन  से  निकले  हुए)  अमृत  में  सनी  हुई  थी,  सारा  समाज  शिथिल  हो  गया,  सबको  प्रेम  समाधि  लग  गई।  यह  दशा  देखकर  सरस्वती  ने  चुप  साध  ली॥1॥

 

 

रविवार, १६/०८/२०२०

गुरु हमारा गला पकडकर सात कांडमें गुमाते हैं तब हमारी आंख खुलती हैं।

 

अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।।

निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।1।।

 

अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह ‘निज सिद्धान्त सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर।।1।।

 

राम चरित मानस एक चरित्र हैं जो हररोज नया नया आकार लेता हैं, दिने दिने नवम नवम।

जिस बानीमें पूर्ण सत्य और जो सुगम हैं वहीं परम बानी हैं।

शास्त्र, भगवद कथा, परम प्रेम सबके बशका विषय नहीं हैं।

 

मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।

सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।2।।

 

यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। [इसमें] अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं; क्यों कि सभी मेरे उत्पन्न किये हुए हैं। [किन्तु] मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छ लगते हैं।।2।।

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी।

तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी।।

तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी।

ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी।।3।।

 

उन मनुष्यों में भी द्विज, द्विजों में भी वेदों को [कण्ठमें] धारण करने वाले, उनमें भी वेदान्त धर्मपर चलने वाले, उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानोंमें फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यन्त प्रिय विज्ञानी हैं।।3।।

 

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।

पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।4।।

 

विज्ञानियों से भी प्रिय मुझे अपना दास है, जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुमसे बार-बार सत्य (‘निज सिद्धात) कहता हूँ कि मुझे अपने सेवकके समान प्रिय कोई नहीं है।।4।।

 

निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।

सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।

रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।

काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।

 

रघुवंश के भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं ? भरतजी के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े [और मन में विचारने लगे कि] जो चराचर के स्वामी हैं वे श्रीरघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों ?

उपर प्रणाम गुरु जनोंको प्रणाम हैं, नीचे प्रणांम अपने नोकर चाकरको प्रणाम हैं, उत्तरमें प्रणाम मित्रको प्रणाम हैं, दक्षिण में प्रणाम आचार्यको प्रणाम हैं, पूर्वमें प्रणाम देवताओको प्रणाम हैं, पश्चिममें प्रणाम पत्नीको प्रणाम हैं।

पत्नी वह हैं जो पतिको द्वारकाधीशके दर्शन के लिये भेजती हैं।

 

भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।

भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।5।।

 

भक्तिहीन बह्मा ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय है। परन्तु भक्ति मान् अत्यन्त नीच भी प्राणी मुझे प्राणोंके समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है।।5।।

 

सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।

श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग।।86।।

 

पवित्र, सुशील और सुन्दर बुद्धिवाला सेवक, बता किसको प्यारा नहीं लगता ? वेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं। हे काक ! सावधान होकर सुन।।86।।

जो पक्तियां परमात्माको लगती हैं, वहीं पंक्तियां जीवंत समाधिको भी लगती हैं।

जीवंत समाधि का महिमा बिना प्रयास किए बढता हैं।

जीवंत समाधिके समक्ष हम खाली हो जाते हैं या पुरे भर जाते हैं।

जीवंत समाधि के पास जाकर तुलनात्मक प्रयास अपने आप छूट जाते हैं।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥

असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥

 

वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥

मानसकी पंक्तियां कोई भी रागमें गाई जा शकती हैं।

संत कथा शास्वत हैं।

जिसकी बात कभी रद नहीं होती हैं वह नारद हैं।

भजनानंदीका ईतिहास नहीं होता हैं, सत्य भजनानंदीके पास होता हैं।

संगीतनी दुनिया सात अक्षरका नाम हैं।

रा तत्वके पीछे जिसका धावन हैं (रा तत्वके पीछे दोडना) वहीं राधा हैं।

 

 3

Monday, 17/08/2020

मनुष्य भी ईश्वर बन शकता हैं।

ईश्वरको पाना नहीं हैं, सिर्फ ईश्वरको पहचानना हैं।

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः

नैको मुनि र्यस्य वचः प्रमाणम् ।

धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्

महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥

तर्क स्थिर नहीं; श्रुतियाँ भी भिन्न भिन्न कहती हैं; एक भी ऐसा ऋषि नहीं जिनका मत प्रमाण के तौर पे लिया जा सके; उपर से, धर्म का तत्त्व भी गूढ है । इस लिए महापुरुष जिस मार्ग पे चले, उसी मार्ग का अनुसरण करना ।

धर्म जो सत्य, प्रेम, करूणा हैं उसे सिद्ध नहीं किया जा शकता हैं।

अपना गुरु अपना महाजन हैं। हमें हमारे गुरुके पंथ पर चलना हैं।

भाव अखंड - शास्वत होता हैं, जब कि भावुकता क्षणभंगुर- क्षणिक होती हैं।

भरत अखंड भावकी मूर्ति हैं, कुंभकर्ण भावुकताकी मूर्ति हैं।

खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराइ।

कुटिल बचन साधू सहै, दूजै सहा न जाइ॥

 

The earth bears the digging. The forest bears the axe. The noble bears the harsh words. Others cannot bear the odds.

**********

 

अष्टांग योग अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि है ।

 

योग के इन आठ अंगों का अनुष्ठान करने अर्थात आचरण में लाने से चित्तवृत्तियों का शुद्धिकरण होता है, जिससे योगी ऋतम्भरा प्रज्ञा का अधिकारी होता है अर्थात उसका अविद्या का आवरण हट जाता है और आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।

यम – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पांच यम कहलाते है ।

सभी यम धर्मं के रक्षक है, अतः जहाँ यम धर्मं के विरोधी हो जाये वहाँ धर्मं को प्रधानता दे । जैसे नीचे विरोधी भावों में बताया गया है ।

 

अहिंसा – “ मन, वाणी और कर्म से कभी भी किसी भी प्रकार के प्राणी को दुःख नहीं देना अहिंसा है । दुसरे शब्दों में प्राणीमात्र से प्रेम अहिंसा है । विरोधी भाव – देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए की गई हिंसा भी अहिंसा है, क्योंकि वह धर्मं की रक्षक है ।

 

सत्य – “ इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान हो उसे वैसा का वैसा व्यक्त करना सत्य है । विरोधी भाव – लंगड़े को लंगड़ा कहना सत्य है, गूंगे को गूंगा कहना भी सत्य है, किन्तु अहिंसा का विरोधी होने से अधर्म है । अतः व्यर्थ का कटु सत्य कभी ना बोले ।

 

अस्तेय – “ दूसरों के विचारों, अधिकारों या वस्तुओं का अपहरण करना चोरी (स्तेय) है, इसके विपरीत अस्तेय है ।

 

ब्रह्मचर्य – “ मन, वचन और कर्म से सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार के मिथुनों का त्याग ब्रह्मचर्य है ।

 

मनसा वाचा कर्मणा सर्वावस्थासु सर्वदा ।

सर्वत्र मैथुन त्यागी ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।।

 

इसलिए प्रत्येक साधक को चाहिए कि उत्तेजक पदार्थों के सेवन, कामोद्दीपक दृश्यों के दर्शन, गीतों के श्रवण से बचें और सभी प्रकार से ब्रह्मचर्य की रक्षा करें ।

 

अपरिग्रह – व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए धन – संम्पति का संग्रह परिग्रह और इसके विपरीत इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है ।

 

नियम – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यह पांच नियम कहलाते है ।

सभी नियम आत्मा, मन और इन्द्रियों की स्वच्छता व पवित्रता के पोषक और शोधक है , अतः जहाँ नियम पवित्रता विरोधी हो जाये वहाँ पवित्रता को प्रधानता दे ।जैसाकि निचे विरोधी भावो में बताया गया है ।

 

शौच –

 

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति ।

विद्यातपोभ्याम भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।

मनुस्मृति ५१०१

 

अर्थात् जल से बाहर के अंगो यथा हाथ, पैर आदि शारीरिक अंग को शुद्ध रखे, सत्य के पालन से मन को शुद्ध रखे, विद्या और तप से जीवात्मा का शुद्धिकरण करें, ज्ञान से बुद्धि का शुद्धिकरण करें । शौच स्वयं पवित्रता का प्रतीक है अतः इसमें विरोधी भाव संभव नहीं ।

 

संतोष – अपने किये गये प्रयत्न के अनुसार जो फल मिले उसमें प्रसन्न रहना संतोष है । कहा भी गया है “ संतोषी सदा सुखी ” जिसे अपने किये गये कर्म में संतोष तथा कर्मफल में विश्वास रहता है वह हमेशा सुखी रहता है । इसलिए आप जो भी करें ईश्वर का कार्य समझ कर करें जिससे आपको असंतोष ना हो ।

 

तप – धर्मं और कर्तव्य कर्म के लिए कष्ट सहन को तप कहते है । हमारा धर्मं है कि आत्मा को अविद्या की राह से हटाकर विद्या के प्रकाशमय पथ का अनुसरण कराये । इसके निमित्त जो सर्दी – गर्मी, भूख – प्यास आदि कष्ट सहन किया जाता है, वह सभी तप की श्रेणी में आते है । तप संकल्प से किये जाते है, नकल से नहीं । अधिकांश लोग दूसरों का अनुकरण करके व्रत – उपवास आदि रखना शुरू कर देते है किन्तु यह मुर्खता है । आप जो भी तप का अभ्यास करों, उसके पीछे संकल्प होना चाहिए । आपके पास अपने तप का स्पष्ट कारण होना चाहिए कि आप ऐसा क्यों कर रहे है । कोई भी ऐसा तप ना करे , जिससे लाभ के बजाय हानि की सम्भावना अधिक हो । जैसे बहुत से लोग निर्जला एकादशी का व्रत करते है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से एकदम अनुचित है । उपवास कोई भी क्यों ना हो, जल का तो भरपूर उपयोग होना चाहिए ।

 

स्वाध्याय – स्वाध्याय के दो अर्थ लिए जाते है, पहला – स्वयं का अध्यनन करना और दूसरा सद्ग्रंथो का अध्यनन करना । जिस तरह हमें प्रतिदिन भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह आत्मा को भी प्रतिदिन स्वाध्याय रूपी भोजन की आवश्यकता होती है । स्वाध्याय स्वयं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया का नाम है । आज का वातावरण बहुत ही कलुषित हो चूका है, तथा प्रतिदिन मार्गदर्शन प्रदान करने वाले गुरु का सुयोग आज के समय में संभव नहीं । इसलिए विद्वान मनुष्य को चाहिए कि सदग्रंथ को अपना मार्गदर्शक मानकर अपने जीवन को ईश्वरीय मार्ग के लिए प्रशिक्षित करें ।

 

ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर प्रणिधान का माने जो भी करें, ईश्वर को समर्पित कर दे । इससे कर्ता होने का अहंकार नहीं होगा । ईश्वर को हर समय अपने साथ अनुभव करें ।

 

आसन – सुखपूर्वक बैठने की अवस्था का नाम आसन है । हठयोग में कई आसनों का वर्णन है जिनमें जो आसन साधना के लिए उपयुक्त है उनमें सुखासन, पद्मासन, वज्रासन, बद्ध – पद्मासन और सिद्धासन है । जब लम्बे समय तक योगी साधक को इन आसनों में बैठने का अभ्यास हो जाता है तो उसे आसन सिद्धि कहते है । इनके अतिरिक्त कई आसन है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । जिन्हें आप विस्तार से इस लेख में देख सकते है –

 

प्राणायाम – प्राणवायु को भीतर लेना श्वास है, बाहर निकालना प्रश्वास है । जब इन दोनों की गति को विच्छेद किया जाता है तो इसे प्राणायाम कहते है । प्राणायाम का अविष्कार प्राण नाड़ियों के शुद्धिकरण के लिए किया गया है । इनके शुद्धिकरण के पश्चात् योगी का प्राण पर अधिकार हो जाता है । जब प्राण पर अधिकार हो जाता है तो वह प्राण को जहाँ चाहे लगा सकता है ।असल में प्राणायाम प्राणशक्ति है जिसके सही उपयोग के कई लाभ है । इसके निमित्त कई प्राणायाम है जिनमें से मुख्य प्राणायाम निम्न लेख में दिए गये है ।

 

प्रत्याहार –  प्राण और चित्त दोनों एक दुसरे से बंधे हुए है । यदि मन नियंत्रण में हो जाये तो प्राण स्वतः नियंत्रण में आ जाता है । इसके विपरीत यदि प्राण नियंत्रण में आ जाये तो मन स्वतः नियंत्रण में हो जाता है । “ जहाँ चित्त वहाँ प्राण ” इस उक्ति के अनुसार मन और प्राण का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । जब प्राणायाम करते – करते प्राण नियंत्रण में आ जाता है तो मन स्वतः नियंत्रण में आ जाता है । और जब मन नियंत्रण में आकर इन्द्रियों के बाहरी विषयों से अंतर मुख होना है उसी अवस्था को प्रत्याहार कहते है ।

 

धारणा – जब मन प्रत्याहार से अंतर मुख होने लगता है तो उसे किसी ध्येय पर लगाया जाता है । प्रवृति से मन चंचल होने से ध्येय वस्तु पर टिकता नहीं है किन्तु बार – बार उसे ध्येय वस्तु पर लाया जाता है । ध्येय के निरंतर प्रवाह की इस प्रक्रिया को धारणा कहते है ।

 

ध्यान – जब निरंतर धारणा के अभ्यास से मन की प्रवृति किसी वस्तु पर लम्बे समय तक ठहरने की होने लगे तो ध्येय के उस सतत प्रवाह को ध्यान कहते है । इसमें ध्येय और ध्याता का अंतर बना रहता है ।

 

समाधि – जब ध्येय और ध्याता का अंतर समाप्त होकर केवल ध्येय रह जाये तो उस अवस्था को समाधि कहते है ।

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शरणागत आश्रितके लिये उसका गुरु उसकी - आश्रितकी मुक्तिके लिये पुकारता हैं।

द्वारका का मंदिर जगत मंदिर कहलाता हैं।

छ प्रकारके भग जिसमें हैं वह भगवान हैं।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

 

अगर तर्क मुक्त निष्ठा हैं तो समाधि भी अपने घर तक आती हैं, समाधि बिना पेर चाल शकती हैं और अपने घर तक आती हैं।

प्रतिकुल परिस्थितिमें रामनाम जपना और अनुकूल परिस्थितिमें राम के रूप का ध्यान करना।

भवसागर पार करनेके लिये भावसे कथा सुनो, भावसे कथा गाओ।

कथाकी समाधिकी प्रक्रिया क्या हैं?

कथा श्रवण कथा द्वारा प्राप्त समाधिका पहला चरण हैं।

विनय-पत्रिका

राम – नामके जपे जाइ जियकी जरनि।

कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,

जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥१॥

श्रीराम-नाम जपनेसे ही मनकी जलन मिट जाती है। इस कलियुगमें ( योग यज्ञादि) दूसरे साधन तो सब वैसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे अँधेरा दूर करनेके लिये चित्रलिखित सूर्य व्यर्थ है।॥ १॥

 

करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,

ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि

दंभ, लोभ, लालच, उपासना बिनासि नीके,

सुगति साधन भई उदर भरनि ॥२॥

कर्म तो बहुतेरे दुख और पापोंमें सने हैं। कर्मोका  करना इस समय ऐसा है, जैसे किसी वृक्षमें बड़े ही सुन्दर फूल फूलें, पर फल लगे ही नहीं दम्भ, लोभ और लालचने उपासनाका भलीभाँति नाश कर दिया है।  और मोक्षका साधन ज्ञान आज पेट भरनेका साधन हो रहा है । इस प्रकार कर्म, उपासना और ज्ञान तीनोंकी ही बुरी दशा हैं ॥२॥

 

जोग समाधि निरुपाधि विराग-ग्यान,

यचन विशेप वेप, कहूँ करनि

कपट फुपथ काटि. कहनि-रहनि खोटि

सकल सराहें निज निज आचरनि ॥३॥

न तो योग ही बनता हैं, न समाधि ही उपाधिरहित हैं, वैराग्य ओर ज्ञान लंबी चौडी बातें बनाने और वेष बनाने भरके ही रह गये हैं। करनी कुछ भी नहीं, केवल कथनी हैं। कपटभरे करोडों कुमार्ग चल पडे हैं। कहनी और रहनी सभी खोटी हो गयी हैं। सभी अपने अपने आचरणोंकी सराहना करते हैं ॥३॥

 

मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,

सुरसरि-तीर कासी धरम-घरनि

राम नामको प्रताप हर कहै, जपें आप,

जुग जुग जानें जग, वेदहूँ वरनि ॥४॥

एक राम नामकी महिमा रही हैं। शिवजी गंगाके किनारे काशीकी धर्म भूमिपर मरते समय जीवको क्या उअपदेश देते हैं? हे श्री राम नामके प्रतापका वर्णन करते हैं। दूसरोंसे कहते हैं और स्वयं भी जपते हैं। अनेक युगोसे इसे संसार जानता हैं और वेद भी कहते चले आये हैं। ॥४॥

 

मति राम-नाम ही सो, रति राम-नाम ही सों,

गति गम-नाम ही की विपति-हरनि

राम नामलों प्रति प्रीति राख्ने कबहुँको,

 तुलसी ढरेंगे राम आपनी ढरनि ॥५॥

अब तो राम नाम ही में अपनी बुद्धिको लगाना चाहिये, राम नाम ही से प्रेम करना चाहिये और राम नाम ही की शरण लेनी चाहिये। क्योंकि एक यही साधन जीवकी जन्म मरण रूप विपात्तिओंको दूर करनेवाली हैं। हे तुलसी ! राम नाम पर विश्वास और द्रढ प्रेम बनाये रखेगा तो कभी न कभी श्री रामजी अवश्य ही अपने दयालु स्वभावसे तुझ पर दया करेंगे। ॥५॥

 

 

एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥

संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥

 

एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत्‌ के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥

 

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥

रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥

 

मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥

यह कथा सुननेके बाद भगवान शंकरको अखंड समाधि लगती हैं।

 

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥

शंकर भगवान कथा श्रवण करते हैं उसके बाद समाधि लगती हैं।

 

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

"ત્રણ વાનાં મુજને મળ્યા, હૈયું મસ્તક ને હાથ,

બહુ આપી દીધું નાથ, જા હવે ચોથું નથી માંગવું."

                               -ઉમાશંકર જોશી

गावत संतत शंभु भवानी ।

अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी ॥

ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी ।

कागभुशुंडि गरुड़ के ही की ॥3॥

 

             आरती श्री रामायण जी की........॥

 

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Tuesday, 18/08/2020

भावके साथ ज्ञान – समज जरूरी हैं।

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।

श्रद्धा प्रज्ञा पूर्वक – जागृति पूर्वक होनी चाहिये, अंध श्रद्धा नहीं होनी चाहिये।

अपने गुरुके वचन और वेदांतके वाक्यो पर विश्वास ही श्रद्धा हैं।

श्रद्धा परम अंबा हैं, भवानी हैं।

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता।।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

विर्य का मतलब संयम हैं।

जो संयम नहीं रखते हैं - जो ऊर्जा नहीं बचाते हैं उसका मन और शरीर निर्बल हो जाता हैं।

वाक पात को शुक्र पात कहा जाता हैं।

जो अकारण बहूत बोलता हैं उसकी ऊर्जा कम होती हैं। वाणीका बार बार उपयोग हानीकारक हैं।

प्रज्ञा पूर्वकका – समज पूर्वकका संयम होना चाहिये।

स्मृति भी समाधिकी तरफ जानेका एक कदम हैं। स्मृति का आना समाधि तरफका एक कदम हैं।

अप्रगटको प्रगट करना – आवृतको अनावृत करना ही जन्म हैं।

जैसे भगवानको याद करते करते संसारकी याद आती हैं और साधक वह हैं जो संसारमें रत होते हुए भगवानको याद करनेकी आदत बना लेता हैं।

गोपीजन अपने घरका काम करते हुए गोविंग को याद करती हैं।

धाराको बदलनेकी जरूरत हैं। संसारके कर्तव्य करते हुए भगवानको याद करना हैं।

प्राण संकट, धर्म संकट और राष्ट्र संकटके, परिवारके संकटके समयमें मौन व्रतीको भी बोलना चाहिये और ऐसा बोलनेमें मौम व्रत भंग नहीं होता हैं।

जो ईश्वरकी शरणागति, परमकी शरणागति, गुरुकी शरणागति करता हैं उसे प्रयास मुक्त समाधि प्राप्त होती हैं।

*****

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ।। 20 ।।

 Source Link: https://www.drsomveeryoga.com/yoga-sutra-20/

शब्दार्थ :- श्रद्धा, ( रुचि, विश्वास ) वीर्य, ( उत्साह, पुरुषार्थ )  स्मृति, ( पूर्व में अनुभव किए गए संस्कार ) समाधि, ( चित्त की एकाग्रता ) प्रज्ञा, ( बुद्धि की उन्नत अवस्था ) पूर्वक, ( क्रमानुसार ) इतरेषाम्, ( अन्यों से भिन्न  समाधि की अवस्था होती है )

सूत्रार्थ :- विदेह  और प्रकृतिलय  योगियों से भिन्न ( अलग ) योगियों की जो असम्प्रज्ञात समाधि  होती है । वह समाधि रुचि, उत्साह, स्मरण, एकाग्रता  और ऋतम्भराप्रज्ञा  ( बुद्धि की उन्नत अवस्था ) पूवर्क होती है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में योगी साधक की उपायप्रत्यय  नामक समाधि का वर्णन किया गया है । जो विदेह  व प्रकृतिलय  योगी नही होते उनको किस प्रकार से इस उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि  की प्राप्ति होती है ? इसका वर्णन किया गया है ।

इस समाधि की प्राप्ति हेतु पाँच उपाय बताए गए हैं-

श्रद्धा

उत्साह

स्मृति

समाधि

प्रज्ञा ।

 इन सभी उपायों का क्रमशः पालन करने से  ही उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि  की प्राप्ति होती है ।

श्रद्धा :- श्रद्धा को उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति का पहला साधन माना है । श्रद्धा का अर्थ है किसी भी कार्य को पूरी रुचि व विश्वास  के साथ करना । किसी भी अनुष्ठान  ( अच्छे कार्य ) के प्रति हमारी रुचि तभी बनती है जब कोई कार्य सत्य  से प्रेरित होता है।

 सत्य का ज्ञान होने पर साधक की उस ज्ञान को पाने की इच्छा तीव्र  हो जाती है । कार्य के पूर्ण होने पर मुझे अच्छे फल की प्राप्ति होगी इस प्रकार की आशा से श्रद्धा उत्पन्न होती है । तभी हम पूरे विश्वास  और  रुचि  के साथ उस कार्य को पूर्ण करते हैं ।

उदाहरण स्वरूप :-  जब हम किसी असाध्य  ( भयंकर ) बीमारी से परेशान होते हैं । और बहुत सारे डॉक्टरों  के पास जाने पर भी वह बीमारी ठीक न होने पर जब हम पूरी तरह से त्रस्त  ( दुःखी ) हो जाते हैं ।

उस समय कोई हमारा परिचित हमसे कहे कि मैं एक ऐसे प्रसिद्ध वैद्य  को जनता हूँ जो पिछले पच्चीस  (25) वर्षों से इसी बीमारी की चिकित्सा  कर रहा है । और आज तक जितने भी रोगी उसके पास गए हैं वे सब के सब पूरी तरह से ठीक हुए हैं । उस समय उस वैद्य  के प्रति हम पूरी श्रद्धा रखते हुए उसके पास जाते हैं और उसके द्वारा बताए गए उपायों  का पूरे विश्वास और रुचि  के साथ पालन करते हैं ।

क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान  हो गया है कि वह वैद्य  बहुत गुणवान  है । और उसके बताए हुए उपायों  से मैं पूरी तरह से ठीक हो जाऊँगा । जब इस प्रकार का विश्वास  किसी के प्रति होता है तब श्रद्धा उत्पन्न होती है । और उस श्रद्धा से ही उस कार्य को करने की रुचि बनती है । श्रद्धा हमारे मन  को प्रसन्न  रखती है ।

ठीक इसी प्रकार जब योगी साधक को यह पता चलता है कि योग  के अनुष्ठान  से मुझे परमानन्द  की प्राप्ति होगी ।  तब वह योग मार्ग में बिना किसी विलम्ब  के आरूढ़  ( अपनी कमर कस लेता है ) हो जाता है ।

वीर्य :- वीर्य का अर्थ है उत्साह । इसे उपायप्रत्यय समाधि  का दूसरा साधन माना है । उत्साह  के बिना कोई भी महान कार्य सम्भव नहीं हो सकता । उत्साही व्यक्ति कठिन से कठिन कार्य को भी आसानी से पूरा कर लेता है । चाहे मार्ग में कितनी भी बाधाएं  क्यों न आ जाएं । वह कभी भी बाधाओं से नही घबराता  है ।

अपने उत्साह के बल पर वह विफलता  को सफलता  में बदल देता है । इसलिए उपायप्रत्यय समाधि  की प्राप्ति हेतु इसको भी एक सशक्त  ( मजबूत ) साधन माना है । इस उत्साह के लिए पहले श्रद्धा का होना अति आवश्यक है । श्रद्धा के कारण ही उत्साह उत्पन्न होता है । जब तक श्रद्धा नही होती तब तक उत्साह का जगना कठिन है ।

स्मृति :- स्मृति को उपायप्रत्यय समाधि का तीसरा साधन माना है । जब साधक श्रद्धाभाव और उत्साह के साथ योग मार्ग पर आगे बढ़ता है तब उसको अपने अनुरूप अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं । उन अच्छे परिणामों से अच्छे संस्कारों की उत्पत्ति होती है ।

 चित्त में अच्छे संस्कारों के कारण उत्तम स्मृति की प्राप्ति होती है और इस उत्तम स्मृति  को समाधि प्राप्ति का साधन माना गया है । श्रद्धा और उत्साह के सहयोग से साधक की स्मृति शक्ति प्रबल हो जाती है ।

जैसे- कोई साधक अपने चित्त को स्थिर करने के लिए धारणा या ध्यान का अभ्यास करता है । और वह उसमें सफलता प्राप्त कर लेता है । इससे  आगे कभी भी चित्त के अस्थिर होने पर वह पुनः उसी स्मृति  ( स्मरण ) द्वारा उसे फिर से स्थिर करने में समर्थ हो जाता है ।

समाधि :- उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति में समाधि को चौथा साधन माना है । स्मृति के प्रबल होने पर ज्ञान के संस्कारों का उदय ( जागरण ) होता है । जिनके द्वारा चित्त की एकाग्रता और स्थिरता  बढ़ती है । चित्त के एकाग्र होने से साधक सम्प्रज्ञात समाधि  की उच्च अवस्था में पहुँच जाता है ।

सम्प्रज्ञात समाधि की यही उच्च अवस्था असम्प्रज्ञात समाधि का साधन बनती है । बिना सम्प्रज्ञात समाधि के असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

प्रज्ञा :- प्रज्ञा उपायप्रत्यय समाधि का पाँचवा व अन्तिम साधन है । जब सम्प्रज्ञात समाधि की उच्च अवस्था में साधक जाता है । तब वह प्रज्ञा की उत्कृष्ट ( उन्नत ) अवस्था को प्राप्त कर लेता है । प्रज्ञा की इस उत्कृष्ट अवस्था को ही ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है । इस ऋतम्भरा प्रज्ञा के जागृत होने पर साधक को प्रकृति – पुरुष का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । इस विवेक ज्ञान से परवैराग्य की उत्पत्ति होती है और इस परवैराग्य द्वारा साधक असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर लेता है ।

इस प्रकार विदेह व प्रकृतिलय योगियों से अलग जो साधक हैं वह इस प्रकार उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि  को प्राप्त करते हैं ।

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Source Link: https://patanjaliyogasutra.in/samadhipada1-24/

समाधि पाद: पतंजलि योग सूत्र के चार पादों में पहला पाद है समाधिपाद। इस प्रथम पाद में मुख्य रूप से समाधि तथा उसके विभिन्न भेदों का वर्णन किया गया है। अतः इसका नाम समाधि पाद है, इसमें साधकों के लिए समाधि के वर्णन के साथ-साथ योग के विभिन्न साधनों का भी समावेश किया गया है। इस पाद में योग के शुद्धतम स्वरूप, उसके फल, वृत्तियों के प्रकार तथा उनके ठीक ठीक स्वरूप, वैराग्य के भेद,अभ्यास और वैराग्य से वृत्ति निरोध, ईश्वर के सच्चे स्वरूप , योग साधना के मार्ग में आने वाली बाधाओं का विवेचन, जप अनुष्ठान की विधि एवं मनोनिरोध हेतु विविध उपायों का वर्णन, प्रसन्नचित्त रहने के उपाय,समापत्ति के स्वरूप तथा ऋतंभरा प्रज्ञा के लक्षण आदि का वर्णन किया गया है।

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥१.२०॥

श्रद्धा , वीर्य , स्मृति , समाधि , प्रज्ञापूर्वक: , इतरेषाम् ॥

इतरेषाम् - दूसरे साधकों को

श्रद्धा - श्रद्धा,

वीर्य - वीर्य अर्थात् मन का तेज,

स्मृति - स्मृति,

समाधि - समाधि (और)

प्रज्ञापूर्वक: - प्रज्ञा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से (असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है) ।

दूसरे साधकों को श्रद्धा, वीर्य अर्थात् मन का तेज, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से - असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है ।

shraddha - unconditional faith

virya - energy

smriti - memory

samadhi - concentration

prajna - wisdom

poorvaka - preceding, coming before

itaresham - others

To the others, this Asamprajnata Samadhi comes through unconditional faith, energy, memory, concentration and discrimination of the real.

ऊपर के सूत्र में यह बात दिया गया कि विदेह और प्रकृतिलय योगियों की भवप्रत्यय नामक असम्प्रज्ञात समाधि होती है तो प्रश्न उठता है कि इनसे भिन्न योगियों की समाधि कैसे लगती है जिसे उपायप्रत्यय कहते हैं।

महर्षि कहते हैं कि ऐसे योगियों की उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि के लिए उनके जीवन में पांच तत्त्वों की महती आवश्यकता होती है।

श्रद्धा अर्थात असंशय पूर्वक पूर्ण समर्पण

वीर्य अर्थात संकल्प पूर्वक उत्साह

स्मृति अर्थात जिनके जीवन में भव नहीं भवानी का स्मरण हो

समाधि अर्थात समाधान, एकाग्रता से जिनका जीवन चलता हो

प्रज्ञा अर्थात प्रकृष्ट बुद्धि से जो सही गलत के भेद को जानकर सहजता से सत्कर्म करते हों

व्यास भाष्य के अनुसार श्रद्धा का अर्थ होता है "चित्त की अभिरुचि या तीव्र इच्छा जो कि गहरे असंशय पूर्वक समर्पण से आती है और एक माता की तरह कल्याणकारी बनके योगियों की रक्षा और पोषण करती है।

जो श्रद्धालु, अनन्यता के भाव से भरा चित्त वाला भक्त होता है उसे ही उत्साह का बल प्राप्त होता है। जो बलवान है वही पूर्व जन्म के अच्छे संस्कारों को, अनुभवों को बलात खींचकर अपने सामने उपस्थित कर सकता है जिससे वह छूट चुके समाधि के मार्ग पर पुनः आरोहण कर सके। जब हम अपने इस जन्म को पूर्व जन्म से जोड़ लेते हैं तब सारी भागदौड़ ठहर सी जाती है और साधक का चित्त एकाग्र हो जाता है, फिर वह कुछ पाने के लिए दौड़ता नहीं अपितु समहितचित्त लेकर विवेकवान हो जाता है। उसके भीतर प्रखर प्रज्ञा का अवतरण हो जाता है जिसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा जाता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न विवेकज्ञान से अभ्यास तथा पर वैराग्य की सतत साधना से असम्प्रज्ञात समाधि घटित होती है।

यह 5 का एक व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक क्रम है बिना इसके क्रमानुसार आरोहण के समाधि में प्रवेश सर्वथा मिथ्या है।

English Explanation

In aforementioned sutras it is said that Videha and prakritilaya yogies come under Asampragyat Samadhi called Bhavpratyaya. The question here is how to attain Upaypratyaya Samadhi by yogis other than these.

 

Maharshi says that five elements are very essential in the lives of such yogis for attainment of Upaypratyaya Samadhi:

Faith i.e. complete indefinite surrender

Veerya i.e. determined enthusiasm

Smriti i.e. in their life bhavani is not a reminder

Samadhi i.e. their life if driven by contemplation and concentration

Pragya that is easy labour by knowing the difference between right and wrong with intuitive wisdom.

According to Vyasa commentary faith means “abhiruchi or strong desire of mind which comes with complete indefinite surrender and it protects and feeds yogis for their welfare as a mother i.e. Goddess Durga.

The devotees whose heart is full of faith and exclusiveness are intensely enthusiastic. Only strong people can bring forth the good sanskaras and experiences of the previous birth by forcefully dragging them so that they can walk on the discontinued path of Samadhi. All the running comes to a standstill when we join our present life with our previous life and the meditator’s mind gets concentrated. It does not get distracted to get something instead it becomes prudent. He acquires sharp intelligence known as intuitive intelligence. Asampragyata Samadhi is attained by practice and highest dispassion through wisdom born out of intuitive intelligence.

 

This is an organized and scientific order of five. Entry in Samadhi is seldom possible without this orderly movement.

*****

राम, महादेव, कृष्ण ईश्वर हैं।

ग्रंथका साहिब परम तत्व हैं।

शब्द जाल हमें भ्रमित करती हैं।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः ॥१.२४॥

क्लेश, कर्म, विपाक, आशयै:, अपरामृष्ट: , पुरुष-विशेष: , ईश्वरः ॥

क्लेश - क्लेश

कर्म - कर्म

विपाक - विपाक

आशयै: - आशय (इन चारों के)

अपरामृष्ट: - संबंध से रहित है (तथा)

पुरुषविशेष: - जो समस्त पुरुषों से उत्तम है,वह

ईश्वर: - ईश्वर है ।

क्लेश, कर्म, विपाक, आशय - इन चारों के संबंध से रहित है तथा जो समस्त पुरुषों से उत्तम है, वह ईश्वर है ।

klesha - misery

karma - actions

vipaka - fruits of the actions

shayaira - accumulations

paramrishtah - unaffected

purusha - pure awareness

vishesh - distinct, special

Ishvarah - Ishvara, God

Isvara is the Supreme Purusha, unaffected by misery, actions, fruits of action or desires.

क्लेश (अविद्यादि पञ्च क्लेश), कर्म (तीन प्रकार के कर्म), विपाक (कर्मों का फल), आशय (समस्त वासनाएं) से जो सर्वथा पृथक है ऐसे पुरुष विशेष को ईश्वर कहा गया है ।

क्लेश पांच प्रकार के होते हैं-

१. अविद्या

२. अस्मिता

३. राग

४. द्वेष

५. अभिनिवेश

कर्म को भी अलग-अलग परिपेक्ष्य में विभाजित किया गया है । वैसे सामान्यत: लोक में पाप कर्म और पुण्य कर्म ये दो प्रकार से कर्म के विभाग किये हैं लेकिन विभिन्न शास्त्रों में मुख्यतःकर्म को तीन प्रकार से बांटा गया है |

१. निमित्त कर्म

२. नैमित्तिक कर्म

३. काम्य कर्म

योग दर्शन में कर्म को तीन प्रकार से बांटा गया है-

१. शुक्ल कर्म अर्थात शुभ कर्म

२. अशुक्ल कर्म अर्थात अशुभ कर्म

३.शुक्लाशुक्ल अर्थात मिश्रित कर्म

भगवतगीता में कर्म का तीन प्रकार से प्रभाग किया है-

 

१. कर्म

२. अकर्म

३. विकर्म

कर्म जब फल देने लगते हैं तो इसी को विपाक कहा गया है और ईश्वर चूँकि निष्काम कर्म करता हुआ जगत का परिपालन करता है तो उसके कर्म नहीं बनने के कारण वह सर्वथा विपाक से रहित होता है |

जब किसी कर्म के विपाक को प्राप्त होने पर उसके भोगने से उत्पन्न वासनाएं होती हैं उन्हें योग दर्शन कि भाषा में आशय कहा गया है । कहीं कहीं आशय का अर्थ दूसरी तरह भी किया जाता है । कर्म जब तक फलोन्मुख नहीं होते तब तक चित्तभूमि में जो वासना सुप्त रूप से रहती है वह आशय नाम से कही जाती है। ईश्वर कर्म एवं कर्मफल से रहित होता है इसलिए वह आशय रहित भी होता है अर्थात ईश्वर में किसी भी प्रकार से कोई भी वासनाएं नहीं होती हैं । कर्म, कर्मफल एवं उन्हें भोगने से पुरुष उनकी वासनाओं से बच नहीं सकता इसीलिए ईश्वर को महर्षि पतंजलि ने पुरुष विशेष के नाम से कहा है |

*****

जब तक जीतका अहंकार और हारकी ग्लानी हैं तब तक पंडित नहीं कहा जाता हैं।

विशेष पुरुष हैं?

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

 

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।

रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥ 116॥

 

जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत् सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि राम मेरे स्वामी हैं - ऐसा कहकर शिव ने उनको मस्तक नवाया॥ 116॥

 

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

भगवान शंकर निर्वाण रुप हैं, बोधमय हैं, विशेष पुरुष हैं।

 

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः ॥

जिसका ५ क्लेश समाप्त हो गया हैं वह ईश्वर हैं।

कर्म, कर्मका आशय और कर्मका फल यह कर्मके साथ जुडे हुए है। जिस का यह सब छूट जाता हैं वह ईश्वर हैं, वह विशेष पुरुष हैं। वह कार्म करते हुए अकर्ता रहता हैं।

जागिए न सोइए बिगोइए जनम जाय,

⁠⁠दुख रोग रोइए कलेस कोह काम को।

राजा रङ्क, रागी औ बिरागी, भृरि भागी ये

⁠⁠अभागी जीव जरत, प्रभाव कलि वाम को॥

तुलसी कबंध कैसो धाइबो बिचारु, अंध!

⁠⁠धंध देखियत जग सोच परिनाम को।

सोइबो जो राम के सनेह की समाधि-सुख,

⁠⁠जागिबो जो जी जपै नीके रामनाम को।

 

सचेत रहिए, साइए नहीं, जन्म को न बिगाड़िए, नहीं तो क्रोध और काम के दुःख से दिन भर रोया कीजिएगा। राजा दरिद्रो है, वैरागी रागी (भोग करनेवाले) हैं, बड़े भाग्यशाली भी अभागे हैं, इन सबसे जी जलता है, अथवा राजा, दरिद्री, वैरागी, रागी, भाग्यवान, अभागे सब जीव कलि के प्रभाव से जलते रहते हैं। यह सब कुटिल कलि का प्रभाव है। विचारकर देखने से ज्ञात होता है कि सिर कटे धड़ के समान बेसुध जगत् दौड़ता है, अँधाधुन्ध जगत् में दिखाई देता है अथवा हे अन्धे! (झूठे) जग के धन्धे को देख । (उसमें मन लगाते हैं) यह देखकर तुलसी को परिनाम का सोच है। सोना वही है जिससे राम के प्रेम की समाधि हो और जागना वही अच्छा है जो रामनाम को जीभ जपती रहे।

पूर्ण पुरुष कर्मका कोई फल नहीं चाहता हैं। पूर्ण पुरुष कर्मका आशय भी छोड देता हैं।

जहां जानेके बाद देश और कालका पता न रहे – भान न रहे वहीं सहज समाधि हैं।

जिसने कथा श्रवण ठीक्से किया हैं उसे परमात्माका दर्शन दूरसे हो जाता हैं। साधकको अखंड समाधिकी प्राप्त करनेके लिये परमका दूरसे दर्शन करना पर्याप्त हैं। यह समाधिका एक पडाव हैं।

रहस्य जो गलत हैं उसका पता चलने पर मौन धारण करना यह समाधिका दूसरा चरण हैं। शंकर भगवान सतीका झुठका पता चलने पर मौन धारण करते हैं। संकप्ल ऐसा करो जो समाधि तक ले जाय।

खुद झुठ बोलनेवाले दूसरोंसे सत्य बोलनेकी अपेक्षा करते हैं।

समाधि तक पहुचना हैं तो विवेक पूर्ण रीतसे व्यवहार करो।

कथा श्रवण, दूरदर्शन – (दूरसे भगवानको प्रणाम करना), बैठ जाना, सब जानते हुए कुछ न कहना और स्वरूप संधान समाधिके पडाव हैं।

5

Wednesday, 19/08/2020

हरिको भजते भजते जो हरिमें समा जाय उसे समाधि कह शकते हैं?

हा यह समाधि कही जा शकती हैं। यह बात बुद्धिकी नहीं हैं, दिलकी हैं और ईसे समजनेके लिये बुद्ध पुरुषकी आंख चाहिये।

मीराबाई, संत तुकाराम, प्रेमावतार भगवान चैतन्य यह सब हरिमें समा गये हैं और यह सब परम समाधि हैं, परम विश्राम हैं।

जो खोजनेके लिये खुदलो खो देते हैं उसे अवश्य परम तत्व प्राप्त होता हैं।

राम  सरूप  तुम्हार  बचन  अगोचर  बुद्धिपर।

हे  राम!  आपका  स्वरूप  वाणी  के  अगोचर,  बुद्धि  से  परे,  अव्यक्त,  अकथनीय  और  अपार  है।

राम शब्द में र का यह FATHER का र हैं और मकार MOTHER का म हैं।

कथामें सब क्रियाक्रम पुरा हो जाता हैं, ओर जगह कोई भी क्रियाक्रम करनेकी आवश्यकता नहीं हैं।

सन्यास ग्रहण करनेके बाद भी कोई क्रियाकरम करनेकी आवश्यकता नहीं हैं।

शरणागति मनोमय हैं, चरनागति शरीरमय हैं।

बालकांडमें शिव परख समाधि शब्द ६ बार आया हैं। अयोध्याकांडमें नारद परख समाधि १ बार आया हैं।

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥

जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥

शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥

 

पर्वत, नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादरजी का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई॥2॥

नारद यात्रामें स्मरणसे शरुआत हुई हैं।

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥

हाथीका नाक खांड शोध नहीं पाता हैं लेकिन चिटीका नाक खांडको शोध लेता हैं।

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥

गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥3॥

 

एक बार नारदजी ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारदजी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं॥3॥

नारद पार्वतीके गुरु हैं।

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥

आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥

 

हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर नारदजी के मन को बहुत ही सुहावना लगा॥1॥

हिमालयकी गहन गुफा नारदकी समाधिकी प्रक्रियाका प्रारंभ हैं।

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥


6

Thursday, 20/08/2020

 

 

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥

जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥

 

हे अनाथों का कल्याण करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं॥2॥

शकर रघुनाथका ध्यान करते हैं।

अपनी निष्ठाके अनुसार रुप अनुसंधान होता हैं।      

 

यस्यांके  च  विभाति  भूधरसुता  देवापगा  मस्तके

भाले  बालविधुर्गले  च  गरलं  यस्योरसि  व्यालराट्।

सोऽयं  भूतिविभूषणः  सुरवरः  सर्वाधिपः  सर्वदा

शर्वः  सर्वगतः  शिवः  शशिनिभः  श्री  शंकरः  पातु  माम्‌॥1॥

 

जिनकी  गोद  में  हिमाचलसुता  पार्वतीजी,  मस्तक  पर  गंगाजी,  ललाट  पर  द्वितीया  का  चन्द्रमा,  कंठ  में  हलाहल  विष  और  वक्षःस्थल  पर  सर्पराज  शेषजी  सुशोभित  हैं,  वे  भस्म  से  विभूषित,  देवताओं  में  श्रेष्ठ,  सर्वेश्वर,  संहारकर्ता  (या  भक्तों  के  पापनाशक),  सर्वव्यापक,  कल्याण  रूप,  चन्द्रमा  के  समान  शुभ्रवर्ण  श्री  शंकरजी  सदा  मेरी  रक्षा  करें॥1॥

समाधि पंचक

शिव समाधि

प्रत्येक समाधिका अपना एक स्थान हैं।

 

जीव समाधि

किडी अकेली नहीं खाती हैं, सबके साथ वहेंच कर खाती हैं।

भजन कोई क्रिया नहीं हैं।

समूह समाधि आजके कालमें बहूत आवश्यक हैं।

 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।

सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

 

कथामें श्रोता वक्ता सभीको समाधि लगती हैं।

 

निरोगी, समृद्ध, सुखी समाज

सामूहिक संक्रामतता एक समाधि हैं।

चित्रकूट्में सामूहिक समाधिका निर्माण हैं

 

सभा  सकल  सुनि  रघुबर  बानी। 

प्रेम  पयोधि  अमिअँ  जनु  सानी॥

सिथिल  समाज  सनेह  समाधी। 

देखि  दसा  चुप  सारद  साधी॥1॥

 

श्री  रघुनाथजी  की  वाणी  सुनकर,  जो  मानो  प्रेम  रूपी  समुद्र  के  (मंथन  से  निकले  हुए)  अमृत  में  सनी  हुई  थी,  सारा  समाज  शिथिल  हो  गया,  सबको  प्रेम  समाधि  लग  गई।  यह  दशा  देखकर  सरस्वती  ने  चुप  साध  ली॥1॥

स्नेही आदमी शिथिल बनाते हैं, यह स्नेह समाधि हैं।

कंद  मूल  फल  अमिअ  अहारू। 

अवध  सौध  सत  सरिस  पहारू॥

छिनु-छिनु  प्रभु  पद  कमल  बिलोकी। 

रहिहउँ  मुदित  दिवस  जिमि  कोकी॥2॥

 

कन्द,  मूल  और  फल  ही  अमृत  के  समान  आहार  होंगे  और  (वन  के)  पहाड़  ही  अयोध्या  के  सैकड़ों  राजमहलों  के  समान  होंगे।  क्षण-क्षण  में  प्रभु  के  चरण  कमलों  को  देख-देखकर  मैं  ऐसी  आनंदित  रहूँगी  जैसे  दिन  में  चकवी  रहती  है॥2॥

छिनु  छिनु  लखि  सिय  राम  पद  जानि  आपु  पर  नेहु।

करत  न  सपनेहुँ  लखनु  चितु  बंधु  मातु  पितु  गेहु॥139॥

 

क्षण-क्षण  पर  श्री  सीता-रामजी  के  चरणों  को  देखकर  और  अपने  ऊपर  उनका  स्नेह  जानकर  लक्ष्मणजी  स्वप्न  में  भी  भाइयों,  माता-पिता  और  घर  की  याद  नहीं  करते॥139॥

जो भजन नहीं करता हैं वहा सदा सुतकी हैं।

सत्य प्रेम करुणा कालातित हैं।

राम  संग  सिय  रहति  सुखारी। 

पुर  परिजन  गृह  सुरति  बिसारी॥

छिनु  छिनु  पिय  बिधु  बदनु  निहारी। 

प्रमुदित  मनहुँ  चकोर  कुमारी॥1॥

 

श्री  रामचन्द्रजी  के  साथ  सीताजी  अयोध्यापुरी,  कुटुम्ब  के  लोग  और  घर  की  याद  भूलकर  बहुत  ही  सुखी  रहती  हैं।  क्षण-क्षण  पर  पति  श्री  रामचन्द्रजी  के  चन्द्रमा  के  समान  मुख  को  देखकर  वे  वैसे  ही  परम  प्रसन्न  रहती  हैं,  जैसे  चकोर  कुमारी  (चकोरी)  चन्द्रमा  को  देखकर  !॥1॥

आश्रितको चिंता नहीं करनी चाहिये।

 

नाह नेहु नित  बढ़त  बिलोकी।  हरषित  रहति  दिवस  जिमि  कोकी॥

सिय मनु राम चरन अनुरागा। अव  सहस  सम  बनु  प्रिय  लागा॥2॥

 

स्वामी  का  प्रेम  अपने  प्रति  नित्य  बढ़ता  हुआ  देखकर  सीताजी  ऐसी  हर्षित  रहती  हैं,  जैसे  दिन  में  चकवी!  सीताजी  का  मन  श्री  रामचन्द्रजी  के  चरणों  में  अनुरक्त  है,  इससे  उनको  वन  हजारों  अवध  के  समान  प्रिय  लगता  है॥2॥

परनकुटी  प्रिय  प्रियतम  संगा। 

प्रिय  परिवारु  कुरंग  बिहंगा॥

सासु  ससुर  सम  मुनितिय  मुनिबर। 

असनु  अमिअ  सम  कंद  मूल  फर॥3॥

 

प्रियतम  (श्री  रामचन्द्रजी)  के  साथ  पर्णकुटी  प्यारी  लगती  है।  मृग  और  पक्षी  प्यारे  कुटुम्बियों  के  समान  लगते  हैं।  मुनियों  की  स्त्रियाँ  सास  के  समान,  श्रेष्ठ  मुनि  ससुर  के  समान  और  कंद-मूल-फलों  का  आहार  उनको  अमृत  के  समान  लगता  है॥3॥

पृथ्वी परमात्माके चरन हैं।

नाथ  साथ  साँथरी  सुहाई। 

मयन  सयन  सय  सम  सुखदाई॥

लोकप  होहिं  बिलोकत  जासू। 

तेहि  कि  मोहि  सक  बिषय  बिलासू॥4॥

 

स्वामी  के  साथ  सुंदर  साथरी  (कुश  और  पत्तों  की  सेज)  सैकड़ों  कामदेव  की  सेजों  के  समान  सुख  देने  वाली  है।  जिनके  (कृपापूर्वक)  देखने  मात्र  से  जीव  लोकपाल  हो  जाते  हैं,  उनको  कहीं  भोग-विलास  मोहित  कर  सकते  हैं!॥4॥

 

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन हरणभवभयदारुणं।

नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणं ॥१॥

 

व्याख्या: हे मन कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर। वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं। उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं। मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥

 

कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरदसुन्दरं।

पटपीतमानहु तडित रूचिशुचि नौमिजनकसुतावरं ॥२॥

 

व्याख्या: उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है। उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है। पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है। ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥

 

भजदीनबन्धु दिनेश दानवदैत्यवंशनिकन्दनं।

रघुनन्द आनन्दकन्द कोशलचन्द्र दशरथनन्दनं ॥३॥

 

व्याख्या: हे मन दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकन्द कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर ॥३॥

 

शिरमुकुटकुण्डल तिलकचारू उदारुअंगविभूषणं।

आजानुभुज शरचापधर संग्रामजितखरदूषणं ॥४॥

 

व्याख्या: जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर तिलक, और प्रत्येक अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं। जो धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥

 

इति वदति तुलसीदास शङकरशेषमुनिमनरंजनं।

ममहृदयकंजनिवासकुरु कामादिखलदलगञजनं ॥५॥

 

व्याख्या: जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय कमल में सदा निवास करें ॥५॥

 

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर सावरो।

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥

 

व्याख्या: जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से सुन्दर साँवला वर (श्रीरामन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह जो दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

 

एही भाँति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषींअली।

तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥

 

व्याख्या: इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ हृदय मे हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं ॥७॥

 

जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥

 

व्याख्या: गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता। सुन्दर मंगलों के मूल उनके बाँये अंग फड़कने लगे ॥८॥

सुमिरत  रामहि  तजहिं  जन  तृन  सम  बिषय  बिलासु।

रामप्रिया  जग  जननि  सिय  कछु  न  आचरजु  तासु॥140॥

 

जिन  श्री  रामचन्द्रजी  का  स्मरण  करने  से  ही  भक्तजन  तमाम  भोग-विलास  को  तिनके  के  समान  त्याग  देते  हैं,  उन  श्री  रामचन्द्रजी  की  प्रिय  पत्नी  और  जगत  की  माता  सीताजी  के  लिए  यह  (भोग-विलास  का  त्याग)  कुछ  भी  आश्चर्य  नहीं  है॥140॥

सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ  करहिं  सोइ  कहहीं॥

कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय  अति  सुखु  मानी॥1॥

 

सीताजी  और  लक्ष्मणजी  को  जिस  प्रकार  सुख  मिले,  श्री  रघुनाथजी  वही  करते  और  वही  कहते  हैं।  भगवान  प्राचीन  कथाएँ  और  कहानियाँ  कहते  हैं  और  लक्ष्मणजी  तथा  सीताजी  अत्यन्त  सुख  मानकर  सुनते  हैं॥1॥

जब  जब  रामु  अवध  सुधि  करहीं। 

तब  तब  बारि  बिलोचन  भरहीं॥

सुमिरि  मातु  पितु  परिजन  भाई। 

भरत  सनेहु  सीलु  सेवकाई॥2॥

जब-जब  श्री  रामचन्द्रजी  अयोध्या  की  याद  करते  हैं,  तब-तब  उनके  नेत्रों  में  जल  भर  आता  है।  माता-पिता,  कुटुम्बियों  और  भाइयों  तथा  भरत  के  प्रेम,  शील  और  सेवाभाव  को  याद  करके-॥2॥

 

कृपासिंधु  प्रभु  होहिं  दुखारी। 

धीरजु  धरहिं  कुसमउ  बिचारी॥

लखि  सिय  लखनु  बिकल  होइ  जाहीं। 

जिमि  पुरुषहि  अनुसर  परिछाहीं॥3॥

 

कृपा  के  समुद्र  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  दुःखी  हो  जाते  हैं,  किन्तु  फिर  कुसमय  समझकर  धीरज  धारण  कर  लेते  हैं।  श्री  रामचन्द्रजी  को  दुःखी  देखकर  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  भी  व्याकुल  हो  जाते  हैं,  जैसे  किसी  मनुष्य  की  परछाहीं  उस  मनुष्य  के  समान  ही  चेष्टा  करती  है॥3॥

प्रिया  बंधु  गति  लखि  रघुनंदनु। 

धीर  कृपाल  भगत  उर  चंदनु॥

लगे  कहन  कछु  कथा  पुनीता। 

सुनि  सुखु  लहहिं  लखनु  अरु  सीता॥4॥

 

तब  धीर,  कृपालु  और  भक्तों  के  हृदयों  को  शीतल  करने  के  लिए  चंदन  रूप  रघुकुल  को  आनंदित  करने  वाले  श्री  रामचन्द्रजी  प्यारी  पत्नी  और  भाई  लक्ष्मण  की  दशा  देखकर  कुछ  पवित्र  कथाएँ  कहने  लगते  हैं,  जिन्हें  सुनकर  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  सुख  प्राप्त  करते  हैं॥4॥

 

रामु  लखन  सीता  सहित  सोहत  परन  निकेत।

जिमि  बासव  बस  अमरपुर  सची  जयंत  समेत॥141॥

 

लक्ष्मणजी  और  सीताजी  सहित  श्री  रामचन्द्रजी  पर्णकुटी  में  ऐसे  सुशोभित  हैं,  जैसे  अमरावती  में  इन्द्र  अपनी  पत्नी  शची  और  पुत्र  जयंत  सहित  बसता  है॥141॥

समाधिका मतलब निरोगीता, कोई दुःख न हो, हकारात्मक्ता होय, यह सामूहिक समाधि हैं।

 

जोगवहिं  प्रभुसिय  लखनहि  कैसें।  पलक  बिलोचन  गोलक  जैसें॥

सेवहिं  लखनु  सीय  रघुबीरहि।  जिमि  अबिबेकी  पुरुष  सरीरहि॥1॥

 

प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  की  कैसी  सँभाल  रखते  हैं,  जैसे  पलकें  नेत्रों  के  गोलकों  की।  इधर  लक्ष्मणजी  श्री  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  की  (अथवा  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  श्री  रामचन्द्रजी  की)  ऐसी  सेवा  करते  हैं,  जैसे  अज्ञानी  मनुष्य  शरीर  की  करते  हैं॥1॥

 

लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥

देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

 

शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥

7

Friday, 21/08/2020

अगर सगवड हैं तो प्रसाद, नहीं तो तपस्या।

 

करि मज्जन प्रभु भूषण साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।

 

प्रेम के ढाई अक्षर बडे बडे समज नहीं पाये हैं।

जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं।।1।।

 

जब-जब श्रीरामचन्द्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिये बहुत-सी लीलाएँ करते हैं,।।1।।

हरिनाम सबसे बडा युक्ताहार हैं।
प्रकाश, प्रभाव, पुकार …

आधि कल्पनाका रोग हैं (आधि व्याधि उपाधी), व्याधि तनोमय – शरीरमें आने वाला रोग और उपाधि मनोमय हैं, जब समाधि ….. हैं।

राम शब्दमें रा का संकेत राधा हैं और म का संकेत मदन मोहन की तरफ हैं।

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा।।

देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ।।1।।

 

गरुड़जी वहाँ गये जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्तिवाले काकभुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और [उसके दर्शनसे ही] सबसे माया, मोह तथा सोच जाता रहा।।1।।

 

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

 

वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥4॥

मधुवत समाधि जिसमें मधुरता होती हैं, अखंड माधुर्य रससे भरपुर समाधि हैं, घ्रुतवत समाधि जिसमें संग दिल पिगलने लगता हैं और लाक्षावत समाधि जिसमें लाक्ष को बहुत गरम करते हैं तब पिगलता हैं, पिगलनेमें देर लगे और भीर तुटे नहीं ऐसी समाधि हैं।

भगवत कथा समाधि हैं।

पितु  आयस  भूषन  बसन  तात  तजे  रघुबीर।

बिसमउ  हरषु  न  हृदयँ  कछु  पहिरे  बलकल  चीर॥165॥

भावार्थ:-हे  तात!  पिता  की  आज्ञा  से  श्री  रघुवीर  ने  भूषण-वस्त्र  त्याग  दिए  और  वल्कल  वस्त्र  पहन  लिए।  उनके  हृदय  में  न  कुछ  विषाद  था,  न  हर्ष!॥165॥

 

बलकल  बसन  जटिल  तनु  स्यामा। 

जनु  मुनिबेष  कीन्ह  रति  कामा॥

कर  कमलनि  धनु  सायकु  फेरत। 

जिय  की  जरनि  हरत  हँसि  हेरत॥4॥

 

श्री  रामजी  के  वल्कल  वस्त्र  हैं,  जटा  धारण  किए  हैं,  श्याम  शरीर  है।  (सीता-रामजी  ऐसे  लगते  हैं)  मानो  रति  और  कामदेव  ने  मुनि  का  वेष  धारण  किया  हो।  श्री  रामजी  अपने  करकमलों  से  धनुष-बाण  फेर  रहे  हैं  और  हँसकर  देखते  ही  जी  की  जलन  हर  लेते  हैं  (अर्थात  जिसकी  ओर  भी  एक  बार  हँसकर  देख  लेते  हैं,  उसी  को  परम  आनंद  और  शांति  मिल  जाती  है।)॥4॥

सतसंग से दिल पिगलता हैं और ध्रुत समाधि लग जाती हैं।

मानस समाधि हैं।

सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।

सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।

 

सनकादि मुनि नारद जी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे [रामकथा सुननेके] श्रेष्ठ अधिकारी हैं।।4।।

भगवत कथा समाधिसे भी ज्यादा सुख देनी वाली हैं।

पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए।।

बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।2।।

 

तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने महलको गये। इस प्रकार वे नित्य नयी लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर श्रीरामजी के पवित्र चरित्र गाते हैं।।2।।

 

नित नव चरित देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।

सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।3।।

 

मुनि यहाँ से नित्य नये-नये चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्माजी सुनकर अत्यन्त सुख मानते हैं [और कहते हैं-] हे तात ! बार-बार श्रीरामजीके गुणोंका गान करो।।3।।

 

सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।

सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।

 

सनकादि मुनि नारद जी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे [रामकथा सुननेके] श्रेष्ठ अधिकारी हैं।।4।।

 

जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।।

जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।

 

सनकादि मुनि-जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्मसमाधि) छोड़कर श्रीरामजीके चरित्र सुनते हैं। यह जानकर कर भी जो श्रीहरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय [सचमुच ही] पत्थर [के समान] हैं।।42।।

 

ईन्द्रीय सुख जिसमें हमारी ईन्द्रीयके अनुरुप स्थिति आने पर सुख मिलता हैं।

अभिप्राय सुख जिसमें किसीका अभिप्राय हमें सुख देता हैं, सरहना करनेसे सुख मिलता हैं।

अनुमानका सुख जिसमें आगे कुछ अनुमानित स्थिति आनेसे सुख मिलता हैं।

8

Saturday, 22/08/2020

हमें कोई न पहचान पाया करीबसे, कुछ अंधे थे कुछ अंधेरेमें थे।

स्वप्न एक स्वप्न ही हैं।

स्वप्न कभी कभी कोई संकेत देता हैं, यह पहुंचे हुए महापुरुषोको लिये हैं।

सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥

खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥2॥

 

स्वप्न (मैंने देखा कि) एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुँडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥2॥

मानसमें भी त्रिजटा जो विभीषण – एक वैष्णवकी बेटी हैं अपने स्वप्नकी बात जानकीको कहती हैं।

यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥

तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥

 

मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं॥4॥

जानकीको भी स्वप्न आता हैं।

उहाँ  रामु  रजनी  अवसेषा। 

जागे  सीयँ  सपन  अस  देखा॥

सहित  समाज  भरत  जनु  आए। 

नाथ  बियोग  ताप  तन  ताए॥2॥

 

उधर  श्री  रामचंद्रजी  रात  शेष  रहते  ही  जागे।  रात  को  सीताजी  ने  ऐसा  स्वप्न  देखा  (जिसे  वे  श्री  रामचंद्रजी  को  सुनाने  लगीं)  मानो  समाज  सहित  भरतजी  यहाँ  आए  हैं।  प्रभु  के  वियोग  की  अग्नि  से  उनका  शरीर  संतप्त  है॥2॥

पुरा जगत सपना हैं।

 

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥

 

महावीर स्वामीकी माता, बुद्धकी माता को भी स्वप्ना आया हैं।

अच्छे स्वप्नोको अपने गुरु को ही कहना चाहिये।

नियती और विधी में अंतर हैं, परम सत्ता भी नियतीको आदर देते हैं, नियतीको सन्मान देते हैं।

भगवान कृष्ण सब कुछ – कुछ भी करनेमें - समर्थ होते हुए नियतीका आदर करते हैं।

नियम एसा रखो जिसमें सहज रहा जा शके। कलि प्रभावमें सब नियम निभाना मुश्केल हैं।

अरण्यकांडमें एक साधक – सुतिक्ष्ण भगवानके प्रेममें डूब गया हैं, ध्यान्स्थ हो गया हैं, यह सुतिक्ष्णकी ध्यान समाधि – प्रेम समाधि हैं।

किष्किन्धाकांडमें स्वयंप्रभा जो स्वयं प्रज्ञा हैं, वह भी समाधि तक पहुंची हुइ महिला हैं, यह स्वयं प्रभाकी ध्यान समाधि हैं।

सुंदरकांडमें जानकीकी समाधि हैं।

 

जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम।

सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥29 ख॥

 

जिस प्रकार कपट मृग के साथ श्री रामजी दौड़ चले थे, उसी छवि को हृदय में रखकर वे हरिनाम (रामनाम) रटती रहती हैं॥29 (ख)॥

परमात्माका ध्यान धर कर जानकी अशोक वृक्षके नीचे बैठी हैं वह ध्यान समाधि हैं।

लंकाकांडमें राक्षस भी ध्यान लगाते हैं। कुंभकर्ण भी क्षणिक ध्यानस्थ होता हैं, मग्न होता हैं।

उत्तरकांडमें समाधिकी चर्चा हैं।

 

सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।

सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।

 

सनकादि मुनि नारद जी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे [रामकथा सुननेके] श्रेष्ठ अधिकारी हैं।।4।।

भगवत कथा एक समाधि हैं।

मानस रोग

 

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए साधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121क।।

 

एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे ?।।121(क)।।

मानसिक रोग मनुष्यको सतत पीडा देता हैं।

कवितावलि रामायण

बेद न पुरान गान, जानौं न बिज्ञान ज्ञान,

⁠⁠⁠ध्यान, धारना, समाधि, साधन-प्रबीनता।

नाहिंन बिराग, जोग, जाग, भाग 'तुलसी' के,

⁠⁠⁠दया-दान दूबरो हौं, पाप ही की पीनता।

लोभ-मोह-काम-कोह-दोष-कोष मो सो कौन?

⁠⁠⁠कलिहू जो सीखि लई मेरियै मलीनता।

एक ही भरोसो राम रावरो कहावत हौं,

⁠⁠⁠राबरे दयालु दीनबंधु, मेरी दीनता॥६२॥

 

शब्दार्थसाधन-प्रबीनता= साधनों में चतुरता। जाग= यज्ञ। दयादान दूबरो= दया और दान मे दुर्बल हूँ। पाप ही की पीनता= महापापी। पीनता= मोटाई। कोह= क्रोध। दोप-कोष= दोषों का खजाना। मो सो= मेरे समान। कलि हूँ= कलियुग ने भी। मेरियै= मेरी ही।

 

तुलसीदास कहते हैं कि न तो मै वेद और पुराण का पढ़ना जानता हूँ, न ज्ञान और विज्ञान जानता हूँ, न ध्यान, धारणा, समाधि आदि साधनों में ही निपुण हूँ और न मेरे भाग्य में विराग, योग यज्ञादि ही हैं। दया और दान में तो मैं दुर्बल हूँ और पाप की ही मोटाई है अर्थात् महापापी हूँ। मेरे समान लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि दोषों का खजाना कौन है, यहाँ तक कि कलियुग ने भी मलिनता मुझसे ही सीख ली है। परतु हे रामचद्रजी, मुझे भरोसा केवल यही है कि मैं आपका कहलाता हूँ और आप दीनों के बंधु और दयालु हैं और मै दीन हूँ (अर्थात् यदि आप सच्चे दीनबंधु हैं तो मुझ दीन पर दया करते ही बनेंगा)।

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास॥

 

संत तुलसीदास जी कहते हैं कि एक भगवान का ही भरोसा, भगवान को पाने की ही आस और परम मंगलमय भगवान ही हमारे हितकारी हैं, ऐसा विश्वास हमें निर्दुःख, निश्चिंत, निर्भीक बना देता है। जगत का भरोसा, जगत की आस, जगत का विश्वास हमें जगत में उलझा देता है। भरोसा, आस और विश्वास मिटता नहीं, यह तो रहता है लेकिन जो इसे नश्वर से हटाकर शाश्वत में ला देता है वह धनभागी हो जाता है।

राम की शरणमें जो जाता हैं उसे ओर कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं हैं।

 

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

 

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।

मोह मानसिक रोग - जो असाध्य रोग हैं उसका मूल हैं, मूलको मिटानेसे सब मानसिक रोग दूर हो जायेगें।

अर्जुनका मोह नष्ट होता हैं।

 

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।

 

।।18.73।। अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गयी है? अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा।।

 

मोह नष्ट करनेके उपाय –

मोह सदगुरुके वचनोंसे, हरि कथासे, हरिनाम संकिर्तनसे, भजनानंदी महापुरुषका स्थान नष्ट होता हैं।

 

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

 

 

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥

महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥3॥

 

हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं श्री रामजी की सुंदर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्री रामजी की कथा (उसे नष्ट कर देने वाली) भयंकर कालीजी हैं॥3॥

 

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

 

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

 

 

गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।।

भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक।।68क।।

 

श्रीरघुनाथजीके सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा सन्देह जाता रहा। हे काकशिरोमणि ! आपके अनुग्रह से श्रीरामजीके चरणोंमें मेरा प्रेम हो गया।।68(क)।।

काम – धर्मयुक्त काम - भगवानकी विभूति हैं।

 

बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।

 

 हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।।

ईर्षा, निंदा और द्वेष छोडने जैसा हैं।

काम, क्रोध, लोभ सम्यक मात्रामें जरुरी हैं।

वात पित कफ सम्यक मात्रामें जरुरी हैं।

ईर्षा, नींदा और द्वेषकी कोई आवश्यकता नहीं हैं।

वशिष्ठ मुनि भी पुत्र कामेष्ठि यज्ञ कराते हैं।

भगवान राम भी लीला करते हुए क्रोध करते हैं।

 

जासु कृपाँ छूटहि मद मोहा। ता  कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥

 

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा।।11।।

 

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिये सुख दायक है। वेदोंमें अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।।1।।

साधुकी निंदा करनेवाला घुवड बनता हैं।

निंदा भी एक रस हैं।

 

होहिं उलूक संत निंदा रत।

 

राम कथा महा मोह को मिटाती हैं।

बुद्ध पुरूषना वचनो मोह नष्ट करे, अर्जुननो मोह कृष्णना वचनोथी नष्ट थाय छे।

अब ना बनी तो फिर ना बनेगी

नर तन बार बार नहीं मिलता

अब ना बनी तो फिर ना बनेगी

हीरा सा जनम क्यों विरथा गवायों

ना सत्संग कियो हरि गुण गायो

जननी तेरी तुझे फिर ना जनेगी

હરીની હાટડીએ મારે કાયમ હટાણું,

જોયું નહીં કોઇ દિ મેં તો ટાણું કે કટાણું

હરીની હાટડીએ મારે.

પૃથ્વી પવન ને પાણી, આપે ઉલટઆણી,

કોઇ દિ માંગ્યું એનું નારાયણે નાણું

હરીની હાટડીએ મારે.

ગમે ત્યાંથી ગોતી ગોતી, હંસલાને આપે મોતી,

કીડીયું ને કણ્યું ઓલા હાથીડાને મણ્યું

હરીની હાટડીએ મારે.

ધણી મેં તો ધાર્યો નામી,

યાદી દીધી સઘળી વામી,

પીંગળને મળ્યું મોતી, બે દિનું ઠેકાણું

હરીની હાટડીએ મારે.

 

જીંદગીસે બડી કોઈ સજા હિ નહીં ….

 

सुनहु तात जेहि कारन आयउँसो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रमगयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

 

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गयाफिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गयेआपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

 

जेहि  बिधि  प्रभु  प्रसन्न  मन  होई। 

करुना  सागर  कीजिअ  सोई॥1॥

 

बंदौ रघुपति करुना - निधान । जाते छूटै भव - भेद - ग्यान ॥१॥

रघुबंश - कुमुद - सुखप्रद निसेस । सेवत पद - पंकज अज महेस ॥२॥

निज भक्त - हदय - पाथोज - भृंग । लावन्य बपुष अगनित अनंग ॥३॥

अति प्रबल मोह - तम - मारतंड । अग्यान - गहय - पावक प्रचंड ॥४॥

अभिमान - सिंधु - कुंभज उदार । सुररंजन, भंजन भूमिभार ॥५॥

रागादि - सर्पगन - पन्नगारि । कंदर्प - नाग - मृगपति, मुरारि ॥६॥

भव - जलधि - पोत चरनारबिंद । जानकी - रवन आनंद - कंद ॥७॥

हनुमंत - प्रेम - बापी - मराल । निष्काम कामधुक गो दयाल ॥८॥

त्रैलोक - तिलक, गुनगहन राम । कह तुलसिदास बिश्राम - धाम ॥९॥

 

मैं करुणानिधान श्रीरघुनाथजीकी वन्दना करता हूँ, जिससे मेरा सांसारिक भेद - ज्ञान छूट जाय ॥१॥

श्रीरामजी रघुवंशरुपी कुमुदको चन्द्रमाके समान प्रफुल्लित करनेवाले हैं । ब्रह्मा और शिव जिनके चरणकमलोंकी सेवा किया करते हैं ॥२॥

जो अपने भक्तोंके हदयकमलमें भ्रमरकी भाँति निवास करते हैं । जिनके शरीरका लावण्य असंख्य कामदेवोंके समान हैं ॥३॥

जो बड़े प्रबल मोहरुपी अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्य और अज्ञानरुपी गहन वनके भस्म करनेके लिये अग्निरुप हैं ॥४॥

जो अभिमानरुपी समुद्रके सोखनेके लिये उदार अगस्त्य हैं और देवताओंको सुख देनेवाले तथा ( दैत्योंका दलनकर ) पृथ्वीका भार उतारनेवाले हैं ॥५॥

जो राग - द्वेषादि सर्पोंके भक्षण करनेके लिये गरुड़ और कामरुपी हाथीको मारनेके लिये सिंह हैं तथा मुर नामक दैत्यको मारनेवाले हैं ॥६॥

जिनके चरणकमल संसारसागरसे पार उतारनेके लिये जहाज हैं, ऐसे श्रीजानकीरमण रामजी आनन्दकी वर्षा करनेवाले हैं ॥७॥

जो हनुमानजीके प्रेमरुपी बावड़ीमें हंसके समान सदा विहार करनेवाले और निष्काम भक्तोंके लिये कामधेनुके समान परम दयालु हैं ॥८॥

तुलसीदास यही कहता है कि तीनों लोकोंके शिरोमणि, गुणोंके वन श्रीरामचन्द्रजी ही केवल शान्तिके स्थान हैं ॥९॥

9

Sunday, 23/08/2020

जो परमात्माके लक्षण हैं वही समाधिके भी लक्षण हैं।

हम ध्यान तक की यात्रा किसीके लक्ष्यमें रखकर कर शकते हैं।

स्तोत्रकी शरूआत अथ ध्यानं से शरु होती हैं।

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः पूजामूलं गुरुर्पदम् ।

मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरूर्कृपा ॥

 

Meaning:

1: The Root of Meditation is the Form of the Guru,

2: The Root of Worship is the Feet of the Guru,

3: The Root of Mantra is the Word of the Guru,

4: The Root of Liberation is the Grace of the Guru.

गुरु पूजा व्यक्ति पूजा नहीं हैं।

हमें हमारे गुरुकी हि ध्यान करना हैं।

गुरुके चरन के सिवा और किसकी पूजा करना?

गुरु मंत्र ग्रंथ लिखित मंत्र नहीं होते हैं, गुरु जो बोले वहीं मंत्र हैं।

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।

बुद्ध पुरुषका वचन ही महामंत्र हैं।

हमारी मुक्तिकी यात्रा गुरुकी करुणा हि हैं।

 

राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर ।

ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर ॥

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास ।

हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास ॥

पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत ।

सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत ॥

 

समाधि तक कोई शिवात्मा या बुद्ध पुरुष ही पहुंच शकता हैं, समाधि जीवात्माके लिये उसकी पहुंच की बाहर हैं।

बुद्ध पुरुष - विशेष पुरुष नर रुपमें हरि हैं।

 

राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥

 

समाधिस्थ महापुरुष समाधिको त्यज कर नीचे आ शकता हैं, शंकर भगवान, हनुमानजी समाधि छोडकर बहिर्मुख होते हैं।

हनुमानजी सागर तट पर समाधिमें चले जाते हैं और उसका राम काज भूल जाते हैं और वह राम काज जामवंत याद दिलाते हैं।

 

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥

पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥

 

ऋक्षराज जाम्बवान्‌ ने श्री हनुमानजी से कहा- हे हनुमान्‌! हे बलवान्‌! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो॥2॥

हनुमानजी बल, बुद्धि और विज्ञानका उपयोग करके राम काज का कार्य करते हैं।

सागर छलांग हनुमानजीका विज्ञानका प्रयोग हैं।

समाधिमें सब कुछ छूट जाता हैं।

परम समाधिमें सब भेद समाप्त हो जाता हैं।

अगर हम ध्यान तक पहुंचते हैं तो वह भी पर्याप्त हैं। ध्यान समाधिसे पहला पडाव हैं।

 

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

 

वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

 

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥

मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥

 

रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात्‌ जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से 'नाहीं' नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं॥4॥

 

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥

भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥2॥

 

ऐसा कहकर श्री रामजी ने फिर कर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)। मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया)॥2॥

 

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

 

वह (सीताजी की शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥

 

सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥

बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥

 

(इस प्रकार) हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले-॥230॥

 

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥

पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥

 

हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है॥1॥

 

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥

 

जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥2॥

 

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥

 

रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है॥3॥

 

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥

मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥

 

रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात्‌ जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से 'नाहीं' नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं॥4॥

समाधि बिना जीभ बोलती हैं।

समाधि बिना बानी योगीकी भाषा बोलती हैं, केवल नाद होता हैं।

 

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥

असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥

 

वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥

प्रेम मार्गमें यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा. ध्यान सब कुछ छूट जाता हैं।

समाधिमें स  शब्दका अर्थ  समता हैं, मा का अर्थ हैं मार्ग या मार्गी जहां कोई विषमता नहीं हैं, धि का अर्थ प्रज्ञा हैं।

जिसको पृथ्वी उपर कोई स्थानकी आसक्ति नहीं हैं वह स्थान एकांत हैं। बुद्ध पुरुष एकांत खोजता हैं।

मौन साधना दूसरा लक्षण हैं, बुद्ध पुरुष ज्यादातर मौन रहतें हैं, मौन स्वभाव बन जाता हैं।

लोगोंको बतानेके लिये बुद्ध पुरुष सम्यक कर्म करता हैं और लोग उसका अनुसरण करते हैं।

बुद्ध पुरुष समता रखता हैं, कई बुद्ध पुरुष जो जीवित हैं वह जीवंत समाधि ही हैं।

त्याग और वैरागय बुद्ध पुरुषकी जीवंत समाधिका लक्षण हैं।

सबका स्वीकार करनेका स्वभाव जीवंत समाधिका लक्षण हैं।

जिसका साधु स्वभाव हैं, जिसकी कोई जाति नहीं हैं, वह बुद्ध पुरुष हैं, जीवंत समाधि हैं।

साधु पुरुष कभी भी किसीको उद्वेग हो ऐसा वाक्य नहीं बोलता हैं।

संबंध एक बंधन हैं, लेकिन एक प्रमाणिक दूरी रहे तो संबंध नहीं रहेगा।

बुद्ध पुरुष सतत सहन करता रहता हैं, और जो ऐसी सहन्शीलत न त्यजे वह जीवंत समाधि हैं।

सतत श्रवण और सतत स्मरण बुद्ध पुरुषका लक्षण हैं और ऐसा करनेमें दुनिया क्या कहेगी उसकी कोई चिंता नहीं करता हैं।

ऐसा लक्षण जिसमें हैं वह जीवंत समाधि हैं, चलती फिरती समाधि हैं।