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Saturday, January 23, 2021

मानस निर्वाण, માનસ નિર્વાણ, 854

 

રામ ક્થા

કથા ક્રમાંક - 854

मानस निर्वाण

કુશીનગર, ઉત્તર પ્રદેશ

શનિવાર, તારીખ ૨૩/-૧/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૦૧/૦૨/૨૦૨૧

મુખ્ય પંક્તિઓ – છંદ

निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी

निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ।।

 

 

 

 

શનિવાર, ૨૩/૦૧/૨૦૨૧

 

निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं

श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं

निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी

निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी

 

(वह मन ही मन सोचने लगा-) अपने परम प्रियतम को देखकर नेत्रों को सफल करके सुख पाऊँगाजानकीजी सहित और छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत कृपानिधान श्री रामजी के चरणों में मन लगाऊँगाजिनका क्रोध भी मोक्ष देने वाला है और जिनकी भक्ति उन अवश (किसी के वश में होने वाले, स्वतंत्र भगवान) को भी वश में करने वाली है, अब वे ही आनंद के समुद्र श्री हरि अपने हाथों से बाण सन्धानकर मेरा वध करेंगे

 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ।।

 

(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्र जी ही हैंइनके समान निष्काम (निः स्वार्थ) हित करने वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन हैं ?

कुशीनगर भगवान तथागत की निर्वाण भूमि हैं।

मानस में ५ बार निर्बान शब्द आया हैं।

मानस निरबान शब्द १ बार आया हैं।

मानस में निर्वाण शब्द २ बार आया हैं।

 

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

 

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

 

हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।

 

 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

 

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।

यह चार अवतार - परशुराम, राम, कृष्ण और भगवान तथागत हथियार त्यज देते हैं।

राम ने किसी की हत्या नहीं की हैं, सबका निर्वाण किया हैं, नव निर्माण किया हैं।

मोक्ष और निर्वाण में क्या फर्क हैं?

मोक्ष का अर्थ यह हैं कि मोक्ष के बाद कुछ बाकी नहीं रहता हैं, निर्वाण का मतलब यह हैं कि उसमें वापिस आनेकी संभावना हैं।

शबरी का मोक्ष हुआ हैं।

भगवान तथागत का निर्वाण हुआ हैं उसका मतलब हैं वह जब आवश्यकता उपस्थित होगी तब तथागत अवतार धारण कर शकते हैं।

 

ભુતળ ભક્તિ પદારથ મોટુ, બ્રહ્મ લોકમાં નાહીં રે,

પુણ્ય કરી અમરાપુરી પામ્યા, અંતે ચોરાશી માંહી રે.

હરિના જન તો મુક્તિ માગે, જનમો જનમ અવતાર રે,

નિત સેવા નિત કિર્તન ઓચ્છવ, નિરખવા નંદકુમાર રે

 

सत्य का कोई विकल्प नहीं हैं।

सावित्री मा सत्य का पर्याय हैं ऐसा कहती हैं।

सत्यम परम धीमहि में सत्य का कोई सापेक्ष नहीं हैं।

सत्य का पर्याय साधुता हैं।

साधुता में फकिरी होती हैं और कृष्ण प्रेम का रस भी हैं।

सत्य सर्जन, पालन, पोषण और निर्वाण करता हैं।

राम सत्य हैं, राम पालक हैं और राम आसुरी तत्व को नवनिर्माण भी करते हैं।

यह कथा में मुख्य पंक्ति छंद में हैं।

राम चरित मानस सुनने में परम सुखद हैं, विश्रामदायक हैं, मंगलकरनी - हमारा मंगल करती हैं,

सदग्रंथो का भी परम तत्व की तरह अवतार होता हैं।

सुख और दुःख का कारण हमारा स्वभाव हैं।

 

 2

Sunday, 24/01/2021

मानस में कुल मिलाकर ८ बार निर्वाण, निर्बान, निरबान शब्द आना ८ प्रकार के निर्वाण की और संकेत हैं।

यंत्र, मंत्र, किसी उपर कुछ बोध लादना – कुछ सूत्र डालना हिंसा हैं, आध्यात्मिक प्रदूषण हैं।

किसी भी बोध य सूत्र को अपने अनुभव में लगाकरके, अपनी तराजुमें तोल कर के बाद हि अपनाना चाहिये और ऐसा सूत्र – बोध अपनानेसे वह अपनी संपत्ति हो जाती हैं। ईसीलिये सिर्फ श्रवण हि पर्याप्त हैं, श्रवण मंगलकारी हैं, श्रवण महिमावंत हैं।

साधु के होठोसे साधुता बोलती हैं।

जहां फायदा हैं वहां नुकशान भी हैं, लाभ नुकशान सापेक्ष हैं, जुडा हुआ हैं।

आध्यात्म में अगर फायदा देखेगो तो नुकशान भी हैं।

किसी के बचन में भरोंसा रखो।

 

 

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।

यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

 

समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन।

पाठ करनेसे ज्यादा फायदा श्रवण करनेसे होता हैं।

वक्ता का कथा गाना वक्ता के कलेजा से बोला गया -ह्मदयसे बोला गया वकतव्य हैं, ईसीलिये श्रवण ज्यादा लाभदायक हैं।

 

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

 

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा॥6॥

कथा गान कैलाससे आया हुआ प्रेम पत्र हैं, शुभ समाचार हैं।

निर्वाण का एक अर्थ निर्विचार हैं। निर्वांण बिना क्रिया किये हुए प्राप्त हुआ विचार हैं।

बुद्ध पुरुष के पास बैठनेसे हि हमारे विचार समाप्त हो जाते हैं, हम निर्विचार हो जाते हैं।

मुक्ति के चार प्रकार हैं, सायुज्य मुक्ति, सालोक्य मुक्ति, सारुप मुक्ति और सामिप्य मुक्ति हैं।

मुक्ति कर्म के बन्धन से मोक्ष पाने की स्थिति है। यह स्थिति जीवन में ही प्राप्त हो सकती है। मुक्ति निम्न चार प्रकार की होती हैं:

सालोक्य - जीव भगवान के साथ उनके लोक में ही वास करता हैं।

सामीप्य- जीव भगवान के सन्निध्य में रहते कामनाएं भोगता हैं।

सारूप्य - जीव भगवान के साम्य (जैसे चतुर्भुज) रूप लिए इच्छाएं अनुभूत करता हैं।

सायुज्य - भक्त भगवान मे लीन होकर आनंद की अनुभूति करता हैं।

बुद्ध पुरुष के पास बैठना सालोक्य मुक्ति है।

बुद्ध पुरुष के निजी सेवा में लग जाना सामिप्य मुक्ति हैं।

शिष्य में गुरु का उतरना सारुप्य मुक्ति हैं। समय बितने पर क्रमशः शिष्य गुरु का रुप धारण करता हैं।

निर्वाण के आठ प्रकार हैं।

निर्विचारता एक निर्वाण हि हैं, अखंड निर्विचारता महानिर्वाण हैं।

व्यासपीठ एक ग्रंथ हैं।

 

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।

सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥

 

जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई॥4॥

बालकांड का यह प्रसंग निर्वाण का एक प्रसंग हैं।

 

परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

 

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

कौरवके किये गये पाप का परिणाम भीष्म दादा भोग रहे हैं, जो जो बान लगे हैं वह एक एक पाप जो कौरवोने किया हैं उसका परिणाम हैं।

हरेक घर में भी एक भीष्म पितामह होता हैं जो अपने परिवार के लिये पिडा सहन करता हैं।

आध्यात्म जगत में हरेक बुद्ध पुरुष भीष्म पितामह हैं जो अपने आश्रित के लिये पिडा सहन करता हैं। हमें ऐसे भीष्म को खोजना चाहिये।

सायुज्य मुक्ति में आश्रित को अपने बुद्ध पुरुष जब तक जीवित हैं तब तक जीवित रहना हैं और बुद्ध पुरुष के जाने के बाद जीना भी क्या जीना हैं।

निर्विचार भूमि से जो विचार प्रगट होता हैं वह विचार कलेजा का विचार हैं, और ऐसा विचार कोई ग्रंथ में लिखा हुआ नहीं मिलता हैं।

निर्वाणा एक अर्थ समाधि हैं। समाधि से गंध आती हैं, कोई आवाज भी आती हैं, ऐसा होना निर्वाण का सक्रिय होना हैं।

आश्रय का एक मतलब हैं हमारा दाता जो कहे ऐसा हि करना, ऐसा करने में कोइ विचार नहीं करना हैं।

समाधि का स्वप्न में आना एक निर्वाण हैं, जहां मौन बोलता हैं।

रस जगत में जब कोई कृष्ण प्रेम रस में डूबता हैं तब भी उसका सूर बदलता नहीं हैं।

गोपी जन जब रोते हैं तब भी सूर में रोते हैं। यह रसमय जागता हुआ निर्वाण हैं।

कभी भी अवस्था में - स्वप्नमे या जागृत अवस्था में किसी के प्रति राग द्वैष पेदा न हो वह भी चलता फिरता निर्वाण हैं।

काम, क्रोध, लोभ सम्यक अवस्था में जरुरी हैं, लेकिन ईर्षा, नींदा और द्वेष की कोई आवश्यकता नहीं हैं।

प्रेम रस में बेहोश नहीं बाहोश होकर रस पीना भी एक निर्वाण हैं।

 

ભુતળ ભક્તિ પદારથ મોટુ, બ્રહ્મ લોકમાં નાહીં રે,

પુણ્ય કરી અમરાપુરી પામ્યા, અંતે ચોરાશી માંહી રે

હરિના જન તો મુક્તિ માગે, જનમો જનમ અવતાર રે,

નિત સેવા નિત કિર્તન ઓચ્છવ, નિરખવા નંદકુમાર રે

 

રામ ચરિત માનસ, આપણી પોથી પણ એક નિર્વાણ છે. આવું નિર્વાણ આપણા હાથમાં છે.

આપણી માળા આપણું નિર્વાણ છે.

अपना गुरु साक्षात अपना निर्वाण हैं।

 

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥

 

वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

 

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Monday, 25/01/2021

निर्वाण बहुत गहन विषय हैं।

सात नगरीमें, मो रहनेसे मोक्ष मिलता हैं।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥

 

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, काञ्चीपुरम, अवन्तिका (उज्जैन), द्वारिकापुरी, ये सात मोक्षदायी (पुरियाँ) हैं। यह सात नगरी मोक्षगायीनी हैं, मोक्ष के लिये भूमि हैं।

निर्वाण के लिये भूमिका की आवश्यकता हैं। हमें भूमि से भूमिका की खोज करनी हैं।

जहां कोई युद्ध नहीं वहीं अयोध्या हैं।

जब साधक की जीवनी – अवस्था- संघर्ष मुक्त हो जाय वहीं निर्वाण हैं।

मथुरा वह हैं जहां यमुना बहना हो जाय, प्रेम – भक्ति का प्रवाह बहने लगे वह भूमिका मथुरा हैं। ऐसी भूमिका किसी के ह्मदय में बहने लगे तब वह मथुरा हैं, निर्वाण की भूमिका हैं।

 

મારા ઘટમાં બિરાજતા શ્રીનાથજી યમુનાજી મહાપ્રભુજી

મારુ મનડું છે ગોકુલ વનરાવન

મારા તનના આંગિણયાંમાં તુલસીના વન

હે મારા પ્રાણ જીવન.

 

જ્યારે ઘટમાં પ્રેમ ધારા અખંડ વહે જેને પ્રવાહ કહેવાય છે તે નિર્વાણ ની ભૂમિકા છે.

काशी मोक्ष दायीका हैं।

कांचीपुरम ज्ञान की भूमिका हैं जो निर्वाण दायक हैं।

द्वारका में निर्वाण का द्वार हैं।

शंकराचार्य भगवानने निर्वाण अष्टक लिखा हैं।

 

पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।

सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।4।।

 

जगत् में पुण्य एक ही है, [उसके समान] दूसरा नहीं। वह है-मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणोंकी पूजा करना। जो कपटका त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं।।4।।

पून्य भी सोने की जंजीर हैं, बंधन हैं। पून्य भी छूट जाना चाहिये।

 

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।14.24।।

।।14.24।।जो धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम तथा अपने स्वरूपमें स्थित रहता है; जो मिट्टीके ढेले, पत्थर और सोनेमें सम रहता है जो प्रिय-अप्रियमें तथा अपनी निन्दा-स्तुतिमें सम रहता है; जो मान-अपमानमें तथा मित्र-शत्रुके पक्षमें सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।

संत समागम बहुत दूर्लभ हैं।

महादेव सबसे बडे देव हैं लेकिन महादेव अपनेआप को बडा नहीं समजते हैं।

 

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।

 

मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति और आपके भक्तोंका सत्संग सदा प्रात हो। हे लक्ष्मीपते ! हर्षित होकर मुझे यही दीजिये।

हम सम्राट के संतान हैं ईसीलिये हमें किसीसे कुछ नहीं मागना चाहिये।

अगर हमें मागना हैं तो ऐसा मागो कि जिससे तुं प्रेम करता हैं ऐस्से साधुका संग करादे एसा मागना चाहिये।

 

નંદબાવા ને માતા યશોદાજી સાંભળે  (2)

મમતા ની મૂર્તિ મારી રહી ગઈ ગોકુળ માં  / (2)

સોના રૂપા ના અહીં વાસણ મજાનાં  (2)

કાંસા ની થાળી મારી રહી ગઈ ગોકુળ માં

છપ્પન ભોગ અહીં સ્વાદ ના ભરેલા  (2)

માખણ ને મીસરી મારી રહી ગઈ ગોકુળ માં

હીરામોતી ના હાર મજા ના  (2)

મોરપીંછ પાઘ મારી રહી ગઈ ગોકુળ માં

હાથી ને ઘોડા અહીં ઝૂલે મજા ના  (2)

ગોરીગોરી ગાવડી મારી રહી ગઈ ગોકુળ માં

સારંગી ના સુર ગુંજે મજા ના  (2)

વાહલી મારી વાંસળી રહી ગઈ ગોકુળ માં

રાઘાજી ને એટલું કહજો ઓધવજી  (2)

અમી ભરી આખડી રહી ગઈ ગોકુળ માં

 

बुद्ध पुरुष का संग निर्वाणदायक हैं।

सूरज को सत्य प्रगट करता हैं। सूरज हिरण्यगर्भ सत्य हैं। सत्य हि सूरजको अस्त करता हैं।

सूरज को साधुता प्रगट करता हैं एसा सावित्री कहती हैं।

धर्म का एक अर्थ नियम हैं।

कभी भी साधु का अपमान, उपेक्षा नहीं करनी चाहिये।

 

तब  किछु  कीन्ह  राम  रुख  जानी।  अब  कुचालि  करि  होइहि  हानी।

सुनु  सुरेस  रघुनाथ  सुभाऊ।  निज  अपराध  रिसाहिं  न  काऊ॥2॥

 

उस  समय  (पिछली  बार)  तो  श्री  रामचंद्रजी  का  रुख  जानकर  कुछ  किया  था,  परन्तु  इस  समय  कुचाल  करने  से  हानि  ही  होगी।  हे  देवराज!  श्री  रघुनाथजी  का  स्वभाव  सुनो,  वे  अपने  प्रति  किए  हुए  अपराध  से  कभी  रुष्ट  नहीं  होते॥2॥

 

जो  अपराधु  भगत  कर  करई।  राम  रोष  पावक  सो  जरई॥

लोकहुँ  बेद  बिदित  इतिहासा।  यह  महिमा  जानहिं  दुरबासा॥3॥

 

पर  जो  कोई  उनके  भक्त  का  अपराध  करता  है,  वह  श्री  राम  की  क्रोधाग्नि  में  जल  जाता  है।  लोक  और  वेद  दोनों  में  इतिहास  (कथा)  प्रसिद्ध  है।  इस  महिमा  को  दुर्वासाजी  जानते  हैं॥3॥

कृष्ण को व्रज निरंतर याद आता हैं।

निर्वाण के सगोत्री शब्द विष्णु, कल्याण, स्वर्ग लोक, रुग्वेद की एक शाखा जो निर्वाण उपनिषद हैं, अर्जुन ने कर्ण उपर छोडा हुआ बाण, अस्त होना – बुज जाना, आयुष्य की समाप्ति, कादव किचड, निवृति, भव बंधन से छुटकारा, मृत्यु, आखरी समय, मोक्ष, अंतिम शांति वगेरे हैं।

मंत्र, माला और गुरु को कभी भी बदलना नहीं चाहिये।

राम चरित मानसमें निर्बान, निरबान और निर्वाण शब्द आये हैं ऐसी पंक्तियां नीचे मुजब हैं।

1

अरथ  न  धरम  न  काम  रुचि  गति  न  चहउँ  निरबान

जनम-जनम  रति  राम  पद  यह  बरदानु  न  आन॥204॥

 

मुझे  न  अर्थ  की  रुचि  (इच्छा)  है,  न  धर्म  की,  न  काम  की  और  न  मैं  मोक्ष  ही  चाहता  हूँ।  जन्म-जन्म  में  मेरा  श्री  रामजी  के  चरणों  में  प्रेम  हो,  बस,  यही  वरदान  माँगता  हूँ,  दूसरा  कुछ  नहीं॥204॥

2

राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान

करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥20 क॥

 

सब ('यही राम है, इसे मारो' इस प्रकार) राम-राम कहकर शरीर छोड़ते हैं और निर्वाण (मोक्ष) पद पाते हैं। कृपानिधान श्री रामजी ने यह उपाय करके क्षण भर में शत्रुओं को मार डाला॥20 (क)॥

3

निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।

निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥

4

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।।

ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।।78क।।

 

श्रीरामचन्द्रजी के भजन बिना जो मोक्षपद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान् होनेपर भी बिना पूँछ और सींग का पशु है।।78(क)।।

5

राम चरन रति जो चहि अथवा पद निर्बान

भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।।128।।

 

जो श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम चाहता हो या मोक्ष पद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृतको प्रेमपूर्वक अपने कानरूपी दोनेसे पिये।।128।।

6

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ?

7

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

 

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

8

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

 

हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।

 

 

4

Tuesday, 26/01/2021

निर्वाण उपनिषद में निर्वाण के बारे में माहिति उपलब्ध हैं। निर्वाण रुप और निर्वाण दाता के बारे में लिखा गया हैं।

विद्वान और पंडित अनुवाद करते हैं जब कि साधु अनुनाद – अनुघोष करता हैं।

 

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता ।

मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् ।

आविराविर्म एधि ।

वेदस्य म आणीस्थः ।

श्रुतं मे मा प्रहासीः

अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि ।

 

1: Om, Let My Speech be Established in My Mind,

2: Let My Mind be Established in My Speech,

3: Let the Knowledge of the Self-Manifest Atman Grow in Me,

4: Let My Mind and Speech be the Support to Experience the Knowledge of the Vedas,

5: Let what is Heard by Me (from the Vedas) be Not a mere Appearance ...

6: ... but what is Gained by Studying Day and Night be Retained.

 

ऋतं वदिष्यामि ।

सत्यं वदिष्यामि ।

तन्मामवतु ।

तद्वक्तारमवतु ।

अवतु माम् ।

अवतु वक्तारामवतु वक्तारम् ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

7: I Speak about the Divine Truth,

8: I Speak about the Absolute Truth,

9: May That Protect Me,

10: May That Protect the Preceptor,

11: May that Protect Me,

12: May that Protect the Preceptor, May that Protect the Preceptor,

13: Om Peace, Peace, Peace.

यह निर्वाण उपनिषद का आरंभ का श्लोक हैं।

मेरी वाणी मेरे मनमें प्रतिष्ठित हो। मैं जो बोलु वह मेरे मनमें हो और जो मेरे मनमें हो वहीं मैं बोलु, मन और गीरा भीन्न न हो, एकरूप हो। मेरी वाणी मेरे मनमें और और मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो। अनुवाद अलग अलग हो शक्ते हैं लेकिन अनुनाद एक हि होता हैं।

महादेव निर्वाण दाता हैं,

जिसमें निर्वाण दाता जैसे लक्षण हो उसके पास कुछ क्षण के लिये बैठो।

निर्वाण आकाश हैं ऐसा भगवान बुद्ध कहते हैं।

निर्वाण दाता के लक्षण

      गगन सिद्धांत – जिस बुद्ध पुरुष के लक्षण के आगे आकाश भी छोटा बन जाय। बुद्ध पुरुष के सिद्धांत में कोई वाडा बंधी नहीं होती हैं, कोई भी पक्षी आकाश की तरह विहार कर शकता हैं।

प्यासा हैं उसे पानी दे दो, कैसे पानी पीना हैं वह मत शीखाओ, वह अपनेआप पानी पी लेगा।

बुद्ध कहते हैं मैं मोक्षदाता नहीं हुं, मैं मार्ग दाता हुं।

बुद्ध पुरुष की हर क्रियामें अमृत वर्षा होती रहती हैं।

जुगनोकी सभा सूरज को निकाल देनेका निर्णय करते हैं।

निर्वाण दाता की पीठ निरालंब पीठ होती हैं।

असली दिवाना समजदारी से समाजसे अलग हो जाता हैं।

 

સમજદારીથી અળગા થઈ જવાનાં સૌ બહાનાં છે,

મને શંકા પડે છે કે દીવાના શું દીવાના છે?

ખુદા! અસ્તિત્વને સંભાળજે કે લોક દુનિયાના,

કયામતમાં તારી રૂબરૂ ભેગા થવાના છે

ગમે ના સૌ કવન તો માફ કરજો એક બાબત પર,

ખુદા જેવા ખુદાનાં ક્યાં બધાં સર્જન મજાનાં છે?

રાજા દેતો નથી પાપીઓને એટલા માટે,

મરીને જગતમાંથી બીજે ક્યાં જવાના છે?

ચલો રીતે તો કચરો થશે ઓછો ધરતીનો,

સુણ્યું છે ધનપતિઓ ચંદ્ર પર રહેવા જવાના છે?

તમે પણ દુશ્મનો ચાલો મારા સ્નેહીઓ સાથે,

કબ્રસ્તાનથી આગળ મને ક્યાં લઈ જવાના છે?

રહે છે આમ તો શયતાનના કબજા મહીં તો પણ,

જલન ને પૂછશો તો કેહેશે બંદા ખુદાના છે

 

જલન માતરી

 

 

રામ નિર્વાણ શાંતિ પ્રદમ છે.

बुद्ध पुरुष जब हमारी तरफ निगाह करता हैं तब हमारी अंदर अमृत बहने लगेला और हमारे सभी परिवार जनो का दुःख दूर हो जाते हैं।

कई साधु हाल मस्त साधु, माल मस्त साधु, चाल मस्त साधु, कमाल मस्त वगेरे होते हैं।

 

ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां |

किलकि किलकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय |

धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियां ||

अंचल रज अंग झारि, विविध भांति सो दुलारि |

तन मन धन वारि वारि, कहत मृदु बचनियां ||

विद्रुम से अरुण अधर, बोलत मुख मधुर मधुर |

सुभग नासिका में चारु, लटकत लटकनियां ||

तुलसीदास अति आनंद, देख के मुखारविंद |

रघुवर छबि के समान, रघुवर छबि बनियां ||

श्रेणीराम भजन


किसीके जीवनमें कोई संशय नहीं हैं वह ऋषि हैं, वह निर्वाण रुप हैं।

निर्वाण देवता

निर्वाणदाता का एक हि लक्ष्य निर्वाण होता हैं।

निरालंब पीठ

निर्वाणदाता की पीठ को किसीका वलंबन नहीं होता हैं।

अधोर का अर्थ सौम्य होता हैं।

आशीर्वाद शांति देता हैं लेकिन कृपा क्रांति कर देती हैं।

संयोग दीक्षा

निर्वाणदाता ऐसी दीक्षा देता हैं जो हमारा संयोग करा दे, हमारे बिछडो से मिला देती हैं।

वियोगोपदेश

वियोग - विरह का उपदेश देता हैं।

भिक्षा संतोष

जो मिल जाय उसमें संतोष रखना।

विवेक रक्षा

विवेक ही हमारी रक्षा करता हैं।

हमारा विवेक हमारी रक्षा करेगा
१०

करुणा क्रिडा

११

आनंदमाला

निर्वाण रुप व्यक्ति की माला निरंतर आनंद हैं।

आनंद संत फकीर करे …..

१२

अक्लपित भिक्षासि

निर्वाणरुप व्यक्ति की भिक्षा में कोई संकेत नहीं होता हैं, जो मिले वहीं स्वीकार कर लेना।

१३

हंसाचार

निर्वाणदायक का आचार हंस जैसा होता हैं।

१४

धैर्यकंथा

धीरज ज जिसकी कंथा हैं, कुछ भी हो जाय लेकिन सहज भी डिगे नहीं।

१५

उदासीन कौपिन्म्‌

उदासीन रहना

१६

विचार दंडः

विचार पूर्वक व्यवहार करता है

१७

श्रीयाम पादूकाः

१८

जीवन मुक्तिः

१९

एकान्त स्थानम्‌

२०

माया ममता अहंकार द्मनम्‌

२१

शिव तुरीय जनोपवम्‌

२२

तन्मया शिखाः

तन्म्य हो जाना हि शिखा हैं।

२३

भ्रांति हरनम्‌

२४

काठिन कौपिनम्‌

२५

अनाहत मंत्रः

२६

हेतमं निर्वाण दर्शनम्‌

परमात्मा का क्रोध निर्वाण दायक हैं।

6

Wednesday, 27/01/2021

भगवान बुद्ध के चरन सदैव धरा पर हि रहे हैं।

बुद्धने ध्यान, धर्म – विशेष मुक्त धम या धर्म और निर्वाण की बात कही हैं। बुद्ध एक अवतार होते हुए भी बुद्ध आज भी हमारे साथ मौजुद हैं।

 

 

कोशलाधीश, जगदीश, जगदेकहित, अमितगुण, विपुल विस्तार लीला ।

गायंति तव चरित सुपवित्र श्रुति - शेष - शुक - शंभु - सनकादि मुनि मनशीला ॥१॥

वारिचर - वपुष धरि भक्त - निस्तारपर, धरणिकृत नाव महिमातिगुर्वी ।

सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह कोड़, मर्दि दनुजेश उद्धरण उर्वी ॥२॥

कमठ अति विकट तनु कठिन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु - सुख मुरारी ।

प्रकटकृत अमृत, गो, इंदिरा, इंदु, वृंदारकावृंद - आनंदकारी ॥३॥

मनुज - मुनि - सिद्ध - सुर - नाग - त्रासक, दुष्ट दनुज द्विज - धर्म मरजाद - हर्त्ता ।

अतुल मृगराज - वपुधरित, विद्दरित अरि, भक्त प्रहलाद - अहलाद - कर्त्ता ॥४॥

छलन बलि कपट - वटुरुप वामन ब्रह्म, भुवन पर्यंत पद तीन करणं ।

चरण - नख - नीर - त्रैलोक - पावन परम, विबुध - जननी - दुसह - शोक - हरणं ॥५॥

क्षत्रियाधीश - करिनिकर - नव - केसरी, परशुधर विप्र - सस - जलदरुपं ।

बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौमि राम भूपं ॥६॥

भूमिभर - भार - हर, प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररुपधर भक्तहेतू ।

वृष्णि - कुल - कुमुद - राकेश राधारमण, कंस - बंसाटवी - धूमकेतू ॥७॥

प्रबल पाखंड महि - मंडलाकुल देखि, निंद्यकृत अखिल मख कर्म - जालं ।

शुद्ध बोधैकघन, ज्ञान - गुणधाम, अज बौद्ध - अवतार वंदे कृपालं ॥८॥

कालकलिजनित - मल - मलिनमन सर्व नर मोह - निशि - निबिड़यवनांधकारं ।

विष्णुयश पुत्र कलकी दिवाकर उदित दासतुलसी हरण विपतिभारं ॥९॥

 

हे कोसलपति ! हे जगदीश्वर !! आप जगतके एकमात्र हितकारी हैं, आपने अपने अपार गुणोंकी बड़ी लीला फैलायी है । आपके परम पवित्र चरित्रको चारों वेद, शेषजी, शुकदेव, शिव, सनकादि और मननशील मुनि गाते हैं ॥१॥

आपने मत्स्यरुप धारण कर अपने भक्तोंको पार करनेके लिये ( महाप्रलयके समय ) पृथ्वीकी नौका बनायी; आपकी अपार महिमा है । आप समस्त यज्ञोंके अंशोंसे पूर्ण हैं, आपने बड़े भयंकर शरीरवाले हिरण्याक्ष दानवका मर्दन करके शूकाररुपसे पृथ्वीका उद्धार किया ॥२॥

हे मुरारे ! आपने अति भयानक कछुएका रुप धारण करके समुद्र - मन्थनके समय रसातलमें जाते हुए मन्दराचल पहाड़को अपनी कठिन पीठपर रख लिया, उस समय उसपर पर्वतके घूमनेसे आपको खुजलाहटका - सा सुख प्रतीत हुआ था । समुद्र मथनेपर आपने उसमेंसे अमृत, कामधेनु, लक्ष्मी और चन्द्रमाको उत्पन्न बलशाली नृसिंहरुप धारण करके मनुष्य, मुनि, सिद्ध, देवता और नागोंको दुःख देनेवाले, ब्राह्मण और धर्मकी मर्यादाका नाश करनेवाले दुष्ट दानव हिरण्यकशिरुप शत्रुको विदीर्ण कर भक्तवर प्रह्लादको आह्लादित कर दिया ॥४॥

आपने वामन ब्रह्मचारिका रुप धारण कर राजा बलिको छलनेके लिये पहिले तीन पैर पृथ्वी माँगी, पर नापते समय तीन पैरसे सारा ब्रह्माण्डक नाप लिया । ( नापनेके समय ) आपके चरण - नखसे तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला ( गंगा ) जल निकला । आपने बलिको पातालमें भेज और वह राज्य इन्द्रको देकर देवमाता अदितिका दुःसह शोक हर लिया ॥५॥

आपने सहस्त्रबाहु आदि अभिमानी क्षत्रिय राजारुपी हाथियोंके समूहको विदीर्ण करनेके लिये सिंहरुप और ब्राह्मणरुपी धान्यको हरा - भरा करनेके लिये मेघरुप, ऐसा परशुराम - अवतार धारण किया और रामरुपसे दस सिर तथा बीस भुजदण्डवाले रावणको प्रचण्ड बाणोंसे खण्ड - खण्ड कर दिया, ऐसे राजराजेश्वर श्रीरामचन्द्जीको मैं प्रणाम करता हूँ ॥६॥

भूमिके भारी भारको हरनेके लिये आप परमात्मा शुद्ध ब्रह्म होकर भी भक्तोंके लिये मनुष्यरुप धारण करके प्रकट हुए, जो वृष्णीवंशरुपी वनको जलानेके लिये अग्निस्वरुप थे ॥७॥

प्रबल पाखण्ड - दम्भसे पृथ्वीमण्डलको व्याकुल देखकर आपने यज्ञादि सम्पूर्ण कर्मकाण्डरुपी जालका खण्डन किया, ऐसे शुद्ध - बोधस्वरुप, विज्ञानघन सर्व दिव्य - गुण - सम्पन्न, अजन्मा, कृपालु, बुद्ध भगवानकी मैं वन्दना करता हूँ ॥८॥

कलिकालजनित पापोंसे सभी मनुष्योंके मन मलिन हो रहे हैं । आप मोहरुपी रात्रिमें म्लेच्छरुपी घने अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्योदयकी तरह विष्णुयश नामक ब्राह्मणके यहाँ पुत्ररुपसे कल्कि - अवतार धारण करेंगे ! हे नाथ ! आप तुलसीदासकी विपत्तिके भारको दूर करें ॥९॥

किसीके प्रति श्रद्धा रखकर कुद पडो, वह जहां ले जाये वहां बिना सोचे चल पडो।

बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद किसी से प्रति कोई परहेज न होना चाहिये।

धम – धर्म- का अर्थ पवित्रतता हैं।

हमे थोडा सतसंग से स्नान करके पवित्र होना चाहिये। सतसंग – कथा पवित्रता के लिये सामुहिक स्नान हैं।

हमारा शरीर सात सोपान का एक मानव शरीर हैं – एक संसकरण हैं।

नाम, रुप, लीला, धाम और ध्यान, सिमरन और शून्य – पूर्ण की साधना करो।

गीता का सार राम चरित मानस हैं, मानस का सार सुंदर कांड हैं, सुंदर कांड का सार हनुमान चालिसा हैं और हनुमान चालिसा का सार सिर्फ राम नाम हैं – सिमरन हैं – उनकी याद हैं – उनकी याद में गद्गद होना। यह स्मरण साधना हैं।

समस्त तीर्थोका जल साधुके अश्रु हैं।

बालकांड नाम साधना का कांड हैं, अयोध्या कांड रुप साधना का कांड हैं, अरण्यकांड लीला साधना का कांड हैं, किष्किन्धाकांड ध्यान साधना कांड हैं, सुंदर कांड सुमिरन साधना का कांड हैं, लंका कांड धाम साधना का कांड हैं, उत्तरकांड शून्य – पूर्ण की साधना का कांड हैं – पायो परम विश्राम हैं।

बुद्ध मध्यम मार्गी हैं।

 परिवारमें प्रसन्न रहो और प्रसन्नता बनाये रखो, परिवार जनों में कोई गेर समज पेदा न होने दो, अगर गेर समज हो गई हैं तो उसे जल्द हि दूर कर दो। नृत्य करनेवाले के घुंघरु कभी भी मर्यादा तोडते नहीं हैं, नृत्यकार कभी भी स्टेज से नीचे नहीं आते हैं।

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Thursday, 28/01/2021

यह हम सब कि जीवित होते हुए निर्वाण यात्रा हैं।

निर्वाण व्यक्तिके भीतर एक बदलाव लाती हैं।

वेदोके अंतिम भाग का सार उपनिषद हैं।

ब्रह्म उपनिषदका एक श्लोक निर्वाण की व्याख्या करता हैं।

वेद अपौरुषीय हैं।

अनुभव मनको होता हैं, अनुभूति आत्माको होती हैं। इसीलिये आत्मानुभीति शब्द आया हैं।

वाणी भी एक भोग हैं।

राम कृपासे निर्वाण बांटता हैं।

हमारे ॠषि मुनिओने, साधु पुरुषोने गाया हैं उसका हम भवरे की तरह गुंजन करते हैं, रटन करते हैं, अनुनाद करते हैं।

यत्र लोका न लोका देवा न देवा वेदा न वेदा यज्ञा न यज्ञा माता ने माता पिता न पिता स्नुषा न स्नुषा चाण्डालो न चाण्डालः पौल्कसो न पौल्कसः श्रमणो न श्रमणः तापसो न तापस इत्येकमेव परं ब्रह्म विभाति निर्वाणम्॥

 

यहाँ (आत्मा अर्थात् ब्रह्म में) लोक-लोक के रूप में नहीं है, देव-देवरूप में नहीं है, वेद-वेदरूप में नहीं है, यज्ञ-यज्ञरूप में नहीं है, माता-माता के रूप में नहीं है, पिता-पितारूप में नहीं है, स्न्नुषा (पुत्रवधू)-स्न्नुषा रूप में नहीं है, चाण्डाल-चाण्डालरूप में नहीं है, पौल्कस (भील)-पौल्कस रूप में नहीं है, श्रमण (संन्यासी)-श्रमण के रूप में नहीं है, और तपस्वी-तपस्वी के रूप में नहीं है; किन्तु वह ब्रह्म सदैव एक निर्वाण स्वरूप एवं प्रकाश स्वरूप है॥

जहां निर्वाण हैं वहां कोई लोक नहीं है ईसीलिये वहां लोकापवाद भी नहीं हैं। निर्वाण की यात्रा में हमारे सिवाय ओर कोई देवता नहीं हैं।

संघमें समूहमे सब प्रणम्य हैं, किसीकी ईर्षा न करो।

कृष्ण सिर्फ उनकी शरणमे आने के लिये कहते हैं, बुद्ध संघ की शरण में जानेके लिये कहते हैं।

सनातन धर्म एक शास्वत नियम हैं, संतत अखंड प्रवाह हैं जो यह ब्रहांड नहीं था तब भी था और जब यह सब विलय – प्रलय हो जायेगा तब भी रहेगा।

प्यार का पर्याय स्वीकार हैं।

भीतर एक हरि नाम का जप यज्ञ चल रहा हैं।

सच्चा श्रवण गुंजन हैं।

जो निर्वाण की यात्रा पर चल पडा हैं उसके लिये देव, यज्ञ, माता, पिता, वधू, अछूत, कोई वर्ण सन्यास, भील, आदिवासी, तापस वगेरे कुछ नहीं हैं, अंदर एक परम ब्रह्म हि हैं।

जो निर्वाण को जानता नहीं हैं उसे संसार बडा लगता हैं, वह जागता हैं तब रात्रि लंबी होती हैं और जो अज्ञान हैं, जो थक गया हैं उसे अपना पंथ लंबा लगता हैं।

जिस धरमें अतिथि भोजन नहीं करता वह घर स्मशान से भी ज्यादा खराब हैं।

 

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Friday, 29/01/2021

जिसको बोध प्राप्त हुआ हैं तब क्रोध और किसीके प्रति विरोध समाप्त हो जाता हैं। जब की ज्ञानी को बोध प्राप्त हुए क्रोध आता हैं, जैसे परशुराम।

 

छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी।

राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं।।7।।

 

मेरी तीनों प्रकार की (पुत्रकी, धनकी और मानकी) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गयीं। और हृदय में एक ही लालसा अत्यन्त बढ़ गयी कि जब श्रीरामजीके चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ।।7।।

अति संघर्ष होनेसे चंदन में भी आग लग जाती हैं।

 

लोमस अति ज्ञानी होते हुए क्रोध करके काक भूषंडी को श्राप देते हैं।

कथा श्रवण बिना तनावमें रहकर सुनो।

अगर निष्ठा हैं तो अपने सामे रखे हुए शास्त्र भी बोलने लगते हैं।

श्रोता और वक्ता का संवाद दो प्रेमीओके बिचका वार्तालाप हैं, ऐसा लगता हैं कि वक्ता श्रोताके कानमें बोल रहा हैं। कभी कभी श्रोताको – आश्रितकि अपने बुद्ध पुरुषको सुननेकी भी जरुरत नहीं होती हैं, सिर्फ अपने बुद्ध पुरुषका दर्शन ही काफी हैं, सब कुछ घटना सिर्फ दर्शनसे घट जाती हैं।

कथा श्रवण हमें डिप्रेशनसे दूर कर ऊर्जा से भर देती हैं।

बुद्ध पुरुष शरीर से दूर होते हुए सदा हमारे साथ रहता हैं, उसकी आज्ञा को सदा निभाना चाहिये, आज्ञा निभानेसे हम बुद्ध पुरुषका साथ अनुभव करने लगेगे, बुद्ध पुरुषके जाने के बाद निराश कभी भी नहीं होना चाहिये, ऐसा करनेसे बुद्ध पुरुष की छाया हमारा पीछा करती हुई लगेगी, आध्यात्म जगतमें आशा रखना अच्छी बात हैं, आश्रितके आंशु जीवित रहनेमें सहाय करते हैं, आश्रित को अपनी बची हुई आयुष्य अपने बुद्ध पुरुषकी यादमें गुजारनी चाहिये।

 

आज्ञा सम न कुछ साहिब सेवा

 

आज्ञा आदेश हुकम नहीं हैं लेकिन एक आज्ञाप्रसाद हैं।

धम – धर्म शरीरमय नहीं हैं, धनोमय भी नहीं हैं लेकिन धम – धर्म मनोमय हैं।

जिस् के भीतर अधर्म हैं और बाहर धर्म दीखाई देता हैं वह धर्म हिन धर्म हैं

 

ऊँच  निवासु  नीचि  करतूती।  देखि    सकहिं  पराइ  बिभूती॥

 

किसीके प्रभावमें आकर उस तरह गतिविधी करना हिन धर्म हैं।

असत्य को सत्य करनेकी कोशीस हिन धर्म हैं।

भूल हो जाय तो भूलका स्वीकार कर लेना चाहिये।

जो धर्म श्रद्धा को गुमा कर स्पर्धा पेदा करे वह हिन धर्म हैं।

पागल हो जाना अच्छा हैं क्योंकि पागल हो जाने के बाद एक फायदा हैं कि लोग पागल तरफ पथ्थर फेंकते हैं उगली नहीं ऊठाते हैं।

निर्वाण का अंतिम अनुनाद परम विश्रामकी प्राप्ति हैं।

 

 

 

 

 8

Saturday, 30-01-2021

आज शहिद दिन – विश्ववंद्य गांधी बापु का निर्वाण दिन हैं।

मारीच के साथ भगवान राम कठोर कृपा करते हैं और निर्वाण देते हैं। उत्तरकांड की पंक्ति कोमल कृपा का परिचय हैं।

भीक्षुक उपनिषद में चार प्रकारके संन्यास की बात हैं - कुटिचक संन्यास – जहां ऋषि मुनि ग्रास का भोजन करते हैं, बहुदक संन्यास जिसमें भीक्षा लेने जाना, हंस संन्यास और परम हंस संन्यास हैं।

परम हंस संन्यास संसारमें रहते हुए निर्वाण की यात्रा हैं, रामकृष्ण परमहंस यह संन्यास का उदाहरण हैं।

हमें परम हंसी संन्यासी का संग कदापी छोडना नहीं चाहिये।

तलगाजरडा की निर्वाण की परिभाषामें ५ वस्तु सहज छूट जाय तो वह निर्वाण हैं, ५ वस्तु में हमारी रुची सहज छूट जाय, हमारा चित बदल जाय, १ सब कुछ होते हुए – संसारकी सब सुविधा होते हुए, संसारकी सब वस्तुमें हमारी रुची सहज छूट जाय, २   संपदा – धन दौलत वगेरेमें अभाव का वैभव और वैभवमें अभाव का ऐश्वर्य वगेरे सहज छूट जाय, ३  व्यक्ति का मोह सहज छूट जाय, भीड का मोह छूट जाय, भीड की आस्क्ति छूट जाय – एकान्ते सुख मास्यताम, अकेले में मेला, मेलेमें अकेला जैसी भावना निर्वाण हैं, ४    विचारो से मन सहज हट जाय, निर्विचारता की भूमिका बन जाय, हालाकि यह मुश्किल हैं, ५   हर प्रकार का वहम छूट जाय, किसीके प्रति कोई वहम न रहे, शास्त्र पर वहम न रहे, कोई मंत्र उपर कोई वहम न रहे, अपने बुद्ध पुरुष उपर भी वहम न रहे – वहम सहज छूट जाय, यह निर्वाण प्राप्ति के पंचशील हैं।

सुख दुःख को सम समजनेवाला को सुख दुःख की हेडकी नहीं आती हैं।

बिना विश्वास प्रेम प्रगट हि नहीं होगा।

संन्यासी ज्ञान से निर्वाण प्राप्त करता हैं, वासनाको क्रमशः कम करके वाम पंथी निर्वाण प्राप्त करता हैं और संसारी सेवा और स्मरण से निर्वाण प्राप्त करता हैं, ब्रह्मचारी खुद लिये हुए व्रत से निर्वाण प्राप्त करता हैं।

साधु कुंभार के घर निवास करता हैं।

 

सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।

 

साधु की आंख में सत्य, करूना, वगेरे के पांच अमृत हैं।

9

Sunday, 31/01/2021

हमें समय, सुख, दुःख वगेरे सापेक्ष हैं, सुख नारायण हैं तो दुःख भी नारायण हैं।

दूसरे का नुकशान करनवाला कभी हारता नहीं हैं, एक प्रयत्न विफल जाय तो तुरंत दूसरा प्रयत्न करके दूसरेका नुकशान करता हैं।

कुसंगी का साथ करना नहीं चाहिये।

 

कोपभवन  सुनि  सकुचेउ  राऊ।  भय  बस  अगहुड़  परइ  न  पाऊ॥

सुरपति  बसइ  बाहँबल  जाकें।  नरपति  सकल  रहहिं  रुख  ताकें॥1॥

 

कोप  भवन  का  नाम  सुनकर  राजा  सहम  गए।  डर  के  मारे  उनका  पाँव  आगे  को  नहीं  पड़ता।  स्वयं  देवराज  इन्द्र  जिनकी  भुजाओं  के  बल  पर  (राक्षसों  से  निर्भय  होकर)  बसता  है  और  सम्पूर्ण  राजा  लोग  जिनका  रुख  देखते  रहते  हैं॥1॥

 

केहि  हेतु  रानि  रिसानि  परसत  पानि  पतिहि  नेवारई।

मानहुँ  सरोष  भुअंग  भामिनि  बिषम  भाँति  निहारई॥

दोउ  बासना  रसना  दसन  बर  मरम  ठाहरु  देखई।

तुलसी  नृपति  भवतब्यता  बस  काम  कौतुक  लेखई॥

 

'हे  रानी!  किसलिए  रूठी  हो?'  यह  कहकर  राजा  उसे  हाथ  से  स्पर्श  करते  हैं,  तो  वह  उनके  हाथ  को  (झटककर)  हटा  देती  है  और  ऐसे  देखती  है  मानो  क्रोध  में  भरी  हुई  नागिन  क्रूर  दृष्टि  से  देख  रही  हो।  दोनों  (वरदानों  की)  वासनाएँ  उस  नागिन  की  दो  जीभें  हैं  और  दोनों  वरदान  दाँत  हैं,  वह  काटने  के  लिए  मर्मस्थान  देख  रही  है।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  राजा  दशरथ  होनहार  के  वश  में  होकर  इसे  (इस  प्रकार  हाथ  झटकने  और  नागिन  की  भाँति  देखने  को)  कामदेव  की  क्रीड़ा  ही  समझ  रहे  हैं। 

 

सुनहु  प्रानप्रिय  भावत  जी  का।  देहु  एक  बर  भरतहि  टीका॥

मागउँ  दूसर  बर  कर  जोरी।  पुरवहु  नाथ  मनोरथ  मोरी॥1॥

 

(वह  बोली-)  हे  प्राण  प्यारे!  सुनिए,  मेरे  मन  को  भाने  वाला  एक  वर  तो  दीजिए,  भरत  को  राजतिलक  और  हे  नाथ!  दूसरा  वर  भी  मैं  हाथ  जोड़कर  माँगती  हूँ,  मेरा  मनोरथ  पूरा  कीजिए-॥1॥ 

 

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा  की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥

 

एहि  बिधि  प्रभु  बन  बसहिं  सुखारी।  खग  मृग  सुर  तापस  हितकारी॥

कहेउँ  राम  बन  गवनु  सुहावा।  सुनहु  सुमंत्र  अवध  जिमि  आवा॥2॥

 

पक्षी,  पशु,  देवता  और  तपस्वियों  के  हितकारी  प्रभु  इस  प्रकार  सुखपूर्वक  वन  में  निवास  कर  रहे  हैं।  तुलसीदासजी  कहते  हैं-  मैंने  श्री  रामचन्द्रजी  का  सुंदर  वनगमन  कहा।  अब  जिस  तरह  सुमन्त्र  अयोध्या  में  आए  वह  (कथा)  सुनो॥2॥

 

आशीर्वाद और श्राप की याद समय पर आही जाती हैं।

 

तापस  अंध  साप  सुधि  आई।  कौसल्यहि  सब  कथा  सुनाई॥

राम  राम  कहि  राम  कहि  राम  राम  कहि  राम।

तनु  परिहरि  रघुबर  बिरहँ  राउ  गयउ  सुरधाम॥155॥

 

राम-राम  कहकर,  फिर  राम  कहकर,  फिर  राम-राम  कहकर  और  फिर  राम  कहकर  राजा  श्री  राम  के  विरह  में  शरीर  त्याग  कर  सुरलोक  को  सिधार  गए॥155॥

 

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥

 

 जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥

 

जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥

 

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

 

जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

 

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥

बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

 

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्‌जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥

 

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

 

जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी चले॥4॥

 

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥

 

समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात्‌ अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥

भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥

 

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥

 

पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥

फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमान्‌जी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हूँ॥2॥

 

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

 

हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥

 

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।

यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

 

समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन।

 

दोहा :

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥60॥

 

श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥

 

सुमिरन करना सत्य हैं, गाना प्रेम हैं और कथा सुनना करूणा हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

·        तेरा प्याला मेरी माला, अपना अपना मयखाना