Translate

Search This Blog

Sunday, March 29, 2020

चैत्र नवरात्रि २०२० के दिनोमें बापु से संवाद


चैत्र नवरात्रि २०२० के पावन दिनोमें पूज्य मोरारि बापुसे संवाद
चैत्र नवरात्रि २०२० के पावन दिनोमें पूज्य मोरारि बापु संवाद - वार्तालाप द्वारा संवाद करते है, जिसका कुछ सारांश (मेरी समझके अनुसार) मेरे BLOG के VISITORS के लिये यहां प्रस्तुत करता हुं । क्षतिके लिए क्षमापार्थी हुं ।
   प्रथम नवरात्रि - 25/03/2020
स्व से लेकर सर्व के लिये प्रधान मंत्री द्वारा किये गये लोक डाउन का पालन करे । यह २१ दिन का एक अनुष्ठान है । हम सब ईस अनुष्ठान का प्रमाणिकतासे पालन करके जुड जाना चाहिए ।
तुलसीदासजी भी कहते है कि ….
धीरज धर्म मित्र अरु नारीआपद काल परिखिअहिं चारी
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीनाअंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती हैवृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
मानसकार कहते है कि धीरज, धर्म, मित्र और स्त्री की परीक्षा विपत कालमें ही होती है । ईस आपत कालमें डरनेकी जरूरत नहीं हैं लेकिन परम तत्व पर भरोंसा रख कर प्रगट होता धैर्य आपत कालमें मदद करता है । धर्म यानी सत्य, प्रेम और करूणा, ह्मारा जीवनका सत्य, दिलका प्रेम और आंखो की करूणा की कसोटी आपत काल में ही होती है । हमारा सखा, मित्र, परमात्मा हमारा सबसे बडा सखा जो हमसे जुडा हुआ है । हमे अपनेमें अर्जुनपना लाना पडेगा । परमात्मा सुखमें सक्रिय नहीं रहते लेकिन दुःखमें सक्रिय रहते है । ईस सखाके सख्यको हम कितना निभा शकते है ईसकी कसोटी भी आपत कालमें होती है। नारी याने केवल मातृ शक्ति हि नहीं लेकिन एक ऊर्जा – शक्ति जिसके कई अर्थ है। ईस आपत कालमें धैर्य रखे, सत्य, प्रेम, करूणा का धर्म में खरे ऊतरे और हमारी विश्व मैत्री अखंड बनए रखे और हमारी ऊर्जाकी आराधना करे। हमें धैर्य रखकर निज से लेकर निखिल तक, पिंड से लेकर ब्रह्नांड तक ईस आपतिसे बाहर नीकलना है । हम हिन्दुस्तानमें है ईसी लिये मुस्कराते रहे ।
  द्वितीय नवरात्रि   २६/०३/२०२०
____________________________________________________________
तपबल रचइ प्रपंचु बिधातातपबल बिष्नु सकल जग त्राता
तपबल संभु करहिं संघारातपबल सेषु धरइ महिभारा
राम कृपाँ नासहिं सब रोगाजौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासासंजम यह बिषय कै आसा।।3।।

यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँसद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास होविषयों की आशा करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नासाहींनाहिं जतन कोटि नहिं जाहीं।।4।।

श्रीरघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी हैश्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवाके साथ लिया जाने वाला मधु आदि) हैइस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।।4।।
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँईजब उर बत बिराग अधिकाई।।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई बिषय आस दुर्बलता गई।।5।।

हे गोसाईं ! मनको निरोग हुआ तब जानना चाहिये, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाय, उत्तम बुद्धिरूपी भूख नित नयी बढ़ती रहे और विषयों की आशारूपी दुर्बलता मिट जाय।।5।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगादूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँतू सावधान होकर सुन और मन में धारण करपहली भक्ति है संतों का सत्संगदूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

सत संगति दुर्लभ संसारा निमिष दंड भरि एकउ बारा।।3।।

जो आपने मुझे से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजीके मनको प्रिय लगनेवाली अति पवित्र रामकथा पूछीसंसारमें घड़ीभरका अथवा पलभरका एक-बारका भी सत्संग दुर्लभ है।।3।।
OSHO का अर्थ अपनी खुदकी प्रसन्नता है । OWN SILENT HAPINESS OUR. मजबुरीसे भी शांत होना पडता है । स्मशानमें भी शांति होती है । कोई हमे डराकर भी शांत कर शकता है । कई प्रकारसे शांत रहना पडता है । प्रसन्नता अपनी खुदकी है? हमारी प्रसन्नता कीसी कारणसे तो नहीं है ? आज कल २१ दिन का एकान्तवास मीला है ।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा।
परस कि होइ बिहीन समीरा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।
बिनुहरि भजन न भव भय नासा।।4।।

निज-सुख (आत्मानन्द) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्वके बिना क्या स्पर्श हो सकता है ? क्या विश्वास के विना कोई भी सिद्धि हो सकती है ? इसी प्रकार श्रीहरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता।।4।।
जीवन मृत्युमें कोई भेद नहीं है ।
संवाद करनेवालोको कोई अलग नहीं कर शकता । संवाद परमात्माका पर्याय है । प्यार करनेकी अलग अलग बिधा है । मेरी राम कथा मेरी प्यार करनेकी एक बिधा है । श्रोता वक्ता ….. ।
____________________________________________________________

   २७/०३/२०२०


४   २८/०३/२०२०

५   २९/०३/२०२०

६   ३०/०३/२०२०
गीताके चोथे अध्यायमें एक श्लोक है।
द्व्य यज्ञा …स्वाध्याय …..
पांच यज्ञ – द्र्व्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ और ज्ञान यज्ञ. आज कल यह पांच यज्ञ को शरू करनेकी आवश्यकता है। द्रव्य यज्ञ का आजके संदर्भमें संवेदना सह सबको अपनी क्षमताके अनुसार यह तपस्याके दिनोमें शरू करना चाहिये, जिसने शरू किया है उनको साधुवाद, धन्यवाद। ईसके साथ हरि स्मरण भी करना चाहिये। केवल विचार करनेसे किछ होनेवाला नहीं है। भरोंसा भी रखना चाहिये। तर्क वितर्क यात्रा बहुत करते है लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है। स्मरणके साथ सेवा करानी चाहिये। हरि नाम भितरकी औषधि है। सभी विकारोको हरि नाम काट देगा। आज पुरा देश और अन्य कई देश लोक डाउन करके एक तप यज्ञ कर रहे है। राम राज्य आनेके बाद रोग नहीं रहा था, शोक भी नहीं था। घरमें रह कर हम तपस्या करे, सही अर्थमें गृहस्थ रह कर राष्ट्रकी सहायता करे। आज कल तीन प्रकारके योग हो रहे है – प्रियजनोके वियोगके संयोगका योग, स्थिर रह कर संयोगका योग और अपनी क्षमताका उपयोगका योग। जड वस्तुका उपयोग – सद उपयोग, चैतन्यका उपयोग करके भूल सुधारनेकी जरूरत है। सदग्रंथके सुत्र सब कालके लिये है। स्वाध्या – अध्ययन, प्रवचन वगेरे ज्ञान यज्ञ है। सुत्रोको पचानेके लिये अपनी क्षमताके अनुसार प्रयत्न करना चाहिये। स्व का स्वाध्याय, अध्याय करना चाहिये हो एक ज्ञान यज्ञ है। INFORMATION मार्ग है, KNOWLEDGE मंझिल है। यह बहुत कठोर व्रत है। हम जीव होनेके नाते हमारेमें ईच्छाए बहुत होती है लेकिन सामर्थ्य नहीं है और ईच्छाए बढती ही जाती है। शिवमें सामर्थ्य बहुत है। आशाए भटकाती है।  
गंगा बहुत पवित्र है। बाहरसे हमने उसे अस्वच्छ कर दी है। गंगा लोक मंगलके लिए भगवत चरणसे विमुख हो गई और अब न जाने कब वापस भगवत चरन प्राप्त होगा? हम अपने स्वभाव से दूर होकर दुसरोके प्रभावमें आ गये है। ऐसे समयमें हमे यह पांच यज्ञोका विवेके सह पालन करे। ईच्छा और सामर्थ्यका मिलन होनेसे घटना घट शकती है। देश और दुनियाकी आज कल की विषम परिस्थितिमें हम भी विषम व्रत करे।

   ३१/०३/२०२०
ईस विषाद योगमें प्रसाद योग आये इस लिये यह संवाद है। हमारे सुख दुःख, हित और अहित, हमारा शुभ और अशुभ वगेरेके मूल कारन क्या है? मानस के मुताबिक सुख दुःख के चार कारन है – काल, कर्म, स्वभाव, गुन.
लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड॥
लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन श्री रामजी को क्यों नहीं भजता?
हम सब काल के निशाने पर है। मृत्यु ध्रुव है।
करम  प्रधान  बिस्व  करि  राखा। 
जो  जस  करइ  सो  तस  फलु  चाखा॥2॥
उन्होंने  विश्व  में  कर्म  को  ही  प्रधान  कर  रखा  है।  जो  जैसा  करता  है,  वह  वैसा  ही  फल  भोगता  है॥2॥
यहां कर्म के कारन दुःख का उल्लेख है।
गुन भी दुःख का कारन है। हम गुनातित नहीं हो शकते है।
गुनातीत अरु भोग पुरंदर।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
काल के कारन हम दुःख पाते है।
हमारा कर्म भी दुःख का कारन है।
हम सतसंग और संवाद द्वारा विवेक सह कौनसा कर्म करे न करे यह तय कर शकते है। हमें प्रत्येक कर्मके लिये सावधान रहना चाहिये। हालाकी कर्मकी गति गहन है। रजो गुनी कर्म विलास की और ले जाता है। तमो गुनी कर्म और सतो गुनी कर्म विनाश की ओर और सतो गुनी कर्म विश्राम की ओर ले जाते है। हाथ कर्म के प्रतीक है। हमारा कर्म सुख दुःख का कारन है। गुन का एक अर्थ दोरी – रस्सी होता है। स्वभाव भी सुख दुःख का कारन है। कुछ बंधन सुखद होते है। वेदान्त का सत्य, गीता का सम और मानस का सब है। हमारे सुख दुःख का सबसे बडा कारन हमारा स्वभाव है। कई लोग दुसरोके प्रभाव से दुःखी है। अभाव को हम पुरुषार्थ करके कम कर शकते है।
जासु  सुभाउ  अरिहि  अनूकूला। 
सो  किमि  करिहि  मातु  प्रतिकूला॥4॥
अब  यह  सुनकर  मुझे  संदेह  हो  गया  है  (कि  तुम्हारी  प्रशंसा  और  स्नेह  कहीं  झूठे  तो  न  थे?)  जिसका  स्वभाव  शत्रु  को  भी  अनूकल  है,  वह  माता  के  प्रतिकूल  आचरण  क्यों  कर  करेगा?॥4॥ 
जीवनमें कुछ अंधेरा भी जरूरी है, सिर्फ उजाला ही पर्याप्त नहीं है। हमे प्रकृति - जगत और पुरूष - भगवान के अनुकूल होकर जीना है।

८   ०१/०४/२०२०
   ०२/०४/२०२०

१०  ०३/०४/२०२०

११  ०४/०४/२०२०
जगदगुरू आदि शंकराचार्य भगवान जो अद्वैत में मानने वाले है, ने पंच देवकी पूजा के लिये कहा है। हमें देह पूजा करनी चाहिये। कयोंकि ईस शरीर साधन है।
तुलसीदासजी भी कहते हैं कि ….
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
यह शरीर मोक्ष का द्वार है। शरीर को बहार से स्वच्छ और भीतर से पवित्र रखना चाहिये। शरीर स्थुल है। स्थुल से सुक्ष्मकी यात्रा करनी है। देह से बहार नीकल कर दीन – गरीब, वंचित की सेवा करनी चाहिये। हमारे देश में १३० करोड देवता है। दीन की पूजा करनी चाहिये क्योकी परमात्माको दीन प्यारे है। हमे आगे बढ कर देश सेवा करनी चाहिये। बधा सुखी रहें ऐसी हमारी भावना है। जय जगत, जय जीव जैसे सुत्र है।
देश देवो भव । फिर हमारे ईष्ट देवकी पूजा करनी चाहिये। ईष्ट देव सर्व व्यापक है। अपनी ईष्ट देव की सेवा करते करते हमें महादेव तक पहुंचना है। हमारा सबसे मेला कपडा कपट है। भगवान राम भी कहतें हैं कि “मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥“ शास्वत देवालय तो ह्नदय है। दिल देवो भवः। तेथी तो हम गाते हैं कि “दिल एक मंदिर हैं। स्थुलसे सुक्ष्म तक की यह एक यात्रा है। ह्म ईश्वर के अंश है। हम समर्थ के आश्रयमें है। सब के देव अलग अलग है।
Click here to Listen Video


१२  ०५/०४/२०२०   

१३  ०६/०४/२०२०


१४  ०७/०४/२०२०

१५  ०८/०४/२०२० हनुमान जयंती
आध्यात्मिक त्रिकोन
वेदो का सार उपनिषद है, उपनिषदो का सार भगवद गीता है। गीता के योगो को राम चरित मानसमें प्रस्तुत है, भगवद गीता का सार राम चरित मानस है, सुंदरकांड मानस का सार है और हनुमान चालीसा सुंदरकांड का सार है। हनुमान चालीसा शुद्ध और सिद्ध है। हनुमान चालीसा का प्रारंभमे ही तुलसीदासजी एक मांग करते है, हम जेसे के लिये और साधक और सिद्ध के लिये तीन चीज – बल, बुद्धि और विद्या मांगते है. यह भी एक त्रिकोन है। यह त्रि सुत्रीय मांग के कई अर्थ है। हमे जीवनमे बल चाहिये, बल के बिना कु्छ नहीं हो शकता, बिद्धि बिना का बल आतंक फैलायेगा। बुद्धि बिना का बल दुनियाको कुरूप बनायेगा। बुद्धि भी तेज होनी चाहिये, लेकिन भेद न होना चाहिये। ईसी लिये हमें विद्या भी चाहिये। सा विद्या या विमुकतये। ईसी लिये मुक्ति प्रदान करने वाली विद्या चाहिये। हनुमानजी के पास यह सब है। हनुमानजी बुद्धुमताम वरिष्ठम है। हनुमानजी विद्यावान है। जब बल होगा तो कर्म भी होगा। बल कर्म योग के लिये चाहिये। बुद्धि की मांग ज्ञान योग है। विद्या भक्ति से जुडी है। माया और भक्ति नारी रूप है। माया अविद्या है, भक्ति विद्या है। भक्ति एक प्रयोग है, भाव है। दुःख और सुख के कारण आंसु बनते है। भक्ति एक आवेश नहीं है, पागलपन नही है, भक्ति परम होश का नाम है। विद्य उसको कहते है जो हमें मुक्त करे, हमारे अहंकार, घमंड से मुक्त करे। आज के विकट समयमें हमें बल, बुद्धि और विद्या की जरूरत है। हमें आत्म बल, मनो बल चाहिये। हमें आत्मिक मनोबल चाहिये। बुद्धि ज्ञान बल है। हमें आध्यात्म विद्या चाहिये। हनुमानजी बल से मा जानकी की खोज करते है।
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥
बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया।
परमात्मा एक सेतु बनाते है जिसमें नल नील की प्रधानता है। नल नील शील्प कर्म जानते है। हनुमानजी के कहने पर एक पथ्थर उपर रा और दुसरे पर म लिखो जिससे दोनों जुड जायेगा और सेतु बनेला। यह हनुमानजी की बुद्धिका प्रभाव है, जिससे हरेक पथ्थर एक दुसरेसे जुड कर सेतु निर्माण होता है। रावण का निर्वाण भी विद्या के द्वारा होता है।
साधु कभी उग्र नहीं होता है, लेकिन संवेदनशील होता है। साधु यह सोचता है कि कहीं यह वर्तमान विकट स्थिति मेरी भजन की कमी के कारण तो नहीं है? साधु अपना समाज खुश रहें, तंदुरस्त रहे ऐसा सोचता है।
सच्चा भक्त भगवान से मुक्ति नही मागेगा लेकिन भगवान को मुक्त रखना चाहता है। गोपी विरह का बंधन स्वीकार करके कृष्ण को मुक्त रखती है, धर्म संस्थापन के लिये, अवतार कार्य के लिये मुक्त रखती है। भक्त सहर्ष बंधन स्वीकार करके भगवानको, अपने बुद्ध पुरूषको मुक्त रखता है।
प्रमाणिक दूरी का मतलब है, करीब से करीब और दूर से दूर।
हरि नाम लो, निराश नहीं होना है।
चोपाई मंत्र है।

१६  ०९/०४/२०२०
आज का संवाद मेरी शरुआत की अदा के अनुरूप है। यह धीर गंभीर और मौलिक है। यह ६५ साल के पहले की बातें है। यह गुरू दत्त शैली, सहज शैली रही है। आज का संवाद दोहावली रामायण के एक दोहे पर है। आज का संकट हरि भजन बढाने में सहाय हुआ है।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो।
तुलसीदासजी दोहावली रामायणमें कहते है कि ….
तुलसी असमय के सखा धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत राम भरोसो ऐक।447।
यह सात बस्तु असमय के सखा है, साथी है। आज भी असमय चल रहा है। ईस समय यह सात सखा हमारे सात है, यह अनुभवकी बात है।
धीरज हमारे संकट के समय साथ चलने वाला सखा है। बालकांड के पात्रोमें जब जब असमय आया तब धीरज ही काम आया है। सती का समय धीरज सह ८७ हजार साल पसार करती है। महाराजा दशरथ भी अपने गुरु के चरन में धीरज रख कर चार पुत्रोकी प्राप्ति करते है।
धर्म हमारा समय का सखा है। सिर्फ धर्म ही हमारे साथ चलता है, धर्म ही काम आता है। धर्म का मतलब है सत्य, प्रेम और करूणा । महाभारत के पात्रोमें स्वर्गाहोरण के समय युधिष्ठिरके साथ धर्म के रूप में एक कुत्ता ही रहता है, और सब पात्र छूट जाते है।
तुलसीदासजी कहते है ….
सिबि  दधीच  हरिचंद  नरेसा।  सहे  धरम  हित  कोटि  कलेसा॥
रंतिदेव  बलि  भूप  सुजाना।  धरमु  धरेउ  सहि  संकट  नाना॥2॥
शिबि,  दधीचि  और  राजा  हरिश्चन्द्र  ने  धर्म  के  लिए  करोड़ों  (अनेकों)  कष्ट  सहे  थे।  बुद्धिमान  राजा  रन्तिदेव  और  बलि  बहुत  से  संकट  सहकर  भी  धर्म  को  पकड़े  रहे  (उन्होंने  धर्म  का  परित्याग  नहीं  किया)॥2॥ 
धर्म ही असमय का साथी है।
हमारा सतसंग से प्राप्त हुआ विवेक हमारा असमय का साथी है। सतसंग का रस विवेक है जिसे हमें व्यवहार में लाना है। यह विवेक ही हमारा सखा है। विवेक ही हमें शोक में बचायेगा। विवेक वराह अवतार है।
साहित – साहित्य हमारा असमय का सखा है। अरण्यकांड विवेक की बात करता है। किष्किन्धाकांड साहित्य की -शास्त्र – मंत्र - की बात करता है। सद साहित्य हमारा असमय का सखा है। राज निति जब लडखडाती है तब सहित्य ही सहाय करता है।
साहस रखकर असमय में ह्म सुरक्षित रह शकते है। सुंदरकांड में साहस की बात है। हनुमानजी अदम्य साहस के कारण लक्ष्य प्राप्त कर के लौटते है।
सत्य का शिव संकल्प जीवन में सहाय होता है। गांधीजी के ११ महा व्रत में सत्य पहला व्रत है।
राम भरोंसो – एक भरोंसो – परम तत्व का भरोंसा जो तर्क वितर्क से पर है, हमारा असमय का सखा है। भरोंसे में और कोई डहापण न कराय। भरोंसे बाला धन्य हो जायेगा, कृतकृत्य हो जायेगा। उत्तरकांड भरोंसे का प्रतीक है।
राम भगति जन मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया।।5।।
मेरा मन राम भक्तिरूपी जलमें मछली हो रहा है [उसीमें रम रहा है]। हे चतुर मुनीश्वर ! ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है ? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिये जिससे मैं श्रीरघुनाथजीको अपनी आँखोंसे देख सकूँ।।5।।
भक्ति भरोंसे का नाम है।
हमें राम भरोंसा – गुरू का भरोंसा हर हालतमें बचाये रखना है।

१७  १०/०४/२०२०
यह जीव परमात्मा का जन्मोजन्म का सखा है। परम तत्व से हमारा शास्वत सख्य है। कोई भी संबंध बंधन मुक्त नहीं होता है। संबंध मीठे, खटमीथे, कटु होता है। बंधन से मुक्ति के लिये जब बंधन को परमात्मा का प्रसाद समजकर कोई साधु पुरे अंतःकरण के साथ स्वीकार करता है तब वह बंधन उसका स्वातंत्र्य बन जाता है। बंधन और मुक्ति सापेक्ष है। मानसमें तीन सखा का वर्णन है। जीव की तीन श्रेणी विषयी, साधक और सिद्ध है।
बिषई  साधक  सिद्ध  सयाने।  त्रिबिध  जीव  जग  बेद  बखाने॥
राम  सनेह  सरस  मन  जासू।  साधु  सभाँ  बड़  आदर  तासू॥2॥
विषयी,  साधक  और  ज्ञानवान  सिद्ध  पुरुष-  जगत  में  तीन  प्रकार  के  जीव  वेदों  ने  बताए  हैं।  इन  तीनों  में  जिसका  चित्त  श्री  रामजी  के  स्नेह  से  सरस  (सराबोर)  रहता  है,  साधुओं  की  सभा  में  उसी  का  बड़ा  आदर  होता  है॥2॥
हम सब विषयी है, कुछ साधक स्वाभाव के जिव है, और कुछ गीने चुने सिद्ध है। चौथा प्रकार शुद्ध है, जो बहुत कम मात्रा में है।, शुद्ध बहुत अलग है।
मानस के तीन सखा – केवट निषाद जाति, सुग्रीव – वानर जाति और  विभीषण – निशाचर जाति है। यह भगवान के सखा है।
राम  सखा  सुनि  संदनु  त्यागा।  चले  उचरि  उमगत  अनुरागा॥
गाउँ  जाति  गुहँ  नाउँ  सुनाई।  कीन्ह  जोहारु  माथ  महि  लाई॥4॥
यह  श्री  राम  का  मित्र  है,  इतना  सुनते  ही  भरतजी  ने  रथ  त्याग  दिया।  वे  रथ  से  उतरकर  प्रेम  में  उमँगते  हुए  चले।  निषादराज  गुह  ने  अपना  गाँव,  जाति  और  नाम  सुनाकर  पृथ्वी  पर  माथा  टेककर  जोहार  की॥4॥
राम  सखा  रिषि  बरबस  भेंटा। 
जनु  महि  लुठत  सनेह  समेटा॥3॥
सखा  समुझि  अस  परिहरि  मोहू।  सिय  रघुबीर  चरन  रत  होहू॥
कहत  राम  गुन  भा  भिनुसारा।  जागे  जग  मंगल  सुखदारा॥1॥
हे  सखा!  ऐसा  समझ,  मोह  को  त्यागकर  श्री  सीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  करो।  इस  प्रकार  श्री  रामचन्द्रजी  के  गुण  कहते-कहते  सबेरा  हो  गया!  तब  जगत  का  मंगल  करने  वाले  और  उसे  सुख  देने  वाले  श्री  रामजी  जागे॥1॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥
सुग्रीव विषयी सखा है। ग्रीवा का अर्थ कंठ होता है।
परदा केवल कृपा से हटता है। भजन ठीक न हो तो हटा हुआ परदा वापिस आ शकता है। सुग्रीव विषयी है, पलायन वादी है, सदा भयभीत रहता है। यह हमारे जैसे विषयी जीव के लक्षण है। ऐसा होते हुए भी विभीषण भगवान का सखा बन जाता है। सख्य भाव में सब खुलकर बताया जाता है। सख्य के बाद आत्म निवेदन आता है। सुग्रीव सब कबुल कर लेता है। सुग्रीव हनुमानजी को सदा साथ रखता है। हनुमान जैसे बुद्ध पुरूष का संग न छोडे तो वह कभी न कभी परमात्मासे स्ख्य बना देगा।
साधक सखा विभीषण है। विभीषण रामानंदी है। वहां मंदिर भी है।
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥
यह सब साधक सखा के लक्षण है। मन, वचन और कर्म से किसीका बाधक न बने वह साधक है।
निषाद सिद्ध सखा है। गंगा किनारे रहता है, तो गंगाजल पीता होगा, गंगा स्नान करता होगा। जो परमात्मा के सामने दील खोल कर, कबुल कर बोलता है। यह कबुलात केवट की सिद्धि है। स्वीकार ही सिद्धि है। अपनी स्थिति को परम तत्व के सामने कह देना परम सिद्धि है। केवट यह सब करता है ईसी लिये सिद्ध साधक है।
भागवत में अर्जुन, उद्ध्व और सुदामा कृष्ण का सखा है।
विषयी को प्रभु शिक्षा, साधक  को पर्भु दिक्षा देते है और सिद्ध को भिक्षा देते है।
मानस में भगवान का चौथा सखा भी है जो सुद्ध बुद्ध है। यह सखा महादेव कैलासपति शिव है।
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥
श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥
सखत्व का मतलब है एकत्व।
शिव शुद्ध, बुद्ध सखा है।
गुरू कृपा ही साधन करवाता है।
देह धारण करनार का शरीर जायेगा ही यह ध्रुव सत्य है। केवल सखत्व ही साश्वत है।
समुद्र के पानीमें और उस पानी के एक बुंद मे एक ही गुण है, फर्क सिर्फ मात्रा का है।
साधु शास्रार्थ नही करता है, अनुभव करता है।
सख्यम ही अमरत्व है।

१८  ११/०४/२०२०
अंदामान के एक ५८ साल के एक मुस्लिम महंमद हाजी की जिज्ञासा से आज का संवाद है। सत्य जहां से मिले उसे स्वीकारना चाहिये। संकट कितने प्रकार के होते है? यह प्रश्न पूछा है?
संकट कई प्रकार के होते है? उसे अनेक नाम से जाना जाता है। प्राण संकट, पारिवारिक संकट, राष्ट्रिय संकट, वैश्विक संकट आ शकते है। आज देश और दुनिया एक महामारी का भीषण संकट से गुजर रहा है। हरेक को अपना स्वधर्म निभाना चाहिये।
हनुमान चालीसा में तीन बार संकट शब्द आया है। हनुमान चालीसा के मुताबिक संकट के तीन प्रकार है।
संकट से हनुमान…
संकट कटे ….
पवनतनय संकट हरन ….
हनुमानजी का गुरू सविता – सूर्य है। ईसी लिये यह सविता का सत्य – अपने गुरू का सत्य है। आज के संदर्भ में भी तीन प्रकार के संकट – प्राण संकट, राष्ट्र या विश्व संकट, और धर्म संकट है। धर्म संकट का मतलब सत्य रूपी का संकट, प्रेम मार्गी पर संकट, करूणा मार्गी पर संकट है। बुद्ध पुरूषो की बोली कालान्तरमें सच होती है। यह संकट से बचने के लिये आगे ही बढना पडता है, पीछे नहीं जा शकते। मानस में राम सदा आगे चले है, पीछे नहीं आये। ईस तीन प्रकार के संकट में हम रो नहीं शकते, रोने, हार जानेसे कुछ नहीं होने वाला है। सत्य कभी न कभी बाहर आता ही है। यह संकट से बाहर आने के भौतिक उपाय, आधि दैविक उपाय, कुछ आध्यात्मिक उपाय भी है। संकट से हनुमान छुडावे में हनुमान याने प्राण तत्व है।
ईश्वर नहीं है यह सिर्फ तर्क से सिद्ध नहीं होता है। फूल बिना पैधा होई नहीं शकता है, फूल यह कहे कि पौधा – पेड नहीं है यह सिद्ध नहीं होता है। तर्क करने के लिये भी श्वास लेनी पडेगी, प्राण तत्व लेना पडेगा।
संकट तें हनुमान छुड़ावै मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।
संकट से अगर हम मन, बचन और कर्म से हनुमानजी का ध्यान करते है तो वह हमें संकट से मुक्त करेगा।
संकट कटै मिटै सब पीरा जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
अगर हम हनुमंत का स्मिरन करते है तो भी संकट मीटेगा। जिसका ध्यान करो उसीका ही स्मिरन करो और उसीका ही ह्नदयमें रखो।
हमारा ईष्ट सर्व समर्थ है।
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
श्री हनुमानजी संकट हरने वाले है, उसे राम, लक्ष्मण सीता सहित ह्नदयमें रखो।
यह एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।
हमें यह तीनो संकटो से (प्राण संकट, राष्ट्र या विश्व संकट, और धर्म संकट) छूटने के लिये ध्यान, स्मिरन और ह्नदयमे एक ही तत्व को रखना पडेगा।

१९  १२/०४/२०२०
ओरिस्सा में शंकरी परंपरा के स्वामीजीने जो जीवन के लिये रेडियो को रूपक बनाकर जो कहा उस पर आज का संवाद है।
रेडियो पांच वजह से ठीक से नहीं चलता है – ठीक से बजता नहीं है।
जब रेडीयो अंदरसे बिगडा हुआ होता है तब ठीकसे नहीं बजता है।
अगर हम ठीक से स्टेशन नहीं मिला पाते है तब भी रेडियो नहीं बजता है।
अगर हमारा रेडियो कहीं गीर जानेसे क्षतिग्रस्त होता है तब भी ठीक से नहीं बजता है।
अगर रेडियो की बेटरी चली गई हो, अनचार्जड है तब भी वह नहीं बजता है।
कभी कभी रेडियो स्टेशन बंध हो जाने के बाद अगर हम वह स्टेशन बजाना चाहते है तो वह नहीं बजेगा।
हमारा शरीर भी, हमारा अंतःकरण भी एक रेडियो है।
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
शंकराचार्य भी कहते है कि मनुष्य शरीर दुर्लभ है। सब महा पुरुषो को जो संगीत सुनाई देता है वह संगीत हमें क्यों नहीं सुनाई देता है? ईस जीवनमें परम की प्राप्ति हमारा जीवन सिद्ध अधिकार है। लेकिन यह पांच वजह से प्राप्त नहीं होता है।
हमारा जीवन रूपी रेडियो अंदर से बिगडता है तब यह संगीत नहीं सुनाई देता है। कई लोग हमारे शरीर रूपी रेडियो को अच्छी तरफ रखते है।
ईर्षा, नींदा और द्वेष की जरूरत नहीं है, सम्यक या कम भी जरूरत नहीं है। यह तीन ही हमारे संगीत के बाधक है।
काम, क्रोध, लोभ सम्यक मात्रा में आवश्यक है। वात, पीत और कफ भी सम्यक मात्रा में जरूरी है।
नींदा की जगह हमें नीदान करना चाहिये। द्वेष की जरूरत नहीं है। यन तीन खराबीओने हमारे संगीत के प्रगटीकरण को रोका है।
हमारा शरीर रूपी रेडियो सही दिशामें नहीं होने से भी जीवन संगीत नहीं सुनाई देता है।
शायद हमने समयसर हमारा जीवन रूपी रेडियो को चालु नही किया है, ईसी लिये जीवन संगीत सुनाई नहीं देता है।
हम कभी कभी हमारा जीवन रूपी रेडियो को अनेक कारण सह चालु ही नहीं करते है, ईसी लिये जीवन संगीत नहीं सुनाई देता है। जीवन रूपी रेडियो कोई शोकेसमें रखने के लिये नहीं है, उसे समयसर ठीक से बजायेगें तभी जीवन संगीत सुनाई देगा।
अगर हम हमारा जीवन रूपी रेडियो ठीक समय पर चालु करे, अंदर से ठीक रखे, ठीक से स्टेशन मिलायेगें तभी जीवन संगीत सुनाई देगा।
कभी कभी हमारे मन की दोरी ठीक से स्टेशन नहीं मिला पाती है तब भी जीवन संगीत नहीं सुनाई देगा। हमारा लक्ष्य ठीक नहीं हैं तब भी संगीत नहीं सुनाई देगा।
हमारे रेडियो के ठीक से मरमत करनेवाला हमारा गुरु, हमारा बुद्ध पुरूष है। हमारा बुद्ध पुरूष भी कभी कभी हम पर प्रासादिक प्रहार करके हमारा रेडियो ठीक करता है। परम की प्राप्ति के लिये कोई बुद्ध पुरूष आवश्यक है।
खुनी खांचा को मुनि खांचेमें रूपांतरीत करनेकी जरूरत है।

२०  १३/०४/२०२०
राम चरित मानस में कई प्रकार के मत – गोष्ठि करना - लेने का विधान है। भरत और राम के बीच की गोष्ठि दरम्यान वशिष्टजी कहते है कि आप जो भी निर्णय करे उस से पहले औरो को सुनिये और मनन करने के बाद सादुमत लोकमत, और राज निति का मत और भारत की सर्वोच्च विचारके सार उपनिषद, जो निगम वेदो का अर्क है उसका मत लेकर निर्णय किजिये।
भरत  बिनय  सादर  सुनिअ  करिअ  बिचारु  बहोरि।
करब  साधुमत  लोकमत  नृपनय  निगम  निचोरि॥258॥
पहले  भरत  की  विनती  आदरपूर्वक  सुन  लीजिए,  फिर  उस  पर  विचार  कीजिए।  तब  साधुमत,  लोकमत,  राजनीति  और  वेदों  का  निचोड़  (सार)  निकालकर  वैसा  ही  (उसी  के  अनुसार)  कीजिए॥258॥
आज कल हमारे देशमें भी सब का मत लिया जा रहा है।
राम राज्य की स्थापना के बाद भगवान राम अपने संबोधनमें कहते है कि….
दो.-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।45।।
और भी एक गुप्त मत है, मैं सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।।45।।
यहां प्रभु साधुमत, लोकमत, राजनिति, वेद मत की बात करते है। और प्रभु एक गुप्त मत भी कहते हुए कर जोडकर कहते है कि भगवान शंकर के भजन के बिना कोई मेरी भक्ति प्राप्त नहीं कर शकता है। यह गुप्त मत भगवान प्रेम के कारण जाहिर करते है। भक्ति की प्राप्ति के कई मार्ग है, लेकिन यह गुप्त मार्ग भगवान सार्वजनिक करते है। भक्ति शिव प्रसाद से ही मिलेगी। शंकर का भजन का क्या अर्थ है? शिव का ध्यान, गान, स्मरण, नर्तन, शिव स्तोत्रो के पाठ वगेरे में से हम क्या करें? आज के संदर्भ में शिव भजन का अर्थ क्या है? यह मत बहुत जरूरी है। शंकर का भजन
रहस्य बुद्ध पुरूष के बिना नही खुलता है। यहीं गुरू मत है।
भगवान शिव की तीन बातें, तीन अनुभव को हमें हमारे जीवन में प्रतिष्ठत करे यहीं शिव भजन है।
भगवान शिव कहते हैं कि परमात्मा सर्वत्र समान रूप में ब्यापक हैं।
और यह ब्यापक तत्व को प्रेम से प्रगट कर शकते हैं।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥
मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥
हमें जिस ने अनुभव किया हैं उसकी बात को यकीन रखकर मानना ही शंकर भजन हैं। शिव के अनुभव पर हमें यकिन करने की आवश्यकता है।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
यह शंकर भजन का पहला सूत्र हैं।
भगवद गीता भी यही कहती है।
दूसरा सूत्र
भवानी राम को बिलाप करते हुए देखकर राम पर संदेह करती है तब भगवान शंकर कहते हैं कि …..
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए॥3॥  
शिव भगवान को सच्चिदानंद कहते हैं भीर भी सती संशय करती हैं।
दूसरा सूत्र यह है कि जानने के बाद संशय मत करो।
शिव भजन का तीसरा पहलु यह है कि शिव अपराध हो जाय तो हो जाय लेकिन गुरू अपराध नहीं होना चाहिये।
नरसिंह महेता भी कहता हैं कि
અમે અપરાધી કંઈ ન સમજ્યા, ન ઓળખ્યા ભગવંતને
गुरू अपराध जेवो बीजो कोई अपराध नथी। बुद्ध पुरूष के अपराध को शिव सहन नहीं कर शकतें हैं।
गुरू तिनके जैसी प्रासादिक चोट कभी कभी देता हैं।
गुरू तूटा हुआ तार जोड देता हैं।
शिव त्रुभवन गुरू हैं।
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।4।।
प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज ! जलकी चिकनाई ठहरती नहीं।।4।।
बिना बिस्वास भक्ति नहीं हो शकती।
राम साधु हैं, शंकर भी साधु हैं। उनका मत साधुमत हैं।

२१  १४/०४/२०२०
तलगाजरडा स्थित चित्रकूट के वट वृक्ष का नाम सावित्र वट रखता हुं। और राम कथा जिस वट वृक्ष के नीचे शरूआत हुई उसका नाम त्रिभुवन वट रखता हुं। वट का मतलब वड – श्रेष्ठ हैं।
बटु बिस्वास अचल निज धरमा तीरथराज समाज सुकरमा
सबहि सुलभ सब दिन सब देसासेवत सादर समन कलेसा॥6॥
(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) हैवह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
वट की बहूत महिमा है। कबीर वड ऐसा ही एक नाम है। शान्तिनिकेतन का वट भी है। जहां राम कथा होती है वहां भी मानसिक रुपमें एक वट होता हैं।
गुरू अपराध की बातें बारबार याद न करो पर गुरू अनुग्रह को याद करो। हमें सतसंग द्वारा प्राप्त विवेक सह हम सावधान रहें, ग्लानी मत करो और गुरू अनुग्रह को याद करो।
गुरू के अनुग्रह के आगे कोई समस्या – सवाल रहता ही नहीं हैं।
आश्रित का मन, बुद्धि, चित और अहंकार अपना सदगुरू हैं। यह पूज्य बापुका अनुभव हैं।
गुरू का स्नेह बोलता हैं।
मन कायम अभाववादी रहता हैं, उसका यह स्वभाव हैं। मन सदा ज्यादा की आवश्यकता करता रहता हैं। मन का लक्षण अभाववादी हैं। बुद्धि सदा प्रभाववादी हैं। बुद्धिमान अपना प्रभाव पाडनेका प्रयास करता हैं। चित स्वभाववादी हैं, चित उपर जन्मोज्न्म का संस्कारकी छाप हैं। विक्षिप्त होना, उग्र होना, बोध ग्रस्त होना यह सब लक्षण चित के हैं। अहंकार दुर्भाववादी हैं, जिस के कारण वह दुरभाव करता हैं। यह सनेपात हैं। रावण भी यहीं करता था।
गुरु की बहूत याद आये तब वह दिन गुरू पूर्णिमा का दिन हैं।
गुरू के पास रहने को न मिले तो गुरू के पास रहो, उसके विचारोके सहमत रहना, उसके स्मिरनमें रहना चाहिये। 
बाबा साहेब ने कहा था मेरा सामाजिक तत्व ज्ञान  स्वतंत्रता, समता और बंधुता हैं।

२२  १५/०४/२०२०
आज से अनुष्ठान के दूसरे १९ दिन अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं, कुल ४० दिन (२१+१९=४०) का अनुष्ठान होता हैं, जो हनुमान चालीसा का अनुष्ठान होता हैं।
ब्राझिल के प्रधानमंत्री ने हिन्दुस्तान का आभार व्यक्त करते हुए बयान दिया था कि हनुमानजी संजीवनी बुटी - औषधि लेकर आये हैं।
हनुमानजी के पंच मुख क्या हैं?
हनुमानजी के पंच मुख हैं ऐसा ग्रंथ में उल्लेख हैं, शंकरावतार होने के नाते हनुमानजी के भी पंच मुख हैं।
साधु की अंतःकरण की प्रवृति शास्त्र प्रमाण हैं, साधु का भजन शास्त्र प्रमाण हैं।
तलगाजरडा का पुराना रामजी मंदिर के सामने हनुमानजी की डेरी भी हैं। जो समयान्तरमें स्थानातरीत कर के दूसरा नया मंदिर बनाकर हनुमानजी की नयी मूर्ति की स्थापना की गई हैं।
दूसरे हनुमानजी पिठोडिया के हनुमानजी हैं।
चित्रकूट के हनुमानजी जो शांत चित बैठे हुए हनुमानजी हैं वह भी एक गुणातित श्रद्धा के केन्द्र हैं। यह हनुमानजी की मूर्ति मेरे अंतःकरण से नीकली हुई मूर्ति हैं। हाल की मूर्ति पंच धातु की मूर्ति हैं। उस के बेकग्राउन्डमें सोमनाथ के शिवलींल हैं जो त्रिपुंडधारी हैं। हनुमानजी की पंच धातु की मूर्ति उपर गोल्ड का पतरा – ढोर चढाया - लगाया हया हैं।
हनुमानजी अजर अमर हैं।
चोथा हनुमानजी काशी के संकट मोचन हनुमानजी हैं। यह मूर्ति की स्थापना तुलसीदासजी ने की थी ऐसी कहानी हैं।
पांचवा हनुमानजी अयोध्या का हनुमान गढी हैं।
यह पांच हनुमानजी मेरे गुणातित श्रद्धा के केन्द्र हैं।
ईतिहास तथ्य आधारित होता हैं, आध्यात्म सत्य आधारित होता हैं।
यह पांच हनुमानजी के नामकरण ईस प्रकार हैं।
रामजी मंदिर के हनुमानजी विश्वास हनुमान हैं। पिठोडिया हनुमानजी विराग हनुमान हैं। चित्रकूट हनुमानजी वंदे विशुद्ध विज्ञान रूप विज्ञान हनुमान हैं। काशी के हनुमान विद्वान हनुमान हैं। अयोध्या के हनुमान विश्राम हनुमान हैं। यह हनुमान शांत बेठे हुए श्रोता के रूप में कथा श्रवण कर के विश्राम प्राप्त करते हैं।

२३  १६/०४/२०२०
कबीर साहेब क्रान्तिकारी महापुरूष हैं। वह ब्रह्न प्राप्त विभूति हैं। कबीर साहब भ्रान्तिहारी भी हैं। उन्होंने समाज कई भ्रान्तिओको तोडा हैं। वह शान्तिकारी भी हैं। कबीर साहब क्रान्तिकारीम भ्रान्तिहारी और शान्तिकारी होना यह कबीर साहब की प्रस्थानत्रयी हैं। बुद्ध पुरुषो के बचन से क्रान्ति होती हैं। सूर्य नीकलने से ही क्रान्ति होती हैं। सुर्य किरण गुरू वचन हैं। शान्ति भितरसे प्रगट होती हैं। सधक जब अंतर तरफ पीछे जाता हैं तब उसे पिछली सब याद आता हैं। बहिर यात्रा स्वच्छ होना हैं, अंतर यात्रा पवित्र होना हैं। बुद्ध पुरूष का जन्म, जीवन और अंत हमें समज में नहीं आता हैं। हम ईस बातो मे कोई निर्णय नहीं कर शकते हैं। काशी मुक्ति की भूमि हैं। काशी मे रहनेवाला मोक्षदाई हैं। लेकिन कबीर साहब अंत समयमें काशी छोडकर मगहर गयें हैं। कबीर साहब के मृत्यु के समय भी विवाद हुआ हैं। उनका जीवन, मृत्यु समजमें नहीं आया हैं। घरका कचरा सावरणी से नीकालनेके  लिये आगे जाना पडता हैं, लेकिन पोता करते वखत पीछे जाना पडता हैं। कचरा नीकालना स्वच्छता हैं, पोता करना पवित्रता हैं।
हरि कृपा और गुरू कृपा हुई हैं यह कैसे पता चले?
कबीर कहते हैं…
गुरु को सर पर राखिये- धारिये चलिये आज्ञा माहि।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं।।
(गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात, दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है। गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता । गुरु कि परमकृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है।)
हम बहुत भयभीत रहते हैं। हम सुग्रीव की तरह भयभीत रहते हैं। हम अभय कैसे रहे? जिसको अपने सदगुरूका थोडा सा डर लगता हैं, वह अभय होता हैं। गुरू आज्ञा को मानना वह गुरू को शिर पर रखना हैं, गुरू हमें भय और शोक से निरभार करता हैं। गुरू की आज्ञा अनुसार चलो। मालिक का कोई मालिक नहीं हैं। गुरु आज्ञा हमारी शोभा, हमारा मुकुट हो। जो ऐसा करता हैं उस को तिनो लोकमें कोई भय नहीं हैं। गुरू आज्ञा में कुछ ओर सुधार मत करो। गुरू पहले विवेक देता हैं। हमारा जन्म, जीवन और मृत्यु गुरू कहे उसमें हैं।
बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता।
सुनहु विभीषन प्रभु कै रीती,
करहि सदा सेवक पर प्रीती।।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
संत, हनुमंत और भगवंत का एक त्रिकोन हैं।
हरि कृपा तब जानिये, दे मानव अवतार
गुरु कृपा तब जानिये, छुराबे संसार।
प्रभु की कृपा हम तब जानते है जब उन्होंने हमें मनुष्य रुप में जन्म दिया है। गुरु की कृपा तब जानते है जब वे हमें इस संसार के सभी बंधनों से मुक्ति दिलाते है।
तुलसीदासजी भी कहतें हैं कि ….
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
मनुष्य अवतार मिले यह हरि कृपा हैं।
गुरू कृपा करता हैं तब संसार छूट जाता हैं, संसार के स्वप्ने, संसार की बेहोशी छूट जाती हैं। जब हम कोई वस्तु छोडते हैं तब कर्म आता हैं और जब कर्म आता हैं तब कर्तापन आता हैं और जब कर्तापन आता हैम तब अहंकार आता हैं और जब अहंकार आता हैं तब आदमी बोजिल बन जाता हैं।
कबीर साहब यह भी कहतें हैं कि …..
सो गुरु सत्य कहावै
काया कष्ट भूल नहीं देवें
नहीं संसार छुडावैं
यह मन जाये जहाँ जहाँ तहाँ तहाँ
परमात्मा दरसावें।
यह पंक्ति विरोद्ध मे नहीं हैं।
गुरु संसार छोडाते नहीं हैं, संसार अपनेआप छूट जाता हैं।
कबीर बचनोमें परिवर्तन कोई नहीं कर शकता हैं।
संसार छूट गया ईस का मतलब हैं भूतकाल का शोक छूट गया, भविष्य की चिंता छूट गई और वर्तमान मे जीने लगा। वर्तमान ही एक पल हैं। परम कृपा के प्रवाह में वर्तमानमें जीना हैं।
कबीर साहब कहते हैं की …
देवी बडी न देवता,
सूरज बडा न चाँद।
आदी अंत दोनों बड़े,
कहे गुरु के गोविंद।।
इस दुनिया में देवी, देवता, सूरज और चाँद बडे नहीं है। सबसे बडा आदि और अंत है। आदी(starting point) का मतलब ये धरती का निर्माण जब हुवा वो समय और अंत(End point) का मतलब ये धरती जब नष्ट होगी वो समय। दुनिया की सारी चीजो से आदी और अंत बड़े है।
आदि और अंत समजमें नहीं आता हैं, लेकिन जो आदि और अंत जानता हैं वह बडा हैं।
आदि का मतलब हैं परमात्मा जिसने हमें बनाया और अंत का मतलब हैं गुरु जिसने हमें कायम मुक्त बना दिया। गुरु और गोविंद बडे हैं।
जो शरीर को वेध दे वह तीर हैं और जो ह्नदय को वेध दे वह कबीर हैं।

साधु बोली का मतलब ह्नदय की बोली हैं।

Click Here to Listen Video
२४  १७/०४/२०२०
भगवद प्राप्ति को कैसे पहचाने? ऐसे संत, फकिर, साधु को कैसे पहचाने? ईश्वर तो हमें प्राप्त हैं ही, सिर्फ पहचान बाकी हैं।
भगवद प्राप्त विग्रह के अनेक लक्षण हैं।
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान्‌ के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।
सरस्वती और अनेक मुखी शेष भी भगवद प्राप्त के गुन वर्णन नहीं कर शकते हैं।
हम सांसारिक अपने परिवार जनों को और अन्य चीज वस्तु और पडोषी और खुद को भी पहचान नहीं शकते हैं।
दादा के पंच सूत्र जो पंच शील हैं उसे ध्यान में रखे।
(१)  जहां तक संभव हो सत्य बोलना और वह सत्य प्रिय रहें उसका ध्यान रखना।
(२)  रोज जीतना हो शके मानसका पाठ करो  और गीता के एक अध्याय का पारायण करो।
(३)  अहंकार से सावधान रहना। रजो गुणी अहंकार पकडा मुश्कील हैं। (४) ईर्षा, नींदा और द्वेष से दूर रहना।
(५)  जितना हो शके मौन रहो और हो शके इतना हरि स्मरण करो।
भगवद प्राप्त साधु पुरुष के लक्षण
जो ज्ञान विज्ञान से तृप्त हो गया हैं वह भगवद प्राप्त साधु पुरुष हैं। ज्ञान एटले योग, विज्ञान का मतलब प्रयोग हैं। भगवद प्राप्त व्यक्ति की हर योग, प्रयोग पूर्ण हो गया हैं, और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं हैं, कोई ज्ञान प्राप्त नहीं करना हैं, न कोई खोज करने की जरूर हैं।
भगवद प्राप्त व्यक्ति कुटस्थ हैं, वह न मध्यस्थ हैं, न तट्स्थ हैं, वह विकार रहित – विवेक युक्त अवस्था में हैं, वक्ता कुटस्थ होना चाहिये। आदेश वेद देता हैं, बुद्ध पुरुष देता हैं। आदेश वेद भगवान दे शकते हैं, उपदेश उपनिषद दे शकते हैं, संदेश भगवद गीता दे शकती हैं, कृष्ण आदेश, उपदेश, संदेश दे शकता हैं। कुटस्थ वक्ता तीन प्रकार से बोलता हैं। कुटस्थ रहना का मतलब निर्भयता से बोलना, सत्य बोलना, बोलने में किसी का डर नहीं लगता हैं, निष्पक्ष बोलना, सब से प्रमाणिक अंतर रखना। जहां प्रेम हैं, वहां निरवेरता आती हैं। भगवद प्राप्त बुद्ध पुरूष समज पूर्वक ईन्द्रीयो उपर जीतता हैं। वह पांचे ईन्द्रीयो में विवेक भर देता हैं, विवेक से दीक्षित कर देता हैं। वह मिट्टि, सोना और पथ्थर को एक जेसा देखता हैं।
मिट्टि, सोना और पथ्थर भूमि से जुडा हैं, साधु भी भूमि से जुडा हैं।
रज सत्व गुण हैं, पथ्थर तमो गुण हैं, सोना सत्व गुण हैं। भगवद गुण व्यक्ति यह तीनो को सम गिनता हैं, या उससे उपर ऊठ जाता हैं।
उस के पास आदेश, उपदेश, संदेश नहीं हैं, केवल संवाद हैं।
उसने ईन्द्रीयो उपर विवेक पूर्ण काबु रखकर जीतेन्द्रीय हैं।
यह लक्षण जिसमें हो वह भगवद प्राप्त व्यक्ति हैं।


२५  १८/०४/२०२०
आज वल्लभाचार्य भगवान का प्रागट्य दिन हैं।
ईस परंपरा में अष्ट सखा की महिमा हैं।
सुरदासजी के यह पदमे नितांत शरणागति का भाव हैं।
भरोंसो द्रढ ईन चरनन केरो ……….
ईन चरन का मतलब हैं जहां और कोई चरन नहीं हैं। एक खास चरन की महिमा हैं, दूसरा न कोई, और चरन नहीं। चरन गति का प्रतीक हैं, चरन का मतलब गतिशीलता हैं। लेकिन सुरदासजी के भगवान के चरन चलित नहीं हैं, अचल हैं, द्रढ हैं, यह चरन बिना चले सब कुछ करता हैं, यह भटकते चरन नहीं हैं, यह भटकाने वाले चरन नहीं हैं, यह खास चरन हैं।
महाप्रभुजी के चरन एक सुंदर के चरन हैं। उन के चरन उनकी पादूका जहां होगी वहां ही जायेगा। चरन पादूका हमारा मार्गदर्शक हैं। जितने चरन द्रढ हैं उतनी ही हमारी शरणागति भी द्रढ हैं। चरन स्पर्श करना तन की शरणागति हैं, शारीरिक शरणागति हैं, स्थुल शरणागति हैं। मानसिक शरणागति भी होती हैं। मानसिक शरणागति ज्यादा सुक्ष्म हैं। मनमें जप करना मानसिक शरणागति हैं। वाचिक शरणागति में बोलकर शरणागति करते हैं। पुकार कर कर भी शरणागति होती हैं। मानसिक शरणागति सुक्ष्म शरणागति हैं। आत्मिक शरणागति में आत्मा तो उसीका हैं।
तुलसीदासजी भी कहते हैं ….
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।

जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।
भरोंसा श्रद्धा और विश्वास के दाम्पत्य से प्रगटता हैं, जन्म धारण करता हैं। भरोंसा ए है जिसमें गुणातित श्रद्धा हैं और विवेक पूर्ण विश्वास भी हैं। शरीर से, मन से और वचन से भरोंसा द्रढ होना चाहिये। द्रढ – अचल - अडग भरोंसा होता हैं, वहां आक्षेप नहीं होता हैं। या तो सदगुरु को छोड दो या सदगुरू पर सब छोड दो। श्री क्रुष्ण शरणं मम । हार जीत हम और परम तत्व में नहीं होगी, लेकिन हारेगा तो परम तत्व ही हारेगा, परम का आश्रित नहीं हारेगा। यह द्रढ भरोंसा हैं। हरि को यह हक्क हैं कि वह हमें भूल जाय, लेकिन हम उन्हें नहीं भूल शकते। परम तत्व चर्म चक्षु से नहीं देख पाता, उसे देखने के लिये परम चक्षु चाहिये। शरणागत मुख चन्द्र नहीं देखता हैं, लेकिन नख चन्द्र देखता हैं। सुरदासने दिव्य द्रष्टि से मुख चन्द्र और नख चन्द्र भी देखा हैं। शरणागत के लिये परम का मुख चन्द्र और नख चन्द्र अमृत हैं। कोरोना वायरस किसी के करूणा से जायेगा। दिव्य द्रष्टि नख चन्द्र छटा से मिलती हैं।
तुलसीदासजी कहते हैं कि ….
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
यह कलीकाल में एक ही साधन – हरि चरन में द्रढ भरोंसा हैं।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
राम का स्मरण मानसिक शरणागति हैं, राम का गान वाचिक शरणागति हैं और कर्ण से सुनना स्थुल शरणागति हैं। बुद्ध पुरुष के चरनोंमें बेठ उसके वचनामृत सुनना स्थुल - शारीरिक शरणागति हैं।
यहि कलिकाल सकल साधन तरु है श्रम फलनि फरो सो |
कई साधक सिर्फ गुरु की चरन पादूका ही पूजा गृह में रखते हैं।
सुरदास अपनी आखरी दीनता गाते हैं।
मोह अनेक लोगों को अंध कर देता हैं।
भीतरी अंधत्व वालों को सिर्फ गुरु चरन प्रत्ये का द्रढ भरोंसा ही सहाय करता हैं।
जहां राम निवास करते हैं वही अवध हैं।
सुरदास के पास मर्म चक्षु हैं।
जगु  पेखन  तुम्ह  देखनिहारे।  बिधि  हरि  संभु  नचावनिहारे॥
तेउ  न  जानहिं  मरमु  तुम्हारा।  औरु  तुम्हहि  को  जाननिहारा॥1॥
हे  राम!  जगत  दृश्य  है,  आप  उसके  देखने  वाले  हैं।  आप  ब्रह्मा,  विष्णु  और  शंकर  को  भी  नचाने  वाले  हैं।  जब  वे  भी  आपके  मर्म  को  नहीं  जानते,  तब  और  कौन  आपको  जानने  वाला  है?॥1॥ 
दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।
श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥
साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥
सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ॥
मेरी शरणागति मूल्य आधारित नहीं हैं। शरणागत अमूल्य होता हैं।
सुरदासजी ईस पद में कुछ मागते नहीं हैं।
Click Here to ListenVideo


२६  १९/०४/२०२०
गुरु नानक देव का पद
तुम शरणाई आया ठाकुर
तुम शरणाई आया ठाकुर ॥
उतरि गइओ मेरे मन का संसा जब ते दरसनु पाइआ ॥
तुम शरणाई आया ठाकुर
अनबोलत मेरी बिरथा जानी अपना नामु जपाइआ ॥
तुम शरणाई आया ठाकुर
दुख नाठे सुख सहजि समाए अनद अनद गुण गाइआ ॥
तुम शरणाई आया ठाकुर
बाह पकरि कढि लीने अपुने ग्रिह अंध कूप ते माइआ ॥
तुम शरणाई आया ठाकुर
कहु नानक गुरि बंधन काटे बिछुरत आनि मिलाइआ ॥
तुम शरणाई आया ठाकुर
गुरु नानक देवजी फरमाते हैं कि मैं तेरी शरण में आया। और मेरे मन का मोह, संशय, संदेह, उहापोह आपके दर्शन से समाप्त हो गया। यहां सवाल शरण में आने का हैं। भगवान कहते हैं कि एक बार कोई पुकारता हुआ मेरी शरणमें आता हैं उसे मैं अभय कर देता हुं। संशय नाश कर देता हैं। दर्शन के कई प्रकार हैं। मंदिर में मूर्ति स्थापित करने के बाद प्राण प्रतिश्ठा के समय मूर्ति की द्रष्टि से मुख्य व्यक्ति की द्रष्टि मिलानी की विधी करनी पडती हैं। यह सम्यक दर्शन हैं। ईस सम्यक दर्शन के समय ठाकुर की निगाहे हमें धन्य कर देती हैं।
दूसरा निकट दर्शन हैं जो पुजारी करता हैं।
तीसरा दर्शन दूर से दर्शन हैं। ठाकुर हम से दूर से दूर और नजदिक से नजदिक हैं।
चौथा दर्शन ध्यान में दर्शन हैं। प्रेम मार्ग में ध्यान लग जाता हैं।
तुलसीदासजी भी लिखते हैं कि ….
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥
मुनि का अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमन के भय) को हरने वाले श्री रघुनाथजी मुनि के हृदय में प्रकट हो गए॥7॥
यह उर दर्शन भी कहा जा शकता हैं।
उदर दर्शन भी एक दर्शन हैं।
कल्पन दर्शन
ईस दर्शन में आदमी अपने आरध्य की कल्पना करता हैं और उसे अभ्यास के बाद उस आराध्य का दर्शन होता हैं।
स्वप्न दर्शन
आदमी को परमात्मा स्वप्न में दर्शन देकर आदेश, संदेश, ईशारा करता हैं।
दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥
वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥
त्रिवेणी का दर्शन, स्पर्श, पान, स्नान का महत्व हैं। यह भी एक दर्शन हैं। स्पर्श भी एक दर्शन हैं।
बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥
प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्‌जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान्‌जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए॥1॥
ठाकुर हमें स्पर्श करे और उस के बाद का दर्शन अद्भूत होता हैं। यह स्पर्श दर्शन हैं।
ठाकुर के दर्शन करते करते जब अश्रुपात हो जाय और उस अश्रु से स्नान हो जाय वह मज्जन – स्नान दर्शन हैं। नदी के प्रवाह में स्नान करते वख्त प्रभु दर्शन हो जाय वह मज्जन दर्शन हैं।
हम पवित्र जल का पान करतें हैं। कभी कभी हम कोई बुद्ध पुरूष परमात्मा का जिक्र करता हैं तब जो बुद्ध पुरुष जो वकतव्य देता हैं वह हम हमारे कर्ण द्वारा पान करते हैं और उस वर्णन के हुबहु जैसा एक दर्शन हम करने लगते हैं, उसी की तरह की एक मूर्ति हम अनुभव करने लगते हैं। एसा एक चित्र हमारी समक्ष उपस्थित हो रही हैं और हम देख रहे हैं। यह पाना दर्शन हैं। यह शब्द ब्रह्न को सुनते सुनते साक्षात का दर्शन हैं।
ऐसा कोई भी दर्शन जब हो जाय तब हमारे संशय दूर हो जाते हैं।
गरूड एक संशय लेकर काक भूषुडी के आश्रम में जाता हैं और उसके सब संशय दूर हो जाते हैं।
चौ.-सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।
हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।
आश्रम के दर्शन करनेसे ही संशय दूर हो जाते हैं।
गुरु नानकजी कहते हैं कि मुझे बिना बोले ही, कोई प्रार्थना किये बिना  ठाकुरने सब जान लिया हैं। ठाकुर की यह एक पहचान हैं कि वह हमारे बिना बोले ही जान लेता हैं।
ठाकुर ही हमें उसका नाम जपनेकी शक्ति देता हैं।
ठाकुर अपने आप हमारी व्यथा जान लेता हैं। उसका नाम जपने से हमारा दुःख भाग जाता हैं। और सुख सहज से प्राप्त होता हैं। यह सुख आत्म सुख, परम सुख भी हो शकता हैं। जीव सुख स्वरूप हैं।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।
जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।
गीता के अनुसार ………
सहज सुखी वह हैं जो साधक यह शरीर छूट जाय उअस से पहले काम और क्रोध के प्रचंड वेग को सह कर प्रसन्ता पूर्वक सम्यक संयम कर लेता हैं। ऐसा व्यक्ति भगवद प्राप्त हैं। गर्भावस्था में भी ऐसे संस्कार आ शकते हैं। काम क्रोध के आवेग गुरु कृपा से काबु पाया जा शकता हैं।
सहज सुख पाने के बाद साधक आनंद से झुम कर ठाकुर के अनंत गुन का गान करते हैं। संसार के अंध कूप में डूबने से ठाकुर हमारा हाथ पकडकर बचाता हैं।
गुरु बंधन काट कर आत्म साक्षात्कार करा देता हैं।
Click Here to Listen Video
२७  २०/०४/२०२०
मोरारी – कृष्ण मीरा के थे और राधा के भी थे।
राधा और मीरा में मीरा नीकट पडती हैं। मीरा और राधा एक ही हैं। मीरा कृष्ण को प्रेम करती हैं। राधा परम आह्लादिनी शक्ति हैं, राधा कृष्ण को प्रेम करती हैं और कृष्ण राधा की पूजा करता हैं, कृष्ण की आराध्या आह्लादिनी परम शक्ति राधा हैं, श्री कृष्ण किंकर बन कर राधाजीकी चरणारविंद का सेवन करता हैं, राधाजी के बोल उपर बिक जाता हैं, राधा कृष्ण की आराध्या हैं।
मीरा प्रेम दिवानी हैं।
तुलसीदासजी भी कहते हैं ….
तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥
उसके वचन सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे। उसी प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं। पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं पाता॥4॥
सनातन, सास्वत, अखंड प्रीति की यहां बात हैं।
मीरा का पंच रुप हैं। जो शिव द्रष्टि – कल्याणकारी द्रष्टि के अनुरुप हैं।
मीरा की भूमिका प्रीति हैं, अनुराग हैं जो आखिर में विराग तक ले जाता हैं। मीरा वेल हैं, प्रीत मीरा रुपी वेल का बीज हैं, उदगम स्थान हैं। मीरा की एक भूमिका प्रीत – अनुराग हैं, वेल को जो कलिया आई वह मीरा के पद हैं, मीरा ने बहुत पद लिखे हैं, मीरा ने बहुत गाया हैं। मीरा का तीसरा रुप फूल हैं, जो मीरा का नृत्य हैं। नर्तन मीरा का महत्व का अंग हैं। मीरा का चौथा अंग कृष्ण चरण में शरणागत – समर्पित, फूल का कृष्ण चरण में समर्पित हो जाना हैं। राधा कृष्ण कुटिल केश का फूल हैं और मीरा कृष्ण के कोमल करूणा से समान चरण का फूल हैं। राधाजी और मीरा दोनों फूल हैं, लेकिन यह दो फूल के बीच यह अंतर हैं। कृष्ण चरणार्पित हो जाना संपूर्ण समर्पण हैं, सर्व भावेन, समग्र रूपेण समर्पण हैं जो मन, बुद्धि, चित, अहंकार, तन, ईन्द्रीयो, भाव के बिलग बिलग स्तर, ज्ञान की सात भूमिका, भक्ति की नव विधाए, वह सब कुछ कृष्ण चरणों में समर्पित हैं। मीरा द्वारकाधीशमें खुद को विलीन कर देती हैं, जो समर्पण का गौरीशंकर शिखर हैं। द्वारकाधीशमें अपने आप को खो देना यह चौथा अंग हैं। पांचवा और अंतिम अंग मीरा की कभी न मीटने वाली सास्वत महक हैं। मीरा सास्वत सुगंध हैं। यह एक नुरानी खुशबु हैं, एक देवाताई सुगंध हैं,
मीरा के पांच अंग प्रीत, कली जो पद – गीत हैं, फूल जो नृत्य हैं, प्र्र्ण रुपेण विकसित होकर श्री गोविंद के चरणार्विंद में द्रढ भरोंसे के साथ समर्पित होना, और जिस को कोई पकड नहीं पाता सिर्फ महेसुस कर शकता हैं ऐसी महक हैं। मीरा की महक सब जगह फैल गई हैं। मीरा का प्रेम प्रेमाद्वैत हैं, प्रेम का गौरीशंकर शिखर हैं। कृष्ण कहता हैं सब भटकाव छोडकर मेरी शरण में आजा।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
राधा तो कृष्ण की आराध्या हैं, मीरा का आराध्य कृष्ण हैं। घर के काम करने वालें घर के ही सदस्य हैं ऐसा समजो, भेद न करो। मीरा कृष्ण की रामी हैं। मीरा का उलटा रामी – दासी होता हैं।
राधा हमें  ब्रह्न का भोजन  देती हैं तो मीरा हमें प्रेम का जल देती हैं।



२८  २१/०४/२०२०
आज हम राधाजी को केन्द्र में रखते हुए संवाद करेगें। तलगाजरडा के रामजी मंदिर में ठाकुरजी के दाहिनी और बाई और एक एक मूर्ति हैं जो राधिका और मीरा हैं। जो सेविका होती हैं जिसमे दासत्व हैं, किंकरत्व हैं, सेवकत्व हैं, जो बिना मोल के चेहरे हैं, जो शोक दासिका हैं, जिसमे परमात्मा के चरणोमें ईस प्रकारका द्रढाश्रय और समर्पण हैं वह सदैव दाहिनी ओर रहती हैं।  और जो स्वामिनी होती हैं बह वाम भागमें होती हैं। रामजी की दाहिनी ओर लक्ष्मण जो दास हैं वह बिराजते हैं और वाम भागमें जानकीजी जो स्वामिनी हैं वह बिराजती हैं।
गोस्वामीजी भी लिखते हैं ….
वामांके या यस्यांके
यस्यांके  च  विभाति  भूधरसुता  देवापगा  मस्तके
भाले  बालविधुर्गले  च  गरलं  यस्योरसि  व्यालराट्।
सोऽयं  भूतिविभूषणः  सुरवरः  सर्वाधिपः  सर्वदा
शर्वः  सर्वगतः  शिवः  शशिनिभः  श्री  शंकरः  पातु  माम्‌॥1॥
जिनकी  गोद  में  हिमाचलसुता  पार्वतीजी,  मस्तक  पर  गंगाजी,  ललाट  पर  द्वितीया  का  चन्द्रमा,  कंठ  में  हलाहल  विष  और  वक्षःस्थल  पर  सर्पराज  शेषजी  सुशोभित  हैं,  वे  भस्म  से  विभूषित,  देवताओं  में  श्रेष्ठ,  सर्वेश्वर,  संहारकर्ता  (या  भक्तों  के  पापनाशक),  सर्वव्यापक,  कल्याण  रूप,  चन्द्रमा  के  समान  शुभ्रवर्ण  श्री  शंकरजी  सदा  मेरी  रक्षा  करें॥1॥
 यहां वाम भागमें भवानी बिराजित हैं।
नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग  सीतासमारोपितवामभागम्‌।
पाणौ  महासायकचारुचापं  नमामि  रामं  रघुवंशनाथम्‌॥3॥
नीले  कमल  के  समान  श्याम  और  कोमल  जिनके  अंग  हैंश्री  सीताजी  जिनके  वाम  भाग  में  विराजमान  हैं  और  जिनके  हाथों  में  (क्रमशःअमोघ  बाण  और  सुंदर  धनुष  हैउन  रघुवंश  के  स्वामी  श्री  रामचन्द्रजी  को  मैं  नमस्कार  करता  हूँ॥3॥
वाम भागह आसान दीन्हा ….
स्वामिनी सदैव वाम भागमें रहती हैं। सेविका सदैव दाहिनी रहती हैं।
वाम का एक अर्थ उलटा होता हैं।
जो स्वामिनी हैं, वह रुठ शकती हैं, उसको मनाना पडता हैं, वह मौन रह जाती हैं, प्रेम की क्रिडामें यह वामा - स्वामिनी के लक्षण हैं।
दर्शक जब दर्शन करता हैं तब उसे राधाजी उसके (दर्शकके) दाहिनी ओर और सेविका उसके (दर्शकके) वाम भागमें दिखाई देगी। उसका मतलब हैं कि हे राधाजी तुम्ह गोविंद की वाम भागमें रहियो लेकिन हमारे लिये दाहिने भागमें रहियो। हम प्रतिकूल हो जाय तब भी आप दाहिनी रहियो।
ईस का मतलब यह नहीं हैं कि राधिका सेविका नहीं हैं, राधिका दासीका नहीं हैं, राधिका सब कुछ हैं। जो पूर्ण तह समर्पित हैं वही स्वामिनीत्व का दरज्जा प्राप्त कर शकती हैं। मीरा भी पूर्ण तह समर्पित थी लेकिन उसने स्वामिनीत्व का दरज्जा नहीं लिया हैं, हालाकि परमात्माने तो वह दरज्जा दे दिया था, लेकिन साधक को अपनी पसंद करनी होती हैं। मीरा चाहती हैं कि वो सेविका हि बनी रहे। राधा की गति ऊलटी हैं। प्रेम की गति सर्पाकार होती हैं, कुटिल होती हैं। प्रेम कई मोड से गुजरता हैं।
श्री कृष्णने साज- बांसरी राधाजी को दी थी और आवाज मीरा को दी थी।
वंशी विभूषितकरान् नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणबिंबफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेसुन्दरमुखारविंदनेत्रात् कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने ।। १ ॥
मीरा की आवाज में कृष्ण की आवाज हैं। वेणु राधा को दी, वाणी मीरा को दी।
कृष्ण भगवानने अपने अवतार कार्य पूर्ण करने के बाद अपनी कई निजी वस्तुए अपने सखाओमें बांट दी थी। उद्धवको प्रभुने निर्वाण के पहले अपनी पादूका दी थी। राधा को काली कमली दी थी। लेकिन आज के विचारमें यह लगता हैं कि शायद राधा को अपना उपवस्त्र पितांबर दिया था और मीरा को काली कमली दी थी। मीरा की वाणी में उसका प्रमाण हैं जहां मीरा काली कमली ओढनेको कहती हैं। राधा के अनेक रंग हैं, मीरा का एक ही रंग हैं। राधा सीतार हैं, मीरा एक तार हैं। राधा जो परमात्माकी आह्लादिनी शक्ति हैं, पियाजु हैं, किशोरीजी हैं, स्वामिनी हैं जो परमात्मा के सामर्थ्य को निरंतर अखंड सामर्थ्यवान बना रहे वह स्वामिनी तत्व श्री राधाजी हैं।
टचकी आंगली से भगवान गोवर्धन ऊठाता हैं। टचली उगली स्वामिनी राधा हैं। परमात्मा वेदस्वरुप कहा हैं। श्री कृष्ण वेदस्वरुप हैं तो राधिका वेदिका स्वरुप हैं, जहां हम वेद, अग्नि को स्थापित करते हैं। राधा प्रेम स्वरुपीनी होनेके नाते भगवान की स्वामिनी बन कर शिर पर हैं और राधा वेदिका हैं जो वेदस्वरुप कृष्ण को धारण करती हैं। श्री कृष्ण का आधार राधा हैं और श्री कृष्ण का श्रिंगार भी राधा हैं। परमात्मा कृष्ण सर्वेश्वर हैं और राधा सेविका हैं। परम तत्व परमेश्वर हैं, जगद्गुरु हैं, परम गुरु हैं, तो श्री राधिकाजी उसकी पादूका हैं। राधा आधार भी हैं और श्रींगार भी हैं। चहेरे के सभी अंगो में सबसे प्रतिष्ठित नाक हैं, भगवान श्री कृष्ण मुख हैं तो राधा नासिका हैं, आबरु, ईज्ज्त, महिमा हैं। राधा के कई रुप हैं, अनंत परम शक्ति हैं, अनेक नाम हैं, बिना राधे श्याम आधा हैं। संबंध मुक्त संबंध का नाम राधा हैं। रुकमणी धर्म पत्नी हैं, महारानी पटमहिषी हैं, वह रूठती भी हैं। सत्यभामा अलग स्वभावकी मालिकीनी हैं। द्रौपदी सखा हैं। चीर हरण के समय द्रौपदी कृष्ण पहली बार भगवान कह्कर पुकारती हैं। ऑशो कहते हैं कि उपरसे जो नीचे  आये उसे धारा कहते हैं और उलटी गति करे उसे राधा कहते हैं। कृष्ण प्रेम पानेके लिये राधा मंत्र जपा जाता हैं। कृष्ण साध्य हैं, आखिरी लक्ष्य हैं, राधिकाजी साधिका हैं। राधा शुकदेवजी की गुरु हैं और गुरुजी का नाम स्पष्ट रुपसे नहीं लिया जाता हैं ईसी लिये भागवत में राधा का उल्लेख नहीं हैं। कहते हैं कि शुकदेवजी उसके गुरु राधा का नाम लेते ही समाधि में चले जाते थे, अंतर्मुख हो जाते थे, ईसी लिये बिना नाम लिये बहिर्मुख होकर परीक्षित को भागवत कथा सुनाते हैं। राधा संज्ञा नहीं हैं, अनाम हैं।

29   22/04/2020
प्रगति के तीन प्रकार – आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक हैं, जिसमें विघ्न बहुत आते हैं। यात्रा करनेमें, खोज करनेमें विघ्न का आना स्वाभाविक हैं। आदि भौतिक यात्रामें विघ्न स्वछंद रूप में आते हैं, अचानक, अकलप्य बाधाए आती हैं। कभी कभी हम विवेक शून्य हो जाते हैं और विघ्न आते हैं। भूकंप, अकाल, सुनामी, ठंडी, गरमी, अधिक वर्षा, हाल की परिस्थिति बगेरे अकलप्य बाधाए हैं। असहाय स्थिति में से ही सहाय आती हैं। आध्यात्म यात्रा भौतिक और दैविक यात्राकी तुलनामें उदार हैं, जहां विघ्न क्रमशः आते हैं। महर्षि रमण भी यही कहते हैं। विक्षिप्त व्यक्ति, दुसचरित व्यक्तिम अशांत व्यक्ति कभी आत्म तत्व को प्राप्त नहीं कर शकता। आध्यात्म यात्रा छंद बध्ध होती हैं और उसमें विघ्न भी छंद बद्ध आते हैं। गंगा बहती रहती उसे देखते रहो और जब प्यास लगे तब गंगाजल पी लो। हरि कथा जो त्रिभुवनीय गंगा हैं वह चलती रहती हैं, सतसंग चलता ही रहता हैं, उसमें से जब प्यास लगे तब कुछ पि लो तो एक तसल्ली हो जायेगी।
साधक की यात्रामें पंच विघ्न आते हैं। अखंड और अभेद श्रद्धा, किसी साधु का संग – मार्ग दर्शन और प्रभु नाममें प्रियता की कसोटी जब आध्यात्म यात्रामें विघ्न यात्रा दरम्यान होती हैं। भरत की अयोध्या से चित्रकुट की यात्रा और हनुमानकी किषकिन्धा से त्रिकुट - लंका तक की यात्रा में कुछ परिवर्तन के साथ बाधाए आयी हैं।
श्री भरतजी अयोध्या से श्री राम को मनाने अयोध्यासे चित्रकूट की यात्रा सब नगरजनों के साथ पदयात्रा करते हैं।
सब पद यात्रा करते हैं, पेदल चलते हैं।
कौशल्या मा के कहने पर भरत रथ में बेठते हैं।
यह साधक की यात्रा का पहला विघ्न हैं।
हमे कोई श्रेष्ठ के कहने पर अपने व्रत नियम को, अपनी साधना को भंग करना पडता हैं। हमारे व्रत नियम जब सार्वजनिक हो जाता हैं तब विघ्न आते हैं।
समाजमें गेर समज फैल जाने से समाज साधक की साधना में विघ्न डालते हैं। गुह राज भरत की यात्रा का विरोद्ध करके हुमला करने तक का विघ्न डालता हैं। बिच वाला समाज गेरसमज करे और समाज को उकशाकर साधक की यात्रामें विघ्न डालता हैं। भीडमें विवेक नहीं होता हैं।
भरद्वाज रुषि भी कसोटी करते हैं। वह भरत के लिये सब सुविधा उपलब्द करने का प्रयास कर भरत की यात्रा में विघ्न डालते हैं। पार्वती की परीक्षा खुद भगवान शिव कराते हैं।
कभी कभी दैविक शक्तियों भी साधक की यात्रामें विघ्न डालते हैं। ईन्द्र भरत की यात्रा में विघ्न डालता हैं। दैविक शक्ति भी छल कर साधककी यात्रा में विघ्न डालते हैं।
साधक जब अपने अंतिम चरण में पहोंचता हैं तब परिवार की कोई व्यक्ति ही विरोध करेगा और मार डालने तक की बात करता हैं। जब ऐसी स्थिति आती हैं तब मान लो के साधक अपने अंतिम चरण में हैं, लक्ष्य प्राप्ति के नजदिक हैं।
लक्ष्मण बहुत गेरसमज कर भरत का विरोध करता हैं और भरत को खत्म करने का कहता हैं।
अखंड और अभेद श्रद्धा जिसे गुणातित श्रद्धा भी कही जाती हैं ऐसी श्रद्धा, साधु का संग और हरि नाम की प्रियता चित्रकूट में मिलन करा देगी।
चित्रकूट अचल चित का प्रतीक हैं।

30  23/04/2020
संत हनुमंत और भगवंत एक आध्यात्मिक त्रिकोन हैं, प्रस्थानत्रयी हैं।
शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम्
सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः
(I offer obeisances again and again to shrI Veda VyAsa, the author of the Brahma sUtras, who is none other than Lord VishNu,  and shrI ShankarAchArya, the commentator on those sUtras, who is none  other than Lord Shiva.)
आदि शंकराचार्य भगवान की यह देन हैं।
मुख्य तीन धाराए – ब्रह्नसुत्र, उपनिषद और भगवद गीता प्रस्थानत्रयी हैं।
सत्य, प्रेम और करुणा भी प्रस्थानत्रयी हैं।
संत, हनुमंत और भगवंत भी एक प्रस्थानत्रयी हैं।
 हनुमंत की किष्किन्धा से त्रिकुट – लंका तक की यात्रामें जो विघ्न आते हैं उसकी चर्चा आज हैं।
भगवान राम जो भगवंत हैं, उनकी अवध से लंका तक की यात्रामें भी विघ्न आये हैं।
संत की यात्रा में ५ विघ्न आये, हनुमंत की यात्रामें ६ विघ्न आयें, भगवंत राम की यात्रामें ७ विघ्न हैं। एसे कुल १८ बाधाए हैं।
हनुमंत की यात्रा माता के चरण तककी हैं।
हनुमंत यात्रामें पहली समस्या गहन जंगल में बंदर के प्यास और खूख की हैं। प्यास और भूख प्राणका धर्म हैं, जीवन और मृत्यु शरीरका धर्म हैं, शोक और मोह मन का धर्म हैं। यह षड धर्म हैं।
दूसरी समस्या समुद्र के तट उपर जटायु के भाई संपाती के भूख की हैं। सब जानने का बाद वह मार्गदर्शक बन जाता हैं। यदी हमारा मार्ग, परम सत्य का हैं, परम प्रेम का हैं, परम करुणा का हैं तो बाधाए तो आयेगी ही, लेकिन बाधक हमारे कार्य के साधक बन जायेगें।
तीसरी समस्या समुद्र उडान के समय मैनाक पहाड के उपर विश्राम की आयी। मैनाक विश्राम का प्रलोभन देता हैं। शांति की यात्रा में विश्राम – आराम का प्रलोभन बाधा हैं।
चौथी बाधा देवी बाधा सुरसा की हैं।
पांचमी समस्या सिहिंका की हैं। वह छल करकर बाधा डालती हैं।
छठ्ठी बाधा लंकीनी की हैं।
लंका दहन लंका की बाधा हैं, हनुमंत की बाधा नहीं हैं।
भगवान राम ब्रह्न होते हुए लीला दरम्यान सात सामस्या का सामना करते हैं। परमात्मा को कर्म के बंधन नहीं लगती हैं। भगवान मानव लीला में लंका तक यात्रा करते हैं और सात समस्या सहन करते हैं। भगवान राम दशावतारमें सातवा अवतार हैं।
मानस के सोपान सात हैं, मंगलाचरण के मंत्र सात हैं, ज्ञान की भूमिका सात हैं, सप्त पाताल हैं, सप्त आकाश, संगीत के सुर सात हैं, गरूड के प्रश्न भी सात हैं।
पहला विघ्न ताडका हैं।
दुसरी समस्या मारीच सुबाहु का हैं।
तीसरा विघ्न आवेशावतार परशुराम हैं।
चौथी समस्या सुरपंखा की हैं।
पांचवी समस्या खरभूषण – राग और द्वेष हैं।
समस्या सीताहरण हैं।
छठ्ठी समस्या कबंध हैं।
सातवी समस्या रावण – मोह हैं।
समस्या जो समर्थ हैं वह पार कर शकता हैं।
भरत जो संत हैं, वह समर्थ हैं। साधु, गुरु समर्थ होता हैं।
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥
जो समर्थ होता हैं वह निर्दोष होता हैं और जो पूर्ण निर्दोष हैं वह ब्रह्न हैं। संत समर्थ होता हैं जो समस्या पार करता हैं और वह उसके साथ जो चलता हैं उसकी समस्या भी पार कराता हैं।
हनुमंत भी समर्थ हैं।
भगवंत तो समर्थ के भी समर्थ हैं।
साधु समर्थ होता हैं।
हम रामदास को समर्थ रामदास कहते हैं।
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥
सूर्य, गंगा, अग्नि निर्दोष हैं।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
साधु सूर्य हैं, जो हमारे मोह को नष्ट करता हैं। साधु अग्नि में ही जीवता हैं। अग्नि पवित्र हैं। साधु शीतल अग्नि हैं। गंगाजी पवित्र हैं। साधु सूर्य हैं, साधु निर्दोष और शीतल अग्नि हैं, साधु गंगा हैं।
हमे संत या हनुमंत या भगवंत का आश्रय करना चाहिये। और संत, हनुमंत और भगवंत एक ही हैं, बिलग नहीं हैं। यह आध्यात्म त्रिकोन हैं, प्रस्थानत्रयी हैं जो १८ समस्या को हल कर देते हैं।
यह १८ समस्या का समाधान – हल १८ मणका का बेरखा हैं।

31  24/04/2020
परमात्मा योगेश्वर अपनी विभूतिओ का वर्णन भगवद गीता के १० वे अध्याय में करते हैं।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।10.26।।
सम्पूर्ण वृक्षोंमें पीपल, देवर्षियोंमें नारद, गन्धर्वोंमें चित्ररथ और सिद्धोंमें कपिल मुनि मैं हूँ।
समस्त वृक्षोंमें पीपलका वृक्ष और देवर्षियोंमें अर्थात् जो देव होकर मन्त्रोंके द्रष्टा होनेके कारण ऋषिभावको प्राप्त हुए हैं, उनमें मैं नारद हूँ। गन्धर्वोंमें मैं चित्ररथ नामक गन्धर्व हूँ, सिद्धोंमें अर्थात् जन्मसे ही अतिशय धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यको प्राप्त हुए पुरुषोंमें मैं कपिलमुनि हूँ।
समस्तम वृक्षोमें, १८ भार् वनस्पतिमें जो पीपल का वृक्ष् हैं वह मैं हुं। देवर्षिओमें नारद मैं हुं। राम् अवतार् के कारण में नारद का श्राप् एक् कारण् हैं।
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥3॥
एक बार नारदजी ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारदजी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं॥3॥
पार्वती कहती हैं के मेरे गुरु नारद कैसे श्राप् देते हैं?
त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥
(और कहा-) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥

आज नारदजी का स्मरण ईसी लिये हैं कि आज नारद जयंति हैं।
नारद त्रिकालग्य हैं, ब्रह्नचर्य में रत हैं। नारद परमात्मा का मन हैं। हालांकि प्रभु अमना हैं। श्री राधाजी भी प्रभु का मन हैं।
अस्तित्व का भी अंतःकरण – मन, बुद्धि, चित, अहंकार – होता हैं। अस्तित्व का मन चंद्रमा हैं। भरत, नारद, जानकीजी परमात्मा का मन हैं। नारद का एक महिमावंत चरित्र हैं। नारद भक्ति सूत्र का बहुत बडा उपकार नारद का हैं। ८४ सूत्र – भक्ति सूत्र प्रदान कीया हैं। कपिल भगवान का सांख्य सूत्र, बादरायण व्यास भगवान का ब्रह्न सूत्र, ,  पतंजलि का योग सूत्र, धर्म और कल्प सूत्र कई महापुरुषोने दीये हैं। प्रेम पंचम पुरुषार्थ हैं, प्रेम का बहुत उचा दरज्जा हैं, नारदने प्रेम सूत्र – भक्ति सूत्र प्रदान किया हैं। यह नारद का बहुत बडा उपकार हैं। यह प्रेम की व्याख्या हैं। प्रेम के ६ लक्षण हैं। भक्ति के ९ लक्षण हैं। प्रेम के ६ लक्षण ६ शास्त्र का अर्क हैं। नारद के यह सूत्र शास्वत, अलौकिक हैं।
पहला लक्षण गुण रहित हैं। प्रेम गुणातित हैं, निर्गुण हैं, अगुण हैं। हम प्रेमी की, प्रेयसी की मूर्ति बना शकते हैं लेकिन प्रेम की मुर्ति नहीं बना शकते हैं। प्रेम अगुण, अरुप हैं, गुण रहित हैं। तीन प्रधान गुण – सत्व, रज और तम हैं। देहाती मुजब ९ गुण हैं। प्रेम में एक भी गुण नहीं हैं। प्रेम के तीन स्तर हैं, स्थुल प्रेम जिसमें देह केन्द्रमें होता हैं, आदमी को अपने अपने देह का अभिमान होता हैं, परमात्मा कृपा करे तो ही देह जनिक अभिमान और देह जनिक चिंता से मुक्ति मिलती हैं। जब प्रेम देह केन्द्रित हैं तब वह प्रेम तमो गुण ग्रस्त हैं, रजो गुण ग्रस्त हैं। श्रींगार, अदा, ईशारे वगेरे स्थुल प्रेम के लक्षण हैं। सत्व गुणी प्रेम का केन्द्र बिंदु मन हैं। तन सुंदर न हो तो भी मन सुंदर हो शकता हैं, यह सत्व गुण हैं। सत्य, प्रेम, करुणा पर्याप्त हैं, लेकिन उसको शिखरस्त बनानेके लिये परम सत्य, परम प्रेम परम करुणा कहते हैं।शिव की करुणा परम करुणा हैं। परम प्रेम में मन, बुद्धि चित्, अहंकार, गुण रहित, न तमो गुण, न रजो गुण, न सतो गुण। यह आत्मा का प्रेम हैं। नारद आत्म प्रेम की चर्चा करके बहुत अंदर की बात करते हैं।
प्रेम कामना रहित हैं, प्रेम में कामना नहीं होती हैं। प्रार्थना करने का एक कुछ मागना हैं जब कि स्तुतिमें एक अहोभाव के साथ गुण संकिर्तन किया जाता हैं। कई प्रेम में देह, दिमाग या दिल की कामना हैं हम रखती हैं। कभी कभी हम किसीकी प्रज्ञाको प्रेम करते हैं। नारद कहते हैं कि प्रेम कामना रहित होना चाहिये। प्रेम किसीको कुछ नहीं देता प्रेम स्वयं को ही दे देता हैं, खुदको दे देता हैं। जिस तरफ कई मागनेवाले को देख कर हम अपनी गाडीका शीशा बंध कर देते हैं ऐसे परमात्मा भी जब हम मंदिरेमें जाकर मागते हैं तब वह भी शीशा बंध कर देता होगा।परमात्मा तरफ का ऐसा प्रेम का स्तर – माग सहित का प्रेम का स्तर नीचे आ जाता हैं।   
प्रेम का तीसरा लक्षण प्रति क्षण वर्धमान हैं। प्रत्येक क्षण में बढोतरी होती हैं, घटता नहीं हैं। एसा प्रेम में उब नहीं हैं। एसे प्रेममें कृष्ण पक्ष नहीं लगता हैं लेकिन स्वयं कृष्ण जो परम प्रेम रुप गिविंद हैं वह लग जाता हैं, प्रेम रुपी चन्द्रमें भक्त को प्रेम पक्ष नहीं दीखता स्वयं परमात्मा दीखता हैं।
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥12 क॥
हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥12 (क)॥
हनुमंत को चन्द्रके काले डाग में परमात्मा का श्याम रुप दिखाई देता हैं।
दो.-गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।।110क।।

गुरुजीके वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्रीरामजीके चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्रीरघुनाथजीका यश गाता फिरता था।।110(क)।।
प्रेम अविछिन्म हैं, अखंड, तेल धारावत होता हैं। कोई भी ताकात ईस प्रेम को मिटा नहीं शकता।
बुद्ध पुरूष के पास जाकर हम कहते हैं कि मेरा मोह छूट गया, मेरा प्रेम छूट गया ऐसा नहीं कहते हैं। क्योंकि प्रेम अविछिन तत्व हैं, शास्वत धारा हैं।
प्रेम का पांचवा सूत्र – लक्षण सुक्ष्मतरम हैं। प्रेम स्थुल नहीं होता हैं, सुक्ष्म हैं, सुक्ष्मतर हैं।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥
मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥
प्रेम का तत्व केवल मन ही समज शकता हैं।
प्रेम जब सुक्ष्मतम होता हैं तब वह प्रेम प्रेम नहीं रहता हैं लेकिन परमात्मा बन जाता हैं, ईसी लिये नारदजी सुक्ष्मतर प्रेम कहा हैं और सुक्ष्मतम प्रेम नहीं कहा हैं।
खुमार साहब कहते हैं कि …खुदा हैं महोबत महोबत खुदा हैं
प्रेममें फूल नहीं हैं। फूल प्रेम का प्रतीक हैं। फूल सुक्ष्म प्रेम हैं जब अत्तर सुक्ष्मतर प्रेम हैं।
प्रेम का छठा लक्षण - प्रेम अनुभव रुप हैं, महेसुस किया जाता हैं, अनुभव किया जाता हैं।
प्रेम कहा नहीं जाता, किया जाता हैं, प्रेम किया भी नहीं जाता, प्रेम हो जाता हैं। प्रेम परमात्मा के अनुग्रह से ही हो जाता हैं।

32  25/04/2020
आज अक्षय तृतिया का शुभ दिन हैं, दशावतारी परंपरा में भगवान परशुराम की जयंति भी हैं। भगवान कृष्ण और भगवान राम पूर्णावतार हैं। परशुराम आवेशावतार हैं। लोहे का रंग काला हैं, और जब लोहेमें अग्निका प्रवेश के कारण कुछ समय के लिये लाल होता हैं। तप के द्वारा पाया गया ज्ञान कभी कभी खुद का और दूसरो का अहित कर देता हैं। ज्ञान सदैव गुरु मुख से आता हैं। शास्त्रो के अध्ययन से भी ज्ञान प्राप्त होती हैं, लेकिन गुरु मुखी ज्ञान ही श्रेयकर हैं। परशुराम को गुरु मुखी ज्ञान से परखना होगा।
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥1॥
खलबली देखकर जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने लगीं। उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य परशुरामजी आए॥1॥
यह परशुरामजी का प्रवेश हैं।
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥2॥
इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों। गोरे शरीर पर विभूति (भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है॥2॥
परशुरामजी सदाशिव भगवान महादेव के परम उपासक हैं।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
तुलसीदासजी तो दान को ही फरसा कहते हैं। हमारे कई अवतार शस्त्रधारी हैं।
भगवान परशुराम के तीन गुण – परम तपस्वी, परम दानी और बडे यज्ञ कर्ता – हैं। परशुराम भगवान का आवेश सर्जनात्मक हैं। उसमें तप, दान और यज्ञ हैं। परशुराम भृगुकूलमें आये हैं, और तप, दान और यज्ञ भृगु – ब्राह्नण के धर्म हैं। परशुराम दानवीर हैं, त्यागवीर हैं, तपस्वी हैं, यज्ञकर्ता हैं। परशुराम का यज्ञ विश्वमंगल के लिये हैं। परशुराम ने समर यज्ञ किया हैं। विश्वामित्र का यज्ञ सात्विक यज्ञ – विश्व मंगल के लिये हैं।
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥
तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान॥1॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥
चतुरंगिणी सेना सुंदर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े-बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किए हैं (अर्थात जैसे मंत्रोच्चारण पूर्वक 'स्वाहा' शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)॥2॥  
दशरथ राजा का पुत्र कामेष्टि यज्ञ हैं जो रजो गुणी यज्ञ हैं।
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥
जनकपुरमें धनुष यज्ञ हुआ हैं। यह गुणातित यज्ञ हैं।
दक्ष का बदला लेनेके किया हुआ यज्ञ तमोगुणी यज्ञ हैं।
लंका के युद्ध दरम्यान ईन्द्रजीत का यज्ञ और रावण का यज्ञ भी तमोगुणी यज्ञ हैं।
हम जैसे जीवो के लिये निरंतर प्रभु का स्मरण गुणातित यज्ञ हैं।
अनन्य चित और नित्य प्रभु स्मरण से मैं सुलभ हैं ऐसा कृष्ण का वचन हैं।
बदला लेनेके लिये किया गया यज्ञ तमोगुणी यज्ञ हैं।
भगवान परशुराम आवेश अवतार हैं, यह एक लीला हैं, परशुराम क्रोधी नहीं हैं, वह एक तपस्वी हैं, अवकाश मिलते ही तप करने चले जाते हैं, वह एक दानी हैं, यज्ञ कर्ता हैं।
गुरु का गुरु पारम गुरु कहलाता हैं।
परशुराम भगवान तप, दान और यज्ञ का त्रिकोन हैं, भगवान परशुराम की प्रस्थानत्रयी हैं।
दूसरे को अभय दो, दूसरो को भयभीत न करो, यह दान हैं। आज की परिस्थितिमें अकेला रहना एक बहुत बडा तप हैं। नित्य हरि स्मरण करना यज्ञ हैं। यह तीनमें से तप और यज्ञ छूट जाय तो ठिक हैं लेकिन दान नहीं छूटना चाहिये।
परशुराम अपना परिचय देते हुए कहते हैं ….
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥
मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥3॥
बाल ब्रह्नचारी का थोडा क्रोधी होना स्वाभाविक हैं। ब्रह्नचारी बहुधा क्रोधी होता हैं और गृहस्थाश्रमी - संसारी भोगी होता हैं, वानप्रस्थाश्रमी त्यागी होता हैं, (ईसमें अपवाद हो शकता हैं), संन्यासी परम वैरागी – योगी होता हैं।
परशुराम ब्रह्नचारी हैं और गृहस्थी भी हैं यानी शादी शुधा ऐसा छोटा अर्थ नहीं लेकिन गृहस्थी संसार में कोई गरबड होती हैं तो उसका समाधान में लग जाना हैं, परशुराम संसार के समाधानमें संलग्न हो जाते हैं, परशुराम वानप्रस्थी भी हैं, वह तप करने के लिये वन में जाते हैं।
तुलसीदासजी भी लिखते हैं कि …
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥
हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥4॥
परशुराम परम वैरागी हैं।
परशुराम जो अवतार हैं, उन्हे चारो ओर प्रदक्षिणा करके निर्णय करना चाहिये।
हमें ईस अनुष्ठान के यज्ञ में तप, दान, करना चाहिये, कोविड वोरियर्स का आदर कर के दान करे, अपने ईष्ट का स्मरण करके यज्ञ करें, सभी नियमो का पालन करके तप करें।
कच्चा ज्ञान बोज हैं, पूर्ण ज्ञान मोज हैं। कच्चा ज्ञान डूबा देता हैं, पुरा ज्ञान – परिपक्व ज्ञान तार देता हैं।
जब अपनापन आता हैं तब वह बोज बन जाता हैं।
33   26/04/2020
आज भी अक्षय तृतीया हैं।
गुरु पूर्णिमा के दिन दादाजी की पादूका और वह ग्रंथ - पोथी की पूजा करते हैं।
मानस कंठस्थ हो जाय यह बडी उपलब्धि हैं और मानस ह्नदयस्थ हो जाय वह परम उपलब्धि हैं। हम से कोई भूल हो जाय, कुछ गलत हो जाय, कोई चूक हो जाय, हमसे कोई माहिती गलत प्रस्तुत हो जाय यह हम मनुष्य हैं उसका प्रमाण हैं। हम मनुष्य बने रहे ईसी लिये ऐसी चूक परम आवश्यक हैं। शास्त्र किसी के आधिन नहीं होता, हमें ही शास्त्र के आधिन होना हैं।
लोभी अपनी संपदा किसी को दिखाता नहीं हैं।
यह पोथी अक्षय त्तृतीया हैं,  जिस का नाश नहीं होता हैं।
सत्य का कभी क्षय नहीं होता हैं, सत्य अक्षय हैं, प्रेम का कभी क्षय नहीं होता, प्रेम अक्षय हैं, करुणा का कभी क्षय नहीं होता, करूणा अक्षय हैं।
उपनिषद कहता हि कि सत्य स्वर्णमें ढक चूका हैं। पोथी का सत्य, पोथी का प्रेम और पोथी की करुणा स्वर्णमें केद न हो जाना चाहिये। तलगाजरडा के कोने का साज और आवाज मौलिक हैं।
यह तीन पोथीया मेरी (मोरारि बापु) अक्षय तृतिया हैं। मार्ग पर चलने वाला को सब देखता हैं। मार्ग पर चलनेवाला मार्गी खुल्ला होत हैं, उसे सब देखते हैं।
पोथी की अक्षय त्तृतीया कालातित हैं, काल से पर हैं। पहली पोथी दादा के पवित्र मन का खजाना हैं, दूसरी पोथी वाचा का खजाना हैं, वाचिक सत्य हैं, तीसरी पोथी जो अब हैं वह कायिक सत्य हैं। यह मनसा, वाचा, कर्मणा हैं। वक्ता को व्यासपीठ से मानसिक सत्य व्यक्त करना पडता हैं।
गोस्वामीजी लिखते हैं कि ….
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ।।98ख।।
जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकनेवाले) है, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।।98(ख)।।
सत्य धार वाला नहीं लेकिन धारा वाला होना चाहिये।
निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नहीं तो) श्री रघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेंगे।
वक्ता के मन का सत्य वाचा द्वारा प्रसाद के रुपमें वितरित किया जाता हैं, और फिर उस के अनुकूल कायिक – कर्म में उतारना होता हैं। वक्ता के स्मरण, चिंतन, वकतव्य को कार्य में परिवर्तित करना होता हैं। यह मनसा, वाचा, कर्मणा हैं।
अक्षय तृतीया के दिन तीन अक्षय बात – किसी को देने के लिये देश, काल और पात्रता देखनी चाहिये।
तीन बात अक्षय वट, अक्षय तृतीया और अक्षय पात्र हैं।
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
 हमारा देश पुरी पृथ्वी हैं।
अक्षयवट हमारे देश का संकेत करता हैं, जिस का हर भारतवासी को गर्व होना चाहिये। प्रयाग का अक्षयवट पुरे संसार का हैं। अक्षय तृतीया काल वाचक हैं।
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥10 ख॥
श्यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीतारामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥10 (ख)॥
राम कथा श्याम सुरभी गाय हैं, जब कोई बछडा माथा मारता हैं तब दूध बहने लगता हैं। जब कोई जिज्ञासु बछडा बन कर जिज्ञासा करता हैं तब राम कथा रुपी सुरभी अमृत बरसाने लगती हैं और गुणद लोग – गुणग्राही लोग उसका पान करते हैं।
अगर हमारे पास सत्य, प्रेम और करुणा के तीन बोल्ट हैं तो हमारी गाडी चलेगी और लक्ष्य तक पहुंचा देगी।


34     27/04/2020
आज विनायकी चौथ हैं। भगवान गणेश के १२ प्रसिद्ध नामो में एक नाम विनायक हैं, जिस का अर्थ हैं विघ्नो के नायक होता हैं। सब विघ्न विनायक के अन्डर हैं, गणेश सब विघ्नो को काबु में रखते हैं, हमे विघ्नो से बचाते हैं। विनायक का एक अर्थ विशेष प्रकार का नायक होता हैं, एक विशुद्ध नायक हैं, जो नख शिख विशुद्ध नायक हैं वह विनायक हैं, दंभ रहित, कपट रहित, छल रहित का एक विषेश नायक। विनायक का एक तीसरा अर्थ हैं – ऐसा नायक जिसमें भरपुर विवेक हैं। जो दूसरो के लिये विनोद का प्रतीक बन कर मनोरंजन प्रदान करके आनंदित करता हैं, विनोद वृति हैं। गणेश लंबोदर हैं लेकिन संग्रहखोर नहीं हैं, विरागी हैं, वि का अर्थ विराग – वैराग्य – त्याग भी हो शकता हैं, जो वैराग्य में त्याग में अडवानी करता हैं वह विनायक हैं, श्रेष्ठ हैं, शिरोमणी हैं, मुकुट हैं। वि का अर्थ विचार भी हो शकता हैं, गणेश विचारक हैं। विनय पत्रिकामें गणेश को बुद्धि के विधाता कहते हैं, विचारो के दाता हैं, आप में सर्वोच्च विचार हैं, आप विचारशील हैं, विचारवंत हैं।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥
वि का अर्थ विद्वता होता हैं, गणेशजी महान विद्वान हैं। विशेष विद्वता के मलिक हैं। वि का अर्थ विद्या होता हैं, वह विद्या के नायक हैं। सभी विद्या के नायक हैं विद्यावारी – विद्या के समुद्र हैं। जो आदमी कभी भी किसी से कारण हो या कारण न हो तो भी किसी भी परिस्थिति में विवाद में न उतरे वह विनायक हैं। विनायक विवाद से दूर रहता हैं। वि का अर्थ विजय भी हो शकता हैं, ईसी लिये हम गणेश का पूजन कर कर कोई भी कार्य करके – शुभ कार्य के विजय की कामना करते हैं। सच्चा नायक वह हैं जो विपरीत काल में भी हमारा नायक बन कर हमारे साथ चले। जो विघ्नो को दूर कर विभव करता हैं – पालन – परिपालन करता हैं वह विनायक हैं।
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥
वि का अर्थ विश्व करते हैं तो गणेश विश्व के नायक हैं। मंगल कार्य का आरंभ ही गणेश हैं। हम कहते हैं कि हमने श्रीगणेश किया। ईसी लिये गणेश विश्व नायक हैं।
हम गाते हैं कि ….
गाइये गणपति जगवंदन।
शंकर सुवन भवानी के नंदन॥
गणेश जग वंद्य हैं, विश्व विग्रह हैं, विश्व नायक हैं, विश्व नेता हैं।
गणेश के जन्म की अनेक कथा हैं।
विनायक रूपी गणेश का जन्म कैसे हुआ?
गणेश शंकर और भवानी के पुत्र हैं।
नंदन शब्द का अर्थ हैं आनंद देना वाला, सुवन का अर्थ पुत्र हैं।
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥
शंकर और भवानी विश्वास और श्रद्धा हैं और विनायक तत्व श्रद्धा और विश्वास से प्रगट होता हैं, श्रद्धा और विश्वास को आनंद देने वाला तत्व हैं।
सिद्धि सदन गजवदन विनायक।
कृपा सिंधु सुंदर सब लायक॥ गाइये गणपति जगवंदन ॥
गणेश सिद्धि विनायक हैं। विनायक समस्त सिद्धि का आवास – घर हैं।
गणेश कृपा के सागर हैं। आप सुंदर हैं। राम और गणेश सब ले लिये लायक हैं।
मोदक प्रिय मुद मंगल दाता।
विद्या बारिधि बुद्धि विधाता॥ गाइये गणपति जगवंदन ॥
गणेश को मोदक बहुंत प्रिय हैं। मोद का अर्थ हैं आनंद। जो आनंद देने वाले हैं वह गणेश को प्रिय हैं, जो दूसरो को आनंद देता हैं, वह आपको प्रिय हैं। आप कृपा और विद्या के सागर हैं, आप बुद्धि के दाता हैं।
मांगत तुलसीदास कर जोरे।
बसहिं रामसिय मानस मोरे॥ गाइये गणपति जगवंदन ॥
गाइये गणपति जगवंदन।
शंकर सुवन भवानी के नंदन॥
तुलसी की माग विशिष्ठ हैं, वह हाथ जोडकर मागते हैं। तुलसी ह्नदयमें सीताराम को बसानेकी माग करते हैं। गणेश की आंख और वाहन छोटा हैं।
श्री हनुमानजी और गणेशजी दोनो संकट मोचन हैं, दोनो विघ्नहर्ता हैं, शंकर सुवन हैं, दोनों को सिंदुर प्रिय हैं, दोनों मंगलमूर्ति हैं। राम भी मंगलमूर्ति हैं। दोनों यहोपवित धारण करते हैं, हनुमानजी रुद्रावतार हैं, दोनों के भालमें चंद्र हैं, दोनों को मोदक प्रिय हैं।सनातन धर्म परंपरामे अनुकूल मंदिरोमें हनुमानजी और गणेशजी समान्तर बिराजते हैं। गणेशजी रामनाम लिखकर दुनियामें प्रसिद्ध हुए, हनुमानजी रामनाम जपते जपते दुनिया में अग्रगण्य हुए, ज्ञानिओ में भी अग्रगण्य हुए।
Click Here to ListenVideo
35  28/04/2020
आज शंकराचार्य जयंति हैं।
आज वैशाख सुद पंचमी के दिन सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का स्थापना या प्रतिष्ठा का दिन हैं।
(ભારતના લોખંડી પુરૂષ તથા પહેલા નાયબ વડાપ્રધાન સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલે નવેમ્બર ૧૩, ૧૯૪૭નાં રોજ મંદિરનું પુનઃનિર્માણ કરવાની પ્રતિજ્ઞા કરી. ત્યારબાદ 8 મે1950 માં સૌરાષ્ટ્ર ના પૂર્વ રાજા દિગ્વિજયસિંહે મંદિર ની આધાર શીલા રાખી તથા 11 મે 1951 વૈશાખ સુદ -5 ના રોજ સવારે ભારત ના પ્રથમ રાષ્ટ્રપતિ  ડો.રાજેન્દ્રપ્રસાદ ના હસ્તે સોમનાથ ના જ્યોતિર્લિંગની પ્રતિષ્ઠાન કરવાની વિધી કરી ત્યારે તેમણે કહ્યું કે, "સોમનાથનું મંદિર વિનાશ પર નિર્માણના વિજયનું પ્રતિક છે" આજનાં સોમનાથ મંદિરનું તેની મૂળ જગ્યા પર સાતમી વખત નિર્માણ થયું.
Reference Link:
https://www.hellogujarati.com/2016/04/blog-post.html
).
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालम्ॐकारममलेश्वरम्॥१॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमाशंकरम्।
सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥२॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं च शिवालये॥३॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥४॥
वैशाख सुद पंचमी भगवान आदि शंकराचार्य जो भगवान शंकर के अवतार हैं जन्म जयंति हैं।
शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् ।
सूत्र-भाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुन: पुन: ॥
भगवान शंकराचार्य और भगवान सोमनाथ के स्मरणमें आजका संवाद हैं।
भगवान शंकराचार्य की जीवन यात्रा कालडी से शुरु होकर केदारनाथ में विलीन होती हैं। आप की ३२ साल की उमर में आपके मानव जात पर अनंत उपकार हैं। आप ने भारत वर्षमें चार पीठ की स्थापना कर साब को जोडा। आप पूर्ण तहः अद्वैत सिद्धांत के प्रणेता रहे और सगुण को भी महत्व दिया।
भगवान शंकराचार्य के पांच सूत्र हैं जो साधन पंचकम्‌ से जाना जाता हैं।
लाल बहादुर शास्त्री का सूत्र “जय जवान, जय किसान” हैं और महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल जे कलाम साहब का सूत्र “जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान” हैं।
तलगाजरडाने ईस सूत्रो में “जय ईमान” को भी जोडा हैं।
यह पंच सूत्र का सार यह हैं।
१   पहला सुत्र
वेदो नित्यमधीयताम्, - वेदों का नियमित अध्ययन करें,
जगदगुरु रोज वेद का अध्ययन करने के लिये कहते हैं, स्वाध्याय करो, वेद का पारायण करना चाहिये।
वेद अपौरुषीय हैं, हमारी संपदा हैं। वेदो का पारायण करना हमारे लिये मुश्किल हैं। इसी लिये हो शके तो रोज राम चरित मानस और भगवद गीता का एक दोहा या एक श्लोक का अध्ययन करना चाहिये। यह वेद अध्ययन के समान होगा। राम चरित मानस वेद हैं, वेदो का सार हैं। महाभारत पांचवा वेद हैं और राम चरित मानस भी पंचम वेद हैं।
तुलसी के समय के ईस्लाम के एक संत, फकिर रहीमदास जी ने एक दोहा लिखा जो आज भी उनकी हस्तलिखित प्रति में प्राप्त है-
रामचरितमानस विमल,संतन जीवन प्राण

हिन्दू आन को वेद सम,यवनही प्रगट कुरान .
अर्थात मनुष्य को मनुष्य धर्म सिखाने के लिए हिन्दुओं के लिए कोई वेद है तो रामचरितमानस और मुसलामानों के लिए कोई कुरान है तो वो प्रत्यछ रूप से रामचरितमानस ही है।
उपनिषद वेदान्त हैं।
बौधिक लोग रामायण और महाभारत को महा काव्य कहते हैं। तो यह दोनो ग्रंथ महा काव्य हैं और महामंत्र भी हैं। दोनो वेद भी हैं। रामायण और महाभारत बच्चों को दिखाना चाहिये।
रामायण गीता मारी अंतर नी आंखो प्रभुए दिधी छे मने उडवानी पांखो
गुणवंतभाई शाह रामायण को “मानावता का महा काव्य” और महाभारत को “मानव स्वभाव का महा काव्य” कहकर नामकरण करते हैं।
२   दूसरा सूत्र
प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां, - प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें,
आप किसी बुद्ध पुरुष के आश्रय में हैं, जिसमें आपकी अखंड श्रद्धा हैं तो उसकी पादूका का केवल पूजन न करो लेकिन सेवन करो, सुबह शाम उसके दर्शन करोम गुरु के बचन, बोल को याद करो, बोल – वचन ही पादूका हैं।
३   तीसरा सूत्र
बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्, - बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें
हमारे से विशेष जानकार, बुझुर्ग, बुद्ध जन हैं जिस के पास ऊम्र के कारण अनुभव, जिसने सोचा हैं और जिया हैं ऐसे वरिष्ठ विद्वान हो और विवेकी हो, पंडित हो और प्रेमी भी हो, दिमाग वाले हो और दिल वाले भी हो ऐसे बुद्ध जनों के साथ कभी विवाद न करो, दुर्वाद न करो, उस की उएक्षा न करो। अगर उनकी बात ठीक न लगे तो अपना मार्ग बदल दो। वैसे तो छोटो की भी उपेक्षा न करनी चाहिये, छोटो से प्यार करे, मध्यम हैं उसके साथ मैत्री करके विचार विमर्श करे, विवाद दुर्वाद सब छोड दे।
४   चौथा सूत्र
प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां, - प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें,
क्षुधा – भूख रोग हैं, व्याधि हैं और उसका औषध भोजन हैं। भोजन औषधि की तरह करो और भोजन भीक्षा भाव से करो। ५६ भोग सोने की थाली में खाओ लेकिन भीक्षावृति से भोजन करो। जो आप के पात्र में जो आये उसे भीक्षा भाव से आरोगो।  भीक्षा भाव से भोजन करना अमृत समान लगता हैं।
५   पांचवा सूत्र
एकान्ते सुखमास्यतां, - एकांत के सुख का सेवन करें,
दिन के २४ घंटो में थोडा एकान्त में बेठो। अकेले हो जाव। स्वामी शरणानंदजी कहते हैं, “एकान्त पाठशाला हैं, मौन पाठ हैं”। एकान्त में बेठ कर नाम जपो, ध्यान करो, योगा करो, अगर कुछ नहीं करना हैं तो मत करो सिर्फ साक्षी भाव में रहो, विचार आये तो आने दो। एकान्त को स्वभाव बनाओगे तो भीड में भी एकान्त महसुस करोगे। मर्हुम मजबुर साहब कहते हैं, “ न कोई गुरु न कोई चेला, मेले में अकेला अकेले में मेला”।
एकान्त में बैठ कर मन की कुटिलता की वजह से कोई तानाबाने मत बुनो नहीं तो एकान्त आतंक का रुप लेगा। एकान्त में गुप्त मंत्रणा कर कई लोग आतंक मचा देते हैं।
हाथ में धारण किया हुआ शस्त्र अगर वाया ह्नदय से होकर आता हैं तो शास्त्र बन जाता हैं।  ईसी लिये हमारे हिन्दु देवताओ के हाथ में शस्त्र धारण किये हुए दिखाई देते हैं।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
बडे बडे शास्त्र भी संवेदनाहिन हो जाते हैं तब शस्त्र बन जाते हैं।
Click Here to ListenVideo
36  29/04/2020
હિંચકો કોઈના પગલાની ઠેસ ઝંખે છે. હિંચકો ઝંખે છે કોઈના પગલાની ઠેસ. આ એક સૂત્ર છે.
साधु का अंतःकरणीय झुला भी किसी जिज्ञासु की जिज्ञासा से झुलने लगता हैं। साधु के ह्नदय में जो गुरु पद – गुरु चरण बिराजीत हैं वह अंतः करण को – अंतःकरण में बिराजीत को सक्रिय करता हैं, निराकार को साकार कर देता हैं, साक्षी को साथी बना देता हैं।
गुरु जनों की बानी गुरु ग्रंथ साहिब में समाहित हैं, यह परम पावन ग्रंथ हैं, एक सेतु हैं, गुरू जनों की देन हैं, ग्रंथ ही गुरु हैं। शिख परंपरा में १० गुरुओ की महिमा हैं।
गुरु कितने होते है? ईस प्रश्न के आधारीत आज का संवाद हैं।
राम चरित मानस ज्ञान, वैराग्य और योग का सदगुरु हैं।
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं।
बोले सो निहाल, सत श्रीअकाल।
सह सृष्टि गुरु मय हैं।
सर्वं खल्विदं ब्रह्म | All this is surely brahma (supreme divinity).
------------------------------------------------------------------------------------
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत। अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥
Meaning
All this is Brahman. From It the universe comes forth, in It the universe merges and in It the universe breathes. Therefore, a man should meditate on Brahman with a calm mind. Now, verily, a man consists of will. As he wills in this world, so does he become when he has departed hence. Let him with this knowledge in mind form his will.
------------------------------------------------------------------------------------
श्रीमद भागवतजी में २४ गुरुओ की कथा का वर्णन हैं।
नवनाथ परंपरा में नव नाथ की महिमा हैं।
पुरी सृष्टि गुरुओ सी भरी हैं।
ऑशो कहत हैं कि गुरुओ का अभाव नहीं हैं, बल्कि सच्चे शिष्य का अभाव हैं।
अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मैवश्री गुरुवे नम : ||
जो अखण्ड है, सकल ब्रह्माण्ड में समाया है, चर-अचर में तरंगित है, उस (प्रभु) के तत्व रूप को जो मेरे भीतर प्रकट कर मुझे साक्षात दर्शन करा दे, उन गुरु को मेरा शत शत नमन है अर्थात वही पूर्ण गुरु है |
गुरु सागर हैं, गुरु आसमान हैं, गुरु पवन हैं, गुरु अग्नि हैं, गुरु क्या नहीं है? हमारे नभ मंडल में जो ग्रह हैं उसमें एक ग्रह गुरु हैं – गुरुवार, यह पृथ्वी गुरु अनुग्रह से भरी हुई हैं। पृथ्वी गुरु अनुग्रह से व्याप्त हैं। राम कथा एक अर्थ में गुरु बानी हैं ईसीलिये मैं राम कथा नहीं गाता हुं मैं तो गुरु को गाता हुं। राम कथा गुरुओके वचनामृत हैं, सब गुरुमय हैं।
१ से १५ तक के अंको में
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
वह शून्य हैं और शून्य से बडा हुआ एक – १ - भी हैं और १ के साथ ५ जोड दो तो १५ हैं, पूर्णिमा हैं। ईसी लिये हम गुरु की तिथि को पूर्णिमा कहते हैं। गुरु पुनम का चांद हैं। तुं एक मात्र परम गुरु भगवान शिव हैं।
2
२ में जाये तो बद्रीनारायण में नर नारायण दो हैं, वह गुरु हैं, नर गुरु हैं और नारायण तो गुरु हैं ही। ऑम तत्सत श्री नारायाण पुरुशोत्तम गुरु तुं।
२४ गुरुओ की चर्चा में तो यह देह को भी गुरु माना हैं।
3
३ की संख्या में ब्रह्ना, विष्णु और महेश का रुप भगवान दत्तात्रेय हैं।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात्‌ परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
ब्रह्ना, विष्णु, महेश यह तिनों भी गुरु हैं।

4
४ की संख्या में चार सनतकुमार गुरु हैं, आदि गुरु हैं।
5
५ में पंच देवो की पूजा की बात में – सूर्य, विनायक, मा भवानी दुर्गा, विष्णु, महादेव यह पंच गुरु हैं।
6
६ हमारे आगम दर्शन – षड दर्शन छह हैं। यह ६ शास्त्र गुरु हैं।
7
७ आसमान में जो सप्तर्षि हैं वह सब गुरु हैं।
8
८ भगवान पतंजलि के अष्टांग योग में जो आठ सोपान हैं वह अष्ट गुरु पद हैं। यम, नियम, आसान, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह सब गुरु हैं। वैष्णवी परंपरामें – वल्लभीय परंपरा में अष्ठ सखा की महिमा हैं। योगी परंपरामें भगवान पतंजलि के अष्ट योग की महिमा हैं। यह सब अष्ट गुरु की ओर संकेत करते हैं।
9
९ हमारे कुल ९ ग्रह हैं यह नव ग्रह भी गुरु माने गये हैं।
राम चरित मानस में कहा गया हैं कि … “सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें”॥ भगवान राम शबरी को कहते हैं कि नव प्रकार की भक्ति तुझमें हैं, तुम भक्ति स्वरुपा हो। नव प्रकार की भक्ति से संयुक्त शबरी राम भगवान की गुरु बनी हैं। शबरी भगवान को आगे जाने का मार्ग दिखाती हैं।
10
१० शिख गुरु परंपरा में १० गुरु की महिमा हैं।
11
११ हनुमानजी ११वा रुद्र हैं, जो भी गुरु हैं।
12
१२ बारह आदित्य गुरु हैं।
13
१३ गुरु नानक देव दुकान पर बेठ कर गिनते गिनते १३ – तेरा आते ही जाग जाते हैं, यह १३ का अंक भी गुरु वाचक हैं।
14
१४ पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और मन, बिद्धि, चित और अहंकार मिलाकर १४ होता हैं, वह भी गुरु हैं, प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय गुरु हैं, कर्मेन्द्रिय और मन, बुद्धि, चित और अहंकार भी बोध देते हैं और गुरु हैं।
સવા ભગત કહે છે કે …
ચૌદશે ચિતડું કહ્યું કરે નહીં મારું અને ત્યાં તો ઓચિંતા થઈ ગયું મારે અજવાળું ગુરુ તોડ્યું વજ્રનું તાળું ગગન ગઢમાં રમવાને આવો…
15
१५ गुरु पूर्णिमा हैं। परम गुरु का १५ द्रष्टिकोण हैं। महादेव के पास १५ द्रष्टिकोण हैं। शिव ने १५ नेत्र हैं, साक्षात ब्रह्न हैं, १५ प्रकार की द्रष्टि हैं।
जगत पुरा गुरु मय हैं।
१+२+३+४+५+६+७+८+९+१०+११+१२+१३+१४=१०५
मानस के सातेय सोपान में गुरु ही गुरु हैं।
प्रथम सोपान
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
पहला गुरु महादेव हैं।
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
नरहरि गुरु हैं।
नारद गुरु हैं।
भगवान वशिष्ठ गुरु हैं। विश्वामित्र गुरु हैं। कपट मुनि भी गुरु हैं। शतानंद गुरु हैं। परशुराम गुरु हैं।
अयोध्याकांड में कुगुरु मंथरा हैं।
केवट भी गुरु हैं। मार्ग दिखाता हैं। महर्षि भरद्वाज गुरु हैं। वाल्मीकि गुरु हैं।
भरत भी गुरु हैं।
मा अनसुया गुरु हैं। जानकी को नारी धर्म का उपदेश देती हैं। अत्री महाराज गुरु हैं। कुंभज ॠषि गुरु हैं।
भगवान राम बः गुरु हैं।
रावण यति के वेश में आता हैं।
पशु पक्षी भी सीता खोज में सामिल हो कर गुरु हैं।
हनुमानजी गुरु हैं। तारा भी बोध देती हैंम गुरु हैं।
जटायु, संपाती मार्गदशन करते हैं, गुरु हैं।
जामवंत भी मार्गदर्शन कर गुरु बनते हैं।
सुरसा, लंकिनी भी मार्ग दर्शन करते हैं, विभीषण्म त्रिजटा मार्गदर्शन करते हैं।
समुद्र सेतु की बात करता हैं।
भगवान रामेश्वर गुरु हैं।
अंगद, मंदोदरी, कुंभकर्ण भी गुरु हैं। सुषेण गुरु हैं।
महाकाल स्वयं गुरु हैं, महाकाल के मंदिरमें बेठा साधु भी गुरु हैं। लोमश गुरु हैं, काकभूषंडी गुरु हैं।
Click Here to ListenVideo
37     30/04/2020
शंकराचार्य जयंति के गत दिन भगवान रामानुजाचार्य की जन्म जयंति थी।
हमारे सभी आचार्य दक्षिण भारत से आये हैं। यह गौरव की बात हैं। सभी अवतार उत्तर भारत से आये हैं। सभी अवतार और आचार्यो में गौरीशंकर शिखर की ऊचाई और अपार असीम समुद्र की गहराई भी हैं, पर्वतो का स्थैरय और सागर की विशालता भी हैं। पर्वत द्रढता का प्रतीक हैं और सागर की तरंगाई का प्रतीक हैं। भगवान शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत जीव और शिव की एकता की बात कहता हैं। भगवान शंकराचार्य के “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः” का सिद्धांत दीया हैं।
विनोबाजी कहते हैं “ब्रह्म सत्यम्‌ जगत स्फुर्ति”।
सालोक्य मुक्ति का मतलब हैं परमात्मा के लोक में हमारा निवास।
सारुप्य मुक्ति का मतलब जीव परमात्मा जैसा हो जाय।
सामिप्य मुक्ति का मतलब परमात्मा के समिप रहना। जैसे गरुड, नारद, सनकादिक वगेरे।
सायुज्य मुक्ति का मतलब हैं परमात्मा में लीन हो जाना, परमात्मा में समाहित हो जाना। रावण को सायुज्य मुक्ति मिली हैं।
रामानुज भगवान का मत विशिष्टाद्वैत हैं।
सभी आचार्य एक हैं।
भगवान रामानुजाचार्य कहते हैं कि जगत का निमित्त कारण परमात्मा हैं, उपादान कारण भी परमात्मा हैं, लेकिन साधारण कारण प्रकृति हैं।
38  01/05/2020
आज गुजरात स्थापना दिन हैं। पूज्य रविशंकर महाराजने स्थापना दिनके दिन दीप प्रज्वलित कीया था। आज दुर्गाष्टमी भी हैं, रमजान का सातवा दिन हैं, लेबर डे भी हैं।
एक मत के अनुसार वैशाख सुद ७ के दिन गंगा शिवजी की जटा में अवतरण हुई हैं। गंगा अवरतण की कई कथा हैं।
कहि  कहि  कोटिक  कथा  प्रसंगा।
रामु  बिलोकहिं  गंग  तरंगा॥
सचिवहि  अनुजहि  प्रियहि  सुनाई।
बिबुध  नदी  महिमा  अधिकाई॥3॥
अनेक  कथा  प्रसंग  कहते  हुए  श्री  रामजी  गंगाजी  की  तरंगों  को  देख  रहे  हैं।  उन्होंने  मंत्री  को,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  को  और  प्रिया  सीताजी  को  देवनदी  गंगाजी  की  बड़ी  महिमा  सुनाई॥3॥
लखन  सचिवँ  सियँ  किए  प्रनामा। 
सबहि  सहित  सुखु  पायउ  रामा॥
गंग  सकल  मुद  मंगल  मूला। 
सब  सुख  करनि  हरनि  सब  सूला॥2॥
लक्ष्मणजी,  सुमंत्र  और  सीताजी  ने  भी  प्रणाम  किया।  सबके  साथ  श्री  रामचन्द्रजी  ने  सुख  पाया।  गंगाजी  समस्त  आनंद-मंगलों  की  मूल  हैं।  वे  सब  सुखों  को  करने  वाली  और  सब  पीड़ाओं  को  हरने  वाली  हैं॥2॥
जिस के घर में गंगाजल हैं, आंगन में तुलसी का पओधा हो, जिस के आंगन में भगवान सुर्य का दर्शन होता हो उसके घर में औषधालय हैं।
गौ का दूध घी औषध हैं। गंगा के सेवन करने से ११ स्वाभाविक होनेवाले अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं।
गंगा त्रिपथ गामिनी हैं।
गंगा के पंच रुप हैं।
अंगद रावण को कहता हैं कि ….
राम मनुज कस रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥
क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचंद्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?॥3॥
एक गंगा वह हैं जो स्वर्ग से आई और शिवजी की जटा में समाई।
दूसरी गंगा राम कथा हैं।
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥
परम तत्व की भक्ति गंगा हैं।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
अश्रु और आश्रय
परम तत्व के चरणो में द्रढाश्रय भक्ति हैं।
परम के चरणो में स्मरण कर अश्रु बह जाय वह भक्ति हैं।
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥
मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥6॥

रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥
सुंदर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥   
गुरु गंगा – अपना बुद्ध पुरुष बहती गंगा हैं। गुरु गंगा हैं। गत गंगा, गुरु की बानी गंगा हैं। गुरु का मुख गो मुख हैं।
कभी कोई बुद्ध पुरुष पतित पावनी बोले और उसी समय वह बुद्ध पुरुष के अश्रु बहे तो वह अश्रु तो वह अश्रु – पानी भगवद्द्रव हैं, यह सामान्य द्रावण नहीं हैं, प्रगट गंगा हैं, और गुरु की ईच्छा होती हैं कि मेरी यह अश्रु गंगा साधक के ह्नदय के गंगासागर में समाहित जाय। गुरु गंगधार हैं।
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिंधु समुहानी॥2॥
दोनों के बीच में भक्ति रूपी गंगाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है॥2॥
गुरु परम पवित्र प्रवाह हैं।
हर महिला सदा सुहागन रहे ऐसी कामना करती हैं। अखंड सौभाग्यवती का आशीर्वाद दीया जाता हैं।
जब किसी नारी का सौभाग्य खंडित हो जाय तब वह गंगास्वरूप बनती हैं।
गंगा स्वरुप मातृ शरीर को कोई कर्म नहीं रहता, वह कृत्कृत्य हो जाती हैं, वह कर्म बंधन से मुक्त हैं।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरुपहिं चीन्हें।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।2।।
ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है ? स्वरूपकी पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या [आसक्तिपूर्वक] कर्म हो सकते हैं ? दुष्टोंके संगसे क्या किसीके सुबुद्धि उत्पन्न हुई है ? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है ?।।2।।
मा के पास न कोई छल, न कोई बल होता हैं, न कोई कला - चाल - खेल होता हैं।
परमेश्वर छल कर शकता हैं, लेकिन मा छल नहीं कर शकती।
गंगा का स्नान करने से, स्प्रर्श करने से, और पान करने से क्या नहीं होता हैं?
Click Here to ListenVideo
39  02/05/2020
उद्भव स्थिति संहार कारिणीं क्लेश हारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्।।
जो  सारे  संसार  की  उत्पत्ति , पालन -पोषण  और  संघार  करने  वाली  है , अपने  भगतों के  रास्तों  से  बाधा  विघन  क्लेश को हरने  वाली  है , संपूर्ण  कल्यानो  को  करने  वाली , श्री  राम  चन्द्र  जी  कि प्रिय , श्री  सीता  माता  को  हम  प्रणाम  और  नमस्कार  करते  है।
आज वैशाख शुक्ल नवमी हैं जो सीता नवरात्र हैं, जानकी जयंति हैं, परा अंबा का प्रागट्य दिन हैं।
किसी भी चीज का सर्जन रजो गुण के बिना हो नहीं शकता। बिना सत्व गुण प्रगट हुई चीज का पालन शक्य नहीं हैं और किसी भी चीज का विनाश – विसर्जन करने के लिये तमो गुण नितांत आवश्यक हैं। प्रत्येक सर्जन, पालन, विसर्जन गुण आधारित हैं, गुणातित नहीं हैं। लेकिन परम शक्ति की, जानकी की लीला गुणाधिन नहीं हैं, गुणातित हैं। उद्भव्स्थिति जानकी सर्जन, पालन और विसर्जन करती हैं उस में कोई क्लेश - कष्ट नहीं हैं, वह क्लेश को हर लेती हैं, संकल्प मात्र से सब होता हैं। जब की सामान्य व्यक्ति के सर्जन, पालन, विसर्जनमें क्लेश - कष्ट होता हैं। मा जानकी क्लेश हारिणी हैं, सब का श्रेय करनेवाली हैं। हम सब का श्रेय नहीं कर शकते।
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥
राम महा मंत्र तराक महा मंत्र हैं। उस को हम बार बार उच्चार करते हैं।
संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥2॥
कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्‌ शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं॥2॥
विनयक पत्रिका और मानस में सबसे ज्यादा प्रिय कौन सा पद हैं?
ईस का निर्णय करना मुश्किल हैं।
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
पुरा राम चरित मानस अति प्रिय हैं। फिर भी तीन पंक्ति सारभूत हैं।
पहली पंक्ति
धरमु  न  दूसर  सत्य  समाना।  आगम  निगम  पुरान  बखाना॥
वेद,  शास्त्र  और  पुराणों  में  कहा  गया  है  कि  सत्य  के  समान  दूसरा  धर्म  नहीं  है। 
दुसरी पंक्ति
रामहि  केवल  प्रेमु  पिआरा।  जानि  लेउ  जो  जान  निहारा॥
श्री  रामचन्द्रजी  को  केवल  प्रेम  प्यारा  है,  जो  जानने  वाला  हो  (जानना  चाहता  हो),  वह  जान  ले।
तीसरी पंक्ति
जेहि  बिधि  प्रभु  प्रसन्न  मन  होई। 
करुना  सागर  कीजिअ  सोई॥1॥
हे  दयासागर!  जिस  प्रकार  से  प्रभु  का  मन  प्रसन्न  हो,  वही  कीजिए॥1॥
यह सत्य, प्रेम, करूणा हैं।
विनय पत्रिका के तीन पद
विनय पत्रिका के यह पद दादाजी को भी प्रिय थे।
पहला पद
हरि तजि और भजिये काहि?
यह २१६ नंबर का पद हैं।
हम रामनाम छोडकर, परम तत्व को छोडकर कहां जायेगे?
जानकी पृथ्वी से प्रगट हुइ हैं, शारदा बानी के रुप में, नाद के रुप में आकाश से प्रगट हुइ हैं, द्रौपदी – क्रिष्ना, भगवान राम अग्नि से प्रगट हुए हैं, महालक्ष्मी जल से प्रगट हुइ हैं, सिन्धु सुता हैं, स्पर्शदेविका पवन से प्रगट हुइ हैं।
जानकी के कई नाम हैं। जो जहां से प्रगट होता है, वहां ही उसे विलीन होना हैं। जानकी पृथ्वी से प्रगट हो कर पृथ्वी में ही विलीन हो जाती हैं। द्रौपदी अग्नि से प्रगट हुइ, पुरी जिंदगी अग्नि में रही, और हिमालय की शीत अग्नि में समा गई। महालक्ष्मी सागर से उत्पन्न हुइ और सागर में ही समा जाती। शारदा – वाणी, शब्द आकाश से प्रगट होता हैं और आकाश में ही विलीन हो जाता हैं। स्पर्शदेविका वायु से प्रगट होती हैं और जब शून्यता आ जाती हैं तब वायु में विलीन हो जाती हैं।
परम तत्व जब उपर से नीचे आता है तब बाधाए आती हैं और परम तत्व जब नीचे से उपर जाता हैं तब भी बाधाए आती हैं। ऐसे ही जानकी अनेक बाधाओ से गुजरती हैं।
लोकडाउन में यह वेकेशन नहीं है, कसोटी हैं, अनुष्ठान हैं, तपस्या का पर्व हैं।
स्व से लेकर सर्व के लिये अच्छी तरीके से परीक्षा पत्र लिखे।
जानकी भी कसोटी से पसार होती हैं। अंत में पृथ्वी की बेटी पृथ्वी में समा जाती हैं।
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥


40   03/05/2020
जो हमारा पथ दर्शक हो उसे बेचनेके बाद उसके पीछे चलनेवाले नाश पामते हैं।
हमारा गुरु गाय हैं, गुरु रांक हैं, गाय के शरीर में ३३ कोटी देवताओ का वास हैं। गुरु – बुद्ध पुरूष के शरीर में भी ३३ कोटी देवताओ का निवास हैं। बुद्ध पुरुष के विग्रह में ३३ प्रकार की विश्व का उद्धार करनेवाली ऊर्जा होती हैं। एसे बुद्ध पुरूष के मार्गदर्शन में हम सलामत हैं, वह दुनिया की बाढ से हमे बचा शकते हैं। लेकिन अगर हम एसे गुरु को बेच देते हैं तो विनाश होता हैं। गुरु गंगा हैं, गुरु गौरी हैं, गुरु गोमुख हैं, गुरु गंगोत्री हैं, गुरु गाय हैं, गुरु रांक हैं। जो गुरु विक्रय करेगा वह क्या पायेगा? गुरु प्रसाद हैं, वह बांट जाता हैं, उसका बेपार नहिं होता हैं, वह बिकाउ तत्व नहीं हैं, वह साश्वत तत्व हैं। गुरु का विक्रय का मतलब हैं कि कइ साधक गुरु को साधन बनाकर अपने हेतु सिद्ध करते हैं, एसा करना गुरु को बेचना हैं। गुरु साधन नहीं हैं, साध्य हैं। गुरु को बिचमें रखकर अपना हेतु सिद्ध करना गुरु को बेचने समान हैं। गुरु को अपनी पीडा अवश्य कहनी चाहिये। गुरु अगर बुद्ध पुरुष हैं तो वह हमारी पीडा बिना कहे हि जान जायेगा। गुरु उदार होता हैं। कृष्ण अर्जुन को सब समजाने के बाद कहते हैं कि मैंने सब कुछ बता दिया हैं अब तुझे जो करना हो वह कर। गुरु एसा उदार होता हैं। गुरु आश्रित का परम हित करता ही रहता हैं। समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये गुरु का उपयोग करना गुरु को बेचने के समान हैं, गुरु विक्रय हैं। गुरु के नाम का उपयोग करके बडे बडे काम बडे लोगो के पास से करवा लेना गुरु विक्रय हैं। पैसे, प्रतिष्ठा, पद, प्रोब्लेम के लिये गाय को – गुरु को बेचना नाश की ओर गति हैं। जैसे हम कन्या विक्रय नहीं करते हैं, वैसे ही गुरु एक कुंवारी कन्या हैं, उसका विक्रय नहीं करना चाहिये। गुरु ब्रह्नचारिणी कन्या हैं। गुरु ही गाने योग्य हैं, गुरु के ही शरण में जाया जा शकता हैं। टिकाउ बुद्ध पुरूष के लक्षण क्या हैं?
गुरु का पहला रुप हैं बटु – ब्रह्नचारी हैं। हनुमानजी परम बुद्ध पुरुष हैं, साक्षात ११ वा रुद्र हैं, स्वयं शंकर बंदर के रुप में पधारे हैं। गुरु अजर अमर हैं।
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥
सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले- हे हनुमान्‌! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना॥2॥
बटु कोई भी जाति का हो शकता हैं।
गुरु नितांत कुंवारा हैं। जो ब्रह्न में सोता हैं, जो ब्रह्न में जागता हैं, जो ब्रह्नको पीता हैं, जो ब्रह्न में ऊठता हैं, जो ब्रह्नमें बेठता हैं, जो ब्रह्न को खाता हैं, जो ब्रह्न में चलता हैं, जो ब्रह्न को खाता हैं, ब्रह्म को ओढता हैं, ब्रह्म को बोछोना बनाता हैं, जिस के प्रत्येक क्रिया ब्रह्ममय हो, वह ब्रह्मचारी हैं। उसकी प्रत्येक चेष्टा ब्रह्ममय हैं, वह ब्रह्म ले विलास में ही डूबा रहता हैं, वह बुद्ध पुरूष अजर अमर होता हैं, उसे कोई बेच नहीं शकता।
गुरु विप्र रुप हैं, विप्र का अर्थ वर्ण वाचक नहीं हैं। जिस में विशेष प्रज्ञा हैं, जो प्रपंच से अलग हैं, जिसमें विशेष विज्ञान और विवेक हैं, जिस में २४ घंटो एक विशेष प्रकार की प्रसन्नता नर्तन करती हो वह विप्र हैं। ईतनी ऊंचाई प्राप्त करने के बाद भी वह विनय नहीं छोडता हैं वह विप्र हैं।
जो ब्रह्म की जिज्ञासा करे वह विप्र हैं, माया की जिज्ञासा न करे। महा पुरुष की एक ही जिज्ञासा – ब्रह्म की जिज्ञासा होती हैं। एसी जिज्ञासा निरंतर करनेवाला गुरु हैं।
बुद्ध पुरुष श्री हरि को पा लेता हैं, धन्य धन्य हो जाता हैं।
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥4॥
(फिर कहा-) हे कपि! सुनो, मन में ग्लानि मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिए न कोई प्रिय है न अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता)॥4॥
भगवद प्राप्त बुद्ध पुरूष अकेला नहीं खायेगा, बांटेगा।
हनुमानजी भगवान को कहते हैं ….
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
(उन्होंने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है॥1॥
हनुमानजी कहते हैं कि मुझे जो मिला हैं (राम) उसको मैं विषयी जीवो में बांटु। सुग्रीव विषयी जीव हैं, पलायनवादी हैं, निरंतर भय में जीता हैं। भागने से जीवन में कु्छ नहीं होता हैं, जागने से ही कुछ हो शकता हैं।
हनुमानजी राम को लेकर जाते हैं और सुग्रीव के साथ मैत्री कराते हैं।
मानस में दो प्रसंग ऐसे हैं जहां हनुमानजी हाजर नहीं हैं, दिखाई नहीं देते हैं।
वाली और सुग्रीव के बिच की लडाई में हनुमानजी जो सुग्रीव के बुद्ध पुरुष होते हुए नहीं दिखते हैं।
भगवान राम सुग्रीव को राज्याभिषेक करनेके बाद प्रवष्ण पर्वत उपर चातुर्मास करते हैं तब भी हनुमानजी हाजर नहीं हैं।
बुद्ध पुरूष दो प्रसंगो में हाजीर नहीं रहता हैं, पारिवारिक संगर्ष और रास के प्रसंगमें.
वाली और सुग्रीव की लडाई एक पारिवारिक संघर्ष हैं। ईसी लिये ईस प्रसंग में हनुमानजी नहीं दिखाई देते हैं।
शरद और वर्षा रास की ऋतु हैं। राम जानकी को याद करते हैं और वर्षा ऋतु का वर्णन करते हैं जो एक रास का प्रसंग हैं इसी लिये हनुमानजी उस वख्त दिखाई नहीं देते हैं।
बुद्ध पुरूष रास और हास के प्रसंग में हाजर नहीं रहता हैं।
जब तुम बुद्ध पुरुष की शरण में हो तब सिर्फ बुद्ध पुरुष को ही देखो, अगल बगल में क्या हो रहा हैं वह न देखो।
हनुमानजी जो बुद्ध पुरुष हैं वह ब्रह्मचारी हैं, नितांत कुवारा हैं, शास्वत हैं, टिकाउ हैं, बिकाउ नहीं हैं।
हमारी चूक से गुरु ही मुक्त कराता हैं।
स्मृति ग्रंथो में १० प्रकार के चुक - पाप – दोष का वर्णन हैं, जो नीचे मुजब हैं।
कायिक पाप ३ हैं।
१   दूसरे की वस्तु को चुरा लेना।
२   शास्त्र वर्जित हिंसा करना दोष हैं।
३   परस्त्री पर हुमला करना – बलात्कार करना दोष हैं।
चार वाचिक दोष हैं।
१   कटु बोलना वाचिक दोष हैं।
२   असत्य भाषा बोलना वाचिक दोष हैं।
३   सन्मुख या पीछे किसी की निंदा करना वाचिक दोष हैं।
४   बिना किसी हेतु – बिना किसी प्रयोजन से की गई बातें वाचिक दोष हैं।
तीन मानसिक दोष हैं।
१   दुसरा के द्रव्य को छिन लेने की योजना बनाना मानसिक दोष हैं।
२   मनमें किसी का अनिष्ट हो जानेका, किसी का नाश करने का विचार करना मानसिक दोष हैं।
३   जिस में सत्य नहीं हैं ईसी की हठ करना, जिद करना मानसिक दोश हैं, जुठी जिद करना मानसिक दोष हैं।
उपरोक्त दोषो से हमारा गुरु ही बचा शकता हैं।

41     04/05/2020
भगवान वेद व्यासने सात साधना को क्रमशः विस्तार करने को कहा हैं। यह विस्तार राम चरित मानस में हुआ हैं। यह हैं – नाम साधना, रुप साधना, लीला साधना, ध्यान साधना, स्मरण साधना, धाम साधना, पूर्ण या शून्य साधना।
नाम साधना
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥
जिस नाम में हमें रुची हो, गुरु ने जो नाम दिया हो उसे क्रमशः विस्तरीत करना पहली साधना हैं। नाम का जपना श्वास से आगे रहता हैं। कली युग नाम साधना का काल हैं। नाम, साधना, जप, स्मरण, भजन, आध्यात्मिक यात्रा लोको के अभिप्राय पर नहीं चलती, वह गुरु के कृपा पूर्वक आदेश, हमारी रुची और साधना से गति शील होती हैं।
गुरु दयासिन्धु हैं।
बाल कांड नाम की महिमा का कांड हैं। बाल कांड में नाम साधना का क्रमशः विकास हैं।
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥
मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते॥4॥
भगवान वेद व्यास का दूसरा रुप साधना का विस्तार करना हैं।
सगुण उपासको को रुप साधना का विस्तार करने से स्वरुप के अनुसंधान तक पहुंच शकते है।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥
जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥
हम अपने ईष्ट की मूर्ति का श्रींगार करके रुप साधना करते है। रुप साधना का विस्तार करने से हम स्वरुप का अनुसंधान कर शकते है।
रुप साधना का विस्तार अयोध्या कांड में हुआ है।
लीला साधना का विस्तार
परमात्मा की मंगल लीलाओ – क्रिडा का गायन, मंचन, वर्णन, श्रवण, एक साधना है।
परमात्मा राम की ललीत नर लीलाओ का विस्तार अरण्य कांड में हुआ है।
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥1॥
यह परमात्मा की नर लीला अरण्य कांड में विकसित हुइ है।
ध्यान साधना
प्रभु का ध्यान
किष्किन्धा कांड ध्यान – साधना का कांड है।
इस कांड में दो प्रसंग ध्यान साधना का है।
स्मरण साधना
सुंदर कांड स्मरण साधना का कांड है।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥
हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे॥2॥
निरंतर तैल धारा व्रत स्मृति स्मरण साधना है।
धाम साधना
परमात्मा का धाम की साधना
प्रमात्मा सब को निर्वाण देते है।
लंका कांड निर्वाण साधना का कांड है।
पूर्ण साधना – शून्य साधना
उत्तर कांड पूर्ण साधना – शून्य साधना का कांड है।
नितांत खाली हो जाना या पूर्ण तहः भर जाना जिस्से  पायो परम विश्राम प्राप्त हो। जो शून्य है वह हि पूर्ण है और जो पूर्ण है वह नितांत खाली है – शून्य है।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
यह शरीर ग्रंथ है, उसमें सातो साधना है – सातो सोपान है। ईस शरीरमे हमें परमात्माने जिव्हा दि है जिस से हम नाम साधना कर शकते है, चक्षु से रूप साधना कर शकते है, परमात्मा ने हमें अंतःकरण दिया है जिस में मन से हम ध्यान साधना कर शकते है, सुर स्वर से हम लीला साधना कर शकते है, चित से हम चिंतन,  स्मृति कर के हम शरीर से स्मरण साधना कर शकते है, शरीर से ह्म भगवान के किसी स्थुल धाम में निवास कर शकते है, परमात्मा के अनुग्रह से हम निज धाम – परम धाम प्राप्त कर शकते है, ईस शरीर से हम पूर्णता या शून्यता की साधना कर शकते है। यह शरीर एक चलता फिरता ग्रंथ है। जिस की रचना परमात्मा ने की है। यह शरीर ७ सोपान का एक दिव्य ग्रंथ है।
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
नियती क्या है?
कर्म की गति गहन है।
नियती गणित से बहार है। नियती का नियामक है लेकिन वह भी नियती को देखता रहता है। नियामक का कभी त्रिकाल में न बदला जाया वैसी प्रकृति का नाम नियती है। नियती को समजना बडा मुश्किल है। परम अव्यवस्था का नाम परमात्मा है। गुरु की शरण में जाना एक ही उपाय है। नियती के आधिन होये बिना और कोई उपाय नहीं है।