41 04/05/2020
भगवान वेद व्यासने सात साधना को क्रमशः विस्तार करने को कहा हैं। यह विस्तार राम चरित मानस में हुआ हैं। यह हैं – नाम साधना, रुप साधना, लीला साधना, ध्यान साधना, स्मरण साधना, धाम साधना, पूर्ण या शून्य साधना।
नाम साधना
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥
जिस नाम में हमें रुची हो, गुरु ने जो नाम दिया हो उसे क्रमशः विस्तरीत करना पहली साधना हैं। नाम का जपना श्वास से आगे रहता हैं। कली युग नाम साधना का काल हैं। नाम, साधना, जप, स्मरण, भजन, आध्यात्मिक यात्रा लोको के अभिप्राय पर नहीं चलती, वह गुरु के कृपा पूर्वक आदेश, हमारी रुची और साधना से गति शील होती हैं।
गुरु दयासिन्धु हैं।
बाल कांड नाम की महिमा का कांड हैं। बाल कांड में नाम साधना का क्रमशः विकास हैं।
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥
मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते॥4॥
भगवान वेद व्यास का दूसरा रुप साधना का विस्तार करना हैं।
सगुण उपासको को रुप साधना का विस्तार करने से स्वरुप के अनुसंधान तक पहुंच शकते है।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥
जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥
हम अपने ईष्ट की मूर्ति का श्रींगार करके रुप साधना करते है। रुप साधना का विस्तार करने से हम स्वरुप का अनुसंधान कर शकते है।
रुप साधना का विस्तार अयोध्या कांड में हुआ है।
लीला साधना का विस्तार
परमात्मा की मंगल लीलाओ – क्रिडा का गायन, मंचन, वर्णन, श्रवण, एक साधना है।
परमात्मा राम की ललीत नर लीलाओ का विस्तार अरण्य कांड में हुआ है।
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
हे प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥1॥
यह परमात्मा की नर लीला अरण्य कांड में विकसित हुइ है।
ध्यान साधना
प्रभु का ध्यान
किष्किन्धा कांड ध्यान – साधना का कांड है।
इस कांड में दो प्रसंग ध्यान साधना का है।
स्मरण साधना
सुंदर कांड स्मरण साधना का कांड है।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥
हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे॥2॥
निरंतर तैल धारा व्रत स्मृति स्मरण साधना है।
धाम साधना
परमात्मा का धाम की साधना
प्रमात्मा सब को निर्वाण देते है।
लंका कांड निर्वाण साधना का कांड है।
पूर्ण साधना – शून्य साधना
उत्तर कांड पूर्ण साधना – शून्य साधना का कांड है।
नितांत खाली हो जाना या पूर्ण तहः भर जाना जिस्से पायो परम विश्राम प्राप्त हो। जो शून्य है वह हि पूर्ण है और जो पूर्ण है वह नितांत खाली है – शून्य है।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
यह शरीर ग्रंथ है, उसमें सातो साधना है – सातो सोपान है। ईस शरीरमे हमें परमात्माने जिव्हा दि है जिस से हम नाम साधना कर शकते है, चक्षु से रूप साधना कर शकते है, परमात्मा ने हमें अंतःकरण दिया है जिस में मन से हम ध्यान साधना कर शकते है, सुर स्वर से हम लीला साधना कर शकते है, चित से हम चिंतन, स्मृति कर के हम शरीर से स्मरण साधना कर शकते है, शरीर से ह्म भगवान के किसी स्थुल धाम में निवास कर शकते है, परमात्मा के अनुग्रह से हम निज धाम – परम धाम प्राप्त कर शकते है, ईस शरीर से हम पूर्णता या शून्यता की साधना कर शकते है। यह शरीर एक चलता फिरता ग्रंथ है। जिस की रचना परमात्मा ने की है। यह शरीर ७ सोपान का एक दिव्य ग्रंथ है।
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
नियती क्या है?
कर्म की गति गहन है।
नियती गणित से बहार है। नियती का नियामक है लेकिन वह भी नियती को देखता रहता है। नियामक का कभी त्रिकाल में न बदला जाया वैसी प्रकृति का नाम नियती है। नियती को समजना बडा मुश्किल है। परम अव्यवस्था का नाम परमात्मा है। गुरु की शरण में जाना एक ही उपाय है। नियती के आधिन होये बिना और कोई उपाय नहीं है।
42 05/05/2020
गुरु की वृति और गुरु के वर्ग कितने
प्रकार के है?
गुरु प्रवृति में निवृति का स्वभाव रखता
है और निवृति में फलाकांक्षा छोडकर के प्रवृतमय दिखता है। गुरु की महिमा का वर्णन करना
सरासर असंभव है।
गुरु की छ वृति है। गुरु दो काम करता
है, वह श्रुति जो वेद का दान है, ज्ञान का दान है और स्मृति का दान – भक्ति का दान
– सिमरन का दान करता है।
१
गणेश वृत्ति
गुरु की गणेश वृति - विनायक वृति है।
गणेश वृति का अर्थ है मन, बुद्धि, चित यह तिन जिसके चंचल नहीं है, लेकिन सम्यक है।
गजानन के रुप में हम गणेश को देखते है, और हाथी की वृति बहुत अचंचल है,
हाथी को मन होता हैं और हाथी का मन चंचल
नहीं होता हैं। जिस के पास मन नहीं हैं उसको अच्छा बुरा समझ में नहीं आता हैं। क्या
भोग्य हैं, क्या अभोग्य हैं, क्या भोज्य हैं, क्या अभोज्य हैं, क्या ग्राह्य हैं, क्या
अग्राह्य हैं, उसका निर्णय मन करता हैं। मन पहेचान कराता हैं, हाथी पहचान कर लेता हैं।
हाथी में बुद्धि होती हैं। गणपति बुद्धि विशारद हैं, लेकिन उस की बुद्धि चंचल नहीं
हैं, सम्यक हैं। हाथी में चित होता हैं। हाथी चिंतनशील प्राणी हैं। आंख को बंध रखना,
अर्ध खुली रखना, आंख को सुक्ष्म रखना यह चिंतन का प्रतीक हैं। जिस का चिंतन, मनन, निर्णय
मन, बुद्धि और चित तिनो में चंचल नहीं हैं वह गणेश हैं। गुरु में अहंकार होता ही नहीं
हैं।
आदि शंकर कहते हैं …. मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
गुरु गणेश वृत्ति हैं का मतलब है कि
उपर मुजब हैं।
२
गौरी वृत्ति
गुरु में गौरी वृत्ति होती हैं, गौरी
का मतलब है भवानी, अंबा, दुर्गा जो श्रद्धा हैं।
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा
रूपेण संस्थिता
तुलसी भी कहते हैं …
भवानीशंकरौ
वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां
विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी
और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित
ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥
गुरु श्रद्धा वृति हैं, परम श्रद्धेय
हैं, यह गौरी वृत्ति हैं। श्रद्धावान गुरु को अपने आश्रित पर भी श्रद्धा होती हैं।
कभी कभी आश्रित गुरु पर रोष करता है, गुरु की अवज्ञा करता हैं लेकिन गुरु गौरी वृत्तिवाला
होने के नाते अपने आश्रित उपर श्रद्धा रखता हैं।
गुणा
गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।
तत्त्ववित्तु
महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा
गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।
।।3.28।।परंतु जो ज्ञानी है हे महाबाहो
वह तत्त्ववेत्ता किसका तत्त्ववेत्ता गुणकर्मविभागका अर्थात् गुणविभाग और कर्मविभागके
तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानी इन्द्रियादिरूप गुण ही विषयरूप गुणोंमें बर्त रहे हैं आत्मा
नहीं बर्तता ऐसे मानकर आसक्त नहीं होता। उन कर्मोंमें प्रीति नहीं करता।
हे महाबाहो!
गुण-विभाग और कर्म-विभागको तत्त्वसे जाननेवाला महापुरुष 'सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें
बरत रहे हैं' -- ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं
होता।
३
गंग वृत्ति
गुरु वह हैं जो गंगा की तरह अपना ऊ्चत्तम
स्थान छोडकर अपने आश्रितो के लिये, पतितो को पावन करने के लिये उसके पास आता हैं, और
गंगा की तरह खारे पानी में मिल जाता हैं।
गंगा रोज नूतन होती हैं और सदैव प्रतिपल
प्रवाहमान रहती हैं। गंग वृत्ति वाला गुरु हमारे लिये उपरसे नीचे आता हैं, उपकारक हैं
और नित नूतन हैं और प्रवाही परंपरा का वाहक हैं, जड नहीं हैं। यह गंग वृत्ति हैं।
४
गो वृत्ति – गाय वृत्ति
साधु का स्वभाव गाय जैसा होता हैं।
सरल
सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।
सरल चित, सहज जीवन जिस का हैं वह गो
वॄत्ति वाला हैं।
५
गगन वॄत्ति
गुरु गगन जैसा विशाल होता हैं, जो नापा
नहीं जाता हैं, गुरु संकिर्ण नहीं होता। गुरु में अलौलिक विशालता होती हैं।
६
गुण ग्राह्य वॄति
गुरु सब जगह
से सत्य ग्रहण करता हैं।
आ
नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: |
हमारे लिए (न:) सभी ओर से (विश्वत:) कल्याणकारी (भद्रा:) विचार
(क्रतव:) आयें (आयन्तु).
आ
नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः ।
कल्याणकारक, न दबनेवाले, पराभूत न होने
वाले, उच्चता को पहुँचानेवाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें।
संत
हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
मधुकर
सरिस संत गुनग्राही॥
संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण
करने वाले होते हैं॥
गुरु के वर्ग
१
परम गुरु
शिव परम गुरु है, त्रिभुवन गुरु हैं, परम गुरु हैं।
परम गुरु एक एसा परम लेवल हैं जो सामान्य द्रष्टि से दिखाई नहीं देगा लेकिन सब उस की
कृपासे चलता हैं। सब त्रिभुवन गुरु की छाया में चलता हैं। कभी कभी ऐसा लगता हैं कि
गुरु की कृपा हमारा पीछा कर रही हैं। ऐसी स्थिति परम गुरु हैं, त्रिभुवन गुरु हैं।
२
सद्गुरु
सदगुरु दिखाई देता हैं जब के परम गुरु
दिखाई नहीं देता हैं। सदगुरु दिखाई देता हैं, महसुस होता हैं, सदगुरु को सब प्यार करते
हैं। किसी भी वॄत्ति से हमे सदगुरु से जुडना होता हैं। सब – जड, चेतन, पशु, पक्षी,
प्राणी, जीव जंतु, तारे, सितारे, नक्षत्र आदि सब को सदगुरु प्यारा लगता हैं।
३
जगदगुरु
जगद्गुरुं च
शाश्वतम्'
कृष्णम वन्दे
जगतगुरु
जगदगुरु वह
हैं जिस की दुनिया में जय जय कार होती हैं, गुरु देव समर्थ।
४ धर्म गुरु
बहुदा ऐसा होता
हैं कि धर्म गुरु से लोग डरत हैं, धर्म गुरु सब को डराते है कि तुम्हे पाप लगेगा वगेरे
वगेरे।
५ कूल गुरु
कभी कभी कूल
गुरु विपरीत होता हैं तब आश्रित विद्रोह करता हैं। भगवान राम के रवि कूल में समुद्र
को कूल गुरु का दरज्जा मिला हैं, लेकिन जब समुद्र मार्ग नहीं देता हैं तब भगवान राम
विद्रोह करते हैं।
दैत्यो के कूल
गुरु शुक्राचार्य जब बलिराजा दान करने जाता हैं तब बाधा डालते हैं, दंडित होते हैं।
बलि विद्रोह करके गुरु को त्याग देता हैं।
६ कपटी गुरु
कभी कभी शास्त्रो
के द्रारा, सम्यक चिंतन के द्वारा ईश्वर थोडा सा समज में आ भी जाता हैं लेकिन गुरु
समजमें नहीं आता हैं। ईसी लिये कहा गया हैं कि “ગુરુ તારો પાર ન પાયો”.
गुरु
का पार पाना बहुत कठिन हैं। गुरु बेबुज हैं, गुरु गुढ हैं, गुरु निगुढ हैं, गुरु विगुढ हैं, गुरु सुगुढ हैं। गुरु अवर्णनीय हैं, अक्थ्य
हैं, अवाख्य हैं, शब्दातीत हैं, वर्णातीत हैं। गुरु समज में आता ही नहीं हैं ईसी लिये
गुरु को समजने की जीद भी न करनी चाहिये। गुरु हमें समज ले यह पर्याप्त हैं।
जैसे नियती
समज में नहीं आती हैं वैसे ही गुरु भी समज में नहीं आता हैं।
बुद्ध पुरुष
वाह हैं जिस को देखता भी हैं और नहीं भी देखता, सुनता भी हैं और नहीं भी सुनता, बोलता
हैं फिर भी चूप हैं। गुरु सुंदर हैं।
ईसी लिये गुरु
का पार नहीं पाया जाता।
43 06/05/2020
आज भगवान नृसिंह जयंति हैं।
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥
नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की, जिससे प्रह्लाद, भक्त शिरोमणि हो गए॥2॥
परमात्मा की कृपा से भक्त प्रहल्लाद
भक्त शिरोमणि बन जाता हैं। भरत भी भक्त शिरोमणि हैं।
भगत सिरोमनि
भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥
फिर भरतजी तो भक्तों
के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल
न डरो॥219॥
गरुड भी भक्त शिरोमणि हैं।
दो.-ग्यानी
भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
जो ज्ञानीयोंमें और भक्तोंमें शिरोमणि
हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया।
प्रहल्लाद का बचपन कष्ट मय रहा लेकिन
जीवन ईष्टमय रहा।
जगत पानी एक पियाउ – परब हैं, लोक आते
हैं, पानी पिते हैं और चल जाते हैं।
परम तत्व का निर्णय समज में नहीं आता
हैं।
લેખ કાગળ લખ્યા તાત પ્રહલાદ ને કાળ ને જીતવા કલમ ટાંકી,
વર્ષ ના વર્ષ વિચાર કરીને લખ્યુ, માગતા નવ રહ્યુ કાંઇ બાકી.
દેવ સૌ પાળતા સહી વિરંચી તણી દેવ નો દેવ એ જગત થાપે.
રદ બન્યા કાગળો એક એવી ગતિ ફેંસલો નાથ નરસિંહ આપે.
દુલા ભાયા કાગ,
हरि
ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
नारद प्रहल्लाद और ध्रुव जो छोटे बालक
हैं उसके गुरु हैं और वाल्मीकि और व्यास जो बुढे हई उस के भी गुरु हैं।
भक्त शिरोमणि सहन कारने में कठोर होता
हैं और शरणागति में कोमल होता हैं।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से उपर की
कक्षा जिसकी हैं वह चतुर शिरोमणि हैं।
मन, बुद्धि, चित और अहंकार को लांघ लेता
हैं वह चतुर शिरोमणि हैं।
44 07/05/2020
आज बुद्ध पूर्णिमा हैं। आज कवीवर रवीन्द्रनाथ
टागोर की भी जन्म जयंति हैं।
आज का दिन भगवान बुद्ध का जन्म दिन और
निर्वाण दिन भी हैं।
जन्मदात्री मा करुणामूर्ति हैं।
आध्यात्म मार्ग में हारने का बहुत महत्व
हैं। जो हार स्वीकार करता हैं वह जीता हुआ ही हैं।
बुद्ध को (अपने पूर्वाश्रम की घटना)
हारना बहुत पसंद था।
जिस के जीवन में से आधी (बुढापा), व्याधी
(रोग, बिमारी) और उपाधि (मृत्यु, पदवी) चली जाने के बाद जो शेष रह जाता हैं वह समाधि
हैं। मृत्यु एक उपाधि हैं, एक पदवी हैं, एक स्थिति हैं।
शरीर रोगालय हैं।
प्रेम का अभाव ही द्वैष हैं।
बोध का अभाव ही क्रोध हैं।
प्रकाश का अभाव ही अंधेरा हैं।
त्याग की एक महिमा हैं, त्याग अमृत हैं।
बुद्ध करूणामय हैं।
संसार में रह कर उदास मत रहना लेकिन
एकान्त में और भीतरी सदा उदास रहना चाहिये।
अपने बुद्ध पुरुष की आंख में समस्त विश्व
समाहित हैं।
विषयी सुख का त्याग करो, आनंद का त्याग
नहीं करना हैं।
सरल बोली, सरल वेश और सरल व्यवहार होना
चाहिये।
45 08/05/2020
ईश्वर रुपियो से नहीं मिलता हैं।
कातर पुकार, कातर भाव बुद्ध पुरुष तक
पहुंचती हैं।
साधु पुरूष बुद्ध पुरुष को आश्रित की
समस्या का पता लग जाता हैं। उसके लिये अखंड भरोंसा होना चाहिये।
बुद्ध पुरुष उस का शरीर छोड देनेके बाद
भी आश्रित को सहाय करनेके लिये हाजीर रहता हैं।
आश्रित के वर्ग क्या हैं?
भगदव गीता परम सत्य हैं, श्रीमदभागवत
परम प्रेम हैं और राम चरित मानस परम करुणा हैं।
46 09/05/2020
कातर पुकार एक टेलीपथी हैं जो व्यक्ति
नहीं सुनता हैं लेकिन व्यक्तित्व जरुर सुनता हैं, अस्तित्व सुनता हैं।
मौन का पहला स्तर में बहार की आवाज बहुत
सुनाई देती हैं, मौन जब मध्यम में पहुचता हैं तब बहार की आवाज नहीं सुनाई देती हैं,
उस वक्त भीतर से बहुत आवाज आती रहती हैं, मौन जब अनंत स्थिति में पहुंचता हैं तब बहार
की आवाज नहीं सुनाई देती हैं और अंदर की आवाज भी नहीं सुनाई देती हैं, यह अवस्था बहुत
मंगलमय हैं साथ ही भयभीत करने वाली भी हैं, यह अवस्था में एक नितांत सन्नटा होता हैं,
इस सन्नाटे को सहन करना हमारे शरीर की क्षमतासे बहार हैं, हमारी मानसिक क्षमता भी यह
सह नहीं कर पाती हैं, अखंड हरि स्मरण और गुरु कृपा ही इस समय साधक को काबुमें रख शकती
हैं, साधक बहुत परेशान होता हैं, जब साधक यह स्थिति गुरु कृपासे पार कर देता हैं तब
अनंत मौन का भाग्य साधक बन जाता हैं।
अस्तित्व सुनता हैं।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥
अस्तित्व के कान दशो दिशा हैं।
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥2॥
अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥2॥
परमात्मा पहले सुननेवाला को बनाता हैं
फिर बोलनेवालो को मुखर करता हैं।
जैसे मा के आंसु गिरते हैं वैसे ही गुरु
और अस्तित्व के आंसु भी गिरते हैं। ऐसे आंसु जगानेवाले आंसु होते हैं।
मार्गी परम सत्य के मार्ग पर, परम प्रेम
के मार्ग पर, परम करुणा के मार्ग पर चलता हैं।
सिमरन, स्मरण, विस्मरण भी सोने नहीं
देता हैं।
अध्यात्म ज्यादा चर्चा करे तो आध्यात्म
संसार हो जाता हैं और अगर संसार ज्यादा मौन रहे तो संसार आध्यात्म हो जाता हैं।
अति सोने वाला और अति जागने वाला प्राप्त
करने से वंचित रह जाते हैं।
भजन के कारण जो सो नहीं पाता हैं वह
सुबह में ज्यादा स्फुर्तिमय रहता हैं, ज्यादा प्रसन्न रहता हैं।
संसार के लिये प्रयास जरुरी हैं, आध्यात्म
में प्रसाद जरुरी हैं, प्रसाद से कुछ भी हो शकता हैं।
श्रम और विश्राम दोनो सोने नहीं देते
हैं।
साधु मन, साधु वचन, साधु कर्म, मन का
साधु, वचन का साधु, कर्म का साधु,
साधु कूल में जन्म एक गौरव हैं।
राम चरित मानस में मन का साधु भगवान
राम हैं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने।
राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ
मोर भल ताका।
तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥4॥
भावार्थ:-राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और राम की माता भी भली है, मैंने सबको पहचान लिया है। कौसल्या
ने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके (याद रखने योग्य)
उन्हें वैसा ही फल दूँगी॥4॥
राम का मन का साधुपना कायम रहता हैं।
महादेव वचन के साधु हैं।
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥
हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
महादेव निरंतर वचन के साधु हैं।
हनुमानजी कर्म के साधु हैं।
राम
काज करी बेको आतुर
कवन
सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥
जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो
हे तात! तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है।
यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार के (अत्यंत विशालकाय) हो गए॥3॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना।
मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ
रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥4॥
शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी
के सब कुतर्कों की रचना मिट गई। श्री रघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास
हो गया और कठिन असम्भावना (जिसका होना- सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही!॥4॥
महादेव वचन के साधु हैं, त्रिभुवन गुरु
हैं।
बंदउँ
गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह
तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना
करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी
घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
हालाकि राम, महादेव और हनुमान सब मन,
वचन और कर्म के साधु भी हैं।
हनुमानजी निरंतर सेवा परायण हैं।
कथा कहना और कथा श्रवण भी सेवा हैं।
साधु को कोई विशेष गणवेश की जरुरी नहीं
हैं।
साधु को कोई रक्षक की जरुर नहीं हैं।
साधु संत के तुम्ह रखवाले
आओ हम सब परम तत्व से प्रार्थना करे
कि हमें कोई संत फकिर मिल जाय जो मन का साधु हो, वचन का साधु हो और कर्म का साधु हो,
जो मन से पुर विश्व के लिये निरंतर संवेदना और सदभाव रखें, वचन से दुनिया के भ्रम,
दुनिया के मोह, दुनिया के संदेह, दुनिया के फरेब, चमत्कार, परचा वगेरे वचन से तोड दे,
और कर्म से कहीं गुफा में अकेले बैठे हुए पुरे विश्व की सेवा करे।
मिले कोई ऐसा संत फकिर ….
47 10/05/2020
या
देवी सर्वभूतेषु मातृ-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
पुत्र कुपुत्र होता है लेकिन माता कभी
कुमाता नहीं होती ।
आज वैश्विक मातृ दिन हैं।
सब से पहले मातृ देवो भव सूत्र आया हैं।
सब को अपनी मा महान लगती हैं, लगनी ही
चाहिये। मा एकाक्षर मंत्र हैं, सवाक्षर मंत्र हैं। मा मा दो बार पुकारने से ढाई अक्षर
हो जाता हैं जो प्रेम हैं।
आदि शंकर का मा के अंतिम समय पर आना
उनका मातृ प्रेम हैं, मातृ महिमा हैं।
जनकसुता
जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके
जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और
करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं
मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥
मातृ शरीर के तीन रुप - कन्या, विवाहिता,
माता हैं। माता शिष्या भी बन शकती हैं। देवहुती शिष्या बन कर उपदेश ग्रहण करती हैं,
माता अपने संतान की मित्र भी बन शकती हैं। मा गुरु भी बन जाती हैं। मा अनेक रुपरुपाय
हैं। मा की संतान के साथ की मैत्री में संतत्व हैं। मा आनंद मूर्ति हैं। आनंद को ब्रह्म
का दरज्जा मिला हैं। मा करुणा का पर्याय हैं। मा गुरुओ की भी गुरु हैं। मा अश्रु बहाती
हैं, पसीना भी बहाती हैं। मा को प्रसन्न करने के बाद ही आध्यात्म में प्रवेश मिलता
हैं। मा ईश्वरत्व देती हैं। मा ईश्वर को भी मानवत्व देती हैं।
माता
पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै
सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
कौशल्या भगवान
को मानव बनने के लिये कहती हैं। मा के कहने पर परमात्मा ने चतुर्भूज रुप हटा दिया,
ईश्वरत्व हटा दिया, ब्रह्मत्व भी हटा दिया और मानवत्व स्वीकार किया। यह विश्व के लिये
संदेश हैं, प्रभु के लिये आदेश था। भजन करनेवालो के लिये यह उपदेश हैं।
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज
अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो
पार॥192॥
ब्राह्मण, गो,
देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया
और उसके गुण (सत्, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य)
शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों
के द्वारा नहीं)॥192॥
मा ही ब्रह्मण
हैं, मा ही बालक को नाल को काटकर द्विजत्व देती हैं।
प्रभु मा के
लिये अवतार लिया हैं और कैकेयी मा के लिये वनवास स्वीकार किय।
आदि शंकर कहते हैं … कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि
कुमाता न भवति ।
हालाकि भरत
मा को कुमाता कहते हैं।
कौशल्याने मा
ने भगवान को जन्म दिया, कैकेयी मा ने भगवान को द्विजत्व दिया।
गाय भी माता
हैं। पुरी जल राशी को भी मातृत्व दिया हैं।
मा देवता भी
हैं, मातृ देवो भवः।
साधु के लक्षण
मा में दिखते हैं। मानस की कौशल्या में ब्राह्मणत्व हैं, गो जैसी गरीबी हैं।
मा का विग्रह
सात तत्वो से बनी हैं, मा मानवेत्तर हैं।
तुलसी मानस
को मा कहते हैं।
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि
सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति
प्रेम परमिति सी॥7॥
यह रामकथा शिवजी
को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण
रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी
की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥
राम कथा मा
हैं। हरि कथा मा भी हैं, बाप भी हैं।
मा का विग्रह
सप्त तत्व से भरा हैं। मा की दो आंखे समता और ममता हैं। मा ममता की मूर्ति हैं, लेकिन
मा समता नहीं छोडती। समता और ममता संत का लक्षण हैं, ममता की छाया में समता आना मुश्किल
हैं, लेकिन समता की छाया में ममता परम साधना हैं। मा की दाई आंख समता हैं और बाई आंख
ममता हैं।
ममता होनी चाहिये
लेकिन समता की छांव में।
मा के दो हाथ
हैं, एक हाथ वरद हैं और दुसरा हाथ अभय हैं, मा के हाथ वरदान देती हैं और अभयत्व भी
देती हैं।
दो हाथो से
ताली बजाना ब्रह्म का संकिर्तन हैं लेकिन दो हाथो से रोटी बनाके भूखे को खिलाना साक्षात
ब्रह्म हैं। मा के दो चरण आचरण और समर्पण हैं। मा विश्व के लिये संपूर्ण आचार संहिता
हैं। मा का त्याग जबरदस्त होता हैं। मा क ह्नदय परम सत्य, परम प्रेम और परम करुणा से
भरा हुआ हैं।
परम ग्रंथ को
हम मा कहते हैं। गीता मा हैं, मानस मा हैं।
शिवरात्रि हमारा
फाधर्स डे हैं।
हमारे संविधान
के एक पन्ने उपर भगवान कृष्ण की छबी हैं, नटराज की छबी हैं, राम की भी छबी हैं।
हम भारत माता
कहते हैं।
हमारा मधर्स
डे नवरात्रि हैं।
मानस में लिखा
हैं ….
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु
भगत हितकारी।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।2।।
अतः हे भक्तों
के हितकारी ! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिये नहीं। मेरे तो स्वामी,
गुरु, माता सब कुछ आप ही हैं आपके चरणकमलोंको छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ ?।।2।।
जिसके पास सदगुरु
हैं उसकी मा कभी मरती नहीं हैं।
मा हम सब को
सनाथ रखती हैं।
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ઋગ્વેદથી લઈને મનુસ્મૃતિ સુધી બધાએ માતા વિશે જણાવ્યું છે
'नास्ति
मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति
मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।'
माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता
के
समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय नहीं है।।
माता
यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी।
अरण्यं
तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥
जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले
जाना
चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।
उपाध्यायान्
दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं
तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।।
(मनुस्मृति)
दस उपाध्यायों से बढ़कर एक आचार्य होता है, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता
होता
है और पिता से हजार गुणा बढ़कर माता गौरवमयी होती है।
सर्वतीर्थमयी
माता सर्वदेवमयः पिता ।
मातरं
पितरं तस्मात सर्वयत्रेन पुतयेत् ॥
माता सभी तीर्थों और पिता सभी देवताओं का स्वरूप है । इसलिए सब तरह
से
माता-पिता का आदर सत्कार करना चाहिए ।
जननी-जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी।
जननी (माता) और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ एवं महान है
।
तीर्थस्तरन्ति
प्रवतो महिः।
માતા પૃથ્વી સમાન જ બધા તીર્થોથી યુક્ત છે.
मातृमीहि
स्वतवः।
માતા જ શક્તિશાળી છે.
पिता
माता मधुवचाः सुहस्ता भरेभरे नो यशसावविष्टाम् ॥
माता
किल मनुष्याणाम् देवतानाम् च दैवतम्।
માતા માત્ર મનુષ્યોની જ નહીં, દેવતાઓની પણ ભાગ્ય અથવા દૈવ કહેવામાં
આવી છે.
माता
गुरूतरा भूमेः।
માતા આ ભૂમિથી અનેક ગણી વધારે ભારે હોય છે.
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48 11/05/2020
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर
सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥1॥
हे मुनि! सुनो,
समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं
और वह बड़ा ही प्रचण्ड शूरवीर था॥1॥
दश मुख का मतलब
रावण हैं और दशरथ का मतलब दशरथ राजा हैं।
“मानस रावण”
पर १० कथाए हुई हैं।
आज का संवाद
दश मुख के बारे में हैं।
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि
रावन अवतारा।।4।।
फिर नारद जी
का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा।।4।।
અસત્યો
માંહેથી પ્રભુ
! પરમ સત્યે
તું લઈ
જા,
ઊંડા
અંધારેથી, પ્રભુ
! પરમ તેજે
તું લઈ
જા;
मुख का एक अर्थ
चहरा भी होता हैं।
मुख भोग का
प्रतीक हैं और रथ संयम का प्रतीक हैं।
मुख प्रेय का
मार्ग – संसार की सभी क्रिया का मार्ग हैं और दुसरा श्रेय का मार्ग हैं- परम कल्याण
का मार्ग हैं। भोग को पकडनेवाला का भगवान छूट जाता हैं। दशानन का मार्ग प्रेय का मार्ग
हैं और दशरथ का मार्ग श्रेय का मार्ग हैं। बिना दर्पण अपना मुख दिखाई नहीं देता हैं।
रावण का एक
मुख निंदा मुख हैं। वह निंदा करता हैं। जो दूसरो की निंदा करता हैं वह रावण हैं।
जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥
हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप
गोघात समाना॥1॥
जब उसने श्री
रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा
कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान् विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध
के समान पाप होता है॥1॥
गुरु निंदा
छोडने को कहेगा लेकिन नींद्रा छोडने को नहीं कहेगा।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।पर निंदा
सम अघ न गरीसा।।11।।
वेदोंमें अहिंसा
को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।।1।।
रावण क दूसरा
मुख मुखरता हैं। रावण बहुत बोलता हैं। जो बहुत बोलता हैं उस में संवाद नही आता हैं,
दुर्वाद की मात्रा ज्यादा रहती हैं।
अति का भला न बोलना, अति की भली न
चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न
धूप।।
संत कबीर दास
जी कहते हैं कि अति हर चीज़ की हानिकारक होती है. ज्यादा बोलना अथवा ज्यादा चुप रहना
व्यक्ति के लिए हानिकारक सिद्ध हो जाता है, जिस प्रकार ज्यादा बरसात होना अथवा ज्यादा
तेज़ धूप होना दोनों ही इस सृष्टि के संतुलन के लिए नुक्सानदायक है ।
स्मृति प्रसाद
से आती हैं।
रावण का तिसरा
मुख जलपना – एलफेल बोलना हैं।
रावण का चौथा
मुख अहम गर्जन हैं, अपने अहंकार का गर्जन करना।
रावण का पाचवा
मुख प्रलाप – निंदा करना, क्रोध करना और उस वख्त आंसु आ जाय और बोलने लगे वह प्रलाप
हैं।
रावण का छठ्ठा
मुख असत्य हैं।
रावण का सातवा
मुख दुर्मुख हैं – प्रतिशोध करने के लिये जो चहरेका भाव आता हैं वह मुख।
रावण का आठवा
मुख ग्रास मुख हैं – सब कुछ बेईमानी से खा जाना।
रावण का नवमा
मुख सर्व भक्षा हैं। रावण का एक मुख भीम रुप हैं – भयानक रुप वाला मुख।
रावण का दसवा
मुख वेद मुख हैं, रावण वेद का पाठ करता हैं।
अगर हमारे में
एसा कोई मुख हैं तो हम दानव हैं, मानव नहीं हैं।
दानव, मानव
और देव की परिभाषा
दानव का द का
अर्थ हैं हे दानव तुं दुसरो पर दया कर।
देवता का द
का अर्थ हैं हे दानव तुम्हारे पास बहुत भोग हैं उसमें थोडा दमन करो, सम्यक बनो।
मानव का द का
अर्थ हैं उसका अर्थ हैं हे मानव तुम्ह दान करो।
हमें दया करनी
चाहिये, सम्यकता रखनी चाहिये, निराश न होना चाहिये, धैर्य रखना चाहिये और कुछ दान करना
चाहिये। अगर कु्छ नहीं हैं तो संवेदना बताओ। किंमत बढाकर माल नहीं बेचना चाहिये, गेरलाभ
लेना नहीं चाहिये।
49 12/05/2020
आज दशरथ के बारे में संवाद हैं।
श्रेय मार्गी अवधपति को अंत समय में
भगवान का दर्शन नहीं होता हैं और प्रेय मार्गी रावण को अंत समय में भगवान के दर्शन
होते हैं। ऐसा क्यों हुआ?
हा रघुनंदन
प्रान पिरीते।
तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर।
हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥
हा
रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण!
हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ!॥4॥
दशरथ का रामनाम का सिमरन अखंड रहा हैं।
राम के दर्शन से राम का सुमिरन ज्यादा महत्व का हैं। रावण कहता हैं कि मेरे से भजन
नहीं होगा। दर्शन से सुमिरन महत्व का हैं।
हनुमानजी कहते हैं ….
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन
भजन न होई॥
केतिक
बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥
हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति
तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप
शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे॥2॥
स्मिरन निष्काम होता हैं। श्रेय मार्ग
निष्काम होता हैं, प्रेय मार्ग सकाम होता हैं।
दशरथ क्या हैं?
मनोरथ एक रथ हैं। वैष्णव मनोरथ करते
हैं लेकिन उस को पुरा करना हरि के हाथ में हैं। दशरथ अपने अगले जन्म में परमात्मा को
पुत्र रुप में पानेका मनोरथ करते हैं।
बंदउँ
अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत
दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना
करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु
के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥16॥
दशरथ और अयोध्या के प्रजाजनो का राम
को राजा बनानेका मनोरथ पूर्ण नहीं होता हैं।
हमारा किया हुआ मनोरथ पुरा हो जाय तो
वह हरि कृपा हैं और अगर न हो तो हरि ईच्छा, भावि बलवान हैं।
दशरथ का दूसरा रथ धर्म रथ हैं। धर्म
रथ के बहुदा विभाग दशरथ में हैं।
शौर्य और धैर्य दशरथ में हैं। दशरथ में
सत्य और शील हैं।
तीसरा पहलु देव रथ हैं। दशरथ देव रथ
के वाहन में लंका के रण मेदान में रावण के अंत समय सुर लोक से आते हैं।
दशरथ के रथो की गति दशो दिशा में हैं।
दशरथ का चौथा रथ जीवन रथ हैं।
यह जीवन एक रथ हैं जिस के दो पहिये पति
और पत्नी हैं।
रथ में एक सारथी और एक रथी होता हैं।
रथ, सारथी और रथी एक त्रिकोण हैं, यह तिनो आवश्यक हैं।
पिता, पुत्र संतान और पत्नी – माता के
यह जीवन रथ में पिता सत्य हैं, पुत्र प्रेम हैं और माता करुणा हैं। पिता राम – सत्य
हैं, सीता – माता करुणा हैं और पुत्र हम सब हैं – प्रेम हैं। प्रेम रुपी पुत्र को सत्य
के पीछे पीछे चलना चाहिये, संतान को द्वी धर्मी का वहन करना पडता हैं। प्रेम रुपी पुत्र
(पुत्री) को पिता – सत्य का अनुगमन करना चाहिये और माता – करुणा की आज्ञा का पालन करना
चाहिये। पिता रथ हैं, पुत्र रथी हैं और माता सारथी हैं। यह जीवन रथ का रहस्य हैं।
अथर्ववेद की रुचा …..
अनुव्रतः
पितु पुत्रो, मात्रा (माता) भवतु संमनाः।
संतान को पिता की प्रवाही परंपरा निभाना
चाहिये और माता की आज्ञा का पालन करे। प्रेम को सत्य के मार्ग पर अनुगमन करना चाहिये
और करुणा की आज्ञा कबुल करे – हिंसक न बने। आध्यात्मिक बाप वह हैं जो सत्य स्वरुप होता
हैं, आध्यात्मिक मा वह हैं जो करुणामूर्ति हैं और आध्यात्मिक पुत्र – पुत्री वह हैं
जो प्रेम स्वरुप हैं। यह जीवन रथ की एक रुप रेखा हैं। राम अपने सत्य व्रती पिता का
अनुगमन करके उनके वचन का पालन कारते हैं, और कैकेयी माता की आज्ञा का पालन करते हैं।
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥
वन
में विशेष रूप से मुनियों
का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी प्रकार
से कल्याण है। उसमें भी, फिर पिताजी
की आज्ञा और हे जननी! तुम्हारी सम्मति
है,॥41॥
सुनु
जननी सोइ
सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा॥4॥
हे
माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी
है, जो पिता-माता
के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा
पालन द्वारा) माता-पिता
को संतुष्ट करने वाला पुत्र,
हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥4॥
जाया
पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्॥
जाया – पत्त्नी, पत्ये – पति
जीवन रथ को ठीक रखने के लिये पत्नी को
पति की सामने मधुर वचन बोलने चाहिये।
गीता में कहा हैं जिसकी मन और ईन्द्रीय
बेकाबु हैं, सम्यकता नहीं हैं, उसके बिद्धि
में सदभावना का जन्म नहीं होगा, वह दुर्भाव से पीडित रहेगा।
नास्ति
बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न
चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
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नास्ति
बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न
चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं,
ऐसे मनुष्यकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होनेसे उसमें
कर्तव्यपरायणताकी भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर
शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
(संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान
नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति
नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ
जिसका मन और इन्द्रियाँ संयमित नहीं
है, ऐसे अयुक्त (असंयमी) पुरुषकी 'मेरेको केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है ऐसी एक निश्चयवाली
बुद्धि नहीं होती (टिप्पणी प0 103.1) । कारण कि मन और इन्द्रियाँ संयमित न होनेसे
वह उत्पत्ति-विनाशशील सांसारिक भोगों और संग्रहमें ही लगा रहता है। वह कभी मान चाहता
है, कभी सुखआराम चाहता है, कभी धन चाहता है, कभी भोग चाहता है--इस प्रकार उसके भीतर
अनेक तरहकी कामनाएँ होती रहती हैं। इसलिये उसकी बुद्धि एक निश्चयवाली नहीं होती।
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जीवन रथ में भावना चाहिये, और भावना
मधुर बोली से आती हैं।
दशरथ का पांचवा रथ राम रथ हैं।
दशरथ का राममय जीवन हैं।
राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि
रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्री राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक
को सिधार गए॥155॥
दशरथ राम रथ के रथी हैं।
मानव में कमजोरियों होती ही हैं।
मो
सम कौन कुटिल खल कामी।
दशरथ काम रथ के भी रथी हैं।
महाराणी कैकेयी को राजी करने के लिये
जिस तरह दशरथ (जो एक मानव हैं) कदम ऊठाते हैं वह बताता हैं कि दशरथ काम रथ के रथी हैं।
कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ।
भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें।
नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥
कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र
जिनकी भुजाओं के बल पर (राक्षसों से निर्भय होकर) बसता है और सम्पूर्ण
राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं॥1॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई।
देखहु काम प्रताप
बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥2॥
वही राजा दशरथ स्त्री
का क्रोध सुनकर सूख गए। कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिए। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि की चोट अपने अंगों पर सहने वाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव
के पुष्पबाण से मारे गए॥2॥
काम रस दशरथ के जीवन का एक पहलु हैं।
दशरथ का सातवा रथ भगीरथ हैं। भगीरथ दशरथ
के पूर्वज हैं, जो गंगा का अवतरण कराते हैं। भगीरथ परम पुरुषार्थ का प्रतीक हैं।
आठवा रथ स्वर्गरथ हैं, निर्वाण का रथ
हैं।
शरीर भी एक रथ हैं, देह रथ हैं जिसके
पहिये दो पेर हैं, हाथ – कर्म बागडोर हैं, नजर - आंख सारथी हैं।
कदम ऊठाते समय विवेक रखना चाहिये।
दशरथ का दशवा रथ अभीरथ हैं – वर्तमान
रथ हैं, संकल्प का रथ हैं।
धर्म को भी ग्लानि होती हैं।
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
दशरथ जो धर्म धुरंधर हैं उनको भी ग्लानि
होती हैं।
एक
बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
अभीरथ गति शीलता का प्रतीक हैं।
50 13/05/2020
बाल कांड में राम के नाम वंदना का वर्णन
…
बंदउँ
नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि
हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥
मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना
करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्
'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों
का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥
७२ पंक्ति ओ का नाम महिमा का गायन में
प्रभाव, प्रताप और प्रसाद का क्या महत्व हैं?
सुबह का लाल वर्ण का सुर्य से पांचो
तत्व प्रभावित होते हैं, जब लालिमा कम होने के बाद सब चिजे चमकने लगती हैं, फूल विकसित
होते हैं जो दूसरी अवस्था हैं।
भाव शितल होता हैं, प्रताप थोडा ऊष्ण
होता हैं।
फूल की खूशबु फैल जाती हैं।
प्रताप सत्य हैं, सत्य तपाता हैं, सत्य
कसोटी करता हैं।
प्रभाव प्रेम हैं जहां भाव का विशेष
प्रमाण हैं।
प्रसाद कारुणा हैं।
राम नाम में प्रभाव, प्रताप और प्रसाद
तीनो में कोई एक को कई कई लोग पाते हैं।
नाम के प्रभाव में आंखे नम जो जाती हैं,
नाम संकिर्तन होता हैं वहां राम नाम का प्रभाव हमारे उपर पडता हैं, जब नाम का प्रताप
होता हैं तब हम नर्तन करते हैं, झुम जाते हैं, ह्मदय कमल विकसित होने लगता हैं, जब
कि नाम का प्रसाद हमें कृपा में डूबा देता हैं।
स्वामी शरणानंदजी के मानवता के ११ सिद्धांत
…
१ आत्म-निरीक्षण, अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश
में अपने दोषों को देखना।
दररोज आत्म
निरीक्षण करो. विवेक सतसंग और शाश्त्र अध्यन, गुरु कृपा से प्रसाद से मिलता हैं। अपने
विवेक के प्रकाश में अपने दोषो को देखना। अविवेक में हम अपना दोष नहीं देखते हैं, दूसरो
के दोष देखते हैं।
कपटी कायर कुमति कुजाती।
लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥
मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि
और कुजाति हूँ और लोक-वेद
दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब से श्री रामचन्द्रजी ने मुझे अपनाया
है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया॥1॥
२ की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर, सरल
विश्वासपूर्वक प्रार्थना करना।
अपनी भूल न
दोहराने का व्रत लेकर विश्वासपूर्वक प्रार्थना करो.
वर्ण भेद, जाती
भेद, मजहब देखे बिना सेवा करो।
भूल करो, खूब
करो लेकिन बारबार न करो।
३ विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास प्रयोग का दूसरों
पर, अर्थात् न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर।
खुद की खोज
करो और खुदाई की सेवा करो।
क्षमा दूसरो
को करो
४ जितेन्द्रियता, सेवा, भगवदच्चिन्तन और सत्य की खोज
द्वारा अपना निर्माण।
अपनी इन्द्रियो
के साथ सम्यकता रखो। सेवा करो लेकिन अगर स्मरण नहीं होगा तो सेवा अहंकारी हो जायेगी।
और इस के द्वारा सत्य की खोज करना।
५ दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों की उदारता
को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल, न मानना।
संग सती जगजननि
भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
सत्य जहां से
मिले स्वीकार करो।
६ पारिवारिक तथा जातीय सम्बन्ध न होते हुए भी, पारिवारिक
भावना के अनुरुप ही पारस्परिक सम्बोधन तथा सद्भाव, अर्थात् कर्म की भिन्नता होने पर
भी स्नेह की एकता।
वसुधैव कुटुंबकम्
।
७ निकटवर्ती जन-समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक रुप से
सेवा करना।
रचनात्मक, क्रियात्मक
सेवा करना, सिर्फ वचनात्मक सेवा न करना।
एक दूसरे से
अंतर बनाये रखो।
मझा छे दूर
रहेवामां ….
કવિ ત્રાપડકર
કહે છે …..
કહુ છુ પ્રેમીઓ ઓ ભોળા મજા છે દુર રહેવા મા
સમીપે સંતાપો જાજા મજા છે દુર રહેવા મા !
ઊગે આકાશે ભાનુ કમળનુ મુખડુ મલકે
રવિ ને સ્પર્શવા કરતા મજા છે દુર રહેવા મા !
બજે જયાં બિન મીઠુ ત્યાં ન હરણી આવજે પાસે
વિંધાવુ બાણથી પડશે મજા છે દુર રહેવા મા !
ચકોરી દુર થી નાચે ન ઊડી ચંદ્ર ને ભેટે
કલંકો દેખવા કરતા મજા છે દુર રહેવા મા !
પતંગો ના કદી સમજે અગર સમજે તો કહી દેવુ
દિપક મા દાઝવા કરતા મજા છે દુર રહેવા મા !
તજી ને ગોપીઓ ઘેલી વસ્યા શ્રી કુષ્ણ દ્વારકા
પ્રભુએ પણ પીછાણ્યુ કે મજા છે દુર રહેવા મા !
કહુ છુ પ્રેમીઓ ભોળા મજા છે દુર રહેવા મા !
મનની નિકટતા
રાખો.
८ शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहार में संयम
तथा दैनिक कार्यों में
स्वावलम्बन।
स्वावलम्बन।
हमारी शारीरक क्षमाता के अनुसार आहार विहार और
संयम रखो. दूसरो की
देखादेखी न करो।
देखादेखी न करो।
९ शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी
तथा अहम् को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना।
शरीर को कुछ श्रम करना चाहिये, शरीर श्रमी होना
चाहिये, मन, बानी, कर्म से भी शरीर श्रम हो शकता हैं। बुद्धि विवेकी होनी चाहिये। ह्मदय
प्यार से भरपुर होना चाहिये।
१० सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक
तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना।
१०० रुपिये से खरीदा हुआ घेहु ज्यादा महत्व का
हैं। कोई चिज से व्यक्ति महान हैं, विवेक से सत्य महान हैं। सत्य गौरीशंकरई शिखर हैं।
सत्यम् परमधिमहि।
११ व्यर्थ-चिन्तन-त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा
भविष्य को उज्जवल बनाना।
जरुरी न हो ऐसा चिंतन न करो।
51 14/05/2020
स्वामी शरणानंदजी के ११ सूत्रो में से
कुछ कम सुत्र जो निभाना सरल हो।
यह ११ सूत्र स्मरणीय हैं और आचरणीय भी
हैं।
साधु किसान हैं, किसान बोता हैं और पौधे
को संभालता हैं, वैसे ही साधु भी हमारे
क्षेत्र का किसान हैं, साधु त्रिभुवनीय किसान हैं।
क्षेत्र का किसान हैं, साधु त्रिभुवनीय किसान हैं।
महाबृष्टि
चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी
निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥4॥
भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट
चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़
जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर
फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं॥4॥
जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर
फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं॥4॥
साधु सेवक होता हैं।
साधु के अश्रु अमृत का काम करता हैं।
साधु मन, बुद्धि, चित से सेवा करता हैं।
साधु में अहंकार नहीं होता हैं। साधु वैद्य
हैं।
हैं।
साधु के स्पर्श करनेसे हमारी पीडा दूर
हो जाती हैं।
मानस में कहा हैं ….
एक
रूप तुम्ह भ्राता दोऊ तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
कर
परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥3॥
(श्री रामजी ने कहा-) तुम दोनों भाइयों
का एक सा ही रूप है। इसी भ्रम से मैंने
उसको नहीं मारा। फिर श्री रामजी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया,
जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही॥3॥
उसको नहीं मारा। फिर श्री रामजी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया,
जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही॥3॥
सदगुर
बैद बचन बिस्वासा।
साधु रक्षक हैं।
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ
पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥
राज्य का सब कार्य,
लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर- इन सभी का
पालन (रक्षण) गुरुजी का प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा
305॥
पालन (रक्षण) गुरुजी का प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा
305॥
सहित समाज तुम्हार हमारा।
घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥
मातु पिता गुर स्वामि
निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥
गुरुजी का प्रसाद (अनुग्रह)
ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा
और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा (का पालन)
समस्त धर्म रूपी पृथ्वी को धारण करने में शेषजी के समान है॥1॥
और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा (का पालन)
समस्त धर्म रूपी पृथ्वी को धारण करने में शेषजी के समान है॥1॥
हम साधु की परिकम्मा कहां कर शकते हैं?
असल में तो साधु ही हमारी परिकम्मा
करता हैं।
करता हैं।
साधु खोजक – शोधक – वैज्ञानिक हैं।
साधु रहस्योंका उदघाटन करता हैं।
बुद्ध पुरुष और ईश्वर हमें प्राप्त हैं,
सिर्फ उनकी पहचान बाकी हैं, हम उन्हें
पहचान नहीं शकते हैं।
पहचान नहीं शकते हैं।
साधु पुरुष सब सूत्रो को पालन करने का
आग्रह नहीं रखता हैं, वह चाहता हैं
जितने सूत्रो का पालन हो शके उसका पालन करो।
जितने सूत्रो का पालन हो शके उसका पालन करो।
स्वामीजी के पांच सूत्र आज की परिस्थिति
में पालन करना चाहिये।
जिसको कोना - ખૂણો पर भरोंसा
हो उसे कोरोना क्या कर शकता हैं?
साधु समर्थ होते हुए भी सेवक रहता हैं।
स्वामीजी के ११ सूत्रो में से कम करने
के लिये एक जिज्ञासु के उत्तरमें पांच सूत्र जो
बापुने चुने वह नीचे मुजब हैं।
बापुने चुने वह नीचे मुजब हैं।
1.
विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का
दूसरों पर, अर्थात् न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर।
दूसरा
हमको छ्ले फिर भी उस पर विश्वास करो।
न्याय
और क्षमा का प्रयोग किस रुप में किया जाय ?
नाना
पालखीवाला का बापु को प्रश्न
बापु
का जवाब ….
सबल
के – समर्थ के साथ न्याय होना चाहिये लेकिन असमर्थ के साथ क्षमा करनी चाहिये।
2.
दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों
की उदारता को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल, न मानना।
3.
निकटवर्ती जन-समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक
रुप से सेवा करना।
निकटवर्ती
समाज की क्रियात्मक सेवा करनी चाहिये। दूसरो की होशके इतनी मदद करो
4.
शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती,
हृदय अनुरागी तथा अहम् को अभिमान शून्य करके अपने को सुन्दर बनाना।
शरीर
श्रमी रखना चाहिये, बुद्धि में विवेक रखे, ह्मदय में प्रेम और अहंकार को अभिमान से
मुक्त रखो।
5.
सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति
से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना।
सत्य
सब से महान हैं।
52 15/05/2020
गुरु कुंभार की तरफ शिष्य का घडा बनाता
हैं।
घडा बाझार में क्यों रखा जाता हैं।
कुंभार घडा बनाने में मिट्टि, पानी,
हवा – वायु, आकाश और अग्नि का उपयोग
करता हैं, पांचो तत्वो का उपयोग करता हैं।
करता हैं, पांचो तत्वो का उपयोग करता हैं।
गुरु भी अपने आश्रित को पांचो तत्वो
से यात्रा कराता हैं।
गुरु एक सर्जक हैं।
गुरु चाक उपर पींड को डालकर और घुमाकर आश्रित का एक नुतन व्यक्त्तित्व
निर्मित करता हैं। मिट्टी से गुजारना का मतलब हैं सहनशील बनाना, पानी में
मिलाना का मतलब हैं कण कण को संयुक्त करना, आकार देकर खुल्ले आसमान
में रखना का मतलब हैं इस घटाकाश को महाकाश का बोध देना, वायु में सुखाना
का मतलब एक पावन स्पर्श से पसार करना और अग्नि में पकाना का मतलब हैं
पक्का बनाना। घडा को आकार देने के लिये कुंभार बहार से टपाता हैं और अंदर
से वरद हस्त से सहारा देता हैं, गुरु एक हाथ से उपर से बनाने का प्रयास करता
है, और दूसरा हाथ कृपा का प्रसाद हैं।
निर्मित करता हैं। मिट्टी से गुजारना का मतलब हैं सहनशील बनाना, पानी में
मिलाना का मतलब हैं कण कण को संयुक्त करना, आकार देकर खुल्ले आसमान
में रखना का मतलब हैं इस घटाकाश को महाकाश का बोध देना, वायु में सुखाना
का मतलब एक पावन स्पर्श से पसार करना और अग्नि में पकाना का मतलब हैं
पक्का बनाना। घडा को आकार देने के लिये कुंभार बहार से टपाता हैं और अंदर
से वरद हस्त से सहारा देता हैं, गुरु एक हाथ से उपर से बनाने का प्रयास करता
है, और दूसरा हाथ कृपा का प्रसाद हैं।
घडा को खरीदनार टकोरा मार कर परीपवता
को जाचता हैं।
घडा को बाझार में रखने का मतलब हैं गुरु
आश्रित को पूर्णतह तैयार करके
दुनिया की सेवा में रख देना हैं।
दुनिया की सेवा में रख देना हैं।
घडा में पानी भरकर हम शीतल पानी पिते
हैं, और घडा हमारे घर में ही हम जहां
रखते हैं वहां रहता हैं। गुरु का आश्रित भी सेवा करने के लिये किसी के घर का
सदस्य बनकर शीतलता, पवित्रता प्रदान करता हैं, घर की शोभा विचार और
आकार के रुप में बन जाता हैं। बाझार में भेजना का मतलब विश्वमंगल के लिये
कहीं जगह भेज कर आश्रित की आर्थकता बनाना हैं। घडा का स्थान शिर उपर
रहता हैं, एक तपस्या से पसार होकर एक सुंदर शालीन युवती के शिर उपर
चढता हैं। यह एक तरक्की हैं, शालीनता का शिखर बनता हैं। आश्रित को बाझार
में रखने का मतलब बेचना नहीं हैं। जिसका गुरु टिकाउ हैं शास्वत हैं उसका कुंभ
आश्रित भी टिकाउ होता हैं।
रखते हैं वहां रहता हैं। गुरु का आश्रित भी सेवा करने के लिये किसी के घर का
सदस्य बनकर शीतलता, पवित्रता प्रदान करता हैं, घर की शोभा विचार और
आकार के रुप में बन जाता हैं। बाझार में भेजना का मतलब विश्वमंगल के लिये
कहीं जगह भेज कर आश्रित की आर्थकता बनाना हैं। घडा का स्थान शिर उपर
रहता हैं, एक तपस्या से पसार होकर एक सुंदर शालीन युवती के शिर उपर
चढता हैं। यह एक तरक्की हैं, शालीनता का शिखर बनता हैं। आश्रित को बाझार
में रखने का मतलब बेचना नहीं हैं। जिसका गुरु टिकाउ हैं शास्वत हैं उसका कुंभ
आश्रित भी टिकाउ होता हैं।
कबीर साहब का एक पद हैं ….
*************
"
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा
कुम्भ जल जलहीं समाना, यह तथ कह्यो गियानी।"
जिस प्रकार सागर में मिट्टी का घड़ा डुबोने
पर उसके अन्दर - बाहर पानी ही पानी
होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से
अलग ही रहता है , इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार होते हैं,
लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है , पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त
हो जाते हैं I ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर
चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान
हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ
को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार -
प्रकार ही हैं , इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट
जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध
व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो
जाएगी I आत्मा और परमात्मा दो नही एक ही हैं, आत्मा परमात्मा में और
परमात्मा आत्मा में बिराजमान हैं, अंततः परमात्मा की ही सत्ता हैं – जब देह
विलीन हो जाता हैं तब परमात्मा का ही अंश हो जाता हैं, परमात्मा में समा जाता
हैं, एकाकार हो जाता हैं।
होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से
अलग ही रहता है , इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार होते हैं,
लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है , पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त
हो जाते हैं I ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर
चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान
हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ
को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार -
प्रकार ही हैं , इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट
जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध
व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो
जाएगी I आत्मा और परमात्मा दो नही एक ही हैं, आत्मा परमात्मा में और
परमात्मा आत्मा में बिराजमान हैं, अंततः परमात्मा की ही सत्ता हैं – जब देह
विलीन हो जाता हैं तब परमात्मा का ही अंश हो जाता हैं, परमात्मा में समा जाता
हैं, एकाकार हो जाता हैं।
*******************
गुरु सेवा शिष्य से करवायेगा और गुरु
खुद सिमरन करेगा। कसोटी हिमालय की
कंदराओ में नहीं होती, कसोटी भरे संसार में होती हैं।
कंदराओ में नहीं होती, कसोटी भरे संसार में होती हैं।
स्वामी शरणानंदजी भी कहते हैं कि अपने
निकटवर्ती समाज की सेवा करो।
कई फकिर दिन में संसारी लगते हैं लेकिन
रातमें संन्यासी हो जाते हैं। जब की
दांभिक और प्रपंची जगत में कई ऐसे भी हो लागते हैं जो दिन में कुछ ओर लगते
हैं, रात में कु्छ ओर लगते हैं।
दांभिक और प्रपंची जगत में कई ऐसे भी हो लागते हैं जो दिन में कुछ ओर लगते
हैं, रात में कु्छ ओर लगते हैं।
हमारे वर्तन उपर अस्तित्वकी निगाहे होती
हैं, हमारा वर्तन छीपा नहीं रह शकता
हैं। अस्तित्व के तत्व हमें देख रहे हैं। बाझार में रखे गये घडे को कई लोग देखते
हैं, उसकी कसोटी करते हैं।
हैं। अस्तित्व के तत्व हमें देख रहे हैं। बाझार में रखे गये घडे को कई लोग देखते
हैं, उसकी कसोटी करते हैं।
हमारे प्रत्येक वर्तन को सुर्य देखता
हैं, सुर्य साक्षी हैं, चंद्र भी हमें देखता हैं, वायु,
अग्नि, दीशाए, पृथ्वी, जल, हमारा ह्मदय, यमराज, रात्रि, संध्या, धर्म भी देखते हैं,
हमारे वर्तन के साक्षी हैं।
अग्नि, दीशाए, पृथ्वी, जल, हमारा ह्मदय, यमराज, रात्रि, संध्या, धर्म भी देखते हैं,
हमारे वर्तन के साक्षी हैं।
“जब दिल और अक्ल कहे अपनी अपनी कहे खुमार
तब अक्कल की सुनिये दिल
का कहा किजिये”
का कहा किजिये”
कसोटी काल में धर्म का निर्वहन करना
धर्म की निगाहो में रहता हैं और ऐसा धर्म
निर्वहन ही धर्मा की आंखो में पास होता हैं।
निर्वहन ही धर्मा की आंखो में पास होता हैं।
मानस भी कहता हैं ….
धीरज
धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध
रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों
की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध,
रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
टिकाउ गुरु अपने शिष्य को बिकाउ नहीं
बनाता हैं लेकिन सेवा में लगाता हैं,
समर्पित करता हैं। यह घडे को बाझार में रखनेका मतलब हैं। गुरु कुंभार है,
शिष्य कुंभ हैं।
समर्पित करता हैं। यह घडे को बाझार में रखनेका मतलब हैं। गुरु कुंभार है,
शिष्य कुंभ हैं।
सर्वभूत हिताय, सर्वभूत
सुखाय और सर्वभूत प्रिताय सर्वभूतहिते रताः
लभन्ते
ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा
यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।
।5.25।। जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित
वशमें है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके
हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये है, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट
हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये है, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट
हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
।5.25।। वे ऋषिगण मोक्ष को प्राप्त होते
हैं - जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जो
छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने वाले हैं।।
छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने वाले हैं।।
बहु
सुत बहु रूचि बहु बचन बहु अचार ब्यवहार।
इनकेा
भलो मनाइबो यह अग्यान अपार।490।
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिनके बहुत पुत्र
हों, बहुत अभिलाषाएं हों, जो बहुत
बातें बनाते हों और जिनके बहुत प्रकार के व्यवहार हों, उनके हित के विषय में
सोचना अज्ञानता भरा कार्य हैं। कहने का भाव हैं कि उनका न तो भला हो शकता
हैं और न ही उन्हें कोई समझा ही शकता हैं।
बातें बनाते हों और जिनके बहुत प्रकार के व्यवहार हों, उनके हित के विषय में
सोचना अज्ञानता भरा कार्य हैं। कहने का भाव हैं कि उनका न तो भला हो शकता
हैं और न ही उन्हें कोई समझा ही शकता हैं।
बहु सुत – ज्यादा पुत्रोवाला, बहुत रुची
– बहुत ईच्छावाला – बिना सामर्थ ईच्छा
रखनेवाला, बहु बचन – बहुत बातें करनेवाला, बहुत प्रकार के आचार व्यवहार
करनेवाला, का शुभ होना अज्ञान हैं, भला होही नहीं शकता।
रखनेवाला, बहु बचन – बहुत बातें करनेवाला, बहुत प्रकार के आचार व्यवहार
करनेवाला, का शुभ होना अज्ञान हैं, भला होही नहीं शकता।
बहुत बेटीवाला का शुभ होगा।
बहुत प्रजा से हम अमृत नहीं पा शकते।
परमात्मा का सामर्थ्य और जीव की ईच्छा
मिल जाय तो जग मंगल हो जाय। बहुत ईच्छा और आशाए बंधन हैं।
मिल जाय तो जग मंगल हो जाय। बहुत ईच्छा और आशाए बंधन हैं।
अनेक प्रकार के आचार – धर्म हमें श्रमित
करता हैं।
53 16/05/2020
आज कल तन मन और धन की समस्याए हैं। तन
मन और धन के स्वास्थ्य के लिये
सब प्रयत्नशील हैं।
सब प्रयत्नशील हैं।
पायो री मैंने रामरतन धन पायोजी
आह के अमंगल के वातावरण में मंगल की
स्थापन के लिये कौन से केन्द्र बिंदु हैं?
तुलसीदासजी दोहावली रामायण में लिखते
हैं कि ….
सुधा
साधु सुरतरु सुमन सुफल सुमंगल (सुहावनि) बात।
तुलसी
सीतापति (सीतावनि) भगति सगुन सुमंगल सात।।
मंगलकारी वस्तुओं के विषय में तुलसीदास
जी कहते हैं कि संसार में केवल सात
मंगलकारी शगुन हैं - अमृत, साधु, कल्पवृक्ष, पुष्प, सुंदर फल, सुहावनी बात और
श्रीसीतापति की भक्ति।
मंगलकारी शगुन हैं - अमृत, साधु, कल्पवृक्ष, पुष्प, सुंदर फल, सुहावनी बात और
श्रीसीतापति की भक्ति।
पुराने पाठ में सुधा की जगह साधु शब्द
प्रथम हैं एसा वर्णन हैं।
साधु
साधु सत्य पराक्रमा
साधु अमंगल को नष्ट कर मंगल की स्थापना
करता हैं।
मंगल
भवन अमंगल हारी द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी
जो मंगल करने वाले और अमंगल हो दूर करने
वाले है , वो दशरथ नंदन श्री राम
है वो मुझपर अपनी कृपा करे।
है वो मुझपर अपनी कृपा करे।
राम साधु हैं।
साधु पवित्रतम शब्द हैं।
शिव त्रिभुवन गुरु हैं, राम जगदगुरु
हैं।
परमात्मा के शिर पर तो केवल फूल हि चढाये
जाते हैं।
साधु किसीका मालिक नहीम होता हैं, वह
तो सिर्फ एक माली हैं जो पौधे का
लालन पालन करता हैं, माली सेवा करता हैं। माली हररोज फूलवारी में जाता हैं।
लालन पालन करता हैं, माली सेवा करता हैं। माली हररोज फूलवारी में जाता हैं।
साधु एक माली हैं जो अंदर से एकदम खाली
हैं।
पूर्णता और शून्यता एक ही बात हैं।
साधु हम सब का – पुरे संसार का बाप –
वाली हैं।
साधु हमारी जिम्मेवारी लेकर जामीन बनेगा।
साधु की सेवा न हो शके तो चिंता की बात
नहीं लेकिन साधु की अवज्ञा नहीं करनी
चाहिये।
चाहिये।
लंका में हनुमानजी की अवज्ञा सिर्फ रावण
ने की और परिणाम स्वरुप पुरी लंका
जल गई।
जल गई।
साधु
अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा
नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥
साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ
के नगर की तरह जल रहा है।
हनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं
जलाया॥3॥
हनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं
जलाया॥3॥
गुरु चरण सेवा वैकुंठीय उत्सव हैं।
साधु की अवज्ञा कोई एक करे तो उसका परिणाम
सब को भोगना पडता हैं।
साधु
अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥
भावार्थ (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी!
साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण
की हानि (नाश) कर देता है॥1॥
की हानि (नाश) कर देता है॥1॥
एसा साधु अमंगल को हटाकर सुमंगल करता
हैं।
साधु अपने आश्रित को साधु न बने तब तक
छोडता नहीं हैं।
गुरु अपने शिष्य को गुरु बनाता हैं,
और जब तक वह स्थिति न आये तब तक
शिष्य को छोडता ही नहीं हैं।
शिष्य को छोडता ही नहीं हैं।
नाभी से साधु को पुकारनेसे पाप मीट जाते
हैं।
सुधा
अमृत विष को हटाकर सुमंगल करता हैं।
कल्पवृक्ष सब ईच्छा चरितार्थ करता हैं।
सुमंगल फूल, सुंदर फल मंगल को हटाकर
मंगल करते हैं।
जानकी नाथ की भक्ति अमंगल को हटाकर मंगल
की स्थापना करती हैं।
एक साधु मिला तो सुधा मिल गया समजो।
साधु चलता फिरता सुधा का कुंभ हैं।
साधु ही कल्पतरु हैं। साधु ही फूल हैं, साधु शुल नहीं हैं, साधु ही समग्र जीवन का
फल हैं, सुफल हैं।
साधु ही कल्पतरु हैं। साधु ही फूल हैं, साधु शुल नहीं हैं, साधु ही समग्र जीवन का
फल हैं, सुफल हैं।
नींद्रा न छोडो लेकिन निंदा जरुर छोडो,
ईर्षा न करो, किसी से द्वेष न करो।
साधु परमात्मा की भक्ति का मूर्तिमंत
स्वरुप हैं।
साधु राम चरित मानस का बालकांड हैं।
सुधा राम चरित मानस का अयोध्याकांड हैं।
सुरतरु मानस का अरण्यकांड हैं।
सुमन राम चरित मानस का किष्किन्धाकांड
हैं।
सुफल राम चरित मानस का सुंदरकांड हैं।
सुमंगल राम चरित मानस का लंकाकांड हैं।
रघुपति भक्ति राम चरित मानस का उत्तरकांड
हैं।
साधु उसका अपमान करनेवाले को भी भर देता
हैं।
54 17/05/2020
शिष्यो के प्रकार और उनकी वृत्तिओ
गुरु शिष्य का संबंध आध्यात्मिक हैं।
आश्रित वह हैं जो गुरु के पास बैठकर
कुछ शीखना हैं, कुछ प्राप्त करना हैं।
शिष्य बनने के लिये हमें प्रपन्न होना
हैं – संपूर्ण शारणागत होना हैं।
चित की प्रसन्नता, पवित्रता, निर्मलता,
केवल बुद्ध पुरुष की कृपा पर आधारित हैं।
किमित्र बहुंलोक्तेन शास्त्रकोटिशतेन
च दुर्लभाः चित्त विश्रांति बिना गुरु कृपां परम
कोटि कोटि शास्त्र पढकर, व्याख्या करकर,
उस पर कितना ही बोल लिया फिर
भी हमारे चित्त की विश्रांति गुरु कृपा बिना आ नहीं शाकती।
भी हमारे चित्त की विश्रांति गुरु कृपा बिना आ नहीं शाकती।
ग्रंथ भी गुरु हो शकता हैं।
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम
रोग के॥
जननि
जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥
ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु
हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश
करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के
प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के
बीज हैं॥2॥
करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के
प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के
बीज हैं॥2॥
तुलसी पीठाधीश्वर पूज्य रामभद्राचार्य
कहते हैं, “सर्व ग्रंथाम परितज्य मानसं
शरणम व्रज”।
शरणम व्रज”।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ….
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज।
अहं
त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर
तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे
सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
।।18.66।। सब धर्मों का परित्याग करके
तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें
समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
देव या दानव या मानव, सब को किसी की
शरण में जाना ही हैं।
जिस में प्रपन्नता प्रधान हैं वह शिष्य
हैं।
गुरु शिष्य में रही गुरुत्वता प्रगट
करके ही छोडता हैं।
बिषई
साधक सिद्ध सयाने।
त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥2॥
विषयी, साधक और ज्ञानवान
सिद्ध पुरुष- जगत में तीन प्रकार के जीव
वेदों ने बताए हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस
(सराबोर) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥2॥
वेदों ने बताए हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस
(सराबोर) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥2॥
तीन प्रकार के जीव हैं, विषयी, साधक
और सिद्ध, और शुद्ध इस तीन से उपर हैं।
जो सुधर्मी, गुणो से भरा हुआ, अच्छा
शासन करने वाला, अहंकार रहित हैं वह
त्रिभुवन के दीप हैं।
त्रिभुवन के दीप हैं।
शिष्य की तीन श्रेणी हैं।
कुछ शिष्य विषयी, कु्छ साधक और सिद्ध
होते हैं।
एक गुरु की शरणागती छोडकर दूसरो का मनोरंजन
करनेवाला शिष्य कंटक –
शूल हैं।
शूल हैं।
विषयी शिष्य वह हैं जो गुरु की ईच्छा
को प्रधानता नहीं देता हैं लेकिन अपनी
ईच्छाओ को प्रधानता देता हैं। ऐसे शिष्य गुरु कृपा महसुस नहीं कर शकते हैं।
ऐसे शिष्य गुरु को छोड कर गुरु की आलोचना भी करते हैं।
ईच्छाओ को प्रधानता देता हैं। ऐसे शिष्य गुरु कृपा महसुस नहीं कर शकते हैं।
ऐसे शिष्य गुरु को छोड कर गुरु की आलोचना भी करते हैं।
साधक श्रेणी
साधक वह हैं जो किसी के जीवन में मन
वचन कर्म से बाधक नहीं बनता हैं।
तापस वह हैं जो कथिन तपस्या करता हैं।
तापस वह हैं जो ता – जिसका जीवन तालबद्ध
हैं, प – पवित्रता, स- सहजता,
सरलता, जिसका जीवन तालबद्ध हैं, पवित्र हैं, सरल सहज हैं।
सरलता, जिसका जीवन तालबद्ध हैं, पवित्र हैं, सरल सहज हैं।
साधक शिष्य वह हैं जो अपनी ईच्छा को
प्रधानता देता हैं और साथसाथ गुरु से
प्राप्त विवेकसे पूर्ण रीतसे गुरु की ईच्छा का भी अभ्यास करता हैं। साधक की
कुछ साधना प्राप्त करनेकी ईच्छा हैं लेकिन गुरु की ईच्छा का भी विवेकपूर्ण
अभ्यास करता हैं, विवेक के प्रकाश में दर्शन करता हैं। साधक को ऊलटा
करनेसे कधसा होता हैं जिस का मतलब हैं जो कल्याणकारी धर्म में निरंतर
सावधान रहता हैं वह साधक हैं।
प्राप्त विवेकसे पूर्ण रीतसे गुरु की ईच्छा का भी अभ्यास करता हैं। साधक की
कुछ साधना प्राप्त करनेकी ईच्छा हैं लेकिन गुरु की ईच्छा का भी विवेकपूर्ण
अभ्यास करता हैं, विवेक के प्रकाश में दर्शन करता हैं। साधक को ऊलटा
करनेसे कधसा होता हैं जिस का मतलब हैं जो कल्याणकारी धर्म में निरंतर
सावधान रहता हैं वह साधक हैं।
सिद्ध साधक
सिद्ध साधक अपनी ईच्छा कभी रखता ही नहीं
हैं, जो गुरु की ईच्छा हैं उसे अपनी
ईच्छा समजता हैं।
ईच्छा समजता हैं।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न
मन होई।
करुना सागर कीजिअ सोई॥1॥
हे
दयासागर! जिस प्रकार
से प्रभु का मन प्रसन्न
हो, वही कीजिए॥1॥
सिद्ध साधक मानता हैं कि उसे कौन सी
ईच्छा रखना वह पता ही नहीं हैं और
कहीं कोई गलत ईच्छा हो जाय जो कल्पतरु गुरु पूर्ण कर दे तो वह ईच्छा बंधन हो
जायेगी।
कहीं कोई गलत ईच्छा हो जाय जो कल्पतरु गुरु पूर्ण कर दे तो वह ईच्छा बंधन हो
जायेगी।
एकइ
धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में
प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही
धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥5॥
धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥5॥
शुद्ध साधक वह हैं जो हरि ईच्छा को हरि
की कृपा समजता हैं, वह कोई शिकायत
नहीं करता हैं, गुरु कृपा ही केवलम् समजता हैं।
नहीं करता हैं, गुरु कृपा ही केवलम् समजता हैं।
ईस्वर
अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।
जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी,
चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही
सुख की राशि है।।1।।
सुख की राशि है।।1।।
गुरु ईश्वर स्मरण छोडकर शिष्य के बारे
में चिंतन करे कि शिष्य का परम हित मैं
जो कह रहा हुं वह करने में ही हैं ऐसी गुरु ईच्छा करे वह गुरु कृपा नहीं है तो और
क्या है? जो ईश्वर स्मरण छोडकर, शिव स्मरण छोडकर जीव का स्मरण करे, जो
अविनाशि का चिंतन छोडकर विनाशी का चिंतन करे वह गुरु कृपा नहीं हैं तो क्या
हैं? यह कर्म नहीं हैं तो क्या हैं?
जो कह रहा हुं वह करने में ही हैं ऐसी गुरु ईच्छा करे वह गुरु कृपा नहीं है तो और
क्या है? जो ईश्वर स्मरण छोडकर, शिव स्मरण छोडकर जीव का स्मरण करे, जो
अविनाशि का चिंतन छोडकर विनाशी का चिंतन करे वह गुरु कृपा नहीं हैं तो क्या
हैं? यह कर्म नहीं हैं तो क्या हैं?
55 18/05/2020
हम विषयी आश्रित हैं ऐसा आत्मनिवेदन
– कबुल करना, आश्रित का साधक की
श्रेणी में जाने का प्रवेश द्वार हैं।
नगर का प्रवेश द्वार होता हैं, राज्य
का द्वार – राजा का द्वार होता हैं, गुरु द्वार भी
होता हैं, स्कुल का द्वार – विद्यालय
का द्वार, हरि द्वार, सर्वस्मर्थ का द्वार – प्रभु द्वार,
वगेरे द्वार हैं।
साधक श्रेणी में जाने के लिये लगन –
तीव्र आतुरता जो बाह्य यात्रा हैं और मगन
तल्लीनता जो अंतर यात्रा हैं, की आवश्यकता
हैं।
विनय पत्रिका १०१ पद
जाऊँ
कहाँ तजि चरन तुम्हारे,
काको
नाम पतित पावन जग,केहि अति दीन पियारे,
कौन
देव बिराई बिरद हित,हठि हठि अधम उधारे,
खग
मृग व्याध पाषाण बिटप जड,यवन कवन सुर तारे,
जाऊँ
कहाँ तजि चरन तुम्हारे.....
देव
दनुज मुनि नाग मनुज सब,माया बिबस बिचारे,
तिनके
हाथ दास तुलसी प्रभु कहां अपनपौ हारे,
जाऊँ
कहाँ तजि चरन तुम्हारे......
गोस्वामी
तुलसीदास
चरन गति का प्रतीक हैं, जो कभी न जभी
यात्रा पर नीकल ही जायेगा।
क्या चलित या अचिल का आश्रय करना चाहिये?
“मैं मुझ को तुज में छोडकर जाता हुं”
ऐसा कृष्ण राधा को जब वृंदावन छोडकर
जाते हैं तब कहते हैं, सिर्फ शरीर से जुदा होते
हैं।
मुख की माया होती हैं, चरन का प्रेम
होता हैं।
अवतारो की श्रेणी में पतित पावन शब्द
भगवान राम को लगा हैं।
जो दूसरो की हिंसा करते हैं, जो दूसरो
की यज्ञ साधना में विघ्न डालते हैं वह पतित
हैं।
जे
मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
जो मृग श्री रामजी के बाण से मारे जाते
थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले
जाते थे।
चले
जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं
बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥
मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का
को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध
करके दौड़ी। श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण
हर लिए और दीन जानकर
उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥3॥
परसत
पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत
रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश
करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही
सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई।भक्तों को
सुख देने वाले श्री रघुनाथजी
को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई।
राम अधम को उद्धार करनेवाले हैं।
राम खग – जटायु, मृग – पशु – बानर, भालु,
रींछ, पशु, पक्षी, ब्याध – वाल्मीकि,
पाषाण – अहल्या जो पथ्थर रुप हैं, बिटप – वृक्ष,
यवन का उध्धार करते हैं।
राम की सीता खोज ललित नरलीला हैं। राम
की असली खोज जटायु, बंदर भालु,
अहल्या, शबरी वगेरे की थी।
गीध
अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और
मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी,
जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥1॥
गिरि
तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥2॥
सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही
उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धि वाले (वानर
रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे॥2॥
स्वामी शरणानंदजी कहते हैं किसी भी प्रकार
का सुख, दुःख से हि प्रगट जन्म
लेता हैं और हरेक सुख का अंत दुःख में ही होता हैं,
सुख का समापन दुःख में ही
होता हैं।
તેથી તો નરસિંહ મહેતા એ ગાયું છે
કે, “સુખ દુઃખ મનમાં ન આણીયે …”
भगवान करे तो किसी का संग न हो और यदि
संग हो जाय तो स्नेह न हो और यदि
स्नेह हो जाय तो उस का विरह – वियोग न हो और यदि वियोग
हो जाय तो हमारे
प्राण चले जाय।
अगर किसी के वश में रहना पडे तो वह बिचारा
हैं।
56 19/05/2020
जगत कार्य कारण के सिद्धांत पर चलता
हैं।
वैश्विक स्तर पर पंच तत्वो का जो अपराध
हो रहा हैं वह चिंता का विषय हैं।
हमने गगानापराध किया हैं, आकाश को प्रदुषित
किया हैं। आकाश का अपराध
परमात्मा का अपराध हैं क्यो कि परमात्मा गगन सद्रुश्म् हैं।
दूसरा वसुधा अपराध हैं। हम पृथ्वी को
प्रणाम करने के बाद सुबह में पांव रखते
हैं, हमने वनस्पति को नष्ट किया हैं।
हमने जलापराध किया, जल को बहुत प्रदुषित
किया हैं।
हमने समीरापराध किया हैं, हवा को बहुत
प्रदुषित किया हैं।
हमने पावकापराध, अग्नि का अपराध भी किया
हैं।
आज की कोरोना कि परिस्थिति किस वजह से
हुइ हैं, वह तय करना मुश्किल हैं।
ज्ञान कहां कहां से प्राप्त होता हैं?
ज्ञान की प्राप्ति गुरु मुख से होती
हैं। ज्ञान गुरुमुखी होना चाहिये
सूर्यमुखी ज्ञान जो सूर से मिला हैं,
ज्ञान को ह्म प्रकाश कहते हैं।
अंधेरे से प्रकाश की तरफ की गति हमारा
विचार हैं।
हनुमान जी सूर्य से ज्ञान प्राप्त करते
हैं।
सन्मुखी ज्ञान, किसी गुरुकूल में सन्मुख
बैठकर प्राप्त किया हुआ ज्ञान। गुरु के
आश्रम में गुरु के सन्मुख बैठकर ज्ञान प्राप्त
करना। श्रोता प्रौढ हैं, गुरु युवान हैं।
मनमुखी ज्ञान जिसमें शिष्य अपने आप गुरु
के कहे हुए वाक्यो का अर्थ
नीकालना। मनमुखी ज्ञान अच्छा नहीं हैं।
वेद मुखी ज्ञान, भगवान वेद ने कहा हुआ
ज्ञान जो गुरु मुख से नीकलता हैं, सन्मुख
से नीकलता हैं।
कोई घटना से पेदा हुआ वैराग्य टिकाउ
नहीं हैं, जो वैराग्य विवेकसे अपने आप
प्रगट होता हैं वह वैराग्य टिकाउ होता हैं।
तुलसी तुलसी तुलसी तुलसी
तुलसी
तुलसी तुलसी तुलसी
तुलसी
तुलसी तुलसी तुलसी
तुलसी
तुलसी तुलसी तुलसी
अर्थ
पहला तुलसी शब्द का अर्थ तुलसी का पौधा
हैं। आंगन में तुलसी का पौधा
आरोग्य भी हैं और औषध भी हैं। तुसली सरल तरल पलपता पवित्र
पौधा हैं।
तुलसी का अर्थ तु – तुरीयातित ब्रह्न
राम, ल – लक्ष्मण और सी – सीताजी, राम
लक्ष्मण जानकी हैं।
मानस का कर्ता तुलसीदास हैं जहां तुलसी
का अर्थ उपर मुजब – राम, लक्ष्मण,
जानकी हैं और दास का अर्थ हनुमान हैं, ईसी लिये हम
कहते हैं की राम लक्ष्मण
जानकी जय बोलो हनुमानकी।
तुलसी का एक अर्थ प्रभु के चरणों में
चढाई गई किंकरी जैसी तुलसी।
ते
धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य
हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि
के रंग में रँग गए हैं।
कभी कभी दास तुलसी शब्द भी आता हैं।
रघुबीर
पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
तुलसी पत्र बिना ठाकुर भूखा रहता हैं।
तुलसी एक पौधा हैं। अफिका में तुलसी
का छोटा पेड भी हैं।
तुलसी साधु स्वभाव हैं। तुलसी और कपास
की वनसपति जाति एक हैं।
साधु
चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो
सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन)
के समान शुभ है, जिसका फल नीरस,
विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है,
संत चरित्र में भी
विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है,
संत का
हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है
और कपास
में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार
होता है,
इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को
अपना तन देकर ढँक देता
है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने
जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के
रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों
को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख
सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को
ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त
किया है॥3॥
वैष्णव परंपरा – भक्ति परंपरा में तुलसी
मुलथी – प्रथम जड हैं, पहला मूल हैं,
गहराई में हैं।
तुलसी हमारे कूलसी हैं, हमारी परंपार
की हैं, हमारे कूल की हैं, भारतीय परंपरा
के आंगन की हैं।
तुलसी बहुत प्रसन्नता देती हैं, आनंद
देती हैं, आनंद देनेवाली मातृ स्वरुपा हैं।
जम
गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि
प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
यमदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए
यह जगत में यमुनाजी के समान है
और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह
श्री रामजी को पवित्र
तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी
की माता)
के समान हृदय से हित करने वाली है॥6॥
तुलसी को ऊलटा करनेसे सीलतु होता हैं,
तुं हमारा शील – संस्कार हैं।
आखरी समय में मुख में गंगाजल और तुलसी
रखते हैं।
दो प्रकार के तुलसी राम - तुलसी और श्याम
- कृष्ण तुलसी होती हैं।
तुलसी एक प्रकार वन तुलसी हैंम आफ्रिका
में तुलसी वन हैं, वृंदावन तुलसी वन
हैं।
नव तुलसी – नित नूतन तुलसी शब्द भी हैं
एक अर्थ वृंदा हैं, पतिव्रता वृंदा हैं, तुलसी और शालीग्राम का विवाह होता हैं।
राम चरित मानस तुलसी हैं।
हम सब तुलसी माला रखते हैं, मालामाल
करने वाली, संकल्प सिद्ध करनेवाली
माला तुलसीमाला हैं।
यह सोलह कला की तुलसी की बात हैं।
57 20/05/2020
सात्विक और तात्विक संवाद का क्या अर्थ
हैं?
सात्विक संवाद में जरासा भी रजो गुण
– दूसरो की वाह वाह करना, दूसरा हमारी
जय बोले ऐसा - नहीं होता हैं।
रस में करुणा ही एक रस हैं, हालाकि सभी
अपने अपने रस में डूबे रहते हैं। सभी
रसो का उदगम स्थान शांत रस हैं, आदि, अंत और मध्यम
में शांत रस की
प्रधानता होती हैं।
दूसरो को प्रभावित करनेकी बात रजो गुणी
हैं।
आत्मा अतिथि हैं ऐसा कठोपनिषद का कथन
हैं। आत्मा हंस हैं ऐसा भी कहा हैं।
तुलसीदासजी संत को हंस कहते हैं।
संत
हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय
रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष
रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते
हैं॥6॥
साधु संत सेवी की आत्मा उसका बुद्ध पुरुष
ही हैं।
हमारी आत्मा संत हैं।
आत्मा की सहज गति से जहां रजो गुण और
तमो गुण नहीं हैं ऐसा संवाद सात्विक
संवाद हैं।
तामसी संवाद ऊग्र हो कर संवाद होता हैं,
आक्रोश में बोला जाता हैं, किसी पर
व्यंग प्रहार किया जाता हैं।
मृत्यु नी ठेस वागशे तो शुं थशे जलन?
जीवन नी ठेस नी तो हजी कळ वळी नथी.
निर्वाण महिमावंत छे, मोक्ष महिमावंत
छे.
मोह नो क्षय ज मोक्ष छे.
अंधश्रध्धा से मुक्त होना मोक्ष हैं।
सभी विवादो से दूर रह कर मुस्कराना मोक्ष
हैं।
दंभ – जो हमारे में नहीं हैं उसे बुद्धि
पूर्वक प्रदर्शित करना, कपट – जो हमारे में
हैं(काम, क्रोध) उसे बुद्धि पूर्वक छिपाना,
और अहंकार – हर बात में मैं मैं करना,
विवेक पूर्वक दूर रहना मोक्ष हैं।
ईर्षा, निंदा और द्वैष से दूर रहना मोक्ष
हैं।
मोक्ष प्राप्त करनेसे पहले जीवन को ठिक
से समज लेना चाहिये।
मोक्ष बहूत दूर नगरी हैं, अदभूत नगरी
हैं।
तात्विक संवाद
तात्विक संवाद का अर्थ हैं सुक्ष्म से
सुक्ष्म तत्व की चर्चा, स्थुल बातों का उपयोग
करके सुक्ष्म से सुक्ष्मतर तत्व का संवाद
करना। यह सत्व गुण प्रधान संवाद हैं, उस
में रजो और तमो गुण नहीं आता हैं।
व्यास पीठ के वक्ता को सब ज्ञान हो ऐसा
हो नहीं शकता।
ज्ञान, भक्ति और कर्म
जिसे अपने मूल और जडो से महोबत नहीं
हैं वह कैसे फलित होगा?
कपडे धोने के लिये महेनत, साबु और पानी
चाहिये और उसका सही तरीके से
ईस्तेमाल करेंगे तो ही कपडा ठीक से साफ होगा। साबु ज्ञान
हैं, कपडे धोने की
महेनत कर्म हैं और जल भक्ति हैं – प्रेम हैं।
प्रेम
भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।3।।
प्रेम-भक्तिरूपी [निर्मल] जलके बिना
अन्तःकरण का मल कभी नहीं जाता।।3।।
प्रेम बिना का ज्ञान, कर्म का कोई अर्थ
नहीं हैं। प्रेम के बिना ज्ञान शोभायमान नहीं
रहता हैं।
सोह
न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू॥
मुनि बहुबिधि
बिदेहु समुझाए। राम घाट सब लोग नहाए॥3॥
श्री रामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार
के बिना
जहाज। वशिष्ठजी ने विदेहराज (जनकजी)
को बहुत प्रकार
से समझाया।
तदनंतर
सब लोगों ने श्री रामजी के घाट पर स्नान किया॥3॥
सब से बडा दान क्या हैं?
सब से बडा दान सामर्थ्य के होते हुए
क्षमा करना हैं।
सब से बडा तप क्या हैं?
जीवन में से सभी ईच्छाओ – कामनाओ का
परित्याग करना सब से बडा तप हैं।
हम से हो शके उतनी ईच्छा कम करनी चाहिये। जीव के पास
सामर्थ्य नहीं हैं,
ईच्छा हैं और ईश्वर के पास सामर्थ्य हैं लेकिन ईच्छा नहीं हैं।
सबसे बडी शुरवीरता – शौर्य क्या हैं?
अपने स्वभाव को जीतना ही सब से बडी शुरवीरता
हैं।
सब से श्रेष्ठ सत्य क्या हैं?
सत्यम् परम धिमहि
सब में प्ररमात्मा का दर्शन करना सब
से बडा सत्य हैं, सबसे बडा ज्ञान हैं।
संसार में सब से श्रेष्ठ ऋतु कौन सी
है?
ऋतु ए कई हैं, वसंत, पानखर, वर्षा, शरद,
हेमंत, शिशिर …
जब हमारी जबान से मधुर – प्रिय सत्य
नीकले वही सब से श्रेष्ठ ऋतु हैं, बाकी सब
कमोसम हैं।
सब से श्रेष्ठ संन्यास क्या हैं?
त्याग ही सब से श्रेष्ठ संन्यास हैं।
सब से श्रेष्ठ धन क्या हैं?
धर्म हमारा सब से श्रेष्ठ धन हैं। सनातन
धर्म की बाते श्रेष्ठ हैं।
धर्म एटले सत्य, प्रेम और करुणा हैं।
धरमु
न दूसर सत्य समाना।
आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा।
तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥3॥
वेद, शास्त्र
और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म
नहीं है। मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है। इस (सत्य रूपी धर्म)
का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा॥3॥
सब से बडा यज्ञ क्या हैं?
परमात्मा सब से बडा यज्ञ हैं, परमात्मा
यज्ञ स्वरुप हैं। परमात्मा का मंगलमय नाम
का जप यज्ञ हैं। स्वाहा स्वाहा यज्ञ हैं।
सब से बडी दक्षिणा क्या हैं?
ज्ञानोपदेश, ज्ञान की चर्चा ही सब से
बडी दक्षिणा हैं।
सब से बडा बल क्या हैं?
प्राणायाम सब से बडा बल हैं।
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58 21/05/2020
श्रोता और वक्ता के विशिष्ट लक्षण
वक्ता भी एक जीव हैं। वक्ता भी श्रोता
की तरह सुनता हैं।
मानस में लिखा हैं ……
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥
श्री रामजी की गूढ़ कथा के वक्ता (कहने
वाले) और श्रोता (सुनने वाले) दोनों ज्ञान
के खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुग
के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव
भला उसको कैसे समझ सकता था?॥30 ख॥
बुद्ध पुरुष हमारे ज्ञान के खजाने को
जो ढक गया हैं, उसे बहार लाता हैं, परदा
हटा देता हैं।
श्रोता
सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ
उमा पति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।69ख।।
हे उमा ! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील,
पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता
को पाकर सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने
प्रकट न करने योग्य) रहस्य को
प्रकट कर देते हैं।।69(ख)।।
वक्ता गोप्य रहस्य श्रोता जो सुशिल,
शीलवान, पवित्र मनवाला, कथा का रसिक,
कथा के रस का परम भोक्ता और परमात्मा का प्रेमी
– किंकरा हो उसके आगे
खोल देता हैं।
मानस के चार श्रोता पैकी तुलसी का मन
श्रोता हैं, भरद्वाजजी – सम्गमी श्रोता हैं,
भगवती पार्वती और खगपति गरुड हैं।
मन को बोध होना चाहिये।
वक्ता सारथी होना चाहिये और श्रोता रथी
होना चाहिये – महाभारत में कृष्ण और
अर्जुन की तरह।
भागवत में मा देवहूति और कपिल भगवान,
शुक और परीक्षित, वगेरे वक्ता और
श्रोता हैं।
स्वर्ग दो व्यक्ति को प्राप्त होता हैं
- स्वर्ग का मालिक बनता हैं, जिस में परिपूर्ण
सामर्थ्य होते हुए दूसरे को क्षमा करनेवाला
स्वर्ग का अधिकारी हैं, स्वर्ग का
मालिक बन शकता हैं। जिस के पास कुछ नहीं होते हुए
दान देता हैं वह स्वर्ग का
मालिक बन शकता हैं।
वक्ता श्रोता को ज्ञान दान, विद्या दान,
वरदान देता हैं, धन्यवाद देता हैं, अभयदान
देता हैं, प्रेम दान देता हैं, क्षमा दान
देता हैं।
श्रवण को प्रथम स्थान दिया हैं।
श्रोता नचिकेता जैसा और वक्ता यमाचार्य
जैसा होना चाहिये।
श्रोता मातृ भक्त, पितृ भक्त और श्रद्धावान
होना चाहिये।
मातृदेवो भव, पितृदेवो भव के बाद आचार्य
देवो भव आता हैं।
श्रोता विद्वान और विनम्र होना चाहिये।
श्रोता यमाचार्य को भी देव माने ऐसा
होना चाहिये।
श्रोता में मुमुक्षा और पिपासा की लालसा
होनी चाहिये।
श्रोता सत्य निष्ठ होना चाहिये, हंमेशां
सत्य बोलेगा।
वक्ता एक बालक को भी आदर देता हैं।
श्रोता विवेक और वैराग्य प्राप्त करनेकी
लालसा रखे ऐसा होना चाहिये।
श्रोता तिव्र बुद्धिवाला, चित इतना तैयार
रखे कि वक्ता जो कहे उसे ग्रहण करे और
विक्षिप्त न हो ऐसा होना चाहिये।
वक्ता जन्म और मृत्यु के रहस्यो को जाननेवाला होना चाहिये, ऐसा वक्ता ही श्रोता
को
जीवन रहस्य समजा पायेगा।
श्रोता स्वर्ग और भोग विलास की अपेक्षा
न करे ऐसा होना चाहिये। उसे आध्यात्म
विद्या की लालसा होनी चाहिये।
वक्ता शोत्रिय और ब्रह्म निष्ठ होना
चाहिये, ज्ञान भक्ति, वैराग्य में डूबा हुआ होना
चाहिये।
बुद्ध पुरुष न बोले तो उस की आंखो से,
उस के मौन से, उस की चेष्ठा से सुनो।
कथा श्रवण से परिवर्तन न हो तो भी कथा
श्रवण न छोडो, कभी न कभी तो
परिवर्तन आयेगा ही।
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59 22/05/2020
सात्विक तात्विक संवाद आध्यात्म यज्ञ हैं जिस में अग्नि
प्रगट होती हैं, भीतर
प्रजल्वित यज्ञ में आहूति डाली जाती हैं, यह सुक्ष्म यज्ञ हैं।
मौन संवाद के यज्ञ में मौन सतसंग चलता
हैं।
मुक्त सतसंग में सब बोल शकते हैं।
महाभारत में द्रौपदी का और रामायण में
जानकी स्वयंवर की चर्चा हैं। एक
आध्यात्त्मिक स्वयंवर भी हैं।
रामायण
का स्वयंवर
|
महाभारत
का स्वयंवर
|
जानकी
|
द्रौपदी
|
जानकी
का गौर वर्ण हैं, ईसी लिये उस का नाम श्वेता भी हैं
|
कृष्ण
वर्ण हैं,
ईसी लिये उसका नाम क्रिष्ना हैं |
त्रेता
युग का समय हैं
|
द्वापर
युग का समय हैं
|
जानकी
का जन्म पृथ्वी से
प्रगट होती हैं, धरणी सूता हैं |
द्रौपदी
स्वयं यज्ञ कुंड
से जन्मती हैं |
जानकी
स्वभाव से शांत हैं
सीता
शांति हैं
|
द्रौपदी
स्वभाव से उग्र हैं
|
मा
जनकी
|
|
जानकी
में धरा का धैर्य हैं
क्यों कि वह पृथ्वी की पुत्री हैं |
द्रौपदी
में अग्नि की
ज्वाला की तरफ उग्रता हैं |
स्वयंवर
रचा गया
रंग
भूमि हैं
|
स्वयंवर
रचा गया
रंग
भूमि हैं
|
यज्ञ
मंडप रचा गया हैं
कई
राजा महाराजा आये हैं
|
यज्ञ
मंडप रचा गया हैं
कई
राजा महाराजा आये हैं
|
मा
जानकी के स्वयंवर में
स्वयं नारायण – राम पधारते हैं |
स्वयं
नर – अर्जुन आया हैं
|
स्वयंवर
में भगवान राम
उपर – जानकी की तरफ - देखते हैं |
स्वयंवर
में द्रष्टि नीचे
तरफ हैं – मछली की तरफ द्रष्टि हैं |
धनुष्य
का भंग करने की शर्त हैं
धनुष्य
भंग का संकेत
युद्ध न करना हैं |
धनुष्य
तोडना नहीं हैं,
धनुष्य चढाना हैं, धनुष्य चढानेका संकेत युद्ध करनेका हैं |
परमात्मा
पद्म रुप हैं
|
अर्जुन
छद्म रुप हैं
– छिपा हुआ रुप हैं |
सब
राजा छतप्रभ होता हैं
|
कर्ण
तेज वध होता हैं
|
यहां
करुना की वर्षा हैं
|
द्रौपदी
स्वयं
पांच पांडवोमें बट जाती हैं |
यहां
मुक्ति हैं
|
केवल
मृत्यु हैं
|
त्रिभुवन
गुरु शिव अव्यक्त
रुपमें उपस्थित हैं, शिव की प्रार्थना की गई हैं, यहां शिव की भूमिका हैं |
यहां
जगद गुरु कृष्ण
की भूमिका हैं |
सजल
नेत्र हैं,
प्रेम पियासे नैन आदि आदि |
केवल
नीचे जल हैं
|
खेलत
मनसिज मीन
जुग जनु बिधु मंडल डोल॥ |
मछली
की आंख को
वेधना हैं |
विदेह राज की नगरी में,
जानकी पृथ्वी से नीकली, पृथ्वी में समा गई |
द्रौपदी
आग से
नीकली और हिमालय की बर्फिली चट्टानो में समा गई |
१४
वर्ष का वनवास
|
१२
साल का वनवास,
१ साल का अज्ञात वास – गुप्त वास |
जानकीजी
अग्नि से पसार हुई
|
दौपदी
स्वयं अग्नि स्वरुपा हैं
|
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥
शरीर
दुबला हो गया है,
सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥4॥ |
द्रौपदी
के बाल खुल्ले हैं
|
रावण
को कुत्ता कहा हैं
सो दससीस स्वान की नाईं।
इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
वही
दस सिर वाला
रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई (चोरी) के लिए चला।
यहां
अधर्म था
|
स्व्रगारोहण
के वक्त
एक कुत्ता हैं जो धर्म स्वरुप हैं |
सीता
को पृथ्वी के अंदर समाना हैं
|
द्रौपदी
को अग्नि
में उपर जाना हैं |
जानकी
स्वेता होते हुए
काली मिट्टि में समा गई |
द्रौपदी
कृष्ण वर्णा होते
हुए श्वेत पहाडी – वरफ में समा गई |
जानकी
का अपहरण एक दानव
द्वारा हुआ
एकान्त
में अपहरण हुआ
|
द्रौपदी
उपर अत्याचार
मानव रुप वाले ने किया, चिर हरण वगेरे
चिर
हरण भरी सभा में हुआ
|
अपहरण
को रोकनेके लिये
जटायु आता हैं |
चिर
हरण में
विकर्ण खडा हुआ |
सब
चुप हैं
|
सब
चुप हैं
|
जनक
की प्रतिज्ञा
|
द्रुपद
की प्रतिज्ञा
|
मंदिर में मूर्ति बडी नहीं होती हैं,
लेकिन, मंदिर, मंदिर के उपर शिखर, शिखर के
उपर ध्वज दंड, उसके उपर ध्वजा होती हैं।
******
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
પરણે શબ્દ
સુરતા નાર
મરજીવા હશે
તે વિવાહ
ને માણશે
લક્ષ મળયા
જેને લગાર....
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
સુરતા નુ
સગપણ ગુરુજી
એ કયુઁ
ઉચુ કુળ
અવિનાશ
સાકર વેચાણી
સાચા ભાવ
ની
લેશે જેને
પીયુ મળ્યા
ની પ્યાસ
.....'સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
લગની ના
લગન બંધાવીયા
મોકલા પંડીત
પૂર્ણાનંદ
સત ના
રસ્તે થઇ
ચાલ્યા
ચાલ્યા એકા
એક અસંગ.........
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
માડંવો નખાવ્યો
ગુરુ એ
મરમ નો
સ્થીરતા ના
રોપ્યા થઁભ
માયરુ કરાવીયુ
મન સંતોષ
નું
અવિચળ ચુડો
પહેર્યો અભંગ........
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
ગુણ અવગુણ
ના ગીત
ગાયા
મળ્યા મનુષ્ય
અપાર
ખારેકુ વેચાણી
ખોટા કરમ
ની
લઈ ગયા
નિંદક નર
ને નાર.........
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
સજ્જન પુરુષે
સારા કરમ
ની
ખોબે ધોબે
દીધી લાણ
વાણી રે
બોલે નીર્મળ
વૈખરી
સેવા ચુકયા
નહી સુજાણ.........
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
જાન રે
ગુમાવે હાલો
જાન માં
આપુ ખોયા
ની હોય
આશ
હુ તુ
મારુ હરદે
નહી
એવા વળાવીયા
લેજો સાથ......
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
અરધ ઉરધ
કેરા ઘાટ
માં
સુક્ષ્મના એ
ખોલ્યો કબાટ
ચંન્દ્ર લગની
રે ચડી
ગઈ શુન
માં
પુરુષ પત્ની
રમે ચોપાટ...........
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
શરત કરી
ને રમે
સુદંરી
પાસા જેના
પડ્યા છે
પોબાર
હુ રે
હારુ તો
પિયુજી ની
પાસ માં
જીતુ તો
ભેળા રાખુ
ભરથાર.......
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
અવીચળ પૂરુષ
ને એમ
વરી
સુરતા સોહાગણ
નાર
અમર મોડ
મસ્તક ધરી
મંગલ વરતી
છે ચાર.............
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
નિમક ની
પુતળી નીર
માં
નીર ભેળી
નીર થાય
મૂળ રે
વતન મા
મળી ગયા
પોતે પોતા
મા સમાય.......
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
વિવાહ રે
વિત્યો ને
મોડ થાંભલે
ઉકરડી નો
કરયો છે
ઉછેટ
ખોટી કરતી
તી ખોટી
કલ્પના
પરણી પધાર્યા
પોતાને દેશ........
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
વણૅન કીધુ
રે વીવા
તણુ
ગુરુ ગમ
થી જે
ગાય
“
દાસ સવો
”કહે સખી
સજની
સુરતા શબ્દ
મા સમાય............
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
પરણે શબ્દ
સુરતા નાર
મરજીવા હશે
તે વિવાહ
ને માણશે
લક્ષ મળયા
જેને લગાર....
સ્વયંવર સતગુરુજી
ના દેશ
માં
*****
गुरु किस को मिलाना चाहते हैं?
यह देहांति आध्यात्म हैं। सुरता कन्या
हैं, शब्द दुल्हा हैं। सुरता शिष्य की ओर से
आती हैं, शब्द गुरु की ओरसे आता हैं, जो
जुड जाते हैं।
शिष्य के पास सुरता होनी चाहिये, गुरु
के पास शब्द – शब्द ब्रह्म होना चाहिये
गुरु शबद हैं। गुरु के आंगन में शिष्य की सुरता
और गुरु का शब्द जुड जाते हैं।
कन्या के कई रुप, आकार हैं।
सुरता रुपी कन्या के तीन प्रकार हैं।
कभी कभी हम वैभव विलास में हमारी सुरता
लग जाती हैं।
नुर सुरता का मतलब प्रकाश, उजाला, आलोक
बगेरे
प्रकाश में सुरता लगना ….
रावण की सुरता परमात्मा के नुर -प्रकाश
में समा जाती हैं।
मूर सुरता जो मूल तत्व परमात्मा हैं,
सजीवन मुल हैं। परमात्मा मुल तत्व हैं।
राम सुंदर हैं, राम परम प्रकाश रुप हैं,
राम मूल हैं।
गुरु शिष्य के मिलन में शिष्य की सुरता
और गुरु का शब्द होना चाहिये। शब्द
ब्रह्म हैं, गुरु चाहता हैं उसके शिष्य कि सुरता
ब्रह्म में जुड जाय। अपनी सुरता को
दुलहन बना के गुरु के शब्द जो दुल्हा हैं उसके साथ
सादी करा दे। सुरता पति
प्रिया हो जाय, जिस से हमारा अखंड सौभाग्य हो जायेगा,
हम सुहागन
हो जायेगें।
आफत के आदती बनने बजाय अश्रु और आश्रय
से हम आफत से बच शकते हैं,
उपर ऊठ शकते हैं।
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60 23/05/2020
गीता में भगवान क्रिष्ण कहते हैं कि
मनुष्य बिना कर्म एक क्षण भी नहीं रह
शकता, कभी कभी शरीर कुछ नहीं करता हैं, लेकिन
हमारी ईन्द्रियां कई प्रकार
के कार्य करती रहती हैं, मन भी कर्म मुक्त रह नहीं शकता
हैं।
जिस का मन संयमित हैं, जो अमन हो गये
हैं उस की महिमा हैं।
बुद्धि, चित और अहंकार भी कर्म करते
रहते हैं।
गीता में भी ज्ञान योग, कर्म योग और
भक्ति योग की चर्चा हैं।
साधु की व्याख्या क्या हैं?
सत्यमेव
व्रतं यस्य दया दीनेषु सर्वदा ।
कामक्रोधौ
वशे यस्य स साधुः – कथ्यते बुधैः ॥
'केवल सत्य' ऐसा जिसका व्रत है, जो सदा
दीन की सेवा करता है, काम-क्रोध
जिसके वश में है, उसीको ज्ञानी लोग 'साधु' कहते हैं
।
कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ-कृपाल-कृपा
तें, संत सुभाव गहौंगो।
जथा लाभ संतोष सदा, काहू
सों कछु न चहौंगो।
परहित निरत निरंतर, मन
क्रम बचन नेम निबहौंगो।
परुष बचन अति दुसह स्रवन,
सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान सम सीतल मन,
पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो।
परिहरि देह जनित चिंता
दु:ख सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसीदास प्रभु यहि पथ
रहि अबिचल हरिभक्ति लहौंगो।
हमारा कर्म न हो लिकिन स्वभाव होना चाहिये,
संत का स्वभाव प्राप्त हो ऐसी प्रभु
कृपा करे।
जिस का एक मात्र व्रत सत्य हैं, वहीं
साधु हैं। व्रत के अनेक प्रकार हैं।
सत्य विचार, सत्य उच्चार, सत्य आचार
जिस का व्रत हैं वह साधु हैं।
जो सदा वंचित, उपेक्षित, पिडित दीन जन
समुदाय पर स्वाभाविक करूणा करता
हैं, जो काम क्रोध आदि आवेग जिस के वश में हैं, जो
प्रेम से काम क्रोध को
आधिन करता हैं, वह साधु हैं।
साधु करुणा करके कोई कर्म करता हैं तो
वह कर्म नहीं हैं लेकिन उसका सहज
स्वभाव हैं। करुणा दिखने में तो कर्म लगता हैं लेकिन
यह साधु की सहजता हैं।
वह कर्म करते हुए अकर्ता हैं। जो अपने स्वरुप को – आत्म तत्व
को समज लेता हैं
वह कर्म करते हुए अकर्ता हैं।
कर्म को योग कहा हैं। योगः कर्मसु कौशलम्।
उत्तमा सहजा अवस्था ऐसा हमारे ग्रंथ
कहते हैं।
परमात्मा कृष्ण लीला कार्य में कर्म
करए हुए अकर्ता हैं, हम भी उसके अंश के
नाते कुछ शिख शकते हैं।
भजन में संतोष होना चाहिये या असंतोष
?
भजन को श्वास बना चाहिये, श्वास बम्ध
करोगे तो मृत्यु हैं, भजन में संतोष/असंतोष
ठीक नहीं हैं, भजन श्वास हैं।
सहजम् कर्म कौन्तेय।
कर्म को यज्ञ कैसे बनाये? कर्म को योग
कैसे बनाये?
हमें कर्म तो करना ही पडेगा, लेकिन कर्म
को यज्ञ बनाने के लिये हमें कुछ करना
पडेगा।
१
अहंता और ममता को छोड कर किया गया प्रत्येक
कर्म यज्ञ बन जाता हैं। ममता
छोडना का मतलब हैं यह कर्म मेरे लिये नहीं हैं, सब के
लिये हैं।
२
कोई भी कर्म स्पर्धा से न करो लेकिन
श्रद्धा से कर्म करो तो वह कर्म यज्ञ कर्म बन
जाता हैं। स्पर्धा से किया गया कर्म जय
देता हैं लेकिन विजय नहीं देता हैं, विजय
तो श्रद्धा से किये गये कर्म से ही मिलता
हैं। जय और विजय अलग हैं। प्रत्येक कर्म
निति से करो, प्रमाणिकता से करो तो वह कर्म
यज्ञ हो जायेगा। कर्म एक विवेक
पूर्ण मर्यादा में रह कर करो, कर्म निति से करो, कर्म
रीति से करो और कर्म प्रीति
से करो तो वह कर्म यज्ञ बन जायेगा।
३
कर्म निमित बन कार करो, कर्म से भागना
नहीं हैं लेकिन फक्त निमित बन कर
करो तो वह कर्म यज्ञ हैं। बदला लेने के लिये किया
कर्म बंधन हैं, लेकिन बलिदान
से किया गया कर्म यज्ञ हैं। बलिदान का मतलब बदला नहीं
हैं। दक्ष का यज्ञ बदला
लेने के किया गया था ईसी लिये वह यज्ञ विफल हुआ।
आसक्ति मुक्त होकर कर्म करो। अगर कर्म
नहीं होता हैं तो कोई बाधा नहीं हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन ।
मा
कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार
है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू
फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच
की फल की आशा के बिना
कर्म क्यों करूं | ॥47॥
इस श्लोक में चार तत्त्व हैं – १. कर्म करना तेरे हाथ में है | २. कर्म का
फल किसी
और के हाथ में है |३. कर्म करते समय फल की इच्छा मत कर | ४. फल की इच्छा
छोड़ने
का यह अर्थ नहीं है की तू कर्म करना भी छोड़
दे |
कर्म फल की अपेक्षा रखे बिना करो, फलाकांक्षा
छोड दो।
हमें फल के लिये नहीं लेकिन रस की लिये
कर्म करना चाहिये।
फल की अपेक्षा बिना किये गये कर्म में
अस्तित्व भी सहाय करता हैं।
दुसरों को दिखाने के लिये कर्म न करो,
दंभ युक्त कर्म यज्ञ नहीं बनता हैं लेकिन
दंभ मुक्त होकर किया गया कर्म यज्ञ बनता हैं।
कर्म का बुरा फल खुद भोग लो और कर्म
का अच्छा फल बांट दो।
ईशावास्य उपनिषद में एक सूत्र है -तेन त्यक्तेन भुंजीथा:! इसका अर्थ है कि जो
त्याग करते
हैं वे ही भोग पाते हैं।
મરીઝ પણ કહે છે કે ….
બસ એટલી સમજ મને પરવરદિગાર દે
સુખ જ્યારે જ્યાં મળે ત્યાં બધાના વિચાર દે
“ત્યાગીને ભોગવી જાણો” એવું પણ
કહેવાયું છે.
स्थुल रुप में हुए यज्ञ में बाधा आती
हैं, लेकिन सहज यज्ञ की रक्षा तो राम लक्ष्मण
करते हैं।
भक्ति कर्म हैं?
भक्ति कर्म नहीं हैं लेकिन रस हैं।
हरिनाम स्वयं रामरस हैं।
61 24/05/2020
विराम दिन की हरि कथा, संवाद
भगवान बुद्धने चार आर्य सत्य की बात
कही हैं।
१ आर्य सत्य
जगत में दुःख हैं।
२ आर्य सिद्धांत
कार्य कारण के सिद्धांत अनुसार दुःख
के कारण भी होने चाहिये।
३ आर्य सिद्धांत
दुःख के निवारण के उपाय भी हैं।
४ आर्य सिद्धांत
दुःख के निवारण के उपाय हम कर शकते हैं
भगवद गीता में कहा हैं …..
इन्द्रियार्थेषु
वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.9।।
।।13.9।।इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका
होना, अहंकारका भी न होना और जन्म,
मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको
बार-बार देखना।
।।13.9।। इन्द्रियों के विषय के प्रति
वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु,
वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन...৷৷.।।
जन्म दुःख हैं यह सही हैं। माता को प्रसव
की पीडा होती हैं, लेकिन जन्म लेनार
बालक को कितना दुःख हैं उसका पता नहीं, लेकिन दुःख
होता हैं।
मृत्यु भी दुःख हैं जिस के कई कारण हैं।
हम पुनःजन्म में मानते हैं।
पुनरपि
जननम् पुनरपि मरणं |
पुनरपि
जननि जठरे शयनं ||
बुढापा भी दुःख हैं।
हे
मानव !
तेरे अंगम गलितं पलितं मुंडम दशन विहीनं
जातुम तुनडम ।
बृद्धो याति गृहित्वा दंड तदपि
न मुन्चित आशा पिण्डम
लेकिन तेरी जीने की आशा नहीं छूटती
। लकड़ी लेकर चलता है
मुख
दन्त
विहीन हो गया है। अब न त्तेरा कोई शत्रु है न कोई मित्र। सबसे मेल
करके रख। यदि तु भगवान् के पद को प्राप्त
करना चाहता है तो गोविन्द
का भजन
कर।
व्याधि – रोग भी दुःखदायक हैं।
भगवान बुद्ध कहते हैं कि यह सभी दुःखो
का कारण हमारी तृष्णा हैं। तीन प्रकार
की ईष्णा (सुतेष्णा – हमारा वंश चलता रहे उसकी
ईच्छा, लोकेष्णा – लोक
प्रतिष्ठा, समाजसे हमे प्रतिष्ठा मिले ऐसी ईच्छा, वितेष्णा –
धन की, सुख साधनो की
ईच्छा) को तृष्णा कहते हैं।
भगवान बुद्ध तृष्णा को दुःख का कारण
मानते हैं।
मानस में भी लिखा हैं …..
कीट
मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी।
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी।।3।।
मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा
धैर्यवान कौन है, जिसके शरीर में य
कीड़ा न लगा हो ? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा
की-इन तीन प्रबल इच्छाओं
ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)
?।।3।।
ईष्णा बडे बडे की बुद्धि को मलिन करा
देती हैं।
आज कल बुद्धि नष्ट नहीं हुई हैं, विकसित
हुइ हैं, लेकिन यह तीन प्रकार की तृष्णा
के कारण मलिन हुइ हैं।
नंद यशोदा ने अपनी सुतेष्णा को कृष्ण
में लगा दी, ईष्णा कृष्णा बन गई। व्रजवासी
तो वितेष्णा के बारे में कहते हैं कि, “हमारो
धन राधा राधा” और “पायोजी हमने
राम रतन धन पायोजी”।
भगवान बुद्ध तृष्णा से बचनेके लिये सम्यकता
रखनेका कहते हैं
ईष्णा को क्रिष्णा में लगानेसे, दिशा
बदलनेसे हम तृष्णा के दुःख से बच शकते हैं।
हम वट नहीं बन शकते हैं, पर हम वट की
छांव में बैठ शकते हैं, हम साधु नहीं
बन शकते लेकिन हम साधुकी छांव में बैठकर आश्रित
बनकर धन्य हो शकते हैं।
आज के दुःख के विकट समयमें हमें हकारात्मक
बन कर रहना पडेगा, धैर्य धारण
करना पडेगा।
दुःख हैं तो सुख भी हैं, दोनो सापेक्ष
हैं।
मृत्यु एक महोत्सव हैं, आत्मा एक नया
परिवेश धारण करता हैं।
महाभारतकार मृत्यु को एक सुंदर स्त्री
कहते हैं। मृत्यु भगवान की विभूति हैं।
बुढापा अगर जीना शीख ले तो बुढापा का
आदर होता हैं जो एक सुख हैं। हम
बुजर्ग को आदर देते हैं।
व्याधि रोग हैं, पीडा हैं।
व्याधि के कारण हैं, लेकिन हमें पता
नहीं हैं।
कृष्ण शंकर दादा कहते हैं कि रोग शंकर
के गण हैं, यह गण शंकर के आसपास
घुमते हैं और रोग – व्याधि एक तपस्या हैं।
करहिं
बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर
गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥
शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास
करते हुए अपने गणों सहित कैलास
पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार
बहुत समय बीत गया॥3॥
व्याधि को हकारात्मक रुप में लेना चाहिये।
सुख हैं और सुख के कारण भी हैं।
हम सुख स्वरुप, आनंद स्वरुप हैं, क्यो
कि सहज सुख राशी हैं, हम अमृत के पुत्र
हैं।
हमारा जन्म दिव्य भारत में हुआ हैं।
सुख के उपाय भी हैं।
नहिं
दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत
मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर
उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।
जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं
है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में
सुख नहीं है। और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर
से परोपकार करना यह
संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।
संत मिलन से, सज्जन मिलन से, शास्त्र
संग से, भगवत चर्चा से, शुद्धो के मिलन से
सुख मिलता हैं।
भक्ति
सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं संता। सतसंगति संसृति
कर अंता।।3।।
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान
है। परन्तु सत्संग (संतोके संग) के बिना
प्राणी इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूहके बिना
संत नहीं मिलते। सत्संगति ही
संसृति (जन्म-मरणके चक्र) का अन्त करती है।।3।।
हमारे पून्यो से साधु मिलता हैं।
आजु
धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा।
बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।4।।
हे मुनीश्वरों ! सुनिये, आज मैं धन्य
हूँ। आपके दर्शनों ही से [सारे] पाप नष्ट हो जाते
हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की
प्राप्ति होती है, जिससे बिना ही परिश्रम जन्म-मृत्यु
का चक्र नष्ट हो जाता है।।4।।
साधु एक छांव हैं जहां आश्वासन मिलता
हैं, सुख मिलता हैं।
सुख के उपाय हैं और यह उपाय प्राप्त
कर शकते हैं, उपाय शक्य भी हैं।
हरि नाम से सुख मिलता हैं, सुख पाने
का सब से बडा उपाय हरिनाम हैं।
सुखावसाने
इदमेव सारं दु:खावसाने इदमेव ज्ञेयम्।
देहावसाने
इदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति।।
सुख के अंत में यही सार है, दु:ख के
अंत में यही गाने योग्य है और शरीर का अंत
होने के समय भी यही मन्त्र जपने योग्य है,
कौन-सा मन्त्र? यही कि ‘हे गोविन्द ! हे
दामोदर ! हे माधव !’
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