રામ કથા - 856
માનસ ગંગાસાગર
ગંગાસાગર, કોલકત્તા
શનિવાર, તારીખ ૨૭/૦૨/૨૦૨૧
થી રવિવાર, તારીખ ૦૭/૦૩/૨૦૨૧
मुख्य पंक्ति
चले राम लछिमन मुनि संगा।
गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं।
डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।
૧
શનિવાર, ૨૭/૦૨/૨૦૨૧
चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥
श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देवनदी गंगाजी पृथ्वी पर आई थीं॥1॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।5।।
समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों के द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य पा जाते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात् सभी प्रदेश) अत्यन्त प्रसन्न हैं।।5।।
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।
सकल लोक जग पावनि गंगा॥
राम
कथा कैलाससे नीकली हुई गंगा हि हैं।
शरणागतिमें
संघर्ष नहीं होता हैं, शरणागतिमें संपर्क भी कम करना चाहिये, अत्यंत संपर्क के चार
दोश हैं – कभी न कभी नींदा का दोष आ शकता हैं, (नींदा एक झहर हैं, दूसरा दोष क्रोध
हैं, तीसरा दोष दंभ हैं, चौथा दोष स्पर्धा हैं – दूसरे की प्रगति देखकर स्पर्धा आ शकती
हैं।
2
Sunday, 28/02/2021
बुद्ध
पुरूषो को घर घर जाना चाहिये।
तुलसी
ग्रंथ गुरूमुख बिना समजना मुश्किल हैं।
संसारीओ
के लिये भेद भक्ति पर्याप्त हैं। ठाकुर के साथ भेद जरूरी हैं, वह मालिक हैं हम उसके
आश्रित हैं। भक्तिमें भेद होता हि नहीं हैं।
राम
चरित मानस में भेद शब्द तीन बार आया हैं।
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥
ऐसा
कहकर शरभंगजी ने योगाग्नि से
अपने शरीर को जला
डाला और श्री रामजी
की कृपा से वे
वैकुंठ को चले गए।
मुनि भगवान में लीन इसलिए
नहीं हुए कि उन्होंने
पहले ही भेद-भक्ति
का वर ले लिया
था॥1॥
स्मृति
प्रसादसे आती हैं, श्रुति प्रयाससे आती हैं।
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो।।3।।
श्री
रघुनाथजी ने पहले के
(जीवितकाल के) प्रेम को
विचारकर, पिता की ओर
देखकर ही उन्हें अपने
स्वरूप का दृढ़ ज्ञान
करा दिया। हे उमा! दशरथजी
ने भेद-भक्ति में
अपना मन लगाया था,
इसी से उन्होंने (कैवल्य)
मोक्ष नहीं पाया।।3।।
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर।।
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा।।2।।
हे
पक्षिराज ! इसी से दास
का नाष नहीं होता
और भेद-भक्ति बढ़ती
है। श्रीरामजीने मुझे जब भ्रम
से चकित देखा, तब
वे हँसे। वह विशेष चरित्र
सुनिये।।2।।
हमारे
कान कृष्ण हैं और कथा राधिका हैं, जब भी राधिका कृष्ण को देखती हैं तब दौड कर मिलने
के लिये आती हैं।
बुध
जन – विद्वान - अनेक होते हैं जब कि बुद्ध जन सिर्फ कोई कोई हि होता हैं।
रुप
अनेक होते हैं लेકિन स्वरूप एक હિ होता हैं।
3
Monday, 01/03/2021
માનસમેં
ગંગ ઔર ગંગા શબ્દ આતે હૈં, ૧૭ બાર યહ દોનોં શબ્દ આયે હૈં।
પ્રવૃત્તિ
પરાયણ ઔર નિવૃતિ પરાયણ વ્યક્તિઓકા પ્રમાણ માનના ચાહિયે।
કવિતા
સરસ્વતીકા અવતાર હૈં।
દીનતા
કી ભી એક મહત્તા હોતી હૈં।
નિવૃત્તિ
પરાયણ આચાર્ય ભગવાન શંકર હૈં। પ્રવૃત્તિ પરાયણ આચાર્ય ભરત હૈં। ભરત આચાર્ય શિરોમણી
હૈં।
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1॥
तथापि
मैं तुम्हारा काम तो करूँगा,
क्योंकि वेद दूसरे के
उपकार को परम धर्म
कहते हैं। जो दूसरे
के हित के लिए
अपना शरीर त्याग देता
है, संत सदा उसकी
बड़ाई करते हैं॥1॥
कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥
शिवजी
ने कहा- यद्यपि ऐसा
उचित नहीं है, परन्तु
स्वामी की बात भी
मेटी नहीं जा सकती।
हे नाथ! मेरा यही
परम धर्म है कि
मैं आपकी आज्ञा को
सिर पर रखकर उसका
पालन करूँ॥1॥
ભોલે
વ્યક્તિઓકો કિસીકા પ્રમાણપત્ર લેનેકી આવશ્યકતા નહીં હૈં, ભોલાપન હિ એક પ્રમાણપત્ર હૈં।
आगें रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बि राजत काछें॥
उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बि च माया जैसें॥1॥
आगे श्री रामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया!॥1॥
भगवान
शंकर कल्याण करानार, कृपा करनार, करूना करनार देव हैं।
मानस
में सागर शब्द अनेक बार आया हैं।
અધમ
કોંણ છે? અધમ કોને કહેવાય?
બીજાને
મન વચન કર્મથી બીજાને પિડા આપે તે અધમ છે.
બુદ્ધ
પુરૂષમાં વિવિધતા બહું હોય. દરરોજ નવિનતા હોય.
સાગર
પાસે નદીઓ આવ્યા જ કરે.
બુદ્ધ
પુરૂષમાં વિશિષ્ટતા બહું હોય.
બુદ્ધ
પુરૂષમાં વિલક્ષણતા બહું હોય – વિવિધ લક્ષણ હોય તેમજ બહું વિચિત્ર પણ હોય, વિચિત્રતા
બહું હોય.
બુદ્ધ
પુરૂષમાં ચૈતસિક વિલાસ ચિદ વિલાસ બહું હોય. એના વિલાસમાં વૈરાગ્ય બહું હોય.
4
Tuesday, 02/03/2021
રામ
સ્મરણ છે કામ સેવા છે. સ્મરણ બાહ્ય છે સેવા આંતરિક છે.
આપણું
લક્ષ્ય પુરૂ થયા પછી સંતુષ્ટ ન થતાં કર્મ ચાલું રાખવું જોઈએ કારણ કે ઘણા બધાના કાર્યો
– યજ્ઞો - બાકી રહ્યાં હોય છે.
કથા
એ એક અવસર છે જે વારંવાર નથી આવતો.
હાર્ટમાં
રામ, હાથમાં કામ, કરતા જઈએ રામનું કામ.
સેવાના
અનેક પ્રકાર છે, કથા શ્રવણ પણ એક સેવા છે.
વક્તાના
વકતવ્યમાં ખલેલ ન કરવી જોઈએ.
કથા
શ્રવણ કરવાથી પરીક્ષિતનો સાત દિવસમાં જ મોક્ષ થઈ ગયો.
૫
બુધવાર, ૦૩/૦૩/૨૦૨૧
કુકડો
જે જગાડવાનું કાર્ય કરે છે તેની સૌથી વધું હત્યા થાય છે. જે જાગૃત છે તેણે કપાવવાની
તૈયારી રાખવી પડે. જે જાગે છે તે જ બીજાને જગાડી શકે છે.
साधु
तो चलता भला यह मूल पंक्ति हैं, लेकिन साधु तो जागता भला और साधु तो भजता भला भी ज्यादा
आवश्यक हैं, सुसंगत हैं।
सुरता
का लक्ष्य भजन होना चाहिये।
साधना
करने में पंच केश बढाये जाते हैं और पंच क्लेश खतम किये जाते हैं।
हरिनाम
आहार होना चाहिये, साधु को जब पूछा जाता हैं कि तुम्हारा आहार क्या हैं तब साधु हरिनाम
आहार ऐसा जवाब देता हैं।
प्रहल्लाद
भगत शिरोमणि छे, बाकी भगत तो अनेक होते हैं।
आगें चले बहुरि रघुराया।
रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा।
आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥
श्री
रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों
सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर-॥1॥
धीरज
जैसा ओर कोई भजन नहीं हैं।
6
Thursday, 04/03/2021
ज्ञान
साधक का बेटा हैं और सुरता साधक का हैं।
गुरु
एक सागर हैं, जहां १० रत्न हैं, मूलमें तो १ हि रत्न हैं। गुरु रत्न हैं, उसे तिजोरी
में रखना चाहिये।
विभीषण
वैष्णव हैं, पढा लिखा हैं।
सागर
राम का गुरु है ऐसा विभीषण कहता हैं। गंगा शिष्या हैं, ईसीलिये गंगासागर शिष्य और गुरु
का संगम हैं, मिलन हैं। गंगा के पीछे उसके गुरु का नाम सागर हैं, ईसीलिये गंगासागर
नाम हैं।
विवेक
की गति मंद होती हैं। घोडा की गति तेज हैं। पालखी की गति मध्यम हैं।
सूत्र
एकवचन हैं, बहु वचन नहीं हैं।
दर्शन
करते समय आंख खुली रखो और श्रवण करते समय कान खुले रखो, आंख बंध रखो।
गुरु
आश्रित जो समर्पित हैंम उसे गुरु बनाकर – अपने समान बनाकर हि छोडता हैं।
धर्म
का अर्थ स्वभाव हैं।
शिकायती
चित आध्यात्म यात्रा नहीं कर शकता हैं।
पूरन काम राम अनुरागी।
तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी।
पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।3।।
आप
पूर्णकाम हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात ! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है।
संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है।।3।।
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि
कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि
सकल भालु कपि धारि॥50॥
हे
प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ
और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥
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