राम चरित मानस में हरि कथा शब्द आया हो ऐसी पंक्तियां नीचे मुजब हैं।
१
लगे
कहन हरि कथा रसाला। दच्छ
प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा
बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने
लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को
प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥
२
तदपि
असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह
हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥
फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका
की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान
की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं॥1॥
३
हरि
अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र
के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3॥
श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं
पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री
रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3॥
४
ममता
रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि
सम कामिहि हरिकथा। ऊसर
बीज बएँ फल जथा॥2॥
ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की
कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्
की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में
बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥
५
मातु
पिता गुर बिप्र मानहिं। आपु गए अरु धालहिं आनहिं।।
करहिं
मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि
कथा न भावा।।3।।
वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी
को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, [साथ ही अपने संगसे] दूसरोंको भी नष्ट
करते हैं। मोहवश दूसरोंसे द्रोह करते हैं। उन्हें संतोंका संग अच्छा लगता है, न भगवान्
की कथा ही सुहाती है।।3।।
६
बर
तर कह हरि कथा प्रसंगा।
आवहिं सुनहि अनेक बिहंगा।।
राम
चरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।4।।
बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के
प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को
अनेकों प्रकार से प्रेमसहित आदरपूर्वक गान करता है।।4।।
७
सुनिअ
तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना
भाँति मुनिन्ह जो गाई।।
जेहिं
महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।3।।
और वहां (सत्संग में) सुन्दर हरि कथा
सुनी जाय, जिसे मुनियोंने अनेकों प्रकारसे गाया है और जिसके आदि, मध्य और अन्त में
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं।।3।।
८
नित
हरि कथा होत जहँ भाई।
पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई।।
जाइहि
सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।4।।
हे भाई ! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती
है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह
दूर हो जायगा और तुम्हें श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम होगा।।4।।
९
दो.-बिनु
सतसंग न हरि कथा तेहि
बिनु मोह न भाग।
मोह
गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।61।।
सत्संगके बिना हरि की कथा सुननेको नहीं
मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गये बिना श्रीरामचन्द्रजी के चरणोंमें दृढ़
(अचल) प्रेम नहीं होता।।61।।
१०
सुनतेउँ
किमि हरि कथा सुहाई।
अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई।।
निगमागम
पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा।।3।।
और कैसे अत्यन्त विचित्र यह सुन्दर हरिकथा
सुनाता; जो आपने बहुत प्रकार से गायी है ? वेद, शास्त्र और पुराणोंका यही मत है; सिद्ध
और मुनि भी यही कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं कि-।।3।।
११
भरि
लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
मुनि
पुनि कहि हरिकथा अनूपा।
खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।।6।।
[पहले] नेत्र भरकर श्रीअयोध्यानाथ को
देखकर, तब निर्गुणका उपदेश सुनूँगा। मुनिने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मतका खण्डन
करके निर्गुण का निरूपण किया।।6।।
No comments:
Post a Comment