રામ કથા - 859
માનસ વિનય પત્રિકા
मानस बिनय पत्रिका
સોમનાથ, ગુજરાત
શનિવાર, તારીખ ૦૮/૦૫/૨૦૨૧
થી રવિવાર, તારીખ ૧૬/૦૫/૨૦૨૧
મુખ્ય પંક્તિઓ
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी, बापु ! आपु ही
बाँचो ।
हिये हेरि तुलसी लिखी,
सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥
विनय पत्रिका - पद २७७
૧
શનિવાર, ૦૮/૦૫/૨૦૨૧
यह
कथा एक अनुष्टान हैं।
यह
कथाके तीन कारण हैं।
१
कोरोना
कालमें धर्म जगत, आध्यात्म क्षेत्र, साहित्य और संगीत क्षेत्रके और अन्य कंई लोग चले
गये हैं उस सभी चेतना का, सबका तर्पण करनेका एक उदेश्य हैं। यह अतीत हैं।
प्रेम बारि तर्पण
भलो
२ वर्तमान कालमें जो यह महामारी को सहन कर
रहे उन सबको संपर्कमें रहना।
३ यह महामारीसे जल्दी निपट जाय। यह भविष्यकी
बात हैं।
राम
कथाके माध्यम से यह एक तर्पण हैं।
हालकी
विपदा के लिये हमें परम तत्वसे कोई शिकायत नहीं होनी चहिये।
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥2॥
यद्यपि वे सम हैं- उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने
विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है॥2॥
यह
विश्वका सिद्धांत हैं, विश्वनाथ का सिद्धांत नहीं हैं, विश्वनाथ तो करुणा प्रधान हैं।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ,
भवाय नमो नमः।
प्रबल-तमसे तत् संहारे,
हराय नमो नमः।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ,
मृडाय नमो नमः।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये,
शिवाय नमो नमः।। ३०।।
मैं
आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपके ब्रह्मा स्वरूप को नमन करता हूँ। तमोगुण
को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मैं नमन करता हूँ।
सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को
नमस्कार है। इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप
को मेरा नमस्कार है।
मानसके प्रत्येक कांड में विनय पत्रिकाका उल्लेख
हैं।
वाल्मीकिका
राम मानवसे ईश्वर बनाते हैं जब तुलसीके राम
ब्रह्म्से मनुष्यके रुपमें स्थापित करते हैं।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि
जो नर उर धरै।
2
Sunday, 09/05/2021
विनय
तीन प्रकारका होता हैं; जड तीन हैं;
आसुरी
तत्व हमारी श्रद्धाको तोडनेमें कोई कमी नहीं रखी हैं।
सोमनाथ
श्लोक भूमि हैं – भगवान विश्वेशरकी भूमि और शोक भूमि – कृष्णकी देहोत्सर्ग भूमि भी
हैं।
श्रीरुद्राष्टकं तुलसीदासकृतम्
नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं
निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकालकालं कृपालं
गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं
मनोभूतकोटिप्रभा श्रीशरीरम् ।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा
लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं
विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं
परेशमखण्डमजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
कलातीतकल्याणकल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
न जानामि योगं जपं नैव
पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जराजन्मदुःखौघतातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं
विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या
तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीरामचरितमानसे उत्तरकाण्डे श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं
श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥
अपना
गुरु हि हमारा ईश्वर हैं।
यह
देह देवालय – शिवालय हि हैं।
यह
सृष्टि शिवमय हैं।
विनयके
तीन प्रकार – रजो गुणी विनय जिसमें सिर्फ माग हि होती हैं, तमो गुणी विनय जिसमें धमकी
होती हैं; युद्धका निमंत्रण होती हैं; सात्विक विनय जिसमें परमात्माको विनय सबको सुख
देनेके लिये मांग होती हैं।
अच्छा
स्वस्थ्यवाला शरीर भी एक धन हैं।
होठोसे
हरिनामका मास्क कभी भी हटना नहीं चाहिये।
मंगल
आचरण – शुभ आचरण १४ हैं।
मानसके मंथनसे १४ रत्न नीकले हैं।
3
Monday, 10/05/2021
जानकी
की दासी तुलसी हैं और तुलसी की दासी तुलसीदासजी हैं।
यह
विनय पत्रिका – विनय चिठ्ठि ह्मदय को टटोलकर लीखी हैं, मन या अहंकारसे नहीं लिखी हैं,
हे हरि उस पर आप खुद पढकर सही कर दिजीए बदमें ५ को पूछ लिजीये।
शुद्ध
ह्मदय बहुत धैर्य रख कर शकता हैं और ऐसा धैर्य कालांतरमें श्राप भी आशीर्वाद समान लगता
हैं, जो हो रहा हैं वह ठीक हो रहा हैं ऐसा लगता हैं।
विषयी
जीव ऐसा धैर्य नहीं रख शकता हैं।
ह्मदय
वालेके पास अहंकार नहीं होता हैं।
यह
पंक्तिओमें बापु का संदर्भ परमात्मा हैं।
प्यार
और पेम में फर्क हैं, प्रेम में खुद ज्योति जलाता हैं, सामनेवाला जलाये या न जलाये
कोई बात नहीं हैं, जब कि प्यार में वह चाहता हैं सामनेवाला भी ज्योति जलाये। प्रेम
तत्व प्रेम हैं, परम दरज्जा हैं।
LOVE
का अर्थ …..
L
– LAKE OF TEARS
O
– OCEAN OF SORROWS
V
– VALLEY OF DEATH
E
– END OF LIFE
बुद्धि
याद रखती हैं – बदला लेनेके लिये याद रखती हैं, दिल कुछ याद नहीं रखता हैं।
तुलसी
अपनी पत्रिका पहले जानकी द्वारा, उसके बाद हनुमानजी, उसके बाद भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न
द्वारा अपनी पत्रिका भगवान राम को पहुचाना चाहते हैं।
शुद्ध
ह्मदयको संकेत बहुत मिलता हैं।
भजन
के ६ आचरण हैं, सेवा भी भजन हैं। मानसी सेवा, तनुजा सेवा, वित्तजा सेवा भजन हैं।
सत्य
भजनका पहला आचरण हैं।
स्मृति
वरदान हैं।
भजनका
दूसरा आचरण प्रिय सत्य बोलना हैं। प्रिय वाणी ईश्वर प्राप्तिका एक द्वार हैं।
ईश्वरको
प्राप्त करने के दरवाजा – अन्नका भोजन कराना, वाणी, मन, श्रवण, चक्षु, प्राण वगेरे
द्वार हैं।
ग्रंथका
स्वाध्यान करना भजनका आचरण हैं।
मातृदेवो
भवः भी भजनका आचरण हैं।
पितृदेवो
भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव भी भजनके आचरण हैं।
मानसमें
पत्रिका ४ बार आता हैं।
रामु लखनु उर कर बर चीठी।
रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात
सुनि साँची॥3॥
हृदय
में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुंदर चिट्ठी है, राजा उसे हाथ में लिए ही रह गए,
खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात
सुनकर हर्षित हो गई॥3॥
तब उठि भूप बसिष्ट कहुँ
दीन्हि पत्रिका जाई।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर
दूत बोलाइ॥293॥
तब
राजा ने उठकर वशिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर
सारी कथा गुरुजी को सुना दी॥293॥
राजा सबु रनिवास बोलाई।
जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि संदेसु सकल हरषानीं।
अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥
राजा
ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ
हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन
किया॥1॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥
हिये
हेरी का मतलब ह्मदयमें जो आया ऐसा हैं।
4
Tuesday, 11/05/2021
७०
साल पहले आज के दिन महादेव सोमनाथकी प्राण प्रतिष्ठा हुई थी।
(1951 मेंआज ही के दिन देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद
ने सोमनाथ मंदिर के गर्भगृह की प्राण प्रतिष्ठा की थी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सरदार
पटेल, काका साहेब गाडगिल, मोरारजी देसाई की उपस्थिति में समुद्र पर सजी बोट पर रखी
गई 21 तोपों की सलामी के साथ मंदिर पर ध्वजारोहण और गर्भगृह में ज्योतिर्लिंग स्थापना
के साथ ही सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू किया गया था। सोमनाथ मंदिर की गिनती
12 ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में होती है। गुजरात के सौराष्ट्र
के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण चन्द्रदेव
ने किया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है।)
तुम्ह पुनि राम राम दिन
राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत
सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥4॥
और
हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं- ये राम वही अयोध्या
के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?॥4॥
हरिनाम
श्रद्धा पूर्वक – गुणातित श्रद्धा सहित और निष्काम भावसे लेना चाहिये।
मनुष्यकी
शक्तिके पीछे कोई अद्रुश्य शक्ति होती हैं।
Power
break, no internet………….
हनुमान
विश्वास रुप हैं।
भरत
त्यागकी मूर्ति हैं।
भगवद
प्राप्त व्यक्ति वह हैं जो लोहा, सोना और मिट्टिको एक समान – मिट्टि समान गिनता हैं।
लक्ष्मण
जागृतिकी मूर्ति हैं, जागृत पुरुष हैं।
5
Wednesday, 12/05/2021
राम
पंचभूतका भी भूत हैं।
जानकी
पृथ्वी तत्व हैं, धरणी सूता हैं।
हनुमान
वायु तत्व हैं। पवन सूत हैं।
लक्ष्मण
अग्नि तत्व हैं, तेज तत्व हैं।
शत्रुघ्न
आकाश तत्व हैं। मौन तत्व हैं।
भरत
जल तत्व हैं।
राम
यह पांचो तत्वोके भी तत्व हैं।
समुद्र वसने देवी पर्वत
स्तन मंडिते।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं
पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव
रामु काम सत कोटि सुभग
तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा।
नभ सत कोटि अमित अवकासा।।4।।
श्रीरामजीका
अरबों कामदेवोंके समान सुन्दर शरीर है। वे अनन्त कोटि दुर्गाओंके समान शत्रुनाशक हैं।
अरबों इन्द्र के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशोंके समान उनमें अनन्त अवकाश
(स्थान) है।।4।।
मरुत कोटि सत बिपुल बल
रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन
सकल भव त्रास।।91क।।
अरबों
पवन के समान उनमें महान् बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चन्द्रमाओं
के समान वे शीतल और संसारके समस्त भयों का नाश करनेवाले हैं।।91(क)।।
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर
दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष
भगवंत।।91ख।।
अरबों
कालों के समान वे अत्यन्त दुस्तर, दुर्गम और दुरन्त हैं। वे भगवान् अरबों धूमकेतुओं
(पुच्छल तारों) के समान अत्यन्त प्रबल हैं।।91(ख)।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला।
समन कोटि सत सरिस कराला।।
तीरथ अमित कोटि सम पावन।
नाम अखिल अघ पूग नसावन।।1।।
अरबों
पतालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजोंके समान भयानक हैं। अनन्तकोटि तीर्थों
के समान वे पवित्र करनेवाले हैं। उनका नाम सम्पूर्ण पापसमूह का नाश करनेवाला है।।1।।
कैलाश
हिमालयमें नहीं हैं लेकिन हिमालय कैलाशमें हैं।
सब
वस्तु - सब गुण कोई (बुद्धि, शक्ति धन वगेरे) एक व्यक्तिमें समा जाय यह शास्त्रीय नहीं
हैं।
अयुत
जन्म का अर्थ १००० जन्म हैं।
सूर्य
उदय और अस्त समयमें लाल रहता हैं जो हमेसंकेत करता हैं कि सुख और दुख में – संपत्ति
और विपत्तिमें – प्र्गति हो और प्रगतिका क्षय हो तब भी एक तरह हि – समान हि रहना चाहिये।
भरत
जल तत्व हैं।
आकाश
मौन हैं। सिर्फ विशेष समयमें हि आकाशबानी होती हैं।
दीनतामें
यह पांचो तत्व समाहित हैं।
6
Thursday, 12/05/2021
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले
मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालम्ॐकारममलेश्वरम्
॥१॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां
भीमाशंकरम् ।
सेतुबंधे तु रामेशं नागेशं
दारुकावने ॥२॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं
गौतमीतटे ।
हिमालये तु केदारम् घुश्मेशं
च शिवालये ॥३॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं
प्रातः पठेन्नरः ।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन
विनश्यति ॥४॥
सोमनाथ,
केदारनाथ, वैजनाथ, विश्वनाथ वगेरेमें नाथ शब्द आया हैं ओर जगह ईश्वर शब्द लगा हैं
_ ईश्वर केवल साक्षीरुप हैं, सबमें ईश्वर होते हुए कई लोग गलत कार्य करता हैं और उस्में
बिराजमान ईश्वर साक्षी रुप होते हुए कुछ मना नहीं करता हैं, हम अनाथ हैं ईसीलिये हमे
भगवान नाथ स्वरुपवाला चाहिये।
हमें
रघुनाथ राम चाहिये।
हम
जैसे अनाथोको सोमनाथ जैसा नाथ कहां मिलेगा?
हमारे
जैसे बिमारको बैजनाथ जैसा कोई वैद्य चाहिये।
वेश,
वाणी, वपुशा, विद्या यह ५ वकार विनय युक्त होना चाहिये।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम
यह न बिषय कै आसा।।3।।
जहां
पंच हैं वहां परमेश्वर हैं – पंच त्यां पंचेश्वर।
जहां
पंच देव होते हैं वहां परमेश्वर हैं, मानसके आरंभमें पंच देव की वंदना हैं, वहां परमेश्वर
हैं।
जानकी
हि दुर्गा, अंबा हैं।
नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
आपका
न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार
को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप
से विहार करने वाली हैं॥4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं
रामवल्लभाम्॥5॥
उत्पत्ति,
स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को
करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
पंचदेवमें
पहली मा – जानकी हैं, प्रधान हैं, महालक्ष्मी, महाकाली और महा सरस्वती यह तीन मा के
स्वरुप हैं। लक्ष्मी और महालक्ष्मी अलग हैं।
शिव
शब्द हैं और भवानी सुरता हैं, शब्द बोले और सुरता सुने।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला।
तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।1।।
बिना
प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादिके करनेसे श्रीरधुनाथजी नहीं मिलते। [अतएव
तुम सत्संग के लिये वहाँ जाओ जहाँ] उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम
सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं।।1।।
राम भगति पथ परम प्रबीना।
ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर
सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।2।।
वे
रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं, और बहुत कालके
हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ
पक्षी आदरसहित सुनते हैं।।2।।
परम रम्य गिरिबरु कैलासू।
सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥
हनुमानजी
भगवान शिव का अवतार हैं।
आसक्ति
११ प्रकारकी हैं।
महादेवके
तीन नेत्र हैं, हनुमानके तीन नेत्र सत्य, प्रेम और करुणा हैं। हनुमानजीमें सत्य, प्रेम
और करुणा भरपुर हैं।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ
गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ
सकल कलिमल दहन॥2॥
जिनकी
कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़
जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों
(दया करें)॥2॥
शत्रुघ्न
गणेश हैं जो मंथरा रुपी विघ्नको हरता हैं।
पाती,
पत्र, चिठि, पत्री वगेरे पर्याय हैं।
शास्त्र,
राजा और स्त्री – मातृ शक्ति किसीके वशमें नहीं होते हैं।
7
Friday, 14/05/2021
अक्षय
तृतीयाका महत्व …..
·
ब्रह्माजी
के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण।
·
माँ
अन्नपूर्णा का जन्म।
·
चिरंजीवी
महर्षी परशुराम का जन्म हुआ था इसीलिए आज परशुराम जन्मोत्सव भी हैं।
·
कुबेर
को खजाना मिला था।
·
माँ
गंगा का धरती अवतरण हुआ था।
·
सूर्य
भगवान ने पांडवों को अक्षय पात्र दिया।
·
महाभारत
का युद्ध समाप्त हुआ था।
·
वेदव्यास
जी ने महाकाव्य महाभारत की रचना गणेश जी के साथ शुरू किया था।
·
प्रथम
तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेवजी भगवान के 13 महीने का कठीन उपवास का पारणा इक्षु (गन्ने)
के रस से किया था।
·
प्रसिद्ध
तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण धाम का कपाट खोले जाते है।
·
बृंदावन
के बाँके बिहारी मंदिर में श्री कृष्ण चरण के दर्शन होते है।
·
जगन्नाथ
भगवान के सभी रथों को बनाना प्रारम्भ किया जाता है।
·
आदि
शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी।
·
अक्षय
का मतलब है जिसका कभी क्षय (नाश) न हो!!!
·
अक्षय
तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता
है....!!!
परशुराम
आवेशावतार हैं।
हमारेमें
भी कई प्रकारके आवेश आते हैं, हम भी परशुरामके अंश हैं।
षडयंत्र
के प्रकार
१ अफवा फेलाना
१
धनका,
पदका और प्रतिष्ठित लोगोका सहारा लेकर बनायी गई योजना
२
सत्यको
कबुल न करना, सतवादीका मौन रहना कायरता नहीं हैं।
३
एक
हि बातका समाजमें फेलाव करना, एक हि असत्यको बारंबार दोहराना
४
आश्रितको
गलत बात बताकरश्सके गुरुका अश्रय छूडा देना, किसीकी आस्था पर हुमला करनेका एक बहुत
ज्यादा प्रयास, किसीको भ्रमित करना, किसीकी श्रद्धाको चोट पहुंचाना
माथे
पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहूँ
न कलेसू॥1॥
हमारे सिर पर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्न
नें भी क्लेश नहीं है॥1॥
५
जाल
फेलाकर वह जाल सफल हो जाने पर उसका उत्सव मनाना षडयंत्र हैं।
उपरोक्त
षडयंत्रसे हमें बचकर षडमंत्र धारण करना चाहिये, जो नीचे मुजब है।
१ सत्य बोलना, प्रिय सत्य बोलना
२ रामयण गीता का पाठ करना
३ परमात्माकी कृपा प्राप्त होने पर अहंकारसे
बचना चाहिए
४ परमात्माके नामका मंत्रात्मक जप करना
५ मौन रहना
६ मौका मिलने पर एकान्तमें रहना
स्मृति
ओर विचारमें फर्क क्या हैं? स्मृति प्रसादसे
आती हैं, विचारमें संकल्प विक्ल्प होता हैं।
स्मृति
और श्रुतिमें संघर्ष आये तब साधुकी - अपने गुरुकी अंत;करणकी प्रवृत्तिको प्रमाण मानना।
साधु सत्यस्थ होना चाहिये, तटस्थ नहीं होना चाहिये। साधु लोहा, सोना और मिट्टिको सम
समजता हैं।
यज्ञ,
दान और तप यह तीन परशुरामका त्रिपुंड हैं।
मौका
मिलने पर जप करना गुणातित यज्ञ हैं।
बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय ।
सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ॥१॥
बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस ।
बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥२॥
प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।
संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥३॥
अघ - उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार ।
आकरषै सुख - संपदा - संतोष - बिचार ॥४॥
जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि ।
तुलसिदास प्रभुपथ चढ्यौ, जौ लेहु निबाहि ॥५॥
महान्
वीर श्रीरघुनाथजीकी आराधना करनी चाहिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है ।
वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब जानते हैं ॥१॥
इस
कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है । ( सदगुरुसे ) उपदेश लेकर उसी
बीजमन्त्र ( राम ) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं ॥२॥
(
मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है ) प्रेमरुपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज
स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरुपी समिधका क्षमारुपी अग्निमें हवन करना
चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये ॥३॥
पापोंका
उच्चाटन, मनका वशीकरण, अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरुपी सुख - सम्पत्तिका
आकर्षण करना चाहिये ॥४॥
जिसने
इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं । तुलसीदास भी इसी मार्गपर चढ़ा है,
जिसे प्रभु निबाह लेंगे ॥५॥
अगर
गुरु शंकर हैं, तो गुरु की प्रज्ञा भवानी हैं, गुरु का विवेक गणेश हैं और अक्रिय भावसे
कार्य करना – पुरुषार्थ करना कार्तिकेय हैं और धर्म गुरु की सवारी हैं।
आदि
शंकरके साधक पंचक …..
वेदो नित्यम्धीयताम तदुदितं
कर्म स्वनुष्ठियतम |
तेनेशस्य विधीयतामपचिती:
काम्ये मतिस्त्यज्यताम ||
पापौघ: परिभूयताम भवसुखे
दोषो अनुसंधीयता |
मात्मेछा व्यव्सीयताम निजगृहातूर्णम
विनिर्गाम्यताम ||१||
[हम
नित्य वेदों का पाठ करें, वेद आधारित रीति से कर्मकाण्ड और देवताओं का पूजन करें, हमारे
कर्म अनासक्त भाव से हो और हमें पाप समूहों से दूर ले जाने वाले हो, हम अपने जीवन में
गलतियो को जान सकें , आत्म-ज्ञान प्राप्त करें और मुक्ति की ओर बढें]
साधना पंचकम…
गुरु: ब्रह्मा: गुरु: विष्णु:
गुरु देवो महेश्वर: |
गुरु: साक्षात परब्रह्म
तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
[गुरु
ही ब्रह्मा विष्णु महेश हैं…. गुरु ही ब्रह्म हैं इसलिये उस गुरु
को प्रणाम …]
वेदो नित्यम्धीयताम तदुदितं
कर्म स्वनुष्ठियतम |
तेनेशस्य विधीयतामपचिती:
काम्ये मतिस्त्यज्यताम ||
पापौघ: परिभूयताम भवसुखे
दोषो अनुसंधीयता |
मात्मेछा व्यव्सीयताम निजगृहातूर्णम
विनिर्गाम्यताम ||१||
[हम
नित्य वेदों का पाठ करें, वेद आधारित रीति से कर्मकाण्ड और देवताओं का पूजन करें, हमारे
कर्म अनासक्त भाव से हो और हमें पाप समूहों से दूर ले जाने वाले हो, हम अपने जीवन में
गलतियो को जान सकें , आत्म-ज्ञान प्राप्त करें और मुक्ति की ओर बढें]
संग: सत्सु विधीयताम भगवतो
भक्तिदृढा धीयताम |
शान्त्यादि: परिचीय्ताम
दृढतरं कर्माशु सन्त्यज्यताम ||
सिद्विद्वानुपसर्प्याताम
प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यताम |
ब्रह्मैकाक्षरमथर्यताम
श्रुतिशिरोवाक्यम स्माकर्न्याताम ||२||
[
हम अच्छे संग में रहे, दृढ भक्ति प्राप्त करें, हम शान्ति जैसी मन की अवस्था को जान
सकें, हम कठिन परिश्रम करें, सद्गुरु के समीप जाकर आत्म समर्पण करें और उनकी चरण पादुका
का नित्य पूजन करें, हम एकाक्षर ब्रह्म का ध्यान करें और वेदों की ऋचाएं सुनें…
]
वाक्यार्थश्च विचार्यताम
श्रुतिशिर: पक्ष: स्माश्रीयताम |
दुस्तर्कात्सुविरम्यताम
श्रुतिमतर्कात्सो अनुसंधीयताम ||
ब्रह्मैवास्मि विभाव्यताम
हरहर्गर्व: परित्ज्यताम |
देहे अहम्मतिरुज्झ्यताम
बेधजनैर्वाद: परित्ज्यताम ||३||
[हम
महावाक्यों और श्रुतियो को समझ सकें, हम कुतर्को में ना उलझें, “में ब्रह्म हूँ”
ऐसा विचार करें, हम अभिमान से प्रतिदिन दूर रहे, “में देह हूँ”
ऐसे विचार का त्याग कर सकें और हम विद्वान बुद्धिजनों से बहस न करें…
]
क्षुद्व्याधि:च चिकित्स्य्ताम
प्रतिदिनं भिक्षोषधम भुज्यताम |
स्वाद्वन्नम न तु याच्यताम
विधिवशातप्राप्तेन संतुश्यताम ||
शीतोष्नादि विषह्यताम न
तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यता |
मौदासीन्यमभिपस्यताम जनकृपा
नैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम ||४||
[
हम भूख पर नियंत्रण पा सकें और भिक्षा का अन्न ग्रहण करें (संन्यास की नियमानुसार),
स्वादिष्ट अन्न की कामना न करें और जो कुछ भी प्रारब्ध वशात हमें प्राप्त हो उसी में
संतुष्ट रहे, हम शीत और उष्ण को सहन कर सकें, हम वृथा वाक्य न कहें, सहनशीलता हमें
पसंद हो और हम दयनीय बनकर न निकलें… ]
एकान्ते सुखमास्यताम परतरे
चेत: समाधीयताम |
पूर्णात्मा सुस्मीक्ष्यताम
जगदिदम तद्बाधितम दृश्यताम ||
प्राक कर्म प्रविलाप्यताम
चितिब्लान्नाप्युत्तरै: श्लिष्यताम |
प्रारब्धम त्विह भुज्यतामथ
परब्रह्मात्मना स्थियाताम ||५||
[
हम एकांत सुख में बैठ सकें और आत्मा के परम सत्य पर मन को केन्द्रित कर सकें, हम समस्त
जगत को सत्य से परिपूर्ण देख सकें, हम पूर्व कृत बुरे कर्मो के प्रभाव को नष्ट कर सकें
और नवीन कर्मो से न बंधे, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचें की सब कुछ प्रारब्धानुसार है और
हम परम सत्य के साथ रहें… ]
य: श्लोकपंचक्मिदम पठते
मनुष्य: संचितयत्यनुदिनम स्थिरतामुपेत्य |
तस्याशु संसृतिद्वानल तीव्र
घोर ताप: प्रशांतिमुप्याति चिति प्रसादात ||
[
जो मनुष्य इस पंचक के श्लोको का पाठ नित्य करता है, वह जीवन में स्थिरता को अर्जित
और संचित करता है… इस तपस्या से प्राप्त प्रशांति के फलस्वरुप
जीवन के समस्त घोर दुख शोकादि के ताप उसके लिए प्रभाव हीन हो जाते हैं…
]
इति श्री जगद्गुरु आदि
शंकराचार्य कृत साधना पंचकं समाप्त:
अपना
ईष्ट ग्रंथ हि वेद हैं।
रामनाम
वेदका प्राण हैं।
अशोक
वाटिकामें नित्य रामनाम का स्मरण मा जानकी करती हैं।
बुद्ध
जन के साथ विवाद न करना, ऐसे तो किसीके साथ
वाद विवाद नहिं करना चाहिये।
भरत
राम पादुकाका नित्य पूजन करता हैं।
भिक्षा
भावसे भोजन करना। सम्यक आहार करना।
भिक्षाको
औषध समज कर भरत भोजन करता हैं।
एकान्ते
सुखमास्यताम - शत्रुघ्नका एकान्त एक सुख समान हैं।
हरिनाम
लेते लेते अगर हम प्रभुमान्य हो जाते हैं तो पर्याप्त हैं।
8
Saturday, 15/05/2021
भगवान
शिव पंच मुख, त्रीनेत्र हैं, कुल १५ नेत्र हैं। शिवली १५ द्रष्टि हैं। यह निम्न मुजब
हैं।
१
भगवान
शिव की द्रष्टि सम्यक – संतुलित द्रष्टि हैं। एक द्रष्टि सूर्य, दूसरी द्रष्टि चंद्र
और तीसरी द्रष्टि अग्नि हैं। भगवान शिव देवताओको असुरोको भी वरदान देते हैं।
२
सम
द्रष्टि,
नरसिंह
मेह्ताने भी गाया हैं कि …
सम द्रष्टिने
तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे, जिव्हा थकी असत्य न बोले परधन न …..
यहां चैतसिक
द्रष्टि सम हैं। जिसमें ऐसी द्रष्टि हैं तो वह चलता फिरता शिव हैं।
भगवान भी
सम द्रष्टि नहीं रखते हैं ऐसा तुलसी लिखते हैं।
भगत अभगत
हृदय अनुसारा॥
साधुका भजन कम पदनेकी वजहसे आजकी समस्या आई हैं।
परम अवव्यस्थाका – कुछ भी निर्णय तय न करना - नाम हि परमात्मा
है।
रमेश के पास ३ रोटी, महेशके पास ५ रोटी , २४ टुकडे करके तीन को बांट दिया, हरेक
को ८ टुकडे मिले, गणेशने ८ सिक्के दिये।
रमेश को १ सिक्का और महेशको ७ सिका दिया। रमेशको जो ८ टुकडे खाये उसमें से उसने
सिर्फ १ टुक्डा गणेअहको दिया जब कि महेशने अपनी ५ रोटी के १५ टुकडे में से ७ टुकडे
गणेश्स्को दि ईसी लिये उसे ७ सिक्के मिले।
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ
सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
उस समय (पिछली
बार) तो श्री रामचंद्रजी का रुख जानकर कुछ किया था, परन्तु
इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज! श्री रघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते॥2॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं
दुरबासा॥3॥
पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्री राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासाजी
जानते हैं॥3॥
३
सहज द्रष्टि
४
सरल द्रष्टि
५
सबल द्रष्टि
६
सुलभ द्रष्टि
७
सजल द्रषी
८
सुक्ष्म द्रष्टि
९
सुघर्ग
१०
संतप्त
११
स्नेहल द्रष्टि
१२
सौम्य
१३
मानस हि विनय पत्रिका हैं। जिसमें पंचामृत हैं। पंचामृत में
मा जानकी मातृ शरीर होनेके नाते दूध हैं, पंचामृतामें ज्यादा हिस्सा दूध का होता हैं।
मा दूध रुपा हैं, दूध परम धर्म हैं। सीतामें पातिवृतका दूध हैं, पातिव्रुत धर्मकी शिरोमणि
हैं। माता धर्म स्वरुपा हैं।
हनुमानजी घी हैं, ज्ञान को घी कहा गया हैं, हनुमानजी ज्ञानी
अग्रगण्य हैं।
पंचाम्र्त में भरतजी दहीं हैं, मंथन दहीं का होता हैं, भरत का
मंथन हुआ हैं।
भरत पयो …..
साकर मधुर हैं, मिठा हैं, लक्ष्मण साकर हैं।
शत्रुघ्न मध हैं, मौन जैसा ओर कोई मध नहीं हैं।
धर्म, अर्थ, काम,मोक्ष यह चार पुरुषार्थ हैं और प्रेम पंचम पुरुषार्थ
हैं।
आदमी शास्त्र संग करनेसे सज्जन नहीं बन शकता हैं, लेकिन पंडित
बन शकता हैं। गुरु मुखसे शास्त्र समजने से सज्जन बना जा शकता हैं।
मृत्यु तय हिनेके बाद भी आदमी मौज करता हैं, यह सबसे बडा आश्चर्य
हैं, परम आश्चर्य हैं।
जानकी धर्म हैं।
हनुमानजी अर्थ हैं। जीवन का अर्थ राम काज हैं जो हनुमानजी करते
हैं। हनुमानजी सुवर्णमय हैं।
मोरें हृदय
परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार
सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥4॥
अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है (कि तुम जैसे बंदर
राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)। यह सुनकर हनुमान्जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के
पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में
भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था॥4॥
बिना नाम लिये काम करना – सेवा करना योग्य नहीं हैं। राम नाम
जपो और राम कार्य करो।
लक्ष्मण काम हैं।
शत्रुघ्न मोक्ष हैं, मौन हो मोक्ष हैं, मृत्यु मोक्ष हैं, मुक्ति
हैं।
भरत प्रेम हैं।
9
Sunday, 16/05/2021
रावण ब्राह्मण हैं, उसको मारनेका भगवान राम को कु्छ दुःख हैं।
उसके उपाय के निवारण के लिये ॠषि गण भगावन
शिवकी स्थापना करएना सुझाव देते हैं।
संत के बिना सतसंग हो नहीं शकता हैं, ईसीलिये तुलसीदासजी संतसंग
को प्रथम भक्तिका कहते हैं, उसके बाद श्रवण भक्ति आती हैं जबकि शास्त्र अनुसार श्रवण
प्रथम भक्ति हैं।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
(श्रीमद्भा० ७। ५। २३)
श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण ने नवधा भक्ति के बारे
में बताया। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार नौ प्रकार से ईश्वर की आराधना कर मोक्ष
प्राप्त किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति इन नौ में से किसी भी एक प्रकार की भक्ति
को अपने जीवन में हमेशा के लिए अपना लेता है तो मात्र इससे ही वो प्रभु के बैकुण्ठ
धाम की प्राप्ति कर सकता है। यह नौ उपाय अत्यंत सरल और कारगर है। शास्त्रों में ऐसा
बताया जाता है कि मनुष्य जन्म का एकमात्र लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति करना है। ऐसे में
नवधा भक्ति के बहुत सरल भावों को अपनाकर आप भी भगवत्तप्राप्ति कर सकते है।
सोम शब्द मानसमें एक हि बार आया हैं।
राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥42 क॥
आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है, उसमें 'राम' नाम यही पूर्ण
चंद्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागण होकर भक्तों के हृदय रूपी निर्मल आकाश में निवास
करें॥42 (क)॥
मारुति-मन,रुचि भरतकी लखि लषन कही है।
कलिकालहु नाथ!नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥ १ ॥
सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।
कृपा गरीब निवाजकी,देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥ २ ॥
बिहँसि राम कह्यो ’सत्यहै,सत्यहैसुधि मैं हूँ लही है’है।
रघुनाथ
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी,परी रघुनाथ सही है ॥ ३ ॥
॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥
सहीके ५ प्रकार हैं लौकिक रुप में हैं। यहां रघुनाथ प्रथम सही
करते हैं।
१
अंगुठासे सही करना, यह सार्वभौम निशान हैं।
२
नकली सही, कई लोग नकली सही असल सहीके सामान करते हैं। हालांकि
ईसका परिणाम बहुत गलत आता हैं।
३
अटपटी सही जो किसीकी समजमें नहीं आती हैं।
४
सच्ची सही
५
आश्रितके कलेजे पर करी गई सही। ऐसी सही कालांतरमें भी नष्ट नहीं
होती हैं।
भगवान रामने तुलसीकी विनय पत्रिका पर कैसी सही की गई होगी?
भगवानने “रघुनाथ” शब्द लिखकर
सही करी हैं।
रघु का एक अर्थ जीव हैं, एक अर्थ लघु भी हैं।
तुलसीका प्रिय नाम रघुनाथ हैं।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
रघु शब्द छोटा नहीं हैं। लघुतामें प्रभुता छिपी हैं।
अगर मूल मिट्टिको छोड दे तो वह उसकी आझादी नहीं हैं।
राम चरित मानस भी विनय पत्रिका हैं।
शिवने भी राम चरित मानसमें “सोमनाथ” लिखकर सही की होगी ऐसी श्रद्धा
जगतकी मान्यता हैं।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत
और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही
गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।
पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा कवि,
वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे मन ! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज। श्रीरामजीको भजने
से किसने परम गति नहीं पायी ?।।4।।
रामका स्मरण सत्य हैं, गाना प्रेम हैं, श्रवण करना करुणा हैं।
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।
अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको
भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों
को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप
ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं
नमस्कार करता हूँ।।1।।
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते
हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला
(सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने
भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।
हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई
दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक
दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।
जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा
लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।
श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।
श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी,
श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी,
उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके
लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।
यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी,
विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी
जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं,
वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।
कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह सातवाँ
सोपान समाप्त हुआ। (उत्तरकाण्ड समाप्त)
-:श्री रामचरित मानस समाप्त:-
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