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શનિવારથી પૂ.મોરારીબાપુની તલગાજરડામા ૮૪૪મી રામકથાઃ માત્ર ત્રણ જ શ્રોતા અને સંગીત વગરની પ્રથમ કથાઃ દરરોજ સવારે આસ્થા પર લાઇવ પ્રસારણ
(મુકુંદ બદીયાણી દ્વારા) જામનગરઃ વ્યાસપીઠના બધા ફલાવર્સ અને વિશ્વભરના રામકથા પ્રેમિયો માટે ખૂબજ મહત્વપૂર્ણ શુભ સમાચાર આવ્યા છે. તલગાજરડાના જે ત્રિભુવન વટવૃક્ષ નીચે લગભગ પ૯ વર્ષ પહેલા મોરારીબાપુએ માત્ર ૧૪ વર્ષની ઉમરમા પ્રથમ કથા કરી હતી આજ વૃક્ષ નીચે ૬ જૂન ૨૦૨૦ શનિવારના દિવસથી નવ દિવસિય રામકથા થવા જઇ રહી છે. આ મોરારીબાપુની ૮૪૪મી કથા છે. લોકડાઉનના ૬૧ દિવસ બાપુએ આ ત્રિભુવન વટવૃક્ષ નીચે જૂલની વ્યાસપીઠ યાની ઝુલાથી રોજ હરિકથા સંભળાવી છે. જેનુ અમે બધાએ શ્રવણ કર્યુ છે. ૬ જૂન ૨૦૨૦થી શરૂ થનાર આ કથાની ખાસ વાત એ છે કે જે રીતે બાપુની પ્રથમ કથા સંગીત વગર હતી એજ રીતે આ કથા પણ સંગીત વગર હશે. પ્રથમ કથામા ફકત ત્રણ શ્રોતા હતા. આ કથામાં પણ ત્રણ શ્રોતા હશે. આનો મતલબ છે કે કથા સાંભળવા માટે કોઇપણ શ્રોતા આ ફોલઅર્સને તલગાજરડા જવાનુ નથી.
કથા શરૂ થવાનો સમય પ્રતિદિન સવારે ૯.૩૦ આસ્થા પર લાઇવ પ્રસારણ થશે.
राम
कथा
कथा
क्रमांक - 844
मानस
गुरु वंदना
तलगाजरडा,
गुजरात
शनिवार,
तारीख ०६/०६/२०२० थी रविवार, तारीख १४/०६/२०२०
मुख्य
चोपाई
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
समन सकल भव रुज परिवारू॥
१
शनिवार, ०६/०६/२०२०
गुरु की महिमा बहुत हैं।
सभी विषम परिस्थिति को प्रभुका प्रसाद
समजकर स्वीकार करो।
यह कथा समग्र विश्वमें जिन्होंने अपने
प्राण गुमाये हैं और जो सेवा कार्यमें जुटे हुए हैं, उनके स्मरण में हैं।
मानस की गुरु वंदना गुरु गीता हैं।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना
करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी
घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
चौपाई
:
बंदऊँ
गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ
मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज
की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है।
वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश
करने वाला है॥1॥
सुकृति
संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन
मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
वह रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी
शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त
के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को
वश में करने वाली है॥2॥
श्री
गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन
मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति
मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो
जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ
जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
उघरहिं
बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं
राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल
नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र
रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते
हैं-॥4॥
दोहा
:
जथा
सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक
देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर
साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते
हैं॥1॥
चौपाई
:
गुरु
पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं
करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल
और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक
रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का
वर्णन करता हूँ॥1॥
गुरु वंदना १४ पंक्तिओमें की गई हैं।
यह १४ का एक महिमा हैं।
मानस के सात सोपान हैं और प्रत्येक सोपान
के पूर्वाध और उत्तरार्ध को मिलाकर १४ होता हैं।
बालकांड के मंगलाचरण में १४ लोगो की
वंदन हुई हैं।
उत्तरकांड में भी १४ श्लोक हैं।
राम का वनवास भी १४ सालका हैं।
वाल्मीकि भगवान को १४ स्थान रहनेके लिये
बताये हैं।
१४ ब्रह्मांड और १४ लोक भी हैं।
उत्तरकांड में सात प्रश्न और उसके ७
उतर मिलाकर १४ होता हैं।
गुरु की महिमा १४ भुवनमें छाई हुई हैं।
गुरु के चरण कमल हैं, कमल असंगत हैं,
गुरु का चरका अर्थ उसके आचरण हैं। गुरु चरन असंग हैं।
गुरु कृपा का सिन्धु हैं, राम भी कृपासिन्धु
हैं।
सागर सात हैं, सप्त सिन्धु – जग, दही,
दूध, घी, मध, साकर और गनेके रस का सिन्धु हैं।
गुरु कृपा का सिन्धु हैं और यह सिन्धुमें
सातो सिन्धुका गुण समाया हुआ हैं।
गुरु के पास आंसुओके जलका सिन्धु हैं,
बुद्ध पुरुष की आंखे सदाय भीगी रहती हैं, गुरु में मधुरता भरी हुई होती हैं, कटुता
होती ही नहीं हैं।
मानसमें कई गृहकी चर्चा हैं।
नीज गृह
तजहु
आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥
अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा
ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2॥
जनक राजा सबको अपने अपने गृह जानेको
कहते हैं।
परगृह दुसरेका गृह
बंदीगृह
गुरु गृह
भए
कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई।
अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए,
त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों
सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥
एक
बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।
चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई
कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय
की॥1॥
अपना घर और गुरु के घर में क्या अंतर
है?
गृहस्थ के घरमें आयास प्रयास - योजना
होता हैं, गुरु के घरमें सहजता होती हैं।
विश्वगुरु शंभु सहज बैठते हैं।
निज
कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं
संभु कृपाला॥
कुंद
इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥
अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी
स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और
शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र
धारण किए हुए थे॥3॥
हमारे घरमें विषाद होता हैं, गुरु गृहमें
कभी विषाद नहीं होता हैं, प्रसाद होता हैं, सदा प्रसन्नता होती हैं।
हमारे घरमें कई यंत्र होते हैं – सुख
साधनके यंत्र होते हैं, गुरु के घरमें विश्वमंगलके विचार, विश्व मंगलका मंत्र होता
हैं।
गृहस्थके घरमें कई साधन होते हैं, गुरु
के गृहमें साधना होती हैं।
गृहस्थ के घरमें भोजनकी प्रधानता होती
हैं, गुरु के घरमें भजनकी प्रधानता होती हैं, वह भोजन भी कराता हैं, लेकिन भजनकी प्रधानता
होती हैं।
गुरु कृपासिन्धु हैं, गुरु के गृहमें
परमात्माके प्रेमकी अढळक जलराशी होती हैं और गजबकी मधुरता हैं।
गुरु दही का भी सागर हैं, जिसमें कोई
मंथन करे तो ज्ञान का घी नीकलेगा, नवनित नीकलेगा, ज्ञान प्रजल्वित होगा।
परम धर्ममय पय
दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष
मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै।।7।।
हे भाई ! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त
सात्त्विकी श्रद्धा रूपी गौसे भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की यहायता
से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भलीभाँति औटावे। फिर क्षमा
और संतोष रूपी हवा से उसे ठंढा करे औऱ धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी जामन देकर उसे
जमावे।।7।।
परम धर्म दूध हैं, गुरु परम पय मय हैं,
साकर कि तरह मिठा हैं।
गुरु सप्तसिन्धु हैं और सप्त सिन्धुके
सभी लक्षण गुरु में हैं।
वट बननेकी जरुरत नहीं हैं, वट की छांवमें
बैठ कर आनंद प्राप्त करो, गुरु बननेकी, साधु बननेकी जरुरत नहीं हैं, उसकी छांवमें,
आश्रयमें बैठकर आनंद प्राप्त करो।
गुरु विग्रह के रुप में मनुष्य हैं लेकिन
उसे मनुष्य न मानो, वह नर रुप में हरि हैं, साक्षात हरि हैं, परब्रह्म हैं।
गुरु के वचन सूर्य किरन हैं जो हमारे
महा मोहके अंधेरे को दूर करता हैं।
जब गुरु हमारे शिर पर हाथ रखे तब गुरु
मातृ देवो भव हैं।
कभी कभी गुरु रास्ते में मिल जाता हैं,
गुर अचानक मिल जाता हैं, यह गुरु का अतिथि देवो भव रुप हैं। गुरु जीवनके मोड पर अचानक
मिल जाता हैं, गुरु को हम खोज नहीं शकते है, गुरु अचानक मिल जाता हैं।
गुरु हमारा पोषक हैं, शोषण नहीं करता
हैं। जब गुरु हमारा पोषण करता हैं तब गुरु पितृदेवो भव हैं।
गुरु हमे शिक्षा देता हैं तब वह आचार्य
देवो भव हैं।
गुरु को आश्रित की जन्मोजन्म की पहचान
हैं, हम उसे पहचान नहीं शकते हैं।
गुरु का पार नहीं पाया जा शकता हैं,
गुरु अपार हैं।
गुरु के बचन सुबह की कोमल किरन समान
हैं।
साधक की कक्षा के अनुसार गुरु के सूर्य
किरन होते हैं, गुरु के वचन किरन होते हैं। बालक जैसे साधक के लिये वह सुबहकी किरन हैं, पौढ साधक के लिये गुरु
मध्यान्ह की किरन हैं, और बुढा साधक के लिये अस्त किरन की तरह अपने वचनामृत देकर उसे
पार करता हैं।
२ रविवार
हम जीव के नाते हमारे जन्म के कारण हमारे
मातापिता हैं।
करम सुभासुभ
देइ बिधाता॥3॥
सभी के जन्म
के कारण पिता-माता
होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों
को (कर्मों का फल) विधाता
देते हैं॥3॥
भगवान भी जब जन्म लेते हैं तब उनके भी
कोई न कोई मातापिता होते हैं।
जगदगुरु आदि शंकर कहते हैं कि ….
पुनरपि
जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।
भगवान श्री कृष्ण गीतामें कहते हैं कि
तेरे मेरे अनेक जन्म बित गये हैं।
बहूनि
मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं
वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
श्रीभगवान् बोले -- हे परन्तप अर्जुन
! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।
।4.5।।भगवान् श्रीवासुदेवके विषयमें
मूर्खोंकी जो ऐसी शङ्का है कि ये ईश्वर नहीं हैं सर्वज्ञ नहीं हैं तथा जिस शङ्काको
दूर करनेके लिये ही अर्जुनका यह प्रश्न है उसका निवारण करते हुए श्रीभगवान् बोले हे
अर्जुन मेरे और तेरे पहले बहुत जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ तू नहीं जानता
क्योंकि पुण्यपाप आदिके संस्कारोंसे तेरी ज्ञानशक्ति आच्छादित हो रही है। परंतु मैं
तो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाववाला हूँ इस कारण मेरी ज्ञानशक्ति आवरणरहित है इसलिये
हे परन्तप मैं ( सब कुछ ) जानता हूँ।
हम सब भाग्यवान हैं कि हमारा जन्म मानव
देहमें भारत देशमें हुआ हैं जहां गंगा बहती हैं और साधुका संग मिलता हैं।
जनम हेतु सब कहँ कितु माता।
करम सुभासुभ
देइ बिधाता॥3॥
यह निज गृह हैं और गुरु गृह भी हैं।
ज्ञान नौका हैं और गुरु नाविक हैं …
महाभारत
नर
तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सद्गुर दृढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।
यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने]
के लिये (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार
(खेनेवाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे
सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं,।।4।।
सच्चा मुक्त वह हैं जो जा शके और आ भी
शके।
करहिं
अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥
और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका
वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान
प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥
गुरु कृपा से कोई भी मुक्त हो शकता हैं
लेकिन गुरु कभी मुक्त नहीं होता हैं, गुरु प्रतिक्षा करता हैं कि कोई आश्रित आये और
उसे मैं मुक्त करु।
हमने स्वर्ग देखा नहीं हैं लेकिन यह
पृथ्वी को जरुर देखी हैं।
व्यासपीठ को प्रेम किया बिना तुम - श्रोता
नहीं रह पाओगे।
गांधी के सत्य को अंग्रेज भी नकार नहीं
शकते हैं।
पूज्य बापु अपने जन्म का कारण हैं उनके
आत्मनिवेदनमें बताते हुए कहते हैं कि …
१
मेरा जन्म धैर्य पूर्वक सहन करनेके लिये
मिला हैं, मौन रह कर सहन करनेके लिये मिला हैं।
ભણતો ગણતો તું ભાગ ચેલૈયા, માની લે મારું પતીગ,
માવતર તારા મારવા બેઠા, આંગણે આવ્યો અતીત,
ધુતારો ધૂતી જાશે, પછી પસ્તાવો થાશે
ભાગુ તો મારી ભોમકા લાજે ને, ભોરિંગ ન ઝિલે ભાર,
મેરુ સરીખા ડોલવા લાગે, એને આકાશનો આધાર,
મેરામણ માઝા ના મૂકે, ચેલૈયો સત ના ચૂકે !
એ શું બોલ્યા માત મારા તમે, નાખીને નિશ્વાસ સફળ મનખો ચેલૈયાનો, એનું માંસ જમે મોરાર!
२
तुझे पृथ्वी पर जहर पिनेके लिये लाया
गया हैं।
३
तुं दिलसे माफी मागनेके लिये जन्मा हैं।
४
तेरा जन्म हरनेके लिये हुआ हैं, जितनेके
लिये जन्म नहीं मिला हैं।
परम प्रेममें, परम करुणामें, परम सत्य
में जय विजय का द्वंद नहीं रहता हैं।
सब अपने हैं उसमें किसको हराना हैं?
५
तेरा जन्म हरिनाम जपने के लिये हुआ हैं।
हरिनाम आहार सुत्र हैं।
मेरे आंसु मेरी आत्माके आंसु हैं।
प्रश्न हैं कि ईष्ट देव किसको माने?
तत्वतः सब देव एक हैं।
हमारा बुद्धपुरुष ही हमारा ईष्ट देव
हैं।
ईष्टदेव के पांच लक्षण हैं।
१
प्रीति
जिसको देखते ही हमें उस पर स्वाभाविक
प्रीति – कामना रहित, गुणवर्धन, प्रति क्षण वर्धनाम- जग जाय वह हमारा ईष्टदेव हैं।
गुरु के पद में पराग और नयनोमें चराग
हैं।
२
प्रत्तिती – भरोंसा
३
जिसका सुमिरन करनेका मन हो वह हमारा
ईष्टदेव हैं, जिसकी याद हमें विषादसे दूर करे वह हमारा ईष्टदेव हैं।
४
सेवा
हमारे में जिसकी सेवा करनेका मन लगे
वह हमारा ईष्टदेव हैं।
५
समर्थ
जो समर्थ हैं वह हमारा ईष्ट्देव हैं।
गुरु हमें रास्ता दिखाता हैं, चलना हमें
पडता हैं, गुरु हमें मंत्र देता हैं, लेकिन उसका जाप तो हमें ही करना पडता हैं।
यह पांच धारा जिसके प्रति हैं वहीं हमारा
ईष्ट हैं।
गुरु के चरण कमल हैं।
गुरु के वचन सूर्य किरन हैं।
कमल सूर्यास्त के बाद सिकुड जाता हैं
और दूसरे दिन सूर्य की किरन नीकलके तक नहीं खिलती हैं, प्रतिक्षा करता हैं।
गुरु जो वचन बोलता हैं उसके आचरण के
मुताबिक ही आश्रित आचरण करता हैं, जो बोले वही गुरु करता हैं, उसके ऊच्चारणके अनुसार
उसका आचरण होता हैं, यह कठिन भी हैं, लेकिन ऐसा आचरण आनंददायक हैं।
पहली कथा १४ साल की ऊमरमें की थी यह
भी एक संयोग हैं।
राम चरित मानस में गुरु गृह १४ हैं।
१
कैलास हम सब का गुरु गृह हैं, प्रथम
गुरु गृह हैं।
परम
रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
वागर्थाविव
सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
कालिदास
मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त
वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत् के माता पिता पार्वती शिव को प्रणाम करता हूँ ॥
(वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत
के माता - पिता , शिव - पार्वती की , वाणी और अर्थ की प्राप्ति के लिए मैं कालिदास
वन्दना करता हूँ ।)
२
तिर्थराज प्रयाग गुरु गृह हैं।
भरद्वाज मुनि का आश्रम गुरु गृह हैं।
भरद्वाज
मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस
सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥
भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका
श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय,
दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं॥1॥
३
वशिष्ट मुनिनो आश्रम गुरु गृह हैं।
एक
बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।
चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई
कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय
की॥1॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ
बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित
भगत भय हारी॥2॥
राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को
सुनाया। गुरु वशिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) धीरज धरो, तुम्हारे
चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे॥2॥
साधके धैर्य धाराण करवानी आवश्यक हैं।
हमे मौन रखना हैं, चूप रहना हैं।
काचबा काचबी का भजन
धीरज
धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध
रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों
की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी
और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
राम भी गुरु गृह जाते हैं।
भए
कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब
आई॥2॥
ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए,
त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों
सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि
गंगा॥
तुम्ह
रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग
पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने
जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने
वाली हो॥4॥
४
सुकार क्षेत्र जो गोस्वामीका गुरु गृह
हैं।
५
भगवान राम भरद्वाज मुनि से मार्ग पूछते
हैं। वह भी गुरु गृह हैं।
६
आदि कवि वाल्मीकिजी का आश्रम गुरु गृह
हैं।
राम लक्ष्मण जानकी वाल्मीकिके आश्रम
जाते हैं। यह भी गुरु गृह हैं।
बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥3॥
(मुनि श्री रामजी के पास बैठे हैं और उनकी) मंगल मूर्ति को नेत्रों से देखकर वाल्मीकिजी
के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब श्री रघुनाथजी कमलसदृश
हाथों को जोड़कर,
कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले-॥3॥
राम रहनेके लिये जगहका ठिकाना पूछते
हैं।
सुनहु राम अब कहउँ निकेता।
जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र
समाना।
कथा तुम्हारि
सुभग सरि नाना॥2॥
हे
रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी
और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए।
जिनके कान समुद्र
की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी
अनेक
सुंदर नदियों से-॥2॥
७
महर्षि षडभंग का आश्रम भी गुरु गृह हैं।
महर्षि अत्री का आश्रम गुरु ग्री
गृहस्थके घरमें असुया रहती हैं, गुरु
गृहमें कायम अन्सुया रहती हैं।
नमामि
भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि
ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव
वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण
कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥
निकाम
श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल
कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन)
रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद
आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥
८
महर्षि शडभंग
९
सुतिक्ष्ण का आश्रम गुरु गृह हैं।
१०
कुंभज ॠषि का आश्रम गुरु गृह हैं।
११
शबरी के गुरु महंत मतंगजी का आश्रम गुरु
गृह हैं।
१२
स्वयंप्रभा का आश्रम गुरु गृह हैं।
यह आश्रममें नीज प्रभा – स्वयं प्रभा
– आत्म जागृति की ज्योति हैं।
१३
वनवासी ॠषिओका आश्रम गुरु गृह हैं।
१४
काक भुषंडीका आश्रम गुरु गृह हैं।
उत्तर
दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।
गुरु के चरणमें पराग हैं और नयनमें चराग
हैं।
पराग के चार लक्षण – सुरुची – सुंदर
स्वाद, सुबास - सुगंध, रस पूर्ण, अनुराग - प्रेममय हैं।
3 08/06/2020
मानस का पहला प्रकरण गुरु वंदना से शुरु
होता हैं।
पाई
न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका
अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।
आभीर
जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि
नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।
अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन
करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज
आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल)
आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं,
उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।
वंदना तो चरण की हि होती हैं, मुख का
तो दर्शन होता हैं।
वंदना सदैव आचरण की होती हैं।
कमल के जो लक्षण हैं वही गुरु चरण के
भी लक्षण हैं।
बुद्ध पुरुष के चरण का एक विशिष्ट आकार
होता हैं।
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास
नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
हे
नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी
की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण
भले ही मुझे तीर मारें,
पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा,
तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।
कमल का रंग लाल होता हैं, वैसे ही गुरु
चरन के तलवा भी गुलाबी रंग के होते हैं।
चरण आचरण का संदेश देता हैं।
बुद्ध पुरुष की जीवनी सदा खीलती रहती
हैं,कमल की तरह सिकुडती नहीं हैं।
चरण रज सुरुची, सुवास, सुंदर अनुराग
हैं।
रुची का अर्थ स्वादु हैं, चरण रज में
एक विशिष्ट स्वाद होता हैं, अतुलनीय स्वाद हैं।
रुची, कुरुची, सुरुची
रुची मनका विषय हैं।
सुरुची एक विशिष्ट स्वाद हैं. जो रज
नया स्वाद आता हैं।
चरण रज से हरिनाम स्वादु लगता हैं।
चरण रज में एक महक होती हैं, एक पीर
की खुश्बु होती हैं।
स्वाद के पांच प्रकार – भोजन का स्वाद,
भोग का स्वाद जो ज्यादा टिकाउ नहीं हैं, किसीकी आवाज – नाद का स्वाद – ध्वनि का स्वाद,
मीठे बोल का स्वाद, भजन का स्वाद और भाव का स्वाद हैं।
गुरु चरण रज में सभी स्वाद समाहित हैं।
गुरु चरण रज में कोई वासना नहीं होती
हैं, वासानाकी वास दुर्गंध होती हैं। समाधि में से कभी कभी गंध नीकलती हैं।
मस्तक में सात अंग महत्वका हैं – दो
आंख, दो कान, दो नाक की नासिका, एक मुख हैं।
बालकांड और अयोध्याकांड मानस रुपी सदगुरु
की दो आंख हैं।
अरण्यकांड और किष्किन्धाकांड दो नाक
की नासिका हैं।
सुंदरकांड और लंकाकांड दो कान हैं। श्रवण
की प्रधानता हैं।
श्रवण भक्तिका, वेदांत का आरंभ हैं।
जिन्ह के श्रवन समुद्र
समाना।
कथा तुम्हारि
सुभग सरि नाना॥2॥
जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों
से-॥2॥
भरहिं निरंतर
होहिं न पूरे।
तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गुह रूरे॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥3॥
निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त)
नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने
अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं,॥3॥
उत्तरकांड मस्तिक - मुख हैं।
जिसका नाक ठिक नहींः है उसे गंध नहीं
आती हैं।
जडता की शर्दी जम जानेसे हमें गंध नहीं
आती हैं।
गुरु चरण से दीक्षित हुई मिट्टि की सुगंध
अलौकिक होती हैं।
कई संतोने सरस और अनुराग को मिलाके अनुरागसे
परिपूण रस होता हैं ऐसा अर्थ बताया हैं।
सरस का मतलब निरस नहीं, रस से परिपूर्ण।
बुद्ध पुरुष के चरण रज में एक रस – राम
रस होता हैं।
रज रस पूर्ण हैं, अनुराग पूर्ण हैं,
परमात्मा रसोवैसः हैं।
गुरु चरण रज राग मय नहीं हैं लेकिन अनुराग
मय हैं।
जिसका मन गुरु चरणरजमें डूब जाता हैं
उसे स्वाद आता हैं और जिसका बुद्धि गुरु चरण रजमें डूब जाती हैं उसे वास आती हैं, जिसका
चित गुरु चरण रज में डूब जाता हैं उसे अदभूत रस मिलता हैं, जिसका अहंकार विक्षिप्त
न रहकर - एकत्रित होकर गुरु चरण रज में डूब जाता हैं उसे अनुराग मिलता हैं।
चित विक्षिप्त न रहे – एकत्रित रखे और
वित को वितरीत करे – बांटे, एकत्रित न करे।
गुरु देह का नाम – नामकरण करता हैं और
विदेह का – परमात्मा का नाम देता हैं।
अहंकार हमें अनुराग से दूर रखता हैं।
राम मेरे प्रभु हैं, मैं उसका हुं ऐसा
अभिमान रखना चाहिये।
अहंकार से हमे बहुत सावधान रहना हैं।
4 09/06/2020
गुरु पादूका का बहुत महत्व हैं उसका
नित्य पूजन करना चाहिये।
गुरु पादूका से प्यार करो, पूजा महान
हैं लेकिन प्यार करो, ध्यान करो, अनुसंधान करो।
प्रभु करि कृपा पाँवरीं
दीन्हीं।
सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥2॥
आखिर (भरतजी
के प्रेमवश) प्रभु श्री रामचन्द्रजी
ने कृपा कर खड़ाऊँ दे दीं और भरतजी ने उन्हें आदरपूर्वक
सिर पर धारण कर लिया॥2॥
चरनपीठ करुनानिधान
के।
जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के।
आखर जुग जनु जीव जतन के॥3॥
करुणानिधान श्री रामचंद्रजी के दोनों ख़ड़ाऊँ
प्रजा के प्राणों
की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार
हैं। भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा
है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम
के दो अक्षर हैं॥3॥
अगर गुरु पादूका का स्थापन ह्म्दयमें
हो जाय तो वह सदैव आश्रितके साथ रहेगी।
अमिअ
मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर
चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
गुरु चरन कमल रज अमृतमय संजीवनी का चूर्न
हैं। ईस चूर्नसे संसारके भवरोग नाशका हैं। अगर गुणातित भरोंसा हैं तो यह चरन रज चूर्न
सारीरिक रोग भी मीटा शकती हैं।
मानवके मानसिक रोग क्या हैं?
समस्त मानसिक रोगो का शमन गुरु चरन रज
चूर्न से होता हैं।
मोह
सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम
बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।
सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन
व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ)
कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।
प्रीति
करहिं जौं तीनउ भाई। उपजई सन्यपात दुखदाई।।
बिषय
मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।16।।
प्रीति कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त
और कफ) प्रीति कर लें (मिल जायँ) दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्नय होता है। कठिनता से
प्राप्त (पूर्ण) होनेवाले जो विषयोंके मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) है;
उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)।।16।।
सम्यक मात्रामें वात पित कफ आवश्यक हैं।
हमारा काम वात रोग हैं, अपार लोभ कफ
हैं और क्रोध पित हैं।
यह तिनो मिल जाय तो सनेपात हो जाता हैं।
हमारे जीवनमें काम की जरुरत हैं, काम
कृष्णतनय हैं। संसारिक लोगो के लिये सम्यक मात्रामें जरुरी हैं, सम्यक क्रोध भी जरुरी
हैं।
अहंकार डमरुआ रोग हैं।
हमे तीन बातोंसे बचना चाहिये, हमें नींदा
से बचना चाहिये, हमें नींदा, ईर्षा और द्वेष से बचना हैं।
मो
सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं
तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥
वेर के पांच केन्द्रे बिन्दु हैं – कटु
वाणी से वेर प्रगट होता हैं, घर और जमीन के कारण वेर होता हैं।
जर जमीन और जोरु कजियाना छोरुं
स्त्री को सुंदर रुप देना लेकिन पुरुष
को इतनी ज्यादा कामुकता मत देना ऐसा महाभारतमें दौपदी मागती हैं।
राम
कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर
बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।
यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का
संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ। सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो।
विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।
मनोरोग मिटानेके लिये गुरु की जरुरत
हैं।
हमारे दिलमें एक दीपक जलानेकी जरुरत
हैं जो सदा हमे प्रकाश देता हैं।
शिष्य और के पास ९ केन्द्र बिन्दु हैं।
गुरु
|
शिष्य
|
बानी
जिसके पास गुरु बानी हो उसे गुरु बनाना चाहिये
कृष्ण के पास शस्त्र नहीं हैं लेकिन बानी हैं,
गीता हैं।
|
बाण
अर्जुन के पास बाण हैं।
|
हम गुरु को कुछ देते हैं
गुरु के पास मशाल हैं
|
शिष्य के पास गुरु क्र देने के लिये शाल होती हैं।
|
गुरु के पास गान – ज्ञान होता हैं।
|
शिष्य के पास मान होता हैं, शिष्यको मान चाहिये।
समाजको धान - भोजन और मान चाहिये।
|
गुरु के पास करताल हैं।
|
शिष्य के पास ताल – ताली होती हैं, जयजय करनेके
लिये ताली बजाता हैं। शिष्य तालब्ध होना चाहिये
|
गुरु के पास हनुमान होता हैं।
|
शिष्य के पास अनुमान होता हैं।
|
गुरु के पास मूल होता हैं।
मूल जमीन के अंदर जाता हैं।
मूल को वसुधाकी कठोर कृपा मिलती हैं।
|
शिष्य के पास फूल होता हैं।
फूल उपर रहता हैं।
शिष्य FLOWERS हैं।
फूल को वसुधाकी कोमल कृपा मिलती हैं।
|
गुरु जब गुरु के रुपमें होता हैं तब
वह हमें शिक्षा देता हैं, लेकिन गुरु जब सदगुरुके रुपमें होता हैं तव भिक्षा देता हैं।
गुरु हमें पांच प्रकारकी शिक्षा, पांच
प्रकारकी भिक्षा देता हैं।
जाकी
सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल
नृपलीला॥3॥
चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं,
वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े)
निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं॥3॥
गुरु हमें पांच प्रकारकी शिक्षा मिलती
हैं।
गुरु ह्में विद्याकी शिक्षा देते हैं।
गुरु हमें विनय की शिक्षा देता हैं।
गुरु हमें निपुणता – कर्म कौशल की शिक्षा
देता हैं।
गुरु हमें गुण – दैवी गुण की शिक्षा
देता हैं।
गुरुसे हमें शील की शिक्षा मिलती हैं।
है
कपि एक महा बलसीला॥
गुरु चरन रज से यह पांच प्रकार कि शिक्षा
मिलती हैं।
गुरु से हमें पांच प्रकारकी दीक्षा मिलती
हैं।
गुरु शब्द दिक्षा देता हैं, एक शब्द
ऐसा कह देता हैं।
गुरु स्पर्श दिक्षा देता हैं, गुरु हमारे
शिर पर, कंधे पर हाथ रख दे यह स्पर्श दिक्षा हैं।
गुरु हमें हमारे स्वरुप का बोध कराता
हैं यह स्वरुप दिक्षा हैं।
गुरु हमें गंध दिक्षा – महेंक दिक्षा
देता हैं।
गुरु चरन रजसे हमें यह पांच प्रकारकी
दिक्षा मिलती हैं।
गुरु हमें पांच प्रकारकी भिक्षा देता
हैं।
हम गुरु के पास से लोटते हैं तब हर समय
नया अनुभव लेकर लोटते हैं।
गुरु हमें अश्रु देता हैं।
गुरु से बिलग होते वक्त हमारी आंख भिगी
होती हैं, यह गुरु द्वार की भिक्षा हैं।
गुरु हमें आश्रयकी – द्रढाश्रयकी भिक्षा
देता हैं।
गुरु हमें नया नया अनुभव देता हैं –
यह अनुभव दिक्षा हैं।
गुरु से हमें अमन – शांति मिलती हैं।
शांति पमाडे एने संत कहीये।
गुरु किसी भी वस्तुको अपने हाथों से
छुकर दे दे वह भिक्षा हैं।
गुरु से हमें अमल – अमल करना, कार्यरत
होना, मल रहित – निर्मल मिलता हैं। गुरु के सूत्रो का अमल करना हमें गुरु से मिलता
हैं।
गुरु चरन राज से हमें यह भिक्षा मिलती
हैं।
पूर्ण शरणागत के लिये उसका गुरु ही सब
कुछ करता हैं, आश्रित को कुछ करनेकी जरुरत नहीं हैं।
सुकृति
संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन
मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
वह रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी
शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त
के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को
वश में करने वाली है॥2॥
गुरु चरन रज भगवान शंभुके शरीर पर जो
भस्म हैं वह हैं, विभूति हैं।
गुरु की चरन रज एक प्रसुता हैं जो तीन
वस्तु को – १ मंजुलता - मन, बुद्धि चित की सुंदरता, २ मंगल – कल्याण, शुभ, और ३ प्रसन्न्ता
को जन्म देती हैं।
श्री
गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन
मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति
मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो
जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ
जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
नाम वंदना की चर्चा
सत युगकी प्रधान साधना ध्यान थी, त्रेतायुगमें
यज्ञ की प्रधानता हैं, द्वापर युगमें पूजा, अर्चना, की प्रधानता हैं, कलीयुगमें नाम
की प्रधानता हैं।
नाम स्मरण सबसे बडी पूजा हैं।
आपीने जाव अथवा मुकीने जाव, यह दो ही
वस्तुं हैं।
यज्ञमें सिर्फ वाह वाह नहीं हैं, आहूति
देना हैं, स्वाहा करना हैं, अगर कुछ नहीं हैं तो अश्रुकी आहूति दो।
नहिं
कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि
कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥
कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और
न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के)
लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्जी हैं॥4॥
5 10/06/2020
हम सम का केन्द्र बिन्दु गुरु हि हैं।
गुरु कृपा का सागर हैं जो साक्षात हरिरुप
हैं।
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।
किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
बुद्ध पुरुष के उपर आपत्ति – जो उसके
आश्रितको पिडादायक हैं, को किस तरफ समजें?
शायद यह परमात्मा की अतिविचित्र गति
का परिणाम हो शकता हैं।
समाजमें अपराध कभी कभी कोई करता हैं
और उसका दंड और कोई भोगता हैं।
रोग हैं तो उसकी औषधि भी होती हैं।
बालकके जन्म पहले माता के पास दूधकी
व्यवस्था परमात्मा करता हैं।
प्रजा गुना करे तो दंड राजा भोगता हैम
ऐसा पुरानी राजनितीमें हैं।
कभी कभी जीवसे भूल हो जाती हैं तो उसका
दंड भगवान की अति विचित्र गति की वजहसे बुद्ध पुरुष को भुगतना पडता हैं, यह एक क्रम
हैं, निति हैं।
बुद्ध पुरुष अपनी चिंता नहीं करता हैं,
बुद्ध पुरुष निरंतर ईश्वर चिंतन करता हैं और अपने आश्रितो की चिंता करता हैं।
भरत पहले राम पद फिर राज पद का निर्णय
करता हैं और सब चित्रकुट जाते हैं।
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ
पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥
राज्य का सब कार्य,
लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर- इन सभी का पालन (रक्षण)
गुरुजी का प्रभाव
(सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा॥305॥
सहित समाज तुम्हार हमारा।
घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥
मातु पिता गुर स्वामि
निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥
गुरुजी का प्रसाद (अनुग्रह)
ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा
और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी
की आज्ञा (का पालन) समस्त धर्म रूपी पृथ्वी को धारण करने में शेषजी के समान है॥1॥
हमारी चिंता हमारा बुद्ध पुरुष परमात्माका
चिंतन करते हुए करता रहता हैं, वह भगवत चिंतन कभी नहीं छोडता हैं।
गुरु कृपा ही हमारी रक्षक हैं। अगर आश्रितकी
पूर्ण निष्ठा हो जाय तो आश्रित को कुछ करनेकी जरुरत नहीं हैं।
ईश्वर गुरु का हर कार्य करता हैं।
जिसका हर कार्य ईश्वर करता हैं वह गुरु
अगर हमें कोई कार्य करनेको कहे, कोई आदेश दे तो उसे एक उत्सव समजो और उत्सव मनाओ।
कथा प्यासो को अमृत पिलाती हैं और भूखे
को अन्न देती हैं।
बिनु
घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव
भगति जिमि मोरी॥5॥
बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित
हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही
स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति
पाते हैं॥5॥
फक्त कोई कोई विरला ही भक्ति पाता हैं।
हम गुरु को याद नहीं करते हैं, गुरु
ही हमें याद करता हैं।
गीतामें भगवान श्री कृष्ण जो जगदगुरु
हैं कहते हैं कि …
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज।
अहं
त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी
ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
सेवक
सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज
मैं तोरें॥5॥
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री
और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम
चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥
बिना गुरु को मिले कैसे गुरु मंत्र दिक्षा
ले शकते हैं?
ऐसे समयमें गुरु की तस्वीर के सामने
शांति से बैठकर चिंतन करे कभी न कभी वह तस्वीर हमें गुरु मंत्र का संकेत करेगी।
भगवान सुग्रीव के सब काम कर देनेका वादा
करतें हैं।
काम कैसे कैसे मिटे?
राम भजनसे ही काम मिट शकता हैं।
राम
भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा।।1।
और श्रीराम के भजन बिना कामनाएँ कहीं
मिट सकती हैं?
नयन दोष के कारण हमें सही दिखाई नहीं
देता हैं।
नयन दोष गुरु चरन रजसे मिटता हैं।
परम बुद्ध पुरुष के मिल जाने के बाद
उसमें कमीओ मत ढूढो, अपनी कमीओ ढूढो।
हमारी मन चंद्र आधारित होने की वजहसे
हमारी निष्ठामें वधघट आती हैं।
भगवान राम चंद्र को देखकर कहते हैं ….
जनमु
सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय
मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥
खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर
(उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज)
रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की
बराबरी कैसे पा सकता है?॥237॥
चंद्रके कई अवगुण हैं फिर भी शंकरके
शिर पर शोभायमान हैं।
भगवान राम कहते हैं सीया का मुख चंद्र
से अधिक सुंदर हैं।
चंद्रमा का भाई विष हैं फिर भी वह शंकर
भगवान के शिर पर शोभायमान हैं।
घटइ
बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक
सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥1॥
फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों
को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के
वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें
बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥1॥
मन शिष्य हैं और मौन गुरु हैं।
मन में वध घट होती रहती हैं।
हमारी निष्टामें भी वध घट होती रहती
हैं।
भक्ति के फल की आकांक्षा न रखो।
हमारे मन रुपी दर्पण उपर जो रज हैं –
अवगुण हैं उस को गुरु चरन रज दूर कर देती हैं, अवगुण दूर करती हैं, मलिनता दूर करती
हैं।
गुरु चरन रज का अगर कोई तिलक करे तो
उसे सभी जगत के स्भी सदगुण, सब दैवी संपदा मिलती हैं, आधिन होती हैं।
कन्या को जब सुहागन का तिलक लग जाता
हैं तब पति की सभी समृद्धि उसकी हो जाती हैं।
राज्याभिषेक में जब राज्कुमार को तिलक
हो जाता हैं तब पुरा राज्य उसका हो जाता हैं।
गुरु चरन रज से सभी तत्वोकी जानकारी
मिलती हैं।
तत्व की प्राप्ति पढाई से, प्रारब्ध
से, पुरुषार्थ से, ग्रंथ से, सदग्रंथ से, निर्ग्रंथ से भी तत्व की पाप्ति होती हैं।
सबसे बडा यह हैं कि तत्व की प्राप्ति गुरु कृपा, गुरु चरन रज से होती हैं।
राम जन्म नी कथा ….
6 11/06/2020
रज का अर्थ क्या हैं?
रज का एक अर्थ धूल – मिट्टि हैं।
एहि
बिधि सब संसय करि दूरी। सिर
धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि
सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥
इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और
श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती
करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥1॥
रज का दूसरा अर्थ सुक्ष्मसे भी सुक्ष्म
पॄथ्वी का भाग।
तीन गुण पैकी एज गुण रजो गुण हैं।
रज
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच
जल संगा॥
साधु
असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती
है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के
घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ
देते हैं॥5॥
रज को रेणु भी कहते हैं।
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ
न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥
जो
लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥
हमारे पास – युवानो के पास छ वस्तु होनी
चहिये, १ हमारे जीवन में कोई साधु संत जो परमानंद हैं, सब जगह घुमकर आया हैं, जो सहजानंदी
हो, भजनानंदी हो ऐसा होना चाहिये, २ हमारे जीवनमें एक कंथ – हमारा मालिक, हमारा ईष्ट
होना चाहिये ३ जीवनमें कोई एक सूत्र होना
चाहिये, परमात्मा के भजन बिना – स्मरण बिना कयी गई सेवा हमें अभिमानी बना शकती हैं ४ जीवनमें
गुरु का दिया हुआ एक मंत्र होना चाहिये – एक विचार होना चाहिये ५ जीवनमें एक पंथ एक
मार्ग होना चाहिये – ध्यान मार्ग, भक्ति मार्ग या कर्म मार्ग, हालाकि हमें यह तीनो
मार्गकी आवश्यकता हैं ६ जीवनमें कोई एक ग्रंथ होना चाहिये।
लड्डु बनानेके लिये हमें आटा जो कर्म
मार्ग हैं, धी जो ज्ञान योग हैं, साकर जो भक्ति मार्ग हैं की आवश्यकता हैं।
साधु हमारे स्वरुप का बोध कराता हैं,
खुद की शोध कराता हैं।
हमें खुदकी खोज - शोध करनी हैं, दूसरो
की सेवा करनी हैं और परमात्मा की भक्ति करें। हमें हम कहां हैं उसकी खोज करनी चाहिये।
प्रथम
भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी
भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
गुर
पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि
भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु
के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
प्रसाद से स्मृति प्राप्त होती हैं।
गुरु मनन करना शिखाता हैं, सदगुरु निजध्यास
कराता हैं।
राम १४ साल के वनवास दरम्यान सबके पास
जाते हैं, प्रभुके चरण दीन हिन के पास स्वयं जाते हैं।
दररोज ६ काम करना चाहिये, स्नान, संध्या,
यज्ञ करना, मंत्र जाप करना, गो सेवा और देव पूजा करनी और अतिथि का सत्कार करना चाहिये।
हमें मंत्र, मूर्ति और माला को बदलना
न चाहिये।
गुरु आंख और पांख देता हैं, गुरु कर्मठ
बनाता हैं।
ईष्ट हमारा अनिष्ट नहीं करता हैं, लेकिन
निष्ट करता हैं, हमारी ग्रंथीओका भेदन करता हैं।
गुरु ही स्वयं संत हैं, हमारा नाथ हैं,
गुरु ही हमारा ग्रंथ हैं, ईष्ट हैं।
राम कथा कल्पतरु हैं, सुरधेनु हैं।
जैसे कोई लडकी किसी वर के, श्रेष्ठ के
साद जुड जाने से सास, ससुराल, देवर देवरानी जेठ जेठानी सब मिल जाते हैं ऐसे ही अगर
हम कोई गुरु से जुड जाते हैं तब हमें सकल वस्तु मिल जाती हैं।
श्री
गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन
मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति
मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो
जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ
जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
गुरुके चरन कमल नख की ज्योति
गुरु रोगी – मानसिक रोगी न होना चाहिये,
वासनाग्रस्त नहीं होना चाहिये, गुरु का नेत्र की पवित्र होनी चाहिये, नेत्र शिकारी
न होनी चाहिये, आंखे उपासना से भरी होनी चाहिये, गुरु वामन नहीं होना चाहिये – विचार
संकिर्ण नहीं होने चाहिये, विचार उदार - विशाळ होना चाहिये, गुरु कुनख न होने चाहिये, गुरु के दांत वक्र नहीं
होने चाहिये – गुरु व्यसनी नहीं होना चाहिये, सिर्फ रामनाम का व्यसन होना चाहिये –
गुरु सुअंग होना चाहिये।
नख और बाल में जडता भी हैं और चैतन्य
भी हैं। बाल काटते हैं तो कष्ट नहीं हैं लेकिन अगर बाल खिंचे तो पिडा होती हैं, वैसा
ही नख के लिये हैं।
नख सदैव गुरु चरन के साथ रहते हैं।
नख और भाल पर चंदन का तिलक करनेका मतलब
हैं हमारे नख शिश जीवनमें – शरीरमें शीतलता हो। संत शीतल होना चाहिय। गुरु तेज करे
लेकिन तप्त न करें।
गुरु चरन नख मनिगन ज्योती हैं। दीपकका
प्रकाश शीतल नहीं होता हैं, जला शके ऐसी हैं। गुरु पद नख के मनिओका समूह हैं – दश मनि
हैं, मणिका प्रकाश शीतल होता हैं। ज्ञान दीप हैं और भक्ति मणि हैं - जो शीतल हैं। यह
मणिगन का पूजन करनेकी जरुरत नहीं हैं बल्कि उसका स्मरण करनेकी जरुरत हैं, सिर्फ सुमिरन
पर्याप्त हैं। ऐसा सुमिरन करनेसे हमारे दिलमें – ह्मदयमें दिव्य द्रष्टि प्रगट होती
हैं। यह द्रष्टि हमारे मोह के अंधारेको नष्ट कर देता हैं।
उघरहिं
बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं
राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल
नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र
रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते
हैं-॥4॥
जिसके ह्मदयमें यह नख ज्योति आ जाती
हैं वह बडभागी हैं।
हम सब जीवन के बंदी गृहमेमं बंदी हैं
और हमारा गुरु हमे मुक्त करने के लिये धीरे धीरे हमारे पास सूत्र, श्रवण, मनन, निजध्यास
वगेरे भेजता हैं।
गुरु पद का एक अर्थ गुरु पद, गुरु पादूका,
गुरु पद का स्थान, गुरु ने जहां बैठकर भजन किया हैं वह जगह वगेरे हैं।
कथा का अगला क्रम ......
7 12/06/2020
हम जैसे संसारीओकी निष्ठा एक निष्ठ नहीं
रह शकती हैं। भारतमें आकर कई विद्वानोने अनेक रहस्यो की खोज की हैं और रहस्य भी खोले
हैं।
हमारा मन रुपी कबुतर जब गुरु के देशमें
रुक जाता हैं तब मान लो किनारा आ गया हैं।
अपना देश और गुरु का आदेश को याद रखो।
दुःखमें - कष्टमें हम सबको अपनी मा याद
आती हैं, मातृभूमि याद आती हैं, अपनी मातृभाषा याद आती हैं।
"जननी
जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"
ब्रह्मांड का छेडा अपना गुरु हैं।
“धरतीनो छेडो घर”
व्यासपीठ खाली नहीं होती हैं, व्यासपीठ
कोई अमूर्त बैठता हैं जिसे हम देख नहीं पाते हैं, हमारे चक्षु देख नहीं शकते हैं। ईसी
लिये व्यासपीठ की परिक्रमा और प्रणाम कर कर -अमूर्तकी आज्ञा लेकर वक्ता व्यासपीठ पर
बैठता हैं और वह अमूर्त वक्ताको अपनी गोदमें ले लेता हैं, गोदमें बिठाता हैं। व्यासपीठ
व्यास की, गुरु की गोद हैं। वक्ता अमूर्त को जो बोलना हैं वह बोलता हैं। अमूर्त ही
वक्ताके माध्यमसे बोलता हैं।
हमें सदा गुरु की गोदमें, गुरु के देशमें
रहना चाहिये।
व्यासपीठ दो प्रकारकी होती हैं, १ विधीवत
व्यासपीठ जो सनातन धर्म की परंपरा मुजब विधी पूर्वक बनाई जाती हैं, २ विश्वासवट की
व्यासपीठ जहां विधी नहीं होती लेकिन विश्वास – भरोंसा होता हैं।
जब विश्वास बढता हैं तब व्यासपीठ पर
कोई अमूर्त की अनिभूति होती हैं।
गुरु तारो पार न पायो
तमे रे तारो तो अमे तरीये जी..
बडपन मिल जाय तो भी मा की उंगली जिसे
पकडकर हम चलना शीखे हैं उसे भूलना नहीं चाहिये।
श्री
गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन
मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति
मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो
जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ
जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
गुरु के चरन की दश उंगली हैं उसमे दश
नख ज्योति हैं।
लक्ष्मण भगवान राम को पूछते हैं …
मोहि
समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु
ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे
सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए
और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥4॥
राम परम गुरु हैं, लक्ष्मण उनकी चरन
रज की सेवा करनेकी कहता हैं।
दशरथ भी यही करते हैं।
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ
न दूजे
तीन प्रकारकी ईष्णा – लोकेष्णा, वितेष्णा,
सुतेष्णा होती हैं।
गुरु का आश्रय करनेसे दशरथ को चार पुत्र
प्राप्त होते हैं, लोकेष्णा भी प्राप्त होती हैं, और वैभव भी प्राप्त होता हैं।
जब तें रामु ब्याहि
घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस
भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं
सुख बारी॥1॥
जब
से श्री रामचन्द्रजी
विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या
में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों
लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों
पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥1॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई।
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥2॥
ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ
उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं।
नगर के स्त्री-पुरुष
अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य
और सुंदर हैं॥2॥
अच्छी संतान ऐश्वर्य हैं।
अवधपुरीं
रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम
धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥
अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम
के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी
थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी
उन्हीं में लगी रहती थी॥4॥
आए
ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥
प्रभु
बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥
जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर
आए, तब से सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में आनंद-उत्साह
हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते॥3॥
ऐष्वर्य के सात प्रकार हैं, सुतेश्वर्य,
लोकेश्वर्य, वितेश्वर्य, भजन का ऐश्वर्य, वैराग्यका ऐश्वर्य, ज्ञानेश्वर्य, विवेक का
ऐश्वर्य, यह सब ऐश्वर्य गुरु कृपा से प्राप्त होते हैं।
दशरथ महाराज को सब प्रकारका ऐश्वर्य
गुरु कृपासे मिलता हैं।
दशरथ के पूर्वाश्रम का ऐष्वर्य …
स्वायंभू
मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति
धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥
स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा,
जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे
थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं॥1॥
विवेक का ऐश्वर्य जो क्षीर निर को अलग
करता हैं ….
संत
हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर
गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
विवेक एक ऐश्वर्य हैं।
गुरु चरन नख की दश ज्योति
गुरु के दाया चरनका पहला अंगुठा गुरु
प्रसाद मणि हैं, पहली उंगुली गुरु पूजा मणि हैं, उसके बाद की उंगली गुरु सेवा का मणि
हैं, उसके बादकी उंगली गुरु वचन का मणि हैं, और अंतिम उंगली गुरु ज्ञान का मणि हैं।
पूजा पदार्थ से होती हैं, सेवा प्रेमसे
होती हैं।
गुरु के बाये चरनकी अंगुठा गुरु मंत्र
मणि हैं, महा मंत्र की महामणि हैं, दूसरी उंगली गुरु ग्रंथ मणि हैं, उसके आगेकी उंगली
गुरु आसन मणि हैं, उसके आगेकी उंगली गुरु चैतन्य मणि हैं, अंतिम उंगली नेत्र मणि हैं।
आसन अवाहक होता है।
भगवान राम सुग्रीव को स्पर्श करके उसे
वज्र देह बना देते हैं।
एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥3॥
(श्री रामजी ने कहा-) तुम दोनों भाइयों का एक सा ही रूप है। इसी भ्रम से मैंने उसको नहीं मारा। फिर श्री रामजी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही॥3॥
परम गुरु अपने आश्रितको अपने जैसा बना
देता हैं।
जो गुरु चरन का हो जाता हैं वह कहींका
नहीं रहता हैं, वह गुरु चरन का हि हैं।
ગુજરાતી અકિલા દૈનિકમાં પ્રકાશિત
લેખ ના કેટલાક અંશ અત્રે અકિલા ન્યુઝ ના સૌજન્ય
સહ પ્રસ્તુત છે.
ગુરૂ આધ્યાત્મિક રીતે વિરાટ હોવા જોઇએ.
પૂ.મોરારીબાપુએ શ્રીરામ કથામાં કહ્યુ કે, ગ્રંથોમાં ગુરૂની ઓળખાણ વિશેના સંકેતો છે એ મુજબ ગુરૂ રોગિષ્ઠ ન હોવો જોઇએ. શરીરના રોગની વાત અલગ છે. પણ માનસીક રોગિષ્ઠ ન હોય. નેત્ર રોગી ન હોવો જોઇએ. એટલે કે આંખ પવિત્ર હોવી જોઇએ. કુદ્રષ્ટિ કે શિકારી દ્રષ્ટિવાળો નહિ, ગુરૂ વામન ન હોવો જોઇએ. શરીરના કદની નહિ પણ આધ્યાત્મિક ઉંચાઇનો સંકેત છે. તેથી ગુરૂ આધ્યાત્મિક રીતે વિરાટ હોવા જોઇએ. ગુરૂ સકીર્ણ નહિ વિરાટ હોવો જોઇએ. દાંત કાળા ન હોવા જોઇએ. મતલબ ગુરૂ વ્યસની ન હોવો જોઇએ. ગુરૂ કુનખ ન હોવો જોઇએ. નખ અને વાળ ચૈતન્ય પણ છે અને જડ પણ છે. વાળ કે નખને કાપીએ તો પીડા થતી નથી પણ ખેંચવામાં આવે તો કષ્ટ થાય છે. નખ આંગળીના માપનાં હોવા જોઇએ આમ ગુરૂ સુનખ હોવો જોઇએ. પૂ.મોરારીબાપુએ કહ્યુ કે, નખ પર ચંદન લગાવીએ એટલે નખશિખ જીવન શિતલ હોય. માણસ, સંત શિતલ હોવો જોઇએ. હું વ્યકિતપુજા કે વ્યકિતત્વનો નહિ પણ અસ્તિત્વનો માણસ છું.
નખ પુજા એટલે એનું સ્મરણ કરવું. આ દશે આંગળીઓના સમૂહ અવય વ નહિ પણ મણિઓનો સમૂહ છે. દીપકનો પ્રકાશ પૂર્ણતઃ શિતલ નથી કયારેક દઝાડે પણ ખરો પણ આ ગુરૂપદ નખના સમુહરૂપી મણિનો પ્રકાશ આપણને જોઇએ એટલા પ્રમાણમાં જ પ્રકાશે છે અને પૂર્ણતઃ શિતળતા આપે છે. માનસમાં ઉત્તરકાંડમાં જ્ઞાનદીપ પ્રકરણમાં છે. જ્યાં જ્ઞાન દીપક અને ભકિત મણિ કહેવાયા છે. આપણા અંદરનાં અંધારાને પ્રકાશિત કરવા ગુરૂ ચરણ નખને યાદ કરીએ સુમિરન-સ્મરણ કરીએ એ પણ પુરતું છે.
8 13/06/2020
स्थुल रुप में जो गुरु पादूका हैं उसमें
कलर बदलना, कालान्तरमें तूटना वगेरे सामान्य हैं लेकिन सुक्ष्म पादूका का रंग कभी नहीं
ऊतरता हैं, वह अखंड रंग होता हैं, वह पुरानी नहीं हो शकती हैं, उसका साश्वत मुल्य हैं।
गुरु पादूका संपदा हैं।
वक्ता दक्षिणा स्वीकार करे वह उसका अधिकार
हैं और यह एक प्रवाही परंपरा भी हैं।
ईश्वर दिल की सुनते हैं।
गुरु पादूका अमूल्य हैं, अखंड हैं, सनातन
हैं।
जिसे मैं की हवा लगी
उसे फिर न दवा लगी, न
दुआ लगी
पराग, रज, धूल और रेणु वगेरे शब्द तुलसीसासजी
गुरु चरन रज के लिये ईस्तेमाल करते हैं।
गुरु
पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं
करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल
और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक
रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का
वर्णन करता हूँ॥1॥
एहि
बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि
सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥
इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और
श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती
करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥1॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ
न दूजे
यह चार शब्द ब्रह्म का कोई रहस्य हैं।
यह चार प्रकारकी साधककी दिक्षा हैं। पराग दिक्षा, रज दिक्षा, धूली दिक्षा और रेणु दिक्षा
यह चार दिक्षा हैं। प्रत्येक फूल की पराग – पराग रज होती हैं। पराग के उपर कृपा के
बिंदु गिरते हैं। यह दिक्षामें साधक गुरु चरन पादुका रजसे रस, गंध, स्वाद, प्रेम प्राप्त
करता हैं।
कमल का फूल एक बडी औषधी हैं।
रज से रज दिक्षा हैं जिसमें साधक (पद
का आकार बडा हैं, पग के आकार से रज बहूत छोटी हैं, पद - पग का वजन हैं, रज एकदम ह्लकी
हैं, गुरु का एक अर्थ भारी भी हैं) गुरु अपने साथ छोटे से छोटे को लगाये रखता हैं।
रज दिक्षित साधके किसी को अपने से छोटा नहीं समजना चाहिये। रज दिक्षा प्राप्त करनार
बहूत हलका हो जाता हैं। गुरु पद छोटे से छोटे को अपने साथ लगाये रखता हैं। रज दिक्षित
साधक को किसीका तिरस्कार नहीं करना चाहिये, किसीकी उपेक्षा नहीं करानी चाहिये, किसीको
छोटा नहीं समजना चाहिये। जो दूसरोके छोटा समजता हैं वही सबसे छोटा हैं। कोरोना जो छोटा
होनेके बावजुद पुरी दुनियाको प्रभावित किया हैं।
रज दिक्षित साधक अपने से छोटेको आदर
– प्रेम सहित सन्मान देकर उसका, उसकी कलाका
मान बढायेगा। आखिरी व्यक्तिका सन्मान रज दिक्षा साधक का एक अंग हैं, जिसको मौका न मिला
हो उसे मौका दिया
जाय।
अपने घर के नोकर चाकर को अपने परिवारके
सभ्यो समजो, यह रज दिक्षित साधकको करना चाहिये।
गुरु हमारा छेद, खेद और भेद मिटाकर वेद
पकडा देता हैं और फिर वेदकी रूचाए उअतरने लगती हैं।
गुरु चरन की धूली की दिक्षा – धूल दिक्षा
साधके सहन करना चाहिये। प्रुथ्वी का एक अर्थ क्षमा हैं, धूल पृथ्वीका अंश हैं जो प्रहार
सहन करती हैं, पृथ्वी सहन कर तप करती हैं। जानकी जो पृथ्वी की बेटी होनेके नाते बहुंत
सहन करती हैं, तप करती हैं। धूली साधक दिक्षितको सहन कर तप करना चाहिये।
अहंकार हमारे सबकी बाधा हैं।
सत्य बोलनेमें, करुना करनेमें, प्रेम
करनेमें बल, पैसा, पद की जरुरत नहीं हैं। यह क्रिया साधन साध्य हैं।
कुछ योग साधन साध्य होते हैं, जहां कोई
योग अचानक आता हैं और उसमें हमें कुछ अच्छे कार्य करनेका मौका मिलता हैं।
गुरु कृपा साध्य साधन
रेणु दिक्षा
कोई विशिष्ट स्थानकी रज को रेणु कहते
हैं। गंगाके तटकी रज को रेणु कहते हैं। रेणुमें हम लोटते हैं – આળોટીયે
છીએ.
रेणु दिक्षित साधक ओतप्रोत हो जाते हैं,
समस्त को अपने वशमें कर लेता हैं।
स्वपनमें दुःख, रोग आते हैं उसका उपाय
– औषधी जागना हैं।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख
भव रजनी के॥
सूझहिं
राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल
नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र
रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते
हैं-॥4॥
गुरु नख ज्योतिसे हमारे नेत्र खुल जाते
हैं और हमारे रोग – दुःख दूर हो जाते हैं।
राजनीतिमें शाम दाम दंड भेद की नीति
अपनानी पडती हैं।
साम
दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति
धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥
हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड
और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं,
(किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं॥5॥
गुरु सम्राटोका सम्राट हैं।
गुरु के पास शाम नहीं हैं लेकिन शान
– संकेत हैं, गुरु शानसे समजा देते हैं।
सयनहिं
रघुपति लखनु नेवारे।
श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया
गुरु के पास दाम नहीं होता हैं लेकिन
दान होता हैं, गुरु प्रलोभन नहीं देता हैं, गुरु हमें अभयदान, क्षमादान, भक्तिका दान,
प्रेम का दान देता हैं।
गुरु के पास दंड नहीं होता हैं लेकिन
दडवत होता हैं, सन्यासी के पास दंड होता हैं लेकिन वह दंड देनेके लिये नहीं हैं। गुरु
दिक्षा देनेके बाद शिष्यको दंडवत करता हैं।
गुरु शिष्यसे भी अगर शुभ मिलता हैं तो
उसे भी स्वीकार कर लेता हैं।
गुरु कभी भी भेद नहीं होता हैं।
राम
बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु
सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥
श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल
होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है,
(भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों॥5॥
અકિલા ન્યુઝ માં પ્રકાશિત આ કથાના
કેટલાક અંશ અકિલા ના સૌજન્ય સહ અત્રે પ્રસ્તુત
છે.
ગુરૂ હંમેશા આપણી સાથે જ હોય છે, આપણી નિષ્ઠા અખંડ હોતી નથીઃ કથાના પ્રારંભે પૂજય બાપુએ કહ્યું કે 'પોતે જે વડલા નીચે બચપણમાં પોતાની પહેલી કથા કરેલી ત્યાં પોતે દાદાજી સાથે કયારેય આવ્યા ન હતા.પરંતુ અત્યારે, જયારે આટલા વર્ષો પછી આ જ વડલા નીચે ફરીવાર કથા કરું છું, ત્યારે દાદાજી નિત્ય- નિરંતર મારી સાથે જ હોવાનો અનુભવ કરું છું. ગુરુ હંમેશા આપણી સાથે જ હોય છે. ગુરુ કયારેય કયાંય જતા જ નથી. આપણે ભટકી જઈએ છીએ.કારણ કે આપણી નિષ્ઠા અખંડ હોતી નથી. બાપુએ કહ્યું કે બે શબ્દો યાદ રાખવા પોતાનો દેશ અને ગુરુનો આદેશ. વ્યકિત જયારે દુઃખોથી ભરાઈ જાય, ત્યારે તેને પોતાનું મૂળ જ યાદ આવે છે. આપણે જયારે બહુ દુઃખી થઈએ, ત્યારે સૌથી પહેલા આપણે આપણી મા ને યાદ કરીએ છીએ. પછી આપણી માતૃભૂમિને યાદ કરીએ છીએ અને ત્રીજું આપણી માતૃભાષાને યાદ કરીએ છીએ. બાપુએ કહ્યું કે ધ્યાન સ્વામીબાપાથી શરૂ કરીને અમારો પૂરો હરિયાણી પરિવાર પરિપૂર્ણ રીતે સનાતન ધર્મી છે. અને વૈષ્ણવ સાધુ કુળ પરંપરામાં હોવાનું અમને ગૌરવ છે. વ્યાસપીઠની વાત કરતાં બાપુએ કહ્યું કે પોતે વ્યાસપીઠ પર બેસતા પહેલા વ્યાસપીઠને પ્રણામ કરે છે, ત્યારે અનુભવે છે કે જાણે વ્યાસપીઠ ઉપર કોઈ બેઠેલું છે, જે અમૂર્ત છે. જેને આપણા ચર્મચક્ષુ જોઈ શકતા નથી. બાપુએ કહ્યું કે 'જાણે મને ત્યાં બેસવાની મંજૂરી મળે છે, અને પછી વ્યાસપીઠ પર બેઠેલું તે અમૂર્ત તત્વ જાણે મને પોતાની ગોદમાં લઈ લે છે. અને એ જ મારી પાસે બોલાવડાવે છે. આ અમૂર્તને વ્યકત કરવા માટે કોઈ શબ્દો મારી પાસે નથી. અનુભૂતિને કેમ વર્ણવવી? પણ તે છતાં આપણી પાસે એને વર્ણવવા માટે શબ્દ સિવાય અન્ય કોઈ આધાર નથી. મા-બાપની ગોદની તો કોઈની સાથે તુલના થઈ શકે નહીં. પરંતુ ગુરુની ગોદમાં અસીમ વાત્સલ્ય અને સ્નેહ હોય છે. દાદાજી અહીંયા મારી સાથે કદી આવ્યા ન હતા, છતાં અહીં એમની અનુપસ્થિતિ હોય એવું મને કયારેય લાગ્યું નથી. બાપુએ કહ્યું કે 'પોતાના દાદા ગુરુનો અવાજ પોતાના હૃદયમાં રેકોર્ડ થઈ ચૂકયો છે. એકલો બેઠો હોઉં છું ત્યારે એ ટેપરેકોર્ડર શરૂ પણ થઈ જાય છે. પણ હું એને વર્ણિત નહીં કરી શકું. તેમના ધ્રુજતા હોઠમાંથી મેં કાયમ રામ નામ સાંભળ્યું છે. એમના અંત સમયે એમણે મને જે ઈશારો કર્યો, એનો અર્થ એવો હતો કે - જે મેં તને આપ્યું છે એ તું સહુને વહેંચજે. બાપુએ કહ્યું કે આપ જયાં રહો, જે ક્ષેત્રમાં કે જે વ્યવસાયમાં રહો, પરંતુ કાયમ ગુરુની ગોદમાં રહો, ગુરુની છાયામાં રહો, ગુરુના દેશમાં રહો, ગુરુનું ઘર કયારેય નાનું નથી હોતું. કારણકે એને ક્ષેત્રફળમાં નથી મપાતું. એ તો ત્રિભુવનિય હોય છે. બાપુએ કહ્યું કે વ્યાસપીઠ બે પ્રકારની હોય છે એક વિધિવત્ વ્યાસપીઠ. પરંપરાગત રીતે કેળના ચાર સ્તંભની વચ્ચે, ચારે બાજુ ઘઉંના જુવારા ઉગાડ્યા હોય અને આસોપાલવનાં તોરણ બાંધ્યા હોય. વચ્ચે વકતા બિરાજમાન હોય. બાપુએ અહીં પણ આવતીકાલથી એવી પરંપરાગત વિધિવત્ વ્યાસપીઠ હોય, એવો સંકલ્પ વ્યકત કર્યો.
9 14/06/2020
गुरु कृपासिन्धु हैं।
समुद्र मंथन से १४ रत्न नीकले थे।
गुरु जो कृपासिन्धु हैं उसका मंथन करनेसे
कौन से रत्न मिलते हैं?
रत्न मंथन करने के बाद ही मिलता हैं।
दूध से नवनित प्राप्त करने के लिये कई
प्रक्रिया करनी पडती हैं।
गुरु जो कृपा का सिन्धु हैं उसे आश्रित
को मथना चाहिये।
हम तो कमजोर हैं, गुरु का मंथन कैसे
करेंगे?
हमें द्रढ भाव, भरोसा देख कर गुरु खुद
विगलित होगा और उसकी आंखोसे अश्रु बहने लगे तब समजो की गुरु खुदको मथ रहा हैं, गुरु
विगलित होकर रत्न – अमृत नीकानने लगे उसे हम अनुभव करे, हमारा कर्म काम नहीं कर पायेगा।
गुरु स्वयं हम पर बरस जाता हैं जब हम
५ वस्तु याद रहे।
१
आश्रित अलुब्ध होना चाहिये, आश्रित निर्लोभी
होना चाहिये, कोई प्रकारका लोभ न होना चाहिये – पद प्रतिष्ठा, पैसे, धंधा अच्छा चलनेका
का लोभ नहीं होना चाहिये। गुरु के पास निर्वाण का भी लोभ नहीं रखना चाहिये, सिर्फ गुरु
की प्रेम गंगा में बहने का ही कामना रखे।
आदि शंकर भगवान भी मोक्ष की आकांक्षा
नहीं रखनेको कहते हैं।
न मोक्षस्याकांक्षा
भरत भी कहते हैं ….
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु
न आन॥204॥
मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा)
है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्म
में मेरा श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता
हूँ, दूसरा कुछ नहीं॥204॥
२
२
समर्पित साधक स्थिरगात्र – स्थिर बैठे
ऐसा होना चाहिये।
पात्र हिलता हैं तब उसमें भरा पानी भी
हिलने लगता हैं।
हमें चंचलता छोडनी चाहिये।
३
आश्रित जीतेन्द्रीय होना चाहिये, हमें
ईन्द्रीयोको समजा कर, विवेक पूर्ण रीत से बैठना चाहिये कयोंकि हम जीतेन्द्रीय नहीं
हो शकते हैं।
४
आज्ञाकिंत
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई।
स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु
जन पावै देवा।2॥
वह
रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी
की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ
स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥2॥
आज्ञा के पालन सम कोई सेवा नहीं हैं।
गुरु शिष्य की परंपरामें आज्ञा सम ओर
कोई प्रसाद नहीं हैं।
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई।
बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥
जेहि
बिधि प्रभु प्रसन्न
मन होई।
करुना
सागर कीजिअ सोई॥1॥
अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी
सहित (अयोध्या को) लौट जाइए। हे दयासागर!
जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न
हो, वही कीजिए॥1॥
५
द्रढ भक्ति
भरोंसो द्रढ इन चरनन केरो
ऐसा होगा तब गुरु स्वयं हमें रत्न प्रदान
करेगा
१
मुदिता – प्रसन्नता का रत्न मिलता हैं।
मुदिताँ
मथै बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब
मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।8।।
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में
तत्त्वविचाररूपी मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन) के आधार पर (दमरूपी खम्भे आदि के सहारे)
सत्य और सुन्दर वाणीरुपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर और
अत्यन्त पवित्र बैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले।।8।।
किसी भी स्थितिमें प्रसन्न रहकर प्रभु
नाम लेना चाहिये।
२
मैत्री
सबसे मैत्री का रत्न मिलता हैं, किसीसे
वेर नहीं।
जप
तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति
अमाया॥2॥
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में
रत रहते हैं और गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा,
क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है॥2॥
मैत्री रत्न हैं।
मानस में लिखा हैं …
सुनु
खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिंअधम कर संगा।।
कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल
नहिं प्रीती।।7।।
हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये, बात समझकर
बुद्धिमान् लोग अधम (नीच) का संग नहीं करते। कवि और पण्डित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट
से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही।।7।।
गरुड कहता हैं मेरी तो दुष्ट - खल और
प्रेम दोनो से ही सबंध हैं, सर्प मेरा खोराक हैं जो कलह हैं, विरोध की वृत्ति हैं और
हरि मेरी पीठ पर बैठता हैं जो प्रीति हैं।
हरि से प्रीत और सर्पसे वेर की वृत्ति
गरुड की हैं।
गोस्वामीजी उदासीन रहनेको कहते हैं।
उदासीन
नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं।।
मैं
खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई।।8।।
हे गोसाईं ! उससे तो सदा उदासीन ही रहना
चाहिये। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूरसे ही त्याग देना चाहिये। मैं दुष्ट था, हृदय में
कपट और कुटिलता भरी थी। [इसलिये यद्यपि] गुरु जी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती
न थी।।8।।
३
अभय का रत्न प्राप्त होता हैं।
हनुमानजी सुग्रीव को दीन जानकर मैत्री
करकर अभय करनेको कहते हैं।
तेहि
सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो
सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन
जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥
४
संवाद का रत्न मिलता हैं।
संवाद गुरु की देन हैं।
५
स्वीकार का रत्न मिलता हैं, गुरु कृपा
से ही स्वीकार का रत्न मिलता हैं।
६
पवित्रता का रत्न प्राप्त होता हैं।गुरु
निरंतर बहती गंगा हैं जो हमें पवित्र कर देती हैं।
ગુરુ આપણને ઉટકી નાખે છે. એટલા
ઉટકી નાખે છે કે પછી કલાઈ કરવાની પણ જરુર રહેતી નથી, ઢોળ ચઢાવવાની જરુર રહેતી નથી.
બીજો રંગ ચઢાવવાની જરુર રહેતી નથી.
यह गुरु कृपा से ही हो शकता हैं।
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥
७
विद्या और कला का रत्न प्राप्त होता
हैं।
८
परमार्थ - परम अर्थ का रत्न मिलता हैं।
परमार्थ प्राप्ति अंतिम साध्य हैं।
९
गुरु की कृपा से आश्रित एक हाथ से संसार
और दूसरे हाथ से संन्यास निभाता हैं।
जीवन दर्शी और मृत्यु दर्शी ऐसे दो प्रकारके
शिष्य होते हैं।
जीवन दर्शी भोग विलास में रहता हैं।
कुछ लोग मृत्यु को भी महोत्सव समजते
हैं, जन्म को भी महोत्सव समजते हैं।
उघरहिं
बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ
जो जेहि खानिक॥4॥
उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल
नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र
रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते
हैं-॥4॥
जथा
सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक
देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर
साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते
हैं॥1॥
गुरु
पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं
करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल
और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक
रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का
वर्णन करता हूँ॥1॥
गुरु चरन रज केवल सिद्धांजन ही नहीं
हैं, शुद्धांजन भी हैं।
यह अंजन खटकने वाला नहीं हैं, लेकिन
मृदुल और मंजुल हैं।
१ गुरु
२ कूलगुरु
३ सदगुरु
४ सुरगुरु
५ त्रिभुवनगुरु
६ जगदगुरु
गुरु चरन रज नयनामृत हैं, अमृतांजन हैं
जो द्रष्टि के सभी दोषो को दूर करती हैं।
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