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Saturday, May 29, 2021

માનસ ભરત ચરિત્ર - 860

 

રામ કથા - 860

માનસ ભરત ચરિત્ર

ચિત્રકૂટ, મધ્ય પ્રદેશ

શનિવાર, તારીખ ૨૯/૦૫/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૦૬/૦૬/૨૦૨૧

મુખ્ય પંક્તિઓ

सिय  राम  प्रेम  पियूष  पूरन  होत  जनमु    भरत  को।

मुनि  मन  अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

 

 

શનિવાર, ૨૯/૦૫/૨૦૨૧

 

सिय  राम  प्रेम  पियूष  पूरन  होत  जनमु    भरत  को।

मुनि  मन  अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

श्री  सीतारामजी  के  प्रेमरूपी  अमृत  से  परिपूर्ण  भरतजी  का  जन्म  यदि    होता,  तो  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  यम,  नियम,  शम,  दम  आदि  कठिन  व्रतों  का  आचरण  कौन  करता?  दुःख,  संताप,  दरिद्रता,  दम्भ  आदि  दोषों  को  अपने  सुयश  के  बहाने  कौन  हरण  करता?  तथा  कलिकाल  में  तुलसीदास  जैसे  शठों  को  हठपूर्वक  कौन  श्री  रामजी  के  सम्मुख  करता?

 

भरत चरित्र अश्रु और आश्रयका चरित्र हैं।

 

चित्रकूट अति बिचित्र, सुन्दर बन, महि पबित्र,

पावनि पय-सरित सकल मल-निकन्दिनी |

 

चित्रकुट भगवान रामकी विहारकी स्थली हैं।

 

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥

सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥2॥

एक बार सुंदर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए॥2॥

 

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।

तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥ 31॥

 

तुलसीदास कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है, और सुंदर स्नेह ही वन है, जिसमें सीताराम विहार करते हैं॥ 31॥

 

 

यह विराग की भूमि हैं, विवेककी भूमि हैं। यह वियोगकी भूमि हैं।

 

राम  बास  बन  संपति  भ्राजा।  सुखी  प्रजा  जनु  पाइ  सुराजा॥

सचिव  बिरागु  बिबेकु  नरेसू।  बिपिन  सुहावन  पावन  देसू॥3॥

 

श्री  रामचंद्रजी  के  निवास  से  वन  की  सम्पत्ति  ऐसी  सुशोभित  है  मानो  अच्छे  राजा  को  पाकर  प्रजा  सुखी  हो।  सुहावना  वन  ही  पवित्र  देश  है।  विवेक  उसका  राजा  है  और  वैराग्य  मंत्री  है॥3॥

 

भट  जम  नियम  सैल  रजधानी।  सांति  सुमति  सुचि  सुंदर  रानी॥

सकल  अंग  संपन्न  सुराऊ।  राम  चरन  आश्रित  चित  चाऊ॥4॥

 

यम  (अहिंसा,  सत्य,  अस्तेय,  ब्रह्मचर्य  और  अपरिग्रह)  तथा  नियम  (शौच,  संतोष,  तप,  स्वाध्याय  और  ईश्वर  प्रणिधान)  योद्धा  हैं।  पर्वत  राजधानी  है,  शांति  तथा  सुबुद्धि  दो  सुंदर  पवित्र  रानियाँ  हैं।  वह  श्रेष्ठ  राजा  राज्य  के  सब  अंगों  से  पूर्ण  है  और  श्री  रामचंद्रजी  के  चरणों  के  आश्रित  रहने  से  उसके  चित्त  में  चाव  (आनंद  या  उत्साह)  है॥4॥

यह विश्वासकी भूमि हैं।

आध्यात्म जगतकी विमा पोलिसी भरोंसा हैं, जिसका प्रिमियम अपनी क्षमताके अनुसार शुभ कार्य करना हैं।

भजनानंदी व्यक्तिकी यात्रामें जो विघ्न आते हैं वह विमा पकनेकी निशानी हैं।

जिसके जीवनमें विराग, विवेक, गुणातित विहार, वियोग हैं वह जहां भी हैं वह चित्रकूट हैं।


मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥

 

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।

 


2

Sunday, 30/05/2021

 

भरत  चरित  करि  नेमु  तुलसी  जो  सादर  सुनहिं।

सीय  राम  पद  पेमु  अवसि  होइ  भव  रस  बिरति॥326॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं-  जो  कोई  भरतजी  के  चरित्र  को  नियम  से  आदरपूर्वक  सुनेंगे,  उनको  अवश्य  ही  श्रीसीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होगा  और  सांसारिक  विषय  रस  से  वैराग्य  होगा॥326॥

भरत चरित्र पंच चरित्र का पंचामृत हैं, राम चरित्र सीता चरित्र अंमिलित, , शिव चरित्र जो ऊमा चरित्र संमिलित हैं, हनुमान चरित्र, भुशुंडी चरित्र यह पंच चरित्र हैं, पंच चरित अमृत हैं।

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

 

जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥18॥

 

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

 

(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥

सत्य बोलना और प्रिय सत्य बोलना चाहिये।

जो दूसरोको छोटा करनेका सिद्ध करते हैं उसके समान कोइ छोटा नहीं हैं।

भूख रोग हैं और भोजन औषधी हैं, भोजन औषधी की रतफ करो।

 

सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके।।

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा।।

हम विषेश स्थानोमें अपने हरिका नाम का जप हि कर शकते हैं – अपने श्रधेय द्वारा गीया हुआ मंत्र का जप कर शकते हैं, और यही पर्याप्त हैं क्यों कि हम यज्ञ, तप, दान  न भी कर शके।

राम महा मंत्र हैं।

नदीके तट पर जपकी महिमा हैं, पर्वतकी चोटी पर नाम जप का महत्व हैं, किसी गिरि गुहामें - गुफामें नाम जपका महत्व हैं, यह सिमरन से समाधिका रास्ता हैं, किसी अरण्यमें नाम/मंत्र जाप की महिमा हैं, गौशालामें, आन्न क्षेत्रमें नाम जपकी महिमा हैं, कोई विषेश पेडके नीचे, अपने गुरु के स्थानमें नाम/मंत्र जप की महिमा हैं।

सिमरन कर्मकांड नहीं हैं।

 

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥

भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

 

ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥5॥

 

चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।

सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥

उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं॥6॥

भरत चरित्रका गान/श्रवण जप यज्ञ हैं।

 

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।

कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

 

संपूर्ण अनगिनत उत्पातों को शांत करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं, वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥41॥

सब उत्पात का शमन भरत चरित्र से होता हैं।

उलकापात एक उत्पात हैं।

वज्रपात उत्पात हैं, सुहागन माता का गर्भपात उत्पात हैं, चंचुपात करना उत्पात हैं, जिम्मेवार व्यक्ति गलत सूत्रपात करे वह भी उत्पात हैं, शस्त्रपात उत्पात हैं, मन का बार बार चंचल होना उत्पात हैं,

 

काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥

मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥3॥

 

(पर रखना तो दूर रहा) किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। श्री रामजी के द्रोही को कौन रख सकता है? (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) है गरुड़ ! सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है॥3॥

 

भरत में भ का अर्थ ज्ञान हैं।

व्रज रास की भूमि हैं, चित्रकूट रस की भूमि हैं।

 

सव सोच-विमोचन चित्रकूट । कलिहरन, करन कल्यान बूट ॥१॥

सुचि अवनि सुहावनि आलवाल । कानन विचित्र, बारी बिसाल ॥२॥

मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच । वर बारि, विषम नर नारि नीच ॥३॥

साखा सुसुंग, भूरुह-सुपात । निरझर मधुवर, मृदु, मलय वात ॥४॥

सुक पिक, मधुकरमुनिवर-विहारु । साधन प्रसून, फल चारि चारु ॥५॥

भव-घोर घाम-हर सुखद छाँह । थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह ॥६॥

साधक-सुपथिक बड़े भाग पाइ । पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥७॥

रस एक, रहित-गुन-करम-काल । सिय राम लखन पालक कृपाल ॥८॥

तुलसी जो रामपद चहिय प्रेम । सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥९॥

 

सब शोकोंसे छुड़ानेवाला चित्रकूट (पर्वत) कलिका नाश करने- वाला और कल्याण करनेवाला हरा वृक्ष है ॥१॥

वहाँकी पवित्र भूमि उस वृक्षके लिए सुहावना थाहा है। बगीचों में अपूर्व वृक्ष हुआ करते हैं। चित्रकूटके चारों ओर जो विचित्र वन है, वही बड़ा बगीचा है ॥२॥

जिस प्रकार मालिन जल-सिंचनके समय किसी खास वृक्षके प्रति पक्षपात नहीं करती और न तो किसीकी उपेक्षा, उसी प्रकार मन्दाकिनी नदी रूपी मालिन अपने श्रेष्ठ जलसे, वहाँ निवास करनेवाले सभी अच्छे-बुरे (ऊँच-नीच) नर-नारियोंका हमेशा समान भावसे पोषण करती है ॥३॥

चित्रकूट पर्वतके सुन्दर शिखर ही उस वृक्षकी शाखाएँ हैं और उसके ऊपरके वृक्ष उत्तम पत्ते हैं । झरनोंसे झरनेवाला श्रेष्ठ और मीठा जल ही मृदु मल्य वायु है, और हवा ही उसकी कोमलता है ॥४॥

वहाँ बिहार करनेवाले मुनीश्वर ही तोता, कोयल और भौरे हैं। उन मुनीश्वरोंकी नाना प्रकारकी साधनाएँ ही उस वृक्षके पुष्प हैं और अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये ही चार सुन्दर फल हैं ।।५।।

उस वृक्ष की सुखदायिनी छाया संसारकी जन्ममृत्यु- रूपी कड़ी धूपको हरनेवाली है। जानकी-वल्लभ श्रीरामने वहाँ निवास करके उसके प्रभावको और भी स्थायी कर दिया है ॥६॥

साधक रूपी उत्तम बटोही बड़े भाग्यसे उसे प्राप्त करते हैं और पाते ही उनकी नाना प्रकारकी आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।।७।

वह गुण, कर्म और कालसे रहित एवं एकरस रहनेवाला है। कृपालु सीता, राम और लक्ष्मण उनके रक्षक हैं। तुलसीदास कहते हैं कि यदि तू श्रीरामजीके चरणों में प्रेम चाहता है, तो उपाधि-रहित नेमसे चित्रकूट पर्वतका सेवन कर।

 

भरत प्रथम पूज्य हैं, भरत आरंभ हैं जिसका अंत नहीं हैं।

 

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥

राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

 

(भाइयों में) सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्री रामजी के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता॥2॥

प्रथम प्रणाम – पूजन किसका होना चाहिये?

 

3

Monday, 31/05/2021

पागल विचित्र होते हैं।

परमहंस अति विचित्र होता हैं। भगवंत भी अति विचित्र हैं।

भगवंत को कर्म प्रधान नहीं हैं लेकिन करुणा प्रधान हैं।

कथा रस, नाम रस, राम रस हि सोम रस हैं।

परम अव्यवस्थाका नाम हि परमात्मा हैं।

 

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।

अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥

मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।

राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥

 

फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥2॥

जो श्रेष्ठत्तम होता हैं वह अति विचित्र होता हैं।

सबको अपने गुरु का गौरव होना चाहिये।

पुत्रीके लिये अपना पिता हि ईश्वर हैं। पिता पुत्रीका रिस्ता अनोखा रिस्ता हैं।

 

बार  बार  मिलि  भेंटि  सिय  बिदा  कीन्हि  सनमानि।

कही  समय  सिर  भरत  गति  रानि  सुबानि  सयानि॥287॥

 

राजा-रानी  ने  बार-बार  मिलकर  और  हृदय  से  लगाकर  तथा  सम्मान  करके  सीताजी  को  विदा  किया।  चतुर  रानी  ने  समय  पाकर  राजा  से  सुंदर  वाणी  में  भरतजी  की  दशा  का  वर्णन  किया॥287॥

 

सुनि  भूपाल  भरत  ब्यवहारू।  सोन  सुगंध  सुधा  ससि  सारू॥

मूदे  सजन  नयन  पुलके  तन।  सुजसु  सराहन  लगे  मुदित  मन॥1॥

 

सोने  में  सुगंध  और  (समुद्र  से  निकली  हुई)  सुधा  में  चन्द्रमा  के  सार  अमृत  के  समान  भरतजी  का  व्यवहार  सुनकर  राजा  ने  (प्रेम  विह्वल  होकर)  अपने  (प्रेमाश्रुओं  के)  जल  से  भरे  नेत्रों  को  मूँद  लिया  (वे  भरतजी  के  प्रेम  में  मानो  ध्यानस्थ  हो  गए)।  वे  शरीर  से  पुलकित  हो  गए  और  मन  में  आनंदित  होकर  भरतजी  के  सुंदर  यश  की  सराहना  करने  लगे॥1॥

 

मानस समुद्रके मंथनसे अनेक अमृत नीकले हैं।

 

सावधान  सुनु  सुमुखि  सुलोचनि।  भरत  कथा  भव  बंध  बिमोचनि॥

धरम  राजनय  ब्रह्मबिचारू।  इहाँ  जथामति  मोर  प्रचारू॥2॥

 

(वे  बोले-)  हे  सुमुखि!  हे  सुनयनी!  सावधान  होकर  सुनो।  भरतजी  की  कथा  संसार  के  बंधन  से  छुड़ाने  वाली  है।  धर्म,  राजनीति  और  ब्रह्मविचार-  इन  तीनों  विषयों  में  अपनी  बुद्धि  के  अनुसार  मेरी  (थोड़ी-बहुत)  गति  है  (अर्थात  इनके  संबंध  में  मैं  कुछ  जानता  हूँ)॥2॥

सुनयना सुमुखी हैं क्योंकि उसके मुखसे सीया और सीयाराम शब्द नीकलता हैं।

भरतकथा भवबंधन को काटनेवाली कथा हैं।

अगम  सबहि  बरनत  बरबरनी।  जिमि  जलहीन  मीन  गमु  धरनी॥

भरत  अमित  महिमा  सुनु  रानी।  जानहिं  रामु  न  सकहिं  बखानी॥1॥

 

हे  श्रेष्ठ  वर्णवाली!  भरतजी  की  महिमा  का  वर्णन  करना  सभी  के  लिए  वैसे  ही  अगम  है  जैसे  जलरहित  पृथ्वी  पर  मछली  का  चलना।  हे  रानी!  सुनो,  भरतजी  की  अपरिमित  महिमा  को  एक  श्री  रामचन्द्रजी  ही  जानते  हैं,  किन्तु  वे  भी  उसका  वर्णन  नहीं  कर  सकते॥1॥

 

भरत  चरित  कीरति  करतूती।  धरम  सील  गुन  बिमल  बिभूती॥

समुझत  सुनत  सुखद  सब  काहू।  सुचि  सुरसरि  रुचि  निदर  सुधाहू॥4॥

 

सब  किसी  को  भरतजी  के  चरित्र,  कीर्ति,  करनी,  धर्म,  शील,  गुण  और  निर्मल  ऐश्वर्य  समझने  में  और  सुनने  में  सुख  देने  वाले  हैं  और  पवित्रता  में  गंगाजी  का  तथा  स्वाद  (मधुरता)  में  अमृत  का  भी  तिरस्कार  करने  वाले  हैं॥4॥

 

 

4

Tuesday, 01/06/2021

जय सियाराम वैश्विक हैं, सब एक हि हैं, यह लोकसमुदायके लिये षडाक्षर मंत्र हैं, जय का संकेत महाभारत और वेद की ओर संकेत हैं, जय पंचम वेद हैं ऐसा महाभारतमें कहा गया हैं। रामायण पंचमुखी महादेवके मुख से नीकला हुआ पंचम वेद हैं।

सिया का संकेत रामायण की ओर हैं, राम चरित मानस में आदि मध्य और अंत में राम हैं, वाल्मीकि रामायण में सीया का उल्लेख हैं, सीया मुख्य पात्र हैं।

गावत वेद पुराण ….

 

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।

तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥

 

हे रुद्र गिरिसंत या ते शिवा अघोरा अपापकाशिनी तनू तया शंतमया तनुवा नः अभिचाकशीहि॥

O Lord, who blesses all creatures by revealing the Vedas, deign to make us happy by Thy calm and blissful self, which roots out terror as well as sin.

हे प्रभु! वेदों को प्रकाशित कर तू सभी प्राणियों पर कृपा की वर्षा करता है, अपने शान्त और आनन्दमय रूप द्वारा हम सब को प्रसन्न रखने का अनुग्रह करता है जिससे भय और पाप दोनों नष्ट हो जाते हैं।

 

कोई भी कथा सच्चिदानंद देती हैं।

राम चरित ज्यादातर भगवान शंकरने गाया हैं।

 

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

 

एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥

संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥

 

याज्ञ्यवल्क भगवान शिव चरित के गायक हैं।

हनुमान चरित का गायन जामवंतने गाया हैं।

काक भुषंडि भी हनुमंत चरित्र गाते हैं।

भरत चरित्रका प्रधान गायक तुलसीदासजी हैं।

अवतारके साथ नाम, रुप, लीला और धाम जुड जाते हैं।

राम का रुप कारुण्यरुप हैं।

सब जब शोक आता हैं तब ज्ञान, धैर्य, लज्जा वगेरे तुट जाता हैं।

 

कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरदसुन्दरम्।

पटपीतमानहु तडित रूचिशुचि नौमिजनकसुतावरम् ॥२॥

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन हरणभवभयदारुणम्।

नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ॥१॥

 

शून्य और पूर्ण यह दो मुख्य धारा हैं।

अवतार जो भी करता हैं वह कर्म नहीं हैं लेकिन क्रिडा हैं, लीला हैं।

भगवान राम का धाम चित्रकूट हैं, भरत का धाम नंदीग्राम हैं।

 

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

 

मिटिहहिं  पाप  प्रपंच  सब  अखिल  अमंगल  भार।

लोक  सुजसु  परलोक  सुखु  सुमिरत  नामु  तुम्हार॥263॥

 

हे  भरत!  तुम्हारा  नाम  स्मरण  करते  ही  सब  पाप,  प्रपंच  (अज्ञान)  और  समस्त  अमंगलों  के  समूह  मिट  जाएँगे  तथा  इस  लोक  में  सुंदर  यश  और  परलोक  में  सुख  प्राप्त  होगा॥263॥

अश्रुपात और सन्नीपात भी उत्पात हैं।

धरणी सुता सीयाजी कायम धैर्य रखती हैं।

राम पर्णकुटीमें एक दिन भरत को याद कर शयन नहीं करते हैं।

सच्चा प्रेम व्रत नियम भी तुडवा देता हैं।

भरत नाम का जाप भगवान राम करते हैं।

भरतका रुप राम रुप जैसा हि हैं।

जिसका नाम सिमरन करते हैं उसका रुप साधकमें क्रमशः आता हैं।

गुरु अपने आश्रितको अपने जैसा हि बना देता हैं, ऐसा नियम हैं।

भरतका नाम अखिल मंगल करनेवाला हैं, भरत की लीला , भरतका घाम नंदीग्राम हैं।

प्रमाद में अपराध हो जाता हैं, महिमाकी जानकारी न होने के कारण अपराध हो जाता हैं, कभी कभी व्यंग करते समय भी अपराध हो जाता हैं।

भरत शिव उपासाक हैं।

 

भरत  चरित  करि  नेमु  तुलसी  जो  सादर  सुनहिं।

सीय  राम  पद  पेमु  अवसि  होइ  भव  रस  बिरति॥326॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं-  जो  कोई  भरतजी  के  चरित्र  को  नियम  से  आदरपूर्वक  सुनेंगे,  उनको  अवश्य  ही  श्रीसीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होगा  और  सांसारिक  विषय  रस  से  वैराग्य  होगा॥326॥

 

 

5

Wednesday, 02/06/2021

चित्रकूट में कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा, सुनयना,  वगेरे ५ माताए जाती हैं,

राम वनवासकी जनेता मंथरा हैं।

 

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥

 

मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥

नित्य कर्म समय समय पर होता हैं जब कि भजन निरंतर होता हैं।

भजन बल सर्व श्रेष्ठ बल हैं।

राम कथा नव रसका संमिलन हैं।

 

चित्रकूट  रघुनंदनु  छाए।  समाचार  सुनि  सुनि  मुनि  आए॥

आवत  देखि  मुदित  मुनिबृंदा।  कीन्ह  दंडवत  रघुकुल  चंदा॥3॥

श्री  रघुनाथजी  चित्रकूट  में  आ  बसे  हैं,  यह  समाचार  सुन-सुनकर  बहुत  से  मुनि  आए।  रघुकुल  के  चन्द्रमा  श्री  रामचन्द्रजी  ने  मुदित  हुई  मुनि  मंडली  को  आते  देखकर  दंडवत  प्रणाम  किया॥3॥

साधु अकेला रहता हैं, उसका कोई ग्रुप नहीं होता हैं, उसको किसीकी जरुरत हि नहीं होती हैं।

हमें अपनी खोज करनी चाहिये।

 

जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे।

तोरी प्रीत तोड़ी कृष्णा, कौन संग जोडू॥

 

तुम भये तरुवर, मैं भयी पंखिया।

तुम भये सरोवर, मैं भयी मछिया॥

तुम भये गिरिवर, मैं भयी चारा।

तुम भये चंदा मैं भयी चकोरा॥

तुम भये मोती प्रभु जी, हम भये धागा।

तुम भये सोना, हम भये सुहागा॥

बाई मीरा के प्रभु बृज के बासी।

तुम मेरे ठाकुर, मई तेरी दासी॥

अहंकार हमें अंध बना देता हैं, गोपीओको अहंकार आता हैं तब क्रिष्ण दिखाई नहीं देता हैं।

 

नामु  मंथरा  मंदमति  चेरी  कैकइ  केरि।

अजस  पेटारी  ताहि  करि  गई  गिरा  मति  फेरि॥12॥

 

मन्थरा  नाम  की  कैकेई  की  एक  मंदबुद्धि  दासी  थी,  उसे  अपयश  की  पिटारी  बनाकर  सरस्वती  उसकी  बुद्धि  को  फेरकर  चली  गईं॥12॥ 

मंथरा न होती तो चित्रकूटको राम न मिलता।

दिनमें किसीको मुस्कराना भी भजन हैं।

साधुका स्थायी भाव प्रसन्नता हैं, उसको कोई भी अप्रसन्न नहीं कर शकता हैं।

जानकी धराजु होनेके नाते धरती के सभी लक्षण जानकीमें हैं।

गंध – खुशबु, धैर्य वगेरे धरतीका एक लक्षण हैं।

किशोरीजी पृथ्वी तत्व हैं, राम आकाश तत्व हैं, हनुमान वायु तत्व हैं, शिवजी अग्नि तत्व हैं, भरत जल तत्व हैं।

आकाशका लक्षण शब्द हैं, ईसीलिये नाम शब्द का महत्व हैं।

जल शीतल, मनोहर, स्वच्छ, मधुर, मल दूर करे ऐसा,  होना चाहिये। भरतमें यह सब लक्षण हैं। जल आकाश से आता हैं, भरत आसमासे ऊतारा गया हैं।

साधना और जप की खुशबु फैलती हैं।

साधु अमृत हैं।
संत अमृत हैं।

कृपा अमृत हैं।

सरिता अमृत हैं।

नाम अमृत हैं।

कथा अमृत हैं।

वचनामृत भी अमृत हैं।

मानस भी अमृत हैं।

 

 

6

Thursday, 03/06/2021

भरत भगत शिरोमणि हैं।

 

नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥

 

प्रहल्लाद जो भगत शिरोमणि हैं वह, पातालमें हैं, भरत जो भगत शिरोमणि हैं वह पृथ्वी पर हैं, गरुड जो भगत शिरोमणि हैं वह गगन विहारी हैं।

जो सत्य शील होता हैं वह भगत शिरोमणि बन शकता हैं।

राम चरित का आरंभ सत्य हैं, मध्य भरत – प्रेम हैं और उपसहार करुणा हैं।

जो चरित्रवान हैं वह भगत बन शकता हैं, चरित्रवान बननेके लिये सत्यशील होना जरुरी हैं।

 

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥

 

शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥

सत्य शीलवान प्रिय सत्य बोलेगा जो दूसरोका हित करेगा।

शीलवान में संकोच होता हैं।

 

बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।

सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँईं।।3।।

 

तप के बिना क्या तेज फैल सकता है ? जल-तत्त्वके बिना संसारमें क्या रस हो सकता है ? पण्डितजनोंकी सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता है ? हे गोसाईं ! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता।।3।।

શીલાવંત સાધુને વારેવારે નમીએ રે

બદલે નહીં વર્તમાન રે

सत्य का ईमानदारी से स्वीकार करना भी चरित्रवान का लक्षण हैं। खुदकी भूल और दूसरेका सत्य का स्वीकार करना चरित्रवान का लक्षण हैं।

सत्य का सभी दीशाओसे स्वीकार करना चाहिये।  आनो भद्रा ….

 

नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।

आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहिं काज।।63क।।

 

हे नाथ ! हे पक्षिराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें, मैं अब वही करूँ। हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिये आये हैं?।।63(क)।।

 

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

 

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

 

अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।

सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनयउँ प्रभु तोही।।2।।

 

अब हे तात ! आप मुझे श्रीरामजीकी अत्यन्त पवित्र करने वाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमूह का नाश करनेवाली कथा आदरसहित सुनाइये। हे प्रभो ! मैं बार-बार आपसे यही विनती करता हूँ।।2।।

 

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।

भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा।।3।।

 

गरुड़जी की विनम्र, सरल, सुन्दर, प्रेमयुक्त, सुख, प्रद और अत्यन्त पवित्रवाणी सुनते ही भुशुण्डिजी के मनमें परम उत्साह हुआ और वे श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथा कहने लगे।।3।।

 

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी।।

पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा।।4।।

 

हे भवानी ! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरितमानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर नारद जी का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा।।4।।

 

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई।।5।।

 

फिर प्रभु के अवतारकी कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्रीरामजीकी बाललीलाएँ कहीं।।5।।

 

कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी।।

सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा।।4।।

 

भुशुण्डिजीने वह सब कथा कही जो हे भवानी ! मैंने तुमसे कही ! सारी रामकथा सुनकर पक्षिराज गरुड़जी मनमें बहुत उत्साहित (आनन्दित) होकर वचन कहने लगे।।4।।

 

मैं  जानउँ  निज  नाथ  सुभाऊ।  अपराधिहु  पर  कोह  न  काऊ॥

मो  पर  कृपा  सनेहु  बिसेषी।  खेलत  खुनिस  न  कबहूँ  देखी॥3॥

 

अपने  स्वामी  का  स्वभाव  मैं  जानता  हूँ।  वे  अपराधी  पर  भी  कभी  क्रोध  नहीं  करते।  मुझ  पर  तो  उनकी  विशेष  कृपा  और  स्नेह  है।  मैंने  खेल  में  भी  कभी  उनकी  रीस  (अप्रसन्नता)  नहीं  देखी॥3॥

 

जीतने के समय भी जो खुदको हारा हुआ मानकर दूसरोको जीताता हैं वह शीलवान हैं।

 

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥

रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥

 

रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली लकड़ी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है)॥3॥

गलत सिक्का जल्दी बाहर आता हैं और सच्चा सिक्का छुपा रहता हैं।

साधु को ज्यादा सगवड देनेसे उसके भजन में भंग पडता हैं, साधु विश्व मंगल के भजन करता हैं।

साधु के लिये हरि नाम आहार होता हैं।

चरित्रवान के सप्त शील हैं।

चरित्रवान धर्म शील होता हैं।

भरत चरित्र सबके लिये अगम हैं।

कर्मशील युनिवर्सिटीका कुलपति भरत हैं। भरत सब कर्म करता हैं जो एक कर्मशीलता हैं।

कूल शीलता चरित्रवानका एक शील हैं।

 

रघुकुल  रीति  सदा  चलि  आई।  प्रान  जाहुँ  परु  बचनु  न  जाई॥2॥

 

सगुनु  खीरु  अवगुन  जलु  ताता।  मिलइ  रचइ  परपंचु  बिधाता॥

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा।  जनमि  कीन्ह  गुन  दोष  बिभागा॥3॥

 

हे  तात!  गुरु  रूपी  दूध  और  अवगुण  रूपी  जल  को  मिलाकर  विधाता  इस  दृश्य  प्रपंच  (जगत्‌)  को  रचता  है,  परन्तु  भरत  ने  सूर्यवंश  रूपी  तालाब  में  हंस  रूप  जन्म  लेकर  गुण  और  दोष  का  विभाग  कर  दिया  (दोनों  को  अलग-अलग  कर  दिया)॥3॥

गुण शीलता भी सप्त शील का एक शील हैं।

रुपशीलता भी एक चरित्रवान का शील हैं।

धैर्य शीलता चरित्रवान का एक शील हैं।

 

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥

शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥


7

Friday, 04/06/2021

रुपका एक अर्थ आकार होता हैं।

सप्तशीला व्यक्तिका एक विशेष रुप- आकार होता हैं।

दंभासुर बहुत बडा असुर हैं जो भक्ति मार्गका बाधक हैं, भजन के बिना दंभ मिटता नहीं हैं।

चित्रकूट भजन भूमि हैं, चित की भूमि हैं, लंका अहंकार की भूमि हैं।

 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

 

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमंर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

आज का हि महिमा हैं, आजे रोकडा काले उधार एक प्रचलित वाक्य हैं।

बुद्ध पुरुष सदैव होते हुए हम उन्हे पहचान नहीं शकते हैं।

राम चरित मानस का सार सत्य, प्रेम और करुणा हैं, उसमें भी प्रेम का विशेष महत्व हैं अगर तीन में से एक को चुनना हैं तो वह प्रेम हैं।

 

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

 

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

 

इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥1॥

तथाकथित धर्म हमें शिखाया कि पथ्थरमें ईश्वर हैं लेकिन हर व्यक्तिमें ईश्वर हैं यह नहीं शिखाया हैं।

करुणावान कभी कठोर भी हो शकता हैं।

जीभको रसना भी कहते हैं।

सच बोलो, वरना मत बोलो।

राम सत्य मूर्ति हैं, भरत प्रेम मूर्ति हैं, किशोरीजी करुणा मूर्ति हैं।

आचरण, सौदर्य,  चरित्रवान बुद्ध पुरुषका लक्षण हैं।

सौदर्य बिना कोई प्रयास किये दिखाई देता हैं। एसी सुंदरता को देखकर करोडो कामदेव भी प्रभावित होता हैं।

राम वल्कल वस्त्रमें भी सुंदर दिखाई देते हैं।

 

जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥

सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

 

पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥

नमक जिसको मीठा कहते हैं उसे दूधपाकमें नहीं डाला जाता हैं।

निष्काम भावसे जहां भी प्रवेश करो वहां सब युवान हि दिखाई देता हैं, यहां शरीर की बात नहीं हैं, शरीर बुढा हो शकता हैं।

 

तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥

 

लावण्य भी सुंदरता का प्रतीक हैं।

प्रेरणादायक व्यक्तित्व भी सप्तशील व्यक्तिमें होता हैं।

लावण्यता, कारुण्यता, औदार्यता, माधुर्यता, दर्शनीयता, अनंतता, स्वच्छता (तन और मनसे निर्मल), उज्वलता – घवलता – सफेदी – रंगातित अवस्था, सदा प्रसन्न – सदा मुस्कराते रहना, जो संसारीको विदेही बना देता हैं वगेरे  सप्तशील चरित्रवान व्यक्तिका लक्षण हैं।

स्वच्छता बहिर हैं, उज्वलता भीतरी हैं।

 

हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3॥

 

श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3॥

 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

 

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

यह शरीर अपने सगा संबंधीका नहीं हैं लेकिन संसार का हिस्सा हैं।

 

भानुबंस  भए  भूप  घनेरे।  अधिक  एक  तें  एक  बड़ेरे॥

जनम  हेतु  सब  कहँ  कितु  माता।  करम  सुभासुभ  देइ  बिधाता॥3॥

 

(और  कहा-)  सूर्यवंश  में  एक  से  एक  अधिक  बड़े  बहुत  से  राजा  हो  गए  हैं।  सभी  के  जन्म  के  कारण  पिता-माता  होते  हैं  और  शुभ-अशुभ  कर्मों  को  (कर्मों  का  फल)  विधाता  देते  हैं॥3॥

 कर्म एक यज्ञ हैं ऐसा समज कर कर्म करो।

नयन कमल से अश्रु ऐसे हि नहीं निकलते हैं।

विषम व्रत – तीक्ष्ण व्रत ५ हैं, भरत यह पांचो व्रत निभाता हैं। यह व्रत निम्न तरह हैं।

१ सत्य व्रत – सत्य आचार, सत्य विचार और सत्य आचरण विषम व्रत हैं।

२ मौन व्रत विषम व्रत हैं। मौन व्रत के आरंभमें बाहर का उहापोह - कोलाहल, अंदर का उहापोह और जब यह दोनो समाप्त हो जाता हैं तब उसे गुरुका आश्रय जरुरी हैं और अगर जब गुरु आश्रय न मिला तो व्यक्ति पागल हो शकता हैं। बच्चेका दिल न तोडनेके लिये अपना मौन व्रत तोड देना चाहिये। किसीकी हिंसा बंध करनेके लिये अपना मौन व्रत तोडना चाहिये। सप्ताहमेम एक दिन या किछ घंटे के लिये मौन रखना चाहिये। मौन दरम्यान मंत्र जाप करना चाहिये। मौन से मनकी प्रसन्नता बढती हैं।

३ अयाचक व्रत विषम व्रत हैं।

एक बुरो प्रेम को पंथ, बुरो जंगल में बासो

बुरो नारी से नेह बुरो, बुरो मूरख में हँसो

बुरो सूम की सेव, बुरो भगिनी घर भाई

बुरी नारी कुलक्ष, सास घर बुरो जमाई

बुरो ठनठन पाल है बुरो सुरन में हँसनों

कवि गंग कहे सुन शाह अकबर सबते बुरो माँगनो

 

बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय ।

सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ॥१॥

बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस ।

बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥२॥

प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।

संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥३॥

अघ - उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार ।

आकरषै सुख - संपदा - संतोष - बिचार ॥४॥

जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि ।

तुलसिदास प्रभुपथ चढ्यौ, जौ लेहु निबाहि ॥५॥

 

महान् वीर श्रीरघुनाथजीकी आराधना करनी चाहिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है । वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब जानते हैं ॥१॥

इस कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है । ( सदगुरुसे ) उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र ( राम ) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं ॥२॥

( मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है ) प्रेमरुपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरुपी समिधका क्षमारुपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये ॥३॥

पापोंका उच्चाटन, मनका वशीकरण, अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरुपी सुख - सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये ॥४॥

जिसने इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं । तुलसीदास भी इसी मार्गपर चढ़ा है, जिसे प्रभु निबाह लेंगे ॥५॥

 

४ ब्रह्मचर्य व्रत विषम व्रत हैं।

५ प्रेम व्रत विषम व्रत हैं।

यह सब व्रत निभानेके लिये ईश्वरसे कभी भी शिकायत नहीं करनी चाहिये। शिकयती चित आध्यात्ममें बाधक हैं।

यह सब व्रत निभानेके लिये कभी भी किसिसे दाद – प्रसंशा की अपेक्षा न रखना, विकृत बिद्धिसे कीसीसे वाद विवाद – दुर्वाद न करना, ईश्वरसे कभी भी कुछ मांग न करना चाहिये। हमे ईश्वरसे किछ मांगना नहीं हैं, सिर्फ उसे याद करना हैं।

 

फरियाद न कर आंसू न बहा

फरियाद न कर आंसू न बहा

इतनी बड़ी दुनिया में तेरी कौन सुनेगा

इतनी बड़ी दुनिया में तेरी कौन सुनेगा

कौन सुनेगा कौन सुनेगा

फरियाद न कर आंसू न बहा

फरियाद न कर आंसू न बहा

8

Saturday, 05/06/2021

राम प्रधान रुप में सत्य व्रती हैं,

परम तत्वको हम हमारी आंखो से मर्यादित रुपमें हि देख शकते हैं, परम तत्व हम जो देखते  हैं उससे बहुत अधिक हैं।

 

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥

राम मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥3॥

 

 

हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम॥3॥

योग का क्या अर्थ हैं? योग को जाननेके लिये योग पुरुषका संपर्क करना चाहिये।

साधकको अपनी भूल स्वीकार करनेकी तैयारी होनी चाहिये।

जीवनमें मार्ग दर्शककी बहुत आवश्यकता हैं। ऐसे ५ मार्ग दर्शक हैं, जो अपनी भूल कबुल करे उसे मार्गदर्शक बनाना चाहिये। अनुभवीको मार्ग दर्शक बनाना चाहिये। स्वाभाविक व्रतधारीको मार्गदर्शक बनाना चाहिये। जो अनुभवी हो उसको मार्गदर्शक बनाना चाहिये। जो जड नियमोमें आबद्ध न हो लेकिन शास्वत नियमोमें आबद्ध हो उसको मार्गदर्शक बनाना चाहिये। जो दूसरोका दिल तोडता हैं उसे मार्गदर्शक नहीं बनाना चाहिये।

परम मोका आने पर अपनेको संभाल लेगा और पामर समय आने पर टाना मारेंगे।

भगवान राम भी मार्ग दर्शक का सहारा लेते हैं, उनके मार्ग दर्शक केवट, भरद्वाज ऋषि, ५० शिष्य में ४ शिष्य, गुह हैं।

 

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।

प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।4।।

 

प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज ! जलकी चिकनाई ठहरती नहीं।।4।।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

 

चतुराई चूल्हे पड़ी, घूरे पड़ा अचार।

तुलसी राम भजन बिन, चारों बरन चमार।।

 

यदि आप बहुत चतुर और अच्छे आचरण के हैं किन्तु ईश्वर प्रेम नहीं किया तो सब व्यर्थ है। तुलसीदास कहते हैं कि

ऐसी चतुराई चूल्हे की आग में डालने और ऐसा आचारण कचरे के गड्डे में फेंकने योग्य है। अगर इंसान में ईश्वर/श्रीराम  के प्रति प्रेम/भक्ति नहीं है तो चारों वर्ण केवल चर्म से प्रेम करनेवाले चमार हैं।

सत्यका रंग श्वेत हैं, रंगातित हैं।

विनय, शील और करुणा यह तीन शील हैं।

 

बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥

सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥2॥

 

हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि धारण करने वाले! आपकी जय हो॥2॥

 

पाप  करत  निसि  बासर  जाहीं।  नहिं  पट  कटि  नहिं  पेट  अघाहीं॥

सपनेहुँ  धरमबुद्धि  कस  काऊ।  यह  रघुनंदन  दरस  प्रभाऊ॥3॥

 

हमारे  दिन-रात  पाप  करते  ही  बीतते  हैं।  तो  भी  न  तो  हमारी  कमर  में  कपड़ा  है  और  न  पेट  ही  भरते  हैं।  हममें  स्वप्न  में  भी  कभी  धर्मबुद्धि  कैसी?  यह  सब  तो  श्री  रघुनाथजी  के  दर्शन  का  प्रभाव  है॥3॥

भगवान तो हमें मिला हुआ हि हैं लेकिन हमें पहचाननेका बाकी हैं।

हमें कोई ऐसा साधुका मिलन चाहना चाहिये कि उसे भगवान प्रेम करता हैं।

राम महामंत्र हैं, अखिलब्र्ह्मांडीय मंत्र हैं।

 

राम  राम  कहि  राम  कहि  राम  राम  कहि  राम।

तनु  परिहरि  रघुबर  बिरहँ  राउ  गयउ  सुरधाम॥155॥

 

राम-राम  कहकर,  फिर  राम  कहकर,  फिर  राम-राम  कहकर  और  फिर  राम  कहकर  राजा  श्री  राम  के  विरह  में  शरीर  त्याग  कर  सुरलोक  को  सिधार  गए॥155॥

 

मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।

महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥

 

जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है॥256॥

मानसमें जो लघु हैं वह सब महान हैं।

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।

राम सत्य व्रत हैं,

रामका सत्य जीवका सत्य हैं और ईश्वरका सत्य हैं, जब कि कृष्ण का सत्य सिर्फ ईश्वर का सत्य हैं, ईसीलिये कृष्ण कभी कभी असत्यका सहारा लेता हैं। ईसीलिये कृष्ण कहता हैं  कि मैं ने मिट्टि नहीं खाई हैं। कृष्णा भोक्ता भी नहीं हैं और भोक्ता भी हैं।

 

एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥

निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥

एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया॥1॥

 

करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥

बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2॥

 

पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा॥2॥

भरत प्रेम व्रत और अयाचक व्रत हैं, शत्रुघ्न मौन व्रत हैं, लक्ष्मण ब्रह्मचर्य व्रत हैं।

भरत जो साधक हैं उस की अयोध्यासे चित्रकूटकी यात्रा दरम्यान ५ विघ्न आते हैं – पेदल चलनेका व्रत छोडना पडा हैं, अपना व्रत दूसरों को बताना नहीं चाहिये, साधको अपनी साधना छुपानी चाहिये, गुहराज की गेर समज दूसरा विघ्न हैं, भरद्वाज ऋषिकी परीक्षा करना तीसरा विघ्न हैं, देवता भी भरतकी यात्रामें विघ्न करते हैं, यह चौथा विघ्न हैं, पांचवा विघ्न लक्ष्मणका विरोध करना हैं।

 

सनमानि  सुर  मुनि  बंदि  बैठे  उतर  दिसि  देखत  भए।

नभ  धूरि  खग  मृग  भूरि  भागे  बिकल  प्रभु  आश्रम  गए॥

तुलसी  उठे  अवलोकि  कारनु  काह  चित  सचकित  रहे।

सब  समाचार  किरात  कोलन्हि  आइ  तेहि  अवसर  कहे॥

 

देवताओं  का  सम्मान  (पूजन)  और  मुनियों  की  वंदना  करके  श्री  रामचंद्रजी  बैठ  गए  और  उत्तर  दिशा  की  ओर  देखने  लगे।  आकाश  में  धूल  छा  रही  है,  बहुत  से  पक्षी  और  पशु  व्याकुल  होकर  भागे  हुए  प्रभु  के  आश्रम  को  आ  रहे  हैं।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  प्रभु  श्री  रामचंद्रजी  यह  देखकर  उठे  और  सोचने  लगे  कि  क्या  कारण  है?  वे  चित्त  में  आश्चर्ययुक्त  हो  गए।  उसी  समय  कोल-भीलों  ने  आकर  सब  समाचार  कहे। 

 

सुनत  सुमंगल  बैन  मन  प्रमोद  तन  पुलक  भर।

सरद  सरोरुह  नैन  तुलसी  भरे  सनेह  जल॥226॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  सुंदर  मंगल  वचन  सुनते  ही  श्री  रामचंद्रजी  के  मन  में  बड़ा  आनंद  हुआ।  शरीर  में  पुलकावली  छा  गई  और  शरद्  ऋतु  के  कमल  के  समान  नेत्र  प्रेमाश्रुओं  से  भर  गए॥226॥

 

बहुरि  सोचबस  भे  सियरवनू।  कारन  कवन  भरत  आगवनू॥

एक  आइ  अस  कहा  बहोरी।  सेन  संग  चतुरंग  न  थोरी॥1॥

 

सीतापति  श्री  रामचंद्रजी  पुनः  सोच  के  वश  हो  गए  कि  भरत  के  आने  का  क्या  कारण  है?  फिर  एक  ने  आकर  ऐसा  कहा  कि  उनके  साथ  में  बड़ी  भारी  चतुरंगिणी  सेना  भी  है॥1॥

 

मसक  फूँक  मकु  मेरु  उड़ाई।  होइ  न  नृपमदु  भरतहि  भाई॥

लखन  तुम्हार  सपथ  पितु  आना।  सुचि  सुबंधु  नहिं  भरत  समाना॥2॥

 

मच्छर  की  फूँक  से  चाहे  सुमेरु  उड़  जाए,  परन्तु  हे  भाई!  भरत  को  राजमद  कभी  नहीं  हो  सकता।  हे  लक्ष्मण!  मैं  तुम्हारी  शपथ  और  पिताजी  की  सौगंध  खाकर  कहता  हूँ,  भरत  के  समान  पवित्र  और  उत्तम  भाई  संसार  में  नहीं  है॥2॥

 

सगुनु  खीरु  अवगुन  जलु  ताता।  मिलइ  रचइ  परपंचु  बिधाता॥

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा।  जनमि  कीन्ह  गुन  दोष  बिभागा॥3॥

 

हे  तात!  गुरु  रूपी  दूध  और  अवगुण  रूपी  जल  को  मिलाकर  विधाता  इस  दृश्य  प्रपंच  (जगत्‌)  को  रचता  है,  परन्तु  भरत  ने  सूर्यवंश  रूपी  तालाब  में  हंस  रूप  जन्म  लेकर  गुण  और  दोष  का  विभाग  कर  दिया  (दोनों  को  अलग-अलग  कर  दिया)॥3॥

  

 9

Sunday, 06/06/2021

शरीरके सभी अंगोकी महत्ता हैं, लेकिन उसमें मुख/मस्तक की विशेष महत्ता हैं। उसमें भी मस्तकके अनेक अंगोमें से आंख सबसे महत्वकी हैं।

हरि तजि और भजिये काहि ?

नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥१॥

कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात ।

सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥२॥

संभु - सेवक जान जग , बहु बार दिये दस सीस ।

करत रम - बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥३॥

और देवनकी कहा कहौं , स्वारथहिके मीत ।

कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥४॥

को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति ।

दासतुलसी दीनपर एक राम ही कि प्रीति ॥५॥

 

भगवान् श्रीहरिको छोड़कर और किसका भजन करें ? श्रीरघुनाथजीके समान ऐसा कोई भी नहीं है जिसकी दीन शरणागतोंपर ममता हो ॥१॥

( प्रमाण सुनिये ) हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीका कर्म , मन और वचनसे भक्त था , किन्तु ब्रह्माने ( उसके कालको जानते हुए भी ) उसे पुत्र ( प्रह्लाद ) को ताड़ना देते समय नहीं रोका ( और फलस्वरुप ) वह यमलोक चला गया । ( यदि वे पहलेसे उसे रोक देते तो बेचारा क्यों मरता ? ) ॥२॥

संसार जानता है कि रावण शिवजीका भक्त था और उसने कई बार अपने सिर काट - काटकर शिवजीको अर्पित किये थे , किन्तु जब वह श्रीरघुनाथजीके साथ वैर करने लगा तब आपने उसे स्वप्नमें भी न रोका ( यह जानते थे कि श्रीरामजीके साथ वैर करनेसे यह मारा जायगा ) ॥३॥

जब ब्रह्माजी और शिवजीका यह हाल है तब ) और देवताओंकी तो बात ही क्या कही जाय ? वे तो स्वार्थके मित्र हैं ही । उनमें से किसीने भी कभी भयभीत शरणागतकी रक्षा नहीं की ॥४॥

सेवा करनेसे कौन धन नहीं देता है ? ( सभी देते हैं । ) यह तो दुनियाकी चाल ही है । किन्तु हे तुलसीदास ! दीनोंपर तो एक श्रीरघुनाथजीका ही स्नेह है । ( वे बिना ही सेवा किये केवल शरण होते ही अपना लेते हैं , देवताओंकी भाँति सर्वांगपूर्ण अनुष्ठानकी अपेक्षा नहीं करते ) ॥५॥

 

आध्यात्म गजतमें आंखोका बहुत महत्व हैं।

प्रज्ञा चक्षु सुर जैसी आंखो हि कृष्णको देख पाती हैं, पहचान शकती हैं।

आंखमें पलके, गोलक, काली बिंदी वगेरे हैं।

अपनी जनेताकी, कोई बुद्ध पुरुष की आंखोका विशेष महत्व हैं।

मानस आंख हैं।

 

जोगवहिं  प्रभुसिय  लखनहि  कैसें।  पलक  बिलोचन  गोलक  जैसें॥

सेवहिं  लखनु  सीय  रघुबीरहि।  जिमि  अबिबेकी  पुरुष  सरीरहि॥1॥

 

प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  की  कैसी  सँभाल  रखते  हैं,  जैसे  पलकें  नेत्रों  के  गोलकों  की।  इधर  लक्ष्मणजी  श्री  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  की  (अथवा  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  श्री  रामचन्द्रजी  की)  ऐसी  सेवा  करते  हैं,  जैसे  अज्ञानी  मनुष्य  शरीर  की  करते  हैं॥1॥

राम सीता पलके हैं, लक्ष्मण गोलक हैं, भरत अश्रु हैं। शत्रुघ्न जन्म जन्म की प्यास हैं।

भजनमें निरंतर रत रहता हैं वह भरत हैं, यह रतता तैल धारावत हैं जो अखंड रहती हैं, जो छन छन नव अनुराग हैं।

 

गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।

रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।।110क।।

 

गुरुजीके वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्रीरामजीके चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्रीरघुनाथजीका यश गाता फिरता था।।110(क)।।

 

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहिं काजु न दूजा।।

परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक।।2।।

 

एक ब्राह्मण देवविधिसे सदा शिवजीकी पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थके ज्ञाता थे। वे शम्भुके उपासक थे, पर श्रीहरिकी निन्दा करनेवाले न थे।।2।।

 

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥

साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥

 

ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥

सत सृष्टि तांडव रचयिता

नटराज राज नमो नमः ।

हे आद्य गुरु शंकर पिता

नटराज राज नमो नमः ॥

गंभीर नाद मृदंगना

धबके उरे ब्रह्माडना ।

नित होत नाद प्रचंडना

नटराज राज नमो नमः ॥

शिर ज्ञान गंगा चंद्रमा

चिद्ब्रह्म ज्योति ललाट मां ।

विषनाग माला कंठ मां

नटराज राज नमो नमः ॥

तवशक्ति वामांगे स्थिता

हे चंद्रिका अपराजिता ।

चहु वेद गाए संहिता

नटराज राज नमोः ॥

 

यस्यांके  च  विभाति  भूधरसुता  देवापगा  मस्तके

भाले  बालविधुर्गले  च  गरलं  यस्योरसि  व्यालराट्।

सोऽयं  भूतिविभूषणः  सुरवरः  सर्वाधिपः  सर्वदा

शर्वः  सर्वगतः  शिवः  शशिनिभः  श्री  शंकरः  पातु  माम्‌॥1॥

 

जिनकी  गोद  में  हिमाचलसुता  पार्वतीजी,  मस्तक  पर  गंगाजी,  ललाट  पर  द्वितीया  का  चन्द्रमा,  कंठ  में  हलाहल  विष  और  वक्षःस्थल  पर  सर्पराज  शेषजी  सुशोभित  हैं,  वे  भस्म  से  विभूषित,  देवताओं  में  श्रेष्ठ,  सर्वेश्वर,  संहारकर्ता  (या  भक्तों  के  पापनाशक),  सर्वव्यापक,  कल्याण  रूप,  चन्द्रमा  के  समान  शुभ्रवर्ण  श्री  शंकरजी  सदा  मेरी  रक्षा  करें॥1॥

राम कथा महा रास हैं।

अंगद राजदूत हैं, हनुमानजी राजदूत हैं।

 

रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।

कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।1।।

 

प्राणों की आधाररूप अवधि का एक दिन शेष रह गया! यह सोचते ही भरत जी के मनमें अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आये ? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया ?।।1।।

 

 

अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।

कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।

 

अहा ! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं; जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया!।।2।।

 

हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥

श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥4॥

 

श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया॥4॥

 

लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।

हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।1।।

 

लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान् जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरोंने मनुष्योंके मनोहर शरीर धारण कर लिये।।1।।

 

अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।

कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।

 

उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गये और सबसे [एक ही साथ] यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियों को शोकसे रहित कर दिया।।3।।

 

भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।

रामहि मिलत कैकई हृदय बहुत सकुचानि।।6क।।

 

सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजीकी श्रीरामजीके चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्रीरामजीसे मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचायीं।।6(क)।।

 

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।

सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।3।।

 

[सबसे] पहले मुनि वसिष्ठजीने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को [तिलक करनेकी] आज्ञा दी। पुत्रको राजसिंहासनपर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी।।3।।

 

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहिं जनं।।

अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।

 

हे राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी ! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।

 

दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।

रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।

 

हे दस सिर और बीस भुजाओंवाले रावणका विनाश करके पृथ्वीके सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीरामजी ! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपको बाणरूपी अग्नि के प्रचण्ड तेजसे भस्म हो गये।।2।।

 

महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।

मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।

 

आप पृथ्वी मण्डल के अत्यन्त आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुश और तरकस धारण किये हुए हैं। महान् मद मोह और ममतारूपी रात्रिके अन्धकार समूहके नाश करनेके लिये आप सूर्य तेजोमय किरणसमूह हैं।।3।।

 

मनजात किरात निपातकिए। मृग लोक कुभोग सरेन हिए।।

हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।

 

कामदेवरूपी भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ ! हे [पाप-तापका हरण करनेवाले] हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये।।4।।

 

बहुरोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंध्रि निरादर के फल ए।।

भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।

 

लोग बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे अथाह भव सागर में पड़े रहते हैं।।5।।

 

अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं।।

अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।

 

जिन्हें आपके चरणकमलोंमें प्रीति नहीं है, वे नित्य ही अत्यन्त दीन, मलीन (उदास) और दुखी रहते हैं। और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं।।6।।

 

नहिं राग न लोभ न मान मदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिषदा।।

एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।

 

उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ; न मन है, न मद। उनको सम्पत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) समान है। इसीसे मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिये त्याग देते है और प्रसन्नताके साथ आपके सेवक बन जाते हैं।।7।।

 

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।

सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।

 

वे प्रेम पूर्वक नियम लेकर निरन्तर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। और निरादर और आदरको समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वीपर विचरते हैं।।8।।

 

मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।

तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।

 

हे मुनियों के मनरूपी कमलके भ्रमर ! हे रघुबीर महान् रणधीर एवं अजेय श्रीरघुवीर ! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)। हे हरि ! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरणरूपी रोग की महान औषध और अभिमान के शत्रु हैं।।9।।

 

गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।

रघुनंद निकंदय द्वंद्वधनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।

 

आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान है। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन ! [आप जन्म-मरण सुख-दुःख राग-द्वेषादि] द्वन्द्व समूहोंका नाश कीजिये। हे पृथ्वीकी पालना करनेवाले राजन् ! इस दीन जनकी ओर भी दृष्टि डालिये।।10।।

 

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।

 

मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति और आपके भक्तोंका सत्संग सदा प्रात हो। हे लक्ष्मीपते ! हर्षित होकर मुझे यही दीजिये।

 

बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।

तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14ख।।

 

श्रीरामचन्द्रजीके गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलासको चले गये, तब प्रभुने वानरोंको सब प्रकाश से सुख देनेवाले डेरे दिलवाये।।14(ख)।।

 

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।

उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस।।129।।

 

हे विश्वनाथ ! आपकी कृपासे अब मैं कृतार्थ हो गयी। मुझमें दृढ़ रामभक्ति उत्पन्न हो गयी और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गये (नष्ट हो गये)।।129।।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

 

जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।

ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।

 

पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे मन ! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज। श्रीरामजीको भजने से किसने परम गति नहीं पायी ?।।4।।

 

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

 

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

 

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।।

कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।

सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।

दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।

 

जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुगके पाप और मन के मलको धोकर बिना ही परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं। [अधिक क्या] जो मनुष्य पाँच-सात चौपाईयों को भी मनोहर जानकर [अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको] हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्रीरामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयोंको भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी हर लेते हैं)।।2।।

 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

 

भरत कथा गानसे दुःख, सबसे बडा दुःख दरिद्रता हैं, विचारका दारिद्रता, मानसिक दारिद्रता, वचन – वाणीका दारिद्रता, प्रमाद, दंभ, दुषण – राग और द्वेष दुषण हैं, वियोगका दाह वगेरे नाश पामते हैं।

 

यहां जो पांच वृक्ष बोये हैं उससे कुछ न कुछ ले कर जाये, जांबुका पेड से विवेक, बट से विश्वास, पाकरी से जप यज्ञ

आम के पेडसे भरत चरित्रका रस, तमाल से तमाल वर्ण की छबी – श्याम वर्ण की छबी ले कर अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे।