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Saturday, June 26, 2021

માનસ દેવપ્રયાગ, मानस देवप्रयाग - 861

 

રામ કથા - 861

માનસ દેવપ્રયાગ

દેવપ્રયાગ – ઉત્તરાખંડ

શનિવાર, તારીખ ૨૬/૦૬/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૦૪/૦૭/૨૦૨૧

મુખ્ય પંક્તિઓ

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं।

सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥

को  कहि  सकइ  प्रयाग  प्रभाऊ। 

कलुष  पुंज  कुंजर  मृगराऊ॥

 

1

Saturday, 26/06/2021

 

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

 

माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥।2॥

यहां पंच प्रयाग हैं।

 

को  कहि  सकइ  प्रयाग  प्रभाऊ।  कलुष  पुंज  कुंजर  मृगराऊ॥

अस  तीरथपति  देखि  सुहावा।  सुख  सागर  रघुबर  सुखु  पावा॥1॥

 

पापों  के  समूह  रूपी  हाथी  के  मारने  के  लिए  सिंह  रूप  प्रयागराज  का  प्रभाव  (महत्व-माहात्म्य)  कौन  कह  सकता  है।  ऐसे  सुहावने  तीर्थराज  का  दर्शन  कर  सुख  के  समुद्र  रघुकुल  श्रेष्ठ  श्री  रामजी  ने  भी  सुख  पाया॥1॥ 

यहां अलकनंदा और भागिरथी का संगम स्थान हैं और यह संगमसे गंगा का प्रवाह प्रारंभ होता हैं।

 

तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥

तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥

 

तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही बिष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शम्भु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं॥2॥

 

तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥

सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥3॥

 

हे भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान्‌ को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया॥3॥

बुरा न बोलना, बुरा न देखना बुरा न सुनना भी तप हैं।

यहां भगवान राघवेन्द्रने तपस्या की थी।

कथा रसके महारसमें प्रवेश करनेसे दूसरे सब रस फिके हो जाते हैं।

 

2

Sunday, 27/06/2021

मीराको उसकी कृष्ण भक्तिके लिये मेवाडमें परेशान करते थे उसी लिये तुलसीदासजीके पत्र अनुसार मेवाड छोड्कर द्वारका जाती हैं। यहां हरि व्यापत्वका कोई खंडन नहीं हैं।

तुलसीदासजी लिखते हैं कि …..

 

जाके प्रिय न राम बैदेही ।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि    प्रेम   सनेही ।।

तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु , भरत महतारी ।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं , भए मुद-मंगलकारी।।

नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां  लौं ।

अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ  लौं ।।

तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे ।

जासों होय सनेह राम –पद , एतो मतो  हमारॉ ।

 

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥

हरि सर्वत्र समान रुपसे व्याप्त हैं।

योग से और कृपा प्रसाद से, गुरु कृपा से बुद्धि शुद्ध होती हैं, योग करनेमें परिश्रम हैं, लेकिन कृपामें कोई परिश्रम नहीं हैं।
गुरु चरन रज की कृपा से मन, बुद्धि चित की शुद्धि होती हैं।

हवे तारो मेवाड मीरा छोडसे …………..

हरि भजन में जो बाधक बने उसे छोड देना चाहिये या अपने खुदको उससे अलग कर दो।

देव किसको कहते हैं?

तुलसीदासजी देवताकी कडी आलोचना करते हैं, देव डरपोक होते हैं, देवता स्वार्थी, लोभी, लालची होते हैं, देवता अपने कार्यके लिये कोई भी षडयत्र करते हैं।

ईश्वर सत्य के रुप में, प्रेम के रुपमें, करुणा के रुप में आता हैं।

गोपी जन महारास के प्रवेश के पहले एक दूसरे की ईर्षा करती हैं, महारस में प्रवेश के बाद सव विकार समाप्त हो जाते हैं। महारास गोपीजनोके अहंकारको समाप्त कर देता हैं।

दंभिक आस्तिकसे स्पष्ट नास्तिक कई गुना अच्छा हैं।

देव का मतलब हैं कि जिसकी बोली, आचार और उच्चार दिव्य हो। जिसमें कभी भी दूसरों के लिये अभद्र विचार न आये वह देव हैं।

अगर कोई हमसे चू रहे तो उसे दुवा समजो और अगर बोल दे तो उसे हुआ समजो।

जो दिव्य जीवन में रहता हैं तो उसके विरुध्ध में दनुज पेदा होगे ही, अगर दनुज पेदा नहीं होता हैं तो उसकी देवत्वमें कुछ कमी हैं।

देव और दनुज की व्याख्या क्या हैं?

गीता सर्व शास्त्रोका सार हैं तो राम चरित मानस सभी शास्त्रोका सारांश हैं।

 

संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।

काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।4।।

 

संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चन्दन का आचरण होता है। हे भाई ! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है [क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षोंको काटना है]; किन्तु चन्दन [अपने् स्वभाववश] अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ीको) सुगन्ध से सुवासित कर देता है।।4।।

 

ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।

अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।

 

इसी गुणके कारण चन्दन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुखको यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं।।37।।

 

देवत्व दूसरों को उसकी कला के लिये दाद देगा।

गुरु देव हैं, सबसे बडा देव महादेव हैं।

 

इसी गुणके कारण चन्दन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुखको यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं।।37।।

देव किसीके घरमें शुभ प्रसंग आनेवाला हैं तब उसको उपर पुष्प वर्षा करते हैं।

3

Monday, 28/06/2021

मानस भी गंगा हैं।

श्रद्धा और भक्ति में क्या फर्क हैं?

श्रद्धा पहाड की बेटी हैं और भक्ति पृथ्वी की बेटी हैं।

पार्वती श्रद्धा हैं, पहाड की बेटी हैं जो स्थिर हैं।

 

पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।

मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।7।।

 

वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्रीरामजीकी नाना प्रकारकी कथाएँ उन पर्वतों में सुन्दर खानें हैं। संत पुरुष [उनकी इन खानोंके रहस्यको जाननेवाले] मर्मी हैं और सुन्दर बुद्धि [खोदनेवाली] कुदाल है। हे गरुड़जी ! ज्ञान और वैराग्य- ये दो उनके नेत्र हैं।।7।।

पहाड तीन प्रकार के होते हैं, रजो गुणी पहाड जिसमें से धातु नीकाली जाती हैं, तमो गुणी पहाड जो उडान भरते हैं जो कई गावों का नाश करते हैं, जैसे मैनाक पहाड।

देह मुक्त व्यक्ति ईन्द्रीयातित हैं, उसे ईन्द्रीयोकी कोई जरुरत नहीं हैं, साधु खेत समान हैं, मकान में खीडकी की जरुरत हैं, खेत को कोई खीडकी की आवश्यकता नहीं हैं।

शंकर वेणु हैं, अधर नीचे वाला होठ हैं. उपर वाला होठ अधर नहीं हैं।

स्वर का एक अर्थ स्मरण हैं।

वेणु सबसे अधिक अधरामृत पाती हैं।

मानस फल नहीं देता हैं लेकिन रस देता हैं।

जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि – रोग यह चार पहाड हैं, जो हम पर हुमला करता हैं।

ईच्छा जब समाप्त हो जाती हैं – शांत हो जाती हैं, तब शांति मिलती हैं।

हमारे किये हुए कर्म जब प्रारब्ध बन जाते हैं तब वह फल देने लगते हैं।

जीवन में हरिनाम, शास्त्र और शास्त्रवेता का आश्रय लेकर जीना चाहिये।

हमें गुरु के प्रभाव में जीना चाहिये, हमें सतसंग के प्रभाव में जीना चाहिये, नाम प्रभाव में जीना चाहिये, भजनानंदी महापुरुष के प्रभाव में जीना चाहिये।

 

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥

जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥

 

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥

 

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥

सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥

 

उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥

साधना में कुछ करना पडता हैं, उपासना में किसी के सानिध्य में बैठना हैं, आराधना एक चिख हैं – एक पुकार हैं।

उपवास का एक अर्थ यह हैं कि किसी के सानिध्य में बैठना उप + वास ।

 

4

Tuesday, 29/06/2021

 

देवी! सुरेश्वरी भगवती गंगे

 

देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे!

त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे।

शंकरमौलिविहारिणि विमले

मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥1 ॥

 

हे देवी! सुरेश्वरी! भगवती गंगे! आप तीनों लोकों को तारने वाली हैं। शुद्ध तरंगों से युक्त, महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हे मां! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलों में केंद्रित है।

 

भागीरथीसुखदायिनि मातस्तव

जलमहिमा निगमे ख्यातः ।

नाहं जाने तव महिमानं

पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥

 

हे मां भागीरथी! आप सुख प्रदान करने वाली हो। आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गाई है। मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हूं। हे कृपामयी माता! आप मेरी रक्षा करें।

 

हरिपदपाद्यतरंगिणी गंगे

हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे।

दूरीकुरुमम दुष्कृतिभारं

कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥

 

हे देवी! आपका जल श्री हरि के चरणामृत के समान है। आपकी तरंगें बर्फ, चंद्रमा और मोतियों के समान धवल हैं। कृपया मेरे सभी पापों को नष्ट कीजिए और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिए।

 

तव जलममलं येन निपीतं

परमपदं खलु तेन गृहीतम्।

मातर्गंग त्वयि यो भक्तः किल

 

तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥

 

हे माता! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पाता है। हे मां गंगे! यमराज भी आपके भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

 

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे

खंडित गिरिवरमंडित भंगे।

भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये !

पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ 5 ॥

 

हे जाह्नवी गंगे! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है। आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो। आप पतितों का उद्धार करने वाली हो। तीनों लोकों में आप धन्य हो।

 

कल्पलतामिव फलदां लोके

प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।

पारावारविहारिणिगंगे

विमुखयुवति कृततरलापंगे॥ 6 ॥

 

हे मां! आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो। आपको प्रणाम करने वालों को शोक नहीं करना पड़ता। हे गंगे! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो, जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है।

 

तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः

पुनरपि जठरे सोपि न जातः।

नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे

कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे। ॥ 7 ॥

 

हे मां! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। हे जाह्नवी! आपकी महिमा अपार है। आप अपने भक्तों के समस्त कलुषों को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो।

 

पुनरसदंगे पुण्यतरंगे

जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।

इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे

सुखदे शुभदे भक्तशरण्ये ॥ 8 ॥

 

हे जाह्नवी! आप करुणा से परिपूर्ण हो। आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तों को विशुद्ध कर देती हो। आपके चरण देवराज इंद्र के मुकुट के मणियों से सुशोभित हैं। शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता प्रदान करती हो।

 

रोंगं शोकं तापं पापं हर मे

भगवति कुमतिकलापम्।

त्रिभुवनसारे वसुधाहारे

त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ 9 ॥

 

हे भगवती! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा का हार हो,हे देवी! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है।

 

अलकानंदे परमानंदे कुरु

करुणामयि कातरवंद्ये ।

तव तटनिकटे यस्य निवासः

खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ 10 ॥

 

हे गंगे! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं। हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत हे परमानंद स्वरूपिणी! आपके तट पर निवास करने वाले वैकुंठ में निवास करने वालों की तरह ही सम्मानित हैं।

 

वरमिह नीरे कमठो मीनः

किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।

अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव

न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥

 

हे देवी! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना अथवा आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना।

 

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये

देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।

गंगा स्तवमिमममलं नित्यं पठति

नरे यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥

 

हे ब्रह्मांड की स्वामिनी! आप हमें विशुद्ध करें। जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है, वह निश्चित ही सफल होता है।

 

येषां हृदये गंभक्तिस्तेषां

भवति सदा सुखमुक्तिः ।

मधुराकंता पञ्झटिकाभिः

परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥

 

जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है। उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं। यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है।

 

गंगा स्तोत्रमिदं भवसारं

वांछितफलदं विमलं सारम् ।

शंकरसेवक शंकर रचितं पठति

सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥

 

भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें शुद्ध-विशुद्ध और पवित्र कर वांछित फल प्रदान करे।

 

 

 

 

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

 

जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

साधन से चित शुद्धि होती हैं। और चित शुद्धि होने से जो उपलब्ध हैं वह सब दिखाई देता हैं।

 

लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥

यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥

 

और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥

 

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥

नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥

 

तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है॥2॥

प्रमाद मृत्यु का पर्याय हैं।

मातरम्‌ पितरम्‌ ………….

जो महापुरुष के साथ जुडता हैं उसे बहूत सहन करना पडता हैं।

जो हमे सागर तक पहुंचा दे – हमारे लक्ष्य तक पहुंचा दे उस के साथ जुड जाना चाहिये।

ईश्वर के पास मागना हैं तो ऐसा मागो के हे ईश्वर तुं जिसे याद कर रोता हैं उससे मिलन करा दे। ऐसा व्यक्ति अगर मिल जाय तो वह भवदरिया तक पहुंचा देगा – हमें लक्ष्य तक पहुंचा देगा।

अतिसय प्रेमकी अवस्थामें व्यक्ति बोल नहीं शकता हैं, बोलने में थरथराता हैं।

 

यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥

 

कथा साधन नहीं हैं, साध्य हैं।

कथा श्रवण करनेका अवसर भी कई जन्मो की कमाई का परिणाम हैं।

जब भी सुख, सुख की सुविधा, पद प्रतिष्ठा मिले तब ऐसा वर्ताव करनाकी जिससे किसी को कोई दुःख न पहुंचे। हमारा सुख, हमारी सुख सुविधा, हमारी पद प्रतिष्ठा से किसी दूसरे को दुःख न पहुंचना चाहिये।

 

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।

प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।4।।

 

प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज ! जलकी चिकनाई ठहरती नहीं।।4।।

बिना श्रम विश्राम का अनुभव नहीं होता हैं जैसे बस में काभी समय तक खडे रहने के बाद बेठक मिलने में जो विश्राम मिलता हैं।

 

 

5

Wednesday, 30/06/2021

हमारे देश में जो अन्न क्षेत्र हैं वह सब  ब्रह्म क्षेत्र हैं।

दया और कृपा में क्या अंतर हैं?

वक्ता के वकतव्य हमें अपनी सोच के अनुसार स्वीकार करना चाहिये।

दया किसी की दशा देखकर आती हैं, कारणवश दया आती हैं, कृपा में कोई कारण नहीं हैं, कृपा बिना किसी कारण आ शकती हैं।

राम करुणासिन्धु हैं।

कृपा कोई भी भेद – वर्ण, जाति का भेद नहीं करती हैं।

स्कुल में शिक्षक होता हैं जब कि गुरु कूल में गुरु होता हैं।

जिस को देखने से अपने विचार न बिगडे – बुरे विचार न आये तो वह पुरुष कोई महा पुरुष हैं।

बुद्ध पुरुष की याद में रहना – स्मरण में रहना वैकुठ से भी ज्यादा अच्छा हैं, उस के मुकाबले वैकुंठ तुच्छ हैं।

 

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।14.4।।

 

।।14.4।। हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियाँ (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद्ब्रह्म और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ।।

 

जो अव्यक्त को व्यक्त कर दे वह देव हैं। जो दिखाई न दे उसे दिखाईदेना कत दे वह देव हैं।
दैवी गुण का लक्षण अभय हैं, सत्य के बिना अभय नहीं आता हैं, सत्य की संतान अभय हैं।

हमें दूसरे के सत्य को भी स्वीकार करना चाहिये।

सत्य अपने लिये, प्रेम दूसरे के लिये और करुणा सब के लिये होनी चाहिये।

छह – ६ - समय क्रोध नहीं करना चाहिये – १ सुबह ऊठते समय क्रोध न करे, २ पूजा पाठ के समय, ३ घर से बाहर जाते समय, ४ भोजन करते समय, ५ घर लौटते समय, ६ शयन करते समय क्रोध नहीं करना चाहिये।

 

गीता के नीम्न श्लोक में दैवी लक्षण का वर्णन हैं।

 

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।

 

 

।।16.1।। श्री भगवान् ने कहा -- अभय, अन्त:करण की शुद्धि, ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप और आर्जव।।

 

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।।

 

।।16.2।। अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना), भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता , मार्दव (कोमलता), लज्जा, अचंचलता।।

 

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।16.3।।

 

।।16.3।। हे भारत ! तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (शुद्धि), अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।

 

हरि और हरि कथा एक हि हैं।

हरि का नाम, रुप, लीला और धाम एक हि हैं।

भजन को गुप्त रखना चाहिये।

 

6

Thursday, 01/07/2021

 

 

तू दयालु दीं मैं तू दानी मैं भिखारी,

मैं प्रिशिद पात की तू पाप पुंज हारी,

तू दयालु दीं मैं तू दानी मैं भिखारी,

 

जो अव्यक्त को व्यक्त कर दे वह सब देव हैं, गुरु, महादेव, ऋषि, वैज्ञानिक, हनुमानजी वगेरे अव्यक्त को व्यक्त करते हैं ईसीलिये देव हैं।

अंत;करण की प्रवृत्ति भी एक प्रमाण हैं, उसे सिद्ध नहीं कर शकते हैं।

हरिनाजन तो मुक्ति न मागे, मागे बार बार जन्म ….

 

હરિના જન તો મુક્તિ ન માગે, જનમો જનમ અવતાર રે,

નિત સેવા નિત કિર્તન ઓચ્છવ, નિરખવા નંદકુમાર રે.

ભુતલ ભક્તિ પદારથ મોટું, બ્રહ્મ લોકમાં નાહીં રે,

પુણ્ય કરી અમરાપુરી પામ્યા, અંતે ચોરાશી માંહી રે.

 

भगवान आअदि शंकर भी कहते हैं कि ….

 

न मोक्षस्याकांक्षा भवविभववांछापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥

भरत भी मांगते हैं कि ….

 

अरथ  न  धरम  न  काम  रुचि  गति  न  चहउँ  निरबान।

जनम-जनम  रति  राम  पद  यह  बरदानु  न  आन॥204॥

 

मुझे  न  अर्थ  की  रुचि  (इच्छा)  है,  न  धर्म  की,  न  काम  की  और  न  मैं  मोक्ष  ही  चाहता  हूँ।  जन्म-जन्म  में  मेरा  श्री  रामजी  के  चरणों  में  प्रेम  हो,  बस,  यही  वरदान  माँगता  हूँ,  दूसरा  कुछ  नहीं॥204॥

भगवान कृष्ण भी कहते हैं कि ….


बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
 

·        4.5।। श्रीभगवान् बोले -- हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।



·        4.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते।।
 

 

जब बोध आयेगा तब क्रोध अपनेआप शांत हो जायेगा।

परमात्माने सृष्टिकि बनाया तो परमात्माने किसने बनाया?

प्रेमने परमात्माको बनाया हैं।

 

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥

 

मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥

प्रेम ने हरि को प्रगट करते हैं ऐसा भगवान महादेव कहते हैं।

WHEN I AM WITH YOU EVERYTHING IS PRAYER …. RUMMY

किसी की न सुनो सिर्फ कथा सुनो। कथा में कोई भी अभाव नहीं रहता हैं। कथा श्रवण से सभी ग्लानी से मुक्ति मिलती हैं।

 

सूत उवाच

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव

पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि 2

 

सूतजी ने कहा -----

जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत - संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक - वैदिक कर्मो के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे - 'बेटा ! बेटा ! ' उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया। ऐसे सबके ह्रदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ।।2।।

 

 

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।

इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥

 

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः  श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-  स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥

 

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

 

कोई भी कामोत्तेजना अंत में शोक लाती हैं, शोकप्रद हैं, बुढापा लाती हैं।

महारास को समजना गहन हैं, गलतपेमी हो शकती हैं।

 

देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥

स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥

 

(उसने कहा-) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) हैं, उनके सौंदर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है॥1॥

सही प्रेम में सुख मिलेगा, प्रेम में विरह भी सुख हैं।

 

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥

कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥

कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, रामs नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥4॥

 

भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥

सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥

 

अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥

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Friday, 02/07/2021

नारद के पास भक्ति सूत्र हैं जब कि भरत के पास प्रेम हैं, भरत प्रेमावतार हैं।

योगी हसता हुआ होना चाहिये।

योग में श्रम हैं।

योग प्रदर्शन नहीं हैं, योग अंतर का …..

तीन सफेद – नमक, चिनी और मेदा का कम से कम उपयोग करना चाहिये।

योग रोग को दूर करता हैं, क्रमशः भोग भी कम करता हैं।

योग में श्रम हैं लेकिन योग करने के बाद विश्राम मीलता हैं, १ घंटे का योग का श्रम २३ घंटे का विश्राम देता हैं।

जिस के जीवन में राम का भानु प्रगट होता हैं उस के जीवन में ममता और मोह रुपी रात्रि आती हि नहीं हैं।

 

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥

 

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥

 

जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है॥4॥

 

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।

गुरु बसिष्ठछ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥

 

जो शुभ लक्षणों के धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठाजी ने उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठन नाम रखा है॥197॥

शत्रिघ्न नाम के सुमिरन से शत्रुता का नाश होता हैं, शत्रुका नाश नहीं।

 

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥

मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥

गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥

जो राम नाम का जप करता हैं उसे तीन भाईओ की तरह वर्तन करना चाहिये, भरत की तरह पोषण करना, किसी के साथ शत्रुता न करे भले दूसरा हमारे साथ शत्रुता रखे, हमारे मन में उस के प्रति शत्रुता नहीं करनी चाहिये और लक्ष्मण की तरह हमारी क्षमता के अनुसार किसी का आधार बनना चाहिये – मदद करनी चाहिये और उदार बनना चाहिये।

राग द्वेष से मुक्त मुखरता भी मौन हैं और राग द्वेष से युक्त मौन भयंकर हैं।

 

तुहूँ  सराहसि  करसि  सनेहू।  अब  सुनि  मोहि  भयउ  संदेहू॥

जासु  सुभाउ  अरिहि  अनूकूला।  सो  किमि  करिहि  मातु  प्रतिकूला॥4॥

 

तू  स्वयं  भी  राम  की  सराहना  करती  और  उन  पर  स्नेह  किया  करती  थी।  अब  यह  सुनकर  मुझे  संदेह  हो  गया  है  (कि  तुम्हारी  प्रशंसा  और  स्नेह  कहीं  झूठे  तो  न  थे?)  जिसका  स्वभाव  शत्रु  को  भी  अनूकल  है,  वह  माता  के  प्रतिकूल  आचरण  क्यों  कर  करेगा?॥4॥ 

જ્યાં ગોળ હોય ત્યાં માખી આવે પણ જો દિવસ હોય તો.

જ્યારે તમારા સારા દિવસો હશે ત્યારે જ લોકો તમારી પાસે આવશે.

 

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥

 

ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥

 

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥

 

यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥

 

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥

 

जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥2॥

विश्वामित्र के दो भ्रम खत्म होते हैं, १ ब्रह्म क्षत्रिय के घर भी आता हैं और २ बिना उपवास किये भी मिल शकता हैं। विश्वामित्र को छप्पन भोग का भोजन करने के बाद राम का मिलन होता हैं।

 

बंदौ रघुपति करुना निधान | जाते छुटे भव-भेद-ज्ञान ||

रघुबंश-कुमुद-सुखप्रद निसेस | सेवत पदपंकज अज महेस ||

निज भक्त-ह्रदय-पाथोज-भृंग | लावण्य बपुष अगणित अनंग ||

अति प्रबल मोह-तम-मार्तंड | अज्ञान-गहन-पावक प्रचंड ||

अभिमान-सिन्धु-कुम्भज उदार | सुररंजन, भंजन भूमिभार ||

रागादि-सर्पगन-पन्नगारि | कंदर्प-नाग-मृगपति, मुरारी ||

भव-जलधि-पोत चरनारबिन्द | जानकी-रवन आनंद-कंद ||

हनुमंत-प्रेम-बापि-मराल | निष्काम कामधुक गो दयाल ||

त्रैलोक-तिलक, गुनगहन राम | कह तुलसीदास बिश्राम-धाम ||

 

 

अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥

कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥5॥

 

लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीर वाले और संपूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गं धनुष ले लिया॥5॥

 

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥

प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥

 

श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं। विश्वामित्रजी को महान निधि प्राप्त हो गई। (वे सोचने लगे-) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया॥2॥

 

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥

 

मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥3॥

साधु संपत्ति नहीं मागता हैं लेकिन संतति मागता हैं।

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Saturday, 03/07/2021

प्रयाग और प्रभाव

मानस में प्रभाव का शब्द 53 ~ 54 हैं।

प्रभाव क्या हैं।

प्रभाव शीतल होता हैं जब की सूर्य का प्रताप तेज होता हैं।

जिस को देखते हि दोष, दुःख दूर हो जाय उसे प्रभाव कहते हैं, दुःख दूर कर शकते कम कर शकते हैं, उसे बोगना हि पडता हैं। दोष को खत्म कर जिया शकते हैं।

मारीच जो दुःख हैं जिसको को भगवान ने दूर फेंक दिया था जब कि  सुबाहुं जो दोष हैं उसे भगवानने मार दिया था।

चेंद्र का शीतल प्रभाव हैं जब कि सूर्य का प्रताप तेज हैं।

संगम शब्द सिर्फ तीन बार आया हैं। यह भी एक त्रिवेणी संगम हैं।

 

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥

नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥

 

सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ

 

उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं॥1॥

 

संगमु  सिंहासनु  सुठि  सोहा।  छत्रु  अखयबटु  मुनि  मनु  मोहा॥

चवँर  जमुन  अरु  गंग  तरंगा।  देखि  होहिं  दुख  दारिद  भंगा॥4॥

 

((गंगा,  यमुना  और  सरस्वती  का)  संगम  ही  उसका  अत्यन्त  सुशोभित  सिंहासन  है।  अक्षयवट  छत्र  है,  जो  मुनियों  के  भी  मन  को  मोहित  कर  लेता  है।  यमुनाजी  और  गंगाजी  की  तरंगें  उसके  (श्याम  और  श्वेत)  चँवर  हैं,  जिनको  देखकर  ही  दुःख  और  दरिद्रता  नष्ट  हो  जाती  है॥4॥ 

 

भय  उचाट  बस  मन  थिर  नाहीं।  छन  बन  रुचि  छन  सदन  सोहाहीं॥

दुबिध  मनोगति  प्रजा  दुखारी।  सरित  सिंधु  संगम  जनु  बारी॥3॥

 

भय  और  उचाट  के  वश  किसी  का  मन  स्थिर  नहीं  है।  क्षण  में  उनकी  वन  में  रहने  की  इच्छा  होती  है  और  क्षण  में  उन्हें  घर  अच्छे  लगने  लगते  हैं।  मन  की  इस  प्रकार  की  दुविधामयी  स्थिति  से  प्रजा  दुःखी  हो  रही  है।  मानो  नदी  और  समुद्र  के  संगम  का  जल  क्षुब्ध  हो  रहा  हो।  (जैसे  नदी  और  समुद्र  के  संगम  का  जल  स्थिर  नहीं  रहता,  कभी  इधर  आता  और  कभी  उधर  जाता  है,  उसी  प्रकार  की  दशा  प्रजा  के  मन  की  हो  गई)॥3॥

करम का एक अर्थ कृपा होता हैं।

दुनिया को सुन कर अपना स्वभाव छोडना नहीं चाहिये।

दुनिया में सम समधी कम मिलती हैं। जनक और दशरथ सम समधी थे, लेकिन जब राम को वनवास के समत जाते हैं तब सोचते हैं कि अगर हम सम समधी होते तो मैं ने भी प्राण त्यज दीया होता।

जानकी के विदाय के समय जनक तीन प्रश्न पूछ्ते हैं।

जानकी कहती हैं कि मैं तो सामाजिक व्यवस्था पर रो रही हुं कि पुत्री को व्याह के बाद ससुराल जाना पडता हैं।

जनक दो व्यक्ति को प्रेम करते थे – जानकी और राम को प्रेम प्रेम करते थे।

शास्त्र, राजा (जो राजा विभूति रुप हैं) और स्त्री कभी भी किसी के वशमें नहीं होते हैं।

शास्त्र का कितना भी अभ्यास करो, शास्त्र कभी भी हमारे वश में नहीं होते हैं, हमें हि शास्त्र के वश में रहना पडता हैं। शास्त्र कंठस्थ करना आसान हैं लेकिन ह्मदयस्थ करना मुश्किल हैं।

साधन के द्वारा साध्य मिल जाय तो भी साध्य को छोडना नहीं चाहिये, साध्य को न छोडने से हमारी बुद्धि शुद्ध रहती हैं। विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर जब अपने आश्रम आते हैं तब फिर अपने यज्ञ का आरंभ नहीं करते हैं और सोचते हैं कि यज्ञ करके जिस को पाना हैं वह तो मिल हि गया हैं तो फिर यज्ञ करना चाहिये। लेकिन फिर राम विश्वामित्र को अपना यज्ञ शुरु करने को कहते हैं।

 

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥

पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥

 

मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही॥6॥

 

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥

 

गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥210॥

साधु पतित का पक्ष लेते हैं, विश्वामित्र अहल्या का पक्ष लेते हुए उसे श्राप वश कहते हैं, पाप वश नहीं कहते हैं।

भूल किस से नहीं होती हैं? फिर भी भूल करनी नहीं चाहिये।

आत्म निवेदन आखिरी भक्ति हैं।

 

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

 

योगेश्वर कृष्ण का कौरव सभा में निवेदन करते हुए कहते हैं कि जिस सभा में असत्य द्वारा सत्य को सहन करना पडे तब उस सभामें उपस्थित सभी सभासद भी हत्यारे हैं।

परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

 

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

 

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।

सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥

 

जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई॥4॥

 

सही शिर सही चरण के समक्ष झुकना चाहिये।

मृत्यु एक सुंदर युवती हैं उससे शादी कर लो।

चौदह लोग जिते हुए मुए समान हैं।

 

जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥

कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥

 

यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥1॥

 

सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥

तनु पोषक निंदक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥

 

नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान्‌ विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान्‌ पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥

 

बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥

 

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥

बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥

 

राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए॥1॥

 

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Sunday, 04/07/2021

जिस को जीना हैं उस के लिये समय कम नहीं पडता हैं, एक क्षण भी काफी हैं।

 

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।

 

।9.31।। हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।।

 

तुलसीदासजी कहते हैं कि ….

 

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।

 

राम की अवध से जनकपुर तक की यात्रा दरम्यान ६ प्रसंग विशेष हैं। राम भी ६ वस्तु छोडते हैं। पिता, तीन माता, भरत और शत्रुघ्न को छोडते हैं।

विशेष प्रसंग …..

१ ताडका , मारीच और सुबाहुका उद्धार

२ अहल्या का उद्धार

३ जनकपुर में नगर दर्शन

४ जानकी और राम का पवित्र मिलन

                  धनुष्य भंग

                 परशुराम प्रसंग

राम जानकी अभिन्न तत्व हैं।

राम सब छोडते हैं, रावण सब ग्रहण करता हैं

 

 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥

 

(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्र जी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मंदबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शांति प्राप्त कर ली, उन श्री रामजी के समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं॥3॥

राम भगवान हैं।

अहल्या उद्धार धर्म प्रसंग हैं।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।

ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।

(बैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भंग इतींगना)[1]

 

(समग्र ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री एवं सम्पूर्ण ज्ञान, वैराग्य जिनमें विद्यमान हों; उन्हें भगवान कहा जाता।)

भगवान के छह ऐश्वर्य क्या है?

यह "भग" धातु से बना है ,भग के ६ अर्थ है:- १-ऐश्वर्य २-वीर्य ३-स्मृति ४-यश ५-ज्ञान और ६-सौम्यता जिसके पास ये ६ गुण है वह भगवान है।

अहल्या का उद्धार धर्म हैं।

वेद, स्मृति, साधु और अपनी आत्मा जो कहे वह करना धर्म हैं।

हमारा बाप स्वयंभू हैं।

 

स्वयंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥

दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥

 

स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं॥1॥

हमारा बाप योनिज नहीं हैं।

मनु शत्रुपा हमारे माबाप हैं जो ब्रह्मा की  बाजु से प्रगट होते हैं। ईसीलिये हम मनुज हैं। हमारे आदि माता पिता मनु शत्रुपा हैं।

जिस के पास गाली हैं वह दूसरों को गाली देता हैं।
लघु का एक अर्थ ईष्ट होता हैं।

दीन हिन को गले लगाना धर्म हैं।

 

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

 

वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥4॥

राम का नगर दर्शन परमात्मा का यश हैं, पुष्पवाटिका में श्री मिलन हैं।

परशुराम प्रसंग ज्ञान का प्रसंग हैं।

 

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।

विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।

 

धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके

किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

 

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

 

चौंके बिरंचि संकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।

ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनि, जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥

 

अति भारी पृथ्वी भी सब समुद्रों पर्वतों और तालाबों सहित हिलने लगी। शेषजी उस समय बहिरे हो गये। दिकपाल और सब चर व अचर व्याकुल हो गये। दिशाओं के हाथी लरखरा गये (हिलने लगे) और रावण मुहँ के बल गिर पड़ा। देवताओं के विमान, सूर्य्य और चन्द्रमा एक दूसरे में मिल गये। ब्रह्मा

 

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥

जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥

 

हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो॥1॥

 

बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥

सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥2॥

 

हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले! आपकी जय हो॥2॥

 

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥

अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥3॥

 

मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए॥3॥

 

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥

अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥

 

हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥4॥

 

ए पहुना ए ही मिथिले में रहु ना

जउने सुख बा ससुरारी में, तउने सुखवा का हूं ना

रोज सवेरे उबटन मलके इत्तर से नहवाइब ।

एक महीना के भीतर करिया से गोर बनाइब ।।

झूठ कहत ना बानी तनिको, मौका एगो देहुना ।।1।।

नित नवीन मन भावन व्यंजन परससब कंचन थारी ।

स्वाद भूख बढ़ि जाई सुन, सारी सरहज की गारी ।।

बार-बार हम करब चिरौरी, औरी कुछ ही लेहू ना ।।2।।

कमला विमला दूधमती में झिझरी खूब खेलाईब ।

सावन में कजरी गा गा के झूला रोज झुलाईब ।।

पवन देव से करब निहोरा हउले- हउले बहु ना ।।3।।

हमारे निहोरा रघुनंदन से माने या ना माने ।

पर ससुरारी के नाते परताप को आपन जाने ।।

या मिथिले में रहि जाइयो, या संग अपने रख लेहु ना ।।4।।

ए पहुना ए ही मिथिले में रहु ना

जउने सुख बा विदेह नगर में, देह नगर में कहुं ना

ए पहुना ए ही मिथिले में रहु ना...

 

साधु से क्या मांगना यह नीम्न पैतो में बताया गया हैं, जो दशरथ राजा विश्वामित्रसे मांगते हैं।

 

मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥

नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥

 

अंत में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। (वे बोले-) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ॥3॥

 

करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥

अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥4॥

 

हे मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पड़े, (प्रेमविह्वल हो जाने के कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥

साधु असंग होता हैं। सब छोडकर विश्वामित्र नीकल जाते हैं।

साधु का वर्णन भगवान राम भी नहीं कर शकते हैं।

तुलसीदासजी लिखते हैं कि …..

 

कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।

अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥

सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।

ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥

 

'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान्‌ के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।

 

प्रभु जानी कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी।।

ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।1।।

 

[शिवजी कहते हैं-] हे भवानी ! प्रभुने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गयी हैं। [इसलिये] वे पहले उन्हीं के महल को गये और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्रीहरिने अपने महलको गमन किया।।1।।

तपस्या करने के बाद हि राम राज्य आता हैं।

 

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।

सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।3।।

 

[सबसे] पहले मुनि वसिष्ठजीने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को [तिलक करनेकी] आज्ञा दी। पुत्रको राजसिंहासनपर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी।।3।।

 

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहिं जनं।।

अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।

 

हे राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी ! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।

गुरु कृपा हो जाती हैं तब मानस की चोपाई सभी राग पैकी के किसी भी राग में गाई जा शकती हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

राम का स्मरण सत्य हैं, राम को गाना प्रेम हैं और राम कथा श्रवण राम की करुणा हैं। सत्य एक वचन हैं, प्रेम द्विवचन और करुणा बहु वचन हैं।

 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥

 

(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्र जी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मंदबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शांति प्राप्त कर ली, उन श्री रामजी के समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं॥3॥

 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

 

राम चरित मानस स्वयं देव प्रयाग हैं, राम देव हैं, साधु समाज का प्रयाग हैं, राम चरित मानस जंगम प्रयागराज हैं, उस में विश्वास का वट हैं, उस में वेणी माधव दोनो हैं। राम कथा प्रसन्नता का रस देती हैं।

अश्रु और आश्रय कभी भी छूटना नहीं चाहिये।