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Sunday, July 24, 2022

માનસ અતિથિ દેવો ભવઃ - 901

 

રામ કથા - 901

માનસ અતિથિ દેવો ભવઃ

ત્રિપુરા

શનિવાર, તારીખ ૨૩ જુલાઈ, ૨0૨૨ થી રવિવાર, તારીખ ૩૧ જુલાઈ, ૨0૨૨

મુખ્ય ચોપાઈ

बड़ें भाग बिधि बात बनाईनयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई

को जानै केहिं सुकृत सयानीनयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी


 

1

Saturday, July 23, 2022

 

 

कहहिं परसपर कोकिलबयनींएहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं

बड़ें भाग बिधि बात बनाईनयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई4॥

 

कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुंदर नेत्रों वाली! इस विवाह में बड़ा लाभ हैबड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे॥4॥

 

लेहु नयन भरि रूप निहारीप्रिय पाहुने भूप सुत चारी

को जानै केहिं सुकृत सयानीनयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी2॥

 

राजा के चारों पुत्र, इन प्यारे मेहमानों के (मनोहर) रूप को नेत्र भरकर देख लोहे सयानी! कौन जाने, किस पुण्य से विधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि किया है॥2॥

 

कोई विशेष चेतनाएं नयन के अतिथि बनती हैं।

काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥

 

भक्तों के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं॥4॥

तिथि

अतिथि

क्षिण - क्षय तिथि

वृध्या वृधि – तिथि

अर्ध तिथि

आठ चेतना – गंग, गाय,

गंग गाय गोविंद गुरु ग्रथ गुरु सुकुमारी

गंगा प्रवाहमान अतिथि हैं, प्रवाहमान देवता हैं। गंगाजल परम अतिथि हैं।

 

राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥

पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥

 

 क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचंद्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?॥3॥

गाय अतिथि हैं, गाय की सेवा आवश्यक हैं।

गाय के शरीरमें ३३ कोटी देवता हैं।

कृष्ण नाम का स्मरण आ जाय तो समजो गोविंद अतिथि बनकर आया हैं।

गुरु अतिथि निरंतर अतिथि हैं।

शिव रात्री, राम नवमी, हनुमान जयंति, गुरु पूर्णिमा और तुलसी जयंति यह पांच दिन पंच तत्व हैं, पंचामृत हैं। यह जो लगन, ग्रह, वार तिथि हैं।

गुरु की याद, सिमरन कभी भी आ जाती हैं।

ग्रंथ रोज कुछ कुछ नया देता हैं, ग्रंथ सदैव अतिथि हैं।

सुकुमारी कन्या दुर्गा हैं, अतिथि हैं।

ईन्द्रियातित महा पुरुष कायम अतिथि हैं।

वाणी का मौन, कान का मौन, आंख का मौन, मनकीगति का मौन – मनकी गति विराम हो जाय

गरीब व्यक्ति – उपेक्षित, वंचित अतिथि हैं, देवता हैं।

 

दया, गरीबी, बन्दगी, समता शील उपकार।

ईत्ने लक्षण साधु के, कहें कबीर विचार॥

 

संत कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन पुरुष में निम्न गुणों का होना आवश्यक है- सभी के लिए दया भाव, अभिमान भाव की गरीबी, इश्वर की भक्ति, सभी के लिए समानता का विचार, मन की शीतलता एवं परोपकार।

जिसके भाग्य बडे होते है उनको हि ऐसे अतिथि मिलते हैं।


गुरु के वचन में मेघधनुष की तरह अनेक रंग हैं।

 

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।

 

सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।

 

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नासाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।4।।

 

 

श्रीरघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवाके साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।।4।।

2

Sunday, 24/07/2022

जो चाहते हैं वह होता नही हैं, और जो मिलता हैं वह भाता नहीं हैं जो भाता हैं वह टिकता नहीं हैं। … स्वामि श्रणानण्दजी  जो टिकता हैं उसमें से समय के बाद उब आने लगती हैं।

अतिथि के ५ लक्षण ……..

अतिथि हमें प्रिय लगना चाहिये।

 

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।

सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल॥341॥

 

वे ही समस्त सुखों के मूल (आप) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत में जीव को सब लाभ ही लाभ है॥341॥

आंख दूसरों की परीक्षा के लिये नहीं हैं लेकिन जिसने ऐसी आंखे दे हैं उसकी प्रतिक्षा के लिये हैं।

अतिथि पूज्य होना चाहिये। जिस से हमारी आंख पुजारी बन जाय।

 

तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥

जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥3॥

 

तो सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनाएँगे। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है॥3॥

अतिथि कभी न कभी प्राप्य हो ऐसा होना चाहिये।

 

सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥

 

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥

 

 कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं॥4॥

 

अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥

 

 जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ॥2॥

सतत प्रतिक्षा हि परमात्मा हैं।

 

सेवक  सदन  स्वामि  आगमनू।  मंगल  मूल  अमंगल  दमनू॥

तदपि  उचित  जनु  बोलि  सप्रीती।  पठइअ  काज  नाथ  असि  नीती॥3॥

 

यद्यपि  सेवक  के  घर  स्वामी  का  पधारना  मंगलों  का  मूल  और  अमंगलों  का  नाश  करने  वाला  होता  है,  तथापि  हे  नाथ!  उचित  तो  यही  था  कि  प्रेमपूर्वक  दास  को  ही  कार्य  के  लिए  बुला  भेजते,  ऐसी  ही  नीति  है॥3॥ 

 

प्रभुता  तजि  प्रभु  कीन्ह  सनेहू।  भयउ  पुनीत  आजु  यहु  गेहू॥

आयसु  होइ  सो  करौं  गोसाईं।  सेवकु  लइह  स्वामि  सेवकाईं॥4॥

 

परन्तु  प्रभु  (आप)  ने  प्रभुता  छोड़कर  (स्वयं  यहाँ  पधारकर)  जो  स्नेह  किया,  इससे  आज  यह  घर  पवित्र  हो  गया!  हे  गोसाईं!  (अब)  जो  आज्ञा  हो,  मैं  वही  करूँ।  स्वामी  की  सेवा  में  ही  सेवक  का  लाभ  है॥4॥

अतिथि को आसन देकर स्वागत करना चाहिये।

षोडशोपचार अर्थात वे सोलह तरीके, जिनसे देवी-देवताओं का पूजन किया जाता है। षोडशोपचार पूजन में निम्न सोलह तरीके से विधिपूर्वक पूजन किया जाता है-

 

षोडशोपचार पूजन[1]

क्र.सं.   षोडशोपचार    व्याख्या

1.     ध्यान-आवाहन  मन्त्रों और भाव द्वारा भगवान का ध्यान किया जाता है। आवाहन का अर्थ है पास लाना। ईष्ट देवता को अपने सम्मुख या पास लाने के लिए आवाहन किया जाता है। ईष्ट देवता से निवेदन किया जाता है कि वे हमारे सामने हमारे पास आएँ। वह हमारे ईष्ट देवता की मूर्ति में वास करें तथा हमें आत्मिक बल एवं आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करें, ताकि हम उनका आदरपूर्वक सत्कार करें।

2.     आसन  ईष्ट देवता की आदर के साथ प्रार्थना करें की वे आसन पे विराजमान होवें।

3.     पाद्य  पाद्यं, अर्ध्य दोनों ही सम्मान सूचक हैं। भगवान के प्रकट होने पर उनके हाथ पावं धुलाकर आचमन कराकर स्नान कराते हैं।

4.     अर्ध्य   पाद्यं, अर्ध्य दोनों ही सम्मान सूचक हैं। भगवान के प्रकट होने पर उनके हाथ पावं धुलाकर आचमन कराकर स्नान कराते हैं।

5.     आचमन आचमन यानी मन, कर्म और वचन से शुद्धि। आचमन का अर्थ है अंजलि में जल लेकर पीना, यह शुद्धि के लिए किया जाता है। आचमन तीन बार किया जाता है। इससे मन की शुद्धि होती है।

6.     स्नान  ईष्ट देवता, ईश्वर को शुद्ध जल से स्नान कराया जाता है। एक तरह से यह ईश्वर का स्वागत सत्कार होता है। जल से स्नान के उपरांत भगवान को पंचामृत स्नान कराया जाता है।

7.     वस्त्र   ईश्वर को स्नान के बाद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, ऐसा भाव रखा जाता है कि हम ईश्वर को अपने हाथों से वस्त्र अर्पण कर रहे हैं या पहना रहे हैं, यह ईश्वर की सेवा है।

8.     यज्ञोपवीत      यज्ञोपवीत का अर्थ जनेऊ होता है। यह भगवान को समर्पित किया जाता है। यह देवी को अर्पण नहीं किया जाता। यह सिर्फ़ देवताओं को ही अर्पण किया जाता है।

9.     गंधाक्षत अक्षत (अखंडित चावल), रोली, हल्दी, चन्दन, अबीर, गुलाल।

10.    पुष्प   फूल माला (जिस ईश्वर का पूजन हो रहा है, उसके पसंद के फूल और उसकी माला)।

11.    धूप    धूपबत्ती

12.    दीप    दीपक (घी का)

13.    नैवेद्य  भगवान को मिठाई का भोग लगाया जाता है। इसको ही नैवेद्य कहते हैं।

14.    ताम्बूल, दक्षिणा, जल आरती   तांबुल का मतलब पान है। यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। ताम्बूल के साथ में पुंगी फल (सुपारी), लौंग और इलायची भी डाली जाती है। दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। भगवान भाव के भूखे हैं। अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है। द्रव्य के रूप में रुपए, स्वर्ण, चांदी कुछ की अर्पित किया जा सकता है। आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।

15.    मंत्र पुष्पांजलि  मंत्र पुष्पांजली मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।

16.    प्रदक्षिणा-नमस्कार, स्तुति      प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा। आरती के उपरांत भगवन की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा हमेशा घड़ी की सूई के चलने की दिशा में करनी चाहिए। स्तुति में क्षमा प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।

अतिथि पवित्र होना चाहिये, पवित्रको हम देव कहते हैं।

अतिथि परम करुणा लेकर आना चाहिये।
पहले के जमाने में अतिथि पैदल चलकर आते थे।

गंगा सदा पदयात्रा करती हैं।

गाय भी पगयात्रा करती हैं।

गोविंद ११ साल वृंदावन में बिना पदत्राण – पेदल चले - रमण किया हैं।
धर्म जगत में जब स्पर्धा होती हैं तब धर्म को गल्नि होती हैं।

गुरुजन पदल चलते थे।

ग्रंथ

गरीब

सुकुमारी

मानस भी अतिथि हैं।

3

Monday, 7/25/2022

मानस के बहुत पात्र अतिथि की तरह प्रयाण करते हैं।

हमारी आंखोमें प्रवेश करनेके लिये अनेक अतिथि कतारमें खडे हैं ईसिलिये हमें सावधान रहना चाहिये।

काम सदा प्रवेश करनेके लिये तत्पर रहता हैं।

कृपा बिना बांटे फलित नहीं होती हैं, कृपा क्रिपण नहीं हो शकती हैं।

शंकर डमरु – वाद्य और त्रिशुल – शास्त्र एक साथ रखते हैं, समय अनुसार उपयोग करनेके लिये।

लोभ भी प्रवेश करने के लिये तैयार हैं, क्रोध भी ऐसा करनेके लिये तत्पर हैं।

आदर्श शास्वत नहीं हैं। समयानुसार आदर्श में परिवर्तन आता रहता हैं।

गुरु और ग्रंथ की कृपा एक साथ हो जाय तब वैकुंठ मुठ्ठीमें होता हैं।

 

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।

क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥38 ख॥

 

 लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बल है, श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं॥38 (ख)॥

दान, भोग और सर्वनाश यह तीन धनकी गति हैं।

17 वा शॄंगार सादगी हैं जिसके आगे और श्रींगार मंद हो जाते हैं।

काम, क्रोध और लोभ का प्रार्थनामय जीवन द्वारा नियंत्रित किया जा शकते हैं।

मुक्ति और बंधन का द्वार कथा बदाती हैं।

 

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

 

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।


कागजके कपडे पहननेवाले एक हि बारीश में नग्न हो जाते हैं।

संतोष से हि काम, क्रोध और लोभ तीनों से बचा जा शकता हैं।

 

बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।।

राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा।।1।।

 

सन्तोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता। और श्रीराम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं ? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकते हैं ?।।1।।

 

उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥

सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥

 

अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥2॥

 

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥

 

 ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥

प्रेम मार्ग में आसु अतिथि हैं।

पुरुष, महापुरुष, विश्वपुरुष, परम पुरुष, बुद्ध पुरुष …..

पुरुष – मनुष्य – स्त्री नर दोनो - अतिथि बनकर आते हैं तो उसमें सकामता होगी हि।

कथाकथित महापुरुष अतिथि बनकर आये तो उसकी योग्यताके अनुसार स्वागत करना चाहिये।

विश्वरुप को पचाना मुस्किल हैं।

बुद्ध पुरुष अतिथि बनकर आये तो अपने बापदादा के पून्य समजो, आंखो में बिझादो।

 

बड़े भाग पाइब सतसंगा।

भ - भक्ति, ग – ज्ञान, वा – वैराग्य, न – नम्रता, यह जिसमें हैं वह भगवान हैं।

 

4

Tuesday, 25/07/2022

जन्म लेना और प्रगट होना अलग हैं।

जो प्रगट होता है उसमें कोई कामना, वासना नहीं होती हैं, शुद्ध तत्व प्रगट होता हैं।

अहल्या पाषाण से जब प्रगट होती हैं उसमें कोई राग नहीं हैं, यहां अहल्या जन्मती नहीं हैं लेकिन प्रगट होती हैं।

बलं वाव विज्ञानाद्भूयोऽपि ह शतं विज्ञानवतामेको बलवानाकम्पयते स यदा बली भवत्यथोत्थाता भवत्युत्तिष्ठन्परिचरिता भवति परिचरन्नुपसत्ता भवत्युपसीदन्द्रष्टा भवति श्रोता भवति मन्ता भवति बोद्धा भवति कर्ता भवति विज्ञाता भवति बलेन वै पृथिवी तिष्ठति बलेनान्तरिक्षं बलेन द्यौर्बलेन पर्वता बलेन देवमनुष्या बलेन पशवश्च वयांसि च तृणवनस्पतयः श्वापदान्याकीटपतङ्गपिपीलकं बलेन लोकस्तिष्ठति बलमुपास्स्वेति ॥ ७.८.१ ॥

 

 

Strength is certainly superior to understanding. One strong person can make even a hundred people of understanding shake with fear. If a person is strong, he will be enthusiastic and up and about. He will then start serving his teacher, and while serving his teacher he will be close to him. While sitting close to the teacher, he Will watch him and listen to what he says. Then he will think it over and try to understand. He will then act on it, and finally he will grasp the inner meaning. Strength supports the earth. It also supports the interspace, heaven, the mountains, gods and human beings, cattle, birds, creepers, and trees. It supports animals of prey as well as worms, fleas, and ants. It supports the whole world. Worship strength.

 

Word-for-word explanation:

Balanm vāva vijñānāt bhūya, strength is superior to understanding; eka balavān, one strong person; api ha śatam vijñānavatāin ākampayate, can make even a hundred persons of understanding shake [with fear]; yadā sa balī bhavati, when a person is strong [he is full of enthusiasm]; atha utthātā bhavati, he is then up and about; uttiṣṭhan, being up; paricaritā bhavati, he looks after [his teacher]; paricaran, attending to the needs [of his teacher]; upasattā bhavati, he sits near [the teacher]; upasīdan, sitting near him; draṣṭā bhavati, he watches [what the teacher does]; śrotā bhavati, he listens [to what the. teacher says]; mantā bhavati, [and] thinks it over; boddhā bhavati, he tries to understand the meaning; kartā bhavati, he does what he is supposed to do; vijñātā bhavati, he grasps the meaning [of what the teacher had said]; balena vai pthivī tiṣṭhati, through power the whole world is sustained; balena antarikam, through power, the interspace [is sustained]; balena dyau, through power, heaven; balena parvatāḥ, through strength, the mountains; balena deva-manuyāḥ, through strength, gods and human beings; balena paśava ca, through strength, cattle; vayāṃsi ca tṛṇa-vanaspataya, and birds and creepers and big trees; śvāpadāni, animals of prey; ākīṭa-pataga-pipīlikam, worms, fleas, and ants; balena loka tiṣṭhati, through strength the whole world is sustained; balam upāssva iti, worship strength.

 

Commentary:

What is higher than understanding? Strength. You might remember that startling remark Swami Vivekananda made in the course of a lecture: ‘You will reach heaven quicker by playing football than by reading the Gita.’ Why do we play football? To be strong, to have strong muscles and a healthy body. How will you understand what Śrī Kṛṣṇa is saying unless you have a strong body and nerves? If you are weak, you can never grasp the real meaning of the Gītā. As the Muṇḍaka Upaniad (III.ii.4) says, ‘Nāyamātmā balahīnena labhya—This Self cannot be known by the weak.’

 

This, of course, does not mean just physical strength. Intellectual strength is also necessary—in fact, strength at all levels. Everyone follows a strong person. Gandhi was very strong-minded. If he made up his mind to do something, nothing on earth could make him change—even if he had to do it alone. He meant what he said, and that is why he commanded so much respect. It is very important to mean what you say and say what you mean. Weak people cannot do that.

 

Sanatkumāra says that in the presence of a strong man, a hundred men of understanding tremble. If you are strong you will be enterprising, but weak people are always vacillating. They never know their minds. A strong person will start acting immediately. He is never idle. If a person wants to gain anything materially, he has to work hard. How often does someone gain something by a fluke? And this is even more important if one is seeking the Truth. Lots of us say, ‘Oh, when will I realize the Self?’ But are we prepared to work hard to do it? In ancient days if people wanted to learn the Vedas they would have to go to a teacher and live with him. Besides attending to their studies, the students would serve the teacher. They would have many duties to perform. It was a difficult life.

 

There was a devotee who used to come with his classmates to Belur Math when Swami Brahmananda was there. He noticed that Swami Brahmananda would sometimes ask one of his disciples to bring him a glass of water, or do some other little service. This devotee always hoped that some day Swami Brahmananda would ask him to do something. Finally one day the postman came with a parcel for Swami Brahmananda, who wanted someone to unpack it for him. As if in answer to this devotee’s prayers, Swami Brahmananda turned to him and said: ‘Would you do me this favour? Take this pared, unpack it, and bring me the contents. But look, be sure you don’t tear the paper or cut the ropes with which it is tied.’ So, with great care, the devotee did as he was asked.

 

Sri Ramakrishna was also like this—punctilious. If you are a seeker of Truth, you have to be correct in every detail. You may think that attaining Self-knowledge is only a matter of renunciation and practice of meditation and so on. But how can you meditate if your mind is not attentive to every detail?

 

Through service the teacher watches the student. He sees whether the student is careless or absent-minded or lazy. When you serve the teacher you become intimate, and if you are intimate, he will gladly share his knowledge with you. A good teacher is always looking for a good student, and he is happy when he finds a student who is attentive, humble, keen to learn, and who loves him.

 

Swami Nirvanananda was considered the best of Swami

 

Brahmananda’s attendants. Swami Brahmananda was always surrounded by young people who loved him and wanted to serve him. But none could surpass Swami Nirvanananda because he would not wait for Swami Brahmananda to tell him what he needed. Swami Nirvanananda would anticipate his needs beforehand. Whether it was a cup of tea, a glass of water, or something to eat, it would be there before Swami Brahmananda would ask. Most of the time Swami Brahmananda would be on a high spiritual plane, forgetful of his physical needs. A good attendant had to know what he needed beforehand and provide it.

 

Religion is not just something intellectual. It is a transformation of the whole personality. The teacher is the mould, and you try to form yourself according to that mould. How? First you hear what the teacher says, and then you reason: ‘Why did he say that? What did he mean by that?’ Then you watch what he does. Very soon the truth of what the teacher says reveals itself to you. You realize what he is saying, and then you act accordingly.

 

This earth is an example of what strength can do. The earth sustains everything through its own strength. In fact, everything in nature is sustained by its own inherent strength. It is not strength borrowed from something else. Similarly, we must support ourselves by our own strength.

 

So Sanatkumāra says first you rise. That is to say, once you have decided to attain Self-knowledge, don’t be idle. Begin immediately, As Swami Vivekananda

जो अतिथि आत्म बल और बुद्धि बल से सक्षम हो उसका स्वागत करना चाहिये।

प्रज्ञावान और आत्मबल वाले अतिथि का ऊठकर स्वगात करना चाहिये। ऐसा अतिथि अगर स्वप्न में भी आ जाय तो उत्सव मनाना चाहिये। उसके बाद विवेकपूर्ण रीत से उस अतिथि का परिचय पाना चाहिये। परिचय प्राप्त हो जाय तो उस के पास बैठ कर उस का प्यारसे दर्शन करना और वह जो बोले उसे श्रोता बनकर मनन करना और जिस से से हमारे में बुद्धता आने लगेली, और उस का अनुभव करना कि हम सहि हैं।

संशय, भ्रम, मोह ऐसे अतिथि जो आने से जीवन बिगड जाता हैं, (मानवी मन मोह का केन्द्र हैं,) पार्वती, भरद्वाज और गरुड के संशय और मोह होता हैं। शंका पडने से जीवन बिगड जाता हैं।

साधु चलता फिरता सदग्रंथ हैं।

साधु चलता सरल ग्रंथ हैं।

संशय, मोह और भ्रम से बचनेके लिये एक मात्र उपाय हरि कथा हैं।

सतसंग बुरे लोगो का स्वभाव सुधार शकता हैं।

 

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।

निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुथख द्रवहिं संत सुपुनीता।।4।।

 

संतोंका हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियोंने कहा है; परंतु उन्होंने [असली] बात कहना नहीं जाना; क्योंकि मक्खन तो अपनेको ताप मिलनेसे पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरोंके दुःखसे पिघल जाते हैं।।4।।

 

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥

 

सती

गरुड

 

देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी।।

सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना।।1।।

 

बिल्कुल ही लौकिक मनुष्योंका-सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में सन्देह हो गया। मैं अब उस भ्रम (सन्देह) को अपने लिये हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझपर यह बड़ा अनुग्रह किया।।1।। 


5

Wednesday, 27/07/2022

भवानी शिवजीको राम कथा सुनाने के लिये अज्ञान भूमिका से प्रश्न करती हैं।

भरद्वाज मूढता की भूमिका से प्रश्न पूछते हैं।

गरुड अहंकार की भूमिका से प्रश्न करते हैं, गरुड को गरुड पक्षीराज की अहंकार से प्रश्न करता हैं।

तुलसीदासजी भूमिका अपने मन को बोध प्राप्त हो यह हैं।

वक्ता की क्षमता जानने के लिये प्रश्न करना मूर्खता हैं।

वक्ता से पाया जाना चाहिये, वक्ता को नापना नहीं चाहिये।

 

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

 

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

किताब शिक्षा देती हैं, शिक्षक हैं, शास्त्र आचार्य हैं, सदग्रंथ सदगुरु हैं, किताब शिक्षा देती हैं, शास्त्र दीक्षा देता हैं, सदग्रंथ प्रेम की भीक्षा देता हैं।

अपने अश्रु और बुद्ध पुरुष का आश्रय को बचाकर रखना। यह प्रेमीओ की संपदा हैं।

 

कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥

 

मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥

 

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥

बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥2॥

 

अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिवजी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई॥2॥

 

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥4॥

 

और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥4॥

चित शुद्धि के लिये पूजा पाठ जरुरी हैं।

काष्ट मौन, रुष्ठ मौन,

नींदा जीभ से होती हैं, द्वेष मन से होता हैं, ईर्षा बुद्धि से होती हैं।

नींदा, द्वेष और ईर्षा की कोई आवश्यकता नहीं हैं। यह अतिथि न बन जाय। रुप, चरित्र और कथा यह ऐसे अतिथि को दूर करेंगे।


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Thursday, 28/07/2022

जीभ - नींदा

मन - द्वेष

बुद्धि – ईर्षा

वात, पित और कफ सम्यक होना चाहिये। काम, क्रोध और लोभ सम्यक रुप में होना चाहिये।

काम, क्रोध, लोभ अगर पागलबन जाय तो उसे दंडित करना पडता हैं।

बुद्ध पुरुष को अपनी फ्रेम में मढना नहीं चाहिये।

 

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

 

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।

सेवा दीक्षा, मंत्र दीक्षा, मौन दीक्षा, स्पर्श दीक्षा, द्रष्टि दीक्षा, स्मरण दीक्षा जिस में बुद्ध पुरुष अकारण आश्रित को याद करता हैं और जब ऐसा होगा तब क्रान्ति हो जायेगी,  वगेरे दीक्षा के प्रकार हैं।

 

 

रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।

दाता शूर दयालुश्च ब्राम्हणों नवभिर्गुणैः।।

 

1.   1    रिजुः = सरल हो

2.   2    तपस्वी = तप करनेवाला हो

3.   3    संतोषी= मेहनत की कमाई पर सन्तुष्ट रहनेवाला हो

4.   4    क्षमाशीलो = क्षमा करनेवाला हो

5.   5    जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में रखनेवाला हो

6.   6    दाता= दान करनेवाला हो

7.   7    शूर = बहादुर हो

8.   8    दयालुश्च= सब पर दया करनेवाला हो

9.   9    ब्रह्मज्ञानी

 

इन नौ गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही ब्राह्मण होता है।

 

श्री राम जी ने श्री परशुराम जी से कहा भी है

 

देव एक गुन धनुष हमारे।

नौ गुन परम पुनीत तुम्हारे।।

 

देवा धीनम जगत सर्वम ,मन्त्रा धीनश्च देवता: । ते मंत्रा ब्राम्हणा धीनाश्च ,तस्माद ब्राम्हण देवता: ।

आज जब मन्त्र आपका सिद्ध नहीं होगा तो देवता आपके आधीन कैसे हो सकते हैं । मंत्रो से सन्ध्या गायत्री से शून्य होने के उपरांत भी लोग पुजवाना चाहते हैं । पहले ब्राम्हण की धोती आसमान में सूखती थी तो त्याग तपस्या गायत्री सन्ध्या के बल से , जब आप निर्बल हो जायेंगे तो खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता है , आज वही स्थिति है , लोग जनेऊ धारण करना बंद कर रहे हैं , गायत्री सन्ध्या को तो लगभग भूल ही गये हैं , तब आप मे वह शक्ति कहा से आ सकती है कि आप किसी के ऊपर जनेउ उतार देंगे तो उसका सर्वनाश हो जायेगा ,, आज ब्राम्हण के पतन का यही सब कारण है ।।

धिगबलम क्षत्रिय बलम ब्रम्ह तेजो बलम बलम , एकेन ब्रम्ह दण्डेन सर्व शस्त्राणि हतानि च ।। इस श्लोक में भी गुण से हारे हैं त्याग तपस्या गायत्री सन्ध्या के बल से और आज लोग उसी को त्यागते जा रहे हैं , और पुजवाने का भाव जबरजस्ती रखे हुए हैं ,

 

विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् l

तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ll

 

वेदों का ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल (जड) दिन के तीन विभागों प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्याकाल के समय यह तीन सन्ध्या (गायत्री मन्त्र का जप) करना है, चारों वेद उसकी शाखायें हैं, तथा वैदिक धर्म के आचार विचार का पालन करना उसके पत्तों के समान हैं । अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि,, इस सन्ध्यारूपी मूल की यत्नपूर्वक रक्षा करें, क्योंकि यदि मूल ही नष्ट हो जायेगा तो न तो शाखायें बचेंगी और न पत्ते ही बचेंगे ।।

यह विचार कर नित्य गायत्री मन्त्र का जप सन्ध्या अवश्य करना चाहिए, तभी आप समाज में मान प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकते हैं , तभी आप पुजनीय हो सकते हैं ।

 

अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥

बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥2॥

 

अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा॥2॥

यज्ञ, दान करना तपस्या हैं।

 

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहिं जनं।।

अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।

 

हे राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी ! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।


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Friday, 29/07/2022

मानस में ८ प्रकार के अतिथि – नयन अतिथि, पूज्य और प्रिय अतिथि, प्राण प्रिय अतिथि, अतुलित अतिथि, कान के अतिथि, स्पर्श अतिथि, रस, रुप, गंध वगेरे अतिथि बनकर आते हैं, अकारण मुस्कहारट -स्मित का आना भी अतिथि हैं।

 

कविता अतिथि हैं।

 

वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम्‌

देवकी परमानन्दं कृष्णं वंदे जदग्‌गुरुम्‌ ॥ १ ॥

 

जो वसुदेव के पुत्र हैं, जो देवकी के परम आनंद का कारण हैं, और जिन्हों ने दुष्ट कंस और चाणूर का संहार कर डाला। हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं।

 

अतसी पुष्प संकाशम्‌ हार नूपुर शोभितम्‌

रत्न कंकण केयुरं कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌ ॥ २ ॥

 

जो नीले रंग के अतसी पुष्पो से युक्त हो कर अत्यंत शोभायमान हो रहे हैं, जो हार और नूपुर से सुधोभित हो कर दीप्तिमान हो रहे हैं। जो बहुमूल्य रत्नों से बने कंगन धारण करते हैं। हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आप को नमन करता हुं।

 

कुटिलालक संयुक्तं पूर्ण चंद्र निभाननम्‌

विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌ ॥ ३ ॥

 

घुंघराले केशों से युक्त, जिनका मुख पूर्णिमा के चंद्र समान प्रतीत होता हैं। जो विलक्षण कुण्डलों से सुधोभित हैं, हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं॥

 

मंदार गन्ध संयुक्तं चारिहासं चतुर्भुजम्‌

बर्हि पिझ्छाव चूडाड्ंग कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌ ॥ ४ ॥

 

जो मंदार पुष्पों की सुगंध हैं, मृदु मुस्कान और चार चुजाओं से शोभित, अपने मस्तक पर मोरपंख धारण किये हुए हैं। हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं ॥  

 

उत्फुल्ल पद्म पत्राक्षं नील जीमूत सन्निभ‌म्‌

यादवानां शिरोरर्त्नं कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌  ॥ ५ ॥

 

वह जिसके नयन कमल की पंखुडियों समान शोभित हैं, जिनकी देह सघन नील वर्ण मेधों के समान श्याम हैं,जो यादव कुल के शिरोमणि हैं, हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं ॥

 

रुक्मिणी केळि संयुक्तं पीतांबर सुधोभितम्‌

अवाप्त तुलसी गन्धं कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌  ॥  ६ ॥

 

जो रुक्मिणी जी के साथ लीला कर रहे हैं, जो पीतांबर (सोने से बुने हुए रेशमी वस्त्र) से सुशोभित हैं, जो तुलसी की गंध से आकर्षित होते हैं, हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं ॥

 

गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुंकुमड्कित वक्षसम्‌

श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌  ॥ ७ ॥

 

वह जिनका वक्ष स्थल गोपिकाओं के आलिंगन के कारण कुंकुम से युक्त हैं, जिन भगवान में श्री लक्ष्मी का वास होता हैं, जो विशाल धनुष से युक्त हैं, हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं ॥

 

श्रीवत्साड्कं महोरस्कं वनमाला विराहितम्‌

शंख चक्र धरं देवं कृष्णं वंदे जगद्‌गुरुम्‌  ॥ ८ ॥

 

श्री वत्स (देवी लक्ष्मी का चिह्न) से सुधोभित , (स्वयं में) आनंद लेते हुए, जो फूलों की माला के साथ अत्यंत शोभायमान हो रहे हैं, जो शंख और चक्र शारण किए हुए हैं,  हे भगवान कृष्ण ! आप समस्त जगत के गुरु हैं, मैं आपको नमन करता हुं ॥

 

कृष्णाष्टकमिदं पुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत्‌

कोटि जन्म कृतं पापं स्मरणेन विनष्यति ॥

 

जो भी मनुष्य इस कृष्ण अष्टकं का पाठ करता हैं उसे अपार पुण्य की प्राप्ति होगी और उसके पिछले जन्मों में किए गए पाप भी पाठ करने और इसके स्मरण मात्र से नष्ट हो जाएंगे।

 

ज्ञान अतिथि हैं।

प्रेम अतिथि हैं।

भगवाब बुद्ध की पांच विरती - शैया और महाशैया का त्याग पहली विरती हैं, नृत्य गान – भोग वाद का नृत्य गान - का त्याग दूसरी विरती हैं,

शब्द अतिथि हैं।

निर्दोष बालक चार पेर से चलता अतिथि हैं।

अश्रु अतिथि हैं।

अश्रु और आश्रय …

बोध अतिथि हैं।

 

सोचिअ  बयसु  कृपन  धनवानू।  जो  न  अतिथि  सिव  भगति  सुजानू॥

सोचिअ  सूद्रु  बिप्र  अवमानी।  मुखर  मानप्रिय  ग्यान  गुमानी॥3॥

 

उस  वैश्य  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  धनवान  होकर  भी  कंजूस  है  और  जो  अतिथि  सत्कार  तथा  शिवजी  की  भक्ति  करने  में  कुशल  नहीं  है।  उस  शूद्र  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  ब्राह्मणों  का  अपमान  करने  वाला,  बहुत  बोलने  वाला,  मान-बड़ाई  चाहने  वाला  और  ज्ञान  का  घमंड  रखने  वाला  है॥3॥

 

सोचिअ  बिप्र  जो  बेद  बिहीना।  तजि  निज  धरमु  बिषय  लयलीना॥

सोचिअ  नृपति  जो  नीति  न  जाना।  जेहि  न  प्रजा  प्रिय  प्रान  समाना॥2॥

 

सोच  उस  ब्राह्मण  का  करना  चाहिए,  जो  वेद  नहीं  जानता  और  जो  अपना  धर्म  छोड़कर  विषय  भोग  में  ही  लीन  रहता  है।  उस  राजा  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  नीति  नहीं  जानता  और  जिसको  प्रजा  प्राणों  के  समान  प्यारी  नहीं  है॥2॥

 

सोचिअ  पुनि  पति  बंचक  नारी।  कुटिल  कलहप्रिय  इच्छाचारी॥

सोचिअ  बटु  निज  ब्रतु  परिहरई।  जो  नहिं  गुर  आयसु  अनुसरई॥4॥

 

पुनः  उस  स्त्री  का  सोच  करना  चाहिए  जो  पति  को  छलने  वाली,  कुटिल,  कलहप्रिय  और  स्वेच्छा  चारिणी  है।  उस  ब्रह्मचारी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  अपने  ब्रह्मचर्य  व्रत  को  छोड़  देता  है  और  गुरु  की  आज्ञा  के  अनुसार  नहीं  चलता॥4॥

दोहा  :

सोचिअ  गृही  जो  मोह  बस  करइ  करम  पथ  त्याग।

सोचिअ  जती  प्रपंच  रत  बिगत  बिबेक  बिराग॥172॥

 

उस  गृहस्थ  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  मोहवश  कर्म  मार्ग  का  त्याग  कर  देता  है,  उस  संन्यासी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  दुनिया  के  प्रपंच  में  फँसा  हुआ  और  ज्ञान-वैराग्य  से  हीन  है॥172॥ 

 

सब  बिधि  सोचिअ  पर  अपकारी।  निज  तनु  पोषक  निरदय  भारी॥

सोचनीय  सबहीं  बिधि  सोई।  जो  न  छाड़ि  छलु  हरि  जन  होई॥2॥

 

सब  प्रकार  से  उसका  सोच  करना  चाहिए,  जो  दूसरों  का  अनिष्ट  करता  है,  अपने  ही  शरीर  का  पोषण  करता  है  और  बड़ा  भारी  निर्दयी  है  और  वह  तो  सभी  प्रकार  से  सोच  करने  योग्य  है,  जो  छल  छोड़कर  हरि  का  भक्त  नहीं  होता॥2॥

प्यास बुझानेके लिये गहराई और माप जरुरी नहीं हैं लेकिन पिपासा जरुरी हैं। सागर से प्यास नहीं बुझती हैं लेकिन अगर पिपासा हो तो एक ग्लास पानी से बुझ जाती हैं।

कई महापुरुष के आखिरी समय बिमारी में जाता हैं क्यों कि ऐसे महापुरुषों की सब ममता छूट जाती हैं जिस से शरीर का संतुलन बिगड जाता हैं। शरीर का संतुलन न बिगडे इसीलिये कोई एक स्थान कि ममता आवश्यक हैं।


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Saturday, 30/07/2022

फूल की कली का खुलना, मुस्कराना अतिथि हैं।

नदी और झरना भी अतिथि हैं।

मंदिर जाना चाहिये लेकिन उस में प्रकृती को अनदेखा नहीं करना चाहिये। हम भगवान को फूल, बिल्व पत्र, तुलसी अर्पण करके हम भगवान को कहते हैं को हम यह आपकी प्रकृति के माध्यम से आपका दर्शन करना चाहते हैं। प्रकृति के दरेक अंग से हम परम का दर्शन करना चाहते हैं। परमात्मा के दर्शन के लिये प्रकृति के दर्शन करना चाहिये।

भोजन भोग हैं, भीक्षा योग हैं। भीक्षाटन भगवान प्राप्ति का एक पडाव हैं।

भीक्षा अतिथि हैं।

प्रेम निरथक से सार्थक की यात्रा हैं।

प्रेम अतिथि हैं इसलिये विस्तरता रहता हैं, एक जगह रुक नहीं जाता हैं।

भीक्षा समानता का बोध देती हैं। भीक्षा निराभिमानी बनाती हैं, भीक्षा लेनेवाला कभी अभिमान नहीं करता हैं।

भोजन में व्यंजन होते हैं, भीक्षा में गुंजन होता हैं – बुद्धम शरणं गछामि का गुंजन होता हैं।

भोजन जाति वर्ण पेदा करता हैं जब कि भीक्षा में ऐसा नहीं हैं।

भीक्षा आध्यात्म का एक भाग हैं।

भोजन में संकेत आता हैं, भीक्षा में कोई संकेत नहीं होता हैं, भोजनमें संतोष नहीं आता हैं जब कि भीक्षा में संतोष आता हैं। भोजन तीन बार होता हैं जब कि भीक्षा एक बार हो होती हैं और एक बार में संतोष मिल जाता हैं।

शैया और महा शैया पर सोना नहीं – विहार का त्याग – पहली विरक्ति।

माला और गंध का उपयोग न करना – दूसरी विरक्ति

भीखु को असमय भोजन न करना चाहिये – तीसरी विरक्ति

स्वर्ण आदि का त्याग करना – चौथी विरक्ति

भीक्षा वृत्ति से भोजन करना – पांचवी विरक्ति

भीखु को वृक्ष के नीचे सोना चाहिये।

सूर्य, चंद्र अतिथि हैं।

प्रसिद्धि मुक्त सेवा की महिमा हैं।

सेवा दर्भाशन हैं, जिस के चार कोने हैं, यह इस तरह हैं …... (१) सेवा सदा समता से करनी चाहिये, (२) ममता से सेवा करनी चाहिये, समता की छाया में ममता अच्छी हैं, (३) अपनी क्षमता के अनुसार (४) नम्रता से सेवा करनी चाहिये।

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Sunday, 31/07/2022

मानस में ८ बार अतिथि शब्द आया हैं।

 

काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥

अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥

 

भक्तों के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं॥4॥

 

कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥

बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥

 

कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुंदर नेत्रों वाली! इस विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे॥4॥

 

लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥

को जानै केहिं सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥2॥

 

राजा के चारों पुत्र, इन प्यारे मेहमानों के (मनोहर) रूप को नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी! कौन जाने, किस पुण्य से विधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि किया है॥2॥

 

मुनिबर  अतिथि  प्रानप्रिय  पाए।  कंद  मूल  फल  मधुर  मँगाए॥

सिय  सौमित्रि  राम  फल  खाए।  तब  मुनि  आश्रम  दिए  सुहाए॥2॥

 

श्रेष्ठ  मुनि  वाल्मीकिजी  ने  प्राणप्रिय  अतिथियों  को  पाकर  उनके  लिए  मधुर  कंद,  मूल  और  फल  मँगवाए।  श्री  सीताजी,  लक्ष्मणजी  और  रामचन्द्रजी  ने  फलों  को  खाया।  तब  मुनि  ने  उनको  (विश्राम  करने  के  लिए)  सुंदर  स्थान  बतला  दिए॥2॥

 

सोचिअ  बयसु  कृपन  धनवानू।  जो  न  अतिथि  सिव  भगति  सुजानू॥

सोचिअ  सूद्रु  बिप्र  अवमानी।  मुखर  मानप्रिय  ग्यान  गुमानी॥3॥

 

उस  वैश्य  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  धनवान  होकर  भी  कंजूस  है  और  जो  अतिथि  सत्कार  तथा  शिवजी  की  भक्ति  करने  में  कुशल  नहीं  है।  उस  शूद्र  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  ब्राह्मणों  का  अपमान  करने  वाला,  बहुत  बोलने  वाला,  मान-बड़ाई  चाहने  वाला  और  ज्ञान  का  घमंड  रखने  वाला  है॥3॥

 

करि  प्रबोधु  मुनिबर  कहेउ  अतिथि  पेमप्रिय  होहु।

कंद  मूल  फल  फूल  हम  देहिं  लेहु  करि  छोहु॥212॥

 

इस  प्रकार  मुनिश्रेष्ठ  भरद्वाजजी  ने  उनका  समाधान  करके  कहा-  अब  आप  लोग  हमारे  प्रेम  प्रिय  अतिथि  बनिए  और  कृपा  करके  कंद-मूल,  फल-फूल  जो  कुछ  हम  दें,  स्वीकार  कीजिए॥212॥

 

रिधि  सिधि  सिर  धरि  मुनिबर  बानी।  बड़भागिनि  आपुहि  अनुमानी॥

कहहिं  परसपर  सिधि  समुदाई।  अतुलित  अतिथि  राम  लघु  भाई॥1॥

 

ऋद्धि-सिद्धि  ने  मुनिराज  की  आज्ञा  को  सिर  चढ़ाकर  अपने  को  बड़भागिनी  समझा।  सब  सिद्धियाँ  आपस  में  कहने  लगीं-  श्री  रामचन्द्रजी  के  छोटे  भाई  भरत  ऐसे  अतिथि  हैं,  जिनकी  तुलना  में  कोई  नहीं  आ  सकता॥1॥

 

सादर  सब  कहँ  रामगुर  पठए  भरि  भरि  भार।

पूजि  पितर  सुर  अतिथि  गुर  लगे  करन  फरहार॥279॥

 

श्री  रामजी  के  गुरु  वशिष्ठजी  ने  सबके  पास  बोझे  भर-भरकर  आदरपूर्वक  भेजे।  तब  वे  पितर-देवता,  अतिथि  और  गुरु  की  पूजा  करके  फलाहार  करने  लगे॥279॥

 

 

 

 

मुनिबर  अतिथि  प्रानप्रिय  पाए।  कंद  मूल  फल  मधुर  मँगाए॥

सिय  सौमित्रि  राम  फल  खाए।  तब  मुनि  आश्रम  दिए  सुहाए॥2॥

 

श्रेष्ठ  मुनि  वाल्मीकिजी  ने  प्राणप्रिय  अतिथियों  को  पाकर  उनके  लिए  मधुर  कंद,  मूल  और  फल  मँगवाए।  श्री  सीताजी,  लक्ष्मणजी  और  रामचन्द्रजी  ने  फलों  को  खाया।  तब  मुनि  ने  उनको  (विश्राम  करने  के  लिए)  सुंदर  स्थान  बतला  दिए॥2॥

 

रिधि  सिधि  सिर  धरि  मुनिबर  बानी।  बड़भागिनि  आपुहि  अनुमानी॥

कहहिं  परसपर  सिधि  समुदाई।  अतुलित  अतिथि  राम  लघु  भाई॥1॥

 

ऋद्धि-सिद्धि  ने  मुनिराज  की  आज्ञा  को  सिर  चढ़ाकर  अपने  को  बड़भागिनी  समझा।  सब  सिद्धियाँ  आपस  में  कहने  लगीं-  श्री  रामचन्द्रजी  के  छोटे  भाई  भरत  ऐसे  अतिथि  हैं,  जिनकी  तुलना  में  कोई  नहीं  आ  सकता॥1॥

अतिथि के तीन प्रकार – तुलित अतिथि जैसे राम, लखन और जानकी;

 

बेद  बचन  मुनि  मन  अगम  ते  प्रभु  करुना  ऐन।

बचन  किरातन्ह  के  सुनत  जिमि  पितु  बालक  बैन॥136॥

 

जो  वेदों  के  वचन  और  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  हैं,  वे  करुणा  के  धाम  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  भीलों  के  वचन  इस  तरह  सुन  रहे  हैं,  जैसे  पिता  बालकों  के  वचन  सुनता  है॥136॥

जनकपुर में राम लखन अतिथि हैं, यहां राम लखन संतुलित अतिथि हैं; यहां संतुलिन हैं।

भरत अतुलित अतिथि हैं। भरत जो परम साधु हैं जिसे तोला नहीं जा शकता हैं।

साधु प्रेम से हि समजा जा शकता हैं।

नाशवंत के साथ का प्रेम शास्वत नहीं हैं, परम से प्रेम हि शास्वत प्रेम हैं, ऐसा प्रेम निरंतर प्रेम कहलाता हैं।

खोज अपनी करो।

 

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।

ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।1।।

 

जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने [वर्णाश्रमके] धर्म श्रुतियोंसे उत्पन्न (वेदविहित) बहुत-से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इन्द्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँतक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं [उनके करनेका]-।।1।।

गुरु ने हमारे लिये क्या किया उस की खोज करो, गुरु ने दूसरों के लिये क्या किया उस की खोज मत करो।

विशुद्ध विज्ञान – आध्यात्म विज्ञान - काल, पात्र और देश देखता हैं।

हनुमानजी विशुद्ध विज्ञानी हैं।

गुरु सदा अपना वादा निभाता हैं।