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Thursday, November 19, 2020

માનસ પ્રેમસૂત્ર - ૩

 

રામ કથા

કથા ક્રમાંક – ૮૫૧

માનસ પ્રેમસૂત્ર - ૩

રમણરેતી

ગોકુલ, જિ – મથુરા, ઉત્તર પ્રદેશ

ગુરૂવાર, તારીખ ૧૯/૧૧/૨૦૨૦ થી  તારીખ ૨૯/૧૧/૨૦૨૦

મુખ્ય પંક્તિઓ

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।

प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

मोर बचन सब के मन माना।

साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥

 

ગુરૂવાર, ૧૯/૧૧/૨૦૨૦

પૂજ્ય સંત સમાજના સંતોના સંબોધનના અંશ ….

·        કોરોના પ્રભાવમાં પણ કરૂણા પોતાનો પ્રભાવ બતાવી રહી છે.

·        કથા શ્રવણ જ નથી પણ સ્વાન્તઃ સુખાય, એક આનંદનો અનુભવ થાય છે.

·        દેશનો ઉદ્ધાર રામ કથાથી જ થશે.

·        ભગવાન રામે બધાનો સાથ, બધાનો વિકાસ તેમજ બધાનો વિશ્વાસ કર્યો છે. સબકા સાથ, સબકા વિકાસ, સબકા વિશ્વાસ.

·        ભગવાન રામે પુરુષાર્થ કર્યો છે.

·        આજની લાભ પાંચમ સફળ થઈ ગઈ, સાર્થક થઈ ગઈ છે.

·        ભારત જરૂર આત્મનિરભર બનશે.

 

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥

 

मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥

 

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥

 

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की॥4॥

જ્યાં પરમાત્મા – સત ચિત આનંદ બિરાજમાન હોય ત્યાં આનંદ જ આનંદ હોય છે.

દરેક પુરૂષાર્થને દિક્ષિત કરવો જોઈએ.

 

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥

 

Arise, awake, find out the great ones and learn of them; for sharp as a razor's edge, hard to traverse, difficult of going is that path, say the sages.

 

''उठो, जागो, वरिष्ठ पुरुषों को पाकर उनसे बोध प्राप्त करो। छुरी की तीक्ष्णा धार पर चलकर उसे पार करने के समान दुर्गम है यह पथ-ऐसा ऋषिगण कहते हैं।

 

જે કાર્યમાં વિષેશ પ્રસન્નતા હોય તે કાર્ય સફળ થાય જ.

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

 

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥

मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥

 

 

जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥

 

જે રમન રેનુ માથા ઉપર ધારણ કરે છે તે સકલ વૈભવને પોતાના વશમાં કરી લે છે.

 

अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तर:

अयं मे विश्वभेषजो अयं शिवाभिमर्शन:

 

 

ऋग्वेद की इस पवित्र ऋचा का अर्थ है की मेरा यह हाथ ऐश्वर्यवान भगवान्  है  यह मेरा दूसरा हाथ और भी ऐश्वर्यवान है। यह मेरा हाथ सभी रोग-व्याधियों को औषधि के समान दूर करने वाला है। अर्थात ये मेरे दोनों हाथ जीवन के सभी दुख-दैन्य दूर कर सकते हैं। ये मेरे हाथ सुखद स्पर्श वाले हैं, यानी सुखदायी हैं .

(परिश्रमी मेरा यह हाथ ही भगवान् है। परिश्रमी मेरा यह हाथ भगवत्तत्त्व से भी श्रेष्ठ है। परिश्रमी मेरा यह हाथ ही सभी दुःखों की औषधि है। परिश्रमी यह हाथ सदैव शुभकार्य में लगे हुए है।कठोर परिश्रम से सब कुछ पाया जा सकता है।)

 

रामायण महाकाव्य हैं और महा मंत्र भी हैं।

 

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥

हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥

 

विषय रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटने वाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी अन्धकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं॥5॥

 

संत जो बोलता हैं वहीं हरि कथा हैं।

 

पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥

 

केवल भारत में ही शास्त्र को शिर पर लिया जाता हैं।

कथा से परमात्मा अवश्य मिलता हैं, किसी को तो मिला हैं, तो यह रास्ता खुला हैं।

 

तुलसीदासजी को परम विश्राम प्राप्त हुआ हैं।

 

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

परम विश्राम हि परमात्मा हैं।

2

Friday, 20/11/2020

ગોસ્વામીજી રમન શબ્દનો બહું ઉપયોગ કરે છે.

રાવણના ત્રાસથી દેવોનાં મનન ચિંતન પણ બંધ થઈ ગયાં છે.

सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।

सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥

ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।

जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥

 

तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥

भगवान महादेव उपाय बताते हुए कहते हैं कि हरि सर्वत्र समान व्याप्त हैं और वह प्रेमे से प्रगट होता हैं।

प्रेम से भगवान प्रगट होते हैं भगवान महादेव यह जानते हैं और उनका अनुभव भी हैं।

 

एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥

नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥

 

इस प्रकार बहुत समय बीत गया। श्री रामचन्द्रजी के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है। शिवजी के (कठोर) नियम, (अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की अटल टेक को (जब श्री रामचन्द्रजी ने) देखा॥2॥

प्रेम से प्रभु

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥

 

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की॥4॥

प्रेम से प्रभु अभी और यहां प्रगट हो शकते हैं।

प्रेम ही परमात्मा हैं।

प्रेम कैसे प्रगट हो शके?

रमनरेती प्रेम प्रगट करनेकी भूमि हैं।

अति प्रेम, अतिशय प्रेम, परम प्रेम वगेरे पात्र भेद और अवस्था भेद में होता हैं।

शास्त्रो के सूत्र में तर्क नहीं लगाया जाता हैं।

स्वप्नमें भी संदेह नहीं करना चाहिये।

 

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।

फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥

 

आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले है. लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान है वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती है वह कोमल चरण बछडो के पीछे-पीछे चल रहे है उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था तुम्हारी विरह की वेदना से ह्रदय संतृप्त हो रहा है तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है, हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो।

 

अचिंत्य भावमें तर्क को स्थान नहीं हैं

चार वस्तु बने तो मानो हमारे जीवनमें प्रेम प्रगट होता हैं।

अधैर्य पेदा होता हैं तब प्रेम प्रगट होता हैं।

केवल प्र्तिक्षा का भाव पेदा होता हैं वह प्रेम प्रगट होनेकी निशानी हैं।

अति प्रेम की अवस्था में शरीर पुलकीत होता हैं।

वाणी अशब्द हो जाती हैं, बचन ही नहीं नीकलता हैं।

परमात्माके चरनो में गीर जाना प्रेम प्रगट होनेका लक्षण हैं।

नेत्र में अश्रु धारा बहना प्रेम प्रगट होने का लक्षण हैं।

मानस प्रेम शास्त्र हैं।

 

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

 

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

अतिशय प्रेम प्रगट होता हैं तब परमात्मा प्रगट होनेका अनुभव हम करते हैं।

कभी कभी घाटे में भी प्रसन्नता आती हैं।

કુંચી મારા ગુરૂજીને હાથ

એવા ગુરૂજી મળે તો તાળા મારા ઊઘડે રે …

अतिशय प्रेम की अवस्था में हरि ह्मदय में प्रगट होते हैं।

 

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥

 

मुनि ने प्रगाढ़ प्रेमाभक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु श्री रामजी वृक्ष की आड़ में छिपकर (भक्त की प्रेमोन्मत्त दशा) देख रहे हैं। मुनि का अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमन के भय) को हरने वाले श्री रघुनाथजी मुनि के हृदय में प्रकट हो गए॥7॥

ह्मदय में साक्षी रूप परमात्मा साक्षात प्रगट होते हैं यह अतिशय प्रेम का लक्षण हैं।

 

श्री आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित

 

मनो-बुद्धि-अहंकार चित्तादि नाहं ,

न च श्रोत्र-जिह्वे न च घ्राण-नेत्रे ।

न च व्योम-भूमी न तेजो न वायु ,

चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ १॥

 

मैं मन, बुद्धि, न चित्त अहंता, न मैं धरनि न व्योम अनंता.

मैं जिव्हा ना, श्रोत, न वयना, न ही नासिका ना मैं नयना .

मैं ना अनिल, न अनल सरूपा, मैं तो ब्रह्म रूप, तदरूपा .

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥१॥

 

परम प्रेम

निंदा और स्तुती सम हो जाय यह

स्तुति के पीछे निंदा आतई हैं, जो होठ स्तुति करते हैं वहीं होठ निंदा भी करते हैं।

बुझे चरागो से कुछ अदब से दूर करना चाहिये क्यों कि यही चरागोने रोशनी दी थी।

 

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥

सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥

 

ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥11॥

मैं सेवक हुं और रघुपति मेरे स्वामी हैं ऐसा अभिमान मिटना नहीं चाहिये।

 

निर्वाण षडकम

श्री आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित

 

मनो-बुद्धि-अहंकार चित्तादि नाहं ,

न च श्रोत्र-जिह्वे न च घ्राण-नेत्रे ।

न च व्योम-भूमी न तेजो न वायु ,

चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ १॥

 

मैं मन, बुद्धि, न चित्त अहंता, न मैं धरनि न व्योम अनंता.

मैं जिव्हा ना, श्रोत, न वयना, न ही नासिका ना मैं नयना .

मैं ना अनिल, न अनल सरूपा, मैं तो ब्रह्म रूप, तदरूपा .

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥१॥

 

न च प्राण-संज्ञो न वै पञ्च-वायु:,

न वा सप्त-धातुर्न वा पञ्च-कोष: ।

न वाक्-पाणी-पादौ न चोपस्थ पायु:

चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ २ ॥

 

न गतिशील, न प्राण आधारा, न मैं वायु पांच प्रकारा.

सप्त धातु , पद, पाणि न संगा, अन्तरंग न ही पाँचों अंगा.

पंचकोष ना , वाणी रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप, तदरूपा

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥२॥

 

 

 

न मे द्वेष-रागौ न मे लोभ-मोहौ,

मदे नैव मे नैव मात्सर्य-भाव: .

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:

चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं .. ॥ ३ ॥

 

ना मैं राग, न द्वेष, न नेहा, ना मैं लोभ, मोह, मन मोहा.

मद-मत्सर ना अहम् विकारा, ना मैं, ना मेरो ममकारा

काम, धर्म, धन मोक्ष न रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा,

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥३॥

 

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं ,

न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञा: ।

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,

चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ४ ॥

 

ना मैं पुण्य न पाप न कोई, ना मैं सुख-दुःख जड़ता जोई.

ना मैं तीर्थ, मन्त्र, श्रुति, यज्ञाः, ब्रह्म लीन मैं ब्रह्म की प्रज्ञा.

भोक्ता, भोजन, भोज्य न रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा.

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा,, मैं शिव रूपा ॥४॥

 

न मे मृत्यु न मे जातिभेद:,

पिता नैव मे नैव माता न जन्मो ।

न बन्धुर्न मित्र: गुरुर्नैव शिष्य:

चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ५॥

 

ना मैं मरण भीत भय भीता, ना मैं जनम लेत ना जीता.

मैं पितु, मातु, गुरु, ना मीता. ना मैं जाति-भेद कहूँ कीता.

ना मैं मित्र बन्धु अपि रूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा.

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥५॥

 

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो,

विभुत्त्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणां ।

सदा मे समत्त्वं न मुक्तिर्न बंध:

चिदानंद रूपं शिवो-हं शिवो-हं ..॥ ६॥

निर्विकल्प आकार विहीना, मुक्ति, बंध- बंधन सों हीना.

मैं तो परमब्रह्म अविनाशी, परे, परात्पर परम प्रकाशी.

व्यापक विभु मैं ब्रह्म अरूपा, मैं तो ब्रह्म रूप तदरूपा.

चिदानंदमय ब्रह्म सरूपा, मैं शिव-रूपा, मैं शिव-रूपा ॥६॥

 

શંકરં શંકરાચાર્યં કેશવં બાદરાયણમ્ .

સૂત્રભાષ્યકૃતૌ વન્દે ભગવન્તૌ પુનઃ પુનઃ ..

 

 

I offer obeisances again and again to shrI Veda VyAsa, the author of the Brahma sUtras, who is none other than Lord VishNu,  and shrI ShankarAchArya, the commentator on those sUtras, who is none other than Lord Shiva.

 

मिलनि  प्रीति  किमि  जाइ  बखानी।  कबिकुल  अगम  करम  मन  बानी॥

परम  प्रेम  पूरन  दोउ  भाई।  मन  बुधि  चित  अहमिति  बिसराई॥1॥

 

मिलन  की  प्रीति  कैसे  बखानी  जाए?  वह  तो  कविकुल  के  लिए  कर्म,  मन,  वाणी  तीनों  से  अगम  है।  दोनों  भाई  (भरतजी  और  श्री  रामजी)  मन,  बुद्धि,  चित्त  और  अहंकार  को  भुलाकर  परम  प्रेम  से  पूर्ण  हो  रहे  हैं॥1॥

परम प्रेम में मन बुद्धि चित्त अहंकार कुछ नहीं बचता हैं।

प्रेमी तीन काम करता हैं – प्रेमी  मुस्कराता रहता हैं, प्रेमी गाता रहता हैं, और प्रेमी रोने लगता हैं।

परमात्मा आनंद स्वरूप हैं।

 

आरती श्री रामायण जी की । कीरति कलित ललित सिय पी की ।।

गावत ब्रहमादिक मुनि नारद । बाल्मीकि बिग्यान बिसारद ।।

शुक सनकादिक शेष अरु शारद । बरनि पवनसुत कीरति नीकी ।।1

आरती श्री रामायण जी की........।।

 

गावत बेद पुरान अष्टदस । छओं शास्त्र सब ग्रंथन को रस ।।

मुनि जन धन संतान को सरबस । सार अंश सम्मत सब ही की ।।2

आरती श्री रामायण जी की........।।

 

गावत संतत शंभु भवानी । अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी ।।

ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी । कागभुशुंडि गरुड़ के ही की ।।3

आरती श्री रामायण जी की........।।

 

कलिमल हरनि बिषय रस फीकी । सुभग सिंगार भगति जुबती की ।।

दलनि रोग भव मूरि अमी की । तात मातु सब बिधि तुलसी की ।।4

आरती श्री रामायण जी की........।।

 

हिन्दु धर्म के देवता के हाथ में हथियार हैं और वाद्य भी हैं।

 

भरत  सरिस  को  राम  सनेही।  जगु  जप  राम  रामु  जप  जेही॥4॥

 

सारा  जगत्‌  श्री  राम  को  जपता  है,  वे  श्री  रामजी  जिनको  जपते  हैं,  उन  भरतजी  के  समान  श्री  रामचंद्रजी  का  प्रेमी  कौन  होगा?॥4॥ 

जो दंडवत प्रणाम करता हैं उसे कोई दंड नहीं मिलता हैं।

केवट दंदवत करता हैं और दंड से बच जाता हैं ऐसा तुलसीदासजी लिखते हैं।

 

पद  कमल  धोइ  चढ़ाइ  नाव  न  नाथ  उतराई  चहौं।

मोहि  राम  राउरि  आन  दसरथसपथ  सब  साची  कहौं॥

बरु  तीर  मारहुँ  लखनु  पै  जब  लगि  न  पाय  पखारिहौं।

तब  लगि  न  तुलसीदास  नाथ  कृपाल  पारु  उतारिहौं॥

 

हे  नाथ!  मैं  चरण  कमल  धोकर  आप  लोगों  को  नाव  पर  चढ़ा  लूँगा,  मैं  आपसे  कुछ  उतराई  नहीं  चाहता।  हे  राम!  मुझे  आपकी  दुहाई  और  दशरथजी  की  सौगंध  है,  मैं  सब  सच-सच  कहता  हूँ।  लक्ष्मण  भले  ही  मुझे  तीर  मारें,  पर  जब  तक  मैं  पैरों  को  पखार  न  लूँगा,  तब  तक  हे  तुलसीदास  के  नाथ!  हे  कृपालु!  मैं  पार  नहीं  उतारूँगा। 

 

उतरि  ठाढ़  भए  सुरसरि  रेता।  सीय  रामुगुह  लखन  समेता॥

केवट  उतरि  दंडवत  कीन्हा।  प्रभुहि  सकुच  एहि  नहिं  कछु  दीन्हा॥1॥

 

निषादराज  और  लक्ष्मणजी  सहित  श्री  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  (नाव  से)  उतरकर  गंगाजी  की  रेत  (बालू)  में  खड़े  हो  गए।  तब  केवट  ने  उतरकर  दण्डवत  की।  (उसको  दण्डवत  करते  देखकर)  प्रभु  को  संकोच  हुआ  कि  इसको  कुछ  दिया  नहीं॥1॥

 

3

Saturday, 21/11/2020

सर्व व्यापक ब्रह्म केवल प्रेम से प्रगट होते हैं ऐसा कैलासपति शंकर भगवान का वचन हैं।

प्रेम कैसे और कब प्रगट हो शकता हैं?

तपस्वी ॠषि कृष्णशंकर दादा कहते हैं कि वक्ता का वचन सूत्रात्मक होना चाहिये, व्यक्ति के वचन मंत्रात्मक भी होना चाहिये, और व्यक्ति के वचन शास्त्रात्नक होने चाहिये, और व्यक्ति के वचन स्नेहात्मक होने चाहिये।

ईष्ट दर्शन से प्रेम का प्रागट्य होता हैं। राधा से, शंकर भगवान वगेरे ईष्ट हैं जिस के दर्शन से प्रेम प्रगट होता हैं।

गीता में कहा गया हैं कि ……….


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।

 

।।4.8।। साधुओं-(भक्तों-) की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।

।।4.8।। साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।

गोपी कहती हैं कि आप का वचन पुरा करने के लिये आपको प्रगट होना ही हैं।

 

जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।

गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥2॥

 

 

हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए ॥2॥

विनय लौकिक और अलौकिक ऐसे दो प्रकार हैं।

 

कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥7॥

 

बालि ने कहा- हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्री रघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित्‌ वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥7॥

अंगद विचारवान हैं।

जिसे प्रेम में जिना हैं उसे कुसंग से बचना चाहिये। कुसंग से कुछ का कुछ हो जाता हैं।

व्यक्ति का अहंकार शरणागति में बाधक हैं।

ठाकोरजी के दर्शन करने से प्रेम प्रगट होता हैं।

प्रेम संत दर्शन से, अपने बुद्ध पुरुष के दर्शन से, साधु के दर्शन से प्रगट होता हैं।

तुलसीदासजी साधु के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि ……

 

सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।

 

साधु का सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रक्खे।।1।।

मीरा कृष्ण को अपना आराध्य बनाती हैं, रुकमणि कृष्ण को अपना पति बनाती हैं लेकिन अत्यंय प्रेम में राधा कृष्ण को कृष्ण ही रहने देती हैं। यह प्रेम की पराकाष्ठा हैं।

साधु मान अपमान सब में संतोष बताता हैं।

अगर भगवान से कुछ मांगना हैं तो यह मांगो कि हे प्रेभु तुं जिस से प्यार करता हैं ऐसे किसी व्यक्ति का दर्शन करा दे।

 

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥

गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥

 

तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥

साधु के दर्शन से प्रेम प्रगट होता हैं।

राम साधु हैं।

कौशल्या, शिव, भरत वगेरे साधु हैं।

साधु के ब्रह्ममय हाथ के स्पर्श से प्रेम प्रगट होता हैं।

 

मुख देखत पातक हरे ,परसत कर्म बिलाही । वचन सुनत मन मोह गत पूरब भाग्य मिलाई ।।

 

जिसका मुख देखने से पातक चले जाएं मन प्रसन्नता से भर जाए जिस के स्पर्श से कर्म बंधन छूट जाए । जीवन मुक्ति किंकरी की तरह सामने आ जाए । और जिस के वचन से हमारे मोह की निवृत्ति हो जाए , जिसमें यह सब हो वह सद्गुरु है।

साधु की अवज्ञा कभी भी नहीं करनी चाहिये।

 

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥

साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥

 

ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥

 

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥

जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्‌जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया॥3॥

 

एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ।।1।।

 

साधु का मौन भी प्रेम प्रगट होता हैं।

 

बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय ।

सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ॥१॥

बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस ।

बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥२॥

प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।

संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥३॥

अघ - उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार ।

आकरषै सुख - संपदा - संतोष - बिचार ॥४॥

जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि ।

तुलसिदास प्रभुपथ चढ्यौ, जौ लेहु निबाहि ॥५॥

 

परम वीर श्री रघुनन्दन राजकिशोर जी की आराधना कीजिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है । वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब कोई अच्छी तरह जानते हैं ॥१॥

अब बिना विलम्ब किये हुए सदगुरु से उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र ( राम ) का जप करना चाहिये, जिसे श्री शिवजी हमेशा जपा करते हैं ॥२॥

( मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है ) प्रेमरुपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेह का घी बनाना चाहिये और सन्देह रुपी समिधका क्षमारुपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये ॥३॥

पापों का उच्चाटन, मन का वशीकरण, अहंकार और काम का मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरुपी सुख - सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये ॥४॥

जिसने इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं । तुलसीदास भी इसी मार्गपर चढ़ा है, जिसे प्रभु निबाह लेंगे ॥५॥

भगवत कथा के लिये जल जरूरी हैं।

 

तव कथामृतं तप्तजीवनं  कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं  भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

 

(हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं – भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप – ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल – परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।)  ॥ 9॥

 

शरणागति में पुरूषार्थका – कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये।

भगवान शंकर बिश्वास हैं, माता पार्वति श्रद्धा हैं और कार्तिकेय पुरूषार्थ हैं।

हम परमात्मा से अलग – बिछड ही नहीं शकते हैं। ऐसी व्यवस्था ही नहीं हैं।

 

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।

 

जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।

 

भगवान कहते ही कि ….

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

 

शिव मुक्ति द्वार हैं। ईसीलिये राम कथा की शुरूआत शिव चरित्र से होती हैं।

कथा सब से बडी सेवा हैं।

कथा अमृत का पान जन्मोजन्म का प्रारब्ध हो तो ही प्राप्त होता हैं।

 

अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई।।2।।




4

Sunday, 22/11/2020

चौपाई

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥

मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥

 

जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥

 

 

रेनुं, रमणरेती, धेनु, वेणु, स्त्रेणुं – गोपी भाव का बहुत महत्व छे, कृष्ण यह सब छोडकर द्रारका गये हैं।

 

किशोरी तेरे चरनन की रज पाऊँ

बैठी रहूं कुंजन के कोने, श्याम राधिका गाऊं

जो रज शिव सनकादिक लोचन, सो रज शीश चढ़ाऊँ

व्यास स्वामिनी की छवि निरखत, विमल विमल जस गाऊं

 

श्री हरिराम व्यास जी श्री राधा रानी से उनके चरणों की रज पाने की प्राथना कर रहे हैं, वृन्दावन में किसी कुञ्ज के कोने में बैठ कर राधा कृष्ण का गुणगान कर रहे हैं| राधा रानी के चरणों की रज की महिमा कौन बता सकता है, यह तोवही रज है जो सनकादिक एवं शिव जी आदि भी पाने के लिए सदा लालायित रहते हैं, उसी रज को प्राप्त कर प्रेम विभोर होकर अपने मस्तक पर धारण करने के प्राथना कर रहे हैं | हरिराम व्यास जी के शब्दों में राधा रानी के परम एवं पवित्र चरित का यशगान करते हुए उनकी छवि का नित्य ही रूप ध्यान करो।

 

श्याम विना व्रज सुनुं लागे ….

ओधवजी हमको न भावे रे …

श्याम विना व्रज सुनुं लागे …

हम रंक पर रिस न किजे

 

गोपी भाव अक्षुण रहा हैं।

गोपी भाव व्रज में ही रह शकता हैं।

व्रज रेणु की, वेणु की, धेनु की गोपी भाव की भूमि हैं।

 

नमामि यमुनामहं सकल सिद्धि हेतुं मुदा

मुरारि पद पंकज स्फ़ुरदमन्द रेणुत्कटाम ।

प्रेमी में देह बल पींड बल – सुक्ष्म शरीर, पीठ बल, प्राण बल, प्रज्ञा बल और परमात्मा का बल शरीर कृष्ट होते हुए भी बहुत वढता हैं।

कुरुक्षेत्र की रज में गीता प्रगट हुई, मामका भाव प्रगट हुआ , व्रज रेनुं में गोपी भाव प्रगट हुआ।

प्रेम कैसे प्रगट करे?

 

जनम  हेतु  सब  कहँ  कितु  माता।  करम  सुभासुभ  देइ  बिधाता॥3॥

 

सभी  के  जन्म  के  कारण  पिता-माता  होते  हैं  और  शुभ-अशुभ  कर्मों  को  (कर्मों  का  फल)  विधाता  देते  हैं॥3॥

 

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

 

ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

 

प्रेम के माता पिता राम कथा – परम ततव की कथा, भगवत कथा, कृष्ण कथा हैं।

सकल लोक जग पावनि गंगा

 

कलिमल हरनि विषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।

दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब विधि तुलसी की॥

आरती श्री रामायण जी की।

 

श्रवण से भी प्रेम प्रगट होता हैं।

रूकमणि में प्रम श्रवण से प्रगट होता हैं।

 

‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव,

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव,

त्वमेव सर्वमम देव देवः।।

 

 तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे देवताओं के देव! तुम ही मेरा सब कुछ हो।

 

नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4॥

 

नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक नाम जप रूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य॥4॥

नाम से भी प्रेम प्रगट होता हैं।

जुठ से प्रेम धारा बाधित होती हैं।

असत्य प्रेम धारा को रोकता हैं।

अनृत्य भावना प्रेम धारा में बाधक हैं। अंदर अंदर का द्वेष प्रेम धारा में बाधक हैं। रस का निषेध – अनृत्य भाव – नृत्य न करना वगेरे प्रेम धारा में बाधक हैं। अनृत्य में यह सब समाहित हो जाता हैं।

अपना प्रतिबिंब देखकर राम भगवान नाचते हैं।

क्रोध और द्वेष प्रेम धारा में बाधक हैं।

आत्मा नर्तकः

 

नर्तक: आत्‍मा।

रड्गोउन्‍तरात्‍मा।

धीवशात् सत्‍वसिद्धि:।

सिद्ध: स्‍वतन्‍त्र भाव:।

विसर्गस्‍वाभाव्‍यादबहि: स्‍थितेस्‍तत्‍स्‍थिति।

 

आत्‍मा नर्तक है। अंतरात्‍मा रंगमंच है। बुद्धि के वश में होने से सत्‍व की सिद्धि होती है। और सिद्ध होने से स्‍वातंत्र्य फलित होता है।

 

स्‍वतंत्र स्‍वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और वह बाहर स्‍थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है।

गोपी भाव प्रेम की धजा हैं।

गोप भाव भी महत्व का हैं। गोप भाव भी व्याकुल कर देता हैं। गोप की शरणागति पांचवा प्रकार की शरणागति हैं।

व्रज मंडल के सभी वृक्ष कृष्ण सखा हैं। प्रत्येक वृक्ष कोई न कोई देव हैं।

प्रेम देवता कोई नियम का भंग नही करने देता हैं, मर्यादा तोडना नहीं देता हैं।

प्रेम एकान्त शोधता हैं, प्रेम भीड का मामला नहीं हैं।


5

Monday, 23/11/2020

स्मृति और विस्मृति हरि के हाथ में हैं, वह चाहे तो ही स्मृति और विस्मृति रहती हैं।

सेवा धर्म कठिन हैं।

गो सेवा जरूरी हैं।

हमारे अवतार की परंपरा में भी उत्क्रांतिवाद आया हैं।

साधु का वलकल और बालक का कलबल एक ही हैं।

साधु की आंख, जननी की आंख …………..

आध्यात्म में गुणातित आंख का बहुत महत्व हैं।

प्रेमी किस नजर से देखता हैं।

प्रेमी जगत को रास रूप आंख से देखता हैं। यह जगत में सब रास कर रहे हैं, जगत नर्तत करता हैं, जगत रास मंडल हैं।

ब्रह्म सत्य, जगत स्फुर्ति हैं ऐसा विनाबीजी ने कहा हैं।

कथा एक रास ही हैं।

कलियुग में आदमी सोया ही रहता हैं, अजागृत, बेहोश रहता हैं।

द्वापर युग में आदमी जाग गया हैं लेकिन बेड में ही रजाई ओढकर सो रहा हैं।

त्रेतायुगमें आदमी बेड में जागकर बेठा हैं

सत युग में आदमी जागृत होकर चल रहा हैं।

माला का धागा तुटते ही मणका वेरविखेर हो जाते हैं।

राम चरित मानस महादेव की वेणु हैं, वेण हैं।

सब बंसी की धून के गुलाम हैं।

प्रेमी की नजर में जगत महारास हैं।

समय पर जो बहार नीकल जाता हैं वह जागृत हैं, और समय आने पर उसके स्नेहीजन उस की सहायता करते हैं।

यशोधरा जानती थी कि आज सिद्धार्थ नीकल जानेवाले हैं, महाभिनिष्क्रमण करनेवाले हैं। यशोधरा भगवान बुद्ध के निर्वाण पथ में बाधक बनना नहीं चाहती हैं। पत्नी को अपने पति की मनोभाव को पहचानना चाहिये।

बुद्धने किसी को दीक्षा नहीं दी हैं लेकिन जो बुद्ध के पास जाते थे वह सब दीक्षित हो जाते थे।

 

नाथ  आजु  मैं  काह    पावा।  मिटे  दोष  दुख  दारिद  दावा॥

बहुत  काल  मैं  कीन्हि  मजूरी।  आजु  दीन्ह  बिधि  बनि  भलि  भूरी॥3॥

 

(उसने  कहा-)  हे  नाथ!  आज  मैंने  क्या  नहीं  पाया!  मेरे  दोष,  दुःख  और  दरिद्रता  की  आग  आज  बुझ  गई  है।  मैंने  बहुत  समय  तक  मजदूरी  की।  विधाता  ने  आज  बहुत  अच्छी  भरपूर  मजदूरी  दे  दी॥3॥

जो चराग के पास जाता हैं उसका अंधेरा अपनेआप नष्ट हो जाते हैं।

जो बुद्ध पुरुष के पास जाते हैं, जो कथा श्रवण करते हैं उसका संशय नष्ट हो जाता हैं, ग्रंथीयां छूट जाती हैं, अपने किये कर्म छूट जाते हैं।

सतसंग की ऊंचाई पर जो चढ जाते हैं उस के कर्म छूट जाते हैं, सतसंग छूटने पर कर्म बंधन आते हैं वह अलग बात हैं। जब तक हम सतसंग में हैं – कथा में हैं, - बुद्ध पुरुष के सानिध्य में तब तक हमारे संशय नष्ट हो जाते हैं, ग्रंथीयां छूट जाते हैं, कर्म छूट जाते हैं।

 

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

 

(हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं – भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप – ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल – परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।)  ॥ 9॥

राम भगवान के जुठन खा कर काक्भूषंडी अमर हो जाता हैं।


तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।।

प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा।।3।।

 

मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता; क्योंकि वेदोंने वर्णन किया है कि शरीरके बिना भजन नहीं होता। पहले मोहने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्रीरामजीके विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं सोया।।3।।

अधरामृत होठ का जुठन हैं – कथा श्रवण भी होठ का जुठन ही हैं जो अजर अमर कर देता हैं, शोक का निवारण करा देती हैं, कथा मोज कराती हैं।

 

चित्रकूट एक औषधि सचवत करत सचेत

 

भगवत कथा में जब हम जाते हैं तब कर्म हमारा पीछा नहीं करता हैं।

कथा के आयोजको कथा श्रवण करते हैं वह मंजल एक एक विशिष्ट हैं।

बुद्ध पुरूष के मुख से जो नीकलता हैं वह जुठन खाकर अन्य वक्ता दूसरों को भी प्रदान करते हैं। कथा व्यास का – शुकदेव का – महादेव का जुठन हैं।

 

जे गुर (ग्रहि) चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥

मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥

 

 

जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥

रेनु शब्द मानस में ९ बार आता है।

1

 

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।

संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14च॥

 

मैं ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥14 (च)॥

2

 

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू

सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥

 

हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड़-चेतन के स्वामी हैं॥1॥

3

 

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥

जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥4॥

 

बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है॥4॥

4

 

बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥

जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥

 

जनकजी की बार-बार विनती और बड़ाई करके श्री रघुनाथजी सब भाइयों के साथ चले। जनकजी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड़ लिए और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्रों में लगाया॥1॥

5

 

भरत  कहेउ  सुरसरि  तव  रेनू  सकल  सुखद  सेवक  सुरधेनू॥

जोरि  पानि  बर  मागउँ  एहू।  सीय  राम  पद  सहज  सनेहू॥4॥

 

भरतजी  ने  कहा-  हे  गंगे!  आपकी  रज  सबको  सुख  देने  वाली  तथा  सेवक  के  लिए  तो  कामधेनु  ही  है।  मैं  हाथ  जोड़कर  यही  वरदान  माँगता  हूँ  कि  श्री  सीता-रामजी  के  चरणों  में  मेरा  स्वाभाविक  प्रेम  हो॥4॥

6

 

पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥

जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4॥

 

 

न कीचड़ है न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥

7

 

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

 

और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्‌ का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥

8

 

 

उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥

पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥4॥

 

इतनी धूल उड़ी कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े भीषण ध्वनि से बज रहे हैं, जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों॥4॥

 

निषाद का विशाद योग

गुह में भगवान राम का शयन देखकर प्रेम प्रगट होता हैं।

 

जिसके बचन सिधी होती हैं, सिधी सादी होती हैं वह सब को प्रिय लगता हैं, उसके प्रति प्रेम प्रगट होता हैं।

 

6

Tuesday, 24/11/2020

प्रेमी जगदीश को किस नजर से देखता हैं।

प्रेमी अपने ईष्ट को पूर्ण रुपेण रसरूप में देखता हैं। रसौ वैसः

 

मोर न्याउ मैं पूछा साईं।

 

सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥

समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥4॥

 

(फिर कहा-) हे कपि! सुनो, मन में ग्लानि मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिए न कोई प्रिय है न अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता)॥4॥

 

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥

 

और हे हनुमान्‌! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत्‌ मेरे स्वामी भगवान्‌ का रूप है॥3॥

प्रेमी सेव्य भाव प्रगट करता हैं।

प्रेमी सदैव अपनेआपको सेवक समजता हैं।

 

सब प्रकार करिहउँ सेवकाई।

 

यह जीव ईश्वर अंश – ईश्वरका भाग हैं। अर्श का अर्थ भाग हैं। फिर भी यह जीव माया का भाग क्यों बन गया?

भक्तो के पास प्रेम तत्व होता हैं, ज्ञानी के पास ब्रह्म तत्व होता हैं।

 

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥

 

हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥

सेवक भाव का मतलब दास भाव हैं।

प्रेमी अपनेआप को सदा दास भाव में देखता हैं, किंकरी समजता हैं।

 

सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति।

तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति।।


जिसका मन सरल है, वाणी सरल है और समस्त क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिये भगवान् श्री रघुनाथजी के प्रेम को उत्पन्न करने वाली सभी विधियाँ सरल हैं अर्थात् निष्कपट ( दम्भरहित ) मन, वाणी और कर्म से भगवान् का प्रेम अत्यन्त सरलता से प्राप्त हो सकता है ।।

 

मोरे सबहि एक तुम स्वामी। दीन बंधु उर अंतरजामी।।

यह वर माँगहु कृपा निकेता। बसहु ह्रदय सिय अनुज समेता।।

 

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥

बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

 

वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥4॥

 

साधु सबल, सरल, सजल होता हैं।

दैन्य में बहुत सबलता होती हैं। दैन्य की अंतिम क्षण बहुत सबल होती हैं।

 

तू दयाल, दीन हौं,

तू दानी, हौं भिखारी ।

हौं प्रसिद्ध पातकी,

तू पाप पुंज हारी ॥

 

प्रेम धारा के बाधक तत्व क्या हैं? यह तत्व दूर हो जाय तो प्रेम धारा अखंड बनी रहेगी।

अतिशय होंशिंयारी, चतुराई, बुद्धि का चातुर्य प्रेम धारा में बाधक हैं।

बुद्धिमान प्रेम को समज नहीं पाता हैं।

प्रेम मार्ग होशियार लोंगो का मार्ग ही नहीं हैं।

कथा बुद्धिमानो को भी विश्राम देती हैं।

अंतर जेनां ऊजळां भीतर बीजी न भात ….

जिस के अंतर उज्जवल हैं उस की जाति देखी नहीं जाती हैं।

भय प्रेम मार्ग में बाधक हैं। हालाकी प्रेम मार्ग में संकोच जरूर रहता हैं।

प्रेम करनेवाला कभी डरेगा नहीं।

कुछ रीति भी प्रेम मार्ग में बाधक हैं।

किसी बुद्ध पुरूष के सानिध्य में बैठ जाना भजन हैं, भले बैठने की जगह दूर क्यौण न हो।

राम सत्य हैं – सत्य प्रधान हैं, कृष्ण प्रेम हैं –प्रेम  प्रधान हैं, शंकर करूणा हैं – प्रधान करूणा हैं, हालांकि सब में सत्य, प्रेम और करूणा पूर्ण रूपेण हैं। तत्वतः तीनों एक ही हैं।

राम की ९ यात्रा हैं।

विश्वामित्र के आश्रम में जाना राम की पहली यात्रा हैं।

राम का जनकपुर धनुष्य यज्ञ में जाना दूसरी यात्रा हैं।

भगवान की वन यात्रा तीसरी यात्रा हैं यह चित्रकूट यात्रा हैं

पंचवटी तक की यात्रा

पंपा सरोवर तक की यात्रा

किष्किन्धा यात्रा

रामेश्वर की यात्रा

लंका की यात्रा

लंका से अयोध्या की यात्रा

अंतिम सरयु यात्रा – स्वधाम की यात्रा

कथा कंथा न पहना दे तो कथा क्या काम की? कथा कंथा पहना ही देती हैं।

कथा छप्पन भोग लेकिन कथा में हरि नाम का जाप तुलसी दल हैं। तुलसी दल के बिना का छप्पन भोग कोई काम का नहीं हैं।

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Wednesday, 25/12/2020

प्रेम में कोई शर्त नहीं होती हैं।

साधु प्रचार न करे, लेकिन संचार करता हैं।

साधु प्रेमाण पत्र नहीं देता हैं लेकिन प्रेम पत्र देता हैं।

राम कथा में राम देव, काम देव और प्रेम देव हैं।

 

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

 

ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥

योगी सदैव सावधान रहता हैं।

 

जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।।

ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।1।।

 

जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिये श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर पड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिये मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं।।1।

 

रामहि  केवल  प्रेमु  पिआरा।  जानि  लेउ  जो  जान  निहारा॥

राम  सकल  बनचर  तब  तोषे।  कहि  मृदु  बचन  प्रेम  परिपोषे॥1॥


श्री  रामचन्द्रजी  को  केवल  प्रेम  प्यारा  है,  जो  जानने  वाला  हो  (जानना  चाहता  हो),  वह  जान  ले।  तब  श्री  रामचन्द्रजी  ने  प्रेम  से  परिपुष्ट  हुए  (प्रेमपूर्ण)  कोमल  वचन  कहकर  उन  सब  वन  में  विचरण  करने  वाले  लोगों  को  संतुष्ट  किया॥1॥ 

 

पाप  करत  निसि  बासर  जाहीं।  नहिं  पट  कटि  नहिं  पेट  अघाहीं॥

सपनेहुँ  धरमबुद्धि  कस  काऊ।  यह  रघुनंदन  दरस  प्रभाऊ॥3॥

 

हमारे  दिन-रात  पाप  करते  ही  बीतते  हैं।  तो  भी  न  तो  हमारी  कमर  में  कपड़ा  है  और  न  पेट  ही  भरते  हैं।  हममें  स्वप्न  में  भी  कभी  धर्मबुद्धि  कैसी?  यह  सब  तो  श्री  रघुनाथजी  के  दर्शन  का  प्रभाव  है॥3॥

जो हमसे केवल प्रेम करे उसके लिये हम क्या दे शकते हैं?

मीरा को, गोपी को कृष्ण कुछ नहीं देते हैं, क्यों कि वह कृष्ण को प्रेम करते हैं।

प्रेम का अंतिम चरण विघलित हो जाना हैं – समा जाना जिसे कोई अलग नहीं कर शकता हैं।

निषाधराज गुह को राम कुछ नहीं देते हैं क्यों कि गुह राम को प्रेम करता था। गुह के मन में भी राम से पानेकी कोई चाह भी नहीं हैं।

 

भरत  सरिस  प्रिय  को  जग  माहीं।  इहइ  सगुन  फलु  दूसर  नाहीं॥

रामहि  बंधु  सोच  दिन  राती।  अंडन्हि  कमठ  हृदय  जेहि  भाँती॥4॥


और  भरत  के  समान  जगत  में  (हमें)  कौन  प्यारा  है!  शकुन  का  बस,  यही  फल  है,  दूसरा  नहीं।  श्री  रामचन्द्रजी  को  (अपने)  भाई  भरत  का  दिन-रात  ऐसा  सोच  रहता  है  जैसा  कछुए  का  हृदय  अंडों  में  रहता  है॥4॥

 

भरत  सरिस  को  राम  सनेही।  जगु  जप  राम  रामु  जप  जेही॥4॥

 

सारा  जगत्‌  श्री  राम  को  जपता  है,  वे  श्री  रामजी  जिनको  जपते  हैं,  उन  भरतजी  के  समान  श्री  रामचंद्रजी  का  प्रेमी  कौन  होगा?॥4॥ 

जगत राम को जपता हैं और राम भरत को जपते हैं।

मानस पूर्ण तहः समर्पण का शास्त्र हैं और प्रेम में समर्पण ही हैं।

सत्य जहां होता हैं वहां अभय होता हैं।

गुरु शरणागति अभय कवच हैं।

 

तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥

सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥

 

हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥

प्रेम से त्याग प्रगट होता हैं, प्रेमी त्याग करता हैं।

राम ही सुग्रीव को अभय प्रदान कर शकते हैं।

अयोध्या सम्राट राम गुह से अयोध्या आने के लिये कहते हैं।

प्रेम मार्ग में कुछ प्रतिबंध – बाधक हैं।

 

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।

रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥

उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।

बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥

 

अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नहीं तो) श्री रघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेंगे।

जरा सी स्थिति बदलने पर साधक में उद्वेग का प्रगट होना प्रेम मार्ग में बाधक हैं।

आश्रित को कोई चिंता नहीं करनी चहिये।

प्रेम करनेवाले को बहुत दुःख आता हैं।

किसी भी परिस्थिति में साधक में उद्वेग नहीं आना चाहिये।

भजनानंदी को भगवान कसोटी कर देखते हैं कि उसमें उद्वेग पेदा होता हैं कि नहीं।

मोज में रहने के साथ साथ परमात्मा की खोज भी करनी हैं।

राम कथा तो हररोज दिपावली हैं।

जीवन रंग भूमि हैं उसे रण भूमि नहीं बनानी चाहिये।

तुं न मिले तो कोई बात नहीं तेरा प्रेम मिलना चाहिये क्यों कि तुं तो मिला हुआ ही हैं।

विरक्ति आती हैं तब प्रेम प्रगट होता हैं। विरक्तिओ का प्रेम शाश्वत होता हैं।

गुरू करे सो प्रेम और चेला करे सो प्यार हैं।

 

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥

ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥

 

मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए॥2॥

 

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥

कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥

 

इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है। मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन्‌! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता॥3॥

 

मान शून्यता – अभिमान शून्यता का न होना प्रेम मार्ग में बाधक हैं।

व्यर्थ समय बिताना प्रेम मार्ग में बाधक हैं।

हरि नाम में रुची होगी तो ही प्रेम प्रगट होगा।

गुरु वह हैं जो आश्रित को शोधता हैं।

राम में राधा और मधुसुदन दोंनो आ जाते हैं।

कथा श्रवण में रुची, भगवान के धाम में रुची बढती हैं तब प्रेम प्रगट होता हैं, ऐसी रुची का न होना प्रेम मार्ग में बाधक हैं।

जो गल को – बात को – सूत्र को पा लेता हैं वहीं पागल हैं।

 

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28।।

 

।।13.28।।जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है।

 

 

।।13.28।। जो पुरुष समस्त नश्वर भूतों में अनश्वर परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।

 

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Thursday, 26/11/2020

 

जब किसीके जीवन में आनंद और उत्साह अचानक बढने लगे तब समजना की प्रेम की प्रसुती होनेवाली हैं।

किसी को देखकर प्रेम प्रगट होता हैं।

जनक राजा में राम को देखकर प्रेम प्रगट होता हैं।

किसी संत, किसी साधु पुरूष, किसी बालक को देखकर भी प्रेम प्रगट होता हैं।

प्रेम ईश्वर समान व्यापक हैं, सिर्फ उसे प्रगट ही करना बाकी हैं।

 

अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।

कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।

 

उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गये और सबसे [एक ही साथ] यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियों को शोकसे रहित कर दिया।।3।।

व्यापक प्रेम कहीं न कहीं बहता ही हैं।

 

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥

जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

 

मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया॥1॥

 

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥

कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥

 

इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है। मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन्‌! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता॥3॥

किसी के चरम स्प्रर्श से प्रेम प्रगट होता हैं।

 

परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

 

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

 

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

 

व्यक्ति में प्रेम की प्यास ऊठे तो भी प्रेम प्रगट होता हैं।

 

परमात्मा प्यास जगाता हैं उस से पहले जलाशय की व्यवस्था करता ही हैं।

जिस को प्यास लगी हो वह भाव ताल नहीं करता हैं।

प्रेम का क्रियात्मक रूप सेवा हैं। प्रेम का कर्म योग सेवा हैं। प्रेम स्वामी को भी सेवक बना देता हैं।

प्रेमी सेवा करेगा ही।

 

साधु सेवा धरम हमारा, काम न दुनियादारी का

जो सेवा करता हैं वहीं साधु हैं। सेवा कर्म में जानेवालो को कष्ट सहन करना पडेगा।

 

આયો સેવાના ક્ષેત્રમાં શાણો એક ઘઉનો દાણો

 

सेवा करने में अहंकार आने का खतरा हैं।

 

सेवाधरमु  कठिन  जगु  जाना॥

 

गोपी जनो को प्यास लगी तो उन्हेम कोई रोक नहीं पाया।

 

मन तड़पत हरि दर्शन को आज

मोरे तुम बिन बिगड़े सकल काज

विनती करत हूँ रखियो लाज

 

तुम्हरे द्वार का मैं हूँ जोगी

हमरी ओर नज़र कब होगी

सुन मोरे व्याकुल मन का बात

तड़पत हरी...

 

बिन गुरू ज्ञान कहाँ से पाऊँ

दीजो दान हरी गुन गाऊँ

सब गुनी जन पे तुम्हारा राज

तड़पत हरी...

 

मुरली मनोहर आस न तोड़ो

दुख भंजन मोरा साथ न छोड़ो

मोहे दरसन भिक्षा दे दो आज, दे दो आज

 

દર્દ ને ગાયા વિના રોયા કરો

કંટકો નો જો ભય હોય સતત

તો ફૂલ ને તોડ્યા વિના જોયા કરો

લો હવે કૈલાશ ખુદને ખાંધ પર

 

प्यासे को हंमेशां अतृप्ती ही रहती हैं। ज्यादा से ज्यादा पीने का मन होता हैं।

पांच प्रकार के प्रेम का महत्व हैं।

अविरल प्रेम

निरभर प्रेम

अतिशय प्रेम

परम प्रेम

अंतर प्रेम

 

વલ્લભ ગુણ ગાવા ને ગાવા

અને અવસર ફરી નહીં આવે આવા

 

अति प्रेम में अधिराई आ जाती हैं, अहोभाव पेदा होता हैं, अश्रु पात होता हैं।

अविरल प्रेम प्रगाढ होता हैं।

निरभर प्रेम भरपुर प्रेम हैं।

परम प्रेम भरत और राम का प्रेम हैं।

मारीच का प्रेम अंतर प्रेम हैं। अंतर प्रेम मेम मन पुलकित होता हैं, मन रोता भी हैं।

 

जिन्ह  के  श्रवन  समुद्र  समाना।  कथा  तुम्हारि  सुभग  सरि  नाना॥2॥


श्रवण प्रथम भक्ति हैं। श्रवण की बहुत महिमा हैं, वक्ता बोलने में भूल कर शकता हैं, लेकिन सुनने में भूल का पता नहीं लगता हैं, वक्ता को एक जगह बैठना पडता हैं, श्रोता को एक जगह बैठने की जरुरत नहीं हैं। वक्ता को जागना पडता हैं, श्रोता को जागने की जरूरत नहीं हैं, श्रोता सो भी शकता हैं।

 

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।

किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥

 

श्री रामजी की गूढ़ कथा के वक्ता (कहने वाले) और श्रोता (सुनने वाले) दोनों ज्ञान के खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥30 ख॥

पुकार करने पर अपना गुरु अवश्य आता हैं और फिर सब कार्य गुरु ही करता हैं, आश्रित को कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं रहती हैं। दशरथ राजा अपने गुरु वशिष्ठ के पास पुत्र प्राप्ति के लिये जाते हैं बाद में पुत्र प्राप्ति का सब कार्य वशिष्ट मुनि करते हैं, दशरथ को कुछ भी नहीं करना पडता हैं।

खिर से परमात्मा मिलता हैं। खिर बनाने के लिये चावल, दूध और खांड की आवश्यकता हैं जो कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग हैं।

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Friday, 27/11/2020

प्रेम में सहयोगी तत्व कौन हैं?

प्रेम प्रगट होने के बाद प्रेमी को क्या महसुस होता हैं।

तीन वस्तु घटे तो समजो प्रेम प्रगट हो गया।

राग अनुराग, प्रेम मोह में कैसे समजे?

प्रेम प्रगट होने के बाद साधक कृतकृत्य भाव भरपुर मात्रा में प्रगट होता हैं।

ऐसा महसुस होता हैं कि प्रेम किसी के प्रसाद से प्रगट हुआ हैं, ऐसा प्रेम शास्वत होता हैं।

हमारे पंच क्लेश से मुक्ति प्रेम प्रगट होने का प्रमाण हैं।

 

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥3॥

 

सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया॥3॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥

तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

 

मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोड़ूँगी॥3॥

 

दो.-मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।

उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस।।129।।

 

हे विश्वनाथ ! आपकी कृपासे अब मैं कृतार्थ हो गयी। मुझमें दृढ़ रामभक्ति उत्पन्न हो गयी और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गये (नष्ट हो गये)।।129।।

रजो गुणी व्यक्ति एक जगह बैठ नहीं शकता हैं। तमो गुणी खडा नहीं रहता हैं।

कथा में किसी कारण कुछ सूत्र – वकतव्य छूट जाय उसकी ग्लानी होनी चाहिये। व्यास पीठ मार देती हैं, व्यास पीठ कहीं का नहीं रहने देती हैं।

कथा के वक्ता की अवाज कभी भी बैठती नहीं हैं। सभी वक्ता अपनी आवाज गीरवे रख देते हैं। यह अस्तित्व की एक व्यवस्था हैं।

 

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥

पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥1॥

 

कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गईं।

हमारा शरीर, मन, श्वास, चंचल हैं।

हमारे जीवन में कुछ अच्छा होता हैं वह हमारे प्रयास से नहीं लेकिन परम के प्रसाद से होता हैं।

 

सेवक  सदन  स्वामि  आगमनू।  मंगल  मूल  अमंगल  दमनू॥

तदपि  उचित  जनु  बोलि  सप्रीती।  पठइअ  काज  नाथ  असि  नीती॥3॥

 

यद्यपि  सेवक  के  घर  स्वामी  का  पधारना  मंगलों  का  मूल  और  अमंगलों  का  नाश  करने  वाला  होता  है,  तथापि  हे  नाथ!  उचित  तो  यही  था  कि  प्रेमपूर्वक  दास  को  ही  कार्य  के  लिए  बुला  भेजते,  ऐसी  ही  नीति  है॥3॥ 

 

प्रभुता  तजि  प्रभु  कीन्ह  सनेहू।  भयउ  पुनीत  आजु  यहु  गेहू॥

आयसु  होइ  सो  करौं  गोसाईं।  सेवकु  लइह  स्वामि  सेवकाईं॥4॥

 

परन्तु  प्रभु  (आप)  ने  प्रभुता  छोड़कर  (स्वयं  यहाँ  पधारकर)  जो  स्नेह  किया,  इससे  आज  यह  घर  पवित्र  हो  गया!  हे  गोसाईं!  (अब)  जो  आज्ञा  हो,  मैं  वही  करूँ।  स्वामी  की  सेवा  में  ही  सेवक  का  लाभ  है॥4॥

 

दो.-नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।

आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहिं काज।।63क।।

 

हे नाथ ! हे पक्षिराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें, मैं अब वही करूँ। हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिये आये हैं?।।63(क)।।

 

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।

जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।63ख।।

 

पक्षिराज गरुड़जीने कोमल वचन कहे-आप तो सदा ही कृतार्थरूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है।।63(ख)।।

 

गुण-रहितं कामना-रहितं प्रतिक्षण-वर्धमानं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभव-रूपम् । (नारदभक्तिसूत्राणि ५४)

 

Love (for divine) is beyond qualification (of unchanging qualities), without expectation, ever-increasing, undivided, subtle and (of the form of) an experience i.e. it is to be experienced with soul(the inner one) , not known with brain(mind).

 

गुण एक बंधन हैं लेकिन प्रेम बंधन नहीं हैं, प्रेम परम मुक्ति का सगोत्री हैं।

 

गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपम् ।

 

यह (परम-प्रेम-रूपा भक्ति) गुण रहित है, कामना रहित है, प्रति क्षण बढ़ती रहती  है, सूक्ष्मतर है तथा अनुभव रूप है ॥५४॥

 

संत परम हितकारी, जगत माहि संत परम हितकारी |

प्रभु पद प्रगट करावे प्रीती, भरम मिटावे भारी |

परम कृपालु सकल जीवन पर, हरि सम सकल दुःख हारी |

त्रिगुन्तीत फिरत तन त्यागी, रीत जगत से नयारी |

ब्रह्मानंद कहे संत की सोबत, मिळत है प्रगट मुरारी |

 

प्रेम ही परम मुक्ति हैं, अगर वह बंधन हैं तो वह आसक्ति हैं, वासना हैं।

 

હું  હાથને  મારા   ફેલાવું  તો  તારી   ખુદાઈ   દૂર   નથી

હું   માંગુ  ને   તું  આપી  દે  એ   વાત  મને  મંજૂર  નથી

 

આ આંખ ઉઘાડી  હોય  છતાં પામે  જ  નહિ  દર્શન  તારાં

એ  હોય  ન  હોય  બરાબર  છે   બેનૂર  છે  માહનૂર  નથી

 

હું  હાથને  મારા   ફેલાવું  તો  તારી   ખુદાઈ   દૂર   નથી

 

જે દિલમાં દયાને સ્થાન નથી ત્યાં વાત ન કર દિલ ખોલીને

એ પાણી  વિનાના સાગરની નાઝિરને કશીય  જરૂર  નથી

 

હું  હાથને  મારા   ફેલાવું  તો  તારી   ખુદાઈ   દૂર   નથી

હું   માંગુ  ને   તું  આપી  દે  એ   વાત  મને  મંજૂર  નથી

…………………………………………………………..નાઝિર દેખૈયા

 

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।

भक्ति प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरा में

कामादि दोष रहितं कुरु मानसं च ॥

 

हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही है। (सब जानते ही है) कि मेरे हृदयमें दूसरी कोई इच्छा नही है। हे रघुकुल श्रेष्ठ मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषोंसे रहित कीजिए ।

 

प्रेमी का परमात्मा प्रति क्षण वर्धमान होता हैं, युगे युगे नहीं हैं।

कथा श्रवण में रुची बढे तो समजो प्रेम प्रगट हुआ हैं।

प्रेम तैल धारा वत होना चाहिये।

प्रेम सुक्ष्मतरम्‌ हैं।

सत्य और श्रद्धा का मिलन हो जाय तो कृतार्थ भाव पेदा होता हैं।

 

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Saturday, 28/11/2020

 

जे  गुर  चरन  रेनु  सिर  धरहीं।  ते  जनु  सकल  बिभव  बस  करहीं॥

मोहि  सम  यहु  अनुभयउ  न  दूजें।  सबु  पायउँ  रज  पावनि  पूजें॥3॥

 

जो  लोग  गुरु  के  चरणों  की  रज  को  मस्तक  पर  धारण  करते  हैं,  वे  मानो  समस्त  ऐश्वर्य  को  अपने  वश  में  कर  लेते  हैं।  इसका  अनुभव  मेरे  समान  दूसरे  किसी  ने  नहीं  किया।  आपकी  पवित्र  चरण  रज  की  पूजा  करके  मैंने  सब  कुछ  पा  लिया॥3॥

राम कथा सुर धेनु हैं।

गुरु पद रेनु प्राप्त संपदा विवेक हैं, विवेक ही वैभव हैं।

विश्वास दूसरा वैभव हैं, आश्रितो का वैभव हैं, वैराग्य आश्रितो का वैभव हैं।

असंगता वैभव हैं।

गंगा का दर्शन कर के राम भी प्रसन्न हो जाते हैं।

 

कहि  कहि  कोटिक  कथा  प्रसंगा।  रामु  बिलोकहिं  गंग  तरंगा॥

सचिवहि  अनुजहि  प्रियहि  सुनाई।  बिबुध  नदी  महिमा  अधिकाई॥3॥

 

अनेक  कथा  प्रसंग  कहते  हुए  श्री  रामजी  गंगाजी  की  तरंगों  को  देख  रहे  हैं।  उन्होंने  मंत्री  को,  छोटे  भाई  लक्ष्मणजी  को  और  प्रिया  सीताजी  को  देवनदी  गंगाजी  की  बड़ी  महिमा  सुनाई॥3॥

 

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥

हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

 

घर में रहते बुढ़ापा आ गया, परन्तु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकर) उनके मन में बड़ा दुःख हुआ कि श्री हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥142॥

 

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥

 

ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान्‌ कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥4॥

 

(जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत्‌ में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। देखिए गीता अध्याय 13/ 7 से 11)

 

श्रवण से फायदा होता हि हैं।

परम वैराग्य यह हैं जिस में साधक  सिद्धिओ और गुणो को त्याग करता हैं और यह साधक को ऐसा त्याग का पता ही नहीं रहता हैं।

अक्क्ल और दिल

सात्विक विनोद – आध्यात्मिक विनोद भी वैभव हैं।

साधु के दर्शन करने में साधु का समय बिगाडना नहीं चाहिये, ईस तरह दर्शन करे जिससे साधु का समय न बिगडे।

सत्य सर्वत्र हैं।

साधु कभी भी किसी का विरोद्ध नहीं करता हैं।

विरोध और बोध एक साथ नहीं रह शकते।

परमात्मा समस्त बोध का विग्रह हैं।

 

नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥

भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥

 

हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥

 

निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥

 

आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥

 

प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥

निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥

 

हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥

 

दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥

मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥4॥

 

 

सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥

 

मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं॥

विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥

 

आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥

 

विरोधी और शिकायती चित आध्यात्म यात्रा नहीं कर शकता हैं।

रमण का अर्थ असंग भाव से खेलना, क्रिडा करना हैं।

 

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥

परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥

 

उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं॥4॥

सही शब्द कैलास हैं, कैलाश गलत हैं।

सत्य भितर हैं, भितर खोजो …..ऑशो

सत्य सर्वत्र हैं, कहीं भी खोजो …… राम दुलारी बापु

सत्य खोया ही नहीं है, ईसी लिये खोजने की जरूर नहीं हैं …. एक साधु

गोपी जन गोविंद का मुस्कान चाहती हैं।

लोग अपना काम कराने के बाद सलाह देने लगते हैं।

विचार भी वैभव हैं।

यह पंच वैभव हैं।

 

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥

सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥

 

यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥

राम की सत्य यात्रा हैं, कृष्ण की प्रेम यात्रा हैं, शंकर की करूणा यात्रा हैं, सभी यात्रा एक ही हैं।

पांच वस्तु प्रेम धारा की बाधक हैं।

भरत की प्रेम यात्रा हैं। जनक की यात्रा करूणा यात्रा हैं।

भरत की प्रेम यात्रा में पांच बाधाए आती हैं।

चित्रकूट भी प्रेम प्रगट कर शकता हैं।

भरत की प्रेम यात्रा अयोध्यासे चित्रकूट की हैं।

भरत पेदल चलते हैं।

 

કશુ કહેવાને આવ્યો છું કરગરવા નથી આવ્યો,

બીજા ની જેમ જીવન અનુસરવા નથી આવ્યો,

ઓ દયાનાસાગર હવે મને તારામા સમાવી લે,

હું અહી આવ્યો છું ડુબવા તરવા નથી આવ્યો.

 

प्रेम प्रवाह का पहला बाधक तत्व व्रत भंग हैं। नियम छोडना एक बाधा हैं।

प्रेम और शोक बडे बडे को उखाड देता हैं।

प्रेम मार्ग में समाज की गेर समज बाधक हैं। भरत की यात्रा को निषाधराज रोकनेकी योजना बनाता हैं।

सैनिक की शहिदी स्वर्ग के अधिकारी हैं।

प्रेम प्रवाह की बाधक यात्रा में जते वक्त अन्य समाज गेरसमज पेदा करे वह हैं। यदी यात्रा सही हैं तो गेर समज सहायभूत होनेमें परिवर्तित होती हैं।

भरद्वाज मुनि भी भरत की परीक्षा करते हैं।

प्रेम प्रवाह की यात्रा में साधु समाज, ऋषि मुनि भी परीक्षा करके बाधक बनते हैं।

अपने साथ चलनेवाले की भी कोई चाल हो शकती हैं।

तसवीर में नहीं लेकिन तकलीफ में साथ दे वह मित्र हैं।

देवता भी प्रेम प्रवाह की यात्रा में बाधक बनते हैं। देवता भी अपने स्वार्थ के लिये साधक की यात्रा में बाधा डालते हैं।

 

तब  किछु  कीन्ह  राम  रुख  जानी।  अब  कुचालि  करि  होइहि  हानी।

सुनु  सुरेस  रघुनाथ  सुभाऊ।  निज  अपराध  रिसाहिं  न  काऊ॥2॥

 

उस  समय  (पिछली  बार)  तो  श्री  रामचंद्रजी  का  रुख  जानकर  कुछ  किया  था,  परन्तु  इस  समय  कुचाल  करने  से  हानि  ही  होगी।  हे  देवराज!  श्री  रघुनाथजी  का  स्वभाव  सुनो,  वे  अपने  प्रति  किए  हुए  अपराध  से  कभी  रुष्ट  नहीं  होते॥2॥

 

जो  अपराधु  भगत  कर  करई।  राम  रोष  पावक  सो  जरई॥

लोकहुँ  बेद  बिदित  इतिहासा।  यह  महिमा  जानहिं  दुरबासा॥3॥

 

पर  जो  कोई  उनके  भक्त  का  अपराध  करता  है,  वह  श्री  राम  की  क्रोधाग्नि  में  जल  जाता  है।  लोक  और  वेद  दोनों  में  इतिहास  (कथा)  प्रसिद्ध  है।  इस  महिमा  को  दुर्वासाजी  जानते  हैं॥3॥

 

सुनु  सुरेस  उपदेसु  हमारा।  रामहि  सेवकु  परम  पिआरा॥

मानत  सुखु  सेवक  सेवकाईं।  सेवक  बैर  बैरु  अधिकाईं॥1॥

 

हे  देवराज!  हमारा  उपदेश  सुनो।  श्री  रामजी  को  अपना  सेवक  परम  प्रिय  है।  वे  अपने  सेवक  की  सेवा  से  सुख  मानते  हैं  और  सेवक  के  साथ  वैर  करने  से  बड़ा  भारी  वैर  मानते  हैं॥1॥

प्रेम प्रवाह की यात्रा में अपने स्नेही जन भी बाधक बनते हैं।

 

सनमानि  सुर  मुनि  बंदि  बैठे  उतर  दिसि  देखत  भए।

नभ  धूरि  खग  मृग  भूरि  भागे  बिकल  प्रभु  आश्रम  गए॥

तुलसी  उठे  अवलोकि  कारनु  काह  चित  सचकित  रहे।

सब  समाचार  किरात  कोलन्हि  आइ  तेहि  अवसर  कहे॥

 

 

देवताओं  का  सम्मान  (पूजन)  और  मुनियों  की  वंदना  करके  श्री  रामचंद्रजी  बैठ  गए  और  उत्तर  दिशा  की  ओर  देखने  लगे।  आकाश  में  धूल  छा  रही  है,  बहुत  से  पक्षी  और  पशु  व्याकुल  होकर  भागे  हुए  प्रभु  के  आश्रम  को  आ  रहे  हैं।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  प्रभु  श्री  रामचंद्रजी  यह  देखकर  उठे  और  सोचने  लगे  कि  क्या  कारण  है?  वे  चित्त  में  आश्चर्ययुक्त  हो  गए।  उसी  समय  कोल-भीलों  ने  आकर  सब  समाचार  कहे। 

 

सुनत  सुमंगल  बैन  मन  प्रमोद  तन  पुलक  भर।

सरद  सरोरुह  नैन  तुलसी  भरे  सनेह  जल॥226॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  सुंदर  मंगल  वचन  सुनते  ही  श्री  रामचंद्रजी  के  मन  में  बड़ा  आनंद  हुआ।  शरीर  में  पुलकावली  छा  गई  और  शरद्  ऋतु  के  कमल  के  समान  नेत्र  प्रेमाश्रुओं  से  भर  गए॥226॥

 

बहुरि  सोचबस  भे  सियरवनू।  कारन  कवन  भरत  आगवनू॥

एक  आइ  अस  कहा  बहोरी।  सेन  संग  चतुरंग  न  थोरी॥1॥

 

सीतापति  श्री  रामचंद्रजी  पुनः  सोच  के  वश  हो  गए  कि  भरत  के  आने  का  क्या  कारण  है?  फिर  एक  ने  आकर  ऐसा  कहा  कि  उनके  साथ  में  बड़ी  भारी  चतुरंगिणी  सेना  भी  है॥1॥

 

 भरत की प्रेम यात्रा का लक्ष्मण विरोद्ध करता हैं।

 

बिषई  जीव  पाइ  प्रभुताई।  मूढ़  मोह  बस  होहिं  जनाई॥

भरतु  नीति  रत  साधु  सुजाना।  प्रभु  पद  प्रेमु  सकल  जगु  जाना॥1॥

 

परंतु  मूढ़  विषयी  जीव  प्रभुता  पाकर  मोहवश  अपने  असली  स्वरूप  को  प्रकट  कर  देते  हैं।  भरत  नीतिपरायण,  साधु  और  चतुर  हैं  तथा  प्रभु  (आप)  के  चरणों  में  उनका  प्रेम  है,  इस  बात  को  सारा  जगत्‌  जानता  है॥1॥

धर्म संकट, राष्ट्र संकट, पारिवारिक संकट ऐसे चार संकट हैं।

 

मसक  फूँक  मकु  मेरु  उड़ाई।  होइ  न  नृपमदु  भरतहि  भाई॥

लखन  तुम्हार  सपथ  पितु  आना।  सुचि  सुबंधु  नहिं  भरत  समाना॥2॥

 

मच्छर  की  फूँक  से  चाहे  सुमेरु  उड़  जाए,  परन्तु  हे  भाई!  भरत  को  राजमद  कभी  नहीं  हो  सकता।  हे  लक्ष्मण!  मैं  तुम्हारी  शपथ  और  पिताजी  की  सौगंध  खाकर  कहता  हूँ,  भरत  के  समान  पवित्र  और  उत्तम  भाई  संसार  में  नहीं  है॥2॥

परिवार का निजी सदस्य हत्या करनेका सोचे यह प्रेम प्रवाह का अंतिम विरोध हैं।

नरसिंह मेहता, मीरा, जीसस, बुद्ध भगवान वगेरे का अपने निकटवाले ही विरोध करते हैं।

प्रेम प्रवाह प्रगट होने के १६ लक्षण हैं जो प्रेमी के सोलह श्रींगार हैं।

पूर्ण तह प्रेम प्रवाह रुकता नहीं हैं।

प्रेम फूटता हैं तब चारो ओर प्रकाश पेदा होता हैं, नित्य राधा भाव, कृष्ण भाव पेदा होता हैं।

प्रेम के बिना रघुपति नहीं मिलते हैं।

 

बारि मथें घृत बरु सिकता ते बरु तेल।

बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।122क।।

 

जलको मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाय और बालू [को पेरने] से भले ही तेल निकल आवे; परंतु श्रीहरि के भजन बिना संसाररूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता यह सिद्धान्त अटल है।।122(क)।।

 

प्रेमी हरि स्मरण में रोने लगता हैं, ऐसा रोना प्रेम प्रवाह का एक लक्षण हैं।

प्रेम अपना प्रवाह, अपना प्रताप, अपना सामर्थ्य प्रगट करता हैं, यह भी प्रेम प्रगट होने का एक लक्षण हैं।

परमात्मा जब साधन नहीं देता हैं तब वही परमात्मा सामर्थ्य देता हैं।

प्रेम सदा प्रनाम ही करता हैं, यह भी एक लक्षण हैं।

 

 

11

Sunday, 29/11/2020

 

राम चरित मानस तीन शास्त्र – वाल्मीकि रामायण, श्रीमद भगवद गीता और  का  समन्वय रूप हैं।

कथा अपने आनंद के लिये – स्वानतः सुखाय – कही जाती हैं।

यह अनुग्रह की कथा हैं, कोइ पूर्व आयोजन नहीं कीया हैं।

संत की अनुभूति शास्त्र प्रमाण से ज्यादा हैं।

मानस कोई क्रम नहीं तूटते देता, मानस क एक अर्थ ह्मदय हैं, ह्मदय में प्रेम हैं जो कोई क्रम तूटते ही नहीं देता हैं।

 

धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥

 

हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥

 

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

 

जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

 

बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि जब जानहिं।।1।।

 

वसिष्ठजी वेद और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते हैं और श्रीरामजी सुनते हैं, यद्यपि वे सब जानते हैं।।1।।

बडो के बंधन में रहना एक परम स्वातंत्र्य हैं।

 

बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि जब जानहिं।।1।।

 

वसिष्ठजी वेद और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते हैं और श्रीरामजी सुनते हैं, यद्यपि वे सब जानते हैं।।1।।

 

कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी।।

सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा।।4।।

 

भुशुण्डिजीने वह सब कथा कही जो हे भवानी ! मैंने तुमसे कही ! सारी रामकथा सुनकर पक्षिराज गरुड़जी मनमें बहुत उत्साहित (आनन्दित) होकर वचन कहने लगे।।4।।

गुरु के बिना अति गुरुता भरा धनुष्य तूटता नहीं हैं।

संत और असंत का मिलन दुःख दायक हैं, संत विदाय लेता हैं तब दुःख होता हैं और असंत जब मिलता हैं तब दुःख होता हैं।