રામ ચરિત માનસમાં નાથ શબ્દ વપરાયો હોય તેવી પંક્તિઓ નીચે પ્રમાણે છે.
ભાગ ૩
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥1॥
(चलते समय)
बड़े
प्रेम
से
श्री
रामजी
ने
मुनि
से
कहा-
हे
नाथ!
बताइए
हम
किस
मार्ग
से
जाएँ।
मुनि
मन
में
हँसकर
श्री
रामजी
से
कहते
हैं
कि
आपके
लिए
सभी
मार्ग
सुगम
हैं॥1॥
ग्राम निकट जब निकसहिं जाई। देखहिं दरसु नारि नर धाई॥
होहिं सनाथ जनम फलु पाई। फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥4॥
जब
वे
किसी
गाँव
के
पास
होकर
निकलते
हैं,
तब
स्त्री-पुरुष
दौड़कर
उनके
रूप
को
देखने
लगते
हैं।
जन्म
का
फल
पाकर
वे
(सदा
के
अनाथ)
सनाथ
हो
जाते
हैं
और
मन
को
नाथ
के
साथ
भेजकर
(शरीर
से
साथ
न
रहने
के
कारण)
दुःखी
होकर
लौट
आते
हैं॥4॥
एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥1॥
कोई
घड़ा
भरकर
पानी
ले
आते
हैं
और
कोमल
वाणी
से
कहते
हैं-
नाथ!
आचमन
तो
कर
लीजिए।
उनके
प्यारे
वचन
सुनकर
और
उनका
अत्यन्त
प्रेम
देखकर
दयालु
और
परम
सुशील
श्री
रामचन्द्रजी
ने-॥1॥
स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥
श्याम
और
गौर
वर्ण
है,
सुंदर
किशोर
अवस्था
है,
दोनों
ही
परम
सुंदर
और
शोभा
के
धाम
हैं।
शरद
पूर्णिमा
के
चन्द्रमा
के
समान
इनके
मुख
और
शरद
ऋतु
के
कमल
के
समान
इनके
नेत्र
हैं॥116॥
लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥
तब
लक्ष्मणजी
और
जानकीजी
सहित
श्री
रघुनाथजी
ने
गमन
किया
और
सब
लोगों
को
प्रिय
वचन
कहकर
लौटाया,
किन्तु
उनके
मनों
को
अपने
साथ
ही
लगा
लिया॥118॥
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥
करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥2॥
फूलों
की
वर्षा
करके
देव
समाज
ने
कहा-
हे
नाथ!
आज
(आपका
दर्शन
पाकर)
हम
सनाथ
हो
गए।
फिर
विनती
करके
उन्होंने
अपने
दुःसह
दुःख
सुनाए
और
(दुःखों
के
नाश
का
आश्वासन
पाकर)
हर्षित
होकर
अपने-अपने
स्थानों
को
चले
गए॥2॥
अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥135॥
हे
नाथ!
प्रभु
(आप)
के
चरणों
का
दर्शन
पाकर
अब
हम
सब
सनाथ
हो
गए।
हे
कोसलराज!
हमारे
ही
भाग्य
से
आपका
यहाँ
शुभागमन
हुआ
है॥135॥
चौपाई :
धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥
धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥1॥
हे
नाथ!
जहाँ-जहाँ
आपने
अपने
चरण
रखे
हैं,
वे
पृथ्वी,
वन,
मार्ग
और
पहाड़
धन्य
हैं,
वे
वन
में
विचरने
वाले
पक्षी
और
पशु
धन्य
हैं,
जो
आपको
देखकर
सफल
जन्म
हो
गए॥1॥
तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥
हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥4॥
हम
वहाँ-वहाँ
(उन-उन
स्थानों
में)
आपको
शिकार
खिलाएँगे
और
तालाब,
झरने
आदि
जलाशयों
को
दिखाएँगे।
हम
कुटुम्ब
समेत
आपके
सेवक
हैं।
हे
नाथ!
इसलिए
हमें
आज्ञा
देने
में
संकोच
न
कीजिए॥4॥
नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥
लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥4॥
स्वामी
के
साथ
सुंदर
साथरी
(कुश
और
पत्तों
की
सेज)
सैकड़ों
कामदेव
की
सेजों
के
समान
सुख
देने
वाली
है।
जिनके
(कृपापूर्वक)
देखने
मात्र
से
जीव
लोकपाल
हो
जाते
हैं,
उनको
कहीं
भोग-विलास
मोहित
कर
सकते
हैं!॥4॥
सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥1॥
सीताजी
और
लक्ष्मणजी
को
जिस
प्रकार
सुख
मिले,
श्री
रघुनाथजी
वही
करते
और
वही
कहते
हैं।
भगवान
प्राचीन
कथाएँ
और
कहानियाँ
कहते
हैं
और
लक्ष्मणजी
तथा
सीताजी
अत्यन्त
सुख
मानकर
सुनते
हैं॥1॥
जोई पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा। जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना॥3॥
जो
भी
पूछेगा
उसे
यही
उत्तर
देना
पड़ेगा!
हाय!
अयोध्या
जाकर
अब
मुझे
यही
सुख
लेना
है!
जब
दुःख
से
दीन
महाराज,
जिनका
जीवन
श्री
रघुनाथजी
के
(दर्शन
के)
ही
अधीन
है,
मुझसे
पूछेंगे,॥3॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥3॥
हे
नाथ!
आप
मन
में
समझ
कर
विचार
कीजिए
कि
श्री
रामचन्द्र
का
वियोग
अपार
समुद्र
है।
अयोध्या
जहाज
है
और
आप
उसके
कर्णधार
(खेने
वाले)
हैं।
सब
प्रियजन
(कुटुम्बी
और
प्रजा)
ही
यात्रियों
का
समाज
है,
जो
इस
जहाज
पर
चढ़ा
हुआ
है॥3॥
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥3॥
फिर
राजा
तो
सीधे,
सुशील
और
धर्मपरायण
थे।
वे
भला,
स्त्री
स्वभाव
को
कैसे
जानते?
अरे,
जगत
के
जीव-जन्तुओं
में
ऐसा
कौन
है,
जिसे
श्री
रघुनाथजी
प्राणों
के
समान
प्यारे
नहीं
हैं॥3॥
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥
मुनिनाथ
ने
बिलखकर
(दुःखी
होकर)
कहा-
हे
भरत!
सुनो,
भावी
(होनहार)
बड़ी
बलवान
है।
हानि-लाभ,
जीवन-मरण
और
यश-अपयश,
ये
सब
विधाता
के
हाथ
हैं॥171॥
आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182॥
सबको
सिर
झुकाकर
मैं
अपनी
दारुण
दीनता
कहता
हूँ।
श्री
रघुनाथजी
के
चरणों
के
दर्शन
किए
बिना
मेरे
जी
की
जलन
न
जाएगी॥182॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
मैं
स्वामी
के
काम
के
लिए
रण
में
लड़ाई
करूँगा
और
चौदहों
लोकों
को
अपने
यश
से
उज्ज्वल
कर
दूँगा।
श्री
रघुनाथजी
के
निमित्त
प्राण
त्याग
दूँगा।
मेरे
तो
दोनों
ही
हाथों
में
आनंद
के
लड्डू
हैं
(अर्थात
जीत
गया
तो
राम
सेवक
का
यश
प्राप्त
करूँगा
और
मारा
गया
तो
श्री
रामजी
की
नित्य
सेवा
प्राप्त
करूँगा)॥3॥
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1॥
(उसने कहा-)
हे
भाइयों!
जल्दी
करो
और
सब
सामान
सजाओ।
मेरी
आज्ञा
सुनकर
कोई
मन
में
कायरता
न
लावे।
सब
हर्ष
के
साथ
बोल
उठे-
हे
नाथ!
बहुत
अच्छा
और
आपस
में
एक-दूसरे
का
जोश
बढ़ाने
लगे॥1॥
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥
हे
नाथ!
श्री
रामचन्द्रजी
के
प्रताप
से
और
आपके
बल
से
हम
लोग
भरत
की
सेना
को
बिना
वीर
और
बिना
घोड़े
की
कर
देंगे
(एक-एक
वीर
और
एक-एक
घोड़े
को
मार
डालेंगे)।
जीते
जी
पीछे
पाँव
न
रखेंगे।
पृथ्वी
को
रुण्ड-मुण्डमयी
कर
देंगे
(सिरों
और
धड़ों
से
छा
देंगे)॥1॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
निषादराज
ने
वीरों
का
बढ़िया
दल
देखकर
कहा-
जुझारू
(लड़ाई
का)
ढोल
बजाओ।
इतना
कहते
ही
बाईं
ओर
छींक
हुई।
शकुन
विचारने
वालों
ने
कहा
कि
खेत
सुंदर
हैं
(जीत
होगी)॥2॥
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाईं॥4॥
सूर्यकुल
के
सूर्य
राजा
दशरथजी
जिनके
ससुर
हैं,
जिनको
अमरावती
के
स्वामी
इन्द्र
भी
सिहाते
थे।
(ईर्षापूर्वक
उनके
जैसा
ऐश्वर्य
और
प्रताप
पाना
चाहते
थे)
और
प्रभु
श्री
रघुनाथजी
जिनके
प्राणनाथ
हैं,
जो
इतने
बड़े
हैं
कि
जो
कोई
भी
बड़ा
होता
है,
वह
श्री
रामचन्द्रजी
की
(दी
हुई)
बड़ाई
से
ही
होता
है॥4॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥4॥
यह
सुनकर
निषादराज
प्रेमपूर्वक
समझाने
लगा-
हे
नाथ!
आप
व्यर्थ
विषाद
किसलिए
करते
हैं?
श्री
रामचंद्रजी
आपको
प्यारे
हैं
और
आप
श्री
रामचंद्रजी
को
प्यारे
हैं।
यही
निचोड़
(निश्चित
सिद्धांत)
है,
दोष
तो
प्रतिकूल
विधाता
को
है॥4॥
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥3॥
उत्तम
सेवक
बार-बार
कहते
हैं
कि
हे
नाथ!
आप
घोड़े
पर
सवार
हो
लीजिए।
(भरतजी
जवाब
देते
हैं
कि)
श्री
रामचंद्रजी
तो
पैदल
ही
गए
और
हमारे
लिए
रथ,
हाथी
और
घोड़े
बनाए
गए
हैं॥3॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥2॥
हे
नाथ!
आपकी
आज्ञा
को
सिर
चढ़ाकर
उसका
पालन
करना,
यह
हमारा
परम
धर्म
है।
भरतजी
के
ये
वचन
मुनिश्रेष्ठ
के
मन
को
अच्छे
लगे।
उन्होंने
विश्वासपात्र
सेवकों
और
शिष्यों
को
पास
बुलाया॥2॥
चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥3॥
(और कहा
कि)
भरत
की
पहुनाई
करनी
चाहिए।
जाकर
कंद,
मूल
और
फल
लाओ।
उन्होंने
'हे
नाथ!
बहुत
अच्छा'
कहकर
सिर
नवाया
और
तब
वे
बड़े
आनंदित
होकर
अपने-अपने
काम
को
चल
दिए॥3॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
उस
समय
(पिछली
बार)
तो
श्री
रामचंद्रजी
का
रुख
जानकर
कुछ
किया
था,
परन्तु
इस
समय
कुचाल
करने
से
हानि
ही
होगी।
हे
देवराज!
श्री
रघुनाथजी
का
स्वभाव
सुनो,
वे
अपने
प्रति
किए
हुए
अपराध
से
कभी
रुष्ट
नहीं
होते॥2॥
प्रात पार भए एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
सबेरे
एक
ही
खेवे
में
सब
लोग
पार
हो
गए
और
श्री
रामचंद्रजी
के
सखा
निषादराज
की
इस
सेवा
से
संतुष्ट
हुए।
फिर
स्नान
करके
और
नदी
को
सिर
नवाकर
निषादराज
के
साथ
दोनों
भाई
चले॥2॥
तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥
उस
दिन
वहीं
ठहरकर
दूसरे
दिन
प्रातःकाल
ही
श्री
रघुनाथजी
का
स्मरण
करके
चले।
साथ
के
सब
लोगों
को
भी
भरतजी
के
समान
ही
श्री
रामजी
के
दर्शन
की
लालसा
(लगी
हुई)
है॥224॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥
सब
लोग
श्री
रामचंद्रजी
के
प्रेम
के
मारे
शिथिल
होने
के
कारण
सूर्यास्त
होने
तक
(दिनभर
में)
दो
ही
कोस
चल
पाए
और
जल-स्थल
का
सुपास
देखकर
रात
को
वहीं
(बिना
खाए-पीए
ही)
रह
गए।
रात
बीतने
पर
श्री
रघुनाथजी
के
प्रेमी
भरतजी
ने
आगे
गमन
किया॥1॥
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥2॥
उधर
श्री
रामचंद्रजी
रात
शेष
रहते
ही
जागे।
रात
को
सीताजी
ने
ऐसा
स्वप्न
देखा
(जिसे
वे
श्री
रामचंद्रजी
को
सुनाने
लगीं)
मानो
समाज
सहित
भरतजी
यहाँ
आए
हैं।
प्रभु
के
वियोग
की
अग्नि
से
उनका
शरीर
संतप्त
है॥2॥
नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥
हे
नाथ!
आप
परम
सुहृद्
(बिना
ही
कारण
परम
हित
करने
वाले),
सरल
हृदय
तथा
शील
और
स्नेह
के
भंडार
हैं,
आपका
सभी
पर
प्रेम
और
विश्वास
है,
और
अपने
हृदय
में
सबको
अपने
ही
समान
जानते
हैं॥227॥
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥4॥
हे
नाथ!
मेरा
कहना
अनुचित
न
मानिएगा।
भरत
ने
हमें
कम
नहीं
प्रचारा
है
(हमारे
साथ
कम
छेड़छाड़
नहीं
की
है)।
आखिर
कहाँ
तक
सहा
जाए
और
मन
मारे
रहा
जाए,
जब
स्वामी
हमारे
साथ
हैं
और
धनुष
हमारे
हाथ
में
है!॥4॥
फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥
माता
की
हुई
बुराई
मानो
उन्हें
लौटाती
है,
पर
धीरज
की
धुरी
को
धारण
करने
वाले
भरतजी
भक्ति
के
बल
से
चले
जाते
हैं।
जब
श्री
रघुनाथजी
के
स्वभाव
को
समझते
(स्मरण
करते)
हैं
तब
मार्ग
में
उनके
पैर
जल्दी-जल्दी
पड़ने
लगते
हैं॥3॥
तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥
तब
केवट
दौड़कर
ऊँचे
चढ़
गया
और
भुजा
उठाकर
भरजी
से
कहने
लगा-
हे
नाथ!
ये
जो
पाकर,
जामुन,
आम
और
तमाल
के
विशाल
वृक्ष
दिखाई
देते
हैं,॥1॥
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
छोटे
भाई
शत्रुघ्न
और
सखा
निषादराज
समेत
भरतजी
का
मन
(प्रेम
में)
मग्न
हो
रहा
है।
हर्ष-शोक,
सुख-दुःख
आदि
सब
भूल
गए।
हे
नाथ!
रक्षा
कीजिए,
हे
गुसाईं!
रक्षा
कीजिए'
ऐसा
कहकर
वे
पृथ्वी
पर
दण्ड
की
तरह
गिर
पड़े॥1॥
नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥
हे
नाथ!
मुनिनाथ
वशिष्ठजी
के
साथ
सब
माताएँ,
नगरवासी,
सेवक,
सेनापति,
मंत्री-
सब
आपके
वियोग
से
व्याकुल
होकर
आए
हैं॥242॥
महिसुर मंत्री मातु गुरु गने लोग लिए साथ।
पावन आश्रम गवनु किए भरत लखन रघुनाथ॥245॥
ब्राह्मण,
मंत्री,
माताएँ
और
गुरु
आदि
गिने-चुने
लोगों
को
साथ
लिए
हुए,
भरतजी,
लक्ष्मणजी
और
श्री
रघुनाथजी
पवित्र
आश्रम
को
चले॥245॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥2॥
तदनन्तर
वशिष्ठजी
ने
राजा
दशरथजी
के
स्वर्ग
गमन
की
बात
सुनाई।
जिसे
सुनकर
रघुनाथजी
ने
दुःसह
दुःख
पाया
और
अपने
प्रति
उनके
स्नेह
को
उनके
मरने
का
कारण
विचारकर
धीरधुरन्धर
श्री
रामचन्द्रजी
अत्यन्त
व्याकुल
हो
गए॥2॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु आहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥
हे
नाथ!
सब
लोग
यहाँ
अत्यन्त
दुःखी
हो
रहे
हैं।
कंद,
मूल,
फल
और
जल
का
ही
आहार
करते
हैं।
भाई
शत्रुघ्न
सहित
भरत
को,
मंत्रियों
को
और
सब
माताओं
को
देखकर
मुझे
एक-एक
पल
युग
के
समान
बीत
रहा
है॥3॥
अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥256॥
श्री
रामचन्द्रजी
और
सीताजी
हृदय
की
जानने
वाले
हैं
और
आप
सर्वज्ञ
तथा
सुजान
हैं।
यदि
आप
यह
सत्य
कह
रहे
हैं
तो
हे
नाथ!
अपने
वचनों
को
प्रमाण
कीजिए
(उनके
अनुसार
व्यवस्था
कीजिए)॥256॥
आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥
आर्त
(दुःखी)
लोग
कभी
विचारकर
नहीं
कहते।
जुआरी
को
अपना
ही
दाँव
सूझता
है।
मुनि
के
वचन
सुनकर
श्री
रघुनाथजी
कहने
लगे-
हे
नाथ!
उपाय
तो
आप
ही
के
हाथ
है॥1॥
बोले गुरु आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥
श्री
रामचन्द्रजी
गुरु
की
आज्ञा
अनुकूल
मनोहर,
कोमल
और
कल्याण
के
मूल
वचन
बोले-
हे
नाथ!
आपकी
सौगंध
और
पिताजी
के
चरणों
की
दुहाई
है
(मैं
सत्य
कहता
हूँ
कि)
विश्वभर
में
भरत
के
समान
कोई
भाई
हुआ
ही
नहीं॥2॥
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥2॥
शरीर
से
पुलकित
होकर
वे
सभा
में
खड़े
हो
गए।
कमल
के
समान
नेत्रों
में
प्रेमाश्रुओं
की
बाढ़
आ
गई।
(वे
बोले-)
मेरा
कहना
तो
मुनिनाथ
ने
ही
निबाह
दिया
(जो
कुछ
मैं
कह
सकता
था
वह
उन्होंने
ही
कह
दिया)।
इससे
अधिक
मैं
क्या
कहूँ?॥2॥
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥
अपने
स्वामी
का
स्वभाव
मैं
जानता
हूँ।
वे
अपराधी
पर
भी
कभी
क्रोध
नहीं
करते।
मुझ
पर
तो
उनकी
विशेष
कृपा
और
स्नेह
है।
मैंने
खेल
में
भी
कभी
उनकी
रीस
(अप्रसन्नता)
नहीं
देखी॥3॥
कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥266॥
श्री
जानकीनाथजी
ने
सब
प्रकार
से
मुझ
पर
अत्यन्त
अपार
अनुग्रह
किया।
तदनन्तर
भरतजी
दोनों
करकमलों
को
जोड़कर
प्रणाम
करके
बोले-॥266॥
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥
यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥3॥
हे
नाथ!
आपके
लौटने
में
सभी
का
स्वार्थ
है
और
आपकी
आज्ञा
पालन
करने
में
करोड़ों
प्रकार
से
कल्याण
है।
यही
स्वार्थ
और
परमार्थ
का
सार
(निचोड़)
है,
समस्त
पुण्यों
का
फल
और
सम्पूर्ण
शुभ
गतियों
का
श्रृंगार
है॥3॥
सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥268॥
छोटे
भाई
शत्रुघ्न
समेत
मुझे
वन
में
भेज
दीजिए
और
(अयोध्या
लौटकर)
सबको
सनाथ
कीजिए।
नहीं
तो
किसी
तरह
भी
(यदि
आप
अयोध्या
जाने
को
तैयार
न
हों)
हे
नाथ!
लक्ष्मण
और
शत्रुघ्न
दोनों
भाइयों
को
लौटा
दीजिए
और
मैं
आपके
साथ
चलूँ॥268॥
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥2॥
किन्तु
संकोची
श्री
रघुनाथजी
चुप
ही
रह
गए।
प्रभु
की
यह
स्थिति
(मौन)
देख
सारी
सभा
सोच
में
पड़
गई।
उसी
समय
जनकजी
के
दूत
आए,
यह
सुनकर
मुनि
वशिष्ठजी
ने
उन्हें
तुरंत
बुलवा
लिया॥2॥
नाहिं त कोसलनाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥270॥
नहीं
तो
हे
नाथ!
कुशल-क्षेम
तो
सब
कोसलनाथ
दशरथजी
के
साथ
ही
चली
गई।
(उनके
चले
जाने
से)
यों
तो
सारा
जगत
ही
अनाथ
(स्वामी
के
बिना
असहाय)
हो
गया,
किन्तु
मिथिला
और
अवध
तो
विशेष
रूप
से
अनाथ
हो
गया॥270॥
तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सुब रहेऊ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥3॥
तब
श्री
रघुनाथजी
ने
विश्वामित्रजी
से
कहा
कि
हे
नाथ!
कल
सब
लोग
बिना
जल
पिए
ही
रह
गए
थे।
(अब
कुछ
आहार
करना
चाहिए)।
विश्वामित्रजी
ने
कहा
कि
श्री
रघुनाथजी
उचित
ही
कह
रहे
हैं।
ढाई
पहर
दिन
(आज
भी)
बीत
गया॥3॥
गे नहाइ गुर पहिं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥2॥
श्री
रघुनाथजी
स्नान
करके
गुरु
वशिष्ठजी
के
पास
गए
और
चरणों
की
वंदना
करके
उनका
रुख
पाकर
बोले-
हे
नाथ!
भरत,
अवधपुर
वासी
तथा
माताएँ,
सब
शोक
से
व्याकुल
और
वनवास
से
दुःखी
हैं॥2॥
करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥
कुचाल
करके
देवराज
इन्द्र
सोचने
लगे
कि
काम
का
बनना-बिगड़ना
सब
भरतजी
के
हाथ
है।
इधर
राजा
जनकजी
(मुनि
वशिष्ठ
आदि
के
साथ)
श्री
रघुनाथजी
के
पास
गए।
सूर्यकुल
के
दीपक
श्री
रामचन्द्रजी
ने
सबका
सम्मान
किया,॥1॥
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥
(फिर बोले-)
हे
तात
राम!
मेरा
मत
तो
यह
है
कि
तुम
जैसी
आज्ञा
दो,
वैसा
ही
सब
करें!
यह
सुनकर
दोनों
हाथ
जोड़कर
श्री
रघुनाथजी
सत्य,
सरल
और
कोमल
वाणी
बोले-॥3॥
कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
हे
नाथ!
आपने
अपनी
कृपा
और
भलाई
से
मेरा
भला
किया,
जिससे
मेरे
दूषण
(दोष)
भी
भूषण
(गुण)
के
समान
हो
गए
और
चारों
ओर
मेरा
सुंदर
यश
छा
गया॥298॥
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥
हे
नाथ!
मैंने
स्वामी
और
समाज
के
संकोच
को
छोड़कर
अविनय
या
विनय
भरी
जैसी
रुचि
हुई
वैसी
ही
वाणी
कहकर
सर्वथा
ढिठाई
की
है।
हे
देव!
मेरे
आर्तभाव
(आतुरता)
को
जानकर
आप
क्षमा
करेंगे॥4॥
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥
उन्होंने
फिर
प्रेमपूर्वक
प्रणाम
किया
और
करकमलों
को
जोड़कर
वे
बोले-
हे
नाथ!
मुझे
आपके
साथ
जाने
का
सुख
प्राप्त
हो
गया
और
मैंने
जगत
में
जन्म
लेने
का
लाभ
भी
पा
लिया।3॥
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥
करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥3॥
सुजान
भरतजी
श्री
रामचन्द्रजी
का
रुख
देखकर
प्रेमपूर्वक
उठकर,
विशेष
रूप
से
धीरज
धारण
कर
दण्डवत
करके
हाथ
जोड़कर
कहने
लगे-
हे
नाथ!
आपने
मेरी
सभी
रुचियाँ
रखीं॥3॥
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥3॥
मुझे
सब
प्रकार
से
ऐसा
बहुत
बड़ा
भरोसा
है।
विचार
करने
पर
तिनके
के
बराबर
(जरा
सा)
भी
सोच
नहीं
रह
जाता!
मेरी
दीनता
और
स्वामी
का
स्नेह
दोनों
ने
मिलकर
मुझे
जबर्दस्ती
ढीठ
बना
दिया
है॥3॥
निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥
बिनती करि मुनि
नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि
कबहुँ तजै मति
मोरि॥4॥
मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े॥4॥
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी॥
अस कहि
प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥
मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइए? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिए। ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे। मुनि के नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बह रहा है और शरीर पुलकित है॥5॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥
नाथ सकल साधन
मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है॥2॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
फिर श्री रघुनाथजी आगे वन में चले। श्रेष्ठ मुनियों के बहुत से समूह उनके साथ हो लिए। हड्डियों का ढेर देखकर श्री रघुनाथजी को बड़ी दया आई, उन्होंने मुनियों से पूछा॥3॥
मुनि मग माझ
अचल होइ बैसा।
पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए।
देखि दसा निज
जन मन भाए॥8॥
(हृदय
में प्रभु के दर्शन पाकर) मुनि बीच रास्ते में अचल (स्थिर) होकर बैठ गए। उनका शरीर रोमांच से कटहल के फल के समान (कण्टकित) हो गया। तब श्री रघुनाथजी उनके पास चले आए और अपने भक्त की प्रेम दशा देखकर मन में बहुत प्रसन्न हुए॥8॥
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग
बिहसे द्वौ भाई॥2॥
अब मैं भी प्रभु (आप) के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। इसमें हे नाथ! आप पर मेरा कोई एहसान नहीं है। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भंडार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे॥2॥
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन
जगत आधारा॥
राम अनुज
समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत
हहु जेही॥4॥
हे नाथ! अयोध्या के राजा दशरथजी के कुमार जगदाधार श्री रामचंद्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित आपसे मिलने आए हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं॥4॥
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
हे प्रभो! अब आप मुझे वही मंत्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया?॥2॥
सुर डरत
चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध
धनी॥
सुर मुनि
सभय प्रभु देखि मायानाथ
अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि
संग्राम रिपु दल लरि
मर्यो॥4॥
योद्धा पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, फिर उठकर भिड़ते हैं। मरते नहीं, बहुत प्रकार की अतिशय माया रचते हैं। देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत (राक्षस) चौदह हजार हैं और अयोध्यानाथ श्री रामजी अकेले हैं। देवता और मुनियों को भयभीत देखकर माया के स्वामी प्रभु ने एक बड़ा कौतुक किया, जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी॥4॥
जब रघुनाथ समर रिपु
जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए।
प्रभु पद परत
हरषि उर लाए॥1॥
जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी को ले आए। चरणों में पड़ते हुए उनको प्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥
बिपुल सुमर सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ॥27॥
देवता बहुत से फूल बरसा रहे हैं और प्रभु के गुणों की गाथाएँ (स्तुतियाँ) गा रहे हैं (कि) श्री रघुनाथजी ऐसे दीनबन्धु हैं कि उन्होंने असुर को भी अपना परम पद दे दिया॥27॥
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता
आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज
कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि
न खोरी॥2॥
राक्षसों के झुंड वन में फिरते रहते हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं है। छोटे भाई लक्ष्मणजी ने श्री रामजी के चरणकमलों को पकड़कर हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है॥2॥
तब कह गीध बचन
धरि धीरा। सुनहु राम भंजन
भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति
कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥
तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है॥1॥
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
जल भरि
नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म
निज तें गति
पाई॥4॥
वही (आप) मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खड़े हैं। हे नाथ! अब मैं किस कमी (की पूर्ति) के लिए देह को रखूँ? नेत्रों में जल भरकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से (दुर्लभ) गति पाई है॥4॥
कोमल चित अति
दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम
खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥1॥
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