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Thursday, July 30, 2020

માનસ સમર્થ, માનસ સમરથ

राम कथा

क्रमांक – ८४६

मानस समरथ

पीठोरिया हनुमान, तलगाजरडा, गुजरात

शनिवार, तारीख २५/०७/२०२० से ०२/०८/२०२०

केन्द्रीय पंक्तियां

कालनेमि कलि कपट निधानू।

नाम सुमति समरथ हनुमानू॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना।

रामभगत समरथ भगवाना॥

 

शनिवार, २५/०७/२०२०

नहिं कलि करम भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥

कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4

 

कलियुग में कर्म है, भक्ति है और ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्जी हैं॥4

 

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥

सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3

 

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान्हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-3

 

यह विराग हनुमानजी हैं, और यह वट भी विराग वट हैं।

विश्वास हनुमान तलगाजरडामें हैं।

विद्वान हनुमान भगवान विश्वास की नगरी, शिव की नगरी काशीमें हैं जो संकट मोचन हनुमान हैं।

हनुमान गढी जो अयोध्यामें हैं वह विश्राम हनुमान हैं।

तलगाजरडा के हनुमान विज्ञान हनुमान हैं।

तुलसीदासजी कलियुगको कालनेमि कहते हैं।

महेश का अर्थ …..

महेश शब्द में ‘म’ का अर्थ हैं महत तत्व, ‘हे’ का अर्थ हैं हे हरि, हे हरि, नाभि से पुकार, एक आर्त नाद, और ‘श’ का अर्थ शरणागति हैं।

‘हे’ सवा अक्षरका महामंत्र छे.

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

 

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।

 

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्

त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु .

अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं

विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः

 

हे देव, आप ही इस संसार के सृजक, पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं। तीनों वेद आपकी ही संहिता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-रजो-तमो) आपसे ही प्रकाशित हैं। आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है। इसके बाद भी कुछ मूढ़ प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके बारे भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं जो की सर्वथा अनुचित है।

वानराकार विग्रह पुरारि

राम चरित मानसमें ११ बार समरथ शब्द आया हैं, समर्थ, समरथु …।

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥

कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥

 

कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥4॥

 

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥

सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

 

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान्‌ हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥

 

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥

 

गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥

 

संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥

दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥

 

शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं॥2॥

 

प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

 

हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥107॥

 

सुनि  सुरूपु  बूझहिं  अकुलाई।  अब  लगि  गए  कहाँ  लगि  भाई॥

समरथ  धाइ  बिलोकहिं  जाई।  प्रमुदित  फिरहिं  जनमफलु  पाई॥4॥

 

उनके  सौंदर्य  को  सुनकर  वे  व्याकुल  होकर  पूछते  हैं  कि  भाई!  अब  तक  वे  कहाँ  तक  गए  होंगे?  और  जो  समर्थ  हैं,  वे  दौड़ते  हुए  जाकर  उनके  दर्शन  कर  लेते  हैं  और  जन्म  का  परम  फल  पाकर,  विशेष  आनंदित  होकर  लौटते  हैं॥4॥

 

ग्यान  निधान  सुजान  सुचि  धरम  धीर  नरपाल।

तुम्ह  बिनु  असमंजस  समन  को  समरथ  एहि  काल॥291॥

 

हे  राजन्‌!  तुम  ज्ञान  के  भंडार,  सुजान,  पवित्र  और  धर्म  में  धीर  हो।  इस  समय  तुम्हारे  बिना  इस  दुविधा  को  दूर  करने  में  और  कौन  समर्थ  है?॥291॥

 

समरथ  सरनागत  हितकारी। 

गुनगाहकु  अवगुन  अघ  हारी॥

स्वामि  गोसाँइहि  सरिस  गोसाईं। 

मोहि  समान  मैं  साइँ  दोहाईं॥2॥

 

समर्थ,  शरणागत  का  हित  करने  वाले,  गुणों  का  आदर  करने  वाले  और  अवगुणों  तथा  पापों  को  हरने  वाले  हैं।  हे  गोसाईं!  आप  सरीखे  स्वामी  आप  ही  हैं  और  स्वामी  के  साथ  द्रोह  करने  में  मेरे  समान  मैं  ही  हूँ॥2॥

 

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा॥

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥7॥

 

 

हे सुंदरी! सुन, मैं तो उनका दास हूँ। मैं पराधीन हूँ, अतः तुम्हे सुभीता (सुख) न होगा। प्रभु समर्थ हैं, कोसलपुर के राजा है, वे जो कुछ करें, उन्हें सब फबता है॥7॥

१०

 

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।

अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य।।119ख।।

 

जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं।।119(ख)।।

११

 

अवगाहि  सोक  समुद्र  सोचहिं  नारि  नर  ब्याकुल  महा।

दै  दोष  सकल  सरोष  बोलहिं  बाम  बिधि  कीन्हो  कहा॥

सुर  सिद्ध  तापस  जोगिजन  मुनि  देखि  दसा  बिदेह  की।

तुलसी    समरथु  कोउ  जो  तरि  सकै  सरित  सनेह  की॥

 

शोक  समुद्र  में  डुबकी  लगाते  हुए  सभी  स्त्री-पुरुष  महान  व्याकुल  होकर  सोच  (चिंता)  कर  रहे  हैं।  वे  सब  विधाता  को  दोष  देते  हुए  क्रोधयुक्त  होकर  कह  रहे  हैं  कि  प्रतिकूल  विधाता  ने  यह  क्या  किया?  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  देवता,  सिद्ध,  तपस्वी,  योगी  और  मुनिगणों  में  कोई  भी  समर्थ  नहीं  है,  जो  उस  समय  विदेह  (जनकराज)  की  दशा  देखकर  प्रेम  की  नदी  को  पार  कर  सके  (प्रेम  में  मग्न  हुए  बिना  रह  सके)।

 

प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

 

हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥107॥

 

तुलसी लिखते हैं कि ….

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा।

तीन ग्रंथ – उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद गीता, - उपर भाष्य करनेवालेको प्रस्थानत्रयी कहते हैं।

 

जानिअ  तबहिं  जीव  जग  जागा। 

जब  सब  बिषय  बिलास  बिरागा॥2॥

 

जगत  में  जीव  को  जागा  हुआ  तभी  जानना  चाहिए,  जब  सम्पूर्ण  भोग-विलासों  से  वैराग्य  हो  जाए॥2॥ 

समर्थ कौन हैं?

गुरु निष्ठ आश्रितको गुरु के मौन को समजना चाहिये, गुरु के रुखको समजना चाहिये, और गुरु के अनुराग को समजना चाहिये।

 

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।

जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।4।।

 

भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उसके रहस्य तथा विभाग-इन सबके भेदको तू मेरी कृपासे ही जान जायगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा।।4।।

 

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।

सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

 

हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥132॥

 

गुर  अनुरागु  भरत  पर  देखी।  राम  हृदयँ  आनंदु  बिसेषी॥

भरतहि  धरम  धुरंधर  जानी।  निज  सेवक  तन  मानस  बानी॥1॥

 

भरतजी पर  गुरुजी  का  स्नेह  देखकर  श्री  रामचन्द्रजी  के  हृदय  में  विशेष  आनंद  हुआ।  भरतजी  को  धर्मधुरंधर  और  तन,  मन,  वचन  से  अपना  सेवक  जानकर-॥1॥

 

श्री शिव नटराज स्तुति

 

सत सृष्टि तांडव रचयिता

नटराज राज नमो नमः

हेआद्य गुरु शंकर पिता

नटराज राज नमो नमः

गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्माडना

नित होत नाद प्रचंडना

नटराज राज नमो नमः

शिर ज्ञान गंगा चंद्रमा चिद्ब्रह्म ज्योति ललाट मां

विषनाग माला कंठ मां

नटराज राज नमो नमः

तवशक्ति वामांगे स्थिता हे चंद्रिका अपराजिता

चहु वेद गाए संहिता

नटराज राज नमोः

रविवार, २६/०७/२०२०

 

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

 

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥

राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥5॥

राम और जानकी तत्वतः अभिन्न हैं।

राधा माधव और सीता राम युक्त हैं और संयुक्त भी हैं।

राधा रस साधनामें शिखर हैं। राधा भावमें की सौन्द्रयकी प्रधानता हैं। यह मातृ शरीर हैं।

यही भाव भरतमें हैं जो पुरूष शरीरमें हैं, भरत भावमें वैराग्यकी प्रधानता हैं।

राधा कूंडमें प्रवेशना और भरत कूपमें डूबना एक ही हैं।

सौन्द्रर्यसे नीकलके वैराग्यमें जाना कठिन हैं। कोई ठोकर लगनेसे – चोट लगनेसे ही ब्यक्ति सौन्द्रर्यसे वैराग्यकी ओर प्रवेश करता हैं। राजा भ्रतृहरि का उदाहरण ईसका प्रमाण हैं।

भ्रतृहरि श्रींगार शतक और वैराग्य शतक की रचना करता हैं।

राधा प्रगट विरहका अवतार हैं, भरत प्रगट वैराग्यका प्रतीक हैं, अवतार हैं।

राधा भाव चरम सीमा हैं, उसके आगे कुछ नहीं हैं। यह अंत मुक्त अंत हैं। भरत भाव भी अंत मुक्त अंत हैं। ENDLESS END.

राधा भाव और भरत कूपमें प्रवेश करनेके लिये पांच वस्तु आवश्यक हैं, लक्षण आवश्यक हैं। यह नीचे मुजब हैं।

ईश्वर उपर पुरा विश्वास – अखंड विश्वास रखना चाहिये।

व्यवहार जगतमें भी विश्वास रखना पडता हैं।

श्वास नाशवंत हैं, जब कि विश्वास शास्वत हैं।

राधा और भरत सर्व समर्थ हैं।

साधु कहे उसे मानना वेद हैं और साधु कहे उसे न मानना वेदना हैं।

माया हमें परेशान करती हैं लेकिन माया का अर्थ दया, कृपा हैं भी हैं।

पुरा जगत दया, कृपासे भरा हैं।

लखि  लघु  बंधु  बुद्धि  सकुचाई।  करत  बदन  पर  भरत  बड़ाई॥

भरतु  कहहिं  सोइ  किएँ  भलाई।  अस  कहि  राम  रहे  अरगाई॥4॥

 

 

छोटा  भाई  जानकर  भरत  के  मुँह  पर  उसकी  बड़ाई  करने  में  मेरी  बुद्धि  सकुचाती  है।  (फिर  भी  मैं  तो  यही  कहूँगा  कि)  भरत  जो  कुछ  कहें,  वही  करने  में  भलाई  है।  ऐसा  कहकर  श्री  रामचन्द्रजी  चुप  हो  रहे॥4॥

राधा कहती हैं कि कृष्ण हमें छोडकर नहीं जाते हैं लेकिन कृष्ण उसे हमारे पास छोडकर जाते हैं।

समर्थ राम कहते हैं कि भरत जो कहे वह करनेमें ही हमारी भलाई हैं।

ईश्वरकी जरूरत हैं। ईश्वर उपर भरोंसा हैं और उसकी जरूरत भी हैं।

साधुकी एक आंखमें भेज और दूसरी आंखमें भेख होता हैं। साधुकी आंखोमें प्रेम – भेज होता हैं।

साधुकी आंखोमें विधाता लेख लिखती हैं। जब की संसारीके भालमें विधाता लेख लिखती हैं।

असमर्थकी सेवा करना और समर्थका भजन करना चाहिये।

समर्थ वह हैं जिसे जगत कल्याणकी आगेकी आगाह होती हैं, आगे क्या होनेवाला हैं उसकी जानकारी होती हैं।

हरि तजि और भजिये काहि?

गुरु साज देता हैं और आवाज भी देता हैं, और ऐसा समाधिमें होते हुए भी देता रहता हैं।

जीवनमें कभी भी ओतराई न जाना चाहिये, चाहे पद प्रतिष्ठा मिले, बुद्ध पुरूष की कृपा - प्रेम मिले, धन मिले तो भी ओतराई न जाना चाहिये – अस्वस्थ न होना।

गुरुका हाथ सदा आश्रितके पीठ उपर रहता हैं जो आदर मिले या अनादर मिले उस वक्त सहारा देता हैं। समाजमें आदर मिलता हैं और अनादर भी मिलता हैं ईसीलिये हमें उसकी चिंता नहीं करनी चाहिये क्यों कि गुरु का हाथ हमारी पीठ उपर सदा रहता हैं। गुरु शिर पर हाथ रखकर कहता हैं कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हुं तो कोई शिरका बाल बांका नहीं कर शकेगा अगर हम गुरुका दिया हुआ ज्ञान – उपदेश कंठ से नीचे उतारते हैं और उसे पचा लेते हैं।

ईश्वरके स्वरूपका ख्याल होना चाहिये। ईश्वरकी हमें जरूरत हैं उसका हमें ख्याल होना चाहिये। ईश्वर जब अवतार लेता हैं तब वह मनुष्य रूपमें हैं, लेकिन हमें याद रखना चाहिये कि वह मानव रूपमें ब्रह्म हैं, मानव रूपमें लीला करता हैं।

सौदर्य बोध होना चाहिये। सौदर्य परमात्माका वरदान हैं। सुंदरको भी सुंदर कर दे ऐसी सुंदराताका हमें बोध होना चाहिये। सुंदरता पाप नहीं हैं।

साधकके जीवनमें संगीतकी लय बद्धता होनी चाहिये, व्यक्तिको संगीतमय होना चाहिये। सबने हरिको गाया हैं।

यह पांच वस्तुसे राधा कूंडमें प्रवेश करा शकती हैं, भरत कूपमें डूबा शकती हैं।

 

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥

काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥

 

मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥6॥

राधा भावकी यह अवस्था हैं। राधा भावमें खाना कम हो जाता हैं, किसीसे बात करनेका जी नहीं लगता हैं। राधा भावमां – भरत कूपमां श्याम विना सुनु सुनु लागे।

राम सीता विग्रह भिन्न हैं तत्वतः एक हैं।

 

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

 

मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥

 

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥

महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

 

जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥

 

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥

सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥3॥

 

आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं॥3॥

 

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥

नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥

नाम के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्री शिवजी हर्षित हो गए और उन्होंने स्त्रियों में भूषण रूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया। (अर्थात्‌ उन्हें अपने अंग में धारण करके अर्धांगिनी बना लिया)। नाम के प्रभाव को श्री शिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया॥4॥

 

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।

राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

श्री रघुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और 'राम' नाम के दो सुंदर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं॥19॥

राम और हनुमान एक ही हैं, दोनों समर्थ भी हैं।

 

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

 

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

राम चरित मानससे बालकांडसे प्रकाश मिलता हैं, अयोध्याकांडसे प्रेम मिलता हैं, अरण्यकांडसे भक्ति कैसे करनी चाहिये एसी प्रेरणा मिलती हैं और सादु वेषमें छल नहीं करना चाहिये ऐसी प्रेरणा मिलाती हैं, साधु वेशमें रावण का छलना भी एक ऐसा जानने जैसी घटना हैं, किष्किन्धाकांडसे प्राण बल मिलता हैं, सुंदरकांडसे प्रमाण मिलता हैं, लंकाकांडसे प्रसाद मिलता हैं – रावणको प्रसाद मिलता हैं, उत्तरकांडसे परिणाम मिलता हैं।

सिय  राम  प्रेम  पियूष  पूरन  होत  जनमु    भरत  को।

मुनि मन अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

श्री  सीतारामजी  के  प्रेमरूपी  अमृत  से  परिपूर्ण  भरतजी  का  जन्म  यदि    होता,  तो  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  यम,  नियम,  शम,  दम  आदि  कठिन  व्रतों  का  आचरण  कौन  करता?  दुःख,  संताप,  दरिद्रता,  दम्भ  आदि  दोषों  को  अपने  सुयश  के  बहाने  कौन  हरण  करता?  तथा  कलिकाल  में  तुलसीदास  जैसे  शठों  को  हठपूर्वक  कौन  श्री  रामजी  के  सम्मुख  करता?

जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।

जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥

आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।

तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

 

दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान्‌ को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

शास्त्रोका ज्ञान जिसके पास हैं वह बुद्ध जन हैं और राम नाम का ज्ञान जिसके पास हैं वह बुद्ध पुरूष हैं।

बुद्ध जन और बुद्ध पुरूषमें अंतर हैं।

हनुमानजी वानरोके – चंचलताके ईश हैं, चंचलताको काबुमें रखते हैं।

राम, हनुमान, जनक, गंगाजी, नारायण, शिव, समर्थ हैं, मानस भी समर्थ हैं। 

गुरु हमे क्या देता हैं?

तुलसी नीचेकी पंक्तिमें गुरु क्या देता हैं वह बताते हैं।

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।

जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।4।।

 

भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उसके रहस्य तथा विभाग-इन सबके भेदको तू मेरी कृपासे ही जान जायगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा।।4।।

शिष्यको क्या करना चाहिये?

 

मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए।।

मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा।।2।।

 

मोहरूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिये आप जहाज हुए। हे नाथ ! आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख दिये (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदलें में उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणोंकी बार-बार वन्दना ही करता हूँ।।2।।

शिष्य तो केवल वंदन हि कर शकता हैं।

सोमवार, २७/०७/२०२०

राम कथा सकल लोक पावनी गंगा हैं।

आज तुलसीदासजीका प्रागट्य दिन हैं, तुलसी जयंति हैं।

पंडित रामकिंकरजी महाराज को युग तुलसी कहा गया हैं, तुलसीजी का अवतार माना गया हैं।

मानसने अनेक तुलसी प्रगट किये हैं।

मंदिर की ऊंचाईकी से मंदिरकी चोडाई ज्यादा महत्व की हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।

समरथ शब्द ब्रह्मका एक विशिष्ट अर्थ भी हैं।

‘स’ का अर्थ हैं समता, जो व्यक्ति सबमें समता रखता हैं वह समरथ शब्द ब्रह्म का पहला चरण पूर्ण करता हैं।

 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।

 

।।18.54।।वह ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।12.18।।

 

।।12.18।।जो शत्रु और मित्रमें तथा मान-अपमानमें सम है और शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है, और जो निन्दास्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील, जिस-किसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट, रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममता-आसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

विराम सम पर हि आता हैं।

‘म’ का अर्थ हैं समताकी छांव में ममता रखना हैं। ममता अगर प्रधान हैं तो समता आनी मुश्केल हैं।

‘र’ का अर्थ हैं रक्षक होना हैं।

समर्थ बुद्ध पुरुष हमारा रक्षक होता हैं।

 

‘थ’ समर्थ व्यक्ति जड नहीं होना चाहिये, उस में थडकन होनी चाहिये।

सुख ने दुःखनी वात्युं

समर्थ जडको चेतन और चेतनको जड कर शकता हैं।

कृष्ण सर्व समर्थ हैं और रासरासेश्वर भी हैं।

नीति बदली जा शकती हैं लेकिन नियती बदली नहीं जा शकती। देश काल और पात्रके अनुसार नीति बदली जा शकती हैं। नियति ध्रुव हैं।

गोडसे ने गांधीको गोली मारी वह नियति का निर्णय हैं।

कृष्ण कालके काल हैं, कृष्ण अमृत है और मृत्यु भी हैं।

समर्थ व्यक्ति नियतिमें कोई फेरफार नहीं करता हैं।

समरथ को दो शब्दमें बदले तो सम और रथ होता हैं जहां सम का अर्थ सम रखना हैं और रथ का अर्थ जीवनका रथ हैं – जीसका जीवन का रथ सम हो ते समर्थ हैं। हर्ष और शोकमें जीवन रथ सम रहता हैं। जीसका जीवन का रथ सम हैं वह समर्थ हैं।

दूसरों का धन और अपनी अकल सदा ज्यादा हि लगती हैं।

नाम समर्थ, हनुमानजी समर्थ, और शिव जो भगवानके भक्त हैं वह भक्त समर्थ हैं और स्वयं भगवान समर्थ हैं।

भगवान का नाम भगवान से अधिक हैं। भगवान अपने भक्तके आधिन रहते हैं।

भगवान गुण वाचक शब्द है जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह "भग" धातु से बना है , भग के ६ अर्थ है:- १-ऐश्वर्य २-वीर्य ३-स्मृति ४-यश ५-ज्ञान और ६-सौम्यता जिसके पास ये ६ गुण है वह भगवान है।

यह ६ जिसमें हैं वह समर्थ हैं। हनुमानजीमें समग्र ऐश्वर्य वगेरे ६ ऐश्वर्य हैं। हनुमानजी गुण सागर हैं।

हनुमानजीमें ६ ऐश्वर्य हैं।

हनुमानजी कुमति निवार सुमति के संगी हैं।

 

तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥1॥

4

Tuesday, 28/07/2020

राम चरित मानस स्वयं समर्थ हैं, और वह सब मनोरथ पुरा करता भी हैं।

समस्या का हल करना, समाधान प्रदान करना यह तो राम का शील हैं।

काशी मथुरा वृंदावनकी गलियनमें ……….

मानसकी चोपाईका हरएक अक्षर महा पातक हैं, पाप नाश करनावाला हैं।

समर्थ के पानेके बाद किसी भी परिस्थितिके लिये तैयार रहो।

समर्थ के साथ जुडनेके बाद अगर विरह कायम रहे तो वह हम जिससे जुडे हैं वह समर्थ हैं उसका प्रमाण हैं।

ग्रंथ समर्थ हैं, नाम समर्थ हैं|

सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥3॥

हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है॥3॥

हनुमानजी समर्थ हैं जो नाम स्मरण करके रामजी को वशमें रखते हैं।

हनुमानजी राम लक्ष्मण को अपने कंधे उपर बिठाते हैं ईतने समर्थ हैं।

भक्त विनम्र होते हुए समर्थ हैं।

भीष्म ईतने समर्थ हैं कि कृष्ण के हाथमें शस्त्र पकडवाते हैं। भगवान अपने भक्त के लिये अपनी प्रतिज्ञा भी तोडते हैं। यहां  भीष्मके सत्यका विजय हैं और कृष्ण के शील का विजय हैं।

असत्य की असत्यके साथ लडाई,सत्य की असत्यके साथ लडाई, और सत्यकी सत्यके साथ के लडाई होती हैं।

सत्यके शील होना चाहिये।

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

 

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमंर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

दुष्ट कपट बहुत करता हैं।

दूसरोके औदार्यको अपना अधिकार न समजो।

कामातुर का अर्थ बहुत कामना करनेवाला हैं।

भक्तिके चार रूप हैं।

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

 

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

विश्वासके अभाव से भय पेदा होता हैं।

 

 

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Wednesday, 29/07/2020

सम का अर्थ धर्म हैं।

सम रथ को धर्म रथ भी कहा जा शकता हैं।

बुद्ध भगवान कह्ते हैं कि मैं एक जागृत पुरुष हुं।

जागृत वह हैं जिसकी कोई ईच्छा नहीं हैं, जो एक्त्रीत किया हुआ हैं उसे छोड देता हैं।

गुरू के साथ रहना का मतलब हैं एक जागृत चेतना के साथ रहना।

संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥

आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥2॥

भावार्थ:-कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्‌ शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं॥2॥

भगवान शंकर अविनाशी हैं। हनुमानजी अविनाशी हैं।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

गुरु के साथ रहना का मतलब हैं गुरू की जागृत चेतनाका निरंतर आश्रय करना।

गुरुकी नींदा करनेवालेके साथ उदासीन हो जाओ।

धर्म रथका आधार उसका आधार पहिये हैं, जिसके बिना गति शक्य नहीं हैं।

आनंद ईश्वरका रूप हैं।

शौर्य और धैर्य धर्म रथके दो पहिये हैं।

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥

 

शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥

धैर्य, शील,

श्रद्धा से निष्ठा ज्यादा महत्वकी हैं।

 

संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥

दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥

 

शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं॥2॥

 

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥

केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥

हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे॥2॥

 

संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥

दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥

 

शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं॥2॥

शिष्य, मित्र, सेवक, मंत्री और स्त्री जब पर मन रंजन करें तो त्याग देना चाहिए|

जन शिष्य,सखा,सेवक,सचिव,सुतीय सिखावन साँच।

सुनि समुझिय पुनि परिहरिअ पर मन रंजन पाँच।।

शिष्य अपने गुरु को , मित्र अपने प्रिय मित्र को,सेवक अपने स्वामी को, अपने राजा को और नारी अपने पति को छोड़कर दूसरों के मन प्रसन्न करने लगे, तो भली भाँति जाँच परख करने के पश्चात उन्हें त्याग देना चाहिए।

कृष्णका भरतका शील, रामका शील

साधना, भजन ऐसा करो कि दूसरोंको उसका पता न चले।

 

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥

 

ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥

 

प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

 

हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥107॥

जो प्रभु हैं, स्वामी हैं, पालक हैं वह समर्थ हैं।

जो सर्वज्ञ – जानने योग्य सब जानता हैं - हैं वह समर्थ हैं।

जो कल्याण्कारी हैं, सकल कलाका धाम हैं, समस्त गुण - सकल गुण का धाम हैं, जो योगी हैं, जो ज्ञान वैराग्यका खजाना हैं, जो कल्पतरु समान हैं वह समर्थ हैं।

 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।

 

।12.7।। हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।।

।।12.7।।उनका क्या होता है --, हे पार्थ मुझ विश्वरूप परमेश्वरमें ही जिनका चित्त समाहित है ऐसे केवल एक मुझ परमेश्वरकी उपासनामें ही लगे हुए उन भक्तोंका मैं ईश्वर उद्धार करनेवाला होता हूँ। किससे ( उनका उद्धार करते हैं ) सो कहते हैं कि मृत्युयुक्त संसारसमुद्रसे। मृत्युयुक्त संसारका नाम मृत्युसंसार है। वही पार उतरनेमें कठिन होनेके कारण सागरकी भाँति सागर है, उससे मैं उनका विलम्बसे नहीं, किंतु शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ।

सामने हरि खडा हैं और उसे जो पहचान नहीं शकता हैं वह दीन हैं।

शंकर तेरी जटा से बहती है गंग धारा

काली घटा में चमके जैसे कोई सितारा,

शंकर तेरी जटा से ….

शेश नाग मस्तक पर सोहे गल मुंडन की माला मोहे,

नंदी गण गोरा संग साजे गणपति लाल दुलारा,

शंकर तेरी जटा से ...

योगनियों संग शोर मचावे,

तांडव नाच करे सब गावे,

हर हर महादेव पुकारे जय शिव ॐ कारा,

शंकर तेरी जटा से ...

आक धतूरा खाने वाले विश का प्याला पीने वाले,

विशवनाथ और अमर नाथ में मुक्ति का तेरा द्वारा,

शंकर तेरी जटा से ….

 

6

Thursday, 30/07/2020

 

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

 

भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं॥1॥

भरद्वाज मुनि कर्मके घाटसे कथा सुनाते हैं।

कर्म सबको करना पडता हैं।

अमृत त्यागसे मिलता हैं।

 

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥

कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥4॥

 

हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात्‌ आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं) पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है (भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान न हुआ) और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है (क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ)॥4॥

जप करनेवालोको अपने गुरू स्थानकी स्मृति सदा रखनी चाहिये। गुरू स्थानमें रहनेका अगर मिल जाय तो उसे छोडना नहीं चाहिये।

जप करनेवालोको गुरूकी सेवा करनी चाहिये।

 

अग्यासम    सुसाहिब  सेवा।  सो  प्रसादु  जन  पावै  देवा।2॥

 

जापकको अपनी शंका का समाधान अपने गुरूसे ही प्राप्त करे, ओर कहींसे प्राप्त करनेका प्रयास न करे।

जप करनेवालोको गुरु जो ईष्ट देव, ईष्ट मंत्र और ईष्ट ग्रंथ दे उसीको ही मानना चाहिये। हालाकि गुरु ईसके लिये कोई दबाव नहीं डालता हैं। दुसरोंका ईष्ट, ईष्ट ग्रंथ, ईष्ट मंत्र का अपमान कभी भी न करे।

गुरु जो दे उसकी महिमा बहुत हैं।

पून्य शाली वृक्षकी पूजा करनी चाहिये। अगर जाप ऐसे वृक्षके नीचे करे तो उसका महत्व हैं।

प्रभुका नाम कभी भी भूलना नहीं चाहिये।

अपने गुरु उपर पूरा विश्वास रखो।

जिज्ञासु आश्रितके सामने गुरु अपना खजाना खोल देता हैं।

 

संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥

आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥2॥

 

कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्‌ शम्भु निरंतर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं॥2॥

 

सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥

रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥3॥

 

हे मुनिराज! वह भी राम (नाम) की ही महिमा है, क्योंकि शिवजी महाराज दया करके (काशी में मरने वाले जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते हैं (इसी से उनको परम पद मिलता है)। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए॥3॥

 

एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥

नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥4॥

 

एक राम तो अवध नरेश दशरथजी के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला॥4॥

 

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।

सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

 

हे प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए॥46॥

राम अंतिम मंत्र हैं।

 

धरमु    दूसर  सत्य  समाना। 

आगम  निगम  पुरान  बखाना॥

मैं  सोइ  धरमु  सुलभ  करि  पावा। 

तजें  तिहूँ  पुर  अपजसु  छावा॥3॥

 

वेद,  शास्त्र  और  पुराणों  में  कहा  गया  है  कि  सत्य  के  समान  दूसरा  धर्म  नहीं  है।  मैंने  उस  धर्म  को  सहज  ही  पा  लिया  है।  इस  (सत्य  रूपी  धर्म)  का  त्याग  करने  से  तीनों  लोकों  में  अपयश  छा  जाएगा॥3॥ 

 

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।1।।

 

हे भाई ! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात ! समस्त पुराणों और वेदोंका यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बातको पण्डित लोग जानते हैं।।1।।

पर हित न करे ऐसे सत्य कोई कामका नहीं हैं।

एक जीव का सत्य होता हैं और एक परम का सत्य होता हैं। परम का सत्य हि सत्य‌म्‌ परम धिमहि हैं।

हमारा सत्य दूसरोंका अहित करनेवाला न होना चाहिये।

विषम परिस्थिति हि विष हैं।

 

तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी।।

राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।4।।

 

[शिवजी कहते हैं-] हे भवानी ! सनकादि मुनि वहाँ गये थे (वहीं से चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्रीअगस्त्य जी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्रीरामजी की बहुत-सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है।।4।।

 

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥

रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥

 

मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥

 

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥

मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।

 

श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले॥3॥

 

तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥

पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥

 

उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान्‌ उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे॥4॥

 

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥

 

ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान्‌ श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।

 

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।

बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥

 

यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान्‌ की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥51॥

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Friday, 31/07/2020

कर्म सामर्थ्य, ज्ञानका सामर्थ्य और भक्तिका सामर्थ्य क्या हैं?

हम एक क्षण भी कर्मके बिना नहीं रह शकता हैं।

कर्ममें समर्थता कैसे आ शकती हैं?

कर्म सामर्थ्य, ज्ञानका सामर्थ्य और भक्तिके सामर्थ्य के लिये सात सात सूत्र हैं।

 

गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥

 

कुछ गुप्त रहस्य शास्त्रकी कुखस नीकलता हैं, कुछ रहस्य साधुके मुखसे नीकलता हैं।

कर्म की गति गहन हैं।

कर्ममें कुशलता ही कर्मका सामर्थ्य हैं।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।

 

।।2.50।।समत्वबुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष जिस फलको पाता है वह सुन

 

समत्वयोगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ पुरुष अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृतदुष्कृतको पुण्यपाप दोनोंको यहीं त्याग देता है इसी लोकमें कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर चेष्टा कर।

क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित बुद्धिसे उत्पन्न हुआ सिद्धिअसिद्धिविषयक समत्वभाव है वही कुशलता है।

यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो।

 

।।2.50।। बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।

हमारे पास पांच कर्मेन्द्रीयां, पांच ज्ञानेद्रीयां हैं।

कर्म करनेमें मैं निमित्त मात्र हैं, वह सदा याद रखना।

दूसरोंकी जींदगी देखनेमें थोडा अंतर रखो और अपनी जींदगी देखनेमें नजदिक रहो, अंतर न रखो।

कर्म का फल जो भी आये उसका स्वीकार करो।

कर्म करनेमें रस आना चाहिये।

कोइ भी कर्म नीति छोडकर न करो। अपने फायदेके लिये नीति छोडकर कर्म न करो।

 

नेऽपि सिंहा मॄगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तॄणं चरन्ति ।

एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति ॥

 

जंगल मे मांस खानेवाले शेर भूक लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते.

एक अवस्था प्राप्त करनेके बाद कर्मसे बाहर नीकल जाओ।

 

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

 

सब कथा कहकर भगवान्‌ के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।

जो बात अपने बशकी नहीं हैं उसे छोड दो।

चिंतन सिर्फ वर्तमानकी हो शकती हैं, चिंता भविष्यकी होती हैं।

सिमरनसे समस्या हल जाती हैं, कोई दूर रहकर हमारी समस्या हल हो जायेगी अगर हम सिमरन करते हैं, माला जपते हैं।

प्रारब्ध कर्म भोगना ही पडता हैं।

प्रारब्ध कर्म समाप्त हो शकते हैं?

नाभीसे पुकार करनेसे, आर्तनाद पुकारसे, प्रायच्शित करने पर, क्षमा याचना करनेसे, हरिनाम जपनेसे प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं, राम कथा भी प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं। कलाको साधना बनानेसे प्रारब्ध कर्म छूट जाते हैं। और यह सम  करना सरल भी हैं।

हा पस्तावो विपुल झरणुं …

संचित कर्म - क्रियमान कर्मको संचित कर्म कहते हैं।

 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥

 

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌ श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥4॥

 

वक्तुं समर्थोपि नवक्ति कश्चित् अहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम् ।

जिह्वे पिबस्वमृतमेतदेव गोविंद दामोदर माधवेति ॥ १५ ॥

 

कर्मका विस्तार न करना, कर्मको समज कर कम करना चाहिये।

असहज कर्म न करना चाहिये। कर्म सहज ही करना चाहिये।

 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

 

।।18.48।।हे कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।

मैं जो कर्म करु वह कृष्ण के लिये हि हैं।

ज्ञानका सामर्थ्य

जिसको अपने ज्ञानका अभिमान नहीं हैं वही समर्थ ज्ञानी हैं।

जिसको सबमें ब्रह्म दिखाई दे वहीं समर्थ ज्ञानी हैं, जो भेद मिटा दे वह समर्थ ज्ञान हैं। समर्थ ज्ञान संचित कर्मका नाश करता हैं। जो सबमें मिल जाय वह समर्थ ज्ञानी हैं। जो भय मुक्त ज्ञान हैं वहीं समर्थ ज्ञान हैं। KNOWLEDGE WITHOUT FEAR. जब ज्ञानी भक्त बन जाता हैं तब वह परमात्माको ज्यादा प्रिय लगता हैं।

ज्ञानी अनाथपना महसुस नहीं करता हैं।

 

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥

 

 

यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥

 

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥

 

जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥2॥

 

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥

 

गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है॥3॥

विश्वामित्र ज्ञानी हुते हुए अनाथपना महसुस करते हैं।

 

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥

 

(मुनि ने कहा-) हे राजन्‌! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥5॥

ज्ञान के साथ भजन हो तब ही वह ज्ञानी अनाथ नहीं हो शकता। अकेला ज्ञान अनाथपना महसुस करता हैं।

कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥7॥

 

बालि ने कहा- हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित्‌ वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥7॥

वालि भी रघुनाथको जानते हुए खुदको अनाथ समजता हैं।

मौन ज्ञानका सामर्थ्य हैं। ज्ञानी मौन रहता हैं।

रावण ज्ञानी हैं लेकिन बोलता बहुत हैं।

सात ज्ञान सामर्थ्य हैं।

भक्ति के सात सामर्थ्य

स्नेह भक्ति मार्गका सामर्थ्य हैं। घी को स्नेह कहते हैं। कृष्ण नाम आतेही ह्मदय पिगल जाय यह भक्तिका सामर्थ्य हैं।

मान भक्तिका सामर्थ्य हैं। सर्व समर्थ जब भक्तिमें मान आता हैं तब मनाने आता हैं।

बंदऊँ राम लखन वैदेही , ये तुलसी के परम सनेही ।

प्रणय – प्रीति ज्ञानका सामर्थ्य हैं जहां विरह असह्य हो जाता हैं।

राग भक्तिका सामर्थ्य हैं। राग वह हैं जिसके प्रति राग होता हैं वह कितना भी जुल्म करे उसे सहन करे\

अनुराग जो जड हैं, वह जो कहे उसे मान करना, साई रिझे उस तरह ही करना।

अनुराग आदमीको जड बना देता हैं।

भाव - मीरा में भाव हैं, ज्ञानी और जो भावमें रहते हैं वह स्थुल कायावाले होते हैं।

महाभाव जिसे भरत भाव, राधा भाव कहते हैं।

भरत जो परम संत हैं वह अपनी मा कैकेयीकी नींदा करता हैं और समर्थ परमात्मा राम कैकेयीकी वंदना करते हैं।

महाभावमें परमात्माको विरह लगता हैं, राधाभावमें उपरके ६ लक्षण परमात्मामें आते हैं।

 

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥

 

जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता॥3॥

 

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥

 

गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥

 8

Saturday, 01/08/2020

नाभी नाद एक भीतरी पुकार हैं, जीव किसीसे जुडा रहना चाहता हैं, मा के गर्भसे जब नाड काटते हैं तब एक पुकार, एक चिख ऊठती हैं, एक आर्त नाद ऊठता हैं जो नाभी नाद हैं और यह नाद ईशवरके सिवाय ओर कोई नहीं सुन शकता हैं, बच्चेकी मा भी नहीं सुन शकती हैं। यह हमारी बुद्धिकी समजमें नहीं आयेगा। हमें जहर पर भरोंसा हैं लेकिन जगदीश उपर भरोंसा नहीं हैं।

वस्त्राहरणके समय द्रौपदी पुकार नाभी नाद हैं जो गोविंद सुनते ही सहाय करनेके लिये दोडता हैं।

यह सुंदर शरीर धर्मके लिये साधन हैं। शरीर उपर जबरदस्ती मत करो।

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।

નથી મફતમાં મળતા બહું મુલ ચૂકવવા પડતા …

मौन की बहुंत ताकात हैं। जो चूप रहता हैं वहीं पलपता हैं – उसका विकास होता हैं। परिवारमें मौन रहनेसे आपसके झगडे समाप्त हो हाते हैं।

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥

भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥

 

जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता॥3॥

नारद आचार्य हैं।

नारद शिव भगवान जो समर्थ हैं उसके लक्षण बताते हैं।

विष्णु समर्थ हैं, उसे कोई दोष नहीं लगता हैं।

सूर्य और अग्नि भी समर्थ हैं जो अच्छा बुरा ग्रहण करते हुए मंद नहीं हैं।

 

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥

 

गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥

गंगा समर्थ हैं उसे कोई दोष नहीं लगता हैं।

सूर्य, अग्नि, गंगा और समर्थ – विष्णु समर्थ हैं जिसे कोई दोष नहीं लगता हैं। हालाकि भाषान्तरमें सूर्य, अग्नि और गंगा का हि उल्लेख हैं, गुरु मुखी शास्त्रके अनुसार चोथा विष्णु भी समर्थ हैं और यह चारों को कोई दोष नहीं लगता हैं।

 

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥

 

जो सूर्य, अग्नि, गंगा और विष्णु जो शेष नाग पर सोते हैं उसके जैसा हैं वह समर्थ हैं।

विष्णु काल शैया पर सोते हैं, लक्ष्मी पांव दबाती हैं फिर भी सहज भी विचलित नहीं होते हैं। ऐसे जो विचलित नहीं होता हैं वहीं समर्थ हैं।

रामायण शब्दका भी हम गलत उपयोग करते हैं।

सूर्य, अग्नि, गंगा, विष्णु निर्दोष हैं ईसी लिये समर्थ हैं। बालक निर्दोष हैं ईसीलिये समर्थ हैं।

 

श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणं ।

नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥

 

कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं ।

पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि नोमि जनक सुतावरं ॥२॥

 

भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।

रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं ॥३॥

 

शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अङ्ग विभूषणं ।

आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥

 

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं ।

मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं ॥५॥

 

मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर सहज सुन्दर सांवरो ।

करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो ॥६॥

 

एहि भांति गौरी असीस सुन सिय सहित हिय हरषित अली।

तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥

 

जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।

मंजुल मंगल मूल वाम अङ्ग फरकन लगे।

 

जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥

पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥

 

जब जड़ (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए॥2॥

 

हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥

निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥

 

भगवान विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे (रमणीयता की मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥

 

सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥

पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥2॥

 

शूर्पणखा नामक रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गई॥2॥

 

रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई॥

तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥4॥

 

वह सुन्दर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर और बहुत मुस्कुराकर वचन बोली- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री। विधाता ने यह संयोग (जोड़ा) बहुत विचार कर रचा है॥4॥

 

शूर्पंखा विधवा हैं, कुवारी नहीं हैं।

 

सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा॥

प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥7॥

 

हे सुंदरी! सुन, मैं तो उनका दास हूँ। मैं पराधीन हूँ, अतः तुम्हे सुभीता (सुख) न होगा। प्रभु समर्थ हैं, कोसलपुर के राजा है, वे जो कुछ करें, उन्हें सब फबता है॥7॥

राम समर्थ हैं ईसीलिये राम जो भी करे उसे शोभा देता हैं।

शंकर समर्थ हैं क्यों की हरि और हर एक ही हैं।

संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥

 

जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥2॥

 

वन्दे सूर्य शशांक वह्नि नयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् l

 

महादेव के पास गंगा, सूर्य, विष्णु और अग्नि हैं ईसीलिये समर्थ हैं।

शिवाजी तेरी जटामें बहती हैं गंगधारा ………..

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

 

हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।

 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।

 

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।।2।।

 

तुषाराद्रि संकाश गौरं गमीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। तसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।

 

जो हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, जिसके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।।3।।

 

चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।

मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।

 

जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।

 

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।

 

प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथमें त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।5।।

 

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।

चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद पसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।

 

कलाओं से परे, कल्याण, स्वरुप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरनेवाले, मनको मथ डालनेवाले कामदेव के शत्रु हे प्रभो ! प्रसन्न हूजिये प्रसन्न हूजिये।।6।।

 

न यावद् उमानाथ पादारविन्द। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।

 

जबतक पार्वती के पति आपके चरणकमलों से मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हूजिये।।7।।

 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

 

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।

 

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।9।।

 

भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिये ब्राह्मणद्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं, उनपर भगवान् शम्भु प्रसन्न हो जाते हैं।।9।।

 

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥

 

कृष्ण, राम, शंकर, अग्नि, गंगा, सूर्य, गुरु समर्थ हैं।

9

Sunday, 02/08/2020

 

आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।1।।

 

[इस प्रकार] जब आत्मानुभवके सुखका सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रमका नाश हो जाता है।।1।।

भेद और भ्रम

 

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।

भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥46 ख॥

 

युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर और सदा सत्संग कर॥46 (ख)॥

 

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।।

राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।3।।

 

हे पक्षिराज गरुड़ ! अब मैं आपसे अपना निज अनुभव कहता हूँ। [वह यह है कि] भगवान् के भजन के बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षिराज ! सुनिये, श्रीरामजी की कृपा बिना श्रीरामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती।।3।।

करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।

 

ब्रह्म अजन्म है, अद्वैत है केवल अनुभवसे ही जाना जाना जाता है और मन से परे है-जो [इस प्रकार कहकर उस] ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किन्तु हे नाथ ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम प्रभो ! हे सद्गुणोंकी खान ! हे देव ! हम यह बर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणोंमें ही प्रेम करें।।6।।

 

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥

परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥

 

प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले॥3॥

 

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥

परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥

 

प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले॥3॥

पहले गुरुको प्रनाम करो बादमें धनुष्य भंग करो।

 

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥

जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4॥

 

वे तमककर (बड़े ताव से) शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं, करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते॥4॥

गदगद गिरा नयन बह नीरा॥

 

विवेक संपन्न व्यक्ति समर्थ हैं।

 

श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥

नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥

राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे॥3॥

 

ग्यान  निधान  सुजान  सुचि  धरम  धीर  नरपाल।

तुम्ह  बिनु  असमंजस  समन  को  समरथ  एहि  काल॥291॥

 

हे  राजन्‌!  तुम  ज्ञान  के  भंडार,  सुजान,  पवित्र  और  धर्म  में  धीर  हो।  इस  समय  तुम्हारे  बिना  इस  दुविधा  को  दूर  करने  में  और  कौन  समर्थ  है?॥291॥

 

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥

समर्थ वह लोग हैं जो समय आने पर छलांग लगाके दोडते हैं।

तुलसी दर्शनके अनुसार राम, शंकर, हनुमान, लक्ष्मण, विश्वामित्र, रामनाम, भीष्म, द्रोणाचार्य, गंगा, अग्नि, सूर्य वगेरे समर्थ हैं।