Translate

Search This Blog

Saturday, August 27, 2022

માનસ સદા શિવ - 902

 

રામ કથા – 902

માનસ સદા શિવ

Cootg, Karnatak

શનિવાર, તારીખ ૨0/0૮/૨0૨૨ થી રવિવાર, તારીખ ૨૮/0૮/૨0૨૨

મુખ્ય ચોપાઈ

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा।

चाहिअ सदा सिवहि भरतारा।।

हमरें जान सदा सिव जोगी

अज अनवद्य अकाम अभोगी

 

 

1

Saturday, 20/08/2022

 

 

 

हमरें जान सदासिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥

जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥2

 

किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है॥2

चोपाईयां स्वयं गंगधार हैं, भगवान शिवजी चोपाई के अभिढेक से जलाभिषेक से भी ज्यादा प्रसन्न होते हैं।

मानस की चोपाई से अपना मन शुद्ध होता हैं।

मन शुद्ध करनेके लिये प्रसन्न होकर परिवार में परस्पर विश्वास होना चाहिये – परिवार का अन्य सदस्य अगर विश्वास न करे तो भी हमें अपना परस्पर विश्वास करना चाहिये, भक्ति के लिये विश्वास जरुरी हैं, विश्वास के बाद परस्पर विचार विनिमय भी होना चाहिये और उसके बाद परस्पर वैराग्य – एक दूसरे के लिये अपना कुछ छोडने के लिये वैराग्य भी होना चाहिये। यह वैराग्य संसार छोडने का नहीं हैं।

दूसरे के अहंकार का स्वागत करो और स्वीकार कर लो, उसके साथ बहस न करो।

मन स्थिर करना मुश्किल हैं, लेकिन मन शुद्ध करना आसान हैं।

 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

 

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

हनुमानजी के अनेक मंदिर हैं लेकिन भरत का एक भी मंदिर नहीं हैं। रुषिकेशमें भरत का एक मंदिर हैं।

भरत प्रेम दे शकता हैं जिससे राम प्राप्ति हो शकती हैं।

2

Sunday, 21/08/2022

 

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।15.7।।

 

।।15.7।।इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृतिमें स्थित मन और पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)।

 

।।15.7।। इस जीव लोक में मेरा ही एक सनातन अंश जीव बना है। वह प्रकृति में स्थित हुआ (देहत्याग के समय) पाँचो इन्द्रियों तथा मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात् उन्हें एकत्रित कर लेता है।।

 

सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।

 

हे तात ! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिये। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।

 

शिव का अर्थ कल्याण, शुभ, सुखी करना, कायम सदभाव बना रखना हैं।

शिव का अर्थ कल्याण हैं और मंगल हैं।

 

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।

कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥

 

षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।

 

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः ।

चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः ।।

अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं ।

तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ।।२४।।

 

(हे भोलेनाथ !!! आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत - प्रेत आपके मित्र हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी ! उन भक्तों जो आपका स्मरण करते है, आप सदैव शुभ और मंगल करते है।)

शिव विश्वास का विग्रह हैं, हमें उस से थोडा सा विश्वास मिल जाय ऐसी कामना करनी चाहिये।

वैराग्य संवेदनशील होना चाहिये।

सन्यास का अर्थ सब को जोडना हैं, सब को छोडना नहीं हैं।

हमें शिवालय जाकर थोडा विश्वास, थोडी श्रद्धा, पुरुषार्थ – कर्मठ बनना, विवेक और चतुश्पाद धर्म की माग करनी चाहिये।

कुदरत के नजारे में ईश्वर का दर्शन करो।

 

प्रेम और भक्ति में वाद विवाद नहीं होना चाहिये।

 

ॐ स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्ताम्

न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः ।

गोब्राह्मणेभ्यश्शुभमस्तु नित्यम्

लोकास्समस्तास्सुखिनो भवन्तु ।।

 

May there be prosperity to the subjects, the rulers protecting the world in a lawful manner; may the cows and brahmanas have auspiciousness eternally, may all the people be prosperous, may the rains shower in the proper season, may the earth be prosperous with the abundant crops; may the country be free from distress, may the brahmanas be fearless.


 3

Monday, 22/08/2022

 

 

भगवान भोलेनाथ की इस स्त्रुति में लिङ्गाष्टकम् (Lingashtakam) आठ श्लोक हे इस अष्टपदी का भक्ति भाव से श्रवण करने पर मनुष्य के सारे कष्ट क्षण भर में नष्ट हो जाते हे

 

शिव लिंगाष्टकम स्तोत्रम् |

 

ब्रह्ममुरारि सुरार्चित लिंगं

निर्मलभासित शोभित लिंगम् ।

जन्मज दुःख विनाशक लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

उस सदाशिवलिंगको मैं प्रणाम करता हूं जो शाश्वत शिव है, जिनकी अर्चना स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवता करते हैं, जो निर्मल, सुशोभित है और जो जन्मके दुखोंका विनाश करती है |

 

देवमुनि प्रवरार्चित लिंगं

कामदहन करुणाकर लिंगम् ।

रावण दर्प विनाशन लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

 

उस शाश्वत एवं करुणाकर सदाशिवलिंगको मैं प्रणाम करता हूं जिनकी अर्चना देवता, ऋषि-मुनि करते हैं, जिन्होंने कामदेवका दहन किया एवं जिन्होंने रावणके अहंकारको नष्ट किया |

 

 

सर्व सुगंध सुलेपित लिंगं

बुद्धि विवर्धन कारण लिंगम् ।

सिद्ध सुरासुर वंदित लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

उन सदाशिवलिंगको प्रणाम करता हूं जो सदैव सुगंधमय, सुलेपित, बुधिवर्धक, सिद्धों, सुरों, असुरोंद्वारा पूजित है|

 

कनक महामणि भूषित लिंगं

फणिपति वेष्टित शोभित लिंगम् ।

दक्ष सुयज्ञ निनाशन लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

उस सदशिवलिंगको प्रणाम करता हूं जो स्वर्ण तथा महामणिसे भूषित है, सर्पराजद्वारा शोभित होनेके कारण दैदीप्यमान है, दक्षयज्ञको विनाश करनेवाला है |

 

कुंकुम चंदन लेपित लिंगं

पंकज हार सुशोभित लिंगम् ।

संचित पाप विनाशन लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

उस सदशिवलिंगको प्रणाम करता हूं जो कुकुंम, चंदनके लेपसे सुशोभित, कमलोंके हारसे सुसज्जित, संचित पापोंके विनाशक है |

 

देवगणार्चित सेवित लिंगं

भावै-र्भक्तिभिरेव च लिंगम् ।

दिनकर कोटि प्रभाकर लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

 

उस सदशिवलिंगको प्रणाम करता हूं जो देवगणोंद्वारा अर्चित, सेवित है, जिसे भाव और भक्तिसे प्राप्त किया जा सकता है एवं जो करोडों सूर्यके सामान प्रकाशवान है |

 

 

अष्टदलोपरिवेष्टित लिंगं

सर्वसमुद्भव कारण लिंगम् ।

अष्टदरिद्र विनाशन लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

उस सदशिवलिंगको प्रणाम करता हूं जो अष्टदलसे परिवेष्टित, समस्त जगतकी उत्पतिका कारण, अष्ट दरिद्रका नाशक है |

 

सुरगुरु सुरवर पूजित लिंगं

सुरवन पुष्प सदार्चित लिंगम् ।

परात्परं परमात्मक लिंगं

तत्-प्रणमामि सदाशिव लिंगम् ॥

 

उस सदशिवलिंगको प्रणाम करता हूं ओ देवताओंके गुरुद्वारा, श्रेष्ठ देवताओंद्वारा एवं देवों के वनके पुष्पद्वारा पूजित है, जो परात्पर, परमात्म स्वरूपी लिंग है |

 

लिंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेश्शिव सन्निधौ ।

शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥

 

जो इस पवित्र लिंगाष्टकको पढता है शिवके सान्निध्यको, शिव लोकको प्राप्त कर शिवके साथ प्रसन्नताको प्राप्त होता है |

 

 

श्री शिव की स्तुति में एक स्तोत्रम् लिंगाष्टकम है, शिव जिन्हें महादेव , शंकर आदि भी कहा जाता है। लिंग शिव का प्रतीक है।

लिंगाष्टकम स्तोत्रम भगवान शिव की प्रार्थना है। लिंग सृष्टि का सार्वभौमिक प्रतीक और संसार के हर एक चीज का स्रोत है।

 

श्री कृष्ण भजन – कृष्ण की महिमा कही ना जाए |...

शिव लिंग से पांचो तत्व पेदा होते हैं।

शिवजी सकल गुण निधान हैं, हनुमानजी भी शंकरावतार होने के कारण वह भी सकल गुण निधान हैं।

शिव योगी हैं।

आसन

 

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥

बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥

 

दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥

 

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥

जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥

 

शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥

सती जो विमुख थी उसे सन्मुख आसन दीया।

दूसरो को वश करनेके लिये हमें दूसरों के वश में हो जाना चाहिये।

किसी को वश करना हिंसा हैं।

 

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥

कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥

 

अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥

भगवान शिव का आसन सहज हैं।

 

नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।

 

हे गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके नचाये] नाचते हैं। ब्रह्माणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं।।1।।

 

सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥

जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥

 

 रावण सूना मौका देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥

 

सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥

इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥

 

 वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई  (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥

 

नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥

कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥

 

 रावण ने अनेकों प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6।

 

तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥

कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥

 

 तब रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होंने गहरा धीरज धरकर कहा- 'अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गए'॥7॥

 

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥

सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥

 

 जैसे सिंह की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वंदना करके सुख माना॥8॥

आदि और अंत देखकर प्रणाम करना चाहिये।

रावण का आदि और अंत क्रोधी हैं।

परम प्रेम हो जाता हैं और यह कोई कर्म न होने के नाते उसका कोई फल नहीं हैं।

4

Tuesday, 23/08/2022

 

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

 

योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥67॥

महापुरुष की चूक जग मंगल के लिये होती हैं।

 

तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥

 

उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥

 

नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥

भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥

 

हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥

गुरु कभी नाराज नहीं होता हैं। फिर भी हमें सावधान होना चाहिये।
हमें गुरु के १० अपराध से बचना चाहिये।

 

कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥

 

मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥

 

सो  सुखु  करमु  धरमु  जरि  जाऊ।  जहँ  न  राम  पद  पंकज  भाऊ॥

जोगु  कुजोगु  ग्यानु  अग्यानू।  जहँ  नहिं  राम  प्रेम  परधानू॥1॥

 

जहाँ  श्री  राम  के  चरण  कमलों  में  प्रेम  नहीं  है,  वह  सुख,  कर्म  और  धर्म  जल  जाए,  जिसमें  श्री  राम  प्रेम  की  प्रधानता  नहीं  है,  वह  योग  कुयोग  है  और  वह  ज्ञान  अज्ञान  है॥1॥

अपने गुरु से अद्वैत हो जाना अपराध हैं। गुरु शिष्य में द्वैत होना चाहिये।

गुरु के पास बैठकर दूसरे की नींदा, द्वेष, ईर्षा करना गुरु अपराध हैं।

गुरु को मनुष्य मानना गुरु अपराध हैं, गुरु नरहरि हैं।

गुरु का मंत्र छोड देना गुरु अपराध हैं।

गुरु का दिया हुआ ग्रंथ छोड देना गुरु अपराध हैं।

गुरु की गादी के लिये शिष्य बनना गुरु अपराध हैं – गुरु का वारसदार बनने के लिये शिष्य बनना अपराध हैं।

अगर गुरु हमारी ईच्छा अनुसार न करे तो गुरु के साथ स्पर्धा शरु करना अपराध हैं।

गुरु की पादुका रखकर उसके वचन को न मानना गुरु अपराध हैं।

गुरु को साध्य बनाने के बजाय साधन बनाना गुरु अपराध हैं।

१०

गुरु अमुल्य होता हैं, उसे चादी से तोलना अपराध हैं, गुरु को उस के ज्ञान से तोलो।

११

गुरु को झुठ बोलकर कपट बयान देना गुरु अपराध हैं। सती ऐसा अपराध करती हैं।

 

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहिं जनं।।

अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।

 

हे राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी ! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।

गुरु के द्वारा शिष्य का भी १० अपराध हैं।

कोई भी महापुरुष के बारे में संदेह होना मानव स्वभाव हैं।

महापुरुष के साथ रहने में बहुत सावधानी रखनी पडती हैं।

हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई।।

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।4।।

 

जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकोंको बुलाकर वहीं धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे।।4।।

शिष्य का बिना संताप दूर किये बिना शॉषण करना शिष्य अपराध हैं।

धनवान शिष्य और गरीब शिष्य मे समानता न रखना धिष्य अपराध हाइ

शिष्य और उसके परिवार का शोश्जण करना अपराध हैं।

४ बिना मंत्र शुद्ध किया हुआ मंत्र शिष्य को देना अपराध हैं, अशुद्ध और भ्रमित मंत्र देना

शिष्य संख्या बढानेके लिये भय दिखाना

अपनी प्रसंशा बढानेके लिये शिष्यो को सन्मानित करना अपराध हैं।

बिनापात्रता देखकर ज्ञान उपदेश देना अपराध हैं।

अगर शिष्य गुरु अपराध कर दे तो उसका गुरु द्वारा बदला लेना शिष्य अपराध हैं।

शिष्य को ब्रह्म देने के बजाय भ्रमित करना अपराध हैं।

१०

शिष्यको चम्त्कार दिखाकर भ्रमित करना अपराध हैं।

 

शिष्य अपराध करे तो वह क्षमाके पात्र हैं लेकिन अगर गुरु अपराध करे वह क्षम्य नहीं हैं।

 

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥

पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥

 

हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है॥1॥

 

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥

 

जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥2॥

यह प्रसंग में लक्ष्मण कुछ नहीं बोलते हैं।

संशय ग्रस्त के साथ विश्वास चल नहीं शकता, सती के परीक्षा समय भगवान शिव सती के साथ नहीं जाते हैं।

कथा श्रवण की पात्रता पाने के लिये अनेक वर्ष लग जाते हैं, अगर परम कृपा करे तो हि कथा श्रवण की पात्रता आती हैं।

ईश्वर नियती को बदल शकते हैं लेकिन कानुन का पालन करता हैं।

संचित कर्म दूसरे जन्म में प्रारब्ध बनकर आते हैं और उसका फल भोगना पडता हैं।

माला के ६ ऐश्वर्य हैं।

                 माला बनाना अमुल्य हैं, ऐश्वर्य हैं।

                 माला अपने साथ रखना ऐश्वर्य हैं।

                 माला पहनना ऐश्वर्य हैं।

                 बिना मंत्र बोले माला फेरना ऐश्वर्य हैं।

                 माला के साथ गुरु मंत्र जपना ऐश्वर्य हैं।

                 किसी बुद्ध पुरुष की माला का दर्शन करना ऐश्वर्य हैं।

 

5

Wednesday, 24/08/2022

प्रेम एक एन्जिन हैं उसे पकड लेनेसे सब डिब्बे उसके पीछे आ जायेगे।
प्रेम एक ऐसा गुलाब हैं जो सदा खिला हुआ हि रहता हैं।

प्रेम समग्र जीवन का मार्गदर्शक हैं। प्रेम महामंत्र हैं, महा शास्त्र हैं। प्रेम सदा काल अजर अमर हैं।

दिलवाले हि भक्ति कर शकता हैं।

पति को परमेश्वर कहा गया हैं लेकिन गोपी पति में परमेश्वर नहीं देखती हैं लेकिन परमेश्वर में पति देखती हैं।

कृष्ण अभी भी सारथी बनने के लिये तैयार हैं, हमें पार्थ बनने की आवश्यकता हैं।

महादेव, मीरा, सोक्रेटिस, दयानंद सरस्वती, बुद्ध, ऑशो  ने झहर पिया/पिलाया गया हैं।

काम क्रिडा की सीमा हैं लेकिन राम क्रिडा अनंत हैं। शिवजी राम क्रिडा में मग्न हैं।

अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्‌।

 

उन्होंने जाना कि अन्न ही 'ब्रह्म ' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि अन्न से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न होकर ये अन्न के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा अन्न में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं।

 

प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात्‌।

 

उन्होंने जाना कि 'प्राण' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि प्राणी से ही इन समस्त प्राणियों का जन्म होता है तथा उत्पन्न होकर ये प्राणों के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा प्राणों में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं।

 

विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्‌।

 

उन्होंने जाना कि 'विज्ञान' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि केवल विज्ञान से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं तथा उत्पन्न होकर 'विज्ञान ' के द्वारा ही ये जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करके 'विज्ञान' में ही ये समाविष्ट हो जाते हैं।

 

 

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।

 

उन्होंने जाना कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि केवल 'आनन्द' से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं तथा उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही ये जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करके 'आनन्द' में ही ये समाविष्ट हो जाते है।

 

 

6

Thursday, 25/08/2022

 

 शिव योगी हैं।

यम और नियम

यम ५ हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अप्रिग्रह हैं।

साधना करने में धैर्य रखना चाहिये।

 

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥

 

लोगो के अभिप्राय पर भजन नहीं हो शकता हैं।

सब का अभिप्राय लेने से तत्व छूट जाता हैं और बिमारी बढ जाती हैं।

अहिंसा

शिव पूर्ण तह अहिंसक हैं। लेकिन सृष्टिका विसर्जन करके नया सर्जन करुणामूर्ति शिव करते हैं जो अहिंसा हैं, विसर्जन का अर्थ विशेष सर्जन हैं, संहार भी कल्याणकारी होता हैं।

 

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।

तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥

 

 

हे प्रभु! वेदों को प्रकाशित कर तू सभी प्राणियों पर कृपा की वर्षा करता है, अपने शान्त और आनन्दमय रूप द्वारा हम सब को प्रसन्न रखने का अनुग्रह करता है जिससे भय और पाप दोनों नष्ट हो जाते हैं।

 

अहिंसक व्यक्ति के समिप रहने से हमारी जन्मजात हिंसा छूट जाती हैं। ईसीलिये हमें बुद्ध पुरुष का संग पसंद हैं। शिव के पास रहनेवाले जन्मजात हिंसक पशु पक्षी भी अहिंसक बन गये हैं, मोर और साप, शेर और बेल, उंदर और साप।

सत्य

शिव सत्य सनातन हैं।

अस्तेय – चोरी न करना

शिव चोरी नहीं करते हैं लेकिन अधिकारी पात्र न मिले तब तक जरुर छुपाते हैं।

शिव परम उदार हैं और जो उदार होता हैं वह कभी भी चोरी नहीं करता हैं।

 

राम परम उदार हैं, लेकिन राम तीन कभी भी ना नहीं करते हैं।

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥

पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥

 

हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है॥1॥

 

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥

 

जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥2॥

 

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥

 

रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है॥3॥

 

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥

मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥

 

रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात्‌ जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से 'नाहीं' नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं॥4॥

दोहा :

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥

 

 यों श्री रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छबि रूप मकरंद रस को भौंरे की तरह पी रहा है॥231॥

 

उदार राम लहुलुहाण रावण के पास जाकर युद्ध विराम करने के लिये कहते हैं।

राम दाता हैं।

शिव का ब्रह्मचर्य

अपरिग्रह – संग्रह न करना

वस्त्र, वसु, शिष्य और विचार जिसमें सम्यक हैं वह अपरिग्रही हैं।

भ - जिसमें भरपुर भजन हैं, ग – जिसमें भरपुर ज्ञान हैं, व – भरपुर वैराग्य हैं, न – सब होते हुए नम्र हैं वह भगवान हैं।

५ नियम

सौच – पवित्र, आंतर बाह्य पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय, (संतोषी नर सदा शिव), ईश्वर प्ररिधान – ईश्वर परायणता, यह ५ नियम हैं।

शिव अजन्मा हैं, भवानी भी अजन्मा हैं।

माया अजा हैं।

बुद्ध पुरुष के पास बैठने से बिना जल स्नान हो जाता हैं, बाल सफेद न हुए होते बुढापे की प्रौढता,  शालीनता, खानदानी आ जाती हैं, एक प्रकार का निर्दोष नशा आता हैं, बिना चिराग रोशनी दिखाई देती हैं, हमारे सभी दोष भागने लगते हैं, दुःख का विशाद और सुख का अहंकार नहीं आता हैं। ऐसा बाण कहते हैं।

7

Friday, 26/08/2022

प्रारब्ध के साथ संस्कार की क्या भूमिका हैं?

प्रारब्ध और संस्कार की भूमिका एक्त्र नहीं किया जाना चाहिये।

प्रारब्ध भोगा जाता हैं जब कि संस्कार दिया जाता हैं।

संस्कार देश, काल और पात्र के अनुसार बदलता हैं। सब जगह एक हि संस्कार नहीं होता हैं।

प्रारब्ध तो ब्रह्म के बाप को भी भोगना पडता हैं।

संस्कार देने में माता प्रथम हैं।

बच्चो को प्रतिक्षा करना शीखाना चाहिये।

प्रारब्ध अपना होता हैं, संस्कार दूसरो से आते हैं।

दुःख हैं, दुःख के कारण हैं और दुःख का निवारण भी हैं।

सुख हैं, सुख के कारण हैं और सुख से मुक्ति भी हैं।

परमात्मा हमें सब तरहसे समर्थ ईस लिये नहीं करता हैं कि जब हमारे पास कुछ कमी आने पर हम परमात्मा को याद करते हैं और जब हम परमात्मा को याद करते हि परमात्मा हमें मिलनेके लिये – सहाय करनेके लिये आता हैं। ……… पांडुरंग दादा

यह संभवामि युगे युगे हैं।

प्रेम के १६ संस्कार ………

प्रेम प्रकाश हैं, प्रेम प्रसाद हैं, प्रेम प्रगाढ हैं, प्रेम प्रभाव – प्रताप हैं, प्रेम प्रणाम हैं, प्रेम चिख हैं – एक पुकार हैं, प्रेम के कई प्रकार हैं, प्रेम प्रज्ञा हैं, प्रेम अंतर्यामी हैं, प्रेम परमात्मा हैं, प्रेम एक प्रवाह हैं, प्रेम प्रयास हैं, प्रेम संकीर्ण नहीं हैं, प्रेम आदमी को प्रशांत – निर्विकल्प करता हैं।

बुद्ध पुरुष की आंख प्रेम का पर्याय हैं।    

 

 

कुल  कपाट  कर  कुसल  करम  के।  बिमल  नयन  सेवा  सुधरम  के॥

भरत  मुदित  अवलंब  लहे  तें।  अस  सुख  जस  सिय  रामु  रहे  तें॥4॥

 

रघुकुल  (की  रक्षा)  के  लिए  दो  किवाड़  हैं।  कुशल  (श्रेष्ठ)  कर्म  करने  के  लिए  दो  हाथ  की  भाँति  (सहायक)  हैं  और  सेवा  रूपी  श्रेष्ठ  धर्म  के  सुझाने  के  लिए  निर्मल  नेत्र  हैं।  भरतजी  इस  अवलंब  के  मिल  जाने  से  परम  आनंदित  हैं।  उन्हें  ऐसा  ही  सुख  हुआ,  जैसा  श्री  सीता-रामजी  के  रहने  से  होता  है॥4॥

 

प्रेम में अगर दुःख महसुस हो तो उस प्रेम में कुछ कमी हैं।

महादेव सदा शिव हैं हम सदा जीव हैं।

राम ने सीता का त्याग कयों किया?

राम ने कहा कि मैं मेरी प्रजा के लिये पृथ्वीका, भाईओका या सीता का त्याग कर शकता हुं।

दशरथ का देहांत उनकी आयु के पहले हुई हैं, अकाल मृत्यु हैं, और राम कहते हैं के मैं बाकी की आयु दशरथ बनकर पुरी करुंगा – और जब यह स्थिति आती हैं तब राम जो दशरथ की बाकी की आयु पुर्ण करते तब बाप हैं और सीता पुत्रवधू हैं, ईसीलिये ऐसे राम और सीता एक साथ नहीं रह शकते हैं जिसके निवारण के लिये सीता का त्याग करते हैं।

अयोध्या में कुछ अनावश्यक चर्चा होती हैं उस के संस्कार सीता के गर्भस्थ बालक उपर न पडे ईसीलिये सीता अयोध्या के बाहर वन में जानेके लिये राम को कहती हैं।

वाल्मीकि विज्ञान विशारद हैं, संगीत विशारद हैं, ईसीलिये सीता वाल्मीकि के आश्रम में जाना चाहती हैं।

जब तक सीता महिला महिषि रहेगी तब तक उर्मिला, सुतकिर्ति महिला पाट महिषा नहीं बन शकेगी। और उम्रिला वगेरे को महिला पाट महिषि बनाने के लिये वन में जाती हैं।

अथर्ववेद में सदा शिव शब्द आता हैं, शिव सर्व हैं,

 

यस्यांके  च  विभाति  भूधरसुता  देवापगा  मस्तके

भाले  बालविधुर्गले  च  गरलं  यस्योरसि  व्यालराट्।

सोऽयं  भूतिविभूषणः  सुरवरः  सर्वाधिपः  सर्वदा

शर्वः  सर्वगतः  शिवः  शशिनिभः  श्री  शंकरः  पातु  माम्‌॥1॥

 

जिनकी  गोद  में  हिमाचलसुता  पार्वतीजी,  मस्तक  पर  गंगाजी,  ललाट  पर  द्वितीया  का  चन्द्रमा,  कंठ  में  हलाहल  विष  और  वक्षःस्थल  पर  सर्पराज  शेषजी  सुशोभित  हैं,  वे  भस्म  से  विभूषित,  देवताओं  में  श्रेष्ठ,  सर्वेश्वर,  संहारकर्ता  (या  भक्तों  के  पापनाशक),  सर्वव्यापक,  कल्याण  रूप,  चन्द्रमा  के  समान  शुभ्रवर्ण  श्री  शंकरजी  सदा  मेरी  रक्षा  करें॥1॥

शर्व – संहारक - भक्तों  के  पापनाशक

रुद्र –

भव –

8

Saturday, 27/08/2022

हमारी उपासनी स्थली को सार्वाजनिक नहीं करना चाहिये।

घर को हि मंदिर बनाओ। घर को मंदिर आसान नहीं हैं।

मंदिर का अर्थ जो हमारे मन को उस की ओर (मंदिर की ओर) आकर्षित करना हैं।

 

सुनहु  भरत  भावी  प्रबल  बिलखि  कहेउ  मुनिनाथ।

हानि  लाभु  जीवनु  मरनु  जसु  अपजसु  बिधि  हाथ॥171॥

 

मुनिनाथ  ने  बिलखकर  (दुःखी  होकर)  कहा-  हे  भरत!  सुनो,  भावी  (होनहार)  बड़ी  बलवान  है।  हानि-लाभ,  जीवन-मरण  और  यश-अपयश,  ये  सब  विधाता  के  हाथ  हैं॥171॥

 

तिर्थ क्षेत्र में किया गया पाप वर्जलेप समान हैं। कथा स्थल तिर्थ क्षेत्रो का समुह हैं।

कीतनी भी हानी हो जाने पर हम निराश – नासीपास नहीं होंगे यह हमारे हाथ में हैं।

लाभ विधाता के हाथ में हैं लेकिन अगर हमें कुछ लाभ हो जायेगा तो उसे हम सब को बांटेगे।

जो पराई पीड जानता हैं वह वैष्णव हैं।

जब तक आंख नहीं खुलती हैं तब तक सुरज ऊगने के बाद भी उजाला नहीं दीखाई देता हैं।

जो अपने गुरु को यह मेरा गुरु हैं ऐसा बोलने में संकोच न करे वह वैष्णव हैं।

अगर हम किसी भी क्षेत्र में सक्षम हैं तो वह क्षमता में दूसरों का भी हिस्सा हैं ऐसा माननेवाला वैष्णव हैं।

जिस के चित में किसी के प्रति स्वप्न में भी द्वेष पेदा न हो वह वैष्णव हैं।

मरण तेरे हाथ में हैं लेकिन मरने के बाद भी दूसरों की स्मृति में रहना हमारे हाथ में हैं।

जब व्यक्ति का शरीर विकृत हो जाता हैं तब वह दूसरो पर अकारण गुस्सा करता हैं।

जब व्यक्ति का मन विकृत हो जाता हैं, जब व्यक्ति का धन विकृत हो जाता हैं तब वह अकारण गुस्सा करता हैं।

गुरु हमारी आयुष्य हैं।

ईश्वर जब भय दिखाता हैं तब गुरु हमें भय मुक्त करता हैं।

गुरु संकेत करता हैं।

गुरु संकेत हमारी सोच बदल देता हैं।

 

सुमिरि  महेसहि  कहइ  निहोरी।  बिनती  सुनहु  सदासिव  मोरी॥

आसुतोष  तुम्ह  अवढर  दानी।  आरति  हरहु  दीन  जनु  जानी॥4॥

 

फिर  महादेवजी  का  स्मरण  करके  उनसे  निहोरा  करते  हुए  कहते  हैं-  हे  सदाशिव!  आप  मेरी  विनती  सुनिए।  आप  आशुतोष  (शीघ्र  प्रसन्न  होने  वाले)  और  अवढरदानी  (मुँहमाँगा  दे  डालने  वाले)  हैं।  अतः  मुझे  अपना  दीन  सेवक  जानकर  मेरे  दुःख  को  दूर  कीजिए॥4॥ 

 

तुम्ह  प्रेरक  सब  के  हृदयँ  सो  मति  रामहि  देहु।

बचनु  मोर  तजि  रहहिं  घर  परिहरि  सीलु  सनेहु॥44॥

 

आप  प्रेरक  रूप  से  सबके  हृदय  में  हैं।  आप  श्री  रामचन्द्र  को  ऐसी  बुद्धि  दीजिए,  जिससे  वे  मेरे  वचन  को  त्यागकर  और  शील-स्नेह  को  छोड़कर  घर  ही  में  रह  जाएँ॥44॥

 

9

Sunday, 28/08/2022

 

उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥1॥

 

हे पार्वती! जगत में श्री रामजी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं॥1॥

मुनि और परम साधु में फर्क हैं।

 

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहिं काजु न दूजा।।

परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक।।2।।

 

एक ब्राह्मण देवविधिसे सदा शिवजीकी पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थके ज्ञाता थे। वे शम्भुके उपासक थे, पर श्रीहरिकी निन्दा करनेवाले न थे।।2।।

मुनि परोपकार के लिये स्वार्थी हैं।

परम साधु दूसरो की रुची देखता हैं, मुनि अपनी रुची दूसरो उपर ठोपता हैं।

परम प्रेम पुरा जीवन बदल देता हैं।

बुद्ध पुरुष सदा हमारे साथ रहता हैं लेकिन ह्म उस के पास नहीं रहते हैं।

प्रेम दीक्षा देता हैं।

 

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥

उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

 

(विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥3॥

 

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥

 

अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥4॥