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Saturday, March 11, 2023

માનસ સદ્‌ગુરુ - 913

 

રામ કથા – 913

માનસ સદ્‌ગુરુ

આનંદપુર, મધ્ય પ્રદેશ

શનિવાર, તારીખ  11/03/2023  થી રવિવાર, તારીખ 19/03/2023

केन्द्रिय विचार

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो।

सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।

करनधार सद्गुर दृढ़ नावा।

दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।

 

1

Saurday, 11/03/2023

 

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।

करनधार सद्गुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।

 

यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं,।।4।।

 

 

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥

मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

 

इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥1॥

 

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

 

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

राम चरित मानस में सद्‌गुरु शब्द ४ बार आया हैं जो चारवस्तु तरफ निर्देश करता हैं।

यह चार शब्द चार वेद की ओर संकेत हैं। और सद्‍गुरु चारेय युग में हैं।

मानस का संवाद चार घाट पर चल रहा हैं और यह चार घाट पर एक एक सद्‍गुरु बैठा हैं।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में सदगुरु आवश्यक हैं।

चार अवस्था – जागृत, स्वपन्न, सुषुप्ति और समाधि में सदगुरु आवश्यक हैं।

चार प्रकार के श्रोता – जिज्ञासु, आर्त, ज्ञानी और अर्थाथी – को गुरु की आवश्यकाअ हैं।

सद्‍गुरु को कोई भी पहचान नहीं शकता हैं, और स्वयं सद्‍गुरु भी स्वयं को जान नहीं शकता हैं।

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।

पूजा और सेवा में क्या फर्क हैं।

पूजा देवता की होती हैं और पूजा के लिये कुछ साधन चाहिये जब कि सेवा सद्‍गुरु की होती हैं और ऐसी सेवा के

 

लिये किसी की कृपा चाहिये।


 

2

Sunday, 12/03/2023

गुरु की कई श्रेणी हैं।

a.      कूल गुरु

b.     धर्म गुरु

c.      सदगुरु

d.     मंत्र गुरु 

e.      त्रिभुवन गुरु

f.       जगद गुरु

आज कल गुगल गुरु भी हैं।

अनाधिकारी के पास शास्त्र भी शस्त्र बन जाते हैं और अधिकारी के पास शस्त्र भी शास्त्र बन जाते हैं।

लडाई दो धर्मो के बीच नहीं होती हैं लेकिन लडाई दो अधर्मो के बीच होती हैं।

 

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥

 

वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥

 

तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥

 

उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥

सदगुर शब्द ४ बार नीम्न मुजब हैं।

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥

जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

 

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।

करनधार सद्गुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।

 

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।

 

यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।

भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।

सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥17॥

 

(वर्षा ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥17॥

 

सदगुरु के लक्षण

सदगुरु अपने आश्रित को स्वातंत्र देता हैं, पराधीन नही बनाता हैं। वह अपने आश्रित के उपर अपना मंत्र जबरदस्ती नहिं देता हैं।

सदगुरु अपने आश्रित का संशय दूर करता हैं, अपने आश्रित को अरसिक नहीं बनाता हैं।

 

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥

हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

 

शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥

What is difference between “I like you” and “I love you”?

“I like you” में व्यक्ति तोडता हैं, जैसे अच्छे गुलाब के फूल को तोडना

“I love you” में व्यक्ति सिंचन करता हैं जैसे अच्छे गुलाब के पौंधे को पानी सींचना

मानस में मुनि

याज्ञ्यवल्क मुनि

भरद्वाज मुनि

विश्वामित्र मुनि

वशिष्टमुनि

अत्रि मुनि

अगस्त मुनि

लोमस मुनि

गुरु परब्रह्म हैं।

जिसमें मैत्री, मुदिता (मुस्कराना), करुणा और उपेक्षा हैं वह बुद्ध पुरुष हैं।

बुद्ध पुरुष तीन की उपेक्षा करता हैं,

द्वेष की उपेक्षा करना – द्वेष न करना

ईर्षा की उपेक्षा करना – ईर्षा न करना

निंदा की उपेक्षा करना – परस्पर निंदा न करना

सदगुरु आश्रित की बुद्धि को व्यभिचारिणी नहीं बनने देता हैं।

ज्ञानी की वृत्ति और प्रेमी की स्मृति अखंड होती हैं।

याज्ञवल्क्य मुनि के पास मुस्कान हैं - मुदिता हैं।

 

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥

जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥

 

हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कुराकर बोले, श्री रघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो॥1॥

 

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

 

भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं॥1॥  



7

Friday, 17/03/2023

 

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥

 

यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥

 

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥

 

जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥2॥

 

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥

 

गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है॥3॥

 

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥

(मुनि ने कहा-) हे राजन्‌! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥5॥

विश्वामित्र अपने को अनाथ कहते हैं, ज्ञानी व्यक्ति भी कभी कभी अपने को अनाथ समजते हैं।

दीन क्प निजपद मिलता हैं।

राम जगदगुरु हैं।

सुकर्म – जप, यज्ञ, दान, तप, क्रोध न करना वगेरे सुकर्म हैं।

सुकर्म करते आश्रित को सहाय करने के लिये सदगुरु पैदल चलकर अपना स्वरुप निभाते हैं।

यह बुद्ध पुरुष का स्वधर्म हैं।

विश्वामित्र के पास शस्त्र, शास्त्र, साधन, कठिन साधना, संकल्प बल, मंत्र – विचार हैं लेकिन उनका यज्ञ जब राम – सत्य और लक्ष्मण – त्याग – समर्पण आते हैं तब पुरा होता हैं।

विकर्म – अहल्या में विकर्म हैं।

हमें जिस में पूर्ण निष्ठा हैं उन में शंका करना विकर्म हैं
 सदगुरु विकर्म करने वाले को भी सहाय करता हैं। और यह सदगुरु का स्वधर्म हैं।

सदगुरु विकर्म को करनेवाले को भी सहाय करता हैं। और यह उसका स्वधर्म हैं। सदगुरु विकर्म को खत्म कर देता हैं।

आश्रित को विकर्म से कैसे दूर करना बुद्ध पुरुष जानता हैं।

अहल्या ईन्द्र और गौतम को पहचान न शकी वह अहल्या का विकर्म था।

कर्म

केवल कर्म में फल होता हैं।

बुद्ध पुरुष आश्रित के कर्म फल को खा जाता हैं और आश्रित को कर्म फल से बचाता हैं।

कुकर्म – बुद्धि पूर्वक किया गया – षडयंत्र से किया गया बुरा काम कुकर्म हैं।

सदगुरु हमारे कुकर्म को भूल जाता हैं, जो उसका स्वभाव हैं।

सदगुरु हमारे उपर किया गया उपकार भी भूल जाता हैं।

सदगुरु हमें अकर्मी बना देता हैं।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

 

।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

 

।।18.66।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

 

 

 

8

Saturday, 18/03/2023

पादूका प्राण हैं।

बापु के सदगुरु भगवान के मानस के स्भी कांड में किस की चर्चा अव्श्य करनी चाहिये वह बताया था।

अरण्यकांड में राम गीता और शबरी का महत्व हैं और उसकी चर्चा अव्श्य करनी चाहिये।

किष्किन्धाकांड में ॠतु वर्णन – वसंत और शरद – का वर्णन अवश्य करना चाहिये।

सीता परा भक्ति हैं।

 

अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2

 

जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ॥2

आध्यात्म की यात्रा सुख की यात्रा नहीं हैं लेकिन सत्य की यात्रा हैं। सर्वदा सुख हि सत्य हैं।

 

धरमु  न  दूसर  सत्य  समाना।  आगम  निगम  पुरान  बखाना॥

मैं  सोइ  धरमु  सुलभ  करि  पावा।  तजें  तिहूँ  पुर  अपजसु  छावा॥3॥

 

वेद,  शास्त्र  और  पुराणों  में  कहा  गया  है  कि  सत्य  के  समान  दूसरा  धर्म  नहीं  है।  मैंने  उस  धर्म  को  सहज  ही  पा  लिया  है।  इस  (सत्य  रूपी  धर्म)  का  त्याग  करने  से  तीनों  लोकों  में  अपयश  छा  जाएगा॥3॥

धर्म का फल दुःख हि हैं। और यह हि सत्य की खोज का मार्ग हैं।

सुंदरकांड में हनुमंय चरित्र और त्रिजटा की चर्चा करनी चाहिये।

लंकाकांड में धर्म रथ का महत्व हैं।

किसी भी प्रकार की हिंसा से जिस का दिल दूभे वहीं हिन्दु हैं। ….. विनोबा भावे

उत्तरकांड में भुषुडी चरित्र और गरुड के सात प्रश्नो की चर्चा अवश्य करनी चाहिये।

 

भरत  सील  गुर  सचिव  समाजू।  सकुच  सनेह  बिबस  रघुराजू॥

प्रभु  करि  कृपा  पाँवरीं  दीन्हीं।  सादर  भरत  सीस  धरि  लीन्हीं॥2

 

इधर  तो  भरतजी  का  शील  (प्रेमऔर  उधर  गुरुजनोंमंत्रियों  तथा  समाज  की  उपस्थितियह  देखकर  श्री  रघुनाथजी  संकोच  तथा  स्नेह  के  विशेष  वशीभूत  हो  गए  (अर्थात  भरतजी  के  प्रेमवश  उन्हें  पाँवरी  देना  चाहते  हैंकिन्तु  साथ  ही  गुरु  आदि  का  संकोच  भी  होता  है।आखिर  (भरतजी  के  प्रेमवशप्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  ने  कृपा  कर  खड़ाऊँ  दे  दीं  और  भरतजी  ने  उन्हें  आदरपूर्वक  सिर  पर  धारण  कर  लिया॥2

 

चरनपीठ  करुनानिधान  के।  जनु  जुग  जामिक  प्रजा  प्रान  के॥

संपुट  भरत  सनेह  रतन  के।  आखर  जुग  जनु  जीव  जतन  के॥3

 

करुणानिधान  श्री  रामचंद्रजी  के  दोनों  ख़ड़ाऊँ  प्रजा  के  प्राणों  की  रक्षा  के  लिए  मानो  दो  पहरेदार  हैं।  भरतजी  के  प्रेमरूपी  रत्न  के  लिए  मानो  डिब्बा  है  और  जीव  के  साधन  के  लिए  मानो  राम-नाम  के  दो  अक्षर  हैं॥3

 

कुल  कपाट  कर  कुसल  करम  के।  बिमल  नयन  सेवा  सुधरम  के॥

भरत  मुदित  अवलंब  लहे  तें।  अस  सुख  जस  सिय  रामु  रहे  तें॥4

 

रघुकुल  (की  रक्षाके  लिए  दो  किवाड़  हैं।  कुशल  (श्रेष्ठकर्म  करने  के  लिए  दो  हाथ  की  भाँति  (सहायकहैं  और  सेवा  रूपी  श्रेष्ठ  धर्म  के  सुझाने  के  लिए  निर्मल  नेत्र  हैं।  भरतजी  इस  अवलंब  के  मिल  जाने  से  परम  आनंदित  हैं।  उन्हें  ऐसा  ही  सुख  हुआजैसा  श्री  सीता-रामजी  के  रहने  से  होता  है॥4

चरनपीठ वह स्थान हैं जहां श्रेष्ठ के चरन बीराजते हैं।

परम का स्वधाम पादूका हैं।

गुरु का स्वधाम गुरु की पादूका हैं।

पादूका का अर्थ …..

पा का मतलब पार कर देना, तार कर देना, उद्धार कर देना. कृतकृत्य कर देना हैं।

दू का मतलब दुःखो से पार कर देना हैं।

आत्म विस्मृति ज्ञानी का सबसे बडा दुःख है।

हरि स्मरण न करना भक्ति मार्ग का सब से बडा दुःख हैं।

का का मतलब कालसे पार कर देना, कालातित कर देना हैं।

गुरु में गु का मतलब गुणातित करना और रु का मतलब रुपान्तरित करना हैं – अनेक रुप र्पाय करना हैं।

 

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4

 

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4

 

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35

 

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35

 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1

 मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमंर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1

 

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥

आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2

 

सातवीं भक्ति है जगत्भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को देखना॥2

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष दीना॥

नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3

 

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-3

प्राप्य हि परयात्प हैं।

9

Sunday, 19/03/2023

 

गरुड के सात प्रश्न ……..

पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।

नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बिचारी।।2।।

 

पक्षिराज गरुड़जी फिर प्रेमसहित बोले-हे कृपालु ! यदि मुझपर आपका प्रेम है, तो हे नाथ ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखानकर कहिये।।1।।

 

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधारा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।

बड़ दुख कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।2।।

 

हे नाथ ! हे धीरबुद्धि ! पहले तो यह बताइये कि सबसे दुर्लभ कौन-सा शरीर है ? फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिये।।2।।

 

संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।

कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।3।।

 

संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिये। फिर कहिये कि श्रुतियोंमें प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन-सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है।।3।।

 

मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।

तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।4।।

 

फिर मानस रोगों को समझाकर कहिये। आप सर्वज्ञ हैं और मुझपर आपकी कृपा भी बहुत है [काकभुशुण्डिजीने कहा-] हे तात ! अत्यन्त आदर और प्रेमके साथ सुनिये। मैं यह नीति संक्षेप में कहता हूँ।।4।।

 

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।

नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।5।।

 

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य-शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देनेवाला है।।5।।

 

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।

काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं।।6।।

 

ऐसे मनुष्य-शरीरको धारण (प्राप्त) करके जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयोंमें अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदलेमें काँचके टुकड़े ले लेते हैं।।6।।

 

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।

पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।

 

जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।

 

ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।

पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।17।।

 

ममता दाद, और ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले की रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्टमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराये सुखको देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है । दुष्टता और मनकी कुटिलता ही कोढ़ है।।17।।

 

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।

तृस्णा उदरबुद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।18।।

 

अहंकार अत्यन्त दुःख देनेवाला डमरू (गाँठका) रोग है। दम्भ, कपट मद, और मान नहरुआ (नसोंका) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदरवृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजोरी हैं।।18।।

 

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।।19।।

 

मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ।।19।।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए साधि बहु ब्याधि।

 

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121क।।

 

एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे ?।।121(क)।।

 

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121ख।।

 

निमय, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों ओषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते।।121(ख)।।

 

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।

मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।।1।।

 

इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोगके दुःखसे और भी दुखी हो रहे हैं। मैंने ये थोड़े-से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाये हैं कोई विरले ही।।1।।

 

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।

विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।।2।।

 

प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिये जानेसे कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं; परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषयरूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदयों में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं।।2।।

 

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।

 

यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।

 

सद्‌गुरु में ५ वस्तु होती हैं।

१      चित – सदगुरु आश्रोत के चित को भटकने नहीं देता हैं, चित की एकाग्रता स्थापित करता हैं।

       २      वित – सदगुरु वित को विपरीत कर देता हैं।

३      गीत – सदगुरु के पास गीत होता हैं – गोपी गीत, वेणुं गीत, युगल गीत, गीता, रामायण वगेरे गाता हैं। गाने से और सुनने से रोमांच पेदा होता हैं, रुवांटे खडे होते हैं, दैवी ऊर्जा पेदा होती हैं।

४      मीत – मैत्री – गुरुकिसी कि भी उपेक्षा नहीं करता हैं, किसी से कोई भेद नहीं रखता हैं।

५      प्रीत

 

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