Translate

Search This Blog

Saturday, September 26, 2020

માનસ વૃંદા, मानस वृंदा

 

राम कथा

कथा क्रमांक - 848

मानस वृंदा

तुलसीश्याम, गुजरात

शनिवार, २६/०९/२०२० से रविवार, ०४/१०/२०२०

मुख्य पंक्ति

एक कलप सुर देखि दुखारे।

समर जलंधर सन सब हारे॥

परम सती असुराधिप नारी।

तेहिं बल ताहि जितहिं पुरारी॥

 

 

1

Saturday, 26/09/2020

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥

संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ मारा॥3

 

एक कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिवजी ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥3

 

परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि जितहिं पुरारी॥4

 

उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करने वाले शिवजी भी उस दैत्य को नहीं जीत सके॥4

रुक्ष्मणी धैर्य और प्रतिक्षा का विग्रह हैं।

गोपाल गोकुल वल्लभी,

प्रिय गोप गोसुत वल्लभम,

चरणारविन्द महम भजे,

भजनीय सुर मुनि दुर्लभम् ।

चरणारविन्द महम भजे,

भजनीय सुर मुनि दुर्लभम् ॥

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

मोर मुकुट पीतांबर धारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी ॥

जनम जनम की लगी लगन है,

साक्षी तारो भरा गगन है,

गिन गिन स्वाश आस कहती है,

आएँगे श्री कृष्ण मुरारी,

॥ बिनती सुनिए नाथ हमारी...॥

सतत प्रतीक्षा अपलक लोचन,

हे भव बाधा बिपति बिमोचन,

स्वागत का अधिकार दीजिए,

शरणागत है नयन पुजारी,

॥ बिनती सुनिए नाथ हमारी...॥

और कहूं क्या अंतर्यामी,

तन मन धन प्राणो के स्वामी,

करुणाकर आकर के कहिए,

स्वीकारी विनती स्वीकारी,

॥ बिनती सुनिए नाथ हमारी...॥

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

मोर मुकुट पीतांबर धारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी ॥

 

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥

रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥

श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥

हमारे मन के वहम पक्षी हैं।

राम कथा एक सुंदर कर ताली हैं, जिससे संशय – संदेह दूर हो जाता हैं। लेकिन जब क्था बंध हो जाती हैं तब फिर संशय वापिस आता हैं। लेकिन राम कथा एक कुहाडी हैं जो संशय रूपी वृक्षको – कलिरुपी वृक्षको ही काट देती हैं, जिससे संशय रूपी विहंग वापस न आ पाये। लेकिन उसके लिये यह रामकथा सावधान होकर, श्रद्धा पूर्वक सुननी चाहिये।

 

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥

जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

 

वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं॥2॥

 

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

 

वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

 

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।

 

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥

 

और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥

 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे

 

 

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥

संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥3॥

 

एक कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिवजी ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥3॥

कभी कभी एक व्यक्तिके कारन पुरा समाज दुःखी होता हैं।

अत्यंत विवाद रावणी वृत्तिको जन्म देती हैं।

तुलसी वृंदा हि हैं।

 

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।

सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

 

श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥113॥

गुरु साक्षात ब्रह्म हैं।

2     

Sunday, 27/09/2020

रामका बाण, शंकरका त्रिशुल और श्री कृष्णकी मुस्कहारट कभी भी विफल नहीं हो शकती हैं।

श्रीमद् देवी भागवत पुराण के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपना तेज समुद्र में फेंक दिया इससे जलंधर उत्पन्न हुआ। माना जाता है कि जलंधर में अपार शक्ति थी और उसकी शक्ति का कारण थी उसकी पत्नी वृंदा। ... जलंधर ने विष्णु को परास्त कर देवी लक्ष्मी को विष्णु से छीन लेने की योजना बनाई।

जलंधर जलसे पेदा हुआ हैं।

समर्पण, धैर्य और प्रतिक्षा का प्रतीक रुक्ष्मणी हैं।

शिव पुराण में वृंदाका प्रकरण हैं।

नारद, सरस्वती और भगवान शिव वीणा धारण करते हैं, एक रावणी वीणा का भी उल्लेख हैं। रावण एकान्तमें वीणा गान करता था।

पुराण की बातें गुरु बिना समज में नहीं आती हैं।

कुंची मारा गुरुजीने हाथ …

बिबेक रक्षा …

गुरु, शास्त्र अने महादेवनी परीक्षा न कराय और जो परीक्षा करता हैं वह विफल हो जाता हैं।

विवेक ही हमारी रक्षा करता हैं।

गुरु विवेक सागर ….


कवच अभेद विप्र गुरु पूजा

एहि सम विजय उपाय न दूजा।।

 

क्रिडा भार विहिन होती हैं जब कि कर्म में भार लगता हैं।

बिधि    सकेऊ  सहि  मोर  दुलारा।  नीच  बीचु  जननी  मिस  पारा॥

यहउ  कहत  मोहि  आजु    सोभा।  अपनीं  समुझि  साधु  सुचि  को  भा॥1॥

 

परन्तु  विधाता  मेरा  दुलार    सह  सका।  उसने  नीच  माता  के  बहाने  (मेरे  और  स्वामी  के  बीच)  अंतर  डाल  दिया।  यह  भी  कहना  आज  मुझे  शोभा  नहीं  देता,  क्योंकि  अपनी  समझ  से  कौन  साधु  और  पवित्र  हुआ  है?  (जिसको  दूसरे  साधु  और  पवित्र  मानें,  वही  साधु  है)॥1॥

साधु समाज तिर्थराज प्रयाग हैं।

वक्ता जब अपने सदगुरूके छाया में बोलता हैं तब कोई श्रोताकी आवश्यकता नहीं रहती हैं, स्वयं गुरु उस की कथा सुनता हैं।


श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।

किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥ 30(ख)॥

 

श्री राम की गूढ़ कथा के वक्ता और श्रोता ज्ञान के खजाने होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥ 30(ख)॥

 

मातु  मंदि  मैं  साधु  सुचाली।  उर  अस  आनत  कोटि  कुचाली॥

फरइ  कि  कोदव  बालि  सुसाली।  मुकता  प्रसव  कि  संबुक  काली॥2॥

 

 

 

माता  नीच  है  और  मैं  सदाचारी  और  साधु  हूँ,  ऐसा  हृदय  में  लाना  ही  करोड़ों  दुराचारों  के  समान  है।  क्या  कोदों  की  बाली  उत्तम  धान  फल  सकती  है?  क्या  काली  घोंघी  मोती  उत्पन्न  कर  सकती  है?॥2॥

 

सपनेहूँ  दोसक  लेसु    काहू।  मोर  अभाग  उदधि  अवगाहू॥

बिनु  समुझें  निज  अघ  परिपाकू।  जारिउँ  जायँ  जननि  कहि  काकू॥3॥

 

स्वप्न  में  भी  किसी  को  दोष  का  लेश  भी  नहीं  है।  मेरा  अभाग्य  ही  अथाह  समुद्र  है।  मैंने  अपने  पापों  का  परिणाम  समझे  बिना  ही  माता  को  कटु  वचन  कहकर  व्यर्थ  ही  जलाया॥3॥

साधकको दूसरो को कभी भी दोष नहीं देना चाहिए।

 

हृदयँ  हेरि  हारेउँ  सब  ओरा।  एकहि  भाँति  भलेहिं  भल  मोरा॥

गुर  गोसाइँ  साहिब  सिय  रामू।  लागत  मोहि  नीक  परिनामू॥4॥


मैं  अपने  हृदय  में  सब  ओर  खोज  कर  हार  गया  (मेरी  भलाई  का  कोई  साधन  नहीं  सूझता)।  एक  ही  प्रकार  भले  ही  (निश्चय  ही)  मेरा  भला  है।  वह  यह  है  कि  गुरु  महाराज  सर्वसमर्थ  हैं  और  श्री  सीता-रामजी  मेरे  स्वामी  हैं।  इसी  से  परिणाम  मुझे  अच्छा  जान  पड़ता  है॥4॥

 

साधु  सभाँ  गुर  प्रभु  निकट  कहउँ  सुथल  सतिभाउ।

प्रेम  प्रपंचु  कि  झूठ  फुर  जानहिं  मुनि  रघुराउ॥261॥

 

साधुओं  की  सभा  में  गुरुजी  और  स्वामी  के  समीप  इस  पवित्र  तीर्थ  स्थान  में  मैं  सत्य  भाव  से  कहता  हूँ।  यह  प्रेम  है  या  प्रपंच  (छल-कपट)?  झूठ  है  या  सच?  इसे  (सर्वज्ञ)  मुनि  वशिष्ठजी  और  (अन्तर्यामी)  श्री  रघुनाथजी  जानते  हैं॥261॥

 

जो आनन्द संत फकीर करे ,

वो आनन्द नाँहि अमीरी में ।

 

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥

जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

 

वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं॥2॥

 

हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3॥

 

श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3॥

जलंधर और लक्ष्मी समुद्र से पैदा हुए हैं इसीलिये भाई बहन हैं।

 

शान्ताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम्

विश्वाधारम् गगनसदृशम् मेघवर्णम् शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तम् कमलनयनम् योगिभिर्ध्यानगम्यम्

वन्दे विष्णुम् भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥

 

छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।

जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

 

प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥123॥

 

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।

कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥

 

હનુમાનજી અજર છે તેમજ અમર પણ છે.

3

Monday, 28/09/2020

आदमी धैर्य रखे तो प्रकृति सब सुविधा खडी करती हैं।

कोई भी कला या संगीत के वाद्य जब हरिके लिये होती हैं तब वह सब कला हरि कथा हैं।

जलंधर गोलोक वासी हैं, राधाजीके श्राप वश असुर बना हैं।

स्कंध पुराण के अनुसार तुलसीश्याम के तप्त कुंड में जो स्नान करता हैं उसका ताल कभी तालभंग नहीं होता हैं, उसका भजन कभी अभंग नहीं होता हैं। अगर सगर्भा महिला यह कुंडमें स्नान करे तो उसका गर्भ कभी भी अभंग नहीं होता हैं।

संगीतके वाद्य वादकको कभी भी उसके तालमें भंग नहीं करना चाहिये।

 

राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥

 

असुर वृत्ति वाले को पवित्र बननेमें कुछ देर लगती हैं।

मातृ शरीर एक दिन में पवित्र बन जाता हैं।

श्राप देनेवाले से छल करने वाला निम्न हैं।

वृक्षमें चेतना – जीव हैं।

हरि शिला बनते हैं जो ज्यादा जड हैं जब कि तुलसी वृक्ष हैं इसीलिये हरि – शिला से ज्यादा चेतनवंत हैं।

 

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥

 

हनुमान्‌जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया॥1॥

 

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥2॥

 

उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आदि सब रानियों को-॥2॥

 

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥

 

मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-॥3॥

 

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥

अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥4॥

 

हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥4॥


4

Tuesday, 29/09/2020

 

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥

धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥

 

त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले- हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥

 

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

 

जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

 

हमारे संशय अदैवीय – लौकिक हैं। लोकिक संशय का समाधान खुलासा करने से समाप्त होता हैं।

दैवी संशय और अदैवीय संशय में बहुत फर्क हैं।

भवानी, गरुड,  सुमार्गी हैं।

कथा शिव से जीव तकके लिये उपलब्धी हैं।

अपनी रूची, अपनी क्षमता सब की अलग अलग होती हैं।

 

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥

पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा॥3॥

 

हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत्‌ तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥

ઉધાર અજવાળા કરતાં આપણું અંધારૂ સારું.

 

जगत मातु पितु संभु भवानी

सत सृष्टि तांडव रचयिता नटराज राज नमो नमः...

हेआद्य गुरु शंकर पिता नटराज राज नमो नमः...

 

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

 

मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥100॥

महादेव रसिक हैं।

शास्त्रोका श्रींगार हमारे में वैराग्य पेदा करता हैं।

जलंधर शिव पुत्र हैं, वह शिव के तेज से उत्पन हुआ हैं।

संबंध बांधता हैं और समय आने पर गलत कार्य करने से रोकता हैं।

स्त्री, सती, परम साध्वी यह तीन अवस्था हैं। परम सती हि परम साधवी हैं।

5

Wednesday, 30/09/2020

पति व्रता वृंदा का शीलभंग स्वयं परमात्मा करते हैं, तो यह ठिक हि होना चाहिये। भगवान छल करे या भला करे वह एक मात्र कौतुक हैं – लीला हैं। भगवान कौतिकी हैं – विनोदी हैं।

कौआ किसी पर भी भरोंसा नहीं करता हैं।

जब खुद की कमी पता लगे तब तुम मर्मज्ञ हो। हमें अपने स्वभावका पता होना चाहिये।

रामके जीवनमें कोई भी छल नहीं हैं।

 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

 

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

 

छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।

जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

 

प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥123॥

परमात्मा असंग हैं।

 

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥

तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥1॥

 

लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने युद्ध में मारकर परमपद दिया॥1॥

आत्माको कुछ लागु पडता हैं तो फिर परमात्माको भी कैसे कुछ लागु पड शकता हैं!

राम बहुत कौतिकी हैं।

 

एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।

मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥

सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।

अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥

 

वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुंदरी! महान्‌ संदेह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-

रावणने जानकीको घरमें नहीं रखी हैं, घटमें बिठाई हैं।

राम कथा विनय शिखाता हैं।

ईश्वर कौतुक निधी हैं, उसका राझ हम नहीं समज शकते हैं।

 


No comments:

Post a Comment