ગુરુ
પૂર્ણિમા - 2025
આજે
આષાઢ શુક્લ પૂર્ણિમા
(પૂનમ), વિક્રમ સંવત 2081, ગુરૂવાર, જુલાઈ 10, 2025 જે ગુરુ પૂર્ણિમાનું મહા પર્વ છે જે નિમિત્તે
આજે મારા ગુરુ પ્રાતઃ સ્મરણીય
પૂજ્ય બ્રહ્માનંદપુરીજી મહારાજના જેમણે અજ્ઞાનરુપી અંધકારને જ્ઞાનરુપી અંજનથી દૂર કરીને મારી
આંખો ખોલી છે તેમના
ચરણ કમળમાં મારા દંડવત પ્રણામ
કરું છું.
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
જેમણે
અજ્ઞાનરુપી અંધકારને
જ્ઞાનરુપી
અંજનથી
દૂર
કરીને
મારી
આંખો
ખોલી
છે
તે ગુરુને
હું નમન કરું છું.
ગુરુ
પૂર્ણિમા માત્ર એક પરંપરા નથી
પણ તે ભારતીય સંસ્કૃતિનો
આત્મા છે જે કૃતજ્ઞતા,
શ્રદ્ધા અને નમ્રતાનું પ્રતીક
છે.
શંકરમ્ શંકરાચાર્યમ્ કેશવમ્ બાદરાયણમ્
સૂત્રભાષ્યકૃતૌ વંદે ભગવન્તૌ પુનઃ પુનઃ
કૃતે વિશ્વગુરુર્બ્રહ્મા ત્રેતાયાં ઋષિસતમઃ
દ્વાપરે વ્યાસ એવ સ્યાત કલાવત્ર ભવામ્યહમ્
જગદ્ગુરુ તરીકે સતયુગમાં બ્રહ્મા, ત્રેતાયુગમાં મહષિ વશિષ્ટ, દ્વાપરયુગમાં મહર્ષિ વેદ વ્યાસ અને કળિયુગમાં
શંકરાચાર્યની ગણના થશે એવું
આદિ શંકરનું વિધાન છે.
ગુરુ પરંપરા
નારાયણમ પદ્મભુવં વસિષ્ઠં શક્તિં ચ તત્પુત્ર પરાશરં ચ
વ્યાસં શુકં ગૌડપદં મહાન્તં ગોવિન્દ યોગીન્દ્રમથાસ્ય શિષ્યં ll
શ્રી શંકરાચાર્યમથાસ્ય પદ્મપાદં ચ હસ્તામલકં ચ શિષ્યં
તં તોટકં વાર્તિકકારમન્યાનસ્મદ્રરૂન્ સંતતમાનતોસ્મિ ll
સદાશિવ સમારમ્ભાં શંકરાચાર્ય મધ્યમાં l
અસ્મદાચાર્યં પર્યન્તાં વન્દે ગુરૂપરંપરામ્ ll
આદિ
શંકરાચાર્ય સંન્યાસ ધર્મ અને ગુરુ
પરંપરાના અગિયારમા અધિષ્ઠાતા છે.
સત્યુગમાં (૧) નારાયણ, (૨)
બ્રહ્મા, (૩) રુદ્ર
ત્રેતાયુગમાં
(૪) વશિષ્ટ (૫) શક્તિ (૬)
પારાશર
દ્વાપરયુગમાં
(૭) વેદ વ્યાસ (૮)
શુકદેવ
કળિયુગમાં
(૯) ગૌડપાદ (૧૦) ગોવિંદપાદ
(૧૧) શંકરાચાર્ય
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥
તે ગુરુને નમસ્કાર જે સમગ્ર બ્રહ્માંડમાં અને બધા જંગમ અને અચળ જીવોમાં હાજર છે અને જેમના દ્વારા તે
ચરણ (ઈશ્વરનો સાક્ષાત્કાર) દેખાય છે.
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Vidyasagar
गुरु वंदना (राम चरित मानस)
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
मैं
उन गुरु महाराज के
चरणकमल की वंदना करता
हूँ, जो कृपा के
समुद्र और नर रूप
में श्री हरि ही
हैं और जिनके वचन
महामोह रूपी घने अन्धकार
का नाश करने के
लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों
की रज की वन्दना
करता हूँ, जो सुरुचि
(सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी
रस से पूर्ण है।
वह अमर मूल (संजीवनी
जड़ी) का सुंदर चूर्ण
है, जो सम्पूर्ण भव
रोगों के परिवार को
नाश करने वाला है॥1॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
वह
रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के
शरीर पर सुशोभित निर्मल
विभूति है और सुंदर
कल्याण और आनन्द की
जननी है, भक्त के
मन रूपी सुंदर दर्पण
के मैल को दूर
करने वाली और तिलक
करने से गुणों के
समूह को वश में
करने वाली है॥2॥
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
श्री
गुरु महाराज के चरण-नखों
की ज्योति मणियों के प्रकाश के
समान है, जिसके स्मरण
करते ही हृदय में
दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है।
वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का
नाश करने वाला है,
वह जिसके हृदय में आ
जाता है, उसके बड़े
भाग्य हैं॥3॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
उसके
हृदय में आते ही
हृदय के निर्मल नेत्र
खुल जाते हैं और
संसार रूपी रात्रि के
दोष-दुःख मिट जाते
हैं एवं श्री रामचरित्र
रूपी मणि और माणिक्य,
गुप्त और प्रकट जहाँ
जो जिस खान में
है, सब दिखाई पड़ने
लगते हैं-॥4॥
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
जैसे
सिद्धांजन को नेत्रों में
लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों,
वनों और पृथ्वी के
अंदर कौतुक से ही बहुत
सी खानें देखते हैं॥1॥
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री
गुरु महाराज के चरणों की
रज कोमल और सुंदर
नयनामृत अंजन है, जो
नेत्रों के दोषों का
नाश करने वाला है।
उस अंजन से विवेक
रूपी नेत्रों को निर्मल करके
मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने
वाले श्री रामचरित्र का
वर्णन करता हूँ॥1॥
ભગવાન રામ જેને અત્રિ મુનિ
જગદગુરુ કહે છે અને તેમની સ્તુતિ કરે છે.
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
प्रभु
आसन पर विराजमान हैं।
नेत्र भरकर उनकी शोभा
देखकर परम प्रवीण मुनि
श्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति
करने लगे॥3॥
नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
हे
भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे
कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार
करता हूँ। निष्काम पुरुषों
को अपना परमधाम देने
वाले आपके चरण कमलों
को मैं भजता हूँ॥1॥
निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
आप
नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को
मथने के लिए मंदराचल
रूप, फूले हुए कमल
के समान नेत्रों वाले
और मद आदि दोषों
से छुड़ाने वाले हैं॥2॥
प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
हे
प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं
का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य
अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा
असीम) है। आप तरकस
और धनुष-बाण धारण
करने वाले तीनों लोकों
के स्वामी,॥3॥
दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥4॥
सूर्यवंश
के भूषण, महादेवजी के धनुष को
तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को
आनंद देने वाले तथा
देवताओं के शत्रु असुरों
के समूह का नाश
करने वाले हैं॥4॥
मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
आप
कामदेव के शत्रु महादेवजी
के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से
सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों
को नष्ट करने वाले
हैं॥5॥
नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
हे
लक्ष्मीपते! हे सुखों की
खान और सत्पुरुषों की
एकमात्र गति! मैं आपको
नमस्कार करता हूँ! हे
शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे
भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और
छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित
आपको मैं भजता हूँ॥6॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सराः॥
पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥7॥
जो
मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर
आपके चरण कमलों का
सेवन करते हैं, वे
तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के
संदेह) रूपी तरंगों से
पूर्ण संसार रूपी समुद्र में
नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में
नहीं पड़ते)॥7॥
विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं॥8॥
जो
एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि
का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक
आपको भजते हैं, वे
स्वकीय गति को (अपने
स्वरूप को) प्राप्त होते
हैं॥8॥
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
उन
(आप) को जो एक
(अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण),
प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक,
जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे)
और केवल (अपने स्वरूप में
स्थित) हैं॥9॥
भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
(तथा)
जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त
दुर्लभ, अपने भक्तों के
लिए कल्पवृक्ष (अर्थात् उनकी समस्त कामनाओं
को पूर्ण करने वाले), सम
(पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक
सेवन करने योग्य हैं,
मैं निरंतर भजता हूँ॥10॥
अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
हे
अनुपम सुंदर! हे पृथ्वीपति! हे
जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम
करता हूँ। मुझ पर
प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार
करता हूँ। मुझे अपने
चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥11॥
पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
जो
मनुष्य इस स्तुति को
आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी
भक्ति से युक्त होकर
आपके परम पद को
प्राप्त होते हैं, इसमें
संदेह नहीं॥12॥
- GURU IS THE LIGHT IN THE DARKNESS, THE HOPE IN DEAPAIR AND THE STRENGTH IN WEAKNESS.
- A GURU GUIDES US ON THE RIGHT PATH AND HELPS US NAVIGATE THROUGH THE MAZE OF LIFE.
- A GURU IS NOT AN INDIVIDUAL BUT HE IS INSTITUTION. HE IS NOT A PERSON BUT HE IS PERSONALITY, GURU IS NARAYAN HINSELF IN DIFFERENT FORMS AT DIFFERENT OCCASIONS ACCORDING TO THE NEED AND DEMAND. THEY COME AND GO. BUT ALL OF THEM ARE ADDING TO OUR SPIRITUAL STATURE AND HELP US TO UNFOLD OUR PERSONALITY.
- गुरु पूर्णिमा का अर्थ गुरु + पूर्ण + मा हैं, अर्थात सर्व प्रथम मा हि पूर्ण गुरु हैं ततपश्चात गुरु हि पूर्ण मा हैं।
विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतं ज्ञानम्।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः।।
नम्रता
का फल सेवा है,
गुरु की सेवा का
फल ज्ञान है, ज्ञान का
फल वैराग्य (स्थायी) है और वैराग्य
का फल असरनिरोध (मुक्ति
और मोक्ष) है।
- प्रथम गुरु मा हैं जिसने जन्म दिया, द्वितीय गुरु धरती मा हैं जिस पर हम चले -बढे, तृतीय गुरु पिता हैं जिसकी उंगली धाम कर हम आगे बढे, चतुर्थ गुरु शिक्षक हैं जिसने हमें ज्ञान - शिक्षा दी और पंचम गुरु आध्यात्मिक गुरु हैं जिनकी कृपा से हम धन्य हो गये और जीवन सार्थक हो गया।
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