રામ કથા - 918
માનસ પરમહંસ
બેલુર મઠ
શનિવાર, તારીખ 03/06/2023 થી
રવિવાર, તારીખ 11/06/2023
વિષય પંક્તિ
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता।
मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा।
जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
1
Saturday, 03/06/2023
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस
तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
हे तात! गुरु रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता
इस दृश्य प्रपंच
(जगत्) को रचता है, परन्तु
भरत ने सूर्यवंश
रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष का विभाग कर दिया (दोनों
को अलग-अलग कर दिया)॥3॥
व्यक्तिमे
तेज अपनी मा की ओर से आता हाइं, बलपने पिता की ओर से आता हैं और विद्या अपने गुर कॉ
ओर से आती हैं।
मोक्ष
के द्वार पर चर द्वारपाल – शम (शांति), विचार (आत्म विचार, संतोष और साधुसंग होते हैं।
साधुसंग
शांति, आत्म विचार और संतोष देता हैं।
शम
बिचार संतोष
आदि
शंकर तीन वस्तु को दुर्लभ बताते हैं जिसमें साधुसंग एक हैं।
गुरु
शिष्य की चिंता करता हैण और शिष्य अपने गुर का चिंतन करता हैं।
जिसके श्वास निंद्रामें तेज चलते हैं उसकी आयु कम
होती हैं।
सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल
प्रभु
आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार
किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
देवताओं का सम्मान (पूजन)
और मुनियों की वंदना करके श्री रामचंद्रजी
बैठ गए और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है, बहुत से पक्षी और पशु व्याकुल
होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदासजी
कहते हैं कि प्रभु श्री रामचंद्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है? वे चित्त में आश्चर्ययुक्त हो गए। उसी समय कोल-भीलों
ने आकर सब समाचार कहे।
सुनत सुमंगल
बैन मन प्रमोद
तन पुलक भर।
सरद सरोरुह
नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही श्री रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली
छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं
से भर गए॥226॥
प्रेम
परम सत्य हैं।
प्रेम
के समान पून्य नहीं हैं और नफरत के समान कोई पाप नहीं हैं।
2
Sunday, 04/06/2023
ठाकुर,
मा और स्वामी विवेकानंद आध्यत्म जगत का एक त्रिकोण हैं, त्रिपदी हैं, तोहाई हैं।
ठाकुर
सत्य हैं, स्वामीजी प्रेम हौं और मा करुणा हैं। प्रेम सदैव अजर अमर और युवान होता हैं।
राम
विग्रहवान स्त्य हैं।
ईश्वर
ज्ञान गम्य हैं और भाव गम्य भी हैं।
जो सामर्थवान होते हुए समभाव रखे वह परमहंस हैं।
आंतर
बाह्य समृद्धि – संपति होते हुए किसी की निंदा न करे वह परमहंस हैं।
जैसे
हिरा पर मिट्टि लग जाने से हिरा छिप शकता हैं वैसे मूल्यवान चीज भी नासमज के कारण छिप
शकती हैं।
अंधकार,
मिट्टि और बादल भी कुछ क्षण तक सूर्य को छिपा शकते हैं।
महापुरुष
और परम तत्व कौतुक करते हैं।
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी।
जनित बियोगबिपति सब नासी।।
प्रेमातुर सब लोग निहारी।
कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।2।।
प्रभुको
देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोगसे उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गये। सब लोगों को
प्रेमविह्लय [और मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर] देखकर खरके शत्रु कृपालु श्रीरामजीने एक
चमत्कार किया।।2।।
अमित रूप प्रगटे तेहि काला।
जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी।
किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।
उसी
समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गये और सबसे [एक ही साथ] यथायोग्य
मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियों को शोकसे रहित कर दिया।।3।।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि
तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न
त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
।।4.5।।
श्रीभगवान् बोले -- हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन
सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।
छ अपराध बंध करनेसे हम गुरु के सन्मुख हो शकते हैं।
यह छ अपराध निम मुजब हैं।
1
किसी
देवता के हाथ में जो शस्त्र हैं उस शस्त्र की निंदा न करना।
2
किसी
भी धर्म शास्त्र का अपराध न करना।
3
कोई
भी साधके गुरु मंत्र का अपराध न करना।
4
किसिके
सूत्रका अपराध न करना।
5
किसी
साधना पद्ध्तिका अपमान न करना।
6
कोई
साधक की साधना मार्गका अपमान न करना।
हंस
और खटाई दूध पानी को अलग कर देता हैं, जहां
हंस निष्कपट हैं और खटाई कपटी हैं।
शुकदेव
परमहंस हैं।
जडभरत
परमहंस हैं।
योगनंदजी
परमहंस हैं।
मानस
के बालकांडमें भगवान महादेव परमहंस हैं।
तप,
दया और दान यह तीन साधन सत्य की खोज के साधन हैं।
तप
से निष्कामता मिलती हैं।
परमहंस
के १० लक्षण हैं।
यह
१० लक्षण भगवान शंकर और ठाकुर में दिखते हैं।
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी।
सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना।
उदासीन सब संसय छीना॥4॥
हे
पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन
लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)॥4॥
जोगी जटिल अकाम मन नगन
अमंगल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि
परी हस्त असि रेख॥67॥
योगी,
जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में
ऐसी ही रेखा पड़ी है॥67॥
1
अगुन
– गुणातित
नमामीशमीशान
निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं
ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं
निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
2
अमान
– अहम शून्य
अभिमान
और स्वाभिमान अलग हैं।
3
मातुपितु
हिना – अजन्मा, अमित रुप लेने की क्षमता, सर्वरुपता
बुद्ध पुरुष
अपने आश्रितकी पात्रता के मुताबिक रुप लेता हैं।
4
उदासीन
रहना – राह द्वेष से विमुक्त रहना
भगवान शंकर
विहार करते हैं।
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं
कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥
शिव-पार्वती
विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए
विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥
भगवान
शिव भक्ति के दाता हैं।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान
होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा
प्रसंग में प्रेम॥4॥
दोहा
:
गुर पद पंकज सेवा तीसरि
भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ
कपट तजि गान॥35॥
तीसरी
भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर
मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः
स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्
॥
5
संशय
हिना – कोई संशय न करना
6
जोगी
– अलक्ष लिंग, परम योगी, योगेश्वर
7
जटिल
– भगवान शंकरकी जटामें श्रींगार और प्रेम दोनो हैं, गंगा भक्ति हैं, चंद्र रसिकताका
– श्रींगारका प्रतीक हैं।
8
अकाम
– पूर्ण काम हैं जिसमें कोई वधघट नहीं होती हैं।
9
नग्न
रहना
कुंद इंदु दर गौर सरीरा।
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥
उनके सिर
पर जटाओं का मुकुट और गंगाजी (शोभायमान) थीं। कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका नील
कंठ था और वे सुंदरता के भंडार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित था॥106॥
10
अमंगल
वेश – जहां मंगल और अमंगलका भेद समाप्त हो जाता हैं।
श्रद्धा
के तीन प्रकर हैं, शास्त्रीय श्रद्धा, अपनी साधना श्रद्धा और गुरु दत्त श्रद्धा।
3
Monday, 05/06/2023
मानस
में हंस शब्द २३ बार आया हैं।
परम
साधु परमहंस हैं।
स्वामी
विवेकानंद्जी हंस हैं, ठाकुर परमहंस हैं और मा परम हंसिनि जीव्हा हैं।
महाकाल
के मंदिर में भगवान शंकर परमहंस हैं, परम साधु भी परमहंस हैं और भुषुंडीमें परमहंस
बननेकी संभावना हैं।
श्रोता
प्रमाणिक होना चाहिये।
साकार
और निराकारका सेत्तु कौन हैं?
विचार
निराकार हैं और यह निराकार विचार जब उच्चार में आता हैं तब साकार हो जाता हैं।
जैसे
गर्भमें मृत बालकको तुरंत निकाल देते हैं उसी तरह जो विचार चरितार्थ न हो उसे तुरंत
निकाल देना चाहिये।
विचार
और उच्चारमें हरिनाम सेतु हैं।
विवेकानंद
विचार विवेक हैं, ठाकुर विचार हैं और मा रस हंसिनि हैं।
तृष्णा
आध्यात्मिक यात्रामें बाधा हैं, ज्ञानकी तृष्णा भी आध्यात्मिक यात्रामें बाधा हैं।
अयोध्याकांडमें
परहंस राजर्षि जनक हैं।
वंदना
प्रकरणमें तुलसीदासजी कहते हैं …………..
प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई।
राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥
मैं
परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम
था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते
ही वह प्रकट हो गया॥1॥
जनक
के पास दो परमहंस हैं - शुकदेवजी और अष्टावक्र।
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेत
कृत्यं द्वैपायनो विरह कातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु:
तं सर्वभूतह्र्दयं मुनिमानतोस्मि॥
आधि,
व्याधि, उपाधि, चैतसिक के बाद समाधि आती हैं।
बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े
भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को
भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर
भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।
परमहंस
अद्भूत, अनुभूत और अवधूत होता हैं।
रुद्र
परमहंस भगवान शंकर हैं और भद्र परमहंस जनकजी हैं।
4
Tuesday, 06/06/2023
मा
शारदा भक्ति योग हैं, स्वामी विवेकानंद कर्म
योग हैम और परमहंस ठाकुर ज्ञान योग हैं।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य
वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
उठो,
जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् मनीषी
जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे
के पैना किये गये धार पर चलना ।
जानकी
भक्ति योग हैं, सुनयना कर्म योग हैं और जनक राजा ज्ञान योग हाइं।
जनक
परमहंस हैं।
हंस
का रंग दो प्रकार के हैं – सफेद और पीला।
जड
समाधि, सहज समाधि और भाव समाधि
परमारथ
स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि
राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥4॥
(श्री रामचन्द्रजी
के प्रति अनन्य प्रेम को छोड़कर) भरतजी ने समस्त परमार्थ, स्वार्थ
और सुखों की ओर स्वप्न
मं भी मन से भी नहीं ताका है। श्री रामजी के चरणों का प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि
है। मुझे तो भरतजी का बस, यही एक मात्र सिद्धांत जान पड़ता है॥4॥
हमें
किसका भजन करना चाहिये? भजनीय कौन हैं?
इस
का जवाब तुलसीदासजी राम राज्य की स्थापना के बाद प्रजाजनोसे मुख से बताते हैं।
रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।
स्वयं
लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है ? अणिमा आदि
आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-सम्पत्तियाँ अयोध्यामें छा रही हैं।।29।।
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परस्पर
इहइ सिखावहिं।।
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप
गुन धामहि।।1।।
लोग
जहाँ-तहाँ श्रीरघुनाथजी के गुण गाते हैं और बैठकर एक दूसरे को यही सीख देते हैं कि
शरणागतका पालन करने वाले श्रीरामजी को भजो; शोभा, शील, रूप और गुणोंके धाम श्रीरघुनाथजी
को भजो।।1।।
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक
त्रातहि।।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि
रनधीरहि।।2।।
कमलनयन
और साँवले शरीरवाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्र की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार अपने
सेवकों की रक्षा करनेवालेको भजो। सुन्दर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले को भजो। संतरूपी
कमलवनके [खिलानेके] लिये सूर्यरूप रणधीर श्रीरामजी को भजो।।2।।
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता
जहि।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन
सुखदातहि।।3।।
कालरूपी
भयानक सर्पके भक्षण करनेवाले श्रीरामरूप गरुड़जीको भजो। निष्कामभावसे प्रणाम करते ही
ममताका नाश करनेवाले श्रीरामरूप किरातको भजो। कामदेवरूपी हाथी के लिये सिंहरूप तथा
सेवकोंको सुख देनेवाले श्रीरामजीको भजो।।3।।
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन
कृसानुहि।।
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव
भीरहि।।4।।
संशय
और शोकरूपी घने अन्ककार के नाश करनेवाले श्रीरामरूप सूर्यको भजो। राक्षसरूपी घने वनको
जलाने वाले श्रीरामरूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्युके भय को नाश करनेवाले श्रीजानकीजीसमेत
श्रीरघुवीर को क्यों नहीं भजते ?।।4।।
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अजद अबिनासिहि।।
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि
उदारहि।।5।।
बहुत-सी
वासनाओं रूपी मच्छरोंको नाश करनेवाले श्रीरामरूप हिमराशि (बर्फके ढेर) को भजो। नित्य
एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्रीरघुनाथजीको भजो। मुनियोंको आनन्द देनेवाले, पृथ्वी का
भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्रीरामजीको भजो।।5।।
जो
शएअणागतका पालन करता है, जिस में शोभा - आभा, शील, रुप, गुन हैं उसे भजो।
आभा
तपस्यासे आती हैं।
शील
सदैव मन को आकर्षित करता हैं, रुप नेत्र को आकर्षित करता हैं, और गुण बुद्धि को आकर्षित
करता हैं।
जिस
की आंख में वासाना न हो लेकिन उपासना हो उसे भजना चाहिये। जिस की आंख के कोने में करुणा
के अश्रु हो उसे भजना चाहिये।
जैसे
पापण आंख के गोले की रक्षा करती हैं उसी तरह जो आश्रित की रक्षा करे उसे भजना चाहिये।
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी
है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ
विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
संशय
वर्तमान में होता हैं, शोक भूतकाल का होता हैं और चिंता भविष्य की होती हैं।
5
Wednesday, 07/06/2023
जो
पूर्णतः श्रोता हैं वह सिर्फ श्रवण हि करता हैं ओर कोई भी काम नहीं करता हैं। श्रोता
श्रोता हि होना चाहोये।
श्रोता सुमति सुसील सुचि
कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा पति गोप्यमपि सज्जन
करहिं प्रकास।।69ख।।
हे
उमा ! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर
सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को प्रकट कर देते हैं।।69(ख)।।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु
माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥
मैं
तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते
हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥
तृष्णा
के प्रकार – धन की तृष्णा, पुत्र की तृष्णा, वितेषणा, लोकेषणा
जब
ईर्षा, द्वेष, निंदा छूट जाय वहीं भजन हैं।
परमहंस
के १२ लक्षण हैं, वैसे तो उसके अनंत लक्षण हैं।
तुलसीदासजी
भी लिखते हैं कि ……
कहि सक न सारद सेष नारद
सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने
भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि
ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ
जे हरि रँग रँए॥
'शेष
और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु
कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान् के चरणों
में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष
धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण
एको मुक्तश्चिदक्रियः ।
असंगो निःस्पृहः शान्तो
भ्रमात्संसारवानिव ॥ १-१२॥
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं
परिभावय ।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा
भावं बाह्यमथान्तरम् ॥ १-१३॥
जीवात्मा
के बंध और मोक्ष पारमार्थिक हैं इस तार्किक की शंका को दूर करने के निमित्त कहते हैं
कि, अज्ञान से देह को आत्मा माना है तिस कारण वह संसारी प्रतीत होता है परंतु वास्तव
में आत्मा संसारी नहीं है, क्योंकि आत्मा तो साक्षी है और अहंकारादि अंत:करण के धर्म
को जाननेवाला है और विभु अर्थात् नाना प्रकार का संसार जिस से उत्पन्न हुआ है, सर्व
का अनुष्ठान है, संपूर्ण व्यापक है, एक अर्थात् स्वगतादिक तीन भेदों से रहित है, मुक्त
अर्थात् माया का कार्य जो संसार तिस के बंधन से रहित, चैतन्यरूप, अक्रिय, असंग, निस्पृह
अर्थात् विषय की इच्छा से रहित है और शान्त अर्थात् प्रवृत्तिनिवृत्तिरहित है इस कारण
वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है ॥ १२॥
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं
परिभावय ।
अभासोहंभ्रमंमुक्त्वाभावंबाह्यमथांतरम्
॥ १३ ॥
मैं
देहरूप हूं, स्त्री पुत्रादिक मेरे हैं, मैं सुखी हूं, दुःखी हूं यह अनादि काल का अज्ञान
एक बार आत्मज्ञान के उपदेश से निवृत्त नहीं हो सकता है। व्यासजीने भी कहा है “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्”
“श्रोतव्यमंतव्य” ॥ इत्यादि श्रुति के विषय में बारंबार
उपदेश किया है, इस कारण श्रवण मननादि बारंबार करने चाहिये, इस प्रमाण के अनुप्तार अष्टावकमुनि
उत्सित वासनाओं का त्याग करते हुए बारंबार अद्वैत भावना का उपदेश करते हैं कि, मैं
अहंकार नहीं हूं, मैं देह नहीं हूं, स्त्रीपुत्रादिक मेरे नहीं हैं, मैं सुखी नहीं
हूं, दुःखी नहीं हूं, मूढ नहीं हूं इन बाह्य और अंतर को भावनाओं का त्याग कर के कूटस्थ
अर्थात् निर्विकार बोधरूप अद्वैत आत्मस्वरूप का विचार कर ॥१३॥
आत्म
साक्षी – जब आत्मा हि साक्षी बन जाय तब समजलो कि परमहंसी अवतरी हैं।
हमारे
पास बुद्ध पुरुष की तस्वीर होती हैं और बुद्ध पुरुष के पास हमारी तकदीर होती हैं।
बुद्ध
पुरुष – परमहंस विभूति नहीं हैं लेकिन विभु हि हैं। विभु का अंत नहीं होता हैं।
परमहंस
पूर्ण होता हैं, शून्य हि पूर्ण हैं।
परमहंस
पूर्ण हैं और शून्य – रिक्त भी हैं।
परमहंस
क्रिया करते हुए क्रिया से बाहर हैं, अक्रिय हैं।
6
Thursday, 08/06/2023
गरुड़ महाग्यनी गुन रासी।
हरि सेवक अति निकट निवासी।
तेहिं केहि हेतु काग सन
जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।2।।
गरुड़जी
तो महानज्ञानी, सद्गुणोंकी राशि श्रीहरिके सेवक और उनके अत्यन्त निकट रहनेवाले (उनके
वाहन ही) हैं। उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी
?।।2।।
श्रोता को वक्ता की और वक्ताको श्रोता की खोज होनी
चाहिये।
वक्ता
को श्रोता को मूढ समजकर बोलना नहीं चाहिये।
श्रद्धा
तीन पेअकारकी होती हैं।
१
शास्त्र
से जन्मी श्रद्धा
२
संग
श्रद्धा – साधुसंग से जन्मी श्रद्ध, संग से जन्मी श्रद्धा
३
आत्मजा
श्रद्धा – जि आत्मा से प्रगट होती हैं।
जिसका
मौन बोलता हैं एसे वक्ता को सुनना चाहिये।
श्रोताको
फ्री रखना चाहिये, उस पर कोई बंधन नहीं रखना चाहिये। कथा जिसका व्यसन हो एसे वक्ताको
सुनना चाहिये।
कलिमल हरनि विषय रस फीकी
सुभग सिंगार मुक्ती जुवती की।
अवधूत
के लक्षण ,,,,,,,,,
१
जो
सबसे प्रेम करता हैं वह परम अवधूत हैं।
मम माया संभव संसारा। जीव
चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।2।।
यह
सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। [इसमें] अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी
मुझे प्रिय हैं; क्यों कि सभी मेरे उत्पन्न किये हुए हैं। [किन्तु] मनुष्य मुझको सबसे
अधिक अच्छ लगते हैं।।2।।
परम
प्रेम में मन, बुद्धि, चित, अहंकार का लय हो जाता हैं।
शिष्य
प्रेम करता हैं, गुरु परम प्रेम करता हैं।
२
जिसको
देखने से हम ब्र्ह्म को भी भूल जाय वह परम ब्रह्म हैं, परम रस हैं।
३
जहां
अवधूत बैठता हैं वह परम धाम बन जाता हैं।
४
जिस
में प्रम पावित्र्य हो वह अवधूत हैं।
५
जो
परम सत्य में जी रहा हैं वह परमहंस हैं, अवधूत हैं।
६
जो
परम गति प्रदान करे वह अवधुत हैं।
७
जो
परम करुणा करे वह अवधूत हैं।
८
जो
परम अर्थ प्रदान करे वह अवधूत हैं।
९
जो
परम विश्राम प्रदान करे वह अवधूत हैं।
१०
जो
परम शांति प्रदान करे वह अवधूत हैं।
रुप
कृष्ण का, नाम राम का, धाम कैलाश और लीला अपने बुद्ध पुरुष की होती हैं।
7
Friday, 09/06/2023
मिलन
में परितृप्ति होती हैं, और विरह में परिशुद्धि होती हैं।
कथा
समज में न आये लेकिन अगर कथा में आनंद आता हैं तो वह पर्याप्त हैं।
अगर
कथा समज में आ जाय तो उस में अहंकार पेदा होने का खतरा हैम।
जब
हरिनाम जपते जपते आंख में अश्रु आ जाय तो वह भक्ति योग हैं।
चार
सनतकुमार जो ब्रह्मापुत्र हैं वह परमहंस हैं।
शरीर
पंच तत्व का विकार हैं, जब कि आत्मा शुद्ध हैं।
अनुग्रह
की श्रद्धा किसी महापुरुष से मिलती हैं।
मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा
बिलोकनि सोच बिमोचन।।
नील तामरस स्याम काम अरि।
हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।1।।
कृपापूर्वक
देख लेनेमात्र से शोक के छुड़ानेवाले हे कमलनयन ! मेरी ओर देखिये (मुझपर भी कृपादृष्टि
कीजिये) हे हरि ! आप नीलकमल के समान श्यामवर्ण और कामदेवके शत्रु महादेवजीके हृदयकमल
के मकरन्द (प्रेम-रस) के पान करनेवाले भ्रमर हैं।।1।।
नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं
ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।
हे
गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके
नचाये] नाचते हैं। ब्रह्माणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर
कुत्सित दान लेते हैं।।1।।
प्रेम
के छ लक्षण हैं जो नारद बताते हैं।
देवर्षि
नारद द्वारा रचित भक्ति-सूत्र –
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण
वर्धमानविच्छिन्नं सुक्ष्मतरमनुभवरुपं।
अर्थात्
यह प्रेम गुणरहित है, कामना रहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता , विच्छेदरहित है, सुक्ष्म
से भी सुक्ष्मतर है और अनुभव रुप है। विस्तार में कहें तो स्वयम को प्रभु मेँ समर्पित
करने की उत्तकण्ठ आकांक्षा होना चाहिये। प्रेम तो गुणरहित होता है इसमेँ कामना का कोई
स्थान नहीँ है, क्योंकि कामना तो पूरी होते ही समाप्त हो जाती है परंतु प्रेम तो प्रतिक्षण
बढ़ता है। इसमेँ विघटन संभव नहीँ है। विघटन तो वहाँ होता है जहाँ अपेक्षाएँ होती हैँ।
अपेक्षारहित प्रेम, समर्पित भक्त व प्रेम पूर्ण भगवान जब मिलते हैँ तो उनमेँ प्रेम
प्रतिक्षण बढ़ता है। इसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है।
सदगुर ग्यान बिराग जोग
के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम
के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥
ज्ञान,
वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं
के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने
के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥
शबरी
परमहंसिनि हैं।
भागवत
अंतरगत परमहंस के लक्षण ………
जडभरत…..
१ जडभरत का प्राण बल पृष्ट हैं। किसी की कामना
न रहना प्राण पृष्ट हैं।
प्राण
को भूख और प्यास लगती हैं, यह उस का स्वभाव हैं। शब को भूख प्यास नहिं लगती हैं।
देह
का धर्म जन्म और मृत्यु हैं।
मनका
धर्म शोक और मोह हैं।
२ बुद्ध पुरुष कभी भी नाराज नहीं होता हैं।
३ बुद्ध पुरुष कोई भी स्थितिमें शांत रहता
हैं।
४ बुद्ध पुरुष प्रत्येक क्रिया का साक्षी बनता
हैं।
५ परमहंस किसीके प्रति दुर्भाव नहीं रखता हैं।
६ परमहंस किसीका भी भोज प्रसन्नता से उठाता
हैं।
७ परमहंस परम ज्ञानी होते हुए कभी कभी मूढ
की तरह वर्तता हैं।
८ परमहंस जो क्रोध करे उसे भी बोध देता हैं।
९ परमहंस आदि मध्य और अंत में परमतत्व हि हैं
एसा समजता हैं।
१० परमहम्स में सब कुछ होते हुए कोई परम तत्व
को महदपाद समजता हैं।
११ परहंस गुरु रज की महिमा जानता हैं।
१२ परमहंस संसारमें सबसे मिलता झुलता हैं लेकिन
वह उत्तम श्लोकका संवाद करता हैं।
8
Saturday, 10/06/2023
सद्गुरु
चुंबक हैं और आश्रित लोहा हैं।
और
एक स्थिति ऐसी आती हैं जब करुना महसुस होने के बाद आश्रित चुंबक बन जाता हैं और सद्गुरु
खीचा आता हैं। यह तब संभव हैं जब आश्रित एक हि जगह शरणागत होता हैं।
सत्य,
प्रेम करुणा कालातित हैं, असीम हैं।
अवधूत,
सद्गुरु और परमहंस की एक हि श्रेणी हैं।
ग्रंथ
को स्मजने के बाद उस ग्रंथ को छोडकर निर्ग्रंथ सदगुरु के पास जाना चाहिये।
कच्चा
ज्ञान डूबा देता हैं, कच्चा ज्ञान बोज हैं, पक्का ज्ञान तार देता हैं, पक्का ज्ञान
मौज हैं।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं
मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना
प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
।।7.4
-- 7.5।। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये
पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति
है। हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान,
जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
।।7.4।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त
हुई मेरी प्रकृति है।।
यह
परमहम्स के ईशारे हैं।
हमारे
शरीर में पंच महाभुत हैं वही पंच महाभूत परमहंस के शरीर भी हैं, लेकिन परमहंस के शरीर
के पंचामहाभूत अलग प्रकार के हैं।
पृथ्वी
तत्व जैसा धैर्य और सहनशीलता परमहंस के शरीर में हैं।
जल
तत्व रस हैं, परमहंस के शरीर में यह जल तत्व महारास हैं।
परमहंस
के शरीर में अग्नि तत्व योग की, प्रज्ञा की, अनुभूति की असह्य ज्ञानाग्नि हैं, मस्ती
हैं।
चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत
राजा॥3॥
आपकी देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य
पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त,
त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय
आदि) सब विकारों
से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी
पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतों के कार्य के लिए (दिव्य)
नर शरीर धारण किया है और प्राकृत
(प्रकृति के तत्वों
से निर्मित देह वाले, साधारण)
राजाओं की तरह से कहते और करते हैं॥3॥
परमहंस
के वायु तत्व में एक नुरानी – अनोखी सुगंध होती हैं।
परमहंस
का मन उसके आधिन हो जाता हैं।
परमहंस
के लिये वायु सेवक बन जाता हैं।
परमहंस
का खल – आकाश चिदाकाश होता हैं, जहां प्रकृति को प्रवेश नहीं हैं, सिर्फ परमेश्वरको
हि प्रवेश हैं।
परहंस
के पास मन होता हि नहीं हैं, परमहंस अमना होता हैं। मन कभी कभी अतिथि के रुप में आता
हैं।
परमहंस
की बुद्धि प्रज्ञा हैं। जब कि मनुष्य की बुद्धि संज्ञा होती हैं।
परमहंस
का अहंकार ठाकुराकार होता हैं।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।
सब
रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं।
काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।
प्रीति करहिं जौं तीनउ
भाई। उपजई सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना।।16।।
प्रीति
कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जायँ) दुःखदायक सन्निपात
रोग उत्पन्नय होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होनेवाले जो विषयोंके मनोरथ हैं,
वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) है; उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)।।16।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ।
दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्णा उदरबुद्धि अति भारी।
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।18।।
अहंकार
अत्यन्त दुःख देनेवाला डमरू (गाँठका) रोग है। दम्भ, कपट मद, और मान नहरुआ (नसोंका)
रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदरवृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान)
की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजोरी हैं।।18।।
प्रेमी
की मूर्ति बन शकती हैं, लेकिन प्रेम की मूर्ति नहीं बन शकती हैं।
प्रकृति
परमहंस के पास आते हि परमेश्वर बन जाती हैं।
9
Sunday, 11/06/2023
राम
चरित मानस स्वयं परमहंस हैं।
आधार
से जो प्रतिपाद किया जाय वह असीम नहीं हो शाकता हैं।
हंस
के तीन गुण हैं।
१
हंस
जलचर हैं।
२
हंस
जलचर होते हुए कभी कभी सरोवर के तट पर आ जाता हैं औए कुच समा के लिये स्थलचर हो जाता
हैं।
३
हंस
पंख होने के कारण उडान भरता हैं।
परमहंस
महारस का जीव हैं।
परमहंस
करुणाकर हमारे लिये पृथ्वी पर आ जाता हैं।
परमहंस
उडान भर कर नभचर भी हो जाता हैं।
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।
सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।
कीन्हिहु प्रस्न जगत् हित लागी॥
जो
तुमने रघुनाथ की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत् को पवित्र
करने वाली गंगा के समान है। तुमने जगत् के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम रघुनाथ
के चरणों में प्रेम रखनेवाली हो।
आकाश
असंग हैं और मौन भी हैं।
परमहंस
मौन रहता हैं।
आकाश
गुणातित हैं।
मानस
गगन सद्रुश्य हैं।
आकाश
श्रर्वण का विषय नहीं हैं, स्पर्श का विषय नहिं हैं लेकिन सिर्फ दर्शन का विषय हैं।
वकतव्यमें
प्रताप सत्य हैं, प्रभाव प्रेम हैं और प्रसाद करुणा हैं।
मानस में १६ कला हैं और १६ लोक उसकी आरती करते हैं।
हरिकथा
परमहंस हैं।
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