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Saturday, November 27, 2021

માનસ સાધુ ચરિત માનસ, मानस साधु चरित मानस

 

राम कथा

मानस साधु चरित मानस

शनिवार, १३/११/२०२१ से रविवार, २१/११/२०२१

देल्ही

केन्द्रीय विचार बिन्दु की पंक्ति

 

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।

कहत साधु महिमा सकुचानी॥

सो मो सन कहि जात न कैसें।

साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे उसी प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मणियों के गुणगान नहीं किए जा सकते ।

 

 

3

Monday, 15/11/2021

साधु की महिमा कही नहीं जाती हैं।

साधु की महिमा जानने से हम साधु संग कर शकते हैं।

 परमात्मानी परम कृपा का फल साधु संग प्राप्ति हैं।
साधु संग, हरि नाम हमें पाप से मुक्त करने में सक्षम हैं।

नदी का मूल और साधु का कूल देखना नहीं चाहिये।

अवतार और साधु में क्या फर्क हैं?

अवतार बिना कारण नहीं होता हैं। साधु के लिये कोई कारण नहीं होता हैं, केवल कृपा का परिणाम हैं, साधु स्वयं शिव, भरत, राम, हैं, अंश नहीं हैं।

साधु कुछ छोडकर जाता हैं, साधु कुछ खुशबु छोडकर जाता हैं, अवतार अपना अवतार कार्य पूर्ण करनेके बाद विदाय लेता हैं।

संबध बंधन हि हैं।

कथा प्रेम हैं, कथा भजन हैं।

प्रभाव नाशवंत हैं जब कि स्वभाव शास्वत हैं, ईसीलिये स्वभाव को पहचानो, सिर्फ प्रभाव को मत पहचानो।

फकिर कोई लकिर नहीं छोडता हैं, कोई पंथ नहीं बनाता हैं।

भक्ति मार्ग में चूप रहकर परम को याद करते करते अश्रु बहाना शील हैं।

साधु ईश्वर का अंश नहीं हैं, ईश्वर हि हैं।

 

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग  सीतासमारोपितवामभागम्‌।

पाणौ  महासायकचारुचापं  नमामि  रामं  रघुवंशनाथम्‌॥3॥

 

नीले  कमल  के  समान  श्याम  और  कोमल  जिनके  अंग  हैं,  श्री  सीताजी  जिनके  वाम  भाग  में  विराजमान  हैं  और  जिनके  हाथों  में  (क्रमशः)  अमोघ  बाण  और  सुंदर  धनुष  है,  उन  रघुवंश  के  स्वामी  श्री  रामचन्द्रजी  को  मैं  नमस्कार  करता  हूँ॥3॥

साधु सांवरा होता हैं – श्याम होता हैं।

 

चरनाम्बुजश्यामलकोमलांग  साधुतासमारोपितवामभागम्‌।

पाणौ  महाविज्ञानचारुचापं  नमामि  साधुंर  रघुवंशनाथम्‌॥3॥

 

साधुता का अर्थ हैं – सा का अर्थ हैं निरंतर सब तरह सावधान रहेगा, साधु कितनी भी ऊंचाई मिल जाय फिर भी मिट्टि बनकर रहता हैं, ता का अर्थ हैं साधु का जीवन तालबध, लय बध होता हैं।

 

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।

बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)

 

संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥

साधु सर्वज्ञ नहीं होता हैं लेकिन स्वज्ञ – खुद को जानने वाला होता हैं। साधु त्रिकालज्ञ नहीं होता हैं।

 

बिषई  साधक  सिद्ध  सयाने।  त्रिबिध  जीव  जग  बेद  बखाने॥

राम  सनेह  सरस  मन  जासू।  साधु  सभाँ  बड़  आदर  तासू॥2॥

 

विषयी,  साधक  और  ज्ञानवान  सिद्ध  पुरुष-  जगत  में  तीन  प्रकार  के  जीव  वेदों  ने  बताए  हैं।  इन  तीनों  में  जिसका  चित्त  श्री  रामजी  के  स्नेह  से  सरस  (सराबोर)  रहता  है,  साधुओं  की  सभा  में  उसी  का  बड़ा  आदर  होता  है॥2॥

 

4

Tuesday, 16/11/2021

भगवान बादरायण व्यास ने साधु के सप्त स्वभाव का वर्णन किया हैं।

राम अप्रगट साधु हैं।

अवतार अंशी अवतार होता हैं, कोई कोई पूर्ण अवतार होता हैं।

अग्नि के आवेश के कारण लोहा रंग बदलता हैं और लाल होता हैं।

परशुराम आवेश अवतार हैं। कुछ स्फूर्ति अवतार होता हैं -

पांच “ग” कार को याद करके यात्रा की शरुआत करो – १ ईष्टग्रंथ, २ गणपति, ३ गौरी, ४ गिरीस और ५ विप्र

राम की यात्रा में भी विघ्न आये हैं।

 

सजि  बन  साजु  समाजु  सबु  बनिता  बंधु  समेत।

बंदि  बिप्र  गुर  चरन  प्रभु  चले  करि  सबहि  अचेत॥79॥

 

वन  का  सब  साज-सामान  सजकर  (वन  के  लिए  आवश्यक  वस्तुओं  को  साथ  लेकर)  श्री  रामचन्द्रजी  स्त्री  (श्री  सीताजी)  और  भाई  (लक्ष्मणजी)  सहित,  ब्राह्मण  और  गुरु  के  चरणों  की  वंदना  करके  सबको  अचेत  करके  चले॥79॥

विप्र ग्रंथकार होनेके नाते “ग” कार में आता हैं।

 

एहि  बिधि  राम  सबहि  समुझावा।  गुर  पद  पदुम  हरषि  सिरु  नावा॥

गनपति  गौरि  गिरीसु  मनाई।  चले  असीस  पाइ  रघुराई॥1॥

 

इस  प्रकार  श्री  रामजी  ने  सबको  समझाया  और  हर्षित  होकर  गुरुजी  के  चरणकमलों  में  सिर  नवाया।  फिर  गणेशजी,  पार्वतीजी  और  कैलासपति  महादेवजी  को  मनाकर  तथा  आशीर्वाद  पाकर  श्री  रघुनाथजी  चले॥1॥ 

साधु के सप्त स्वभाव – १ उदासीन, २ सत्यस्थ  प्रेमस्थ

 

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा  की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥

तापस बेष वानप्रस्थ का संकेत हैं, सीता साथ में हैं यह गृहस्थ का संकेत हैं, फिर भी उदासी हैं, उदासी वह हैं जो कोई भी घटना में विचलित नहीं हैं।

अवतार में कला होती हैं, साधु कलातित होता हैं, शंकर साधु हैं जो कलातित हैं।

राम चरित स्वयं साधु हैं, ग्रंथ साधु हैं।

 

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥

सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥7॥

 

सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित (यथार्थ) हित करने में साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान हैं॥7॥

साधु के सप्त स्वभाव ……

          साधु कभी भी किसी पर रोष नहीं करता हैं, अगर कभी रोष करता हैं ति फिर उसे उसकी ग्लानि होती हैं।

          साधु को लोहा और सोना एक समान और मिट्टी के समान दीखाई देता हैं।

          साधु कोई भी घटना उपर शोक नहीं करता हैं।

 

सोचिअ  बिप्र  जो  बेद  बिहीना।  तजि  निज  धरमु  बिषय  लयलीना॥

सोचिअ  नृपति  जो  नीति    जाना।  जेहि    प्रजा  प्रिय  प्रान  समाना॥2॥

 

सोच  उस  ब्राह्मण  का  करना  चाहिए,  जो  वेद  नहीं  जानता  और  जो  अपना  धर्म  छोड़कर  विषय  भोग  में  ही  लीन  रहता  है।  उस  राजा  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  नीति  नहीं  जानता  और  जिसको  प्रजा  प्राणों  के  समान  प्यारी  नहीं  है॥2॥

 

सोचिअ  बयसु  कृपन  धनवानू।  जो    अतिथि  सिव  भगति  सुजानू॥

सोचिअ  सूद्रु  बिप्र  अवमानी।  मुखर  मानप्रिय  ग्यान  गुमानी॥3॥

 

उस  वैश्य  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  धनवान  होकर  भी  कंजूस  है  और  जो  अतिथि  सत्कार  तथा  शिवजी  की  भक्ति  करने  में  कुशल  नहीं  है।  उस  शूद्र  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  ब्राह्मणों  का  अपमान  करने  वाला,  बहुत  बोलने  वाला,  मान-बड़ाई  चाहने  वाला  और  ज्ञान  का  घमंड  रखने  वाला  है॥3॥

 

सोचिअ  पुनि  पति  बंचक  नारी।  कुटिल  कलहप्रिय  इच्छाचारी॥

सोचिअ  बटु  निज  ब्रतु  परिहरई।  जो  नहिं  गुर  आयसु  अनुसरई॥4॥

 

पुनः  उस  स्त्री  का  सोच  करना  चाहिए  जो  पति  को  छलने  वाली,  कुटिल,  कलहप्रिय  और  स्वेच्छा  चारिणी  है।  उस  ब्रह्मचारी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  अपने  ब्रह्मचर्य  व्रत  को  छोड़  देता  है  और  गुरु  की  आज्ञा  के  अनुसार  नहीं  चलता॥4॥

दोहा  :

सोचिअ  गृही  जो  मोह  बस  करइ  करम  पथ  त्याग।

सोचिअ  जती  प्रपंच  रत  बिगत  बिबेक  बिराग॥172॥

 

उस  गृहस्थ  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  मोहवश  कर्म  मार्ग  का  त्याग  कर  देता  है,  उस  संन्यासी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  दुनिया  के  प्रपंच  में  फँसा  हुआ  और  ज्ञान-वैराग्य  से  हीन  है॥172॥ 

 

सोचिअ  गृही  जो  मोह  बस  करइ  करम  पथ  त्याग।

सोचिअ  जती  प्रपंच  रत  बिगत  बिबेक  बिराग॥172॥

 

उस  गृहस्थ  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  मोहवश  कर्म  मार्ग  का  त्याग  कर  देता  है,  उस  संन्यासी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  दुनिया  के  प्रपंच  में  फँसा  हुआ  और  ज्ञान-वैराग्य  से  हीन  है॥172॥ 

          साधु संधी और विग्रह से पर होता हैं।

          साधु को कोई प्रिय और कोई अप्रिय नहीं होता है

5

Wednesday, 17/11/2021

मानस में ११ पात्र के लिये साधु शब्द का प्रयोग हुआ हैं।

साधु और परम साधु में क्या फर्क हैं।

भुशुंडीजी के गुरु परम साधु हैं, भरत भी परम साधु की श्रेणी में कह शकते हैं, भरत सब बिधि साधु हैं जो परम साधु हैं।

साधु के प्रकार अनेक हैं जैसे वेश का साधु, चित वृत्तिका साधु, संप्रदाय का साधु, गृहस्थ साधु, ब्रह्मचारी साधु, संन्यासी साधु, वानप्रस्थी साधु वगेरे

यह सब साधु के प्रकार भरत में दिखाई देता हैं।

मैत्री भावनुं आ पवित्र झरणू …..

साधु श्रवण क्या हैं?

साधु को सुनने से सत्य हमारे पास आता हैं, शबरी के पास राम – सत्य आते हैं, अहल्या के पास भी राम – सत्य आता हैं।

कोई साधु को सुनने से सत्य हमारे पास आता हैं।

सिर्फ सोच से सत्य हमारे पास नहीं आता हैं, कथा श्रवण से सत्य हमारे पास आता हैं।

पाप का फल दुःख हैं, कथा सुनने से यह दुःख क्रमशः दूर होता हैं।

सुनने से संतोष प्राप्त होता हैं, कुछ समय के लिये विश्राम भी मिलता हैं।

श्रवण करने से ६८ तीर्थ का स्न्नान हो जाता हैं।

श्रवण से श्रद्धावान को ज्ञान मिलता हैं।

हमारे शरीर के ६८ केन्द्र श्रवण से ऊर्जावान होते हैं, केद्र संचालित होता हैं – स्थान बदलते हैं। श्रवण से ध्यान भी लगता हैं। यह सब श्रवण साधु मुख से होना चाहिये। जब ऐसा श्रवण करते करते जब हम ध्यान भूल जाते हैं तब वह एक उत्सव हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

साधु का संग बंधन नहीं हैं लेकिन मोक्ष द्वार हैं।

राम – सत्य कान द्वारा प्रवेश करता हैं – श्रवण द्वारा प्राप्त होता हैं।

कथा श्रवण का समय– साधु श्रवण का समय अमृत बेला हैं।

अपना गुरु सब बिधी साधु हैं, परम साधु हैं।

 

कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ

शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।

मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ

सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥1॥

 

कुन्दपुष्प और नीलकमल के समान सुंदर गौर एवं श्यामवर्ण, अत्यंत बलवान्‌, विज्ञान के धाम, शोभा संपन्न, श्रेष्ठ धनुर्धर, वेदों के द्वारा वन्दित, गौ एवं ब्राह्मणों के समूह के प्रिय (अथवा प्रेमी), माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए, श्रेष्ठ धर्म के लिए कवचस्वरूप, सबके हितकारी, श्री सीताजी की खोज में लगे हुए, पथिक रूप रघुकुल के श्रेष्ठ श्री रामजी और श्री लक्ष्मणजी दोनों भाई निश्चय ही हमें भक्तिप्रद हों ॥1॥

यह भगवान राम का वर्णन हैं। यह वर्णन साधु को भी लगते हैं।

काला रंग उदासीनता का प्रतीक हैं, गहराई, सब के स्वीकार का भी प्रतीक हैं।

भगवान राम अत्यंत बलवान हैं, साधु भी बहुत बलिष्ठ होता हैं।

साधु का आहार हरिनाम हैं। ईसीलिये साधु के पास हरिनाम का बल होता हैं।

सच्चा साधु बहुत सहन कर शकता हैं।

कठन वचन तो साधु सहे ………….. कुंची मारा गुरुजीने हाथ ………..

वृक्ष भी साधु हैं। अकारण वृक्ष को काटना नहीं चाहिये।

नदी भी साधु हैं, उसे प्रदुषित नहीं करना चाहिये, नदी को प्रदुषित करना साधु हत्या हैं, पृथ्वी का खलन भी नहीं करना चाहिये, पहाड को नष्ट करना साधु हत्या हैं।

 

पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।

संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।3।।

 

आप पूर्णकाम हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात ! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है।।3।।

संत बिटप हैं, संत सरिता हैं, संत पृथ्वी हैं, संत पहाड हैं। जिस का जीवन परहित के लिये वह साधु हैं।

भगवान विज्ञान के धाम हैं, साधु भी विज्ञान का धाम हैं।

भगवान राम और साधु बहुत सुंदर हैं।

साधु नुं वर्णन वेद भी करता हैं।

गाय और ब्राह्मण साधु का वर्णन करते हैं – सन्मान करते हैं।

साधु भक्ति की खोज करने के लिये तत्पर रहता हैं।

भिक्षुक और भिखारी अलग हैं। भिक्षूक कभी मांगता नहीं हैं।

सहज समाधि का फल रामनाम हैं।

 

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥

जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥

 

शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥

 

लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥

देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥

 

 

 6

Thursday, 18/11/2021

भ्रमचारी बहुत लडाकु होते हैं, दमन करने से लडाकु बन जाते हैं।

क्रोध विवेक भंग कराता हैं।

राम राज्य के लिये शील आवश्यक हैं।

भरत राम के मुख से साधु की महिमा जानना चाहिये।

नारद भगवान राम के मुख से संत के लक्षण जानना चाहते है।

 

कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।

अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥

सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।

ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥

 

 'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान्‌ के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।

 

संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।

संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।3।।

 

हे शरणागत का पालन करनेवाले ! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समाझकर कहिये। [श्रीरामजीने कहा-] हे भाई ! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य है, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं।।3।।

 

संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।

काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।4।।

 

संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चन्दन का आचरण होता है। हे भाई ! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है [क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षोंको काटना है]; किन्तु चन्दन [अपने् स्वभाववश] अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ीको) सुगन्ध से सुवासित कर देता है।।4।।

 

बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।

सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।1।

 

संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणोंकी खान होते है। उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे [सबमें, सर्वत्र, सब समय] समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है, वे मदसे रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध हर्ष और भयका त्याग किये हुए रहते हैं।।1।।

 

कोमलचित दीनन्ह पर दया। मन बच क्रम मम भगति अयामा।।

सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।2।।

 

उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनोंपर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्मसे मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत ! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणोंके समान हैं।।2।।

 

बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।

सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।3।।

 

उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते हैं। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता, सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणके चरणोंमें प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करनेवाली है।।3।।

 

नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।

 

हे गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके नचाये] नाचते हैं। ब्रह्माणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं।।1।।

7

Friday, 19/11/2021

 आज कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा – गुरु प्रकाशोत्सव, निंबारकीय परंपरा अनुसार भगावान निंबारकीय का जन्म दिन हैं और आज राम जन्म का प्रसंग भी करना हैं।

भरत कहता हैं कि ….

 

जेहि  बिधि  प्रभु  प्रसन्न  मन  होई।  करुना  सागर  कीजिअ  सोई॥1॥

 

हे  दयासागर!  जिस  प्रकार  से  प्रभु  का  मन  प्रसन्न  हो,  वही  कीजिए॥1॥

शिव भी कहते हैं कि ……………

 

हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥

 

सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥

साधु से कामिनी और कामना दूर हो जाती हैं।, छोडना नहीं पडता हैं।

साधु एक समय जड हो जाता हैं, उसके आगेपीछे क्या होता हैं उसका उसे पता हि नहीं रहता हैं।

राम चरित मानस ग्रंथ भी साधु हैं।

त्याग से शांति मिलती हैं ……. उपनिषद

साधु का चुंबकत्व कभी भी कम नहीं होता हैं, साधु जब भजन करता हैं तव उस का चुंबकत्व रिचार्ज होता रहता हैं।

मनुष्य होना – मनुष्यत्व होना, महापुरुष का संग और मोक्ष की आकांशा दुर्लभ हैं  ………….. आदि शंकर

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

 

बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥4॥

अंधो की नगरी में दर्पण बेचना बेकार हैं।

नियति के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।

राम परम सत्य हैं, कृष्ण परम प्रेम हैं और शंकर परम करुणा हैं।

भूख से भिक्षा प्रगटती हैं और भूख से भेख भी प्रगट होता हैं।

साधु सब स्थिति का स्वीकार करता हैं।

 

बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।

सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।3।।

 

उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते हैं। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता, सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणके चरणोंमें प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करनेवाली है।।3।।

 

सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।

 

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।

सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।4।।

 

हे तात ! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मनके निग्रह), दम, (इन्द्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते;।।4।।

राम भक्ति कौए को – काकभुशुंडी को मिली हैं।

कौआ बांट कर खाता हैं।

 

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥

 

अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यंत प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने (वर्णाश्रम के) कर्मों में लगा रहे॥3॥

 

निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।

ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।

 

जिन्हें निन्दा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं।।38।।

 

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।

8

Saturday, 20/11/2021

 

रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्य पराक्रमः |

राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ||

 

आज का दिन सदा के लिए इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया। भगवान श्रीराम के जन्मभूमि मन्दिर का भूमि पूजन नव भारत के उत्थान का विजयोत्सव है।

साधु विष्णु भगवान के सहस्त्र नाम में एक नाम हैं।

साधु विभु हैं। विभूति कई होती हैं।

स्वीकार करे वह साधु हैं।

स‌त्‌कर्ता भगवान विष्णु के सहस्त्रनाम पैकी का एक नाम हैं।

भूतकाल से शिक्षा प्राप्त करो, और वर्तमान काल अनुसार निर्णय करना चाहिये और ऐसा निर्णय करने के बाद भविष्य की कोई चिंता नहीं करनी चाहिये। निर्णय करनेके बाद उसके परिणाम की अपेक्षा परमात्मा पर छोड दो।

अध्यापक केवल डिग्रीधारी नहीं लेकिन वृत्तिधारी होना चाहिये।


गोविंद स‌त्‌कर्ता हैं, गोविंद सदा सत्‌कार्य हि करता हैं।

मानस में ११ पात्र को साधु कहा हैं – जामबंत, हनुमान

 

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥

हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥


बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्‌ और हनुमान्‌जी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥

 

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥

सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥7॥


सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित (यथार्थ) हित करने में साधु-संतों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगाजी की तरंगमालाओं के समान हैं॥7॥

 

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥


वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की॥4॥

 

अजहूँ  हृदय  जरत  तेहि  आँचा।  रिस  परिहास  कि  साँचेहुँ  साँचा॥

कहु  तजि  रोषु  राम  अपराधू।  सबु  कोउ  कहइ  रामु  सुठि  साधू॥3॥


उसकी  आँच  से  अब  भी  मेरा  हृदय  जल  रहा  है।  यह  दिल्लगी  में,  क्रोध  में  अथवा  सचमुच  ही  (वास्तव  में)  सच्चा  है?  क्रोध  को  त्यागकर  राम  का  अपराध  तो  बता।  सब  कोई  तो  कहते  हैं  कि  राम  बड़े  ही  साधु  हैं॥3॥ 


तात  भरत  तुम्ह  सब  बिधि  साधू।  राम  चरन  अनुराग  अगाधू॥

बादि  गलानि  करहु  मन  माहीं।  तुम्ह  सम  रामहि  कोउ  प्रिय  नाहीं॥4॥


हे  तात  भरत!  तुम  सब  प्रकार  से  साधु  हो।  श्री  रामचंद्रजी  के  चरणों  में  तुम्हारा  अथाह  प्रेम  है।  तुम  व्यर्थ  ही  मन  में  ग्लानि  कर  रहे  हो।  श्री  रामचंद्रजी  को  तुम्हारे  समान  प्रिय  कोई  नहीं  है॥4॥

 

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥


उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्‌जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्‌जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

 

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहिं काजु न दूजा।।

परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक।।2।।

 

एक ब्राह्मण देवविधिसे सदा शिवजीकी पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थके ज्ञाता थे। वे शम्भुके उपासक थे, पर श्रीहरिकी निन्दा करनेवाले न थे।।2।।

 

राम चरित मानस अवधि भाषा में लिखा गया हैं – प्राकृत भाषा, लोक भाषा,

तुलसीदासजी ने राम कथा महादेव भाषा में लिखी हैं।

राम कथा के अनादि कवि शंकर हैं।

कई साधु सात्विक साधु, रजो गुणी साधु जो यज्ञ जैसे कार्य करते रहते हैं – कई न कई आयोजन करते रहते हैं,

पोतानामाम्थी फोटामां …………..

भाजी, भेंस और ---- को पानी बहुत गमता हैं।

तमो गुणी खडा नहीं होता हैं और रजो गुणी बैठता नहीं हैं।

 

त्रिगुणातीत फिरत तनु त्यागी, रीत जगत से न्यारी...जगत ३

 ब्रह्मानंद कहे संत की सोबत, मिलत हैं प्रगट मुरारी...जगत ४

 संत परम हितकारी, जगत मांही...ध्रुव

 प्रभुपद प्रगट करावत प्रीति, भरम मिटावत भारी...जगत १

परमकृपालु सकल जीवन पर, हरिसम सब दुःखहारी ...जगत २

त्रिगुणातीत फिरत तनु त्यागी, रीत जगत से न्यारी...जगत ३

 ब्रह्मानंद कहे संत की सोबत, मिलत हैं प्रगट मुरारी...जगत ४


साधु वह हैं जिसका जीवन सादगी से भरा हो, वेष, आहार, विचार, वर्तन वगेरे सादगीपूर्ण हैं, जिसका जीवन जगत के सन्मुख जैसा हैं वैसा दिखाई दे,

જેનું જીવન સાદુ. જેનું જીવન સામુ, જેનું જીવન નખ શીશ સાચું, જેનું જીવન સારુ, જેનું  જીવન શાનું – પંજાબી ભાષામાં શાનું નો અર્થ પોતાનું એવો થાય છે, જેનું જીવન બધાને પોતાનું લાગે તે સાધુ છે, જે બધાને પોતાનો લાગે તે સાધુ છે. જેનું જીવન નિષ્કપટ, જેનું જીવન સાગુ – જેનો આહાર યુક્તાહાર – આહાર સીધું સાદુ હોય તે સાધુ છે. સાધુનું જીવન અભંગ હોય છે.

जेनुं जीवन सादु, जेनुं जीवन सामु, जेनुं जीवन नख शीश साचु, जेनुं जीवन सारु, जेनुं जीवन शानु-पंजाबीमां शानुं नो अर्थ पोतानुं थाय छे- जेनुं जीवन बधाने पोतानुं लागे छे ते साधु छे, जे बधाने पोतानो लागे ते साधु छे.

 

प्रणाम सब को करना चाहिये लेकिन सब तरफ पहचान करनेके बाद उसका पैर पकडने चाहिये।

सच्चा संन्यासी किसी बात सुनता नहीं हैं – बहरा मुंगा की तरह रहता हैं, बेकार बाते सुनता नहीं हैं।

 

मो सम कौन कुटिल खल कामी।

जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥

भरि भरि उदर विषय कों धावौं, जैसे सूकर ग्रामी।

हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की निसदिन करत गुलामी॥

पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पतितन में नामी।

सूर, पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥

 

षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥

अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥

 

वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्‌, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥

 

तब  किछु  कीन्ह  राम  रुख  जानी।  अब  कुचालि  करि  होइहि  हानी।

सुनु  सुरेस  रघुनाथ  सुभाऊ।  निज  अपराध  रिसाहिं    काऊ॥2॥


उस  समय  (पिछली  बार)  तो  श्री  रामचंद्रजी  का  रुख  जानकर  कुछ  किया  था,  परन्तु  इस  समय  कुचाल  करने  से  हानि  ही  होगी।  हे  देवराज!  श्री  रघुनाथजी  का  स्वभाव  सुनो,  वे  अपने  प्रति  किए  हुए  अपराध  से  कभी  रुष्ट  नहीं  होते॥2॥


  जो  अपराधु  भगत  कर  करई।  राम  रोष  पावक  सो  जरई॥

लोकहुँ  बेद  बिदित  इतिहासा।  यह  महिमा  जानहिं  दुरबासा॥3॥


पर  जो  कोई  उनके  भक्त  का  अपराध  करता  है,  वह  श्री  राम  की  क्रोधाग्नि  में  जल  जाता  है।  लोक  और  वेद  दोनों  में  इतिहास  (कथा)  प्रसिद्ध  है।  इस  महिमा  को  दुर्वासाजी  जानते  हैं॥3॥


  भरत  सरिस  को  राम  सनेही।  जगु  जप  राम  रामु  जप  जेही॥4॥


सारा  जगत्‌  श्री  राम  को  जपता  है,  वे  श्री  रामजी  जिनको  जपते  हैं,  उन  भरतजी  के  समान  श्री  रामचंद्रजी  का  प्रेमी  कौन  होगा?॥4॥ 

दोहा  :


  मनहुँ    आनिअ  अमरपति  रघुबर  भगत  अकाजु।

अजसु  लोक  परलोक  दुख  दिन  दिन  सोक  समाजु॥218॥


हे  देवराज!  रघुकुलश्रेष्ठ  श्री  रामचंद्रजी  के  भक्त  का  काम  बिगाड़ने  की  बात  मन  में  भी    लाइए।  ऐसा  करने  से  लोक  में  अपयश  और  परलोक  में  दुःख  होगा  और  शोक  का  सामान  दिनोंदिन  बढ़ता  ही  चला  जाएगा॥218॥ 

चौपाई  :


  सुनु  सुरेस  उपदेसु  हमारा।  रामहि  सेवकु  परम  पिआरा॥

मानत  सुखु  सेवक  सेवकाईं।  सेवक  बैर  बैरु  अधिकाईं॥1॥


हे  देवराज!  हमारा  उपदेश  सुनो।  श्री  रामजी  को  अपना  सेवक  परम  प्रिय  है।  वे  अपने  सेवक  की  सेवा  से  सुख  मानते  हैं  और  सेवक  के  साथ  वैर  करने  से  बड़ा  भारी  वैर  मानते  हैं॥1॥


  जद्यपि  सम  नहिं  राग    रोषू।  गहहिं    पाप  पूनु  गुन  दोषू॥

करम  प्रधान  बिस्व  करि  राखा।  जो  जस  करइ  सो  तस  फलु  चाखा॥2॥


यद्यपि  वे  सम  हैं-  उनमें    राग  है,    रोष  है  और    वे  किसी  का  पाप-पुण्य  और  गुण-दोष  ही  ग्रहण  करते  हैं।  उन्होंने  विश्व  में  कर्म  को  ही  प्रधान  कर  रखा  है।  जो  जैसा  करता  है,  वह  वैसा  ही  फल  भोगता  है॥2॥

साधु किसीका अपराध माफ कर देता हैं लेकिन  अस्तित्व ऐसा अपराध माफ नहीं करता हैं।

संत में सत्य – सत की प्रधानता ज्यादा होती हैं, भक्त में प्रेम की विशेषता रहती हैं, भक्त पूजा, पाठ, स्मरण नहीं करता हैं सिर्फ प्रेम हि करता हैं, जन – सज्जन – वैष्णवजन - में करुणता की प्रधानता होती हैं, साधु में सत्य, प्रेम और करुणता तीनो की प्रधानता होती हैं। यह रामायण की प्रस्थानतयी हैं ….. नगीनदास संघवी

गुरु कभी शिष्य से दूर नहीं होता हैं।

 

रामहि  केवल  प्रेमु  पिआरा।  जानि  लेउ  जो  जान  निहारा॥

राम  सकल  बनचर  तब  तोषे।  कहि  मृदु  बचन  प्रेम  परिपोषे॥1॥

 

श्री  रामचन्द्रजी  को  केवल  प्रेम  प्यारा  है,  जो  जानने  वाला  हो  (जानना  चाहता  हो),  वह  जान  ले।  तब  श्री  रामचन्द्रजी  ने  प्रेम  से  परिपुष्ट  हुए  (प्रेमपूर्ण)  कोमल  वचन  कहकर  उन  सब  वन  में  विचरण  करने  वाले  लोगों  को  संतुष्ट  किया॥1॥ 

पहली उंगली संत हैं जो ईशारा करती हैं, संकेत करती हैं, ईसीलिये हम पहली उंगली हि बच्चा पकडता हैं, संत की उंगली पकड लेंगे तो उद्धार हो जायेगा, दूसरी उंगली भक्त हैं, जो असंग रहती हैं – भक्त असंग रहता हैं, ्भक्त जगत के बीच रहते हुए परम तत्व से जुडा रहता हैं, अनामिका उंगली दास हैं जो पूजा, अर्चना करती हैं, यह उंगली सिर्फ परम तत्व हमें याद करता हैं कि नहीं यही चाहता हैं, छेल्ली ऊंगली – जो सब से छोटी हैं, सेवक हओं जो सदा सेवकाई करती हैं – भगवान यहीं उंगली से गोवर्धन पर्वत ऊठाते हैं, अंगुठा साधु हैं, आत्मा का माप अंगुष्ठ समान हैं।

भगवान के चरण की हि पूजा होती हैं। मुख का तो हम दर्शन करते हैं। चरण का हि प्रक्षालन होता हैं।

जो कभी भी ईश्वर से विभक्त न रहे वह भक्त हैं … पांडुरंग दादा

 

निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।

सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।

रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।

काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।

 

रघुवंश के भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं ? भरतजी के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े [और मन में विचारने लगे कि] जो चराचर के स्वामी हैं वे श्रीरघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों ?

 

भरत  सरिस  प्रिय  को  जग  माहीं।  इहइ  सगुन  फलु  दूसर  नाहीं॥

रामहि  बंधु  सोच  दिन  राती।  अंडन्हि  कमठ  हृदय  जेहि  भाँती॥4॥

 

और  भरत  के  समान  जगत  में  (हमें)  कौन  प्यारा  है!  शकुन  का  बस,  यही  फल  है,  दूसरा  नहीं।  श्री  रामचन्द्रजी  को  (अपने)  भाई  भरत  का  दिन-रात  ऐसा  सोच  रहता  है  जैसा  कछुए  का  हृदय  अंडों  में  रहता  है॥4॥

भगवान राम भरत को याद करते हैं, भरत नाम का जाप करते हैं।

ईश्वर कृपा से हि ईश्वर दर्शन हो शकता हैं।

 

लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥

यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥


और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥

 

सोइ  जानइ  जेहि  देहु  जनाई।  जानत  तुम्हहि  तुम्हइ  होइ  जाई॥

तुम्हरिहि  कृपाँ  तुम्हहि  रघुनंदन।  जानहिं  भगत  भगत  उर  चंदन॥2॥

वही  आपको  जानता  है,  जिसे  आप  जना  देते  हैं  और  जानते  ही  वह  आपका  ही  स्वरूप  बन  जाता  है।  हे  रघुनंदन!  हे  भक्तों  के  हृदय  को  शीतल  करने  वाले  चंदन!  आपकी  ही  कृपा  से  भक्त  आपको  जान  पाते  हैं॥2॥

 

प्रम मार्ग में प्यास को हि तृप्ति मानी जाती हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

स्मरण, गायन और श्रवण यहीं सत्य, प्रेम और करुणा हैं।

 

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

 

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

 

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

खुद की खोज करो, समाज की सेवा करो और परमात्मा से प्यार करें – भजन करें।

 

9

Sunday, 05/12/2021

नंदीगांव

आश्रित की आंख में आंसु कहां से आते हैं?

अपने बुद्ध पुरुष का तीव्र वियोग, अत्यंत विहवला आने से- होने से आश्रित की आंखो में आंसु आते हैं।

अश्रु हमारे मद और अहंकार को क्रमशः कम करते हैं।

महापुरुष के मिलन का अकल्पित योग मिल जाने पर साधक की आंखो में अश्रु आते हैं।

साधु में सब – महापुरुष, सदगुरु -समाहित हैं

जब कभी अपने बुद्ध पुरुष का साधक से जाने अनजाने में अपराध हो गया हो और उस अपराध का जब साधक को पता लगता हैं तब उस की आंखो में अश्रु आते हैं।

हमारी पात्रता अपात्रता देखे बिना जब बुद्ध पुरुष हमें कोई सेवा का मौका दे दे तब साधक की आंखो में अश्रु आते हैं।

यह चार आश्रित के आंसु के केन्द्र बिंदु हैं।

जब अपना बुद्ध पुरुष हमें दांटे तब हमें उत्सव मनाना चाहिये, क्योंकि जब बुद्ध पुरुष हमें अपना समजता हैं तब हि वह हमें दांटता हैं। ऐसे समय भी साधक की आंख में अश्रु आते हैं।

लक्ष्मी भी साधु की सेवा नहीं कर शकती हैं।

शुन्यता हि साधु का वैभव हैं,

सब मम प्रिय सब मम उपजाये ………….

सब मम प्रिय सब मम अपनाये …………

भरत चरित्र से क्या शीख लेनी चाहिये?

भरत चरित्र से स्वयं की खोज करे, समाज की सेवा निरंतर करे, परमात्मा से प्रेम करे, यह तीन शीख हैं।

 

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

 

इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

पादुका  अष्टकम्‌ ………..

 

राजधरम  सरबसु  एतनोई।  जिमि  मन  माहँ  मनोरथ  गोई॥

बंधु  प्रबोधु  कीन्ह  बहु  भाँती।  बिनु  अधार  मन  तोषु    साँती॥1॥

 

राजधर्म  का  सर्वस्व  (सार)  भी  इतना  ही  है।  जैसे  मन  के  भीतर  मनोरथ  छिपा  रहता  है।  श्री  रघुनाथजी  ने  भाई  भरत  को  बहुत  प्रकार  से  समझाया,  परन्तु  कोई  अवलम्बन  पाए  बिना  उनके  मन  में    संतोष  हुआ,    शान्ति॥1॥

 

भरत  सील  गुर  सचिव  समाजू।  सकुच  सनेह  बिबस  रघुराजू॥

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2॥

 

इधर  तो  भरतजी  का  शील  (प्रेम)  और  उधर  गुरुजनों,  मंत्रियों  तथा  समाज  की  उपस्थिति!  यह  देखकर  श्री  रघुनाथजी  संकोच  तथा  स्नेह  के  विशेष  वशीभूत  हो  गए  (अर्थात  भरतजी  के  प्रेमवश  उन्हें  पाँवरी  देना  चाहते  हैं,  किन्तु  साथ  ही  गुरु  आदि  का  संकोच  भी  होता  है।)  आखिर  (भरतजी  के  प्रेमवश)  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कृपा  कर  खड़ाऊँ  दे  दीं  और  भरतजी  ने  उन्हें  आदरपूर्वक  सिर  पर  धारण  कर  लिया॥2॥

पहले शब्द की महिमा जाननी चाहिये बाद में शब्द की मर्यादा जाननी चाहिये और आखिर में शब्द से भी मुक्ति होनी चाहिये ……………….. आदि शंकर

जाने बिना ईश्वर कैसे माने और अगर जान लिया तो वह ईश्वर कैसे हो शकता है? ईश्वर जाना नहीं जाता।

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

 

हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।

 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।

 

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।।2।।

 

तुषाराद्रि संकाश गौरं गमीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। तसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।

 

जो हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, जिसके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।।3।।

 

चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।

मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।

 

जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।

 

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।

 

प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथमें त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।5।।

 

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।

चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद पसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।

 

कलाओं से परे, कल्याण, स्वरुप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरनेवाले, मनको मथ डालनेवाले कामदेव के शत्रु हे प्रभो ! प्रसन्न हूजिये प्रसन्न हूजिये।।6।।

 

न यावद् उमानाथ पादारविन्द। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।

 

जबतक पार्वती के पति आपके चरणकमलों से मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हूजिये।।7।।

 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

 

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।

 

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।9।।

 

भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिये ब्राह्मणद्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं, उनपर भगवान् शम्भु प्रसन्न हो जाते हैं।।9।।

शब्द ब्रह्म हैं।

शिखर पर पहुंचने के बाद अपना नाम भी बोज लगता हैं।

ईश्वर को खुश करना आसान हैं लेकिन यह जगत को खुश करना मुश्किल हैं।

उपवास करने के बाद हि उसके नकदिक वास मिलता हैं।

सीता ने पुत्रो ………………

 

चरनपीठ  करुनानिधान  के।  जनु  जुग  जामिक  प्रजा  प्रान  के॥

संपुट  भरत  सनेह  रतन  के।  आखर  जुग  जनु  जीव  जतन  के॥3॥

 

करुणानिधान  श्री  रामचंद्रजी  के  दोनों  ख़ड़ाऊँ  प्रजा  के  प्राणों  की  रक्षा  के  लिए  मानो  दो  पहरेदार  हैं।  भरतजी  के  प्रेमरूपी  रत्न  के  लिए  मानो  डिब्बा  है  और  जीव  के  साधन  के  लिए  मानो  राम-नाम  के  दो  अक्षर  हैं॥3॥

 

कुल  कपाट  कर  कुसल  करम  के।  बिमल  नयन  सेवा  सुधरम  के॥

भरत  मुदित  अवलंब  लहे  तें।  अस  सुख  जस  सिय  रामु  रहे  तें॥4॥

 

रघुकुल  (की  रक्षा)  के  लिए  दो  किवाड़  हैं।  कुशल  (श्रेष्ठ)  कर्म  करने  के  लिए  दो  हाथ  की  भाँति  (सहायक)  हैं  और  सेवा  रूपी  श्रेष्ठ  धर्म  के  सुझाने  के  लिए  निर्मल  नेत्र  हैं।  भरतजी  इस  अवलंब  के  मिल  जाने  से  परम  आनंदित  हैं।  उन्हें  ऐसा  ही  सुख  हुआ,  जैसा  श्री  सीता-रामजी  के  रहने  से  होता  है॥4॥

 

प्राण बल होना चाहिये और उससे स्नेह होना चाहिये, बाद में हरिनाम भी होना चाहिये, कूल की मर्यादा भी होनी चाहिये।

सेवा करने के लिये निर्मल – विमल नेत्र होने चाहिये।

एक पादुका सीता हैं और दूसरी पादुका राम हैं।

 

राम  मातु  गुर  पद  सिरु  नाई।  प्रभु  पद  पीठ  रजायसु  पाई॥

नंदिगाँव  करि  परन  कुटीरा।  कीन्ह  निवासु  धरम  धुर  धीरा॥1॥

 

फिर  श्री  रामजी  की  माता  कौसल्याजी  और  गुरुजी  के  चरणों  में  सिर  नवाकर  और  प्रभु  की  चरणपादुकाओं  की  आज्ञा  पाकर  धर्म  की  धुरी  धारण  करने  में  धीर  भरतजी  ने  नन्दिग्राम  में  पर्णकुटी  बनाकर  उसी  में  निवास  किया॥1॥

 

तेहिं  पुर  बसत  भरत  बिनु  रागा।  चंचरीक  जिमि  चंपक  बागा॥

रमा  बिलासु  राम  अनुरागी।  तजत  बमन  जिमि  जन  बड़भागी॥4॥

 

उसी  अयोध्यापुरी  में  भरतजी  अनासक्त  होकर  इस  प्रकार  निवास  कर  रहे  हैं,  जैसे  चम्पा  के  बाग  में  भौंरा।  श्री  रामचन्द्रजी  के  प्रेमी  बड़भागी  पुरुष  लक्ष्मी  के  विलास  (भोगैश्वर्य)  को  वमन  की  भाँति  त्याग  देते  हैं  (फिर  उसकी  ओर  ताकते  भी  नहीं)॥4॥

 

सिय  राम  प्रेम  पियूष  पूरन  होत  जनमु    भरत  को।

मुनि  मन  अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

श्री  सीतारामजी  के  प्रेमरूपी  अमृत  से  परिपूर्ण  भरतजी  का  जन्म  यदि    होता,  तो  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  यम,  नियम,  शम,  दम  आदि  कठिन  व्रतों  का  आचरण  कौन  करता?  दुःख,  संताप,  दरिद्रता,  दम्भ  आदि  दोषों  को  अपने  सुयश  के  बहाने  कौन  हरण  करता?  तथा  कलिकाल  में  तुलसीदास  जैसे  शठों  को  हठपूर्वक  कौन  श्री  रामजी  के  सम्मुख  करता?

 

भरत  चरित  करि  नेमु  तुलसी  जो  सादर  सुनहिं।

सीय  राम  पद  पेमु  अवसि  होइ  भव  रस  बिरति॥326॥

 

तुलसीदासजी  कहते  हैं-  जो  कोई  भरतजी  के  चरित्र  को  नियम  से  आदरपूर्वक  सुनेंगे,  उनको  अवश्य  ही  श्रीसीतारामजी  के  चरणों  में  प्रेम  होगा  और  सांसारिक  विषय  रस  से  वैराग्य  होगा॥326॥

 

इति  श्रीमद्रामचरितमानसे  सकलकलिकलुषविध्वंसने  द्वितीयः  सोपानः  समाप्तः।  कलियुग  के  सम्पूर्ण  पापों  को  विध्वंस  करने  वाले  श्री  रामचरित  मानस  का  यह  दूसरा  सोपान  समाप्त  हुआ॥ 

 

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