આજે રવિવાર, તારીખ ૦૫ જુલાઈ, ૨૦૨૦, વિક્રમ સંવત ૨૦૭૬, અષાઢ શુક્લ પૂર્ણિમા છે જે ગુરુ પૂર્ણિમાનું મહાન પર્વ છે.
આજે મારા ગુરુ પ્રાતઃ સ્મરણીય પૂજ્ય બ્રહ્માનંદપુરીજી મહારાજના ચરમ કમળમાં મારા દંડવત પ્રણામ કરું છું.
આજે મારા ગુરુ પ્રાતઃ સ્મરણીય પૂજ્ય બ્રહ્માનંદપુરીજી મહારાજના ચરમ કમળમાં મારા દંડવત પ્રણામ કરું છું.
શંકરમ્ શંકરાચાર્યમ્ કેશવમ્ બાદરાયણમ્
સૂત્રભાષ્યકૃતૌ વંદે ભગવન્તૌ પુનઃ પુનઃ
કૃતે વિશ્વગુરુર્બ્રહ્મા ત્રેતાયાં ઋષિસતમઃ
દ્વાપરે વ્યાસ એવ સ્યાત કલાવત્ર ભવામ્યહમ્
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वररः ।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥
ગુરુર્બ્રહ્મા ગુરુર્વિષ્ણુ ગુરુદેવો મહેશ્વર : |
ગુરુ સાક્ષાત્ પરં બ્રહ્મ તસ્મૈ શ્રીગુરુવે નમ : ||
ગુરુ પરંપરા
નારાયણમ પદ્મભુવં વસિષ્ઠં શક્તિં ચ તત્પુત્ર પરાશરં ચ
વ્યાસં શુકં ગૌડપદં મહાન્તં ગોવિન્દ યોગીન્દ્રમથાસ્ય શિષ્યં ll
શ્રી શંકરાચાર્યમથાસ્ય પદ્મપાદં ચ હસ્તામલકં ચ શિષ્યં
તં તોટકં વાર્તિકકારમન્યાનસ્મદ્રરૂન્ સંતતમાનતોસ્મિ ll
સદાશિવ સમારમ્ભાં શંકરાચાર્ય મધ્યમાં l
અસ્મદાચાર્યં પર્યન્તાં વન્દે ગુરૂપરંપરામ્ ll
मानस की गुरु वंदना गुरु गीता हैं।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
चौपाई :
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
वह रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥
दोहा :
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥
चौपाई :
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
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अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार ।
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत् ॥
गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें ।
"સબ ધરતી કાગદ કરું,
લેખની સબ વનરાય,
સપ્ત સમુંદ કી મસિ કરું,
ગુરુ ગુન લિખા ન જાય."
વસુદેવ સુતં દેવં કંસ ચાણૂર મર્દનમ્ ।
દેવકી પરમાનંદમ્, કૃષ્ણં વંદે જગદ્ગુરુમ્ ।।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १॥
Saluatations are to that guru who showed me the abode--the one
who is to be known--whose form is the entire universe and by whom
all the movables (animals) and immovables are pervaded . (l)
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ २॥
Salutations to that guru who opened the eyes of the one blind due to
the darkness (cover) of ignorance with the needle (coated) with the
ointment of knowledge . (2)
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३॥
Salutations to that guru, who is the Creator, Sustainer, and
Destroyer and who indeed is the limitless Brahman .
(3)
स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किञ्चित्सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ४॥
Salutations to that teacher who showed me the one to be known,
who permeates whatever that is movable and
immovable, sentient
and insentient . (4)
चिन्मयं व्यापि यत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ५॥
Salutations to that teacher who showed me (by teaching) the
pervader of all three worlds comprising the sentient and insentient .
(5)
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजः ।
वेदान्ताम्बुजसूर्यो यः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ६॥
Salutations to that guru who is the sun to the lotus of VedAnta and
whose lotus feet are made radiant by the jewel of all Shrutis
(UpaniShads). (The guru is established in the vision of the Shruti
and is the one by whom the Shruti blossoms forth.) (6)
चैतन्यश्शाश्वतश्शान्तः व्योमातीतो निरञ्जनः ।
बिन्दुनादकलातीतः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ७॥
Salutations to that guru who is Awareness, changeless (beyond
time), who is peace, beyond space, pure (free from rAga and
dveSha) and who is beyond the manifest and unmanifest (NAda,
Bindu, etc.) (7)
ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ८॥
Salutations to that guru who is rooted in knowledge that is power,
adorned with the garland of Truth and who is the bestower of the joy
of liberation . (8)
अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मबन्धविदाहिने ।
आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ९॥
Salutations to that guru who by bestoying the knowledge of the Self
burns up the bondage created by accumulated actions of
innumerable births . (9)
शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापनं सारसम्पदः ।
गुरोः पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १०॥
Salutations to that guru; the perennial flow of wisdom from the one
rooted in the vision of the Shhruti dries up totally the ocean of
transmigration (saMsAra) and reveals (teaches) the essence of all
wealth (the fullness, freedom from want). (10)
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ११॥
There is nothing superior to knowledge of truth; no truth higher than
the truth, and there is no purifying austerity better than the truth;
salutations to that guru . (11)
मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १२॥
Prostrations to that guru who is my Lord and who is the Lord of
the Universe, my teacher who is the teacherof the Universe, who is
the Self in me, and the Self in all beings . (12)
गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १३॥
Salutations to that guru who is the beginning and the beginningless,
who is the highest Deity and to whom there is none superior .
(13)
त्वमेव माता च पिता त्वमेव । त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ १४॥
Oh God of all Gods!
You alone are my mother, father, kinsman,
friend, the knowledge, and wealth . You are to me everything .
(14)
॥ इति श्रीगुरुस्तोत्रम् ॥
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