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Saturday, May 5, 2018

मानस सतसंग, માનસ સતસંગ

રામ કથા

માનસ સતસંગ

જમશેદપુર, ઝારખંડ


શનિવાર, તારીખ ૦૫-૦૫-૨૦૧૮ થી રવિવાર, તારીખ ૧૩-૦૫-૨૦૧૮

મુખ્ય પંક્તિઓ


सो जानब सतसंग प्रभाऊ। 

लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई। 

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

                                                               બાલકાંડ


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मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥

सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥



उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥


 बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥


सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥


*****





શનિવાર, ૦૫/૦૫/૨૦૧૮

રામ જીવન આપે છે જ્યારે કૃષ્ણ જીવનનો આનંદ આપે છે.

રામ સત્ય છે, કૃષ્ણ પ્રેમ છે અને શિવ - બુદ્ધ કરૂણા છે.


રામ ચરિત માનસ સદ્‌ગ્રંથ છે, રામ ચરિત માનસ સતસંગ છે.

આજના યુગમાં બુદ્ધિ નષ્ટ નથી થઈ,  વિકસિત થઈ છે  થઈ છે , પણ ભ્રષ્ટ જરૂર થઈ છે. જો કે તેમાં અપવાદ હોઈ શકે.

શાંતિ અને વિશ્રામ કોઈ સંત કે ફકિર જ આપી શકે.

વ્યાસ પીઠ એ એક ધર્મ રથ છે જેનો સારથિ ધર્મ ગ્રંથ છે, સદ્‌ ગ્રંથ છે.



રવિવાર, ૦૬/૦૫/૨૦૧૮



बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥2॥


मैं कौशल्या रूपी पूर्व दिशा की वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है॥2॥



अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥

धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥


अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी॥4॥



बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥


बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥



ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥



ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥



बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥

अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥


हे तात! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है॥4॥


सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥


श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥24॥


दसकंधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।।

पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना।।3।।

तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर मायासीता का हरण और श्रीरघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया।।3।।


गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

મનથી સતસંગ શબરી કરે છે.


મંત્રથી પણ સતસંગ થાય છે.

બિભીષણ મંત્રથી સતસંગ કરે છે.

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना। लंकेश्वर भये सब जग जाना॥



મંગળવાર, ૦૮/૦૫/૨૦૧૮

तुलसी भल बरतरु बढ़त निज मूलहिं अनुकुल ।


सबहि भाँति सब कहँ सुखद दलनि फलनि बिनु फूल ॥


                                                                                                                गोस्वामी तुलसीदास कृत दोहावली 





  • સદ્‌ શિષ્‍ય પાસે બેસવુ તે સત સંગનો એક ભાગઃ પૂ. મોરારીબાપુ 

  •  ઓશોનું એક સરસ વિધાન છે કે, અનુભુતિ એ પણ સહજ યોગ જ છે. 

  • ગંગાસતી મીરાં એ પણ સતસંગને રસ કહ્યો છે. 

  • આપણે ભારતીયોએ રૂપ અને રંગને વિશેષ મહત્‍વ નથી આપ્‍યું  પણ રસ અને મહેક-ખુશ્‍બુને આપણે વિશેષ મહત્તા આપી છે. 

  • સતસંગ રસ અને મહેક છે. કોઇપણ વાદ્ય એના કલાકારની આંગળીઓથી ઝંકૃત થાય છે.
  • પરમાત્‍મા નો ઓલરેડી આપણને પ્રાપ્ત-મળેલા છે જ. 

  • સાધનથી ચિત્ત શુધ્‍ધિ થાય છે, એને કારણે પ્રાપ્ત- અંદર બેઠેલો- પરમાત્‍મા અનુભવાશે. 

  • ભગવાન બુધ્‍ધ કહેતા કે - ‘અપ્‍પ દીપોભવઃ' 

  • કોઇ સદ્‌ ગુરુ વગર ‘અપ્‍પ દીપોભવઃ' શકય નથી. 



(149) 

भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर। 
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग भुजंगबर।। 

मुंडमाल , बिधु बाल भाल, डमरू कपालु कर। 
बिबुधबृंद-नवककुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर।

 त्रिपुरारि त्रिलेाचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन। 
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव संकर सरन।।

(150) 

गरल -असन दिगबसन ब्यसन भंजन जनरंजन। 
कुंद-इंदु-कर्पूर-गौर सच्चिदानंदघन।। 

बिकटबेष, उर सेष , सीस सुरसरित सहज सुचि। 
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रूचि।ं 

कंदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुन भवन हर। 
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर।।


(151)

अरध अंग अंगना, नामु जोगीसु, जोगपति। 
बिषम असन, दिगबसन, नाम बिस्वेसु बिस्वगति।। 

कर कपाल, सिर माल ब्याल, बिष -भूति-बिभूषन।
 नाम सुद्ध , अबिरूद्ध, अमर अनवद्य, अदूषन।। 

बिकराल-भूत-बेताल-प्रिय भीम नाम, भवभयदमन।
 सब बिधि समर्थ, महिमा अकथ, तुलसिदास-संसय-समन।।

(152)

भूतनाथ भय हरन भीम भय भवन भूमिधर।
 भानुमंत भगवंत भूतिभूषन भुजंगबर।। 

भब्य भावबल्लभ भवेस भव-भार-बिभंजन।
 भूरिभोग भैरव कुजोगगंजन जनरंजन।। 

भारती-बदन बिष-अदन सिव ससि-पतंग-पावक-नयन। 
कह तुलसिदास किन भजसि मन भद्रसदन मर्दनमयन।।

  

(153)

नागो फिरै कहै मागनो देखि ‘न खाँगो कछू’ ,जनि मागिये थोरो। 
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जीरो । 

नाक सँवारत आयो हौं नाकहि , नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
 ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो।।

(154)

बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
 भूत बेताल सखा, भव नामु दलै पलमें भवके भय गाढ़े।। 

तुलसीसु दरिद्र -सिरोमनि , सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
 भौन में भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े।।


 (155)

सीस बसै बरदा, बदरानि, चढ्यो बरदा, धरन्यो बरदा है। 
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं।। 

ब्यली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा है। 
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है।।

(156)

 दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारित्र तिहूँ पुरमें सिर टीको। 
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको।। 

ता बिनु आसको दास भयो ,कबहूँ न मिट्यो लघु लालचु जीको। 
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको।।


 
  (157)

जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है।
 पान कियो बिषु ,भूषन भो, करूनाबरूनालय साइँ-हियो है।। 

मेरोइ फोरिबे जोगु कपारू, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है। 
काहे न कान करौ बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है।।

(158) 

खायो कालकुटु भयो अजर अमर तनु, 
भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी। 

डमरू कपालु कर, भुषन कराल ब्याल,
 बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी।। 

तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति, 
मानो हिमगिरि चारू चाँदनी सरदकी। 

अर्थ-धर्म -काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें,
 कासी करामाति जोगी जागति मरदकी।।



 (159)

पिंगल जटाकलापु माथेपै पुनीत आपु,
 पावक नैना प्रताप भ्रूपर बरत है। 

लोयन बिसाल लाल ,सोहै भालचंद्र भाल, 
कंठ कालकूटु, ब्याल-भूषन धरत है।।

 संुदर दिगंबर , बिभूति गात, भाँग खात, 
रूरे सृंगी पूरें काल-कंटक हरत हैं। 

देत न अघात रीझि , जात पात आकहींकें,
 भोरानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं।।

(160) 

देत संपदासमेत श्रीनिकेत जाचकनि, 
भवन बिभूति-भाँग,बृषभ बहनु है। 

नाम बामदेव दाहिनो सदा असंग रंग, 
अद्ध अंग अंगना, अनंगको महनु है। 

तुलसी महेसको प्रभाव भावहीं सुगम,
 निगम-अगमहूको जानिबो गहनु है।

 भेष तौ भिखारिको भयंकररूप संकर , 
दयाल दीनबंध्ुा दानि दारिददहनु है।।


  (161)

चाहै न अनंग-अरि एकौ अंग मागनेको, 
देबोई पै जानिये, सुभावसिद्ध बानि सो। 


बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ, 
देत फल चारि , लेत सेवा साँची मानि सो।। 

तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथ को तौ,
 कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो। 

दारिद दमन दुख-दोष दाह दावानल , 
दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो।।

(162)

काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान, 
खोवत अपान,सठ! होत हठि प्रेत रे।। 

काहेको उपाय कोटि करत , मरत धाय,
 जाचक नरेस देस-देसके, अचेत रे।।

 तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु, 
धनहीके हेत दान देत कुरूखेत रे।। 

पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों, 
सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे।।



(163)

स्यंदन, गयंद,बाजिराज,भले भले भट,
धन-धाम -निकर करनिहूँ न पूजै क्वै। 

बनिता बिनीत, पूत पावन सोहावन , औ , 
बिनय, बिबेक,बिद्या सुभग सरीर ज्वै।ं 

इहाँ ऐसो सुख , परलोक सिवलोक ओक, 
जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै।

 जानंे , बिनु जानें, कै रिसानें , केलि कबहुँक,
 सिवहि चढ़ाइ ह्वैहैं बेलके पतौवा द्वै।।

(164) 

रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति,
 औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हा िर कै। 

संपदा -समाज देखि लाज सुरराजहूकें, 
सुख सब बिधि दीन्हें हैं, सवाँरि कै।। 

इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद, 
जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै। 

आकके पतौआ चारि, फूल कै धतूरेके द्वै, 
दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै।।




(165)

देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं, 
नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं । 

दीबे जोग तुलसी न लेत काहूके कछुक,
 लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हैां।।

 एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै, 
ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं।। 

पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि, 
कालकाला कासीनाथ कहें निबरत हौ।।

(166)

 चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो,
 हर! पइ तर आइ रह्यों सुरसरितीर हौं। 

बामदेव! रामको सुभाय -सील जानियत, 
नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं। 

अधिभूत बेदन बिषम होत,भूतनाथ , 
तुलसी बिकल, पाहि! पचत कुपीर हौं। 

 मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल, 
ज्याइये तौ कृपा करि निरूजसरीर हौं।।


(167) 

जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मेाहि, 
मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं। 

कामरिपु! श्रामके गुलामनिको कामतरू! 
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं। 

रोग भयो भूत-सेा, कुसूत भयो तुलसीको, 
भूतनाथद्व पाहि! पदपंकज गहतु हौं । 

ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ
 मारिये तौ मागी मीचु सूधियै कहतु हौं।।

(168)

भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
 आपनो समाज सिव आपु नीकें जानिये। 

नाना बेष, बाहन, बिभूषन , बसन,बास, 
खान-पान, बलि-पूजा बिधिको बखानिये।।

 रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब, 
सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये। 

तुलसीकी सुधरैं सुधारें भूतनाथहीके, 
मेरे माय बाप गुरू संकर-भवानिये।।




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