રામ કથા
માનસ હરિજન
મંગળવાર, તારીખ ૨૪/૦૯/૨૦૧૯ થી બુધવાર, તારીખ ૦૨/૧૦/૨૦૧૯
દિલ્હી
મુખ્ય પંક્તિઓ
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा।
जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥
बिनु घन निर्मल सोह अकासा।
हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
૧
મંગળવાર, ૨૪/૦૯/૨૦૧૯
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥
चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥5॥
बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥
बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥
રામ ચરિત માનસમાં હરિજન શબ્દ ૯ વખત આવે છે જે નીચે પ્રમાણે છે.
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥3॥
भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती॥3॥
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥2॥
सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिए, जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है, जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता॥2॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥
चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥5॥
बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥
बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥
देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥
भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा-) हे तात हनुमान्! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥1॥
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।3।।
कालरूपी भयानक सर्पके भक्षण करनेवाले श्रीरामरूप गरुड़जीको भजो। निष्कामभावसे प्रणाम करते ही ममताका नाश करनेवाले श्रीरामरूप किरातको भजो। कामदेवरूपी हाथी के लिये सिंहरूप तथा सेवकोंको सुख देनेवाले श्रीरामजीको भजो।।3।।
दो.-मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह।।105क।।
मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धिवाला मोहवश श्रीहरिके भक्तों और द्विजों को देखते ही जल उठता और विष्णुभगवान् से द्रोह करता था।।105(क)।।
૩
ગુરૂવાર, ૨૬/૦૯/૨૦૧૯
- અભય
- ભેદ ન હોવો
- વૃક્ષ સમાન
- નદી સમાન
- પર્વત સમાન
- પૃથ્વી સમાન
पूरन काम राम
अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता
गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।3।।
आप पूर्णकाम
हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात ! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष,
नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है।।3।।
संत हृदय नवनीत
समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप
द्रवइ नवनीता। पर दुथख द्रवहिं संत सुपुनीता।।4।।
संतोंका हृदय
मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियोंने कहा है; परंतु उन्होंने [असली] बात कहना नहीं
जाना; क्योंकि मक्खन तो अपनेको ताप मिलनेसे पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरोंके दुःखसे
पिघल जाते हैं।।4।।
- કોઈ આશા ન રાખવી.
આશા એ એક બંધન છે. આમ કોઈ બંધન ન હોવું.
- હરિજન આશા ન
રાખે પણ મનોરથ જરૂર કરે. મનોરથ એટલે તે પૂર્ણ થાય તો બરાબર, ન થાય તો હરિ ઈચ્છા.
૪
શુક્રવાર, ૨૭/૦૯/૨૦૧૯
આંગણ તેમજ અગાસીમાં
ઘોડા ન ખેલી શકાય.
દરેક જય પાછળ
પરાજય છુપાયેલો છે.
સત્યનો જય હો
એ કહેવામાં વિશ્વાસની કમી વર્તાય છે. સત્યનો જય થાય એ નારો લગાવવો યોગ્ય નથી.
देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं
जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा।
जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
चकोरों के समुदाय
चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके (निर्निमेष
नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे
ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥
જે પાંચ વસ્તુને
છોડી દે તે હરિજન છે.
ચાર મિલે ચોસઠ
ખીલે ,વીસ રહે કર જોડ ,
હરિજન સે હરિજન
મિલે તો બિહસે સાત કરોડ .
ચાર મિલે તો
ચૌસઠ ખીલે ઔર બીસ રહે કર જોડ
પ્રેમીજન સે
પ્રેમીજન મિલે તો હંસે સાત કરોડ
નિચેની પાંચ
વસ્તુ છોડવાની જરુર છે.
૧ સ્વાદાનુભૂતિ – પરમ રસ સિવાય કોઈ અન્ય રસમાં
વૃત્તિ જાગતી હોય તેવી વૃત્તિ છોડવી.
૨ સામર્થ હોવા છતાં સેવા ન કરવાની વૃત્તિ,
યોગ્ય સમયે સામર્થનો ઉપયોગ ન કરવો એ છોડવાની જરુર છે.
૩ કસાઈ - વિકાર
૪ વિક્ષેપ
૫ લય – મૂર્છા
સેવા સાધન નથી,
સાધ્ય છે.
જીવન રસમય બનાવવા
માટે અશુભમાં પણ શુભને શોધો.
હરિ રસથી વિષય રસ
વધારે ન લાગવો જોઈએ. હરિ રસથી વિષય રસ વધારે ગમે તેવી વૃત્તિ છોડવી જોઈએ.
હરિના જન તો મુક્તિ
ન માગે, જનમો જનમ અવતાર રે,
નિત સેવા નિત કિર્તન
ઓચ્છવ, નિરખવા નંદકુમાર રે.
નિંદા સમાન કોઈ
પાપ નથી.
અહિંસા જેવો બીજો
ધર્મ નથી.
૫
શનિવાર, ૨૮/૦૯/૨૦૧૯
હરિજન કોઈ કામના
ન કરે, અને કામના પુરી થાય તેને હરિ પ્રસાદ માને.
હરિજન એટલે સાધુ
જન, વૈષ્ણવજન, સેવક, દાસ, સજ્જન, હરિ દાસ.
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक
हरि दास।
पाइ उमा पति
गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।69ख।।
हे उमा ! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को प्रकट कर देते हैं।।69(ख)।।
ભગવાન શિવ પોતાને
દીન જન કહે છે.
गुन सील कृपा
परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।
रघुनंद निकंदय द्वंद्वधनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान है। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन ! [आप जन्म-मरण
सुख-दुःख राग-द्वेषादि] द्वन्द्व समूहोंका नाश कीजिये। हे पृथ्वीकी पालना करनेवाले राजन् ! इस दीन
जनकी ओर भी दृष्टि डालिये।।10।।
कुंद इंदु सम देह
उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ
कृपा मर्दन मयन॥4॥
जिनका कुंद के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शंकरजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥
ભરત કહે છે કે……
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥1॥
जो
लोग
वेदों
को
बेचते
हैं,
धर्म
को
दुह
लेते
हैं,
चुगलखोर
हैं,
दूसरों
के
पापों
को
कह
देते
हैं,
जो
कपटी,
कुटिल,
कलहप्रिय
और
क्रोधी
हैं
तथा
जो
वेदों
की
निंदा
करने
वाले
और
विश्वभर
के
विरोधी
हैं,॥1॥
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा॥
पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा॥2॥
जो
लोभी,
लम्पट
और
लालचियों
का
आचरण
करने
वाले
हैं,
जो
पराए
धन
और
पराई
स्त्री
की
ताक
में
रहते
हैं,
हे
जननी!
यदि
इस
काम
में
मेरी
सम्मति
हो
तो
मैं
उनकी
भयानक
गति
को
पाऊँ॥2॥
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन
गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
अस बिबेक जब देइ
बिधाता। तब तजि
दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ
भलाईं॥1॥
विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख
दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ
सुसंगू। मिटइ न मलिन
सुभाउ अभंगू॥2॥
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥
भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा-) हे तात
हनुमान्! विरहसागर में
डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥1॥
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल
साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी।
करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥
वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव,
सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥4॥
જય સીયા રામ નો
પર્યાય જય જગત છે.
ગરીબ શબ્દની વ્યાખ્યા
નીચે પ્રમાણે છે.
ગ એટલે ગર્વ, રી
એટલે રીક્તતા, મુક્તતા.
બ એટલે બદન, શરીર,
શરીરથી રીક્ત થવું., શરીરની સુંદરતાનો ગર્વ ન હોવો જોઈએ. સુંદરતાની પૂજા કરવી જોઈએ,
શિકાર ન કરવો જોઈએ.
બ એટલે બચન – વચન
– વચનનો ગર્વ ન કરવો.
બમન – વમન છૂટે.
સંસાર વમન માફક છૂટી જાય.
બ એટલે બર્ણ – વર્ણ,
જાતિ પાતિ છૂટી જાય.
रमा
बिलासु
राम
अनुरागी।
तजत
बमन
जिमि
जन
बड़भागी॥
श्री
रामचन्द्रजी
के
प्रेमी
बड़भागी
पुरुष
लक्ष्मी
के
विलास
(भोगैश्वर्य)
को
वमन
की
भाँति
त्याग
देते
हैं
(फिर
उसकी
ओर
ताकते
भी
नहीं)॥4॥
બ એટલે બસન – વસ્ત્ર,
સાદગીમાં રહેવું.
શ્રૂંગારનો ગર્વ
ન હોવો જોઈએ.
આભુષણ પહેરો પણ
અસંગ રહો.
હરિજન વિશ્વ જન
હોય, સંકિર્ણ ન હોય.
૬
રવિવાર,
૨૮/૦૯/૨૦૧૯
વાણી, પાણી અને
કમાણીનો દુર્વ્યય ન થવો જોઈએ.
કોઈ સુવિચાર પણ
ગુરૂ બની શકે.
भृगुसुत समुझि जनेउ
बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ
रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन
अरु गाई। हमरें
कुल इन्ह पर न सुराई॥3॥
भृगुवंशी समझकर और
यज्ञोपवीत देखकर तो
जो कुछ आप कहते हैं,
उसे मैं क्रोध
को रोककर सह
लेता हूँ। देवता,
ब्राह्मण, भगवान के
भक्त और गो- इन पर
हमारे कुल में वीरता नहीं
दिखाई जाती॥3॥
बिप्र धेनु सुर
संत हित लीन्ह
मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित
तनु माया गुन
गो पार॥192॥
ब्राह्मण, गो, देवता
और संतों के
लिए भगवान ने
मनुष्य का अवतार
लिया। वे (अज्ञानमयी,
मलिना) माया और उसके गुण
(सत्, रज, तम) और (बाहरी
तथा भीतरी) इन्द्रियों
से परे हैं।
उनका (दिव्य) शरीर
अपनी इच्छा से
ही बना है (किसी कर्म
बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक
भौतिक पदार्थों के
द्वारा नहीं)॥192॥
હરિજન એટલે વૈષ્ણવજન,
સંત જન
જેની ગ્રંથી છૂટી
જાય તે હરિજન છે.
ગ્રંથી સાત છે.
૧ ભય ગ્રંથી – જેની ભય ગ્રંથી છૂટી જાય તે હરિજન
છે. હનુમાન જેવા ગુરૂ મળે તો ભય જાય. સુગ્રીવનો ભય હનુમાનજી દૂર કરે છે.
સુગ્રીવમાં લગુતા
ગ્રંથી છે.
૨ લગુતા ગ્રંથી
તું અમીર હૈ તો ક્યા હુઆ, તેરા મહલ બન રહા
હૈ મેરી ઝોપડીકે પીછે.
પોતાની મુશ્કેલીનો
ઉપાય પોતાની અંદર જ શોધો, બહાર ન શોધો.
બુદ્ધ પુરૂષમાં
બધા અવતાર સમાવિષ્ટ છે.
સાચો પ્રેમ કરનાર-
ભક્તિ કરનાર ક્યારેય ભ્રષ્ટ ન હોય.
સાચા પ્રેમીનો નાશ
ન થાય.
બુદ્ધ પુરૂષ ગરીબ
નવાઝ હોય છે.
લગુતા ગ્રંથી અંગદમાં
છે.
૩ અહમ ગ્રંથી
વાલી અને રાવણમાં
અહમ ગ્રંથી છે.
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही॥1॥
आपने मुझे अत्यंत अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो, परंतु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्ष को काटकर उससे बबूर के बाड़ लगाएगा (अर्थात् पूर्णकाम बना देने वाले आपको छोड़कर आपसे इस नश्वर शरीर की रक्षा चाहेगा?)॥1॥
૪ પાપ ગ્રંથી – ભૂલ ગ્રંથી
હરિ ચરણ બધી ભૂલોથી
– પાપ થી મુક્ત કરે.
પાપ ગ્રંથી વિભીષણમાં
છે.
૫ વિશ્વાસ ગ્રંથી – આ સારી ગ્રંથી છે જે ક્યારેય
છૂટવી ન જોઈએ.
પાર્વતીમાં વિશ્વાસ
ગ્રંથી છે.
૬ જડ ચેતન ગ્રંથી