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Saturday, October 26, 2019

નાથ - ભાગ ૪

રામ ચરિત માનસમાં નાથ શબ્દ વપરાયો હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.

ભાગ ૪


जद्यपि प्रभु के नाम अनेकाश्रुति कह अधिक एक तें एका
राम सकल नामन्ह ते अधिकाहोउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥
यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥4॥


एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ॥42
कृपा सागर श्री रघुनाथजी ने मुनि से 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहातब नारदजी ने मन में अत्यंत हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया॥42 ()॥
चौपाई :
अति प्रसन्न रघुनाथहि जानीपुनि नारद बोले मृदु बानी
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥
श्री रघुनाथजी को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने अपनी माया को प्रेरित करके मुझे मोहित किया था,॥1॥


संतन्ह के लच्छन रघुबीराकहहु नाथ भव भंजन भीरा
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँजिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय) का नाश करने वाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए! (श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! सुनो, मैं संतों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ॥3॥

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्हीहरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही
मोर न्याउ मैं पूछा साईंतुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
फिर धीरज धर कर स्तुति कीअपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥


जदपि नाथ बहु अवगुन मोरेंसेवक प्रभुहि परै जनि भोरें
नाथ जीव तव मायाँ मोहासो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥
एहे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में पड़े (आप उसे भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित हैवह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥

देखि पवनसुत पति अनुकूलाहृदयँ हरष बीती सब सूला
नाथ सैल पर कपिपति रहईसो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
स्वामी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है॥1॥

तेहि सन नाथ मयत्री कीजेदीन जानि तेहि अभय करीजे
सो सीता कर खोज कराइहिजहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिएवह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥

कीन्हि प्रीति कछु बीच राखालछिमन राम चरित्सब भाषा
कह सुग्रीव नयन भरि बारीमिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥1॥
दोनों ने (हृदय से) प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखातब लक्ष्मणजी ने श्री रामचंद्रजी का सारा इतिहास कहासुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा- हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जाएँगी॥1॥


नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइप्रीति रही कछु बरनि जाई
मयसुत मायावी तेहि नाऊँआवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥1॥
(सुग्रीव ने कहा-) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं, हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकतीहे प्रभो! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी थाएक बार वह हमारे गाँव में आया॥1॥


कह सुग्रीव सुनहु रघुबीराबालि महाबल अति रनधीरा
दुंदुभि अस्थि ताल देखराएबिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥6॥
सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान्बलवान्और अत्यंत रणधीर हैफिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ ताल के वृक्ष दिखलाएश्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया


उपजा ग्यान बचन तब बोलानाथ कृपाँ मन भयउ अलोला
सुख संपति परिवार बड़ाईसब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥8॥
जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गयासुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा॥8॥


कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥7॥
बालि ने कहा- हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैंजो कदाचित्वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥7॥


धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईंमारेहु मोहि ब्याध की नाईं
मैं बैरी सुग्रीव पिआराअवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥3॥
हे गोसाईंआपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध की तरह (छिपकर) मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोष से आपने मुझे मारा?॥3॥

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥2॥
हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिएमैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए ॥2॥

नाथ विषय सम मद कछु नाहींमुनि मन मोह करइ छन माहीं
सुनत बिनीत बचन सुख पावालछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा॥4॥
(सुग्रीव ने कहा-) हे नाथ! विषय के समान और कोई मद नहीं हैयह मुनियों के मन में भी क्षणमात्र में मोह उत्पन्न कर देता है (फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा)। सुग्रीव के विनययुक्त वचन सुनकर लक्ष्मणजी ने सुख पाया और उनको बहुत प्रकार से समझाया॥4॥


हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ
रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ॥20॥
तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को आगे करके (अर्थात्उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव हर्षित होकर चले और जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आए॥20॥
चौपाई :
नाइ चरन सिरु कह कर जोरीनाथ मोहि कछु नाहिन खोरी
अतिसय प्रबल देव तव मायाछूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥
श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं हैहे देव! आपकी माया अत्यंत ही प्रबल हैआप जब दया करते हैं, हे राम! तभी यह छूटती है॥1॥


भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥30
श्री रघुवीर का यश भव (जन्म-मरण) रूपी रोग की (अचूक) दवा हैजो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिरा के शत्रु श्री रामजी उनके सब मनोरथों को सिद्ध करेंगे॥30 ()॥


बचनु आव नयन भरे बारीअहह नाथ हौं निपट बिसारी
देखि परम बिरहाकुल सीताबोला कपि मृदु बचन बिनीता॥4॥
(मुँह से) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान्जी कोमल और विनीत वचन बोले-॥4॥

नाथ एक आवा कपि भारीतेहिं असोक बाटिका उजारी
खाएसि फल अरु बिटप उपारेरच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥
(और कहा-) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया हैउसने अशोक वाटिका उजाड़ डालीफल खाए, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया॥2॥


पूँछहीन बानर तहँ जाइहितब सठ निज नाथहि लइ आइहि
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाईदेखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥
जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगाजिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ!॥1॥


साधु अवग्या कर फलु ऐसाजरइ नगर अनाथ कर जैसा
जारा नगरु निमिष एक माहींएक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥
साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा हैहनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डालाएक विभीषण का घर नहीं जलाया॥3॥

कहेहु तात अस मोर प्रनामासब प्रकार प्रभु पूरनकामा
दीन दयाल बिरिदु संभारीहरहु नाथ सम संकट भारी॥2॥
(जानकीजी ने कहा-) हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीनों (दुःखियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूँ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए॥2॥

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमानाराखे सकल कपिन्ह के प्राना
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥3॥
हे नाथ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिएयह सुनकर सुग्रीवजी हनुमान्जी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले॥3॥


प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥29॥
दया की राशि श्री रघुनाथजी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी। (वानरों ने कहा-) हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है॥29॥
चौपाई :
जामवंत कह सुनु रघुरायाजा पर नाथ करहु तुम्ह दाया
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतरसुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥
जाम्बवान्ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिएहे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल हैदेवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं॥1॥


नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनीसहसहुँ मुख जाइ सो बरनी
पवनतनय के चरित सुहाएजामवंत रघुपतिहि सुनाए॥3॥
हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान्ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकतातब जाम्बवान्ने हनुमान्जी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथजी को सुनाए॥3॥


चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हींरघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही
नाथ जुगल लोचन भरि बारीबचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥
चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दीश्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्जी ने फिर कहा-) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे-॥1॥


अनुज समेत गहेहु प्रभु चरनादीन बंधु प्रनतारति हरना
मन क्रम बचन चरन अनुरागीकेहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥
छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना (और कहना कि) आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँफिर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया?॥2॥
अवगुन एक मोर मैं मानाबिछुरत प्रान कीन्ह पयाना
नाथ सो नयनन्हि को अपराधानिसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥
(हाँ) एक दोष मैं अपना (अवश्य) मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं॥3॥

सो सब तव प्रताप रघुराईनाथ कछू मोरि प्रभुताई॥5॥
यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप हैहे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥5॥


नाथ भगति अति सुखदायनीदेहु कृपा करि अनपायनी
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानीएवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥
हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिएहनुमान्जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥1॥


चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥
दिशाओं के हाथी चिंग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चंचल हो गए (काँपने लगे) और समुद्र खलबला उठेगंधर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए' कि (अब) हमारे दुःख टल गएअनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। 'प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचंद्रजी की जय हो' ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं॥1॥


तव कुल कमल बिपिन दुखदाईसीता सीत निसा सम आई
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हेंहित तुम्हार संभु अज कीन्हें॥5॥
सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई हैहे नाथसुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥5॥


काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥
हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥


ताहि बयरु तजि नाइअ माथाप्रनतारति भंजन रघुनाथा
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेहीभजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥
वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइएवे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैंहे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥3॥

सुमति कुमति सब कें उर रहहींनाथ पुरान निगम अस कहहीं
जहाँ सुमति तहँ संपति नानाजहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥


उमा संत कइ इहइ बड़ाईमंद करत जो करइ भलाई
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारारामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥
(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! संत की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने कहा-) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥4॥

नाथ दसानन कर मैं भ्रातानिसिचर बंस जनम सुरत्राता
सहज पापप्रिय तामस देहाजथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥
हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँहे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ हैमेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥


जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥49
शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥49 ()॥


नाथ दैव कर कवन भरोसासोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा
कादर मन कहुँ एक अधारादैव दैव आलसी पुकारा॥2॥
(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिएयह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) हैआलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसेंमानहु कहा क्रोध तजि तैसें
मिला जाइ जब अनुज तुम्हाराजातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥
(दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥


पूँछिहु नाथ राम कटकाईबदन कोटि सत बरनि जाई
नाना बरन भालु कपि धारीबिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥
हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकतीअनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥3॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधरपदुम अठारह जूथप बंदर
नाथ कटक महँ सो कपि नाहींजो तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥
हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैंहे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में जीत सके॥2॥

रामानुज दीन्हीं यह पातीनाथ बचाइ जुड़ावहु छाती
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावनसचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥
(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी हैहे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिएरावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥


कह सुक नाथ सत्य सब बानीसमुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधानाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥
शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिएक्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिएहे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजेएतना कहा मोर प्रभु कीजे
जब तेहिं कहा देन बैदेहीचरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥
जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिएहे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिएजब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥


सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरेछमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनीइन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिएहे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥


नाथ नील नल कपि द्वौ भाईलरिकाईं रिषि आसिष पाई
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारेतरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥
(समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैंउन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया थाउनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥1॥

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताईकरिहउँ बल अनुमान सहाई
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअजेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥
मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगाहे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुंदर यश गाया जाए॥2॥

एहि सर मम उत्तर तट बासीहतहु नाथ खल नर अघ रासी
सुनि कृपाल सागर मन पीरातुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥
इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिएकृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात्बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥

सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरहिं
जाम्बवान्ने हाथ जोड़कर कहा- हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) श्री रामजी! सुनिएहे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं


नाथ बयरु कीजे ताही सोंबुधि बल सकिअ जीति जाही सों
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसाखलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥3॥
हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सकेंआप में और श्री रघुनाथजी में निश्चय ही कैसा अंतर है, जैसा जुगनू और सूर्य में!॥3॥


रामहि सौंपि जानकी नाइ कमल पद माथ
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ॥6॥
(श्री रामजी) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकीजी सौंप दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए॥6॥
चौपाई :
नाथ दीनदयाल रघुराईबाघउ सनमुख गएँ खाई
चाहिअ करन सो सब करि बीतेतुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥1॥
हे नाथ! श्री रघुनाथजी तो दीनों पर दया करने वाले हैंसम्मुख (शरण) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाताआपको जो कुछ करना चाहिए था, वह सब आप कर चुकेआपने देवता, राक्षस तथा चर-अचर सभी को जीत लिया॥1॥

सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागीभजहु नाथ ममता सब त्यागी
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागीभूप राजु तजि होहिं बिरागी॥3॥
हे नाथ! आप विषयों की सारी ममता छोड़कर उन्हीं शरणागत पर प्रेम करने वाले भगवान्का भजन कीजिएजिनके लिए श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोड़कर वैरागी हो जाते हैं-॥3॥


अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥7॥
ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकड़कर, काँपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥7॥


कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहातीनाथ पूर आव एहि भाँती
बारिधि नाघि एक कपि आवातासु चरित मन महुँ सबु गावा॥॥1॥
ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैंहे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़ेगाएक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया थाउसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं) ॥1॥

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥17
स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥17 ()॥


अब पति मृषा गाल जनि मारहुमोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहुअग जग नाथ अतुलबल जानहु॥4॥
अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल मारिए (डींग हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिएहे पति! आप श्री रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान्जानिए॥4॥


जेहिं जलनाथ बँधायउ हेलाउतरे प्रभु दल सहित सुबेला
कारुनीक दिनकर कुल केतूदूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥
जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान्ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1॥

दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37॥
आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37॥


साम दान अरु दंड बिभेदानृप उर बसहिं नाथ कह बेदा
नीति धर्म के चरन सुहाएअस जियँ जानि पहिं आए॥5॥
हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैंये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास गए हैं॥5॥


भजि रघुपति करु हित आपनाछाँड़हु नाथ मृषा जल्पना
नील कंज तनु सुंदर स्यामाहृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥3॥
श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवाद छोड़ दोनेत्रों को आनंद देने वाले नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो॥3॥


तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥60
हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगाऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वंदना करके हनुमान्जी चले॥60 ()॥

बंधु बचन सुनि चला बिभीषनआयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन
नाथ भूधराकार सरीराकुंभकरन आवत रनधीरा॥1॥॥
भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। (विभीषण ने कहा-) हे नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देह वाला रणधीर कुंभकर्ण रहा है॥1॥

इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारासुनहु नाथ बल अतुल उदारा
मेघनाद मख करइ अपावनखल मायावी देव सतावन॥2॥
यहाँ विभीषण ने सलाह विचारी (और श्री रामचंद्रजी से कहा-) हे अतुलनीय बलवान्उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है॥2॥

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहिनाथ बेगि पुनि जीति जाइहि
सुनि रघुपति अतिसय सुख मानाबोले अंगदादि कपि नाना॥3॥
हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता जा सकेगायह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत से वानरों को बुलाया (और कहा-)॥3॥


बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिंश्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं
जय अनंत जय जगदाधारातुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥2॥
वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैंहे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय होहे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान्विपत्ति से) उद्धार किया॥2॥

नाथ रथ नहि तन पद त्रानाकेहि बिधि जितब बीर बलवाना
सुनहु सखा कह कृपानिधानाजेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥2॥
हे नाथ! आपके रथ है, तन की रक्षा करने वाला कवच है और जूते ही हैंवह बलवान्वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥2॥


इहाँ बिभीषन सब सुधि पाईसपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई
नाथ करइ रावन एक जागासिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥
यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा हैउसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥1॥

पठवहु नाथ बेगि भट बंदरकरहिं बिधंस आव दसकंधर
प्रात होत प्रभु सुभट पठाएहनुमदादि अंगद सब धाए॥2।
 हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए, जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवेप्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजाहनुमान्और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े॥2॥


रथारूढ़ रघुनाथहि देखीधाए कपि बलु पाइ बिसेषी
सही जाइ कपिन्ह कै मारीतब रावन माया बिस्तारी॥3॥
श्री रघुनाथजी को रथ पर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़ेवानरों की मार सही नहीं जातीतब रावण ने माया फैलाई॥3॥

अस कहि रथ रघुनाथ चलावाबिप्र चरन पंकज सिरु नावा
तब लंकेस क्रोध उर छावागर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥
 ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलायातब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा॥1॥

हा राम हा रघुनाथकहि सुभट मीजहिं हाथ
ऐहि बिधि सकल बल तोरितेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥
 हा राम! हा रघुनाथ पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैंइस प्रकार सब का बल तोड़कर रावण ने फिर दूसरी माया रची॥6॥


नाभिकुंड पियूष बस याकेंनाथ जिअत रावनु बल ताकें
सुनत बिभीषन बचन कृपालाहरषि गहे कर बान कराला॥3॥
इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास हैहे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता हैविभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए॥3॥

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