રામ કથા - 907
માનસ ગીતા
કુરુક્ષેત્ર, હરિયાણા
શનિવાર, તારીખ
19/11/2022 થી રવિવાર, તારીખ 27/11/2022
મુખ્ય ચોપાઈ
एक बार प्रभु सुख आसीना।
लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥
1
Saturday
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
एक बार प्रभु
श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे। उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे- हे
देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के स्वामी! मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर)
आपसे पूछता हूँ॥3॥
भगवान कृष्ण
वैश्विक हैं, कृष्णकी वाणी वैश्विक वाणी हैं।
गुरु गीता,
आध्यात्म गीता, आदि गीता, अनु गीता, उद्धव गीता, भ्गवदगीता वगेरे अनेक गीता हैं।
मानस स्वयं
गीता हैं, मानस भगवदगीता हैं।
गीता अनंत हैं।
विषाद सब के
जीवन में हैं।
विषाद हो तो
विवाद न करो लेकिन संवाद करो।
जब तक प्रसाद
अवतरीत न हो तब तक संवाद करो।
जब हम शोक मोह
में ग्रस्त हो जाय तब मैं तेरा हुं यही संकल्प करो और उसकी क्षमायाचना करो और बाद में वह जो कहे ऐसा
करना शरु करो।
जिस के पास
जगदगुरु – कृष्ण और त्रिभुवन गुरु – कपिध्वज – हो तो बेडा पार हो हि जाता हैं।
दरस परस मज्जन अरु पाना।
हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति।
कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥
वेद-पुराण कहते
हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी
ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥
कुरुक्षेत्र
सेव्य भूमि हैं।
गीता का आरंभ
संशय हैं, मध्य में समाधान हैं और अंतमें शरणागति हैं।
2
Sunday,
20/11/2022
एक कपिल गीता
हैं, अष्टावक्र गीता भी हैं।
मानस स्वयं
गीता हैं।
गीताके मूल
में कृष्ण अर्जुन संवाद हैं।
मानस में भी
चार आचार्योका संवाद हैं, भगवान शंकर और पार्वती, भरद्वाज और कुंभज, कागभुषुंडी और
गरुड, तुलसीदा और उनका मन।
जहां संवाद
होता हैं वह गीता हि हैं।
मानस में १८
स्थान पर संवाद हुआ हैं, यह १८ स्थान जहां गीता प्रगट हुसी हैं वह गीता के १८ अध्याय
हैं।
जब भगवान राम
शयन करते हैं तब उन्हे देखकर विषाद को विषाद हुआ हैं जो गीता का विषाद योग हैं।
विभीषण और रावण
को भी विषाद होता हैं।
मानस का अर्थ
ह्नदय हैं।
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥
तातें रामचरितमानस बर।
धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥
श्री महादेवजी
ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने
इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा॥6॥
भगवान योगेश्वर
कहते हैं कि गीता मेरा ह्नदय हैं।
दुर्योधनने
द्वेष द्रष्टि से भगवान का विराट रुप देखा जब कि अर्जुन ने दिव्य द्रष्टि से भगवान
के विराट रुप का दर्शन करता हैं।
दिव्य द्रष्टि
के दो प्राप्ति स्थान हैं – भगवद कृपा और गुरु चरन रज।
गुरु पद रज मृदु मंजुल
अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री गुरु महाराज
के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला
है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले
श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
राम गीता दक्षिण
दिशा में प्रगट हिई हैं जब कि भगवदगीता उत्तर दिशामें प्रगट हुई हैं।
राम गीता में
राम और रामानुज का संवाद हैं।
भगवदगीता में
शरणागति अंत में हैं जब कि राम गीता में शरणागति प्रारंभ में हैं।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं
शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
।।18.66।।सम्पूर्ण
धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त
कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
।।18.66।। सब
धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त
कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
वचन तो गुरु
मुख से हि नीकलता हैं।
भगवदगीता में
हो सब योग हैं वह रामायण में प्रयोग हैं। ……. स्वामी रामकिंकरजी महाराज
कुरुक्षेत्रका
युद्ध बुद्धत्व के लिये हुआ था।
जब संदेह, संशय
खत्म हो जाय तब बुद्धत्व प्राप्त होता हैं।
जब पूर्व जन्म
की स्मृति आये तब बुद्धत्व आता हैं।
दुखासन और सहजासन
अदभूत आसन हैं।
जब हम जानकी
की चाया में – भक्ति की छायामें – भजन की छाया में होते हैं तब कोई प्रश्न पेदा हि
नहीं होता हैं।
जग हम ज्ञान
की छाया में होते हैं तब प्रश्न पेदा होते हैं।
लक्ष्मण जब
राम से – ज्ञान से प्रश्न करता हैं तब वहां जानकी -भक्ति हाजर नहीं हैं।
भगवदगीता हि
विश्वगुरु हैं।
जब गीता का
प्रागट्य होता हैं तब दो विभूति – अर्जुन और हनुमान के बीच में बिभू – योगेश्वर मुखर
होता हैं।
हमें CONNECT
करने के बाद उसे CORRECT हुआ हैं कि नहीं वह
देखना हैं और बाद में उस में से कुछ COLLECT करना हैं।
FIRST PLAY
THEN PRAY
पूर्वापर सत्य
जाने बिना अपने निर्णय का अमल मत करो।
श्री भूपेन्द्रभाई
पंड्या के HALT लिये अर्थ …….
H – जब HUNGRY
तब निर्णय मत करो।
A – जब ANGRY
तब निर्णय मत करो।
L – जब LOLENY
तब निर्णय मत करो।
T – जब TIRED
तब निर्णय मत करो।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ
न कछु भय हानि कपीसा॥3॥
जो मनुष्य निर्मल
मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण
ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥
मृत्यु
ध्रुव हैं।
लक्ष्मण
के पांच प्रश्न ……..
माया किसको कहते हैं?
माया
क्या हैं?
गीता
और रामायण सिर्फ महाकाव्य हि नहीं हैं, महामंत्र हैं।
जो
चरन प्रिय हो, जो चरन शुभ हो– पवित्र हैं वह चरन सेव्य हैं।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे
समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत
सञ्जय।।1.1।।
।।1.1।।
सम्पूर्ण गीता में यही एक मात्र श्लोक अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा है। शेष सभी
श्लोक संजय के कहे हुए हैं जो धृतराष्ट्र को युद्ध के पूर्व की घटनाओं का वृत्तान्त
सुना रहा था।
निश्चय
ही अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र को अपने भतीजे पाण्डवों के साथ किये गये घोर अन्याय
का पूर्ण भान था। वह दोनों सेनाओं की तुलनात्मक शक्तियों से परिचित था। उसे अपने पुत्र
की विशाल सेना की सार्मथ्य पर पूर्ण विश्वास था। यह सब कुछ होते हुये भी मन ही मन उसे
अपने दुष्कर्मों के अपराध बोध से हृदय पर भार अनुभव हो रहा था और युद्ध के अन्तिम परिणाम
के सम्बन्ध में भी उसे संदेह था। कुरुक्षेत्र में क्या हुआ इसके विषय में वह संजय से
प्रश्न पूछता है। महर्षि वेदव्यास जी ने संजय को ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसके
द्वारा वह सम्पूर्ण युद्धभूमि में हो रही घटनाओं को देख और सुन सकता था।
जादु
का उलटा दुजा हैं।
सत्य
प्रगट करने के लिये सत्य बोलनार होना चाहिये, सत्य सुननार होना चाहिये और उसका एक साक्षी
होना चाहिये।
गीता
प्रागट्य दरम्यान कृष्ण सत्य बोलते हैं, अर्जुन सत्य सुनता हैं और हनुमान साक्षी बनकर
सत्य सुनते हैं।
3
Monday,
21/11/2022
4
Tuesday,
22/11/2022
5
Wednesday, 23/11/2022
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ।
पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
हे
प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी है। हे प्रभो! आप दण्डक वन
को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥8॥
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ।
पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
हे
प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी है। हे प्रभो! आप दण्डक वन
को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥8॥
बास करहु तहँ रघुकुल राया।
कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई।
तुरतहिं पंचबटी निअराई॥9॥
हे
रघुकुल के स्वामी! आप सब मुनियों पर दया करके वहीं निवास कीजिए। मुनि की आज्ञा पाकर
श्री रामचंद्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए॥9॥
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा।
सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया।
कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
हे
देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान,
वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥4॥
दोहा
:
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल
कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक
मोह भ्रम जाइ॥14॥
हे
प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो
और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥14॥
४
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा॥3॥
हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का
भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी
पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई।
जानि न जाइ राम प्रभुताई।।3।।
हे
पक्षिराज गरुड़ ! अब मैं आपसे अपना निज अनुभव कहता हूँ। [वह यह है कि] भगवान् के भजन
के बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षिराज ! सुनिये, श्रीरामजी की कृपा बिना श्रीरामजी
की प्रभुता नहीं जानी जाती।।3।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं
जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥
श्याम
और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं। विश्वामित्रजी को महान निधि प्राप्त हो गई।
(वे सोचने लगे-) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं। मेरे
लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया॥2॥
चले जात मुनि दीन्हि देखाई।
सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा।
दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥
मार्ग
में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। श्री
रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप)
दिया॥3॥