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Friday, October 25, 2019

જોગી


રામ ચરિત માનસમાં જોગી, જોગિ શબ્દો વપરાયા હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै
कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए हैभयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैंगधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैंगणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैंउनका वर्णन करते नहीं बनता


मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
जिनका स्पर्श पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो पापमयी थी, परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस (गंगाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन चरणकमलों का सेवन करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहे हैं, यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं॥2॥


अवगाहि  सोक  समुद्र  सोचहिं  नारि  नर  ब्याकुल  महा
दै  दोष  सकल  सरोष  बोलहिं  बाम  बिधि  कीन्हो  कहा
सुर  सिद्ध  तापस  जोगिजन  मुनि  देखि  दसा  बिदेह  की
तुलसी    समरथु  कोउ  जो  तरि  सकै  सरित  सनेह  की
शोक  समुद्र  में  डुबकी  लगाते  हुए  सभी  स्त्री-पुरुष  महान  व्याकुल  होकर  सोच  (चिंता)  कर  रहे  हैं  वे  सब  विधाता  को  दोष  देते  हुए  क्रोधयुक्त  होकर  कह  रहे  हैं  कि  प्रतिकूल  विधाता  ने  यह  क्या  किया?  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  देवता,  सिद्ध,  तपस्वी,  योगी  और  मुनिगणों  में  कोई  भी  समर्थ  नहीं  है,  जो  उस  समय  विदेह  (जनकराज)  की  दशा  देखकर  प्रेम  की  नदी  को  पार  कर  सके  (प्रेम  में  मग्न  हुए  बिना  रह  सके)।

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरेंसकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें
जोगि बृंद दुरलभ गति जोईतो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय हैफिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ हैअतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥

अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥
अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान्ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगीबिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपाअकथ अनामय नाम रूपा॥1॥
ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान्मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं॥1॥

नाम प्रसाद संभु अबिनासीसाजु अमंगल मंगल रासी
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगीनाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥
नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैंशुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥1॥

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी
ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान्श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है


जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगाइसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥67॥


इन्ह कै दसा कहेउँ बखानीसदा काम के चेरे जानी
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगीतेपि कामबस भए बियोगी॥4॥
ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं कियासिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4॥


हाहाकार भयउ जग भारीडरपे सुर भए असुर सुखारी
समुझि कामसुख सोचहिं भोगीभए अकंटक साधक जोगी॥4॥
जगत में बड़ा हाहाकर मच गयादेवता डर गए, दैत्य सुखी हुएभोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए॥4॥

जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही
योगी निष्कंटक हो गए, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गईरोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गईअत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गईशीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुंदर (उसको सान्त्वना देने वाले) वचन बोले

हमरें जान सदासिव जोगीअज अनवद्य अकाम अभोगी
जौं मैं सिव सेये अस जानीप्रीति समेत कर्म मन बानी॥2॥
किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है॥2॥


बिनु पद चलइ सुनइ बिनु कानाकर बिनु करम करइ बिधि नाना
आनन रहित सकल रस भोगीबिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥


कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगीबैद देइ सुनहु मुनि जोगी
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊकहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥1॥
हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देताइसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली हैऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए॥1॥


करहिं जोग जोगी जेहि लागीकोहु मोहु ममता मदु त्यागी
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासीचिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥
योगी लोग जिनके लिए क्रोध, मोह, ममता और मद को त्यागकर योग साधन करते हैं, जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानंद, निर्गुण और गुणों की राशि हैं,॥3॥


एहिं  जग  जामिनि  जागहिं  जोगी  परमारथी  प्रपंच  बियोगी
जानिअ  तबहिं  जीव  जग  जागा  जब  सब  बिषय  बिलास  बिरागा॥2॥
इस  जगत  रूपी  रात्रि  में  योगी  लोग  जागते  हैं,  जो  परमार्थी  हैं  और  प्रपंच  (मायिक  जगत)  से  छूटे  हुए  हैं  जगत  में  जीव  को  जागा  हुआ  तभी  जानना  चाहिए,  जब  सम्पूर्ण  भोग-विलासों  से  वैराग्य  हो  जाए॥2॥ 


लखि  सुभाउ  सुनि  सरल  सुबानी  सब  भइ  मगन  करुन  रस  रानी
नभ  प्रसून  झरि  धन्य  धन्य  धुनि  सिथिल  सनेहँ  सिद्ध  जोगी  मुनि॥3॥
कौसल्याजी  का  स्वभाव  देखकर  और  उनकी  सरल  और  उत्तम  वाणी  को  सुनकर  सब  रानियाँ  करुण  रस  में  निमग्न  हो  गईं  आकाश  से  पुष्प  वर्षा  की  झड़ी  लग  गई  और  धन्य-धन्य  की  ध्वनि  होने  लगी  सिद्ध,  योगी  और  मुनि  स्नेह  से  शिथिल  हो  गए॥3॥


जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
जो अगम और सुगम हैं, निर्मल स्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शांत) हैंमन और इंद्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैंवे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्री रामजी निरंतर अपने दासों के वश में रहते हैंवे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है॥4॥



कोमल चित अति दीनदयालाकारन बिनु रघुनाथ कृपाला
गीध अधम खग आमिष भोगीगति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैंगीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥1॥


षट बिकार जित अनघ अकामाअचल अकिंचन सुचि सुखधामा
अमित बोध अनीह मितभोगीसत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्‌, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥

खल मनुजाद द्विजामिष भोगीपावहिं गति जो जाचत जोगी
उमा राम मृदुचित करुनाकरबयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥
ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥


असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।।98।।

जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य (खाने योग्य और खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं।।98()।।


कृतजुग सब जोगी बिग्यानीकरि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।।
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहींप्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं।।1।।

सतयुगमें सब योगी और विज्ञानी होते हैंहरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैंत्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु के समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं।।1।।


साधक सिद्ध बिमुक्त उदासीकबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानीधर्म निरत पंडित बिग्यानी।।3।।

साधक, सिद्ध, जीवन्मुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान्, कर्म [रहस्य] के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पण्डित और विज्ञानी-।।3।।

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥
भावार्थ:- कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुंदर श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

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