રામ કથા - 862
માનસ તતઃ કિમ્
मानस ततः किम्
નાથદ્વારા
શનિવાર, તારીખ ૧૦/૦૭/૨૦૨૧ થી રવિવાર, તારીખ ૧૮/૦૭/૨૦૨૧
प्रधान पंक्तियां
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥
1
Saturday,
10/07/2021
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥
जो
लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने
वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण
रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥
साभार
bhartdiscovery.org
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् |
कथा
ज्ञान यज्ञ होते हुए प्रेम यज्ञ हैं।
क्षमामंडले भूपभूपलबृब्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविंदम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ 5 ॥
मंगलमय
मनोरथ के लिये भगवान शंकर के शरण में जाना चाहिये।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना मुख दर्पण में देख लेना चाहिये कि हम दुनिया
कहती हैं ऐसा हैं कि नहीं।
मानस का मूल अर्थ ह्मदय हैं, मस्तक भी एक अर्थ हैं।
શરણુ મેં રહેજો ……………….
શરણાગતિ નારી વાચક છે, શરણુ નાન્યતર વાચક છે, આશ્રય નર વાચક છે.
લાંબી ઊંમર માં શક્તિ ક્ષિણ ન થાય, ભજન ન ઘટે અને શરીર નિરોગી રહે તો
યોગ્ય છે.
મરણ તિથિ છે મોટો મહિમા ગુરુજી એવા અંત સમયે આવી ઊભા રહેજો …………..
શરણુ વિશેષણ મુક્ત છે.
राम चरित मानस में सात की महिमा हैं, राम सातवां अवतार हैं। सात सोपान
हैं, सात लोक उपर, सात लोक नीचे हैं, संगीत के सुर सात हैं, सप्त सिंधु हैं, गरुड सात
प्रश्न पूछते हैं, यह सब सपत पदी हैं।
गणेश पूजा का संदर्भ विवेक का जतन की तरफ हैं, सूर्य पूजा का मतलब प्रकाश
में जीवन व्ततित करना, उजाला में जीना, विष्णु पूजा विशालता का संदेश हैं, शक्ति पूजा
श्रद्धा का संदेश हैं , शिव पूजा दूसरों का कल्यां कॉ ओर संकेत हैं।
Sunday, 11/07/2021
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु
सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु
पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥
जो
लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने
वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण
रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥
यह
कथा में परमात्मा और गुरु को केन्द्र में रखते हुए संवाद कर रहे हैं।
गुरु
चरण रज को कैसे सिर पर धारण करे?
गुरु
अनेक हैं – गुरु, सदगुरु, धर्म गुरु, जगतगुरु वगेरे।
राम,
भरत, शत्रुघ्न, लक्षमण के विद्या गुरु, शिक्षा गुर वशीष्टः
हैं लेकिन सदगुरु कौन हैं? भरत, शत्रुघ्न, लक्षमण के सदगुरु भगवान राम हैं।
राम
और सदगुरु एक हि हैं।
गुरु
में राम का दर्शन या राम में गुरु दर्शन साधक की रुची पर निर्भव हैं।
हर
शिष्य श्रोता नहीं हैं और हर श्रोता दरेक का शिष्य नहीं हैं।
विश्वामित्र
दशरथ राजा को कहते हैं कि …..
राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी
महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥
हे राजन! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण
मनचाही वस्तुओं को देने वाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन
करती है (अर्थात
आपके इच्छा करने के पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है)॥3॥
उपरोक्त
परिणाम गुरु चरण रज को सिर पर धारण करनेका परिणाम हैं जिस में ईच्छा से पहले फल मिल
जाता हैं।
गुरु
के आचरण – अवतारी भगवान का आचरण किसी के समज
में नहीं आता हैं।
गुरु
की आज्ञा का कभी भी उल्लघंन न करना एक सिद्धि हैं, एक गौरव की बात हैं।
शास्त्र
कंठस्थ होना गौरव की बात हैं।
शास्त्र
कंठस्थ न करने के तीन कारण दादाजीने बताया था।
शास्त्र
कंठस्थ होनेसे कभी दूसरा शास्त्र का कुछ अंश अगर गलत बोलेगा तो जिसे शास्त्र कंठस्थ
होगा वह उसकी भूल नीकालनेका प्रयत्न करेगा।
जिसे
शास्त्र कंठस्थ होगा वह अनुगामी नहीं बन पायेगा, कोई अगर शास्त्र का पाठ करता हैं तब
जिसे शास्त्र कंठस्थ हैं वह उससे आगे आगे चलेगा, अनुगामी नहीं बनेगा, हमें अनिगामी
बनना चाहिये।
जिसे
शास्त्र कंठस्थ होगा उसे अभिमान आयेगा।
जिसे
शास्त्र कंठस्थ होगा वह राम नाम भूल जायेगा।
गुरु
सदैव वर्तमान रुप में होता हैं, उसके किसी सूत्र के रुपमें, उसके वचनन के रुप में गुरु
सदा वर्तमान में रहता हैं।
रायँ राजपदु
तुम्ह कहुँ दीन्हा।
पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥2॥
राजा ने राज पद तुमको दिया है। पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए,
जिन्होंने वचन के लिए ही श्री रामचन्द्रजी
को त्याग दिया और रामविरह
की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी॥2॥
नीम्न
श्लोक सदगुरु – भगवान राअम के लक्षण दर्शाता हैं, राम और गुरु एक हि हैं।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं
केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं
तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं
सद्गुरूं तं नमामि ।।
ब्रह्मानन्दं
– जो ब्रह्मानन्द स्वरूप हैं,
परमसुखदं
– परम सुख देने वाले हैं,
केवलं
ज्ञानमूर्तिं – जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं,
द्वन्द्वातीतं
– (सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वंद्वों से रहित हैं,
गगनसदृशं
– आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं,
तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्
– तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं,
एकं
– एक हैं,
नित्यं
– नित्य हैं,
विमलमचलं
– मलरहित हैं, अचल हैं,
सर्वधीसाक्षिभूतं
– सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं,
भावातीतं
– भावों या मानसिक स्थितियों के अतीत माने परे हैं,
त्रिगुणरहितं
– सत्त्व, रज, और तम तीनों गुणों के रहित हैं,
सद्गुरूं
तं नमामि – ऐसे श्री सद्गुरूदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ।
ध्यान-जो
सदा ही आनन्दरूप, श्रेष्ठ सुखदायी स्वरूप वाले, ज्ञान के साक्षात् विग्रह रूप हैं।
जो संसार के द्वन्द्वों (सुख-दुःखादि) से रहित, व्यापक आकाश के सदृश (निर्लिप्त) है
तथा जो एक ही परमात्म तत्त्व को सदैव लक्ष्य किये रहते हैं। जो एक हैं, नित्य हैं,
सदैव शुद्ध स्वरूप है, ( झंझावातों में) अचल रहने वाले, सबकी बुद्धि में अधिष्ठित,
सब प्राणियों के साक्षिरूप, राग-आसक्ति आदि भायों से दूर, लोभ, मोह, अहंकार जैसे सामान्य
त्रिगुणों से रहित हैं, उन सद्गुरु को हम नमस्कार करते हैं॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा।
चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
राजा
दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम
है, शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल
हुए शरीर को संभालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥
जो
ब्रह्मानंद गुरु हैं वह परम सुख देता हैं।
देव दनुज किन्नर नर श्रेणी,
सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।
सदगुरु
साक्षात केवल ज्ञान मूर्ति हैं।
गुरु
केवल प्रेम मूर्ति हैं।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा।
गुरु
समस्त दंद से पर हैं।
સુખ દુઃખ મનમાં ન આણીયે
ઘટ સાથે રે ઘડિયા ……………….
सुख
को भी विवेक पूर्ण सहन करना चाहिये।
गुरु
गगन की तरफ अलिप्त रहता हैं, आकाश को गरमी, ठंडी, बारिष का कोई असर नहीं होती हैं।
ईन्द्रीयां
हमारी मालिक नहीं हैं लेकिन सेवक हैं ऐसा बनाना चाहिये।
गुरु
का लक्ष्य हैं कि तुं भी ब्रह्म हैं मैं भी ब्रह्म हुं।
गुरु
एकम सत सोचता हैं, गुरु/राम अद्वितीय हैं, शास्वत हैं, निर्मल हैं, सबका साक्षी हैं,
उसकी बुद्धि व्यभिचारिणी नहीं हैं, सब भावसे मुक्त हैं, सबसे पर हैं, तीनो गुणो से
पर हैं,
संत परम हितकारी, जगत मांही...ध्रुव
प्रभुपद प्रगट करावत प्रीति,
भरम मिटावत भारी...जगत १
परमकृपालु सकल जीवन पर,
हरिसम सब दुःखहारी ...जगत २
त्रिगुणातीत फिरत तनु त्यागी,
रीत जगत से न्यारी...जगत ३
ब्रह्मानंद कहे संत की
सोबत, मिलत हैं प्रगट मुरारी...जगत ४
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी, बापु ! आपु ही
बाँचो ।
हिये हेरि तुलसी लिखी,
सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥
सब
को अपने गुरु, माता, पिता, पत्नी, संतान का गौरव होता हैं।
अगर
निष्ठा हैं तो गुरु रज आश्रित के साथ साथ चलती हैं, गुरु रज हमारा ध्यान रखती हैं।
गुरु
पादूका उपर अस्तित्व रज लाकर रखता हैं।
कृष्ण
परमात्मा हुते हुए कुछ भी कर शकता हैं, चक्र शस्त्र श्रेणी में नहीं हैं, कृष्ण का
चक्र सुदर्शन हैं जो सही दर्शन कराता हैं।
3
Monday, 12/02/2021
आज
रथ यात्रा के दिन भगवान जगन्ननाथ लोगों को देखनेके लिये यात्रा करते हैं।
गुरु
की चरन रज सब वैभव हमारे वश में कर देती हैं और यही चरन रज एक संतोष का अनुभव भी कराती
हैं, एक डकार आता हैं।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध
तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
पराग
सूर्य के किरण से जो सुरुची, सुवास और सरस अनुराग पेदा करती हैं।
चार
दीक्षा होती हैं - पराग दीक्षा – जिस में गुरु बिना मांगे अपनी सेई हुई चिज हमें दे
दे, ऐसी चिज रसमय होती हैं, उसमें सुवास होती हैं, रेणु दीक्षा
मातु पिता गुर प्रभु कै
बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥
माता,
पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर
आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥
यहां
प्रभु का अर्थ समर्थ – स्वामी हैं।
अपवाद
सिद्धांत नहीं बन शकता हैं।
माता
पिता अपने संतान का अहित कभी नहीं करते हैं।
स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां
न प्रमदितव्यम् ।।
स्वाध्याय
तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
गुरु
पारस हैं जो लोहे को कांचन कर देता हैं यह स्पर्श दीक्षा हैं।
दीपक
गुरु जो दूसरों को बुझी हुई चेतना को प्रकाशित करता हैं। यह दीपक दीक्षा – दीप दीक्षा
कहते हैं। यह ज्योत से ज्योत जलाना हैं।
साधु
संत को ज्यादा विशेषण देना नहीं चाहिये।
अपने
गुरु को सर्वज्ञ मत समजो, वह स्वज्ञ – खुदको जाननेवाला - होता हैं, हालाकि सच्चा गुरु
सर्वज्ञ होता हि हैं।
गुरु
अपनी काया को खोजता हैं।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना॥1॥
(शास्त्र
ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान् विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो
वध के समान पाप होता है॥1॥
दया, गरीबी, बन्दगी, समता
शील उपकार।
ईत्ने लक्षण साधु के, कहें
कबीर विचार॥
संत
कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन पुरुष में निम्न गुणों का होना आवश्यक है- सभी के लिए
दया भाव, अभिमान भाव की गरीबी, इश्वर की भक्ति, सभी के लिए समानता का विचार, मन की
शीतलता एवं परोपकार।
गुरु
हमारे घर का दीवडा हैं।
मलया
दीक्षा – चंदन के वृक्ष के हवा जो आती हैं वह दूसरे वृक्ष को भी चंदन की खुशबु प्रदान
करता हैं।
भवरी
डंश देकर ईयळको पेदा करती हैं, यह डंश दीक्षा हैं, जिस में कुछ दुःख होता हैं लेकिन
फिर जागृति आ जाती हैं।
नहिं दरिद्र सम दुख जग
माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।
जगत्
में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है।
और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।
लंकापति कपीस नल नीला।
जामवंत अंगद सुभसीला।।
हनुमदादि सब बानर बीरा।
धरे मनोहर मनुज सरीरा।।1।।
लंकापति
विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान् जी आदि सभी उत्तम
स्वभाव वाले वीर वानरोंने मनुष्योंके मनोहर शरीर धारण कर लिये।।1।।
श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम्
गुर्वष्टकम्
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 1 ।।
यदि
शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु
पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी
उपलब्धियों से क्या लाभ ।
जय राम रमारमनं समनं। भवताप
भयाकुल पाहिं जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो।
सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
हे
राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो;
आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी
! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा
कीजिये।।1।।
मनजात किरात निपातकिए।
मृग लोक कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे।
बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
कामदेवरूपी
भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे
नाथ ! हे [पाप-तापका हरण करनेवाले] हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन
पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये।।4।।
बहुरोग बियोगन्हि लोग हए।
भवदंध्रि निरादर के फल ए।।
भव सिंधु अगाध परे नर ते।
पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
लोग
बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के
फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे अथाह भव सागर में पड़े रहते
हैं।।5।।
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।
जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू।
लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥
(भाइयों
में) सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन
नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्री रामजी के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ
है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता॥2॥
बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े
भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को
भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर
भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
4
Tuesday, 13/07/2021
गुरु
बोध सार
कथा
भेद मिटाती हैं।
गुरु
कायम वर्तमान होता हैं और हमें आवाज देता रहता हैं।
जिस
व्यक्ति की गोद अपने बच्चे की रज से गंदी नहीं हुई हैं वह गोद किस कामकी? यह भी ततः
किम् हैं।
कथा
दिल मिलाती हैं।
कथा
श्रवण जागृति पूर्वक करनी चाहिये।
राम
कथा अनुशासन पर्व हैं।
श्रोता
के प्रकार – सोता हुआ श्रोता, पीता श्रोता – जो सूत्रो को पीता हैं, गाता हुआ श्रोता,
रोता श्रोता – जो श्रवण सुनते हि गदगद हो जाते और आंसु गिरने लगते हैं।
कई
वक्ता भी मन, वचन कर्म से लबाड भी होते हैं।
आलोचन
और अवलोकन में फर्क हैं।
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं
कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9॥
हे
प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है ।जैसे आपका स्वरूप आपका मुख मुस्कान वाणी
कमलहस्त चरण सुख देने वाले है उसी तरह आपकी लीलाओं का चिंतन दर्शन व् श्रवण मंगल कारक
है अर्थात विरह से सताए हुये लोगों के लिए
तो वह सर्वस्व जीवन ही है। कथा के माध्यम से भी शब्दरूप माधव आपके दर्शन हो जाते है,ऐसे
समय जब आप हमारे समक्ष उपस्थित नही है किन्तु कथाओ के माध्यम से उपस्थित हो जाते है
तो यह सब भी हमारे विरह को शांत करता है, बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने
उसका गान किया है,
सेवक
के भी तीन प्रकार हैं, मूढ सेवक, गूढ सेवक, द्रढ सेवक,
द्रढ
भरोंसा हि विश्वास हैं।
प्रेम
में जो हारता हैं वहीं जीतता हैं – विजयी हैं।
केवट
अक्षय वट का अवतार हैं, जिस के एक पत्ते मई भगवान बाल कृष्ण सोये हुए हैं।
स्वामी
भी तीन प्रकार के हैं – देह स्वामी – कई पति पत्नी देह स्वामी होते हैं, गृह स्वामी
– घर का मालिक, नेह स्वामी जिसमें केवल महेफिल भरी हैं।
गुरु
के तीन प्रकार – जूठा गुरु जो सदा जूठ हि बोलता हैं, लुंट गुरु जो शिष्य को लुंटता
हैं, कुटस्थ गुरु जिसका मन कभी भी हिलता हैं।
साधु
के तीन प्रकार – तक साधु, दंभी साधु जो बग साधु हैं, चक साधु जिसको खाने में हि रस
हैं।
वैद्य
के प्रकार - जुठ वैद्य, लूंट वैद्य, ऊंट वैंद्य,
नेता
के प्रकार राज नेता, ताज नेता और बाज नेता।
जो
भजन करे – भक्ति करे वह अपने ठाकुर का नाम बदनाम नहीं होने देता हैं।
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयू हीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥
ऐसा
कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित
हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि
(नाश) कर देता है॥1॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा
न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं
लभते पराम्।।18.54।।
।।18.54।।वह
ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न
किसीकी इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त
हो जाता है।
।।18.54।।
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न
शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।
सनातन
धर्म में लिंग और वय का भी भेद नहीं हैं।
गंगा
स्नान करने के बाद जाति, लिंग वगेरे भेद मिट जाते हैं।
दीक्षा
देने के १२ स्थान हैं जिस में गौशाला एक स्थान हैं, दूसरे स्थान ईस प्रकार हैं
- वन, तीर्थ, नदी का तट, (गंगा के तट पर विशेष
महत्व हैंं), देव मंदिर में (शंकर भगवान के मंदिर का विशेष महत्व हैं), संगम स्थान,
जिस भूमि में भजन किर्तन होता हो, वर्षा ॠतु के समय,
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
, विभुंव्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं ।
निजंनिर्गुणंनिर्विकल्पं
निरीहं , चिदाकाशमाकाशवासंभजेऽहं ।।१।।
निराकार ॐकारमूलं तुरीयं
, गिराज्ञान गौतीतमीशं गिरीशं ।
करालं महाकाल कालं कृपालं
, गुणागार संसार पारं नतोऽहं ।।२।।
कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि
सर्वं
गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि
जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 2 ।।
सुन्दरी
पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के
श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?
5
Wednesday, 14/07/2021
चरन
प्रक्षालन, चरणामृत, चरण पादूका, चरण स्पर्श, चरण सेवा और चरण रज यह सब शब्द ब्रह्म
हैं जिस में रज महिमावंत हैं।
रज
एकदम छोटा सा माप हैं, रेणु थोडी बडी होती हैं, चरण प्रहार सहन करनार धूल हैं।
धूल
पर प्रहार करोगे तो वह धूल अपने शिर पर आ जाती हैं।
गुरु
समान ब्रह्म, विष्णु, शिव भी नहीं हैं, गुरु से महान कोई तत्व नहीं हैं।
शिव
का निवास कैलास और काशी हैं, काशी का विश्वनाथ हैं।
जहां
गुरु रहता हैं वह स्थान काशी और सब तीर्थ हैं, गुरु अक्षय वट हैं जो शिष्य का हर समय
सहारा बन कर रहता हैं।
गुरु
चरन का जल हि हमारे लिये गंगा हैं।
गुरु
का विग्रह हमारा ईष्ट हैं।
पराग
एक रसमय रुप हैं।
हरेक
शब्द जो आकाश से नीकलता हैं वह सब ब्रह्म हैं।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध
तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
गुरु पद रज मृदु मंजुल
अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री
गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का
नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन
से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
रज
का आंखो में अंजन हो शकता हैं जब कि रेणु का अंजन नहीं हो शकता हैं। धूल ऊडा शकते हैं।
धूल से दूसरों को धोखा दीया जा शकते हैं।
साधना
में जब प्रगति होगी तब खुद का नाम भी बोज बन जाता हैं।
शिष्य
में कुटिलता – वक्रता, दोष और कलंक हो शकता हैं, चंद्र में यह सभी दोष हैं। ऐसा शिष्य
जब सही गुरु के शरण जाता हैं तब यह सब दोष मिट जाते हैं। चंद्र शिव के भाल में जब जाता
हैं तब पूजनीय बन जाता हैं।
कभी
कभी गुरु में भी यह सब दोष हो शकते हैं।
मंथरा
कोई भी शरीर में हो शकती हैं, मंथरा अभी तक मृत्यु नहीं पामी हैं।
पाखद्धण्डनाः पापरता नाद्धस्तका भेदिुियाः |
स्त्रीलम्पटा ... अभिे वंचके र्ूते पाखंडे नाद्धस्तकावदषु |
जो पाखंडी हैं, जिस की क्रिया पापमय हो,
जो नास्तिक हो, - (बिना कोई जानकारी जो खंडन करता हैं वह नास्तिक हैं,), भेद बुद्धि
वाला व्यक्ति – जो समाज में कई भेद पेदा करता हैं, जो स्त्री लंपट हो - अत्यंत दूराचारी
व्यक्ति, जो रित्घ्न, जो बगला जैसी वृत्ति
वाला हैं, जो कर्म भ्रष्ट हो – जो कर्म को छोड देता हैं, जिसने क्षमा छोड दी हैं, जो
दुष्ट तर्क करता हैं, जो कई कामना वाला हो – कामी हो, जो क्रोध करता रहता हैं, जो हिंसक
हैं, जिस की बोली में और वेश में भयानकता हो, जो लिच्चाई करता हैं, जिस में ज्ञान न
हो, ऐसे व्यक्ति को गुरु नहीं बनाना चाहिये, हाला कि
ऐसे व्यक्ति को आदर अवश्य देना चाहिये लेकिन उस का आश्रय नहीं करना चाहिये।
उपरोक्त
गुण से विपरीत हो उसे गुरु बनाना चाहिये।
हमें
नास्तिक नही बनना हैं, हमें आस्तिक भी नहीं बनना चाहिये लेकिन हमें सिर्फ वास्तविक
रहना चाहिये।
पुस्तक
हमारा मस्तक हैं ईसी लिये पुस्तक को हम मस्तक पर धारण करते हैं।
गुरु
नास्तिक और आस्तिक से उपर ऊठ गया हुआ हैं।
बुद्ध
मूर्ति विरोधी थे लेकिन आज बुद्ध की हि ज्यादा से ज्यादा मूर्ति बनी हैं ऐसा रजनीश
कहते हैं।
गुरु
अखंडमंडलाकारम् होता हैं।
गुरु
स्त्री लंपट नहीं होता हैं लेकिन गुरु स्त्री को नारायणी का रुप देता हैं, मातृ शरीर
को आदर देता हैं।
गुरु
क्षमा मूर्ति होता हैं। गुरु किसी के साथ वाद विवाद नहीं करता हैं।
जो
किसी की अकारण नींदा करता हैं तो वह अपनी खानदानी का परिचय दे रहा हैं।
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं
करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 3 ।।
वेद
एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा
हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या
लाभ?
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 1 ।।
यदि
शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु
पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी
उपलब्धियों से क्या लाभ ।
विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु
धन्यः
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न
चान्यः।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 4 ।।
जिन्हें
विदेशों में समादर मिलता हो, अपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता
हो और जो सदाचार-पालन में भी अनन्य स्थान रखता हो, यदि उसका भी मन गुरु के श्रीचरणों
के प्रति अनासक्त हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
वैभव
क्या हैं?
गुरु
चरन रज पाने से ग्लानि और विशाद समाप्त हो जाते हैं।
एक बार भूपति मन माहीं।
भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।
चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
एक
बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर
गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥
गुरु
कृपासे दशरथ राजा को चार पुत्र होते हैं।
विद्या
एक वैभव हैं, जो गुरु से मिलती हैं।
गुरु
के पास जाने से विश्वास द्रढ होता हैं जो वैभव हैं।
जय सच्चिदानंद जग पावन।
अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता।
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
जगत्
को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले
श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ
चले जा रहे थे॥2॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी।
उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा।
सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
सतीजी
ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन
कहने लगीं कि) शंकरजी की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं, देवता,
मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥3॥
तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा।
कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी।
अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
उन्होंने
एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न
हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥4॥
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज
अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि
न जानत बेद॥50॥
जो
ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद
भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥
6
Thrusday, 15/07/2021
हमें
शास्त्रो की रसी की भी आवश्यकता हैं।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा
न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं
लभते पराम्।।18.54।।
।।18.54।।वह
ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न
किसीकी इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त
हो जाता है।
।।18.54।।
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न
शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।
राम
विश्व मानुस, विश्व पुरुष हैं।
राम
को पूजा, प्रतिष्ठा प्रिय नहीं हैं। राम को केवल प्रेम प्रिय हैं।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा।
जानि लेउ जो जान निहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥
श्री रामचन्द्रजी
को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट
किया॥1॥
राम
कथा इतनी विशाल हैं कि उसे आकाश भी छोटा पडता हैं।
कमल
का अर्थ असंगता होता हैं।
चरन
कमल रज की महिमा हैं।
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 5 ।।
जिन
महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते हों, किंतु
उनका मन यदि गुरु के श्री चरणों में आसक्त न हो तो इसे सदभाग्य से क्या लाभ?
क्षमा
का संकेत पृथ्वी हैं।
राम
को छोडकर सुमंत रोता हैं। राम को छोडना किसको अच्छा लगता हैं?
राम
तारक ब्रह्म हैं जो केवट से नौका मांगता हैं और गंगा पार करानेको कहते हैं।
किसका
चरण प्रक्षालन करना चाहिये? गुरुके, जगदगुरुके, पुरोहित और भगवान के चरन प्रक्षालन
करना चाहिये।
छ
प्रकारके ऐश्वर्य जिसमें हैं वह भगवान हैं।
मानस
की रसी दररोज लेनी पडती हैं।
साधु,
आध्यापक हंमेशां विचारो में युवान होना चाहिये।
विचार
पुरुष कभी भी बुढा नहीं होता हैं।
गंगा
प्रवाहित विश्व विद्यालय हैं।
गंगा
के तट उपर वेद घोष हो जाय तब गंगा भी सुनती हैं, ऐसे समय गंगा का प्रवाह का वेग बढ
जाता हैं।
अंगद
रावण को कहता हैं कि अन्न दान सिर्फ दान नहीं हैं लेकिन अन्न ब्रह्म हैं, हम ब्रह्म
दान देते हैं, ब्रह्म की स्थापना करते हैं।
हम
सब अमृत के संतान हैं।
राम मनुज कस रे सठ बंगा।
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा।
अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥
क्यों
रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचंद्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगाजी
क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है?
और अमृत क्या रस है?॥3॥
केवट
जानता हैं कि राम भगवान हैं इसीलिये चरन प्रक्षालन करना चाहता हैं।
राम
जगदगुरु हैं ऐसा अत्रि मुनि कहता हैं, केवट सब जानता हैं क्योंकि केवट अक्षय वट वृक्ष
का अवतार हैं।
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं
विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव
केवलं॥9॥
उन
(आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित,
ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा
परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥
राम
पुरोहित भी हैं।
जब
गरज आती हैं तब कोई भी कुछ भी कार्य करने को तैयार होता हैं।
अग्नि
हि पुरोहित हैं ऐसा ॠग्वेद में लिखा हैं।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध
तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
पृथ्वी
गंध प्रदान देती हैं।
मानस
विशुद्ध विज्ञान हैं, संवेदन हिन विज्ञान पाप हैं।
रज
का अर्थ अनुराग हैं, गुरु चरन रज मिलना का अर्थ गुरु का अनुराग मिलना हैं।
ठाकुर
के चरन में युवान शरीर अर्पण करना चाहिये।
गुरु
चरन का आश्रय हमारा भव रोग मिटाती हैं, हमारा विवेक बढाता, हमारी असंगता बढाती हैं,
सभी विद्या प्राप्त कराता हैं, हमें विचार शुन्य बनाता हैं, यह सभ वैभव हैं जो गुरु
चरन रज के आश्रयसे मिलता हैं।
ग्रंथ
हि हमारा गुरु हैं।
कबीरा कुंआ एक हैं पानी
भरैं अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी
सबमें एक।।
चलचित्र
हमारा चरित्र अच्च्छा करे ऐंसा होना चाहिये।
हम
कितनी भी ऊंचाई प्राप्त कर ले – प्रगति कर ले लेकिन उस की व्यस्ततामें हमारे जीवन का
लक्ष्य छूट न जाय उस का ध्यान रखना चाहिये।
क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 5 ।।
मोह
बंधन हैं, प्रेम मुक्ति हैं।
परम
गुरु हर हाल में शांत रहता हैं, उग्र कभी भी नहीं बनता हैं। परम गुरु हंमेशां ध्यान
में रहता हैं।
परम
गुरु निरंतर तृप्त रहता हैं, संतुष्ठ रहता हैं, किसी के आश्रय की अपेक्षा नहीं करता
हैं, वह ब्रह्मा विष्णु के वैभव को भी तृण गिनता हैं, हर स्थान में अडग रहता हैं –
कभी भी डगता नहीं हैं, उसे कोई भेद नहीं होता हैं, वह अपनी अनुभूति में हि प्रसन्न
रहता हैं, वह अज्ञान रुपी अंधकार को छेद देता हैं, ऐसे गुरु के दर्शन मात्र से हम प्रसन्न
हो जाते है। ऐसा गुरु जब भी हम तरफ देखता हैं तब हम दिवाना बन जाते हैं, ऐसा गुरु अपनी
शांति में रहता हैं, ऐसा गुरु सब को समान मानता हैं,
साधो ये मुरदों का गांव!
जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।
मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥
यदि
ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी)
नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥1॥
सदा रोगबस संतत क्रोधी।
बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी
जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥
नित्य
का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान् विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी,
अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान् पापी)- ये
चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥
मन,
वचन, कर्म और स्वभावसे भी धनवान होते हुए दरिद्रता आती हैं।
7
Friday, 16/07/2021
शंकराचार्य
भगवान, सच्चा साधु सुख सगवड के विरोधी नहीं हैं, रचना का अपमान उस रचना के रचयोता भी
अपमान हैं।
मौनी
गुरु थोडा स्वार्थी हैं। जब कोई गुरु या व्यक्ति ने कुछ पाया हैं तो उस पायी हुई चीज
को बांटना चाहिये।
गुरु
की याद आये और जब हमारी आंख में अश्रु आते हैं तो वह वैभव पर्याप्त हैं, उस वैभव से
दूसरे वैभव की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये।
अगर
हमारे पास अश्रु हैं तो ओर वैभव की अपेक्षा हि न रखो। कृष्ण विरह में भीगी आंखे सब
से बडा वैभव हैं।
गुरु
चरन में द्रढाश्रय वैभव हैं। अगर गुरु के चरन में मन नहीं लगता हैं तो ततः किम्?
अपने
घर में रहते हुए भी अगर हमारा गुरु चरन में द्रढाश्रय रखकर अश्रु बहाते हैं तो हम गुरु
गृह में हि रहते हैं और वैभवी हैं।
गुरु
अपने आश्रित का ध्यान रखता हैं, गुरु हमारा भान रखे और आश्रित गुरु का ध्यान रखे तो
पर्याप्त हैं।
जाकी सहज स्वास श्रुति
चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन
सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
चारों
वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई
विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते
हैं॥3॥
गुरु
यह पांच शिक्षा देता हैं।
गुरु
पांच दिक्षा देता हैं – शब्द दिक्षा जो जीवंत मंत्र हैं, गुर स्पर्श दिक्षा देता हैं
– शिर उपर हाथ रखे या हमे चरन स्पर्श क्रने दे, रुप दिक्षा – स्वरुप जो गुरु की भीतरी
अवस्था हैं, मूर्ति और मंदिर दोनों की महिमा हैं, यह शरीर और शरीरमे जो आत्मा हैं दोनों
की महिमा हैं, गुरु रस दिक्षा देता हैं – जीवन जीनेका एक रस प्रदान करता हैं, ईसीलिये
भगवान कृष्ण रसौवैसः हैं, गुरु गंध दिक्षा देता हैं – गुरु की हरएक चिज में एक विशेष
एक नुरानी खुस्ग्बु होती हैं और यह विशेष गंध हमारी विषयी वासना की गंध को दूर कर देता
हैं।
गुरु
पांच प्रकार की भिक्षा देता हैं -गुरु अश्रु का दान देता हैं, कृष्ण ने गोपीजनो को
रुदन दिया हैं, गुरु अनुभाव की भिक्षा देता हैं, गुरु हमें अमन – शांति की भिक्षा देता
हैं- हमें शांति देता हैं, गुरु हमे ऐसा आश्रय देता हैं कि हमें ओर कोई आश्रय की आवश्यकता
हि नहीं रहती हैं।
सच्चा
गुरु अपने आश्रित को अन्य साधु, संत, गुरु को श्रवण करने की मना नहीं करता हैं। सत्य
जहां से मिले उसे स्वीकारना चाहिये। अगर गुरु किसी अन्य के पास जाने से मना करता हैं
तो यह ऐसे गुरु की कसोटी हैं।
मौनी
गुरु से बोलता गुरु अच्छा हैं, यह मौनी गुरु की आलोचना नहीं हैं।
શાંતિ
પમાડે તેને સંત કહીયે ……
अघोर,
वामदेव, सज्योजात, तत पुरुष और ईशान यह शंकर भगवान के पंच मूख हैं।
दंपति बचन परम प्रिय लागे।
मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना।
बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥
राजा-रानी
के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल,
कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ
भगवान प्रकट हो गए॥4॥
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥
O
Lord, who blesses all creatures by revealing the Vedas, deign to make us happy
by Thy calm and blissful self, which roots out terror as well as sin.
Hindi
Meaning
हे
प्रभु! वेदों को प्रकाशित कर तू सभी प्राणियों पर कृपा की वर्षा करता है, अपने शान्त
और आनन्दमय रूप द्वारा हम सब को प्रसन्न रखने का अनुग्रह करता है जिससे भय और पाप दोनों
नष्ट हो जाते हैं।
हे
रुद्र - he rudra - O Lord | गिरिसंत - girisaṁta - by revealing the Vedas | या ते
शिवा - yā
te śivā - who
blesses all creatures | अघोरा - aghorā - which roots out terror | अपापकाशिनी
- apāpakāśinī - which
roots out sin | तनू - tanū - (make us) happy? | तया - tayā - Thy self
| शंतमया - śaṁtamayā - calm | तनुवा
- tanuvā
- blissful | नः - naḥ - us | अभिचाकशीहि - abhicākaśīhi - deign
|
हनुमानजी
के भी पंचमूख हैं।
श्री
हनुमान भी गुरु हैं और उनके भी पचमुख हैं।
गुरु
के पांच मुख – सन्मुख मुख, हसमुख, वेद मुख, नव कंज मुख, कमल मुख,
राम
मर्यादा पुरुष हैं, कृष्ण क्रिडा पुरुष हैं, शंकर लीला पुरुष हैं, गुरु पुरुषोत्तम
रुप हैं।
8
Saturday, 17/07/2021
मौन
एक बहुत बडी साधना हैं। जब भी समय मिले और अनुकूलता हो तब मौन रखना चाहिये, यह साधना
हमे बहुत ऊर्जा प्रदान करती हैं।
आत्म
कल्याण की साधना अगर नहीं करते हैं तो ततः किम्?
जब
हम कर्म नहीं करते हैं तब हम पागल बन जाता हैं, कर्म करता हि पडता हैं, और कर्म करने
के लिये हमारे में रजो गुण होना चाहिये, कर्म करनेसे बंधन आता हैं, ईसीलिये रजो गुण
सम्यक होना चाहिये और ऐसा गुरु चरन रज से हि प्राप्त हो शकता हैं, ऐसी अमस्यका सविनय
आनी चाहिये।
कर्म
सम्यक होना चाहिये। ऐसा जब होगा तब रजो गुण गुरु चरण रज से सम्यक मात्रा में रजो गुण
मिले।
भरत
कहता हि की …
हमारी
४ जिम्मेवारी हैं जो तुलसी बताते हुए कहते हैं कि ….
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि
प्रजा रजधानी॥4॥
देश, खजाना,
कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी
तो गुरुजी की चरण रज पर है। तुम तो मुनि वशिष्ठजी,
माताओं और मन्त्रियों
की शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी,
प्रजा और राजधानी
का पालन (रक्षा)
भर करते रहना॥4॥
हमारी
संपदा, पर्यावरण, पृथ्वी, नदी वगेरे हैं जिस को हमें संभालना हैं।
पुरा
विश्व हमारे परिजन हैं, उसे संभालना चाहिये।
दूसरों
कि वेदना से हमारी आंख में आंसु आने चाहिये, राम कृष्ण परमहंस को ऐसा अनुभव हुआ हैं।यह
बुद्ध पुरुष की समानुभुति हैं।
વૈષ્ણવજન
તો તેને રે કહીયે જે પીડ પરાઈ જાણે રે ….
छोटे
बच्चे कि परेशानी उस की माता को लगती है, यह समानीभूति हैं।
जिसने
गुरु चरन रज का आश्रय किया हाइं कि उस गुरु को भूलना मुश्केल हैं। गुरु के समीप बहूत
रहना नहीं चाहिये, अगर हम गुरु के समीप रहते हैं तो उसकी चेष्टा उपर हम संदेह करने
लगेंगे जो हमारे लिये नुकशान कारक बन जायेगा। ईसीलिये एक निश्चिंत दूरी आवश्यक हैं।
भगवान
कृष्ण कायम स्थांळतर करते रहे हैं।
किसी
भी घटना में हमें शांत रहना चाहिये।
संघर्ष
के समय भी जो अपने गुरु के चरन रज शिर पर धारण करता हैं तन उस का विजय निश्चिंत हैं,
महाभारत के युद्ध दरम्यान युद्ध शौरु होने से पहले धर्म राज युधिष्ठिर कओरव सेना के
पास जाकर भीष्म पितामह, आचार्य द्रोणाचार्य और कृपाचार्य प्रणाम करके विजयी भवः का
आशिर्वाद प्राप्त करते हैं। यह गुरु चरन रज की महिमा हैं।
कबीर
और कबर को समज लेना चाहिये।
कबीर
जब भी काशी में नीकलते हैं तब कई लोग कबीर को गालीयां देते हैं और कई लोंग गुलाब का
फूल देकर अभीवादन भी करते थे तब यह दोनों समय शांत रहकर कुछ भी प्रतिभाव नहीं देते
हैं।
राम
कथा सिर्फ धर्म कथा हि नहीं हैं जीवन कथा भी हैं।
गुरु
बनाने में जल्दी नहीं करनी चाहिये, पुरा जानकर गुरु बनाना चाहिये।
गुरु
कैसा हो वह बताते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि …. और ऐसे गुरु की चरन रज शिर पर चढानी
चाहिये।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं
शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि
चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
ज्ञानमय,
नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा
भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
गुरु
बोधमय होना चाहिये, गुर कायम नित्य होता हैं – शरीर अनित्य हैं लेकिन गुरु बिना शरीर
भी हमारे साथ रहता हैं, गुरु विश्व कल्याणकारी होना चाहिये।
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 1 ।।
यदि
शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु
पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी
उपलब्धियों से क्या लाभ ।
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं
करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 3 ।।
वेद
एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा
हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या
लाभ?
9
Sunday, 18/07/2021
गुरु
सबसे पहले संदेश देता हैं और जब हमारी क्षमता आ जाये – अधिकारी बन जाय तब आदेश देता
हैं, गुरु लिख कर या अपने चरित्र से संदेश देता हैं।
उपदेश
गुरु मुख से और वेद मुख से दिया जाता हैं। गुरु मुख से जो नीकलता हैं वह शास्त्र संमंत
होता हैं और अगर ऐसा न हो तो शास्त्र को उस से संमंत होना पडता हैं।
गुरु
के आदेश की दो पद्धति हैं – गुरु हमारे परम हित के लिये कभी कभी कडा आदेश देता हैं
और गुरु अपने आश्रित के प्रति परम पेम वश आदेश देता हैं।
गुरु
शास्त्रमय होते हुए कभी भी कोई संदेश नहीं देता हैं, ऐसे समय में गुरु मौन आख्यान देता
हैं।
यह
सब गुरु महिमा हैं।
गुरु
हमें स्वतंत्र रखता हैं, सब कुछ कहने के बाद कहता हैं अब जो तुम्हे करना हैं वह करो।
गुरु
जब आंखे बंध करता हैं तव वह परमात्मा के समक्ष हैं और जब आंखे खुले तब परमात्मा गुरु
के समक्ष रहता हैं।
ममता दादु कंडु इरषाई।
हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।17।।
ममता
दाद, और ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले की रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्टमाला
या घेघा आदि रोग हैं), पराये सुखको देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है । दुष्टता और
मनकी कुटिलता ही कोढ़ है।।17।।
पर
सुख से जलन होती हैं वह क्षय रोग हैं।
कुटिलता
और दुष्टता का रोग जिसे हैं वह कुष्ट रोगी हैं। यह चेपी रोग हैं।
મેં
તો સિદ્ધ રે જાણી ને તમને સેવિયા ………………..
મેં
તો શુદ્ધ રે જાણી ને તમને સેવિયા ……………………
व्यक्ति
जब सो जाता हैं तब सब शारीरिक क्रिया बंध हो जाती हैं लेकिन ह्मदय धडकता रहता हैं।
गुरु
को याद करना सरल हैं लेकिन गुरु को भूलना मुश्किल हैं। सच्चे प्रेमी की भी ऐसी हालत
होती हैं।
तुम्ह
अगर भूल भी जाओ तो हक्क हैं तुमको
मेरी
बातों को …………
शंकर
रुठे तो गुरु बचाता हैं लेकिन अगर गुरु रुठता हैं तो कोई भी नहीं बचा शकता।
जिस
को कुटिलता ऐर दुष्टता का रोग लगा हैं उसे गुरु नहीं बनाना चाहिये।
केश
और नख जड हैं या चेतन हैं?
नख
वासना हैं जो निरंतर बढती रहती हैं, उसे समय समय पर संयमित करना चाहिये।
काले
दांत वाले व्यक्ति को गुरु नहीं बनाना चाहिये, जो आहार और व्यसन को नोयंय्तित नहीं
करता हैं उसे गुरु नहीं बनाना चाहोये।
जिस
के अंग हिन हैं उसे गुरु नहीं बनाना चाहिये, जो गुरु योग्य आश्रित को सब कुछ न बतादे
वह हिनांग – अंग हिन हैं।
अधिक
अंग वाले को भी गुरु नहीं बनाना चाहिये, जीभ अगर बिना कारण ज्यादा बोलती बोलती हैं
उसे गुरु नहीं बनाना चाहिये, जो स्त्री के आधिन हैं उसे गुरु नहीं बनाना चाहिये।
गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी
च गेही।
लभेत् वांछितार्थ पदं ब्रह्मसंज्ञं
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य
लग्नम् ।। 10 ।।
जो
यती, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु
के वचन में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों
को सम्प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 1 ।।
यदि
शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु
पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी
उपलब्धियों से क्या लाभ ।
पुष्पवाटिका
का प्रसंग युगल गीत का रिहरशल हैं।
यह
कथा – मानस ततः किम् - गुरु पूर्णिमा का प्रसाद हैं।
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