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Friday, October 25, 2019

ધન્ય


રામ ચરિત માનસમાં ધન્ય, ધન્ય ધન્ય, અતિ ધન્ય, પરમ ધન્ય, સમ ધન્ય શબ્દ વપરાયા હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.
प्रेम बिबस मुख आव बानीदसा देखि हरषे मुनि ग्यानी
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसातुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥
वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलतीउनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले-) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं॥2॥

सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य कोउ
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥
(दूतों ने कहा-) हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिए, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं॥291॥


बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजानाथ मोहि सम धन्य दूजा
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरीरानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥3॥
राजा ने गाधि पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा- हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं हैराजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया॥3॥


धन्य  जनमु  जगतीतल  तासू  पितहि  प्रमोदु  चरित  सुनि  जासू
चारि  पदारथ  करतल  ताकें  प्रिय  पितु  मातु  प्रान  सम  जाकें॥1॥
(उन्होंने  फिर  कहा-)  इस  पृथ्वीतल  पर  उसका  जन्म  धन्य  है,  जिसके  चरित्र  सुनकर  पिता  को  परम  आनंद  हो,  जिसको  माता-पिता  प्राणों  के  समान  प्रिय  हैं,  चारों  पदार्थ  (अर्थ,  धर्म,  काम,  मोक्ष)  उसके  करतलगत  (मुट्ठी  में)  रहते  हैं॥1॥ 


जे  पुर  गाँव  बसहिं  मग  माहीं  तिन्हहि  नाग  सुर  नगर  सिहाहीं
केहि  सुकृतीं  केहि  घरीं  बसाए  धन्य  पुन्यमय  परम  सुहाए॥1॥
जो  गाँव  और  पुरवे  रास्ते  में  बसे  हैं,  नागों  और  देवताओं  के  नगर  उनको  देखकर  प्रशंसा  पूर्वक  ईर्षा  करते  और  ललचाते  हुए  कहते  हैं  कि  किस  पुण्यवान्  ने  किस  शुभ  घड़ी  में  इनको  बसाया  था,  जो  आज  ये  इतने  धन्य  और  पुण्यमय  तथा  परम  सुंदर  हो  रहे  हैं॥1॥ 


एक  कहहिं  हम  बहुत    जानहिं  आपुहि  परम  धन्य  करि  मानहिं
ते  पुनि  पुन्यपुंज  हम  लेखे  जे  देखहिं  देखिहहिं  जिन्ह  देखे॥4॥
कोई  एक  कहते  हैं-  हम  बहुत  नहीं  जानते  हाँ,  अपने  को  परम  धन्य  अवश्य  मानते  हैं  (जो  इनके  दर्शन  कर  रहे  हैं)  और  हमारी  समझ  में  वे  भी  बड़े  पुण्यवान  हैं,  जिन्होंने  इनको  देखा  है,  जो  देख  रहे  हैं  और  जो  देखेंगे॥4॥


ते  पितु  मातु  धन्य  जिन्ह  जाए  धन्य  सो  नगरु  जहाँ  तें  आए
धन्य  सो  देसु  सैलु  बन  गाऊँ  जहँ-जहँ  जाहिं  धन्य  सोइ  ठाऊँ॥3॥
(कहते  हैं-)  वे  माता-पिता  धन्य  हैं,  जिन्होंने  इन्हें  जन्म  दिया  वह  नगर  धन्य  है,  जहाँ  से  ये  आए  हैं  वह  देश,  पर्वत,  वन  और  गाँव  धन्य  है  और  वही  स्थान  धन्य  है,  जहाँ-जहाँ  ये  जाते  हैं॥3॥ 


धन्य  भूमि  बन  पंथ  पहारा  जहँ  जहँ  नाथ  पाउ  तुम्ह  धारा
धन्य  बिहग  मृग  काननचारी  सफल  जनम  भए  तुम्हहि  निहारी॥1॥
हे  नाथ!  जहाँ-जहाँ  आपने  अपने  चरण  रखे  हैं,  वे  पृथ्वी,  वन,  मार्ग  और  पहाड़  धन्य  हैं,  वे  वन  में  विचरने  वाले  पक्षी  और  पशु  धन्य  हैं,  जो  आपको  देखकर  सफल  जन्म  हो  गए॥1॥ 

हम  सब  धन्य  सहित  परिवारा  दीख  दरसु  भरि  नयन  तुम्हारा
कीन्ह  बासु  भल  ठाउँ  बिचारी  इहाँ  सकल  रितु  रहब  सुखारी॥2॥
हम  सब  भी  अपने  परिवार  सहित  धन्य  हैं,  जिन्होंने  नेत्र  भरकर  आपका  दर्शन  किया  आपने  बड़ी  अच्छी  जगह  विचारकर  निवास  किया  है  यहाँ  सभी  ऋतुओं  में  आप  सुखी  रहिएगा॥2॥


चित्रकूट  के  बिहग  मृग  बेलि  बिटप  तृन  जाति
पुन्य  पुंज  सब  धन्य  अस  कहहिं  देव  दिन  राति॥138॥
चित्रकूट  के  पक्षी,  पशु,  बेल,  वृक्ष,  तृण-अंकुरादि  की  सभी  जातियाँ  पुण्य  की  राशि  हैं  और  धन्य  हैं-  देवता  दिन-रात  ऐसा  कहते  हैं॥138॥ 


मुनिहि  बंदि  भरतहि  सिरु  नाई  चले  सकल  घर  बिदा  कराई
धन्य  भरत  जीवनु  जग  माहीं  सीलु  सनेहु  सराहत  जाहीं॥2॥
मुनि  वशिष्ठजी  की  वंदना  करके  और  भरतजी  को  सिर  नवाकर,  सब  लोग  विदा  लेकर  अपने-अपने  घर  को  चले  जगत  में  भरतजी  का  जीवन  धन्य  है,  इस  प्रकार  कहते  हुए  वे  उनके  शील  और  स्नेह  की  सराहना  करते  जाते  हैं॥2॥
 
तनु  पुलकेउ  हियँ  हरषु  सुनि  बेनि  बचन  अनुकूल
भरत  धन्य  कहि  धन्य  सुर  हरषित  बरषहिं  फूल॥205॥
त्रिवेणीजी  के  अनुकूल  वचन  सुनकर  भरतजी  का  शरीर  पुलकित  हो  गया,  हृदय  में  हर्ष  छा  गया  भरतजी  धन्य  हैं,  कहकर  देवता  हर्षित  होकर  फूल  बरसाने  लगे॥205॥


तेहि  फल  कर  फलु  दरस  तुम्हारा  सहित  प्रयाग  सुभाग  हमारा
भरत  धन्य  तुम्ह  जसु  जगु  जयऊ  कहि  अस  प्रेम  मगन  मुनि  भयऊ॥3॥
(सीता-लक्ष्मण  सहित  श्री  रामदर्शन  रूप)  उस  महान  फल  का  परम  फल  यह  तुम्हारा  दर्शन  है!  प्रयागराज  समेत  हमारा  बड़ा  भाग्य  है  हे  भरत!  तुम  धन्य  हो,  तुमने  अपने  यश  से  जगत  को  जीत  लिया  है  ऐसा  कहकर  मुनि  प्रेम  में  मग्न  हो  गए॥3॥
 
हम  सब  सानुज  भरतहि  देखें  भइन्ह  धन्य  जुबती  जन  लेखें
सुनि  गुन  देखि  दसा  पछिताहीं  कैकइ  जननि  जोगु  सुतु  नाहीं॥2॥
छोटे  भाई  शत्रुघ्न  सहित  भरतजी  को  देखकर  हम  सब  भी  आज  धन्य  (बड़भागिनी)  स्त्रियों  की  गिनती  में    गईं  इस  प्रकार  भरतजी  के  गुण  सुनकर  और  उनकी  दशा  देखकर  स्त्रियाँ  पछताती  हैं  और  कहती  हैं-  यह  पुत्र  कैकयी  जैसी  माता  के  योग्य  नहीं  है॥2॥
 
धन्य  भरत  जय  राम  गोसाईं  कहत  देव  हरषत  बरिआईं
मुनि  मिथिलेस  सभाँ  सब  काहू  भरत  बचन  सुनि  भयउ  उछाहू॥1॥
'भरतजी  धन्य  हैं,  स्वामी  श्री  रामजी  की  जय  हो!'  ऐसा  कहते  हुए  देवता  बलपूर्वक  (अत्यधिक)  हर्षित  होने  लगे  भरतजी  के  वचन  सुनकर  मुनि  वशिष्ठजी,  मिथिलापति  जनकजी  और  सभा  में  सब  किसी  को  बड़ा  उत्साह  (आनंद)  हुआ॥1॥

देखि राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग॥7॥
श्री रामचन्द्रजी का मुखकमल देखकर मुनिश्रेष्ठ के नेत्र रूपी भौंरे अत्यन्त आदरपूर्वक उसका (मकरन्द रस) पान कर रहे हैंशरभंगजी का जन्म धन्य है॥7॥


मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य मो सम आन॥26॥
धनुष-बाण धारण किए मेरे पीछे-पीछे पृथ्वी पर (पकड़ने के लिए) दौड़ते हुए प्रभु को मैं फिर-फिरकर देखूँगामेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है॥26॥


सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए
'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिएदीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहेभगवान्के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गएतुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं

एहि बिधि सकल कथा समुझाईलिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखाअतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥3॥
इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमान्जी ने (श्री राम-लक्ष्मण) दोनों जनों को पीठ पर चढ़ा लियाजब सुग्रीव ने श्री रामचंद्रजी को देखा तो अपने जन्म को अत्यंत धन्य समझा॥3॥


कह अंगद बिचारि मन माहींधन्य जटायू सम कोउ नाहीं
राम काज कारन तनु त्यागीहरि पुर गयउ परम बड़भागी॥4॥
अंगद ने मन में विचार कर कहा- अहा! जटायु के समान धन्य कोई नहीं हैश्री रामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान्के परमधाम को चला गया॥4॥


ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥11
इस प्रकार कृपा, रूप (सौंदर्य) और गुणों के धाम श्री रामजी विराजमान हैंवे मनुष्य धन्य हैं, जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥11 ()॥

धन्य कीस जो निज प्रभु काजाजहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा
नाचि कूदि करि लोग रिझाईपति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥
बंदर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता हैनाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता हैयह उसके धर्म की निपुणता है॥1॥

अहह धन्य लछिमन बड़भागीराम पदारबिंदु अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हाताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।2।।

अहा ! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं; जो श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्द के प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया!।।2।।


अति प्रिय मोहि इहाँ के बासीमम धामदा पुरी सुख रासी।।
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानीधन्य अवध जो राम बखानी।।4।।

यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैंयह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधामको देनेवाली हैप्रभुकी वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए [और कहने लगे कि] जिस अवध की स्वयं श्रीरामजीने बड़ाई की, वह [अवश्य ही] धन्य है।।4।।


मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।

श्रीसीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्रीरामजीके शरीर में अनेकों कामदेवों छवि शोभा दे रही हैनवीन जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर श्याम शरीरपर पीताम्बर देवताओंके के मन को मोहित कर रहा है मुकुट बाजूबंद आदि बिचित्र आभूषण अंग अंग में सजे हुए हैकमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं; जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।।2।।


चरन नलिन उर धरि गृह आवाप्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।
रघुपति चरित देखि पुरबासीपुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।3।।

फिर भगवान् के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनायाश्रीरघुनाथजी का यह चरित्र देखकर अवध-पुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्रीरामचन्द्रजी धन्य हैं।।3।।


आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसातुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगाबिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।4।।

हे मुनीश्वरों ! सुनिये, आज मैं धन्य हूँआपके दर्शनों ही से [सारे] पाप नष्ट हो जाते हैंबड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिना ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है।।4।।

धन्य सती पावन मति तोरीरघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी।।
सुनहु परम पुनीत इतिहासाजो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।4।।

हे सती ! तुम धन्य हो; तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त पवित्र हैश्रीरघुनाथजी के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है (अत्याधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है।।4।।


जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य।।119।।

जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं।।119()।।


दो.-आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।।123।।

यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी मैं आज धन्य हूँ, अत्यन्त धन्य हूँ, जो श्रीरामजीने मुझे अपना निज जन जानकर संत-समागम दिया (आपसे मेरी भेंट करायी)।।123()।।


धन्य देस सो जहँ सुरसरीधन्य नारि पतिब्रत अनुसरी।।
धन्य सो भूपु नीति जो करइधन्य सो द्विज निज धर्म टरई।।3।।

वह देश धन्य है जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत-धर्मका पालन करती हैवह राजा धन्य है जो न्याय करता है और ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता।।3।।

सो धन धन्य प्रथम गति जाकीधन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगाधन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।

वह धन धन्य है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है।) वही बुद्धि धन्य और परिपक्य है जो पुण्य में लगी हुई हैवही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और नाशदान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष देता है, भोगता है, उसके धन को तीसरी गति होती है।]

दो.-सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।127।।

हे उमा ! सुनोवह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।







करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारीहरषि सुधा सम गिरा उचारी
धन्य धन्य गिरिराजकुमारीतुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥
त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले- हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥


भेंटत  भरतु  ताहि  अति  प्रीती  लोग  सिहाहिं  प्रेम  कै  रीती
धन्य  धन्य  धुनि  मंगल  मूला  सुर  सराहि  तेहि  बरिसहिं  फूला॥1॥
भरतजी  गुह  को  अत्यन्त  प्रेम  से  गले  लगा  रहे  हैं  प्रेम  की  रीति  को  सब  लोग  सिहा  रहे  हैं  (ईर्षापूर्वक  प्रशंसा  कर  रहे  हैं)।  मंगल  की  मूल  'धन्य-धन्य'  की  ध्वनि  करके  देवता  उसकी  सराहना  करते  हुए  फूल  बरसा  रहे  हैं॥1॥
 
सुनि  मुनि  बचन  सभासद  हरषे  साधु  सराहि  सुमन  सुर  बरषे
धन्य  धन्य  धुनि  गगन  प्रयागा  सुनि  सुनि  भरतु  मगन  अनुरागा॥4
भरद्वाज  मुनि  के  वचन  सुनकर  सभासद्  हर्षित  हो  गए  'साधु-साधु'  कहकर  सराहना  करते  हुए  देवताओं  ने  फूल  बरसाए  आकाश  में  और  प्रयागराज  में  'धन्य,  धन्य'  की  ध्वनि  सुन-सुनकर  भरतजी  प्रेम  में  मग्न  हो  रहे  हैं॥4॥

लखि  सुभाउ  सुनि  सरल  सुबानी  सब  भइ  मगन  करुन  रस  रानी
नभ  प्रसून  झरि  धन्य  धन्य  धुनि  सिथिल  सनेहँ  सिद्ध  जोगी  मुनि॥3॥
कौसल्याजी  का  स्वभाव  देखकर  और  उनकी  सरल  और  उत्तम  वाणी  को  सुनकर  सब  रानियाँ  करुण  रस  में  निमग्न  हो  गईं  आकाश  से  पुष्प  वर्षा  की  झड़ी  लग  गई  और  धन्य-धन्य  की  ध्वनि  होने  लगी  सिद्ध,  योगी  और  मुनि  स्नेह  से  शिथिल  हो  गए॥3॥

धन्य धन्य मैं धन्य पुरारीसुनेउँ राम गुन भव भय हारी।।5।।

हे त्रिपुरारि ! मै धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ, जो मैंने जन्म-मृत्यु के हरण करनेवाले श्रीरामजी के गुण (चरित्र) सुने।।5।।


चौ.- गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागाबोलेउ उमा परम अनुरागा।।
धन्य धन्य तव मति उरगारीप्रस्र तुम्हारि मोहि अति प्यारी।।1।।

हे उमा ! गरुड़जी की वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी हर्षित हुए और परम प्रेम से बोले-हे सर्पों के शत्रु ! आपकी बुद्धि धन्य है ! धन्य है ! आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे।।1।।




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