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Saturday, October 26, 2019

નાથ - ભાગ ૨

રામ ચરિત માનસમાં નાથ શબ્દ વપરાયો હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.

ભાગ ૨



जौं अनाथ हित हम पर नेहूतौ प्रसन्न होई यह बर देहू
जोसरूप बस सिव मन माहींजेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥
हे अनाथों का कल्याण करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं॥2॥


सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानीधरि धीरजु बोली मृदु बानी
नाथ देखि पद कमल तुम्हारेअब पूरे सब काम हमारे॥1॥
प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं॥1॥


दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
(राजा ने कहा-) हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँप्रभु से भला क्या छिपाना! ॥149॥


सतरूपहिं बिलोकि कर जोरेंदेबि मागु बरु जो रुचि तोरें
जो बरु नाथ चतुर नृप मागासोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥2॥
शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा- हे देवी! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। (शतरूपा ने कहा-) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा,॥2॥


अस समुझत मन संसय होईकहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई
जे निज भगत नाथ तव अहहींजो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥4॥
ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। (मैं तो यह माँगती हूँ कि) हे नाथ! आपके जो निज जन हैं, वे जो (अलौकिक, अखंड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं-॥4॥


भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसाबाँधि तुरग तरु बैठ महीसा
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताहीचरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥
हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गयाराजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की॥1॥


पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाईजानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई
मोहि मुनीस सुत सेवक जानीनाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥
फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँहे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए॥2॥

हरषेउ राउ बचन सुनि तासूनाथ होइ मोर अब नासू
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधानामो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥4॥
राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा- हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगाहे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा॥4॥


सत्य नाथ पद गहि नृप भाषाद्विज गुर कोप कहहु को राखा
राखइ गुर जौं कोप बिधातागुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥
राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा- हे स्वामी! सत्य ही हैब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है॥3॥


जौं जाउँ तव होइ अकाजूबना आइ असमंजस आजू
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानीनाथ निगम असि नीति बखानी॥3॥
परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता हैआज यह बड़ा असमंजस पड़ा हैयह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है कि- ॥3॥


सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥4॥
सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करेंहे संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं॥4॥


एहि बिधि राम जगत पितु माताकोसलपुर बासिन्ह सुखदाता
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानीतिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं)॥1॥


अति आदर दोउ तनय बोलाएहृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊतुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥
राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैंहे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥5॥


तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्हीबिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही
जाते लाग छुधा पिपासाअतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥
तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी (लीला को पूर्ण करने के लिए) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो॥4॥


मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ मागउँ बर आना
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥
मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा कियामैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके) मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्री हरि (आप) को नेत्र भरकर देखाइसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैंहे प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती हैहे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥3॥


मंगलमय मंदिर सब केरेंचित्रित जनु रतिनाथ चितेरें
पुर नर नारि सुभग सुचि संताधरमसील ग्यानी गुनवंता॥3॥
सबके घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया हैनगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥


भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेताउतरे तहँ मुनि बृंद समेता
बिस्वामित्र महामुनि आएसमाचार मिथिलापति पाए॥4॥
कृपा के धाम श्री रामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन्‌!' कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गएमिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं,॥4॥


कहहु नाथ सुंदर दोउ बालकमुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावाउभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥
हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?॥1॥


सहज बिरागरूप मनु मोराथकित होत जिमि चंद चकोरा
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊकहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥
मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोरहे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँहे नाथ! बताइए, छिपाव कीजिए॥2॥


इन्ह कै प्रीति परसपर पावनिकहि जाइ मन भाव सुहावनि
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहूब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकतीविदेह (जनकजी) आनंदित होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है॥2॥


नाथ लखनु पुरु देखन चहहींप्रभु सकोच डर प्रगट कहहीं
जौं राउर आयसु मैं पावौंनगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥
हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहतेयदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ॥3॥


सीय स्वयंबरू देखिअ जाईईसु काहि धौं देइ बड़ाई
लखन कहा जस भाजनु सोईनाथ कृपा तव जापर होई॥1॥
चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिएदेखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैंलक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)॥1॥


नाथ जानि अस आयसु होऊकौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ
कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौंजोजन सत प्रमान लै धावौं॥4॥
ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिएधनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊँ॥4॥
दोहा :
तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ
जौं करौं प्रभु पद सपथ कर धरौं धनु भाथ॥253॥
हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँयदि ऐसा करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी लूँगा॥253॥


नाथ संभुधनु भंजनिहाराहोइहि केउ एक दास तुम्हारा
आयसु काह कहिअ किन मोहीसुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥
हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगाक्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-॥1॥


नाथ करहु बालक पर छोहुसूध दूधमुख करिअ कोहू
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जानातौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥
हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिएइस सीधे और दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध कीजिएयदि यह प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?॥1॥


अति बिनीत मृदु सीतल बानीबोले रामु जोरि जुग पानी
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजानाबालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥
श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैंआप बालक के वचन पर कान दीजिए (उसे सुना-अनसुना कर दीजिए)॥1॥

बररै बालकु एकु सुभाऊइन्हहि संत बिदूषहिं काऊ
तेहिं नाहीं कछु काज बिगाराअपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥2॥
बर्रै और बालक का एक स्वभाव हैसंतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगातेफिर उसने (लक्ष्मण ने) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ॥2॥


जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥
हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिए, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है, जिसे हम डरके मारे मस्तक नवाएँ?॥283॥


कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीनारहा बिबाहु चाप आधीना
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहूसुर नर नाग बिदित सब काहू॥4॥
मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गयादेवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है॥4॥


तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हेदेखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे
सीय स्वयंबर भूप अनेकासमिटे सुभट एक तें एका॥2॥
हे नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक से एक बढ़कर योद्धा एकत्र हुए थे॥2॥


चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥
और जल्दी चलोगुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ! बहुत अच्छा कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गए॥294॥


अब दसरथ कहँ आयसु देहूजद्यपि छाड़ि सकहु सनेहू
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाएकहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥
यद्यपि आप स्नेह (वश उन्हें) नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर जनकजी ने मंत्रियों को बुलवायावे आए और 'जय जीव' कहकर उन्होंने मस्तक नवाया॥4॥


देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥351॥
सब जोहार (वंदन) करके आशीष देते हैं और गुण समूहों की कथा गाते हैंतब गुरु और ब्राह्मणों सहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया॥351॥


बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजानाथ मोहि सम धन्य दूजा
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरीरानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥3॥
राजा ने गाधि पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा- हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं हैराजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया॥3॥


मागत बिदा राउ अनुरागेसुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे
नाथ सकल संपदा तुम्हारीमैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥
अंत में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। (वे बोले-) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी हैमैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ॥3॥


नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग  सीतासमारोपितवामभागम्‌।
पाणौ  महासायकचारुचापं  नमामि  रामं  रघुवंशनाथम्॥3॥
नीले  कमल  के  समान  श्याम  और  कोमल  जिनके  अंग  हैं,  श्री  सीताजी  जिनके  वाम  भाग  में  विराजमान  हैं  और  जिनके  हाथों  में  (क्रमशः)  अमोघ  बाण  और  सुंदर  धनुष  है,  उन  रघुवंश  के  स्वामी  श्री  रामचन्द्रजी  को  मैं  नमस्कार  करता  हूँ॥3॥


अब  अभिलाषु  एकु  मन  मोरें  पूजिहि  नाथ  अनुग्रह  तोरें
मुनि  प्रसन्न  लखि  सहज  सनेहू  कहेउ  नरेस  रजायसु  देहू॥4॥
अब  मेरे  मन  में  एक  ही  अभिलाषा  है  हे  नाथ!  वह  भी  आप  ही  के  अनुग्रह  से  पूरी  होगी  राजा  का  सहज  प्रेम  देखकर  मुनि  ने  प्रसन्न  होकर  कहा-  नरेश!  आज्ञा  दीजिए  (कहिए,  क्या  अभिलाषा  है?)॥4॥


सब  बिधि  गुरु  प्रसन्न  जियँ  जानी  बोलेउ  राउ  रहँसि  मृदु  बानी
नाथ  रामु  करिअहिं  जुबराजू  कहिअ  कृपा  करि  करिअ  समाजू॥1॥
अपने  जी  में  गुरुजी  को  सब  प्रकार  से  प्रसन्न  जानकर,  हर्षित  होकर  राजा  कोमल  वाणी  से  बोले-  हे  नाथ!  श्री  रामचन्द्र  को  युवराज  कीजिए  कृपा  करके  कहिए  (आज्ञा  दीजिए)  तो  तैयारी  की  जाए॥1॥


जग  मंगल  भल  काजु  बिचारा  बेगिअ  नाथ    लाइअ  बारा
नृपहि  मोदु  सुनि  सचिव  सुभाषा  बढ़त  बौंड़  जनु  लही  सुसाखा॥4॥
आपने  जगतभर  का  मंगल  करने  वाला  भला  काम  सोचा  है  हे  नाथ!  शीघ्रता  कीजिए,  देर    लगाइए  मंत्रियों  की  सुंदर  वाणी  सुनकर  राजा  को  ऐसा  आनंद  हुआ  मानो  बढ़ती  हुई  बेल  सुंदर  डाली  का  सहारा  पा  गई  हो॥4॥ 


सेवक  सदन  स्वामि  आगमनू  मंगल  मूल  अमंगल  दमनू
तदपि  उचित  जनु  बोलि  सप्रीती  पठइअ  काज  नाथ  असि  नीती॥3॥
यद्यपि  सेवक  के  घर  स्वामी  का  पधारना  मंगलों  का  मूल  और  अमंगलों  का  नाश  करने  वाला  होता  है,  तथापि  हे  नाथ!  उचित  तो  यही  था  कि  प्रेमपूर्वक  दास  को  ही  कार्य  के  लिए  बुला  भेजते,  ऐसी  ही  नीति  है॥3॥ 


सो  सुनि  तिय  रिस  गयउ  सुखाई  देखहु  काम  प्रताप  बड़ाई
सूल  कुलिस  असि  अँगवनिहारे  ते  रतिनाथ  सुमन  सर  मारे॥2॥
वही  राजा  दशरथ  स्त्री  का  क्रोध  सुनकर  सूख  गए  कामदेव  का  प्रताप  और  महिमा  तो  देखिए  जो  त्रिशूल,  वज्र  और  तलवार  आदि  की  चोट  अपने  अंगों  पर  सहने  वाले  हैं,  वे  रतिनाथ  कामदेव  के  पुष्पबाण  से  मारे  गए॥2॥


सुनहु  प्रानप्रिय  भावत  जी  का  देहु  एक  बर  भरतहि  टीका
मागउँ  दूसर  बर  कर  जोरी  पुरवहु  नाथ  मनोरथ  मोरी॥1॥
(वह  बोली-)  हे  प्राण  प्यारे!  सुनिए,  मेरे  मन  को  भाने  वाला  एक  वर  तो  दीजिए,  भरत  को  राजतिलक  और  हे  नाथ!  दूसरा  वर  भी  मैं  हाथ  जोड़कर  माँगती  हूँ,  मेरा  मनोरथ  पूरा  कीजिए-॥1॥ 


देखी  ब्याधि  असाध  नृपु  परेउ  धरनि  धुनि  माथ
कहत  परम  आरत  बचन  राम  राम  रघुनाथ॥34॥
राजा  ने  देखा  कि  रोग  असाध्य  है,  तब  वे  अत्यन्त  आर्तवाणी  से  'हा  राम!  हा  राम!  हा  रघुनाथ!'  कहते  हुए  सिर  पीटकर  जमीन  पर  गिर  पड़े॥34॥


सोक  बिबस  कछु  कहै    पारा  हृदयँ  लगावत  बारहिं  बारा
बिधिहि  मनाव  राउ  मन  माहीं  जेहिं  रघुनाथ    कानन  जाहीं॥3॥
शोक  के  विशेष  वश  होने  के  कारण  राजा  कुछ  कह  नहीं  सकते  वे  बार-बार  श्री  रामचन्द्रजी  को  हृदय  से  लगाते  हैं  और  मन  में  ब्रह्माजी  को  मनाते  हैं  कि  जिससे  श्री  राघुनाथजी  वन  को    जाएँ॥3॥ 


अस  बिचारि  सोइ  करहु  उपाई  सबहि  जिअत  जेहिं  भेंटहु  आई
जाहु  सुखेन  बनहि  बलि  जाऊँ  करि  अनाथ  जन  परिजन  गाऊँ॥2॥
ऐसा  विचारकर  वही  उपाय  करना,  जिसमें  सबके  जीते  जी  तुम    मिलो  मैं  बलिहारी  जाती  हूँ,  तुम  सेवकों,  परिवार  वालों  और  नगर  भर  को  अनाथ  करके  सुखपूर्वक  वन  को  जाओ॥2॥ 


प्राननाथ  करुनायतन  सुंदर  सुखद  सुजान
तुम्ह  बिनु  रघुकुल  कुमुद  बिधु  सुरपुर  नरक  समान॥64॥
हे  प्राणनाथ!  हे  दया  के  धाम!  हे  सुंदर!  हे  सुखों  के  देने  वाले!  हे  सुजान!  हे  रघुकुल  रूपी  कुमुद  के  खिलाने  वाले  चन्द्रमा!  आपके  बिना  स्वर्ग  भी  मेरे  लिए  नरक  के  समान  है॥64॥ 


जहँ  लगिनाथ  नेह  अरु  नाते  पिय  बिनु  तियहि  तरनिहु  ते  ताते
तनु  धनु  धामु  धरनि  पुर  राजू  पति  बिहीन  सबु  सोक  समाजू॥2॥
हे  नाथ!  जहाँ  तक  स्नेह  और  नाते  हैं,  पति  के  बिना  स्त्री  को  सूर्य  से  भी  बढ़कर  तपाने  वाले  हैं  शरीर,  धन,  घर,  पृथ्वी,  नगर  और  राज्य,  पति  के  बिना  स्त्री  के  लिए  यह  सब  शोक  का  समाज  है॥2॥ 

भोग  रोगसम  भूषन  भारू  जम  जातना  सरिस  संसारू
प्राननाथ  तुम्ह  बिनु  जग  माहीं  मो  कहुँ  सुखद  कतहुँ  कछु  नाहीं॥3॥
भोग  रोग  के  समान  हैं,  गहने  भार  रूप  हैं  और  संसार  यम  यातना  (नरक  की  पीड़ा)  के  समान  है  हे  प्राणनाथ!  आपके  बिना  जगत  में  मुझे  कहीं  कुछ  भी  सुखदायी  नहीं  है॥3॥ 


जिय  बिनु  देह  नदी  बिनु  बारी  तैसिअ  नाथ  पुरुष  बिनु  नारी
नाथ  सकल  सुख  साथ  तुम्हारें  सरद  बिमल  बिधु  बदनु  निहारें॥4॥
जैसे  बिना  जीव  के  देह  और  बिना  जल  के  नदी,  वैसे  ही  हे  नाथ!  बिना  पुरुष  के  स्त्री  है  हे  नाथ!  आपके  साथ  रहकर  आपका  शरद्-(पूर्णिमा)  के  निर्मल  चन्द्रमा  के  समान  मुख  देखने  से  मुझे  समस्त  सुख  प्राप्त  होंगे॥4॥
दोहा  :
खग  मृग  परिजन  नगरु  बनु  बलकल  बिमल  दुकूल
नाथ  साथ  सुरसदन  सम  परनसाल  सुख  मूल॥65॥
हे  नाथ!  आपके  साथ  पक्षी  और  पशु  ही  मेरे  कुटुम्बी  होंगे,  वन  ही  नगर  और  वृक्षों  की  छाल  ही  निर्मल  वस्त्र  होंगे  और  पर्णकुटी  (पत्तों  की  बनी  झोपड़ी)  ही  स्वर्ग  के  समान  सुखों  की  मूल  होगी॥65॥ 


बन  दुख  नाथ  कहे  बहुतेरे  भय  बिषाद  परिताप  घनेरे
प्रभु  बियोग  लवलेस  समाना  सब  मिलि  होहिं    कृपानिधाना॥3॥
हे  नाथ!  आपने  वन  के  बहुत  से  दुःख  और  बहुत  से  भय,  विषाद  और  सन्ताप  कहे,  परन्तु  हे  कृपानिधान!  वे  सब  मिलकर  भी  प्रभु  (आप)  के  वियोग  (से  होने  वाले  दुःख)  के  लवलेश  के  समान  भी  नहीं  हो  सकते॥3॥ 


को  प्रभु  सँग  मोहि  चितवनिहारा  सिंघबधुहि  जिमि  ससक  सिआरा
मैं  सुकुमारि  नाथ  बन  जोगू  तुम्हहि  उचित  तप  मो  कहुँ  भोगू॥4॥
प्रभु  के  साथ  (रहते)  मेरी  ओर  (आँख  उठाकर)  देखने  वाला  कौन  है  (अर्थात  कोई  नहीं  देख  सकता)!  जैसे  सिंह  की  स्त्री  (सिंहनी)  को  खरगोश  और  सियार  नहीं  देख  सकते  मैं  सुकुमारी  हूँ  और  नाथ  वन  के  योग्य  हैं?  आपको  तो  तपस्या  उचित  है  और  मुझको  विषय  भोग?॥4॥ 


उतरु    आवत  प्रेम  बस  गहे  चरन  अकुलाइ
नाथ  दासु  मैं  स्वामि  तुम्ह  तजहु    काह  बसाइ॥71॥
प्रेमवश  लक्ष्मणजी  से  कुछ  उत्तर  देते  नहीं  बनता  उन्होंने  व्याकुल  होकर  श्री  रामजी  के  चरण  पकड़  लिए  और  कहा-  हे  नाथ!  मैं  दास  हूँ  और  आप  स्वामी  हैं,  अतः  आप  मुझे  छोड़  ही  दें  तो  मेरा  क्या  वश  है?॥71॥


मैं  सिसु  प्रभु  सनेहँ  प्रतिपाला  मंदरु  मेरु  कि  लेहिं  मराला
गुर  पितु  मातु    जानउँ  काहू  कहउँ  सुभाउ  नाथ  पतिआहू॥2॥
मैं  तो  प्रभु  (आप)  के  स्नेह  में  पला  हुआ  छोटा  बच्चा  हूँ!  कहीं  हंस  भी  मंदराचल  या  सुमेरु  पर्वत  को  उठा  सकते  हैं!  हे  नाथ!  स्वभाव  से  ही  कहता  हूँ,  आप  विश्वास  करें,  मैं  आपको  छोड़कर  गुरु,  पिता,  माता  किसी  को  भी  नहीं  जानता॥2॥


बालक  बृद्ध  बिहाइ  गृहँ  लगे  लोग  सब  साथ
तमसा  तीर  निवासु  किय  प्रथम  दिवस  रघुनाथ॥84॥
बच्चों  और  बूढ़ों  को  घरों  में  छोड़कर  सब  लोग  साथ  हो  लिए  पहले  दिन  श्री  रघुनाथजी  ने  तमसा  नदी  के  तीर  पर  निवास  किया॥84॥ 
रघुपति  प्रजा  प्रेमबस  देखी  सदय  हृदयँ  दुखु  भयउ  बिसेषी
करुनामय  रघुनाथ  गोसाँई  बेगि  पाइअहिं  पीर  पराई॥1॥
प्रजा  को  प्रेमवश  देखकर  श्री  रघुनाथजी  के  दयालु  हृदय  में  बड़ा  दुःख  हुआ  प्रभु  श्री  रघुनाथजी  करुणामय  हैं  पराई  पीड़ा  को  वे  तुरंत  पा  जाते  हैं  (अर्थात  दूसरे  का  दुःख  देखकर  वे  तुरंत  स्वयं  दुःखित  हो  जाते  हैं)॥1॥


जागे  सकल  लोग  भएँ  भोरू  गे  रघुनाथ  भयउ  अति  सोरू
रथ  कर  खोज  कतहुँ  नहिं  पावहिं  राम  राम  कहि  चहुँ  दिसि  धावहिं॥1॥
सबेरा  होते  ही  सब  लोग  जागे,  तो  बड़ा  शोर  मचा  कि  रघुनाथजी  चले  गए  कहीं  रथ  का  खोज  नहीं  पाते,  सब  'हा  राम!  हा  राम!'  पुकारते  हुए  चारों  ओर  दौड़  रहे  हैं॥1॥


नाथ  कुसल  पद  पंकज  देखें  भयउँ  भागभाजन  जन  लेखें
देव  धरनि  धनु  धामु  तुम्हारा  मैं  जनु  नीचु  सहित  परिवारा॥3॥
निषादराज  ने  उत्तर  दिया-  हे  नाथ!  आपके  चरणकमल  के  दर्शन  से  ही  कुशल  है  (आपके  चरणारविन्दों  के  दर्शन  कर)  आज  मैं  भाग्यवान  पुरुषों  की  गिनती  में    गया  हे  देव!  यह  पृथ्वी,  धन  और  घर  सब  आपका  है  मैं  तो  परिवार  सहित  आपका  नीच  सेवक  हूँ॥3॥ 


लै  रघुनाथहिं  ठाउँ  देखावा  कहेउ  राम  सब  भाँति  सुहावा
पुरजन  करि  जोहारु  घर  आए  रघुबर  संध्या  करन  सिधाए॥3॥
उसने  श्री  रघुनाथजी  को  ले  जाकर  वह  स्थान  दिखाया  श्री  रामचन्द्रजी  ने  (देखकर)  कहा  कि  यह  सब  प्रकार  से  सुंदर  है  पुरवासी  लोग  जोहार  (वंदना)  करके  अपने-अपने  घर  लौटे  और  श्री  रामचन्द्रजी  संध्या  करने  पधारे॥3॥


होइ  बिबेकु  मोह  भ्रम  भागा  तब  रघुनाथ  चरन  अनुरागा
सखा  परम  परमारथु  एहू  मन  क्रम  बचन  राम  पद  नेहू॥3॥
विवेक  होने  पर  मोह  रूपी  भ्रम  भाग  जाता  है,  तब  (अज्ञान  का  नाश  होने  पर)  श्री  रघुनाथजी  के  चरणों  में  प्रेम  होता  है  हे  सखा!  मन,  वचन  और  कर्म  से  श्री  रामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होना,  यही  सर्वश्रेष्ठ  परमार्थ  (पुरुषार्थ)  है॥3॥


हृदयँ  दाहु  अति  बदन  मलीना  कह  कर  जोर  बचन  अति  दीना
नाथ  कहेउ  अस  कोसलनाथा  लै  रथु  जाहु  राम  कें  साथा॥3॥
उनका  हृदय  अत्यंत  जलने  लगा,  मुँह  मलिन  (उदास)  हो  गया  वे  हाथ  जोड़कर  अत्यंत  दीन  वचन  बोले-  हे  नाथ!  मुझे  कौसलनाथ  दशरथजी  ने  ऐसी  आज्ञा  दी  थी  कि  तुम  रथ  लेकर  श्री  रामजी  के  साथ  जाओ,॥3॥


तात  कृपा  करि  कीजिअ  सोई  जातें  अवध  अनाथ    होई
मंत्रिहि  राम  उठाइ  प्रबोधा  तात  धरम  मतु  तुम्ह  सबु  सोधा॥1॥
(और  कहा  -)  हे  तात  !  कृपा  करके  वही  कीजिए  जिससे  अयोध्या  अनाथ    हो  श्री  रामजी  ने  मंत्री  को  उठाकर  धैर्य  बँधाते  हुए  समझाया  कि  हे  तात  !  आपने  तो  धर्म  के  सभी  सिद्धांतों  को  छान  डाला  है॥1॥


सुनि  रघुनाथ  सचिव  संबादू  भयउ  सपरिजन  बिकल  निषादू
पुनि  कछु  लखन  कही  कटु  बानी  प्रभु  बरजे  बड़  अनुचित  जानी॥2॥
श्री  रघुनाथजी  और  सुमंत्र  का  यह  संवाद  सुनकर  निषादराज  कुटुम्बियों  सहित  व्याकुल  हो  गया  फिर  लक्ष्मणजी  ने  कुछ  कड़वी  बात  कही  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  उसे  बहुत  ही  अनुचित  जानकर  उनको  मना  किया॥2॥ 


प्राननाथ  प्रिय  देवर  साथा  बीर  धुरीन  धरें  धनु  भाथा
नहिं  मग  श्रमु  भ्रमु  दुख  मन  मोरें  मोहि  लगि  सोचु  करिअ  जनि  भोरें॥1॥
वीरों  में  अग्रगण्य  तथा  धनुष  और  (बाणों  से  भरे)  तरकश  धारण  किए  मेरे  प्राणनाथ  और  प्यारे  देवर  साथ  हैं  इससे  मुझे    रास्ते  की  थकावट  है,    भ्रम  है  और    मेरे  मन  में  कोई  दुःख  ही  है  आप  मेरे  लिए  भूलकर  भी  सोच    करें॥1॥


पद  कमल  धोइ  चढ़ाइ  नाव    नाथ  उतराई  चहौं
मोहि  राम  राउरि  आन  दसरथसपथ  सब  साची  कहौं
बरु  तीर  मारहुँ  लखनु  पै  जब  लगि    पाय  पखारिहौं
तब  लगि    तुलसीदास  नाथ  कृपाल  पारु  उतारिहौं
हे  नाथ!  मैं  चरण  कमल  धोकर  आप  लोगों  को  नाव  पर  चढ़ा  लूँगा,  मैं  आपसे  कुछ  उतराई  नहीं  चाहता  हे  राम!  मुझे  आपकी  दुहाई  और  दशरथजी  की  सौगंध  है,  मैं  सब  सच-सच  कहता  हूँ  लक्ष्मण  भले  ही  मुझे  तीर  मारें,  पर  जब  तक  मैं  पैरों  को  पखार    लूँगा,  तब  तक  हे  तुलसीदास  के  नाथ!  हे  कृपालु!  मैं  पार  नहीं  उतारूँगा 


नाथ  आजु  मैं  काह    पावा  मिटे  दोष  दुख  दारिद  दावा
बहुत  काल  मैं  कीन्हि  मजूरी  आजु  दीन्ह  बिधि  बनि  भलि  भूरी॥3॥
(उसने  कहा-)  हे  नाथ!  आज  मैंने  क्या  नहीं  पाया!  मेरे  दोष,  दुःख  और  दरिद्रता  की  आग  आज  बुझ  गई  है  मैंने  बहुत  समय  तक  मजदूरी  की  विधाता  ने  आज  बहुत  अच्छी  भरपूर  मजदूरी  दे  दी॥3॥
अब  कछु  नाथ    चाहिअ  मोरें  दीन  दयाल  अनुग्रह  तोरें
फिरती  बार  मोहि  जो  देबा  सो  प्रसादु  मैं  सिर  धरि  लेबा॥4॥
हे  नाथ!  हे  दीनदयाल!  आपकी  कृपा  से  अब  मुझे  कुछ  नहीं  चाहिए  लौटती  बार  आप  मुझे  जो  कुछ  देंगे,  वह  प्रसाद  मैं  सिर  चढ़ाकर  लूँगा॥4॥ 

प्राननाथ  देवर  सहित  कुसल  कोसला  आइ
पूजिहि  सब  मनकामना  सुजसु  रहिहि  जग  छाइ॥103॥
तुम  अपने  प्राणनाथ  और  देवर  सहित  कुशलपूर्वक  अयोध्या  लौटोगी  तुम्हारी  सारी  मनःकामनाएँ  पूरी  होंगी  और  तुम्हारा  सुंदर  यश  जगतभर  में  छा  जाएगा॥103॥


दीन  बचन  गुह  कह  कर  जोरी  बिनय  सुनहु  रघुकुलमनि  मोरी
नाथ  साथ  रहि  पंथु  देखाई  करि  दिन  चारि  चरन  सेवकाई॥2॥
गुह  हाथ  जोड़कर  दीन  वचन  बोला-  हे  रघुकुल  शिरोमणि!  मेरी  विनती  सुनिए  मैं  नाथ  (आप)  के  साथ  रहकर,  रास्ता  दिखाकर,  चार  (कुछ)  दिन  चरणों  की  सेवा  करके-॥2॥

तब  गनपति  सिव  सुमिरि  प्रभु  नाइ  सुरसरिहि  माथ
सखा  अनुज  सिय  सहित  बन  गवनु  कीन्ह  रघुनाथ॥104॥
तब  प्रभु  श्री  रघुनाथजी  गणेशजी  और  शिवजी  का  स्मरण  करके  तथा  गंगाजी  को  मस्तक  नवाकर  सखा  निषादराज,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  सहित  वन  को  चले॥104॥ 

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