રામ કથા
કથા ક્રમાંક 845
કથા ક્રમાંક 845
માનસ સાધુ મહિમા
તલગાજરડા
શનિવાર, તારીખ ૦૪/૦૭/૨૦૨૦ થી રવિવાર, તારીખ ૧૨/૦૭/૨૦૨૦
મુખ્ય ચોપાઈ
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें।
साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
१
शनिवार, ०४/०७/२०२०
कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें।
साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले
से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
સાધુની મહિમાનું ગાન કરવાથી આપણી
પવિત્રતા વધે છે.
साधु शब्द एक शब्द ब्रह्म हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, उनकी वाणी
भी असमर्थ हैं, ब्रह्मा के चार मुख भी असमर्थ हैं।
कहि
सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस
दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु
नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते
धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते
ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने
श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान् के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी
ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर
केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।
साधु की महिमा अकथनीय, अवर्णनीय हैं।
मानस के सात सोपान साधुता अर्जित करनेकी
एक प्रक्रिया हैं, यह सात सोपान कुछ न कुछ संकेत करते हैं
बालकांड के दर्शन के मुताबिक साधु बालक
जैसा होता हैं। साधु निर्दोष, निरदंभ होता हैं। जब साधु अपने घर आये तो एक बालक खेलने
के लिये आया हैं ऐसे लगना चाहिये।
अयोध्याकांड का दर्शन युवानी का कांड
हैं।
પૂજ્ય ડોંગરે બાપા કહેતા હતા કે
કલહ વગરની કાયા.
કલહ દ્વેષ પેદા કરે છે.
साधु सदा युवान रहना चाहिये, साधुता
सदा युवान रहनी चाहिये, शरीर से भले युवा न रहें।
गुरु सदा युवान होता हैं और शिष्य सदा
पका हुआ होता हैं।
अरण्यकांड के दर्शन के मुताबिक साधु
भले जहां भी रहता हो, साधन संपन्न रहता हो, उसका आंतरिक जीवन अरण्यमय, उदासीन, वनवासी
होना चाहिये। उदासीन परम अवस्था हैं।
तापस बेष बिसेषि उदासी।
चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥
तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन
भाव से (राज्य
और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति
उदासीन होकर विरक्त
मुनियों की भाँति)
राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी
के कोमल (विनययुक्त)
वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा
की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥2॥
मैं
खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई।।8।।
हे गोसाईं ! उससे तो सदा उदासीन ही रहना
चाहिये। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूरसे ही त्याग देना चाहिये। मैं दुष्ट था, हृदय में
कपट और कुटिलता भरी थी। [इसलिये यद्यपि] गुरु जी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती
न थी।।8।।
परमात्मा किडी के नुपूर की आवाज भी सुनता
हैं।
कुत्ते को रोटी खिलाकर दूर करो।
किष्किन्धा कांड के दर्शन के मुताबिक
साधु सदा परोपकारी रहता हैं।
साधुके अनंत लक्षण हैं।
पांचो तत्व उपकार करने वाले हैं और हमारा
शरीर भी यहीं पांच तत्वो से बना हैं ईसी लिये परोपकार हमारे जिन्समें हैं।
यह कांड में हनुमानजीका प्रवेश हैं।
हनुमानजी परोपकारी हैं।
हनुमानजी शिव अवतार होने के नाते स्वयं
साधु हैं, परम उपकारक हैं, साधु के रक्षक हैं।
आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर
उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।
हनुमानजी सुग्रीव को खुद वाली को हरा
कर राज दिलवा शकते थे लेकिन हनुमानजी साधु होने के कारण पहले राम से मिलन करा के सबसे
बडा उपकार करते हैं।
यह साधुता का क्रमशः विकास हैं।
परोपकाराय
फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।
परोपकाराय
दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ
परोपकार के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं, (अर्थात्) यह शरीर
भी परोपकार के लिए ही है ।
सुंदरकांड में एक ऐसे साधु का वर्णन
हैं, जो संत हैं।
फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहाँ
(उसमें) भगवान् का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4॥
मन
महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥
लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान
है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्जी मन में इस प्रकार तर्क करने
लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥
साधु के साथ जुडने से कार्य में कभी
हानी नहीं होगी।
साधु
ते होइ न कारज हानी॥2॥
साधु कभी सोता नहीं हैं, उसका शरीर को
आराम देने के लिये सोना एक विशिष्ट प्रकारका जागरण हैं।
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-
लंकाकांड में मिश्रित वस्तु का उल्लेख
हैं।
साधु निरंतर भजन करता हैं।
उत्तर कांड परम साधुता का शिखर हैं।
राम चरित मानस के सातो कांड में साधुता
का परिचय मिलता हैं।
राम साधु हैं, राम चरित मानस साधु चरित
मानस हैं।
निद्रा समाधि स्थिति एसा भगवान शंकर
कहते हैं।
जो भीतर हैं वह समृद्धि हैं और जो बाहर
हैं वह संपति हैं।
जो निरंतर राम रटन करता हैं वही जागृत
साधु हैं।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥
जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों
से वैराग्य हो जाए॥2॥
भीतरी समृद्धि शाश्वत हैं।
विभीषण सज्जन हैं, संत हैं।
साधुता परिपक्व होती हैं तब उसमें एक
विप्रत्व आता हैं।
बिप्र
धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज
इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए
भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्, रज,
तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से
ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥192॥
सुंदरकांड की साधुता में विप्रत्व स्वाभाविक
हैं।
धेनु का एक
अर्थ गाय हैं।
जिसमें गाय
की गरीबी – स्वभाव की गरीबी और पृथ्वी जैसी धीरता और सहनशीलता हैं वह सुंदरकांड का
सुंदर साधु हैं।
साधु में सुर की समृद्धि (संपति नहीं)
होती हैं।
लंका कांड
सुधा
सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन
अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥
भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार
सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि,
कलियुग के पापों की नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण
सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥
सुधाकर – चंद्र शीतलता देता हैं।
लंका कांड में खल और भल दोनो का वर्णन
हैं, अच्छाई और बुराई का वर्णन भी हैं।
लंकाकांड में मिश्रित वस्तु का वर्णन
हैं। साधुता यह भेद परख शकता हैं।
उत्तरकांड परम साधुता का कांड हैं, साधुता
का शिखर हैं।
हमें साधु के लक्षण, साधु का स्वभाव
जानना चाहिये।
राम साधु हैं और राम चरित मानस साधु
चरित मानस हैं।
परमात्मा के भक्तो का गुन गान करनेका
एक महिमा हैं।
एक
घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध
तुलसी
संगत साधु की, हरहि कोटि अपराध
गुरु पूर्णिमा त्रिभूवनीय दिन हैं, अखिल
ब्रह्मांडीय दिन हैं।
૨
રવિવાર, ૦૫/૦૭/૨૦૨૦
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।
જેના ઘરમાં ગુરુ પાદૂકા હોય તેણે
કોઈનો દ્વેષ, ઈર્ષા ન કરવી જોઈએ तेमज एसे घर का मालिक पादूका हैं, कोई व्यक्ति नहीं
हैं।
पादूका राम
मंत्र प्रदान करती हैं।
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं।
सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥2॥
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥3॥
करुणानिधान श्री रामचंद्रजी के दोनों ख़ड़ाऊँ प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं। भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम के दो अक्षर हैं॥3॥
गुरु पूजन कोई व्यक्ति पूजा नहीं हैं,
एक परम सत्ता का पूजन हैं
गुरु स्मृतिका दान देता हैं।
अर्जुन भी कहता हैं, …..
स्थितोऽस्मि
गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।
अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद
से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गयी है? अब मैं संशयरहित
हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा।।
गुरु बनाया नहीं जाता हैं, गुरु मिल
जाता हैं, गुरु खुद आश्रित को खिजता हैं।
जो
सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन)
के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है,
संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है,
संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास
में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है,
इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता
है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के
रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख
सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त
किया है॥3॥
कपास का छोड रस हिन होता हैं, साधु भी
निरस – संसारिक रस से निरस होता हैं। हालाकि साधु में भक्ति प्रेम का रस अवश्य हैं।
साधु की शैया पृथ्वी हैं, उसका हाथ ओशिका
हैं जिस का मतलब हैं कि साधु अपनी बुद्धि अपने कर्म में लगाये रखता हैं। आकाश साधु
के ओढनेकी चादर हैं जिस का मतलब हैं कि साधु आकाश जैसा विशाल हैं, संकिर्ण नहीं होता
हैं, उसको पवन पूत्र – पवन हवा देता हैं, उसकी ज्योति चंद्र हैं। साधु वैराग्य - वीरति
रुपी स्त्री के साथ सदा रहता हैं।
कपास का फूल श्वेत हैं। हालाकि आज के
विज्ञान ने रंगीन कपास बनाया हैं। साधु का जीवन उज्जवल हैं।
कपास का फूल का धागा सुई के छिद्र को
छिपाता हैं और फिर अन्य के छिद्रो को भी छूपाता हैं। प्रभु को छिद्र अच्छा नहीं लगता
हैं। ईसीलिये साधु छिद्रो स्वयं दुःख सहन करके छिपा कर प्रभु के प्रिय बनाता हैं।
कपास का वस्त्र हमारे शरीर को आवरण दे
कर हमारी लज्जा रखता हैं।
हमारे यहां ९ के अंक की बहूत महिमा हैं।
भक्ति नवधा हैं, नव प्रकार की हैं।
सिद्दि के नव प्रकार हैं, ग्रह भी नव
हैं, दुर्गा के नव रुप हैं, नव नाथ हैं
नाद भी नव हैं। शंख नाद एक नाद हैं।
वेणु नाद एक नाद हैं, अनहद नाद भी आध्यात्मिक जगत में हैं, ब्रह्म नाद, नाभी नाद –
नाभी से नीकलता नाद, नाभी से नीकलती आवाज, गर्भ नाद भी एक नाद हैं, साधु का नाद – साधु
की आवाज भी एक नाद हैं।
साधु की पांच वस्तु हैं, वय – अवस्था
– भजन करने की अवस्था, बल – उसका धैर्य बल - आत्म बल – भीतरी बल – निर्दोषता का बल,
रुप – साधु का आध्यात्मिक रुप जो एक शाश्वत रुप हैं , गुण – जो दैविक संपदा हैं - ,
गति – स्फूर्ति संकिर्ण न होना जो हमें मोहित करती हैं।
बालक का रुदन उसका बल हैं।
संसार में ऊम्र किसी को मोहित कर शकती
हैं, बल किसी को मोहित कर शकती हैं, रुप, गुण, शील, गति – स्फूर्ति वगेरे किसी को मोहित
कर शकती हैं, वश कर शकती हैं।
जनु
बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें
बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत
जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि
ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥
मानो श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव
घोड़े का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से
समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुंदर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता,
मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।
जिस को बहूत सहन करना पडता हैं वह परमात्मा
के नजदिक हैं।
हमे साधु नहीं बनना हैं लेकिन साधु के
संग में रहना हैं। हमें वट वृक्ष नहीं बनना हैं, वट की छांव में बैठना हैं।
साधु में सब नाद – नव नाद होते हैं।
साधु की आवाज में एक बुद्धत्व का नाद होता हैं, साधु में अनाहत नाद होता हैं, ब्रह्म
नाद – ब्रह्म वाणी होती हैं, शंख नाद, वेणु नाद – साधु की बोली वेणी बोली होती हैं,
साधु में घन नाद जो कृपा की वर्षा बनकर हमें भीगोती हैं।
साधु
अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा
नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥
साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ
के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण
का घर नहीं जलाया॥3॥
साधु अगर हमें कोई आज्ञा करे तो उसे
गुरु पूर्णिमा समज कर उत्सव मनाओ।
केवल साधु हि हमारा भला कर शकता हैं।
साधु के ह्मदय में कभी किसी के प्रति कटुता नहीं होती हैं, किसी का बुरा करनेकी लेश
मात्र वृति नहीं होती हैं।
गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु की करुणा
की वर्षा होती हैं, आश्रितो के लिये यह दिन उस गुरु की स्मृति में गदगद होने का दिन
हैं।
૩
સોમવાર, ૦૬/૦૭/૨૦૨૦
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।
हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।
निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।।2।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गमीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। तसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।
जो हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, जिसके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।।3।।
चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।
जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।
प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथमें त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।5।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद पसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।
कलाओं से परे, कल्याण, स्वरुप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरनेवाले, मनको मथ डालनेवाले कामदेव के शत्रु हे प्रभो ! प्रसन्न हूजिये प्रसन्न हूजिये।।6।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्द। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।
जबतक पार्वती के पति आपके चरणकमलों से मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हूजिये।।7।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।
मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।
श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।9।।
भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिये ब्राह्मणद्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं, उनपर भगवान् शम्भु प्रसन्न हो जाते हैं।।9।।
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥
ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥
सो
दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।।
अति
अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस।।106ख।।
गुरुजी दयालु थे, [मेरा दोष देखकर भी]
उन्होंने कुछ नहीं कहा; उनके हृदय में लेश मात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरु का अपमान
बहुत बड़ा पाप है; अतः महादेवजी उसे नहीं सह सके ।।106(ख)।।
भुषंडी एक साधु की अवज्ञा करते हैं।
गुरु की अवज्ञा महा पाप हैं।
साधु उसकी अवज्ञा होने पर भी कोपित नहीं
होता हैं।
साधु पुरुष की अवज्ञा तीन रुप में होती
हैं।
अपने बुद्ध पुरुष के सामने जुठ बोलना
उस की अवज्ञा हैं।
जीव बार बार जुठ बोलता हैं।
બુદ્ધ પુરુષ અને ભગવાન અસત્ય નથી
બોલતા.
संसारी जीव भूल करते हैं, यह एक स्वाभाविक
घटना हैं।
अपने गुरु के सामने जुठ नहीं बोलना चाहिये।
जुठ बोलने से आध्यात्म यात्रामें रुकावट आ शकती हैं, यात्रा कठिन हो जाती हैं, भजन
खंडित होता हैं। भजन ही समृद्धि हैं। यह साधु की अवज्ञा हैं।
आदमी मजबुरी के कारण, अहंकार के कारण,
महोबत के कारण, मुसीबत के कारण जुठ बोलता हैं।
गुरु की आज्ञा अपने स्वार्थ के लिये,
बनावट करके न मानना अवहेलना हैं।
जिस गुरु ने हमारे लिये सब कुछ लूटा
दिया हो एसे साधु को छोडकर अपने स्वार्थ के लिये अन्य का आश्रय करना साधु अवज्ञा हैं।
बुद्ध पुरुष जगत के लिये जागता हैं,
जगदीश के लिये नहीं जागता हैं।
जगदीश बुद्ध पुरुष के लिये, साधु के
लिये जागता हैं।
साहेब जग ने खातर जागे।
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय
संभवामि युगे युगे।।4.8।।
यह एक अदभूत हैं।
साधुओ की रक्षा के लिये हर युग में भगवान
प्रगट होता हैं।
बच्चे के लिये मा जागती हैं।
बुद्ध पुरुष मिल जाय फिर और किसी कि
खोज करने की आवश्यकता नहीं हैं।
गुरु की अवज्ञा महादेव सह नहीं शकता
हैं। एसे में गुरु कोपायमान नहीं होता हैं लेकिन महादेव जरुर कोपायमान होता हैं।
साधु पुरुष की महिमा सर्जक, पालक, संहारक,
कवि, पंडित वर्णन नहीं कर शकते हैं।
असाधु के लक्षण जानने से साधु की महिमा
समज में आयेगी, विशेष परख होगी।
संत
सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय
सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते
हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर
कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
साधु का चित बहुत सरल होता हैं, उसे
कोई भी छल शकता हैं।
सरल
सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।
[यहाँ इतना ही आवश्यक है कि] सरल स्वभाव
हो, मनमें कुटिलता न हो जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रक्खे।।1।।
साधु सरल स्वभाव का होता हैं, मनमें
किसी के प्रति कोई कुटिलता नहीं होती हैं।
साधु के सामने अपनी विद्वता न दिखाना।
बंदउँ
संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि
गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके
चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर
फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप
से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते
हैं।)॥3 (क)॥
साधु को उसमें समता होने के कारण कोई
मित्र या शत्रु नहीं होता हैं, सब समान दिखाई देते हैं।
गुरु आश्रित को स्वतंत्रा देता हैं।
गुरु पात्रता के अनुसार शिक्षा प्रदान
करता हैं।
साधु में समता होती हैं।
साधु समान चित होता हैं।
संसारी में राग और द्वेष कान से पेदा
होता हैं।
राग और द्वेष बहुत बलवान हैं।
नींदा एक विशेष प्रकार का रस हैं, ईर्षा
आग हैं, द्वेष भयंकर विष हैं।
राग द्वेष के सामने हम सब पराजित हो
जाते हैं।
राग और द्वेष को मारा नहीं जाता हैं
उसे भगवान की गोद में रख देना चाहिये।
फूल दोनो हाथों को समान सुगंध देता हैं।
बंदउँ
संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत
एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥
अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की
वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है।
वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते
हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता
है और असंतों का मिलना।)॥2॥
साधु हमें छोड कर जाता हैं तब दुःख होता
हैं और दुर्जन जब मिलता हैं तब दुःख होता हैं।
जोगी
मत जा पाँव पड़ूँ मैं तोरी
मत
जा मत जा मत जा जोगी
पाँव
पड़ूँ मैं तोरी
प्रेम
भक्ति को पंथ ही न्यारो
हम
को ज्ञान बता जा
चंदन
की मैं चिता रचाऊँ
अपने
हाथ जला जा
मत
जा मत जा मत जा जोगी ...
जल
जल भई भस्म की ढेरी
अपने
अंग लगा जा जोगी
मीरा
के प्रभू गिरिधर नागर
ज्योत
में ज्योत मिला जा जोगी
मत
जा मत जा मत जा जोगी ...
गंगा सती भी कहती हैं …
शीलवंत साधुने वारे वारे नमीए
असाधु का स्वभाव को प्रणाम करके समजना
चाहिये, तिरस्कृत भाव से नहीं।
उपजहिं
एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा
सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥
दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ
पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते
हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक (एक प्रकार का किडा - જળો) शरीर का स्पर्श
पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला)
और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न
करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और
मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥3॥
समुद्र मंथन से अमृत और मदिरा पेदा हुआ
हैं, दोनों के लक्षण भिन्न हैं।
साधु के आंख में अमृत होता हैं, साधु
की आंख, पांव तिर्थ समान हैं।
भलो
भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा
सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता
को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥
खल
अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि
तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥
दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं
के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का
वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥
भलेउ
पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं
बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥
भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए
हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और
पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥
दुख
सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव
देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया
ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी
मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग
नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥
दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु,
सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म,
जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा,
ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।)
वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥
किसी जो लाख बुरा हो तो भी उसको प्रसन्न
रखनेका व्रत रखो तो यह स्वर्ग हैं और किसी की नींदा करो, उसे भयभीत करो तो वह नर्क
हैं।
दोष पांच प्रकारके होते हैं – सहज दोष,
संसर्ग दोष – संग से हुआ दोष, संयोग दोष – संयोग वश सज्ज्न को बुरो के साथ रहना पडता
हैं, देशज दोष, कालज दोष।
कर
परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥3॥
कई स्थान एसे हैं जहां आच्छा नहीं लगता
हैं और कई स्थान एसे हैं जहां अच्छा लगता हैं।
जड़
चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत
हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय
रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते
हैं॥6॥
अस
बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल
सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा)
विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म
की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
सो
सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ
करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार
लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम
संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
૪
મંગળવાર, ૦૭/૦૭/૨૦૨૦
पांच व्यक्ति द्वारा किया गया निर्णय
अंतिम होता हैं, पंच वहां परमेश्वर एसा हमारा मानना हैं।
ब्रह्मा जो अध्यक्ष हैं, विष्णु, महेश,
कवि, कोविद पांच – पंच हैं।
कोविद शास्त्रो के रहस्यो को जानकर बांटते
हैं।
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी।
बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥1॥
जो
लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर
हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कुटिल,
कलहप्रिय और क्रोधी
हैं तथा जो वेदों की निंदा करने वाले और विश्वभर के विरोधी हैं,॥1॥
विद वह हैं जो जानकार हैं।
पंडित – विद्वान, कोविद जो जानते हैं,
वेदो से, शास्त्रो से जो जानते हैं वह दूसरो को बांटते हैं।
कवि का संकेत आदि कवि वाल्मीकि की ओर
हैं।
तुलसीदासजी अपने को कवि नहीं मानते हैं,
वह लिखते हैं कि …
कबि
न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ
रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥
मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ,
अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार
चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि !॥5॥।
मानस में साधुता एक बार आया हैं। ईसका विशेष कारण हैं।
मानस में साधुता एक बार आया हैं। ईसका विशेष कारण हैं।
जदपि
कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा।।
तदपि
तुम्हारि साधुता देखी।
करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी।।2।।
यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने
भी इसे क्रोध करके शाप दिया है, तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इसपर विशेष कृपा करूँगा।।2।।
साधुता तो कोई एक विरलामें होती हैं।
साधु के अनेक प्रकार हैं। संन्यासी साधु,
वैरागी साधु, उदासीन साधु, जैन साधु, बौद्ध साधु वगेरे।
काला रंग शांवरा का रंग हैं, काले रंग
की महिमा हैं।
साधु के वेश का महिमा हैं।
साधु की नींदा करनेवाला घुवड हैं।
घुवड कभी भी नहीं मानता हैं कि सूर्य
हैं, प्रकाश हैं।
जवाब न देने में भी विवेक होना चाहिये।
साधु का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिये।
साधुता आत्मा हैं। साधु शब्द कोष में
समाने वाला नहीं हैं। साधु शब्द कोष से पर हैं। साधु किताबी नहीं हैं, …………………….
हाथी को जिस ने देखा न हो वह हाथी का
चित्र नहीं बना शकता हैं।
तुलसी साधु को देखने के बाद उसका वर्णन
करते हैं, महिमा का गान करते हैं, साधुता न्यारी हैं।
पांच वस्तु जिसमें दिखाई दे वह साधु
हैं, यह साधु के लक्षण नहीं हैं लेकिन साधु का स्वभाव हैं।
गुरु के चरण में अगर प्रीत नहीं हैं
तो घर में जो भी वैभव हैं उसका कोई महत्व नहीं हैं।
१
साधु में एकान्त प्रियता होती हैं। साधु
भीड का हिस्सा नहीं बनता हैं।
२
साधु भीड में होने के बाद भी भीड का
हिस्सा नहीं बनता हैं – वह भीड में भी प्रसन्न्त रहता हैं, भीड साधु को खलेल नहीं पहुचाती
हैं।
प्रसान्नता साधु का एक स्वभाव हैं।
३
साधु नितांत पूर्णता होता हैं – उसके
मनमें पक्का हो गया हैं कि उसे सब कुछ मिल गया हैं। नितांत शांति साधु का स्वभाव हैं।
पायो परम विश्राम।
दूसरो को सलाह देना सब से आसान हैं।
४
जलपान – वाद विवाद का अंत
जल्पवाद एक वाद हैं।
हरेक प्रकार का वाद विवाद बंध हो जाय
वह साधु हैं।
५
साधु दिक्षान्त अवस्था में रहता हैं,
और दूसरा कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं रखता हैं, सिर्फ भरोंसा रखना हैं, दुसरा कोई क्रिया
कर्म करने की आवश्यकता नहीं हैं। यह साधुता का विग्रह हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज।
अहं
त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी
ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
धीरज
धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध
रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों
की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी
और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
तीनो प्रकार के कर्म को नाश करने के
लिये तीन प्रकार की अग्नि – योगाग्नि, ज्ञानाग्नि – विवेकाग्नि, विरहाग्नि जरुरी हैं।
कर्म करो लेकिन कर्म में निष्ठा न रखो।
कर्म किये बिना हम रह नहीं शकते।
कर्म निष्ठा, काल निष्ठा, गुण निष्ठा
वगेरे में निष्ठा न रखो।
सिर्फ गुरु में निष्ठा रखो।
5
Wednesday, 08/07/2020
मुख्य पंक्ति के पंच में जो पांच पंच
हैंउनकी वाणी क्या हैं?
विधि की – ब्रह्मा की वाणी वेद हैं,
वेद वाणी हैं।
वाणी के कई प्रकार हैं – वेद वाणी,
वेद वाणी आखिरी वाणी मानी गई हैं, सर्वोपरी
वाणी हैं।
वेद की कई बातों का अस्वीकार भी किया
गया हैं।
भगवान बुद्ध जो दशावतार में नवमा अवतार
हैं, वह भी वेद की कई बातों का अस्वीकार करते हैं। भगवान बुद्ध ने पशु बलि का विरोध
किया हैं। कई वेद सूत्रो के स्वीकार भी किया गया हैं।
वेद वाणी सर्व समर्थ होते हुए साधु महिमा
गाने में संकोच अनुभवती हैं, असमर्थ हैं एसा गोस्वामीजी कहते हैं।
हरि वाणी – विष्णु भगवान की वाणी. विष्णु
जिसका कार्य पालन करनेका हैं, यह पालन करनेवाली वाणी में वात्सल्य होता हैं, वाली की
वाणी में वात्सल्य होता हैं, यह वाणी भी साधु की महिमा गाने में कमजोर हैं।
हर वाणी – भगवान शिव की वाणी, भगवान
शिव करुणावतार हैं, उनकी वाणी में गंगा हैं।
पूँछेहु
रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह
रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग
पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने
जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने
वाली हो॥4॥
गंगा समान पवित्र अन्य कोई नहीं हैं,
एसी पवित्र वाणी भी साधु महिमा गाने में संकोच अनुभवती हैं।
पूँछेहु
रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह
रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग
पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने
जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने
वाली हो॥4॥
कवि की वाणी अलंकार से भरपुर होती हैं,
कवि ईश्वर की विभूति हैं, कवि को साधु भी कहा गया हैं, कवि का संग संत का संग हैं,
सज्जनो का संग सतसंग हैं।
ब्राह्मण जन्म से होते हैं, जीवन से
भी होते हैं।
ब्राह्मण, कवि गण, चारण गण, ग्रामिण
– ग्रामवासी- देहाती, श्रावण को- श्रावण मास में सुनाना – भिगी मोसम में सुनाना, को
अपनी बात सुनानी चाहिये।
मानस में ब्राह्मण की व्याख्या करते
हुए तुलसी लिखते हैं ….
बंदउँ
प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन
समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के
चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर
सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
गिरा
ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥10 ख॥
इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी
श्री सीतारामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं॥10 (ख)॥
भगवान शिवजी की वाणी में गंगधारा हैं,
पवित्र वाणी हैं फिर भी यह वाणी भी साधु महिमा करने में असमर्थ हैं।
मानस में तो गंगा बोलकर जानकी को आशीर्वाद
देती हैं।
સાધુના સરનામા હોય ના સાધુના સરનામા …. પ્રવણ પંડ્યા
असत्य घोडे पर सवार हो और सत्य पेदल
चलता हो तो भी सत्य पकड नें नहीं आता हैं।
साधु को सिर्फ ओमकार नी झंखना होती हैं।
साधु जहां रावटी डालता हैं वहां धर्म
स्थापना हो जाती हैं।
कवि की बानी भी साधु महिमा गाने में
संकोच अनुभवती हैं।
विनोबाजी भी संत महिमा वर्णन करनेमें
संकोच अनुभवते हैं।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू।
राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं।
तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥4॥
हे
तात भरत! तुम सब प्रकार
से साधु हो। श्री रामचंद्रजी
के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ
ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी
को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है॥4॥
कहि
सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस
दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु
नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते
धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते
ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने
श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान् के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी
ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर
केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।
भरत जैसे साधु की महिमा साक्षात राम
भी नहीं गा शकते हैं।
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥263॥
हे
भरत! तुम्हारा नाम स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच
(अज्ञान) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जाएँगे तथा इस लोक में सुंदर यश और परलोक में सुख प्राप्त
होगा॥263॥
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी।
भरत भगति बस भइ मति मोरी॥
मोरें जान भरत रुचि राखी।
जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥4॥
इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा॥4॥
वशिष्ट भी भरत की भक्ति के वश हो जाते
हैं। वशिष्ट जो गुरु हैं वह भी साधु महिमा नहीं गा शकते हैं।
वशिष्टजी कहते हैं कि मैं तीनो काल में
गति कर शकता हुं लेकिन भरत की महिमा नहीं गा शकते हैं।
साधु जो चाहे वैसा करने में शंकर भी
साक्षी हो जाते हैं। साधु की चाह में शंका नहीं करनी चाहिये, साधु की चाह में शुभ ही
होगा।
भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु
बहोरि।
करब साधुमत
लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥
पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए।
तब साधुमत, लोकमत,
राजनीति और वेदों का निचोड़
(सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार)
कीजिए॥258॥
गुर अनुरागु
भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥
भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी
के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर
और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर-॥1॥
भरत उपर गुरु का प्रेम देखकर राम प्रसन्न
होते हैं, ईर्षा नहीं करते हैं।
अपने से छोटे उपर कोई ज्यादा प्रेम बताये
तो ईर्षा होना स्वाभाविक हैं।
बोले गुरु आयस अनुकूला।
बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई।
भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥
श्री रामचन्द्रजी
गुरु की आज्ञा अनुकूल मनोहर,
कोमल और कल्याण
के मूल वचन बोले- हे नाथ! आपकी सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि)
विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं॥2॥
सत्य को प्रस्थापित करने के अपने से
बडे हो उसकी कसम लेनी चाहिये, छोटे की कसम लेनी नहीं चाहिये।
अनिवार्य संजोगमें अपने से विशिष्ट की
कसम लेनी चाहिये, अपने से छोटे की कसम नहीं लेनी चाहिये।
पति पत्नी को भी एक दूसरे की कसम नहीं
लेनी चाहिये।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी।
ते लोकहुँ
बेदहुँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू।
को कहि सकइ भरत कर भागू॥3॥
जो
लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक
दृष्टि से) भी और वेद में (परमार्थिक
दृष्टि से) भी बड़भागी होतें हैं! (फिर) जिस पर आप (गुरु)
का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?॥3॥
लखि लघु बंधु बुद्धि
सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥4॥
छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती
है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा
कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्री रामचन्द्रजी चुप हो रहे॥4॥
साधु कहे ऐसा हि करना चाहिये।
तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥259॥
तब
मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई
से अपने हृदय की बात कहो॥259॥
साधु की महिमा कूल गुरु और जगतगुरु भी
समज नहीं पाते हैं।
हमें ऐसे कोई साधु का संग मिल जाय ऐसी
मांग करनी चाहिये।
संग दोष के कारण आज हम दुःख में हैं।
दुनिया में सुख हैं, सुख के कारण हैं,
सुख के उपाय भी हैं और उपाय शक्य भी हैं, ऐसा दुःख के लिये भी हैं।
रामचंद्र
गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं
सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥
वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन
करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने
लगीं। हनुमान्जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥
श्रवण से संग से दुःख दूर होते हैं।
भगवान के चरित्र सुनने से सुख मिलता
हैं, ऐसे ही साधु के चरित्र सुनने से भी सुख मिलता हैं।
साधु के घर का तोता राम राम, रामयण की
चोपाई बोलता हैं। असाधु के घर का तोता संग वश गाली बोलता हैं।
गगन
चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु
असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती
है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के
घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ
देते हैं॥5॥
विश्व विजयी नेपोलियन बिल्ली से बहुत
डरता था। और नेलसन बिल्लीके सहारे नेपोलियन को हरता हैं।
साधु विचार का संग होने से जींदगी बदल
शकती हैं। यह साधु की महिमा की महत्ता हैं।
6
Thursday, 09/07/2020
मानस में साधुता शब्द का प्रयोग एक हि बार क्यों किया गया हैं?
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कवि, पंडित,
भगवान राम, स्वयं सरस्वती, शेष नारायण भी साधु महिमा का वर्णन करने में असमर्थ हैं,
महिमा गा नहीं शकते हैं।
साधु और साधुता को गुरु कृपा से समजना
चाहिये।
प्राकृतिक फूल का एक आकार होता हैं,
आंखो से दिखाई देता हैं, कोई एक रंग होता हैं, कोन सी जाति का फूल हैं वह भी हम जान
शकते हैं, किस मोसममें यह फूल खिलता हैं वह भी हम जानते हैं, कौनसा फूल किस देव को
अर्पण किया जाय वह भी हम जानते हैं, और यह सब दिखाई देता हैं। फूल को एक विशिष्ट सुगंध
– खुश्बु होती हैं और यह खुश्बु दिखाई नहीं देती हैं।
बिल्व पत्र शिव को, भगवान विष्णु को
तुलसी दल, दुर्वा गणेश को अर्पण किया जाता हैं।
फूल की मौलिक सुगंध साधुता हैं।
साधु बहार से दिखाई देता हैं लेकिन साधुता
दिखाई नहीं देती, उसे अनुभवी जाती हैं।
इसी तरफ साधु अनेक वेश में, अनेक पंथ
में होते हैं और हम उन्हे देख शकते हैं।
साधुता भितरी हैं, उसका कोई रुप, रंग
नहीं हैं, साधुता विरल घटाना हैं।
ऑशो ने कहा था कि वह किसी को धर्म नहीं
दे शकते लेकिन धार्मिकता दे शकते हैं।
हम हमारी क्षमता के अनुसार आकाश को देखते
हैं, आकाश का रंग देखते हैं, अस्त उदय में हम रंग देखते हैं लेकिन आकाश की विशालता
नहीं देखी जा शकती, इसी तरफ आकाश साधु हैं, साधुता आकाश की विशालता की तरह हैं
देह दिखाई देती हैं लेकिन आत्मा नहीं दिखाई देती हैं, आत्मा साधुता हैं। आत्मा एक हैं।
देह दिखाई देती हैं लेकिन आत्मा नहीं दिखाई देती हैं, आत्मा साधुता हैं। आत्मा एक हैं।
फूल अनेक हैं और उसका परम चैतन्य साधुता
हैं।
साधु वेश के अनुसार दिखाई देता हैं लेकिन
साधुता दिखाई नहीं देती।
साधुता से बना बुद्ध पुरुष हमें मिले
तभी साधुता की विशेष महिमा समज में आयेगी।
फूल क्षण भंगुर हैं लेकिन उस की खुश्बु
– अत्तर दीर्घ जीवी हैं।
जन्म
जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु
नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥2॥
मुनिगण जन्म-जन्म में (प्रत्येक जन्म
में) (अनेकों प्रकार का) साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उन्हें 'राम' नहीं
कह आता (उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता)। जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको
समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं॥2॥
कभी कभी क्षिप्रंम भवति की तरह घटना
घट जाती हैं।
मन एक दर्पण हैं, उस पर धूल जल जाने
से ठिक तरह दिखाई नहीं देता हैं।
श्री
गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊं
रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि
से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं,
जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।
लेकिन अगर मन नहीं हो तो मन रुपी दर्पण
को साफ करनेका प्रश्न ही नहीं हैं।
मन ही बंधन का मूल कारण हैं ऐसा गीताकार
कहते हैं।
पहुंचा हुआ गुरु अगर शिष्य की परीक्षा
करे तो घटना एक क्षण में घट शकती हैं। यह घटना का होना साधुता हैं।
आकाश की विशालता साधुता हैं।
कई समुद्र हैं, जल कई प्रकार का हैं,
लेकिन जल का मूल गुन शीतलता हैं जो साधुता हैं।
फूल का मूल गुन खुश्बु हैं। यह साधुता
हैं। साधुता अंतरंग खुश्बु हैं।
तुलसी साधु की महिमा गाते हुए कहते हैं
…
बिगत
काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म
जनयत्री।।3।।
उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम
के परायण होते हैं। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता,
सरलता, सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणके चरणोंमें प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न
करनेवाली है।।3।।
साधु में शितलता होती हैं, उग्र नहीं
दिखाई देगा, उदासून दिखाई देगा।
शरीर में अगर आत्मा नहीं हैंम तो शरीर
का कोई मूल्य नहीं हैं, ऐसे ही अगर साधु में साधुता नहीं हैं तो साधु को कोई मूल्य
नहीं हैं।
मानस में साधुता का एक बार उपयोग करने
के कई अर्थ हैं।
सरलता साधु की साधुता हैं।
संत
सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय
सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते
हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर
कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3
कहहु
भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।
सरल
सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।
कहो तो, भक्तिमार्गमें कौन-सा परिश्रम
है ? इसमें न योगकी आवश्यकता है, न यज्ञ जप तप और उपवास की ! [यहाँ इतना ही आवश्यक
है कि] सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रक्खे।।1।।
किसी भी वेश के साधु का अपमान न करना
चाहिये।
साधु का अपमान परमात्मा सहन नहीं कर
शकता हैं,लेकिन साधु उपर आरोप न लगे इसीलिये परमात्मा साधु का अपमान करनेवाले को कुछ
देर के बाद दंड देता हैं, साधु अपमान का दंड जरुर मिलता हैं। यह एक नियम हैं।
तामस वेश में – तामस देह में दुन्वयी
शक्ति – संपत्ति प्राप्त हो शकती लेकिन आदि शक्ति प्राप्त नहीं हो शकती हैं।
रावण नकली साधु बनकर जानकी का – भक्ति
का – शांति का अपहरण करता हैं।
सून बीच दसकंधर
देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर
असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
रावण सूना मौका देखकर यति (संन्यासी)
के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं
कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-
राम जानकी ललित नरा लीला करते हैं।
सुनहु
प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह
पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का
पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं
राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥1॥
जटायु के साथ युद्ध में रावण अपने हाथ
को अहंकार वश तीर्थ कहता हैं।
रावण अपने हाथ जिस हाथ ने कई अनर्थ किया
हैं उस हाथ को तीर्थ कयों कहता हैं?
रावण का कई अनर्थ हैं ….
तेहि
बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत
तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।
रावण का वेश साधु का था लेकिन उसकी वाणीमें
साधुता नहीं थी।
रावण रहस्य बताते हुए कहता हैं कि मेरे
हाथ ने कई अनर्थ किये हैं फिर भी भक्ति की छाया मेरे हाथ में आयी हैं।
भक्ति की छाया भी अगर हाथ में आ जाय
तो भी वह हाथ तीर्थ बन जाते हैं, इसलिये ऐसा रावण जटायु को कहता हैं।
हाथ में देखाव के लिये भी अगर माला रखते
हैं तो भी वह हाथ तीर्थ बन जाता हैं।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं।
राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा।
पूजहिं तुम्हहि
सहित परिवारा॥3॥
तथा जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों
में चलकर जाते हैं, हे रामजी! आप उनके मन में निवास कीजिए। जो नित्य आपके (राम नाम रूप) मंत्रराज
को जपते हैं और परिवार
(परिकर) सहित आपकी पूजा करते हैं॥3॥
साधु द्रश्यमान होता हैं, साधुता अद्रश्य
होती हैं। साधु वेश से पहचाना जाता हैं।
एक बार साधुता शब्द उपयोग करके तुल्सीदासजी
ने साधुता का महिमा बढाई हैं, अदभूत ऊंचाई बताई हैं।
साधुता शब्द के सा का अर्थ– निरंतर अपने
जीवन में सावधान रहता हैं, जागृत रहता हैं, जो साधुता की पहली शर्त हैं, ऐसा अर्थ हैं।
जो निरंतर हरि नाम जपता हैं वही निरंतर
सावधान रह शकता हैं।
मुक्ति सरल हैं लेकिन भक्ति कठिन हैं।
प्रीत करना कठिन हैं।
रघुपति!
भक्ति करत कठिनाई।
राम
भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई।।
नियति का खेल अजब हैं।
हमें तीन को याद रखना चाहिये, (१) नियति
को याद रखो, (२) निमित्त को याद रखो – कोई कार्य करने में तुम्ह सिर्फ निमित्त हो,
कार्य ओर कोई करवा रहा हैं, कार्य करनेका एक निश्तित आयोजन तय हुआ ही हैं, (३) और नेति
को भी याद रखो।
7
10/07/2020
साधु के गुण, लक्षण, महिमा, स्वभाव,
संग, सेवा, स्मरण हम जैंसे जीवो को भीतर से ज्यादा पवित्र करते हैं।
हम भीतर से पवित्र न रह शकने के अनेक
कारण हो शकते हैं और प्रत्येक साधक के लिये अलग अलग हो शकते हैं।
स्वच्छता हमारे उपर प्रभाव डाल शकती
हैं।
दो जोडिया बच्चे भी देखाव में एक सरखे
होने के बावजुद स्वभाव से एक सरखे नहीं होते हैं।
एक ही शब्द जब बार बार उपयोग होता हैं
तब उसमें कुछ न कुछ अंतर हैं।
परमात्मा ने एक सरखी दो चीज बनाई ही
नहीं हैं।
साधु शब्द ब्रह्म के समान और कोई नही
आ शकता हैं।
जो हाथ मुलायम हैं उस हाथ ने सेवा नहीं
की हैं। जिस हाथ ने सेवा कि हैं, परिश्रम किया हैं, जिस हाथ ने माला सहित जप किया हैं
वह हाथ पवित्र हैं।
स्वच्छता से प्रभाव पडता हैं लेकिन पवित्रता
से स्वभाव का संबध हैं।
गगन
चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं
गनि गारीं॥5॥
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती
है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के
तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥
साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते
हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं, यह संग का परिणाम हैं।
यह साधु असाधु का भेद बताता हैं।
सबरी
देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी
के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी
के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥3॥
केहि
बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥
फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं।
प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा-) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति
करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ॥1॥
कह
रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें
भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा-
हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ॥2॥
सुमति कौशल्या के द्वार भी राम आये हैं
और શબરી
કે દ્વાર ભી રામ આયે।
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया
गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना
सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो
मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत!
मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे
और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का
धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे
कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥2॥
पहली भक्ति
कथा तुम्हारि
सुभग सरि नाना॥2॥
प्रथम
भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
सातवँ
सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ
जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से
मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है
जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
परमात्मा मिला हुआ ही हैं, सिर्फ उसे
पहचानना हि बाकी हैं।
सहज कर्म और साधन में फर्क हैं।
साधन से अंतःकरण की शुद्धि होती हैं।
यह
गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं
बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते।
आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥
सहज कर्म करने में अगर कोई दोष हैं तो
भी कोई बाधा नहीं हैं।
नीर नदीयोना थावा क्यांय न
रोकावु ……………
सहजम कर्म कौन्तेय ….
शबरी को बताई गयी नवधा भक्ति में संत
सेवा प्रथम भक्ति हैं।
भ्रांतिया तोडने का अवसर परमात्मा देता
हैं।
परम विवेकी शब्द साधु को लगता हैं।
सुख
पाया सुख पाया,
रेहम
तेरी सुख पाया,
सदा
नानक की अरदास,
सुख
पाया सुख पाया,
मेहरबान
साहिब मेहरबान,
साहिब
मेरा मेहरबान,
जी
सगल को दे हे दान,
साहिब
मेरा मैं निर्वाण,
सुख
पाया सुख पाया,
तू
काहे डोले प्राणिया,
सूद
राखे गा सिरजन हार,
जीने
पैदाइश तू किया सोइ करदा सार,
सुख
पाया सुख पाया,
जीने
उपाई मेदीन सोइ करदा सार,
घट
घट मिला दिला का सच्चा परवत गार,
सुख
पाया सुख पाया,
कुदरीत
की ना जानिये,
बड़ा
भेप्रवाहा,
कर
बंदे तू बंदगी जे चर घट में साहवा,
सुख
पाया सुख पाया,
तू
समरथ अगथ अगोचे,
जियु
पिंड तेरी रास,
रेहम
तेरी सुख पाया सदा,
नानक
ही अरदास,
सुख
पाया सुख पाया,
कथा सब को – वक्ता, श्रोता, देश को आंदोलित करती
हैं, आनंदित करती हैं।
भगवान लक्ष्मण को रसाल कथा सुनाते हैं।
देखा
बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने
लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को
प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥
नारद भगवान से साधु की महिमा सुनाने
को कहते हैं।
सुनु
मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय)
का नाश करने वाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए! (श्री रामजी ने कहा-)
हे मुनि! सुनो, मैं संतों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ॥3॥
भगवान कृपा कर के कहते हैं कि वह (भगवान
राम) साधु के वश में हो जाते हैं।
अमित
बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और
मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि),
अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्, इच्छारहित,
मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥
सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित,
धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण,॥5॥
षट विकार कि जिसने जित लिये हैं वह साधु
हैं, यहां मारने की बात नहीं हैं, यहां सम्यक रुप में जीवन में रहना हैं, विवेक पूर्ण
रुप में सम्यक दूरी रखना हैं, मारना या जीतना नहीं हैं।
सम्यक काम को गीता में भी कबुल किया
हैं।
घर को संतुलित रखने के लिये सम्यक क्रोध
जरूरी हैं, अत्यंत क्रोध को शास्त्र ने चांडाल कहा हैं।
लोभ – भविष्य के लिये कुछ संग्रह करना
जरूरी हैं।
मोह संसार में लग जाय तो बुरा हैं लेकिन
वह मोह मोहन में लग जाय तो वह अच्छा हैं।
મુખડું મેં
જોયું તારું,
સર્વ જગ
થયું ખારું;
મન મારું
રહ્યું ન્યારું
રે;
आज के कॉरोना के संकट के समय में जिस
ने भजन किया हैं वही ठिक से रह पाया हैं।
साधु अकाम होता हैं, पवित्र रहता हैं।
सा – सावधान - जिस का मतलब हैं “सावधान
मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥5॥”
8
Saturday,
11/07/20202
जगत में दुःख हैं, दुःख के कारण हैं,
दुःख का उपाय हैं और यह उपाय शक्य भी हैं। यह बुद्ध भगवान के सूत्र हैं। यह सूत्र सुख
के लिये भी लगता हैं।
बहु
बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह
रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥2॥
उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से
समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी
आदि सब रानियों को-॥2॥
तव
अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन
धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥
मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा
प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी
का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-॥3॥
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥
(वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्जी मधुर वचन बोले-॥2॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥
वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥
राम कथा सुनते हि सीता के दुःख भाग जाते
हैं।
जो दुःख भाग जाते हैं वह वापस भी आ शकते
हैं।
जब हम कथा सुनते हैं तब हमारे दुःख भी
भाग जाते हैं और कथा समाप्त होते हि वापस आते हैं।
सुख और दुःख सापेक्ष हैं।
सुख और दुःख को अगर हम समान समजे या
सुख और दुःख से मुक्त हो जाय।
राम कथा की औषधि का उपयोग करनेसे दुःख
भाग जाता हैं और जब भी वह दुःख वापस आये तब फिर वहीं राम कथा की औषधि का उपयोग करना
चाहिये। भगवत गुणगान की औषधि हमारे पास हैं।
इसीलिये सदा सतसंग करना चाहिये।
भजहि
राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥46 ख॥
मोक्ष का क्या मतलब हैं?
ભૂતકાળનો શોક, વર્તમાન કાળ નો મોહ
અને ભવિષ્યકાળની ચિંતા છુટી જાય તો મોક્ષ જ છે.
भूतकाल की घटना का शोक मिट जाय, वर्तमान
का मोह मिट जाय, और भविष्य की चिंता मिट जाय वही मोक्ष हैं।
ऐसी स्थिति में जीना साधुता हैं।
फूल में पांच वस्तु – आकार - रुप, रंग,
रस, गंध - महक, और अपनी निर्दोषता – पवित्रता होती हैं। यह साधु के लक्षण हैं। यह फूल
जब कोई देवता के शिर पर चढ जाय उसे साधुता कहते हैं।
ईश्वर की सृष्टि में जड से जड वस्तु
में भी रस हैं, इसीलिये ईश्वर रसौवैसः हैं, पुरी सुष्टि रसमय हैं।
हर पौंधा वसुधा का बालक हैं।
शक्य हो तो अपने आप गिरा हुआ फूल को
पानी से स्वच्छ करके भगवान को अर्पण करना अच्छा रहेगा।
नारदजी साधु के लक्षण पुछते हैं।
भागवतकार कहते हैं कि साधु मेरा ह्मदय
हैं, साधु मुझे बहुत प्रिय हैं, मुझे लक्ष्मी से भी प्रिय साधु हैं, मैं स्वतंत्र होते
हुए भी साधु से परवश हुं।
साधु की संगती पाई …
परबस
जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा
भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।4।।
जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतत्र हैं।
जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि
वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता।।4।।
अस्तित्व साधु की रक्षा के लिये भगवान
से पुकार करता हैं कि जल्दी पधारकर साधु की रक्षा करो।
वहेला रा पधारो संतो नी वहारे …..
साधु का मिलना जीवनका परम साफल्य हैं।
हम शारीरिक रुप से जहां भी रहे लेकिन
मानसिक रुप से चित्रकूट में रहना चाहिये, अपने भीतर एक चित्रकूट बनावो। भगवान की विहार
लीला का स्थल चित्रकूट हैं।
नंद और यशोदा साधु हैं और उनकी याद आते
हि मैं बहुत व्यथित हो जाता हुं ऐसा भगवान कृष्ण उद्धव को कहते हैं।
साधु की क्षण और अन्नका कण बिगाडना नहीं
चाहिये।… कृष्णशंकर दादा
षट
बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित
बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और
मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि),
अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्, इच्छारहित,
मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥
भरत जो कह कहता हैं – साधु जो कहता हैं
वह सत्य सार – परम सत्य – सत्य का निचोड होता हैं।
सावधान
मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥5॥
सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित,
धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण,॥5॥
साधु हर पल सावधान रहता हैं, यह साधु
का सा हैं।
साधुता में एक साहस होता हैं, साधु साहस
करता हैं।
साधुता में धु का महिमा यह हैं कि साधु
मिट्टिसे मिला हुआ होता हैं – वाएतविक हैं, हम सब को आखिर में मिट्टिमें ही मिलना हैं,
ता जिसका जीवन निरंतर तालबद्ध रहता हैं।
धर्म की गति गहन हैं।
साधु में कर्म कुशलता बहुत होती हैं।
गुनागार
संसार दुख रहित बिगत संदेह।
तजि
मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥
गुणों के घर, संसार के दुःखों से रहित
और संदेहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय
होती है, न घर ही॥45॥
निज
गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम
सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते
हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी
त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥1॥
कथा का क्रम ….
9
Sunday, 12/07/2020
साधन से मिली हुई सिद्धि शुद्ध होनी
चाहिये, और ऐसि सिद्धि भगवत कृपा से ही शुद्ध हो शकती हैं।
राम कथा संवाद की, सेतु बंध की, जोडने
की कथा हैं।
कहहु
भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।
सरल
सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।
कहो तो, भक्तिमार्गमें कौन-सा परिश्रम
है ? इसमें न योगकी आवश्यकता है, न यज्ञ जप तप और उपवास की ! [यहाँ इतना ही आवश्यक
है कि] सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रक्खे।।1।।
अपने और पराये गुण दोष से बचना चाहिये।
परमात्मा की कृपासे मिली साधुता लाख
प्रयत्न करने से भी छिप नहीं शकती।
अपने निकट वाले ही साधुता को समज नहीं
पाते हैं।
साधुता ७ भूमिका पर निरभर हैं|
१
१
विहार भूमिका
बुद्धने चार ब्रह्म विहार बताए हैं।
साधुता का निरंतर विहार करुणा, मैत्री
हैं, मुदिता हैं।
२
विवेक
साधु में विवेक बहुत होता हैं।
कई बुद्धिजन भी विवेक हिन होते हैं।
३
वैराग्य की भूमिका
साधु का भीतरी भाव वैराग्य हैं, अंदर
से गदगद रहता हैं।
४
विचार
साधु विचारशील होता हैं।
५
विश्वास भूमिका
६
विनोदी
साधु बालक जैसा विनोदी होता हैं।
७
वियोग भूमिका
साधु कायम वियोग में ही डूबा रहता हैं।
यह सात भूमिका जहां भी हैं वहां साधुता
हैं। यह साधु का परिचय हैं।
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