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Saturday, October 26, 2019

નાથ

રામ ચરિત માનસમાં નાથ શબ્દ વપરાયો હોય તેવી પંક્તિઓનું સંકલન કરી તેને પાંચ ભાગમાં પ્રકાશિત કરવામાં આવી છે.

નીચેની લિંક ઉપર ક્લિક કરવાથી જે તે ભાગ જોવા મળી શકશે.


નાથ - ભાગ ૧ 


નાથ - ભાગ ૨


નાથ - ભાગ ૩


નાથ - ભાગ ૪


નાથ - ભાગ ૫

નાથ - ભાગ ૫

રામ ચરિત માનસમાં નાથ શબ્દ વપરાયો હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.

ભાગ ૫




तव बल नाथ डोल नित धरनीतेज हीन पावक ससि तरनी
सेष कमठ सहि सकहिं भारासो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥
 (वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थीअग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थेशेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥3॥

बरुन कुबेर सुरेस समीरारन सन्मुख धरि काहुँ धीरा
भुजबल जितेहु काल जम साईंआजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥
वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं कियाहे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया थावही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥4॥


अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥
अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान्ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥


कह रघुबीर कहा मम मानहुसीतहि सखा पयादें आनहु
देखहुँ कपि जननी की नाईंबिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥
श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखेंगोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥


मीन कमठ सूकर नरहरीबामन परसुराम बपु धरी
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायोनाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥
आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किएहे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया॥4॥

जय राम सदा सुख धाम हरेरघुनायक सायक चाप धरे।।
भव बारन दारन सिंह प्रभोगुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥
हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय होहे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैंहे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं‍॥1॥

तन काम अनेक अनूप छबीगुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी।।
जसु पावन रावन नाग महाखगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥
आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परंतु अनुपम छवि हैसिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैंआपका यश पवित्र हैआपने रावणरूपी महासर्प को गरुड़ की तरह क्रोध करके पकड़ लिया।।2।।


जय दूषनारि खरारिमर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथभए देव सकल नाथ।।2।।
हे खरदूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करने वाले! आपकी जय हो! हे नाथ! आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए।।2।।


नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ।।115।।
हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा ।।115।।


सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअपुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ
सुनत बचन मृदु दीनदयालासजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥
हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिएविभीषणजी के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥4॥


यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥121
अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर हैइसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥121 ()॥


चौ.-रहेउ एक दिन अवधि अधारासमुझत मन दुख भयउ अपारा।।
कारन कवन नाथ नहिं आयउजानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।1।।

प्राणों की आधाररूप अवधि का एक दिन शेष रह गया! यह सोचते ही भरत जी के मनमें अपार दुःख हुआक्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आये ? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया ?।।1।।

अहह धन्य लछिमन बड़भागीराम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हाताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।

अहा ! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं; जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया!।।2।।


छं.-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो
काहे होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।

रघुवंश के भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं ? भरतजी के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े [और मन में विचारने लगे कि] जो चराचर के स्वामी हैं वे श्रीरघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों हों ?

दो.-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष हृदय समात।।2।।

[हनुमान् जी ने कहा-] हे नाथ ! आप श्रीरामजी को प्राणों के समान प्रिय हैं, हे तात ! मेरा वचन सत्य हैयह सुनकर भरत जी बार-बार मिलते हैं, हृदय हर्ष समाता नहीं है।।2()।।

बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि आवई
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई।।
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।।2।।

कृपानिधान श्रीरामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं; परन्तु आनन्दवश भरतजीके मुखसे वचन शीघ्र नहीं निकलते। [शिवजीने कहा-] हे पार्वती ! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजीको मिल रहा था) वचन और मन से परे हैं; उसे वही जानता है जो उसे पाता है। [भरतजीने कहा-] हे कोसलनाथ ! आपने आर्त (दुखी) जानकर दासको दर्शन दिये है, इससे अब कुशल हैविरहसमुद्रमें डूबते हुए मुझको कृपानिधान हाथ पकड़कर बचा लिया !।।2।।


दो.-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ।।8।।

फिर उन लोगों ने कौसल्या जी के चरणोंमें मस्तक नवायेकौसल्याजीने हर्षित होकर आशिषें दीं [और कहा-] तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो।।8()।।


होहिं सगुन सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9।।

अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाशमें नगाड़े बज रहे हैंनगर के पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शनद्वारा कृतार्थ) करके भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महल को चले ।।9()।।


तव बिष माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे।।
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे।।2।।

हे हरे ! आपकी दुस्तर मायाके वशीभूत होनेके कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर अचर सभी काल, कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैंहे नाथ ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टिसे) देख लिया, वे [माया-जनित] तीनों प्रकारके दुःखोंसे छूट गयेहे जन्म मरणके श्रमको काटने में कुशल श्रीरामजी ! हमारी रक्षा कीजियेहम आपको नमस्कार करते हैं।।2।।


जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति आदरी
ते पाइ सुर दुर्लभ पददापि परम हम देखत हरी।।
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहीं भव नाथ सो समरामहे।।3।।

जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेषरूपसे मतवाले होकर जन्म-मृत्यु [के भय] को हरनेवाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि ! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओंको भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होनेवाले, ब्रह्मा आदिके) पदको पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं। [परन्तु] जो सब आशाओं को छोड़कर आपपर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागरसे तर जाते हैंहे नाथ ! ऐसे हम आपका स्मरण करते हैं।।3।।


जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।

ब्रह्म अजन्म है, अद्वैत है केवल अनुभवसे ही जाना जाना जाता है और मन से परे है-जो [इस प्रकार कहकर उस] ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किन्तु हे नाथ ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैंहे करुणा के धाम प्रभो ! हे सद्गुणोंकी खान ! हे देव ! हम यह बर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणोंमें ही प्रेम करें।।6।।


मनजात किरात निपातकिएमृग लोक कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरेबिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।

कामदेवरूपी भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया हैहे नाथ ! हे [पाप-तापका हरण करनेवाले] हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये।।4।।


दो.-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17।।

जाम्बवान् और नील आदि सबको श्रीरघुनाथजीने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनायेवे सब अपने हृदयों में श्रीरामचन्द्रजीके रूपको धारण करके उनके चरणोंमें मस्तक नवाकर चले।।17()।।


चौ.-सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधोदीन दयाकर आरत बंधो
मरती बेर नाथ मोहि बालीगयउ तुम्हारेहि कोछें घाली।।1।।

हे सर्वज्ञ ! हे कृपा और सुख के समुद्र ! हे दीनों पर दया करनेवाले ! हे आर्तोंके बन्धु ! सुनियेहे नाथ ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोदमें डाल गया था !।।1।।


तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहाप्रभु तजि भवन काज मम काहा।।
बालक ग्यान बुद्धि बल हीनाराखहु सरन नाथ जन दीना।।3।।

हे महाराज ! आप ही विचार कर कहिये, प्रभु (आप) को छोड़कर घर में मेरा क्या काम है ? हे नाथ ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवकको शरणमें रखिये।।3।।

नीचि टहल गृह कै सब करिहउँपद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाहींअब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।4।।

मैं घर की सब नीची-से-नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलोंको देख-देखकर भवसागरसे तर जाऊँगाऐसा कहकर वे श्रीरामजीके चरणोंमें गिर पड़े [और बोले-] हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये ! हे नाथ ! अब यह कहिये कि तू घर जा।।4।।


दो.-रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।

स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है ? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-सम्पत्तियाँ अयोध्यामें छा रही हैं।।29।।


जोरि पानि कह तब हनुमंतासुनहु दीनदयाल भगवंता।।
नाथ भरत कछु पूँछन चहहींप्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।3।।

तब हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले-हे दीनदयालु भगवान् ! सुनियेहे नाथ ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मनमें सकुचा रहे हैं।।3।।

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊभरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरनासुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।4।।

[भगवान् ने कहा-] हनुमान् ! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही होभरत के और मेरे बीचमें कभी भी कोई अन्तर (भेद) है ? प्रभुके वचन सुनकर भरतजीने उनके चरण पकड़ लिये [और कहा-] हे नाथ ! हे शरणागतके दुःखोंको हरनेवाले ! सुनिये।।4।।

दो.-नाथ मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक मोह
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।

हे नाथ ! तो कुछ सन्देह है और स्वप्नमें भी शोक और मोह हैहे कृपा और आनन्दके समूह ! यह केवल आपकी ही कृपाका फल है।।36।।


चौ.-एक बार रघुनाथ बोलाएगुर द्विज पुरबासी सब आए।।
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जनबोले बचन भगत भव भंजन।।1।।

एक बार श्रीरघुनाथजीके बुलाये हुए गुरु वसिष्ठजी, ब्राह्मण और अन्य सब नगरनिवासी सभामें आयेजब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथा योग्य बैठ गये, तब भक्तोंके जन्म-मरणको मिटानेवाले श्रीरामजी वचन बोले-।।1।।


सब के बचन प्रेम रस सानेसुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने।।
निजद निज गृह गए आयसु पाईबरनत प्रभु बतकही सुहाई।।4।।

सबके प्रेमरस में सने हुए वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी हृदय में हर्षित हुएफिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गये।।4।।


दो.-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।49।।

हे नाथ ! हे श्रीरामजी ! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजियेप्रभु (आप) के चऱणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तर में भी कभी घटे।।49।।


नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर।।52।।

हे नाथ ! आपकी मुखरूपी चन्द्रमा श्रीरघुवीरकी कथारूपी अमृत बरसाता हैहे मतिधीर ! मेरा मन कर्णपुटोंसे उसे पीकर तृप्त नहीं होता।।52()।।


हरिचरित्र मानस तुम्ह गावासुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा।।
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाईकागभुसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।4।।

हे नाथ ! आपने श्रीरामचरितमानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पायाआपने जो यह कहा कि यह सुन्दर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कहीं थी-।।4।।


सब ते सो दुर्लभ सुररायाराम भगति रत गत मद माया।।
सो हरिभगति काग किमि पाईबिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।4।।

इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेवजी ! वह प्राणी अत्यन्त दुर्लभ है जो मद और मायासे रहित होकर श्रीरामजी की भक्तिके परायण होविश्वनाथ ! ऐसी दुर्लभ हरिभक्त को कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिये।।4।।

दो.-राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।।54।।

हे नाथ ! कहिये, [ऐसे] श्रीरामपरायण, ज्ञानरहित, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया ?।।54।।


जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ासमुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।
इंद्रजीत कर आपु बँधायोतब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।2।।

जब श्रीरघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करनेसे मुझे लज्जा होती है-मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया- तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा।।2।।


दो.-नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहिं काज।।63।।

हे नाथ ! हे पक्षिराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गयाआप जो आज्ञा दें, मैं अब वही करूँहे प्रभो ! आप किस कार्य के लिये आये हैं?।।63()।।


चौ.-बोलेउ काकभुसंड बहोरीनभग नाथ पर प्रीति थोरी।।
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरेकृपापात्र रघुनायक केरे।।1।।

काकभुशुण्डिजीने कहा-पक्षिराजपर उनका प्रेम कम था (अर्थात् बहुत था)- हे नाथ ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्रीरघुनाथजीके कृपापात्र हैं।।1।।

तुम्हहि संसय मोह मायामो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया।।
पठइ मोह मिस खगपति तोहीरघुपति दीन्हि बड़ाई मोही।।2।।

आपको सन्देह है और मोह अथवा माया ही हैहे नाथ ! आपने तो मुझपर दया की हैपक्षिराज ! मोह के बहाने श्रीरघुनाथजीने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है।।2।।


सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।।
छूट राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि।।71।।

वह माया श्रीरघुवीर की दासी हैयद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है, किन्तु वह श्रीरामजीकी कृपाके बिनी छूटती नहींहे नाथ ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।।71()।।


नाथ इहाँ कछु कारन आनासुनहु सो सावधान हरिजाना।।
ग्यान अखंड एक सीताबरमाया बस्य जीव सचराचर।।2।।

हे नाथ ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण हैहे भगवान् के वाहन गरुड़जी ! उसे सावधान होकर सुनियेएक सीतापति श्रीरामजी ही अखण्ड ज्ञानस्वरुप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं।।2।।


चौ.-निज मति सरिस नाथ मैं गाईप्रभु प्रताप महिमा खगराई।।
कहउँ कछु करि जुगुति बिसेषीयह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।1।।

हे पक्षिराज ! हे नाथ ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभुके प्रताप और महिमाका गान कियामैंने इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कहीं है यह सब अपनी आँखों देखी कही है।।1।।


नाथ सुना मैं अस सिव पाहींमहा प्रलयहुँ नास तव नाहीं।।
मुधा बचन नहिं ईश्वर कहईसोउ मोरें मन संसय अहई।।3।।

हे नाथ ! मैंने शिवजीसे ऐसा सुना है कि महाप्रलयमें आपका नाश नहीं होता और ईश्वर् (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहींवह भी मेरे मन में संदेह है।।3।।

अग जग जीव नाग नर देवानाथ सकल जगु काल कलेवा।।
अंड कटाह अमित लय कारीकालु सदा दुरतिक्रम भारी।।4।।

[क्योंकि] हे नाथ ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत् कालका कलेवा हैअसंख्य ब्रह्माण्डोंका नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है।।4।।


दो.-प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।।94।।

हे प्रभो ! आपके आश्रममें आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गयाइसका क्या कारण है ? हे नाथ ! यह सब प्रेमसहित कहिये।।94()।।


देखउँ करि सब करम गोसाईंसुखी भयउँ अबहिं की नाईं।।
सुधि मोहि नाथ जनम बहु केरीसिव प्रसाद मति मोहँ घेरी।।5।।

हे गोसाईं ! मैंने सब कर्म करके देख लिये, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआहे नाथ ! मुझे बहुत-से जन्मों की याद है। [क्योंकि] श्रीशिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि मोहने नहीं घेरा।।5।।


हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊसुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ।।
अधम जाति मैं बिद्या पाएँभयउँ जथा अहि दूध पिआएँ।।3।।

गुरुजीने शिवजी को हरि का सेवक कहायह सुनकर हे पक्षिराज ! मेरा हृदय जल उठानीच जाति का विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से साँप।।3।।


यावद् उमानाथ पादारविन्दभजंतीह लोके परे वा नराणां।।
तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशंप्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।

जबतक पार्वती के पति आपके चरणकमलों से मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और उनके तापों का नाश होता हैअतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हूजिये।।7।।


जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु।।108।।

[ब्राह्मणने कहा-] हे प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और हे नाथ ! यदि इस दीनपर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिये।।108()।।


संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल।।108।।

हे दीनों पर दया करने वाले (कल्याणकारी) शंकर ! अब इसपर कृपालु होइये (कृपा कीजिये), जिससे हे नाथ ! थोड़े ही समय में इसपर शापके बाद अनुग्रह (शाप से मुक्ति) हो जाय।।108()।।


भगतिहि ग्यानहिं नहिं कछु भेदाउभय हरहिं भव संभव खेदा।।
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतरसावधान सोउ सुनु बिहंगब।।7।।

भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं हैदोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैंहे नाथ ! मुनीश्वर इसमें कुछ अंतर बतलाते हैंहे पक्षिश्रेष्ठ ! उसे सावधान होकर सुनिये।।7।।


दो.-यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि जानइ कोइ।।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह होइ।।116।।

श्रीरघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाताश्रीरघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता।।116()।।


चौ.-पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊजौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानीसप्त प्रस्न मम कहहु बिचारी।।2।।

पक्षिराज गरुड़जी फिर प्रेमसहित बोले-हे कृपालु ! यदि मुझपर आपका प्रेम है, तो हे नाथ ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखानकर कहिये।।1।।

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधारासब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन सुख भारीसोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।2।।

हे नाथ ! हे धीरबुद्धि ! पहले तो यह बताइये कि सबसे दुर्लभ कौन-सा शरीर है ? फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिये।।2।।


चौ.-कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपाब्यास समास स्वमति अनुरूपा।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारीराम भजिअ सब काज बिसारी।।1।।

हे नाथ ! मैंने श्रीहरि का चरित्र अपनी बुद्धिके अनुसार कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे कहाहे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियोंका यही सिंद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्रीरामजीका भजन करना चाहिये।।1।।

प्रभु रघुपति तजि सेइअ काहीमोहि से सठ पर ममता जाही।।
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहानाथ कीन्हि मो पर अति छोहा।।2।।

प्रभु श्रीरघुनाथजीको छोड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाय, जिनका मुझ-जैसे मूर्खपर भी ममत्व (स्नेह) हैहे नाथ ! आप विज्ञानरूप हैं, आपको मोह नहीं हैआपने तो मुझपर बड़ी कृपा की है।।2।।


नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ।।123।।

हे नाथ ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रक्खा। [फिर भी] श्रीरघुवीरके चरित्र समुद्रके समान हैं; क्या उनकी कोई थाह पा सकता है ?।।123()


मोह जलधि बोहित तुम्ह भएमो कहँ नाथ बिबिध सुख दए।।
मो पहिं होइ प्रति उपकाराबंदउँ तव पद बारहिं बारा।।2।।

मोहरूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिये आप जहाज हुएहे नाथ ! आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख दिये (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदलें में उपकार) नहीं हो सकतामैं तो आपके चरणोंकी बार-बार वन्दना ही करता हूँ।।2।।


जहँ लगि साधन बेद बखानीसब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाईराम कृपाँ काहूँ एक पाई।।4।।

जहाँ तक वेदोंने साधन बतलाये हैं, हे भवानी ! उन सबका फल श्रीहरिकी भक्ति ही हैकिंतु श्रुतियोंमें गायी हुई वह श्रीरघुनाथजीकी भक्ति श्रीरामजीकी कृपासे किसी एक (विरले) ने ही पायी है।।4।।


सुनि सब कथा हृदय अति भाईगिरिजा बोली गिरा सुहाई।।
नाथ कृपाँ मम गत संदेहाराम चरन उपजेउ नव नेहा।।4।।

[याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-] सब कथा सुनकर श्रीपार्वतीजीके हृदय को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुन्दर वाणी बोलीं-स्वामीकी कृपा से मेरा सन्देह जातास रहा और श्रीरामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया।।4।।


सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैंइनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।


कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130।।

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130()।।

श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।