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Friday, October 25, 2019

નાથ - ભાગ ૧


રામ ચરિત માનસમાં નાથ શબ્દ વપરાયો હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.

ભાગ ૧

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥


मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी
तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली हैमेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी हैप्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगीश्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है


सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥
श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार कियानाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥24॥


भायँ कुभायँ अनख आलस हूँनाम जपत मंगल दिसि दसहूँ
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथाकरउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता हैउसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥


हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28
सब लोग मुझे श्री रामजी का सेवक कहते हैं और मैं भी (बिना लज्जा-संकोच के) कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता), कृपालु श्री रामजी इस निन्दा को सहते हैं कि श्री सीतानाथजी, जैसे स्वामी का तुलसीदास सा सेवक है॥28 ()॥


जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि प्रिय रघुनाथ॥38॥
जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। (अर्थात्श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)॥38॥


सुनि अनुकथन परस्पर होईपथिक समाज सोह सरि सोई
घोर धार भृगुनाथ रिसानीघाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥
इस कथा को सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है, वही इस नदी के सहारे-सहारे चलने वाले यात्रियों का समाज शोभा पा रहा हैपरशुरामजी का क्रोध इस नदी की भयानक धारा है और श्री रामचंद्रजी के श्रेष्ठ वचन ही सुंदर बँधे हुए घाट हैं॥2॥


नाथ एक संसउ बड़ मोरेंकरगत बेदतत्त्व सबु तोरें
कहत सो मोहि लागत भय लाजाजौं कहउँ बड़ होइ अकाजा॥4॥
हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात्आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं) पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है (भय इसलिए कि कहीं आप यह समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान हुआ) और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है (क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ)॥4॥


अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहूहरहु नाथ करि जन पर छोहू
राम नाम कर अमित प्रभावासंत पुरान उपनिषद गावा॥1॥
यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँहे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिएसंतों, पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है॥1॥


जैसें मिटै मोर भ्रम भारीकहहु सो कथा नाथ बिस्तारी
जागबलिक बोले मुसुकाईतुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥
हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिएइस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कुराकर बोले, श्री रघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो॥1॥


सतिहि ससोच जानि बृषकेतूकहीं कथा सुंदर सुख हेतू
बरनत पंथ बिबिध इतिहासाबिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥
वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहींइस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥


झूठि होइ देवरिषि बानीसोचहिं दंपति सखीं सयानी
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊकहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
देवर्षि की वाणी झूठी होगी, यह विचार कर हिमवान्‌, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगींफिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए?॥4॥


कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊआगिल चरित सुनहु जस भयऊ
पतिहि एकांत पाइ कह मैनानाथ मैं समुझे मुनि बैना॥1॥
यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गएअब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनोपति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा॥1॥


कह सिव जदपि उचित अस नाहींनाथ बचन पुनि मेटि जाहीं
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारापरम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥
शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकतीहे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ॥1॥

मातु पिता गुर प्रभु कै बानीबिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी
तुम्ह सब भाँति परम हितकारीअग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥
माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिएफिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैंहे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥


सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा
विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गएउस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत्में खलबली मच गई (और सब कहने लगे) हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?


अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥
हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगावह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगाअब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥87॥


सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
हे शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं॥88॥


सासति करि पुनि करहिं पसाऊनाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ
पारबतीं तपु कीन्ह अपाराकरहु तासु अब अंगीकारा॥2॥
हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैंपार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार कीजिए॥2॥


नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) हैआप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगाअब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥101॥


सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहींरामहि ते सपनेहुँ सोहाहीं
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहूराम भगत कर लच्छन एहू॥3॥
शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगतेविश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है॥3॥


बिस्वनाथ मम नाथ पुरारीत्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी
चर अरु अचर नाग नर देवासकल करहिं पद पंकज सेवा॥4॥
(पार्वतीजी ने कहा-) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करने वाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात हैचर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं॥4॥


जौं मो पर प्रसन्न सुखरासीजानिअ सत्य मोहि निज दासी
तौ प्रभु हरहु मोर अग्यानाकहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥1॥
हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए॥1॥


जासु भवनु सुरतरु तर होईसहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारीहरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥2॥
जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए॥2॥

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊकहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ
अग्य जानि रिस उर जनि धरहूजेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥1॥
यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिएमुझे नादान समझकर मन में क्रोध लाइएजिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए॥1॥


अजहूँ कछु संसउ मन मोरेंकरहु कृपा बिनवउँ कर जोरें
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधानाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥3॥
अब भी मेरे मन में कुछ संदेह हैआप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँहे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा संदेह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध कीजिए॥3॥


बन बसि कीन्हे चरित अपाराकहहु नाथ जिमि रावन मारा
राज बैठि कीन्हीं बहु लीलासकल कहहु संकर सुखसीला॥4॥
हे नाथ! फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिएहे सुखस्वरूप शंकर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं॥4॥


औरउ राम रहस्य अनेकाकहहु नाथ अति बिमल बिबेका
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होईसोउ दयाल राखहु जनि गोई॥2॥
(इसके सिवा) श्री रामचन्द्रजी के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिएहे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल हैहे प्रभो! जो बात मैंने भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा रखिएगा॥2॥


हर हियँ रामचरित सब आएप्रेम पुलक लोचन जल छाए
श्रीरघुनाथ रूप उर आवापरमानंद अमित सुख पावा॥4॥
श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र गएप्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आयाश्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया॥4॥


पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥
जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं- ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया॥116॥


नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादासुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा
अब मोहि आपनि किंकरि जानीजदपि सहज जड़ नारि अयानी॥2॥
हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गईयद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर-॥2॥


नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतूमोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू
उमा बचन सुनि परम बिनीतारामकथा पर प्रीति पुनीता॥4॥
फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिएपार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर-॥4॥


कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124
(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! मैं श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनोतुलसीदासजी कहते हैं- मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करने वाले रघुनाथजी को भजो॥124 ()॥


आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥
(फिर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारदजी को दिखलाया (और पूछा कि-) हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए॥130॥


जेहि बिधि नाथ होइ हित मोराकरहु सो बेगि दास मैं तोरा
निज माया बल देखि बिसालाहियँ हँसि बोले दीनदयाला॥4॥
हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिएमैं आपका दास हूँअपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन ही मन हँसकर बोले-॥4॥

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