રામ કથા - 955
માનસ શ્રીનગર
શ્રીનગર, કાશ્મિર
શનિવાર, તારીખ 19/04/2025
થી રવિવાર, તારીખ 27/04/2025
મુખ્ય વિષયની પંક્તિઓ
सिंहासन अति उच्च मनोहर।
श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
1
Saturday,
19/04/2025
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता
पर॥2॥
विमान के चलते
समय बड़ा शोर
हो रहा है। सब कोई
श्री रघुवीर की
जय कह रहे हैं। विमान
में एक अत्यंत
ऊँचा मनोहर सिंहासन
है। उस पर सीताजी सहित
प्रभु श्री रामचंद्रजी
विराजमान हो गए॥2॥
प्रबिसि नगर कीजे सब
काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥
अयोध्यापुरी के राजा
श्री रघुनाथजी को
हृदय में रखे हुए नगर
में प्रवेश करके
सब काम कीजिए।
उसके लिए विष अमृत हो
जाता है, शत्रु
मित्रता करने लगते
हैं, समुद्र गाय
के खुर के बराबर हो
जाता है, अग्नि
में शीतलता आ
जाती है॥1॥
हर धर्ममें धंधे होते
हैं कुछ लोग हि गंदे
होते हैं …………. मजबुर साहब
રામ ચરિત માનસમાં
શ્રી શબ્દ ૧૮ વાર આવ્યો છે.
સત્ય એક છે પણ તેની
માત્રા ત્રણ છે, વ્યવહારિક સત્ય, આભાસી – પ્રાતિ ભૌતિક સત્ય અને પારર્માર્થિક સત્ય.
કોલસો અને હિરો
બંને કાર્બન છે. આ વ્યવહારિક તેમજ વૈજ્ઞાનિક સત્ય છે. કોલસાનો હાર ન પહેરાય અને હિરાને
સગડીમાં ન નંખાય.
વિષ્ણુદેવાનંદગિરિજી
મહારાજની આજે પૂણ્ય તિથિ છે (ચૈત્ર વદ – ૬).
આભાસી સત્ય – પ્રતિકાત્મક
સત્ય
રામ બલરામ ગેડી
દડો રમે છે તેથી કડાકા ભડાકા થાય છે. આને આભાસી - પ્રતિકાત્મક સત્ય કહેવાય. આકાશમાં
વિજળીના કડાકા થાય તેને ભગવાનના લગ્ન વખતે ફટાકડા ફૂટે છે તે આભાસી સત્ય છે. વરસાદ
પડે તે ભગવાનના લગ્નમાં જમણવાર પછી હાથ ધોવા માટે પડે છે તે આભાસી સત્ય છે.
રામ, કૃષ્ણ, શિવ,
દુર્ગા, હનુમાનજી, ગણેશ વગેરે પરમ સત્ય છે.
વક્ર ચંદ્રને પણ
ભગવાન શંકર ભાલમાં ધારણ કરે છે, વક્ર પણ જો આશ્ર્ય કરે તો તે ઊચ્ચ સ્થાન પામી શકે છે.
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
जो तुमने श्री
रघुनाथजी की कथा
का प्रसंग पूछा
है, जो कथा समस्त लोकों
के लिए जगत को पवित्र
करने वाली गंगाजी
के समान है।
तुमने जगत के कल्याण के
लिए ही प्रश्न
पूछे हैं। तुम
श्री रघुनाथजी के
चरणों में प्रेम
रखने वाली हो॥4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और
संहार करने वाली,
क्लेशों को हरने वाली तथा
सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री
रामचन्द्रजी की प्रियतमा
श्री सीताजी को
मैं नमस्कार करता
हूँ॥5॥
દૈવી શક્તિમાં ઉત્પતિ,
પાલન અને સંહાર કરવાની શક્તિ હોય છે.
શક્તિમાં ક્ષાત્ર
શક્તિ હોય છે જેથી દૈવી માતૃ શરીરના હાથમાં શસ્ત્ર ધારણ કરેલાં હોય છે.
આસુરી તત્વોને નિર્વાણ
આપવાની શક્તિ માતૃ શરીરમાં હોય છે.
દૈવી શક્તિ ઉદભવ,
પાલન અને લય કરે છે.
આંસુનો પ્રવાહ,
સંતાન માટે લોહી રેડી દેવાની શક્તિ, પરિવાર માટે પરસેવાથી લથપથ થવાની શક્તિ, પાલન માટે
દૂધની ધારા એ માતૃ શક્તિ કરી શકે, આ ચાર ફક્ત માતૃ શક્તિ જ કરી શકે છે.
રામ ચરિત માનસમાં
શ્રી શબ્દ આવતો હોય તેવી પંક્તિઓ
1
श्री गुर पद नख मनि
गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह
तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
2
जाना राम सतीं
दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर
पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥2॥
3
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज
बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥2॥
उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रों के समान था। वह रूप, तेज, बल और नीति का घर था। उसके विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाएँ॥ 2॥
4
हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय
बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु
बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और भाँवरें होने लगीं॥4॥
5
यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्॥1॥
जिनकी
गोद
में
हिमाचलसुता
पार्वतीजी,
मस्तक
पर
गंगाजी,
ललाट
पर
द्वितीया
का
चन्द्रमा,
कंठ
में
हलाहल
विष
और
वक्षःस्थल
पर
सर्पराज
शेषजी
सुशोभित
हैं,
वे
भस्म
से
विभूषित,
देवताओं
में
श्रेष्ठ,
सर्वेश्वर,
संहारकर्ता
(या
भक्तों
के
पापनाशक),
सर्वव्यापक,
कल्याण
रूप,
चन्द्रमा
के
समान
शुभ्रवर्ण
श्री
शंकरजी
सदा
मेरी
रक्षा
करें॥1॥
6
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
श्री
गुरुजी
के
चरण
कमलों
की
रज
से
अपने
मन
रूपी
दर्पण
को
साफ
करके
मैं
श्री
रघुनाथजी
के
उस
निर्मल
यश
का
वर्णन
करता
हूँ,
जो
चारों
फलों
को
(धर्म,
अर्थ,
काम,
मोक्ष
को)
देने
वाला
है।
7
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बड़ाई॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥2॥
उन्होंने
अपने
श्रीमुख
से
सीताजी,
लक्ष्मणजी
और
सखा
गुह
को
तीर्थराज
की
महिमा
कहकर
सुनाई।
तदनन्तर
प्रणाम
करके,
वन
और
बगीचों
को
देखते
हुए
और
बड़े
प्रेम
से
माहात्म्य
कहते
हुए-॥2॥
8
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं
वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥1॥
धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के (विकसित करने वाले) सूर्य, पाप रूपी घोर अंधकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि (क्रिया) में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज (आत्मज) तथा कलंकनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥
9
अब जानी
मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील
कस न अस होई॥4॥
अब मैंने लक्ष्मीजी की चतुराई समझी, जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आप ही को भजा। जिसके समान (सब बातों में) अत्यन्त बड़ा और कोई नहीं है, उसका शील भला, ऐसा क्यों न होगा?॥4॥
10
उभय बीच
श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच
माया जैसी॥
सरिता बन गिरि
अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
दोनों के बीच में श्री जानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामी को पहचानकर सुंदर रास्ता दे देते हैं॥2॥
11
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद
तनु स्याम।
मम हियँ
बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥8॥
हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए॥8॥
12
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥9॥
यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदय में निरंतर निवास करने वाले हैं, तथापि हे खरारि श्री रामजी! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए॥9॥
13
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
उन्हीं आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में (सदा) निवास कीजिए॥5॥
14
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटकु भयंकर॥
रहेहु सजग सुनि
प्रभु कै बानी।
चले सहित श्री सर धनु
पानी॥6॥
राक्षसों की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कंदरा में चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्री रामचंद्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित चले॥6॥
15
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप
श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ
मारे सकल निसिचर नायका॥3॥
अनगिनत राक्षस क्रोध करके बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक ही बार में श्री रघुवीर पर छोड़ने लगे। प्रभु ने पल भर में शत्रुओं के बाणों को काटकर, ललकारकर उन पर अपने बाण छोड़े। सब राक्षस सेनापतियों के हृदय में दस-दस बाण मारे॥3॥
16
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पंचबटीं बसि श्री
रघुनायक। करत चरित
सुर मुनि सुखदायक॥2॥
सीताजी श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं। इस प्रकार पंचवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र करने लगे॥2॥
17
श्री फल कनक
कदलि हरषाहीं। नेकु न संक
सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे
सकल पाइ जनु
राजू॥7॥
बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शंका और संकोच नहीं है। हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं)॥7॥
18
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि
भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥
श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं॥3॥
19
राम बिरोध कुसल जसि होई।
सो सब तोहि
सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद
होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥
श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, (भेद नीति
उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों॥5॥
20
गहसि न राम
चरन सठ जाई॥
सुनत फिरा मन अति
सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई।
मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥
अरे मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है॥2॥
21
उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥
(शिवजी कहते हैं-) हे उमा!
विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥94॥
22
धरि रूप
पावक पानि गहि श्री
सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम
बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा
भली।
नव नील
नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज
की कली॥2॥
तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत् में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान् को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचंद्रजी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो॥2॥
23
जोइ जोइ
मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि
डारि कपि देहीं॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥4॥
जिसके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम श्री रामजी, सीताजी और लक्ष्मणजी सहित हँसने लगे॥4॥
24
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु
कोई॥
सिंहासन अति उच्च
मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥
विमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई श्री रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी विराजमान हो गए॥2॥
25
यह कलिकाल मलायतन मन करि
देखु बिचार।
श्री रघुनाथ नाम तजि
नाहिन आन अधार॥121
ख॥
अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥121 (ख)॥
26
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन
चहत अब कोई।।
कौसल्या आदि सब माताओं के मन में ऐसा आनन्द हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आ गये।।
27
श्री सहित दिनकर बंस भूषन
काम बहु छबि
सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर
पीत सुर मन मोहई।।
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य
नर निरखंति जे।।2।।
श्रीसीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्रीरामजीके शरीर में अनेकों कामदेवों छवि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर श्याम शरीरपर पीताम्बर देवताओंके के मन को मोहित कर रहा है मुकुट बाजूबंद आदि बिचित्र आभूषण अंग अंग में सजे हुए है। कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं; जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।।2।।
28
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ।
सोइ कर श्री
सेवा बिधि जानइ।।
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं।।4।।
कृपासागर श्रीरामचन्द्रजी जिस प्रकारसे सुख मानते हैं, श्रीजी वही करती हैं; क्योंकि वे सेवा की विधि को जाननेवाली हैं। घर में कौसल्या आदि सभी सासुओं की सीताजी सेवा करती हैं, उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है।।4।।
29
श्री मद बक्र
न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन
सर को अस लाग न जाहि।।70ख।।
लक्ष्मी के मदने किसको टेढ़ा और प्रभुताने किसको बहरा नहीं कर दिया ? ऐसा कौन
है, जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र-बाण न लगे हों।।70(ख)।।
30
तुषाराद्रि संकाश गौरं गमीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। तसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।
जो हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, जिसके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।।3।।
2
Sunday,
20/04/2025
હાસ્ય એ આપણી હયાતીનું
ભાષ્ય છે, પુરાવો છે.
એક વૃદ્ધ વ્યક્તિ
પાસે ૧૯ ઊંટ હતાં અને તેણે તેના મૃત્ય પછી અડધા ભાગનાં ઊંટ પોતાની પુત્રીને, ચોથા ભાગનાં
ઊંટ પોતાના નાના પુત્રને અને પાંચમા ભાગના ઊંટ પોતાના મોટા પુત્રને આપવાનું કહ્યું
હતું.
તેના મૃત્યુ પછી
આ મુજબની વહેંચણી શક્ય ન હતી.
તે વખતે એક વૈરાગી
બાવાજી પોતાના ઊંટ ઉપર બેસીને આવે છે અને તે પોતાના ઊંટને પેલા વૃદ્ધ વ્યક્તિના ઊંટમાં
ફેળવી સમસ્યાનું સમાધાન કરે છે.
૨૦ ઊંટના અડધા ભાગના
જે ૧૦ થાય છે તે વૃદ્ધની પુત્રીને, ૨૦ ના ચોથા ભાગના ૫ ઊંટ નાના પુત્રને અને પાંચમા
ભાગના ઊંટ ૪ મોટા પુત્રને આપે છે અને પોતાનું ઊંટ લઈ આગળ વધે છે.
૧૯ ઊંટ એ આપણી પાંચ
જ્ઞાનેંદ્રીય, પાંચ કર્મેંદ્રીય અને અંત;કરણ જેમાં મન, બુદ્ધિ, ચિત અને અહંકાર છે.
આ ૧૯ ઊંટને નિયંત્રિત કરવા માટે કોઈ બુદ્ધ પુરુષ જોઈએ.
બુદ્ધ પુરુષ આપણા
ઘરના ઊંબરા ઉપર હોય છે જે ખરાબ વસ્તુને ઘરની અંદર નથી આવવા દેતો અને સારી વસ્તુને ઘરની
બહાર નથી જવા દેતો.
બાલકાંડના વંદના
પ્રકરણમાં ગુરુની વંદના મધ્યમાં કરવામાં આવી છે, ગુરુ મધ્યમાં જ હોવો જોઈએ.
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
ગુરુ ઉપર શ્રદ્ધા
રાખો તેના બોદ્ધ ઉપર વિશ્વાસ રાખો.
ગુરુ ચરણ ઉપર દ્રઢ
ભરોસો રાખવો જોઈએ.
સમુદ્ર અને સંસારમાં
ઘણી સામયતા છે, સંસારને સંસાર સાગર પણ કહેવાય છે.
સમુદ્ર અને સંસારમાં
ઊથલ પાથલ બહું થાય છે.
સમુદ્ર દૂરથી સુંદર,
સ્વચ્છ અને નિર્મલ દેખાય, સંસાર પણ દૂરથી રણિયામણો લાગે છે.
સમુદ્ર તૃપ્તિ નથી
આપી શકતો, સંસારમાં પણ એવું જ છે.
સમુદ્રનો બીજો કિનારો
છે પણ તે દેખાતો નથી. સંસારમાં જન્મ દેખાય છે પણ મૃત્યુ હોવા છતાં દેખાતું નથી.
સમુદ્રના કિનારે
મજા આવે, સારું લાગે, સમુદ્રના થોડા પાણીમાં પણ મજા આવે, સારું લાગે. સંસારમાં પણ આવું
જ થાય છે.
સમુદ્રને ચંદ્ર
સાથે સમન્વય છે, સંસારમાં મન સાથે સમન્વય છે.
हनुमानजी का मिलन
आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥
श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर-॥1॥
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥
सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले- हे हनुमान्! सुनो, ये
दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना॥2॥
राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥
हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नहीं हैं।
Day 3
Monday,
21/04/2025
સત્ય, પ્રેમ અને
કરુણામાં શું અપરાધ થાય છે.
જેની પરમ નિષ્ઠા
હોય તે વ્યાસ પીઠની સેવા કરે છે. અને જે કમજોર છે તેની સેવા વ્યાસા પીઠ કરે છે.
સેવા ધર્મનો રસ
છે.
જે ખાય અને લડે
તે ખલ કહેવાય.
આપણી પાંપણ પાપી
છે કારણ કે તે કૃષ્ણ દર્શનમાં બાધા બને છે.
અર્થ નો રસ દ્રવ્ય
છે, જો અર્થ દ્રવિત થાય પ્રવાહિત થાય તો જ
સારાં કાર્યોમાં વપરાય.
મોક્ષનો રસ વૈરાગ્ય
છે.
સત્યના ૩ અપરાધ
છે.
૧ સત્યને કટું બનાવી, અપ્રિય બનાવી બોલવું સત્યનો
અપરાધ છે.
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् ।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥
सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु
असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन
धर्म है ॥
૨ બીજાના સત્યને પોતાના અહંકારને કારણે ન સ્વીકારવું
સત્યનો અપરાધ છે.
૩ સ્વીકારેલા સત્યને આચરણમાં ન લાવવું સત્યનો અપરાધ
છે.
પ્રેમના ૩ અપરાધ
છે.
૧ જેને પ્રેમ કર્યો છે તેને મજબુર કરવું પ્રેમનો
અપરાધ છે.
૨ પ્રેમ કરીને મહેર્બાની કરી છે તેવું કહેવું પ્રેમનો
અપરાધ છે.
૩ પ્રેમ કરીને વારંવાર કહેવું, ઉપકાર કર્યો છે
એવું કહેવું પ્રેમનો પ્રેમનો અપરાધ છે
કરુણાના ૩ અપરાધ
૧
૨ કરુણાવાન કઠોર કૃપા કરે, કરુણામાં કઠોરતા આવે
તે કરુણાનો અપરાધ છે.
૩ કરુણા કર્યા પછી તેનો અહંકાર કરવો અપરાધ છે.
બાલ અપરાધ
સાધુ અપરાધ
नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम
सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥
हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥
સાધુ સંગથી અપરાધ
દૂર થાય.
પોતાના કેન્દ્રને
ક્યારેય ન ભૂલવું.
પાંચમા વિવસની કથા
પછી આગળની કથા પહેલગામમાં બનેલ આતંકી હુમલાના કારણે સ્થગીત કરવામાં આવી.