રામ કથા
રામસેતુ
માનસ રામસેતુ - मानस रामसेतु
રામેશ્વરમ્, તામિલનાડુ
શનિવાર, તારીખ ૦૨/૦૧/૨૦૨૧ થી
રવિવાર, તારીખ ૧૧/૦૧/૨૦૨૧
મુખ્ય ચોપાઈ
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥
૧
શનિવાર, ૦૨/૦૧/૨૦૨૧
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥
जाम्बवान् ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में
श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से)
कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥3॥
सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥
वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले-॥1॥
शंख
और चंद्रमा का सेतु बंध हैं, शंख निष्कलंक हैं, चंद्रमा में कलंक हैं, शंख फूकना एक
अहंकार का संकेत हैं। राम कभी भी शंख नहीं बजाते हैं।
महादेव
ने शंख में भरकर विष पिया हैं।
महादेव
कहते हैं झेर मैं हुं और अमृत भी मैं हि हुं।
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं
शंकरम्॥2॥
शंख
और चंद्रमा की सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीर वाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्र वाले, काल
के समान (अथवा काले रंग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गंगा और चंद्रमा
के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों
के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले, पार्वती पति वन्दनीय श्री शंकरजी को मैं नमस्कार
करता हूँ॥2॥
यहां
रक्षक और भक्षक का सेतु हैं, सिंह भक्षक हैं, अंबर रक्षक हैं।
भुजंग
और भूषण का समन्वय हैं।
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं
निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥1॥
कामदेव
के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी
के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य,
गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों
के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुंदर
श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की मैं
वंदना करता हूँ॥1॥
गुरु
शिष्य को अपने समान बना देता हैं।
हनुमान
– गुरु कभी भी नाराज नहीं होता हैं।
गंगा
और चंद्र का मिलन हैं।
राम
नाथ और रमानाथ का सेतु हैं।
शंकर
दान देते देते दिगंभर हो जाते हैं।
રામ
સેતુ એક કરવાનો હેતુ છે.
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥
इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥
राम
भगवान तीन दिन में जटायु, शबरी और --- को अंजलि प्रदान कि हैं।
सागर
में सब तीर्थ का संगम हैं। सागर में सब नदीयां समा जाती हैं ईसी लिये सागर स्नान करने
से सब नदीओ का स्नान माना जाता हैं।
राम
युध्ध वादी नहीं हैं।
यहां
ईतिहास और आध्यात्म का समन्वय हैं।
१४
योजन का पहला दिन का सेतु बना
२०
योजन का दूसरे दिन का सेतु बना
२१
योजन का सेतु तीसरे दिन बना
२२
योजन का सेतु चौथे दिन बना
२३
योजन का सेतु पांचवे दिन बना
कुल
११० योजन का सेतु बंध पांच दिन में बनाया।
परम
तत्व का प्रभाव और हमारे प्रयास से कोई भी कार्य करना चाहिये, यह प्रभाव – प्रताप और
प्रयास का सेतु हैं।
क्रिसमस
ट्री को आदर दिया जाय लेकिन साथ साथ तुलसी के गमले को भूला भी न दिया जाय।
पांच
तत्व- पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, अग्नि - जडता के प्रतीक हैं, जड हैं।
ईश्वर
का प्रताप थकावट नहीं देता हैं, ताप नहीं देता हैं।
2
Sunday, 03/01/2021
मर्यादा
तुटती हैं तब अस्तित्व नाराज होता हैं।
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि
दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु
मे॥3॥
जो
सत् पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दण्ड
देने वाले हैं, वे कल्याणकारी श्री शम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥3॥
महादेव
कैवल्य मुक्ति प्रदान करते हैं।
भगवान
राम सारंगपानि हैं – सारंग धनुष्य धारण करते हैं।
भगवान
राम निर्वाण और नवनिर्माण के लिये बाण चढाते हैं।
लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर
चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु
कोदंड॥
लव,
निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे
मन! तू उन श्री रामजी को क्यों नहीं भजता?
प्रेम
में जब मन मग्न हो जाता हैं तब कोई कुछ बोलता नहीं हैं।
राम
नाम हि सस्ता ईलाज हैं।
शब्द
कभी कभी भ्रम पेदा करता हैं।
नींदा
तो दुनिया का नियम हैं, स्तुति - प्रसंशा मजबुरी हैं।
अगर
हम परम तत्व के सन्मुख हो जाये तो ओर कुछ करनेकी आवश्यकता हि नहीं हैं।
परमात्मा
किसी के लिये विमुख नहीं हैं।
अहल्या
सन्मुख होकर पडी रही तो उसका उध्धार हो गया।
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई
तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ
कर जोरि रही॥
राम-पद-पदुम पराग परी।
ऋषि तिय तुरत त्यागि पाहन-तनु छबिमय
देह धरी॥१॥
प्रबल पाप पति-साप दुसह दव दारुन
जरनि जरी।
कृपा-सुधा सिंचि बिबुध बेलि ज्यों
फिरि सुख-फरनि फरी॥२॥
निगम अगम मूरति महेस मति जुबति बराय
बरी।
सोइ मूरति भइ जानि नयन-पथ इकटकतें
न टरी॥३॥
बरनति ह्रदय सरूप सील गुन प्रेम-प्रमोद
भरी।
तुलसीदास अस केहि आरतकी आरति प्रभु
न हरी॥४॥
कभी कभी ………………………..
3
Monday, 04/01/2021
भगवान
शिव बुद्धि प्रेरक देव हैं।
सागर
उपर सेतु बन जानेका बाद चिटी और कुंजर भी उस पर चलकर अंतिम स्थान पर पहुंचता हैं। सेतुबम्ध
कोई भेदभाव नहीं रखता हैं।
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ
दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥
श्री
महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु
और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं
तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥
शिव
और राम परस्पर सेव्क, स्वामी और सखा हैं।
राम
के लिये सेतुबंध हि ईश्वर हैं। रामेश्वर सेतुबंध का मतलब हैं राम के ईश्वर का सेतुबंध
हैं।
भगवान
राम कहीं भी कर्ता भाव नहीं बताते हैं, रावण – कुंभकर्ण को मारा गया ऐसा कहते हैं।
अनारंभ अनिकेत अमानी।। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी।।3।।
सूर्य
की क्रिया ऐसी हैं जिसे शरू करनेके लिये कुछ भी क्रिया करनी नहीं पडती हैं।
भिख्खु
का पहला लक्षण अनारंभ रहना हैं। ऐसा भगवान बुद्ध कहते हैं।
कोई
भी संबंध बंधन हैं।
कोई
बुद्ध पुरूष अगर हमें याद करे तो उसे त्रिभुवनीय उत्सव समजो।
बुद्ध
के संग रहनेवाले सभी भिख्खु संग में रहते हुए कायम असंग रहते थे।
जब
कोई महापुरूष अपना कार्य करके विदाय लेते हैं तब अस्तित्वको भी ग्लानि होती हैं, शोक
मग्न हो जाता हैं।
जो
बुद्ध पुरूष के साथ जुड जाता हैं वह कभी भी बुद्ध पुरुष से अलग नहीं होता हैं।
जब
भगवान आश्रित का हाथ पकडता हैं तो फिर भगवान कभी भी आश्रित का हाथ छोडता नहीं हैं।
जब आश्रित भगवान का हाथ पकडता हैं तो जीव होने के नाते आश्रित कभी भी भगवान का हाथ
छोड देता हैं।
जब
किसी को देखकर हमें लगे कि उसमें धर्म और सत्य को जन्म दिया हैं वह साधु हैं।
साधु
अकिंचन – त्यागी होता हैं।
साधु
– भिख्खु उसे जब प्यास लगे तब और भूख लगे तब ही खाना खाता हैं।, भिख्खु को कोई नियम
से आबद्ध नहीं रहता हैं – जब निंद आये तब सो जाता हैं और जब निंद खत्म हो जाय तब जाग
जाता हैं।
जिस
की आंखोमें अपार करूणा दिखाई दे तो वह साधु हैं।
बायी
आंख से अश्रु गिरे तो वह अश्रु दुंख के अश्रु हैं और जब दायी आंख से अश्रु गिरे तो
वह अश्रु किसीके उपकार के आये हुए अश्रु हैं, अश्रु एक सच्चा श्रींगार हैं।
आंख
में आंसु, शरीर से पसीना का नीकलना आरोग्य की निशानी हैं।
बुद्ध
पुरूष को – परम को पुकार के वख्त दोनों आंखो से अश्रु गिरते हैं यह हेतु रहित अनुराग
हैं।
नींदा
और स्तुति के जो समान समजता हैं वह साधु हैं।
मन
वचन कर्म से जो किसी की हिंसा न करे वह साधु हैं, साधु मन में भी किसीके प्रति दुर्भाव
नहीं रखता हैं।
साधु
अपने आत्म दिप को जलाये रखे दूसरों का दिया जलाता हैं।
सेतुबंध
का विचार भगवान से भी बडा हैं।
जहां
भी जोडनेकी प्रक्रिया चलती हैं वह क्रिया सेतुबंध ही हैं।
परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित
जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ
परम कलपना॥2॥
यह
(यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं
यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान् संकल्प है॥2॥
जहां
एकता बनी रहे वह स्थान परम रम्य स्थान हैं।
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ
बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ
सिव उमा निवासू॥4॥
उन्हीं
कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता
हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास
करते हैं॥4॥
पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय
बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य
मुनिबर मन भावन॥3॥
श्री
वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते
हैं। भरद्वाजजी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने
वाला है॥3॥
कल्पित
कल्पना, कुछ हो ऐसी कल्पना और परम कल्पना एसी तीन कल्पना हैं।
सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर
सकल बोलि लै आए॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव
समान प्रिय मोहि न दूजा॥3॥
श्री
रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को
बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-)
शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥3॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर
सपनेहुँ मोहि न पावा॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी
मूढ़ मति थोरी॥4॥
जो
शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता।
शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि
है॥4॥
दोहा
:
संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही
मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ
बास॥2॥
जिनको
शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास
(बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥2॥
चौपाई
:
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु
तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य
मुक्ति नर पाइहि॥1॥
जो
मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे
लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा
(अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा)॥1॥
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति
मोरि तेहि संकर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो
बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥
जो
छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति
देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र
से तर जाएगा॥2॥
राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज
निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत
करहिं प्रनत पर प्रीती॥3॥
श्री
रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को
लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर
सदा प्रीति करते हैं॥3॥
आश्रितका
रंजन हरि नाम हैं।
4
Tuesday, 05/01/2021
पूर्ण
शरणागति में विचार बाधक हैं।
सागर
और तरंग में सागर से तरंग हैं या तरंग से सागर हैं?
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ
सीय सहित रघुराई॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न
मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥1॥
अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी
सहित (अयोध्या को) लौट जाइए। हे दयासागर!
जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न
हो, वही कीजिए॥1॥
सन्मुख
का मतलब
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य
जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत
सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी
कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं
है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके
ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
गुरु
पर सब कुछ छोड दो या फिर गुरु को हि छोड दो।
संगीतज्ञ
को अपनी भूल स्वीकार कर लेनी चाहिये।
5
Wednesday, 06/01/2021
निस्तरंग
मन कैसे होता हैं?
निस्तरंग
मन होने से चांद (कथा श्रवण) टूकडे टूकडे हो जाता हैं।
निस्तरंग
मन हि चांदके प्रतिबिंब को ग्रहण करता हैं।
श्रम सदैव बहिर्मुख हैं और स्मिरन - स्मरण सदैव अंतर्मुख
रहता हैं।
कर्म
बहिर होता हैं।
बुद्ध
पुरुष पारसमणि होता हैं।
बुद्ध
पुरुष दीपक जैसा होता हैं, प्रकाश फेलाता हैं।
बुद्ध
पुरुष अपने आश्रित का चिंतन करता हैं।
बुद्ध
पुरुष आश्रित को अपने जैसा बना देता हैं।
बुद्ध
पुरुष की कोई वस्तु का हमे स्पर्श हो जाय तो भी हमारे जीवन में परिवर्तन होने लगता
हैं।
लालसा
हमें अपने आत्म प्रदेश से दूर ले जाती हैं।
बीज
को जब जमीन में जाता हैं तब वह अंतरयात्रा करता हैं – उसके मूल जमीन के अंदर अंधेरे
में बढता हैं और उसकी बाह्य यात्रा करके शाखा – फूल – पत्ते में बढता हैं – प्रकाशमें
रहता हैं।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य
पाकरि तर करई।।
आँब छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि
भजनु काजु नहिं दूजा।।3।।
वह
पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में
मानसिक पूजा करता है। श्रीहरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।।3।।
6
Thursday, 07/01.2021
सिमरन
सबसे बडा सतसंग हैं।
संग
क एक अर्थ आस्क्ति भी हैं।
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।
मैं
आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति और आपके भक्तोंका
सत्संग सदा प्रात हो। हे लक्ष्मीपते ! हर्षित होकर मुझे यही दीजिये।
बर
का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता हैं।
आज्ञा
का सही अर्थ ठाकोरजी का प्रसाद होता हैं।
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई।
स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु
जन पावै देवा।2॥
वह रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी
की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ
स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥2॥
बुद्ध
पुरुष कभी भी हुकम नहीं देता हैं, वह तो सिर्फ प्रसाद प्रदान करता हैं।
पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ
सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र
हैं। कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं
(इस भरत रूपी गहरे समुद्र
को अपने विरह रूपी मंदराचल
से) मथकर यह प्रेम
रूपी
अमृत प्रकट किया है॥238॥
विरह से ही प्रेम – अमृत मिलता हैं।
गोपियों
कहती हैं कि …..
ऊधो या ब्रज की दशा बिचारो ।
ता पाछे ये सिद्धि आपनी जोग कथा
विस्तारो ।।
जा कारन पठये तुम माधव सो सोचहु
मनमाहीं ।
केतिक बीच बिरह परमारथ जानत हो किधौं
नाहीं ।।
परम चतुर निज दास श्याम के संतत
निकट रहत हो ।
जल बूड़त अवल्म्ब फेनको फिर-फिर
कहा कहत हो ।।
वह अति ललित मनोहर आनन कौने जतन
बिसारौं ।
जोग जुगुत अरु मुकुत बिबिध बिध वा
मुरली पर वारौं ।।
जेहि उर बसत श्यामसुन्दरघर तेहि
निर्गुन कस आवै ।
तुलसिदास सो भजन बहाओ जाहि दूसरो
भावै ।।
तो
वे चकित हो जाते, सोचते गोपियों- जैसी ‘तादात्म्यवृति’ कहाँ मिलेगी। जिसको प्रेम
का बाण लग गया है और जो प्रेमस्वरूप का सच्चा विरही है, उसको परमार्थ की क्या आवश्यकता,
परमार्थ का परिणाम सच्चा प्रेम ही तो है। जो विरह-सलिल-राशि में डूब रहा है, उसकी रक्षा
योग-साधन-फेन से कैसे होगी, उसका त्राण तो तभी होगा जब उसको प्रेम धार की प्राप्ति
हो। जिसको मुक्ति की भी कामना नहीं उसको योग की क्या परवाह ? जो घनश्याम की चातकी है,
सगुणता की मर्मज्ञा है उसको उस निर्गुण से क्या काम, जो अनन्त साधनाओं के द्वारा केवल
समाधि-लब्ध मात्र है। निष्क्रिय निर्गुण की संसार को उतनी आवश्यकता नहीं जितनी सक्रिय
सगुण की। संसार निर्गुण का ही सगुण स्वरूप हैं। प्रेम के द्वारा ही प्राणी को इसका
साक्षात्कार होता है, अतएव प्रेम ही जीवन की प्रधान साधना हैं, वहीं परमानन्द का बीजमन्त्र
हैं और इसी से कहा गया है ‘प्रेम एव परो धर्मः।’ उद्धव के इस प्रकार के विचारों ने ही उनका कायापलट
कर दिया था, जिसका फल यह हुआ कि उन्होंने अपना ज्ञान भूलकर गोपियों से प्रेम-शिक्षा
ग्रहण की। गोस्वामीजी के पद्य के सीधे-सादे शब्दों में गोपियों कर प्रेम-परायणता मूत्तिमन्त
होकर विराज रही हैं। साथ ही उसमें कितना त्याग और व्यंग्य हैं, कितनी तदीयता और लगन
हैं, इसका अनुभव प्रत्येक सहृदय सुजन कर सकता है। नीचे लिखे पद्यों में कितनी सरसता
और मोहकता हैं, कितना व्यंग्य और कितनी मनोवेदना हैं, उनको पढ़कर विचारिये। कहीं निराशा
की झलक हैं तो कहीं प्रेममय खोज। कहीं ऊधों की अरसिकता पर कटाक्ष हैं तो कहीं निर्मोही
के निर्माह पर मनोहर व्यंग्य। किसी पद में मनोवेदना तड़पती मिलती हैं तो किसी में पीड़ा
रूदन करती दृष्टिगत होती हैं।
कथा
हि परम विश्राम हैं।
सुमिरन
स्मृति से होता हैं।
राम
प्रताप ११ बार आता हैं।
जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप
प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न
सुसंग बड़प्पनु पावा॥4॥
यद्यपि
मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट
है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले संग से भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?॥4॥
राम प्रताप
नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि
करहीं॥1॥
हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी
के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे
(एक-एक वीर और एक-एक घोड़े को मार डालेंगे)। जीते जी पीछे पाँव न रखेंगे। पृथ्वी
को रुण्ड-मुण्डमयी कर देंगे (सिरों
और धड़ों से छा देंगे)॥1॥
जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब
कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु
सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥
जाम्बवान्
ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में श्री
रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं
होगा॥3॥
जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि
जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु
नाइ॥19॥
जैसे
मतवाले हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के
प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥19॥
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं
न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा
माझ पन करि पद रोपा॥4॥
(अंगद
ने कहा-) अरे बीस भुजा वाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं तो सचमुच मैं
लबार ही हूँ। श्री रामचंद्रजी के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो उठे
और उन्होंने रावण की सभा में प्रण करके (दृढ़ता के साथ) पैर रोप दिया॥4॥
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं
निसिचर सुभट बरूथा॥
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय
रघुबीर प्रताप दिवाकर॥1॥
श्री
रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे
हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री रघुवीर की
जय बोलने लगे॥1॥
जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर।
राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई। करहिं कोसलाधीस
दोहाई॥1॥
युद्ध
में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में श्री रामजी के प्रताप का
स्मरण करके दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज श्री रामजी की दुहाई बोलने
लगे॥1॥
राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए
गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप
बिषमता सोई।।4।।
श्रीरामचन्द्रजीके
राज्य पर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई
किसीसे वैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे सबकी बिषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट
गयी।।4।।
जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ
अति प्रबल दिनेसा।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह
सुख बहुतन मन सोका।।1।।
[काकभुशुण्डिजी
कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! जबसे रामप्रतापरूपी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ,
तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतोंके मनमें
शोक हुआ।।1।।
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य
न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद
संदोह।।52क।।
हे
कृपाधाम ! अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गयी। अब मुझे मोह नहीं रह गया। हे प्रभु
! मैं सच्चिदानन्दघन प्रभु श्रीरामजी के प्रताप को जान गयी।।52(क)।।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई।
देखहु काम प्रताप
बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥2॥
वही राजा दशरथ स्त्री
का क्रोध सुनकर सूख गए। कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिए। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि की चोट अपने अंगों पर सहने वाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव
के पुष्पबाण से मारे गए॥2॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना॥3॥
राजा डरते-डरते
अपनी प्यारी कैकेयी
के पास गए। उसकी दशा देखकर उन्हें
बड़ा ही दुःख हुआ। कैकेयी
जमीन पर पड़ी है। पुराना
मोटा कपड़ा पहने हुए है। शरीर के नाना आभूषणों
को उतारकर फेंक दिया है।
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि
पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि
निज कोप कर॥25॥
राजा बार-बार
कह रहे हैं- हे सुमुखी!
हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना॥25॥
यह
काम प्रताप की कथा हैं।
वेश
का भी प्रताप होता हैं।
मोक्ष
निर्वाण और आनंद की व्याख्या करते हुए बुद्ध भगवान कहते हैं मैं हि यह सब कुछ हुं।
भागवतजी
में निम्न लिखित गीत हैं।
जब
तक अपनी ज्योति नहीं जलती हैं तब तक हरि दर्शन नहीं होता हैं। नरसिंह मेहता का रास
दर्शन में अपना हाथ जलता हैं तब कृष्ण और महादेव दोड कर नरसिंह के पास आते हैं और उसका
हाथ पकड लेते हैं।
भजन
का भी प्रताप होता हैं।
स्वयं महेशः श्वशुरो नगेशः सखा धनेश
स्तनयो गणेशः ।
तथापि भिक्षाटनमेव शम्भोः बलीयसी
केवलमीश्वरेच्छा ॥
स्वयं
महेश है, ससुर पर्वतश्रेष्ठ है, कुबेर जैसा धनी उनका मित्र है, और पुत्र गणों का स्वामी
है । फिर भी भगवान शंकर को भिक्षा के लिए भटकना पडता है ! सचमुच, ईश्वर की ईच्छा हि
बलवान है
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Friday, 08/01/2021
कर्म
का एक अर्थ धर्म होता हैं। ईसीलिये विश्वकर्मा का अर्थ विश्वधर्मा होता हैं।
विश्वधर्मा
सेतुबंध का कार्य करता हैं।
जो
ध्यान करता हैं उस ध्यान का परिणाम तब आता हैं जब ध्यानमें अपने भीतरी कचरेका त्याग
आता हैं।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज़ की पंछी, फिरि जहाज़
पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव
को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति
कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों
करील-फल भावै।
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी
कौन दुहावै॥
- सूरदासजी
श्री
कृष्ण ही जीव की और यह समस्त सृष्टि की आत्मा हौने से एक मात्र आश्रय है।
जैसे
दरीया में तैरते जहाज पर बैठा पंछी मन की चंचलता से उडता तो है पर मध्य दरीयामें उसे
कहीं ओर आश्रय नही मिलता वह फिर आ कर जहाज पर बैठ जाता है।
जीव
भी इस संसार सागरमें अपनी विषयासक्ति के कारण यहॉ वहॉ भटकता है पर आत्मा श्री कृष्ण
हौने से उसे कहीं दूसरे विषयमे मन स्थायीरुपसे लगता नही भटकता रहता है।
कमलनयन
श्री कृष्णके महात्म्य को जाने बिना जो अन्य का भजन करते है वे तो एसे मूढ है जो पास
बहती गंगा को छोड कर कुँआ खोद कर प्यास बुझाने का सोचते है।
भंवरा
कमल का रस चख ले तो क्या फिर कभी करील जैसे कडवे फल को चाखेगा कभी??? नही।
सूरदासजी
कहतै कामधेनु को छोड मूर्ख ही होगा जो छेरी को दैहेगा?
हमें
जीवन में प्रगति जरुर करे लेकि ऐसी प्रगति उडान न भरे जिससे हम अपने बुद्ध पुरुष को
छोड दे।
ध्यान
का फल त्याग हैं।
नरसिंह
मेह्ता भक्ति मार्ग का एक अवतार था, सितारा था।
नरसिंह
मेह्ता में केवल द्रढ भरोंसा हि हैं।
ठाकोरजी
ने नरसिंह मेहता के पांच कार्य किया हैं जिस की मिशाल दुनियामें नहीं हैं।
सब
का स्वीकार करो।
प्रेम
से अधिक जरुरी कोई कार्य हैं हि नहीं।
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥3॥
विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों
का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका
जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि
ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं॥3॥
विनोबाजी
कहते हैं कि राम चरित मानस मा का दूध हैं जो सहलाईसे पच जाता हैं।
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Saturday, 09/01/2021
एक
ओर तमो गुण हो – प्रमाद में रहना - ओर एक ओर रजो गुण हो – अत्यंत चांचल्य हो तब तमो
गुण और रजो गुण के बिच सत्व गुण हि सेतु बनता हैं।
जब
दोनो ओर तमो गुण होता हैं तब उसके बिच में सत्व गुण हार जाता हैं।
तमो
गुण ओर तमो गुण के बिच रजो गुण सेतु बनता हैं।
सतसंग
व्यापक और गहरा भी होना चाहिये।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न
पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं
मम।।15.6।।
।।15.6।।उस-(परमपद-)
को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है; और जिसको प्राप्त होकर जीव
लौटकर (संसारमें) नहीं आते, वही मेरा परमधाम है।
।।15.6।।
उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य
पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।।
भगवान
की कथा हमें प्रत्याहार भी शीखाती हैं।
रावण
तमो गुण हैं, कुंभकर्ण भी तमो गुण हैं – सोता रहता हैं, उसके बिच विभीषण सेतु बननेका
प्रयत्न करता हैं। रण मेदानमें विभीषण आज्ञा लेकर रावण और कुंभकर्ण को मिलने जाता हैं।
शील
ऐसा होना चाहिये कि जिससे दुश्मन भी आशीर्वाद दे।
राम,
कृष्ण और शंकर एक होते हुए उसमें से किसको पसंद करना चाहिये?
ठाकुर
रामक्रिष्ण देव में यह तीनों एक साथ दिखता हैं। जहां राम की मर्यादा और कृष्ण की मुग्धता
दिखाई देती हैं और राम कृष्ण परमहंस में परम हंस का शंकर की ओर संकेत हैं। ईस तरह रामकृष्ण
परमहंस में राम, कृष्ण और शंकर समाहित हैं, संकेत है।
गुरुद्वारमें
कोई दिवार नहीं होती हैं।
भगवान
में प्रुथ्वी, आकाश, वायु, और आग – प्रकाश समाहित हैं।
भगवान का मतलब
भ से भू और ग से गगन व से वायु मान|
अ से अग्नि न से नीर, दें तुझे प्रभु
ज्ञान|
भगवान्
शब्द में ही छिपा है भगवान् का मूल अर्थ
काहे
बुद्धि चलाता ए बंधू , ज्ञान आगे सब है व्यर्थ||
भगवान
का मतलब होता है भ = भू , ग = गगन, व = वायू
अ = अग्नि और न = नीर अर्थात भू +गगन+वायु+अग्नि+नीर = भगवान् वोही पञ्च महाभूत जिससे मनुष्य का शरीर उत्तपन हुआ है|
भू
– पृथ्वी
गगन
= आकाश
वायू
= हवा
अग्नि
= आग
नीर
= जल
इसका प्रमाण
इस बात से भी मिलता है की यह पञ्च तत्व सम्पूर्ण जीव समुदाय के लिए सर्वदा उपलब्ध
हैं और भगवान् ही सम्पूर्ण जीव समुदाय का नियंता
है| इसके बिना सृष्टि नहीं चल सकती|
समय
परिवर्तन के साथ साथ बहुत से नये शब्द समाज में अपनी जगह बना लेते हैं परन्तु हजारों
वर्षों से भगवान् शब्द आज भी परमेश्वर के लिए, प्रभु के लिए प्रचलित है| और अगर प्रभु
शब्द के मतलब को भी समझें तो ज्ञात होता है की वह भी पृथ्वी से ही सम्बंधित है|
पर
+ भू = अर्थात भू का मतलब पृथ्वी और जो पृथ्वी से पर अर्थात अन्य है वह ही प्रभु है|
परब्रह्म = पर + ब्रह्म = मतलब जो ब्रह्म से अन्य है| जानने योग्य बात यह है की ब्रह्म
से पर इसलिए कहा जाता है क्योंकि ब्रह्म अर्थात आत्मा अपना असली रूप भूल चुकी है| अर्थात
अहंकार वश ही वह पर दीखता है| ज्यों ही अहंकार शून्यता को प्राप्त होता है त्यों ही
आत्मा मुक्त हो जाती है|
तीसरा
शब्द परमात्मा = परम + आत्मा = अर्थात जो सब आत्माओं से श्रेष्ठ है| यह हमारे मनीषियों
द्वारा प्रदान शब्द है| और मनुष्य ही नहीं हर जीव में यह पंचों तत्व विधमान हैं| यहाँ
कोई भी शब्द चर्चा का विषय इस लिए नहीं है क्योंकि भाषा का मूल भावों को समझना होता
है|
हम
मौन रह कर ही सब कुछ समझ लेते हैं तो उसमें थोडा समय अधिक लगता है| भगवान् शब्द बहुत
प्राचीन है हमारा तुम्हारा बनाया हुआ नहीं है| हम यहाँ मात्र इसे समझने हेतु ही चिंतन
करते हैं| बाकी हर कोई भगवान् को जैसे समझना चाहे स्वतंत्र है|
यह
पांचो तत्वोमें सबके तीन तीन लक्षण - स्वभाव हैं।
भगवान
गुण वाचक शब्द है जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह "भग" धातु से बना है ,भग
के ६ अर्थ है:- १-ऐश्वर्य २-वीर्य ३-स्मृति ४-यश ५-ज्ञान और ६-सौम्यता जिसके पास ये
६ गुण है वह भगवान है।
संस्कृत
भाषा में भगवान "भंज" धातु से बना है जिसका अर्थ हैं:- सेवायाम् । जो सभी
की सेवा में लगा रहे कल्याण और दया करके सभी मनुष्य जीव ,भूमि गगन वायु अग्नि नीर को
दूषित ना होने दे सदैव स्वच्छ रखे वो भगवान का भक्त होता है
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु
नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ
सहज जड़ करनी॥1॥
समुद्र
ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए।
हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥
भगवान
शब्द का अर्थ :-------
-----------------------------
भगवान शब्द की परिभाषा क्या है ? इसे जानने के लिए हमें
उस शब्द पर विचार धारा करना है . उसमें प्रकृति और प्रत्यय रूप 2 शब्द हैं–*भग + वान्*.
भग
का अर्थ विष्णु पुराण ,६/५/७४ में बताया गया हैं:
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः
श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।
अर्थात
सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्ति विशेष ) , यश ,श्री ,सारा ज्ञान
, और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं. इस तरह से भगवान शब्द से तात्पर्य
हुआ उक्त छह गुणवाला, और कई शब्दों में ये6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान
कहते हैं,
भगोस्ति अस्मिन् इति भगवान्,
यहाँ
भग शब्द से मतुप् प्रत्यय नित्य सम्बन्ध बतलाने के लिए हुआ है .अथवा पूर्वोक्त 6 गुण
जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान् कहा जाता है मतुप् प्रत्यय नित्य योग (सम्बन्ध)
बतलाने के लिए होता है – यह तथ्य वैयाकरण अच्छी तरह से जानते है—
यदि
भगवान शब्द को अक्षरश: सन्धि विच्छेद करे तो:
*भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ*
भ
धोतक हैं भूमि तत्व का, अ से अग्नि तत्व सिद्द होता है. ग से गगन का भाव मानना चाहिये.
वायू तत्व का उद्घोषक है वा (व्+आ) तथा न से नीर तत्व की सिद्दी माननी चाहिये. ऐसे
पंचभूत सिद्द होते है. यानि कि यह पंच महाभोतिक शक्तिया ही भगवान है जो चेतना (शिव)
से संयुक्त होने पर दृश्यमान होती हैं.
भगवान
शब्द की अन्यत्र भी व्यांख्याये प्राप्त होती रहती है जो सन्दर्भार्थ उल्लेखनीय हैं:
यही
भगवान् उपनिषदों में ब्रह्म शब्द से अभिहित किये जाते हैं और यही सभी कारणों के कारण
होते है। किन्तु इनका कारण कोई नही। ये सम्पूर्ण जगत या अनंतानंत ब्रह्माण्ड के कारण
परब्रह्म कहे जाते है । इन्ही के लिये वस्तुतः भगवान् शब्द का प्रयोग होता है—
द्धे महाविभूत्याख्ये परे ब्रह्मणि
शब्द्यते ।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे ।।
– विष्णुपुराण ६/५/७२
यह
भगवान् जैसा महान शब्द केवल परब्रह्म परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है ,अन्य के
लिए नही
एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति। परमब्रह्मभूतस्य
वासुदेवस्य नान्यगः।।
इन
परब्रह्म में ही यह भगवान् शब्द अपनी परिभाषा के अनुसार उनकी सर्वश्रेष्ठता और छहों
गुणों को व्यक्त करता हुआ अभिधा शक्त्या प्रयुक्त होता है,लक्षणया नहीं । और अन्यत्र
जैसे–भगवान्
पाणिनि , भगवान् भाष्यकार आदि ।
इसी
तथ्य का उद्घाटन विष्णु पुराण में किया गया है—
तत्र पूज्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमन्वितः।
शब्दोयं नोपचारेण त्वन्यत्र ह्युपचारतः।।–६/५/७७,
ओर
ये भगवान् अनेक गुण वाले हैं –ऐसा वर्णन भगवती श्रुति भी डिमडिम घोष से कर रही हैं–
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी
ज्ञानबलाक्रिया च
—श्वेताश्वतरोपनिषद
, ६/८,
इन्हें
जहाँ निर्गुण कहा गया है –निर्गुणं , निरञ्जनम् आदि,
उसका
तात्पर्य इतना ही है कि भगवान् में प्रकृति के कोई गुण नहीं हैं । अर्थात सगुण श्रुतियों
का अपमान होगा ।
जो
सर्वज्ञ –सभी वस्तुओं का ज्ञाता, तथा सभी वस्तुओं के आतंरिक रहस्यों का वेत्ता है ।
इसलिए वे प्रकृति –माया के गुणों से रहित होने के कारण निर्गुण और स्वाभाविक ज्ञान
,बल , क्रिया ,वात्सल्य ,कृपा ,करुणा आदि अनंत गुणों के आश्रय होने से सगुण भी हैं
।
ऐसे
भगवान् को ही परमात्मा परब्रह्म ,श्रीराम ,कृष्ण, नारायण,शि ,दुर्गा, सरस्वती आदि भिन्न
भिन्न नामों से पुकारे जाते है । इसीलिये वेद वाक्य है कि ” एक सत्य तत्त्व भगवान्
को विद्वान अनेक प्रकार से कहते हैं–
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति
ऐसे
भगवान् की भक्ति करने वाले को भक्त कहते है । जैसे भक्त भगवान के दर्शन के लिए वयाकुल
रहता है और उनका दर्शन करने भी जाता है । वैसे ही भगवान् भी भक्त के दर्शन हेतु जाते
हैं | भगवान ध्रुव जी के दर्शन की इच्छा से मधुवन गए थे –
मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः –भागवत
पुराण ,४/९/१
जिस
तरह भक्त भगवान की भक्ति करता है वैसे ही भगवान्
भी भक्तों की भक्ति करते हैं इसीलिये उन्हे
भक्तों की भक्ति करने वाला कहा गया है ।
·
आकाश के
तीन गुण – स्वभाव - हैं १ विशाळता – स्वाभाविक व्यापकता, २ असंगता - निर्लेपता, ३ शब्द
– शब्द ब्रह्म की क्रिडा हैं।
·
वायुके तीन
लक्षण, १ शीतलता, २ मंद – त्रिवता नहीं लेकिन मंदता और ३ सुगंधितता - खुश्बु हैं।
·
अग्नि के
तीन गुण १ पावित्र्य, २ सम्यक रुप के उअय्प्ग से सब कुछ पचा देता हैं ३ अग्नि ज्ञान
हैं – ज्ञानाग्नि हैं।
·
जल के तीन
गुण स्वच्छ्ता – पवित्रता जल सब को स्वच्छ करता हैं, २ मधुरता – स्वाद से भरा और ३
ठंडकता हैं।
·
धरती के
तीन गुण १ धैर्य धारण करना- धीरज धारण करना , २ सहनशीलता और ३ क्षमा करना हैं।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के
बचन संत सह जैसें॥2॥
पादूका
अमूल्य होती हैं, उसका कोई मूल्य नहीं हैं, यह तो एक संपदा हैं।
अगर
किसी बुद्ध पुरुष में यह १५ लक्षण स्वभाव दिखाई दे तो उसका संग न छोडे।
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित
अति अधम सरीरा॥2॥
द्रष्टि
हो तो (दर्शन करने की सुझ) खंभा में – पथ्थर में - हरि दिखाई देता हैं और अगर द्रष्टि
नहीं हैं तो हरि में भी खंभा – पथ्थर - दिखाई देता हैं।
बहूत
भाग्य एकत्रित होता हैं तब साधु पुरूष का संग मिलता हैं।
साधु
रे पुरुषनो संग …..
સાહેલી મોરી ભાગ્ય રે મળ્યો
અમને સાધુ પુરુષ નો સંગ
અવર પુરુષ નો સંગડો ના કરીએ હરિ
એ તો પાડી દિયે ભજન માં ભંગ
ભાગ્ય રે મળ્યો અમને સાધુ પુરુષ નો સંગ
નિંદા ના કરનારા નરકે લઇ જાવે હરિ
જઈ ને સર્જે ભોરીંગ
ભાગ્ય રે મળ્યો અમને સાધુ પુરુષ નો સંગ
સાધુ રે પુરુષ નો સંગડો જો કરીયે હરિ
તો તો ચૌગુના ચઢે અમને રંગ
ભાગ્ય રે મળ્યો અમને સાધુ પુરુષ નો સંગ
મીરા બાઇ ગાવે સંત ચરણ રજ હરિ
એ તો ઉડી ઉડી લાગી મારે અંગ
ભાગ્ય રે મળ્યો અમને સાધુ પુરુષ નો સંગ
संत
समागम दुर्लभ भाई …..
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ
सहज जड़ करनी॥1॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु
तात निसिचर कुल भूषन॥4॥
गुण
का एक अर्थ बंधन होता हैं, हरेक गुण बंधन हैं, ईसी लिये गुणातित शब्द आया हैं।
सत्व
गुण और सत्व गुण के बिच _____ सेतु बनता हैं। धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्म पितामह जो
दोनो सत्व गुण प्रधान हैं, उसके बिच कृष्ण सेतु बनते हैं।
9
10/01/2021
भगवान
राम परमार्थ रुप हैं।
क्रोध
पराया हैं, बोध अपना हैं।
राम
राज्य में सब आपसमें प्रेम करते हैं, यह सब से बडा कार्य हुआ हैं।
भिक्षुक
के पात्र में भिक्षा समय जो भी मिले उसे खाना चाहिये ऐसा नियम हैं।
कथा
एक प्रयोग शाला हैं।
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