RAM KATHA - 897
રામ કથા – 898
માનસ વ્યાસ ગુફા
બદ્રિનાથ ધામ, ઉત્તરાખંડ
શનિવાર, તારીખ ૧૮/૦૬/૨૦૨૨ થી
રવિવાર, તારીખ ૨૬/૦૬/૨૦૨૨
મુખ્ય ચોપાઈ
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना।
जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी।
काकभुसुंडि गरुड के ही
की॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि।
बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
1
Saturday, 18/06/2022
एहि प्रकार बल मनहि देखाई।
करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥
इस
प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि
जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होंने बड़े आदर से श्री हरि का सुयश वर्णन किया
है॥1॥
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। काकभुसुंडि गरुड के ही की॥
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत
पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं
नर उपज बिनीत।।127।।
हे
उमा ! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण
(अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।
मानस
में व्यास शब्द तीन बार आया हैं जिसमें रामायणकी एक पंक्ति भी समाहित हैं।
यह
कथा के ९ बिन्दु …………
१
व्यास
विद्या
२
व्यास
विवेक
३
व्यास
विचार – पांडुरंग दादा ने व्यास विचार नामक ग्रंथ लिखा हैं।
४
व्यास
विश्वास – व्यास धवल – उज्जवल होना चाहिये – बिना दाग वाला विश्वास, विश्वास पहाड की
तरह अचल होना चाहिये – मेरु रे डगे पण मन ना डगे …….. गंगासती, विश्वास शीतल होना
चाहिये – विश्वास ऊग्र नहीं होना चहिये।
भारत विश्व
गुरु था, हैं और रहेगा।
विश्वास
गौर वर्ण, कर्पूरगौरम् हैं। भगवान शंकर विश्वास हैं।
५
व्यास
वैराग्य
६
व्यास
विनोद – मधुर और सुचारु विनोद
७
व्यास
विशालता
८
व्यास
विद्रोह – जगत को सत्य बतानेके लिये ऊंचे स्वरमें बोलना- घोषणा करना
९
व्यास
विषेश
व्यास
विद्या ………….
बोलना
विद्या नहीं हैं, लेख लिखना, अखबार में लेख लिखना वगेरे विद्या नहीं हैं।
व्यास
विद्या से पाप खत्म होने लगते हैं, उद्धार हो जाता हैं,व्यास विद्या हमें ऊर्जा से
भर देती हैं।
नहिं दरिद्र सम दुख जग
माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।
जगत्
में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है।
और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।
मानस
के सात कांड और गीता के १८ अध्याय जैसे शास्र के दर्शन करने से दर्द नाश होने लगता
हैं।
दरस परस मज्जन अरु पाना।
हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति।
कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥
वेद-पुराण
कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी
बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह
सकतीं॥1॥
बाप
दादा की बिरासत को संभालना चाहिये, यह आग्रह मुक्त संग्रह हैं।
जो
विद्या हमारी ईन्द्रीयोको स्वाधिनता प्रदान करे, हमें निज सुख की प्राप्ति करा दे वह
विद्या सच्ची विद्या हैं, ऐसी विद्या विश्व कल्याण करती हैं, ऐसी विद्या हमारे भाव
और प्रेम को निरंतर बढोतरी कराती हैं – वर्धन कराती हैं।
गो
शब्द के अर्थ ………….
नारी
वाचक अर्थ ………..
१. गाय ।
गऊ ।
२. प्रकाशरश्मि । किरण ।
३. वृष राशि
।
४. ऋषभ नाम
की औषधि ।
५. इंद्रिय ।
६. बोलने की
शक्ति । वाणी । उ॰—
गोकुल की छबि कबि क्यों
कहै । गो जब लौं
गोकुल नहिं गहै
।— घनानंद॰, पृ॰
२९२ ।
७. सरस्वती ।
८. आँख ।
दृष्टि । देखने की शक्ति
।
९. बिजली ।
१०. पृथ्वी ।
जमीन ।
११. दिशा ।
१२. माता ।
जननी ।
१३. किसी धातु
की बनी गोमूर्ति
।
१४. बकरी, भैंस,
भेड़ी इत्यादि दूध
देनेवाले पशु ।
१५. जीभ ।
जबान । जिह्वा
।
१६. ज्योतिष में नक्षत्रों
की नौ वीथियों
में से एक ।
नर
वाचक अर्थ ………..
१. बैल ।
२. नंदी नामक
शिवगण ।
३. घोड़ा ।
४. सूर्य ।
५. चंद्रमा ।
६. बाण ।
तीर ।
७. गवैया ।
गानेवाला ।
८. प्रशंसक ।
९. आकाश ।
१०, स्वर्ग ।
११. जल ।
१२. वज्र ।
१३. शब्द ।
१४. नौ का
अंक ।
१५. शरीर के
रोम ।
१६. पशु (को॰)
।
१७. हीरा (को॰)
।
१८. गोमेध नामक
यज्ञ (को॰) ।
हमारी
आवाज अपने बाप की, आंख माता की और ह्नदय गुरु का – जैसा होना चाहिये।
गुरु
के लक्षण ……….
१
गुरु
मतवाला -मस्त होना चाहिये।
२
गुरु
सतवाला होना चाहिये, सत्य का पथिक होना चाहिये
३
गुरु
पतवाला – जो बोले ऐसा करे ऐसा होना चाहिये।
४
गुरु
गतवाला – प्रवाही परंपरा वाला होना चाहिये।
५
गुरु
व्रतवाला – जिसके आधिन व्रत हो ऐसा होना चाहिये, गुरु व्रतके आधिन नहीं होना चाहिये।
૨
રવિવાર, ૧૯/૦૬/૨૦૨૨
मैं
बाप कहकर श्रोताओका स्वागत करता हुं।
भगवान
शंकर, अग्निदेव, नारद, उद्धवजी बद्रिधाम मे
तपस्या करके अपना दोष निवारण करते हैं।
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि।
बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा।
देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥
हिमालय
पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र
सुंदर आश्रम देखने पर नारदजी के मन को बहुत ही सुहावना लगा॥1॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा।
भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति
बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥
पर्वत,
नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादरजी का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम
हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति
ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक
ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई॥2॥
सत्या
की तुलना सत्य के तराजु से होती हैं।
वक्ता
व्यासपीठसे संवाद करके श्रोताओका स्वागत करता हैं।
वक्ता
श्रोताओ को पच शके ऐसी कथा सुनाता हैं जो एक स्वागत हैं।
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा।।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।
कहो
तो, भक्तिमार्गमें कौन-सा परिश्रम है ? इसमें न योगकी आवश्यकता है, न यज्ञ जप तप और
उपवास की ! [यहाँ इतना ही आवश्यक है कि] सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो
जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रक्खे।।1।।
वक्ता
अपने श्रोताओका स्वागत चंदन से करता हैं, ईसका मतलब शीतल मलम – शीतल बानीसे श्रोताओ
का संसारिक उपाधिओ से छुडाता हैं। वक्त चंदन जैसा मलम लगा के श्रोताओ के घाव मिटाता
हैं, उस पर नमक नहीं डालता हैं।
श्रोता
बकरी जैसे होते हैं, घेटा जैसे नहीं होते हैं, अपवाद हो शकता हैं।
अधरं मधुरं वदनं मधुरं,
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं,
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥
(मधुराधिपते अखिलं मधुरम्)
अधरं मधुरं
– श्री कृष्ण के होंठ मधुर हैं
वदनं मधुरं – मुख मधुर है
नयनं मधुरं – नेत्र (ऑंखें) मधुर हैं
हसितं मधुरम् – मुस्कान मधुर है
हृदयं मधुरं – हृदय मधुर है
गमनं मधुरं – चाल भी मधुर है
मधुराधिपते – मधुराधिपति (मधुरता के ईश्वर श्रीकृष्ण)
अखिलं मधुरम् – सभी प्रकार से मधुर है
श्री
मधुराधिपति (श्री कृष्ण) का सभी कुछ मधुर है। उनके अधर (होंठ) मधुर है, मुख मधुर है,
नेत्र मधुर है, हास्य (मुस्कान) मधुर है, हृदय मधुर है और चाल (गति) भी मधुर है॥
वक्ता
वाद्य बजाते हुए – वीणा वादन से श्रोताओ का सन्मान करता हैं।
वक्ता
श्रोताका घी से – ज्ञान से सन्मान करता हैं, वक्ता से वचन से हम शांत हो जाती हैं।
वक्ता
जल से श्रोता का सन्मान करता हैं, जल भी एक गुरु हैं, जल जो जलता हैं उसे बुझाता हैं।
गंगा
नदी के किनारे जाने से भी आध्यात्म समजमें आता हैं।
आंख
में तेज और भेज होना चाहिये, संवेदना का भेज और आध्यात्म का तेज होना चाहिये।
वक्ता
शंख बजा कर श्रोता का सन्मान करता हैं, शंख ध्वनि ऊर्जा वर्धक – उत्साह वर्धक हैं,
शंख ध्वनि युद्ध वर्धक नहीं हैं बुद्ध वर्धक हैं।
अस्तित्व
कथा में आये हुए श्रोताओ का स्वागत करता हैं।
संसारी
चीज बदलता हैं, संन्यासी चित बदलता हैं।
मंत्र,
मूर्ति और माला कभी भी बदलना नहीं चाहिये।
………… पूज्य डॉगरे बापा
प्रतिष्ठा
सब को देना चाहिये लेकिन निष्ठा सिर्फ अपने गुरु को हि देना चाहिये।
मुस्कहारट
के साथ मौन की मस्ती लेनी चाहिये।
स्थुल
पत्नी – जिस के साथ पाणिग्रहण हुआ हैं, प्रज्ञा भी पत्नी हैं, मैत्री भी पत्नी हैं,
और करुणा भी पत्नी हैं – यह चार हमारी पत्नी हैं।
शिकायती
चित कभी भी आध्यात्म की यात्रा नहीं कर शकता हैं।
व्यास
विश्वास ………….
नाभा
की वार्ता ……..
गुरु
जीवन देता हैं, नस नस में प्रेम देता हैं।
पिता
हयात हो तो पिता की सेवा करो और अगर हयात न हो तो पिता का स्मरण करो।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा॥4॥
हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी
है, जो पिता-माता
के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा
पालन द्वारा) माता-पिता
को संतुष्ट करने वाला पुत्र,
हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥4॥
सुमित्रा
कहती हैं …….
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥
परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव
से ही हित चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जानकीजी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार
से स्नेह करने वाले श्री रामचन्द्रजी तुम्हारे
पिता हैं!॥1॥
संपति
के तीन प्रकार – बाप दादा से मिली संपति, कमायी हुई संपति और छल कपट से प्राप्त किई
हुई संपति।
तेजस्वी
व्यक्ति का तेज छीनने का परिवार वाले प्रयत्न करे तब उस तेजस्वी व्य्क्ति को उस संसार
त्याग कर देना चाहिये।
ज्ञान
को विश्वास हि धारण कर शकता हैं।
पात्रता
हि व्यास विश्वास हैं।
पिता
विश्वास हैं, माता श्रद्धा हैं।
ध्रुव
तारक विश्वास हैं।
अक्षय
वट विश्वास हैं।
विश्वास
पंच मुख हैं, त्रिनेत्र हैं।
अंगद
पग विश्वास।
संतसभा
सुकृती साधु नाम गुन गाना।
ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥
सुकृती
(पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों
के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और
श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥
राजसभा
ज्ञानसभा
देवसभा
ब्रह्नसभा
राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
विश्वास
भंग कराये ऐसी व्यक्तिका संग नहीं करना चाहिये।
व्यास
विश्वास जागृत हैं, महादेव हैं, पात्र हैं, अंध नहीं हैं, अक्षय वट हैं, ध्रुव तारक
हैं
“मेरे
गुरु का नाम विश्वास हैं” …….. स्वामी विवेकानंदका
जवाब
मानस
में बापू शब्द एकबार हि आया हैं।
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
भरतजी यह सुनकर पुलकित
शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के समान हितैषी
तो माता-पिता भी नहीं है॥1॥
3
Monday, 20/06/2022
व्यास
विचार ………
जब
तक सुक्ष्म समजमें न आये तब तक स्थुल आवश्यक हैं. उपकारक हैं।
जब
तक निराकार समज में न आये तब तक मूर्ति रुप आवश्यक हैं। जिस की समजमें निराकार आ जाता
हैं वह बाद में मूर्ति की अवहेलना नहीं करता हैं।
स्थुल
ब्रह्न भावात्मक रुप में अष्ट भूज हैं, सुक्ष्म ब्रह्म चतुर्भूज हैं, परम ब्रह्न द्वि
भूज हैं। राम, कृष्ण परम ब्रह्न हैं, द्वि भूज हैं।
राम ब्रह्म परमारथ
रूपा।
राम,
सीता, शिवजी, पार्वती परम ब्रह्न हैं।
रुचिना
….
भगवान
वेद व्यास का मुख एक गुफा हैं, जिस में से सरस्वती रुपमें – विचार के रुप में बह रही
हैं, यही व्यास विचार हैं।
माता पुनि बोली सो मति
डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला
यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना
होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद
पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥
माता
की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला
करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी
सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र
का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते॥4॥
बिप्र धेनु सुर संत हित
लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु
माया गुन गो पार॥192॥
ब्राह्मण,
गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया
और उसके गुण (सत्, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य)
शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों
के द्वारा नहीं)॥192॥
रामायण
और गीता हमारा आधार कार्ड हैं, पुरे ब्रह्नांडमें घुमनेका विझा हैं। रामायण और गीता
के गुटके जेबमें रखने चाहिये। ईसमें लाभ का
बिचार नहीं करना चाहिये।
यं प्रव्रजन्तमनुपतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं
सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ (१ । २ । २)
जिस
समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मों
के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्य से
जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे — ‘बेटा ! बेटा !’ उस
समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया । ऐसे सबके हृदय
में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को में नमस्कार करता हूँ ।
दरस परस मज्जन अरु पाना।
हरइ पाप कह बेद पुराना॥
गीता
रामायण के गुटके अगर हमारी जेब में हैं जो स्मरण दिलाते हैं कि परामात्मा हमारे साथ
हैं जिससे हमें कुछ गलत नहीं करना हैं, और अपनी फर्ज सही तरह निभाना हैं।
द्युत
सभा जहां जुगार खेला गया था वह भी एक सभा हैं।
नरसिंह
मेहता राम सभा का उल्लेख करते हैं जहां खेलनेके लिये जानाको कहते हैं।
तवकथामृतं तप्तजीवनं
कविभीरिडतं कल्मषापहं
श्रवण मंगलं श्री मदाततं
भुविगृणन्ति ते भूरिदा
जनाः
अगर
बेरखा साथमें हैं तो गुरु हमारे साथ हैं।
आदमी
विचारवान होना चाहिये, बलवान होना चाहिये।
ब्रह्न
विचार
वेद
विचार
आध्यात्म
विचार
रामायण
में बुद्धि विचार, ह्नदय विचार, विवेक विचार, वगेरे विचार हैं।
किसीकी
बाधा न बनना सबसे बडी सेवा हैं।
कर्म
कौन करता हैं?
कर्म
मन करता हैं। शरीर कर्म करनेका साधन हैं।
मनजात किरात निपातकिए। मृग लोक कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे।
बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
कामदेवरूपी
भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे
नाथ ! हे [पाप-तापका हरण करनेवाले] हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन
पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये।।4।।
भगवान
वेद व्यास के विचार जगत का कल्याण करनेवाले विचार हैं।
ह्नदय
भी एक गुफा हैं जहां से विचार नीकलते हैं।
मानसममें
चार मंगालमय गुफा हैं। कथा कानो से पी जाती हैं और उससे तंदुरस्ती आती हैं।
जब
कृष्ण अंदर हैं तब वह अंतरयामी हैं और जब बाहर हैं तब वह कृष्ण गुरु हैं।
किसी
भी व्यक्ति सरल मार्ग से कृष्ण को पा लेता हैं जब वह जो भी कार्य करे तो यह सोच कर
करे वह केवल कृष्ण के लिये कर रहा हैं। ऐसा करने में मन खलेल नहीं करता हैं।
ज्यादा
समय किसी साधु के पास बैठनेसे भी कृष्ण मिलता हैं।
कृष्ण
का स्मरण करते करते कार्य करना भी कृष्ण मिलता हैं।
यह
सब व्यास के ह्नदय विचार हैं।
मानस
की चार गुफा – किष्किन्धाकांड में चार गुफा हैं। वाली जिस गुफा में गया था वह मानवी
की मन की गुफा हैं, राम जहां चतुरमास रहे वह गुहा चित गुफा हैं, स्वयंप्रभा की गुफा
बुद्धि की गुफा हैं, संपाति की गुफा अहंकार की गुफा हैं।
4
Tuesday, 21/06/2022
विश्व
योग दिन ….
जे प्राकृत कबि परम सयाने।
भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥
जो
बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है,
जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं
सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥
योग
सतयुग हैं, योग का प्रयोग द्वापर युग हैं, अपना विषाद भी योग हैं – अर्जुन विषाद योग,
गीता के सभी अध्याय योग हैं।
“सत्यम्
परम धिमहि” भागवत का पारंभ और में आता हैं।
मानस
व से शरु होता हैं और अंतिम शब्द भी व हैं।
हर
घटनाको योग बनावो।
प्रत्येक
कर्म योग हैं – कर्म योग हैं।
योगी
की आंख भीगी होनी हि चाहिये।
मानस
के केन्द्रिय पंक्ति में एक नयी पंक्ति ………
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा।
देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥
हिमालय
पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र
सुंदर आश्रम देखने पर नारदजी के मन को बहुत ही सुहावना लगा॥1॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं।
प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥
गुफा
के अर्थ
पहाड
के बीच का गड्डा
कंदरा
कॉख
– बगल
गहरा
गुह्य
– गोपनीय
गहवर
निकुंज
-कुंज गली
ह्नदय
अंतःकरण
गुहार
– पुकार
गुहाचर
गुप्तमें
रहनेवाला
राम
का एक मित्र – गुहराज
व्यास
विवेक ………..
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
सत्संग
के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं।
सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन
तो फूल है॥4॥
अपनी
वाणीमें विवेक होना चाहिये।
प्रिय
सत्य बोलना चाहिये।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं
ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:
॥
सत्य
बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु
असत्य नहीं बोलना चाहिये ; यही सनातन धर्म है ॥
कई
व्यक्ति को तु से पुकारने में भी विवेक हैं।
लव, लग्न अने लहेणुं थई गया पछी ज खबर पडे।
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा
सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन
रबि कर निकर॥5॥
मैं
उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री
हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों
के समूह हैं॥5॥
वाणी
विवेक
विरोध
करो लेकिम अपराध न करो। नुकशान करके विरोध नहीं करना चाहिये।
देश,
काल और पात्र देखकर बोलना चाहिये, यह तीन अगर योग्य हैं तभी हि बोलना चाहिये।
वस्त्र
विवेक
मर्यादा
रहे ऐसे वस्त्र पहनने चाहिये।
वर्तन
विवेक
सार्वभोम
विधान करने से पहले यह विधान विवेकपूर्ण हैं को नहीं वह देखना चाहिये।
विहारमें
भी विवेक होना चाहिये।
विषय
विवेक
विशय
भोगमें और वक्ताके वकतव्य के विषय में भी विवेक होना चाहिये।
जिस
को रामनाम की लत हो ऐसा गुरु करना चाहिये।
विधान
विवेक
विहार
विवेक
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥2॥
एक
बार सुंदर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुंदर
स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए॥2॥
मोज
करो लेकिन मर्यादा का भी खयाल रखो।
विलास
विवेक
चिद
विलास – चैतसिक विलास
राम
कथा आध्यात्मिक विलास हैं।
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा।
गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ।
एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥
शिव-पार्वती
विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए
विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥
जब जनमेउ षटबदन कुमारा।
तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।
षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥
तब
छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में
तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध
है और सारा जगत उसे जानता है॥4॥
वर्तन
विवेक
सोक कनकलोचन
मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला।
अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
शोक रूपी हिरण्याक्ष ने (सारी सभा की) बुद्धि
रूपी पृथ्वी को हर लिया जो विमल गुण समूह रूपी जगत की योनि (उत्पन्न करने वाली) थी। भरतजी के विवेक रूपी विशाल वराह (वराह रूप धारी भगवान)
ने (शोक रूपी हिरण्याक्ष को नष्ट कर) बिना ही परिश्रम उसका उद्धार कर दिया!॥2॥
श्रोता सुमति सुसील सुचि
कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा पति गोप्यमपि सज्जन
करहिं प्रकास।।69ख।।
हे
उमा ! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर
सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को प्रकट कर देते हैं।।69(ख)।।
सुर,
स्वर और कला के उपासक अगर संघर्ष करे तो समज लो को विनाश होनेवाला हैं।
आगमोऽपः प्रजा देशः कालः
कर्म च जन्म च।
ध्यानं मंत्रोऽथ संस्कारो
दशैते गुण-हेतवः॥
शास्त्र,
जल, प्रजा, देश, काल, कर्म, जन्म, ध्यान, मंत्र और संस्कार- ये दस वस्तुएं गुण की कारण
हैं। (अर्थात यदि ये सात्त्विक हों ता सत्त्वगुण की, राजस हों तो रजोगुण की और तामस
हों तो तमोगुण की वृद्धि होती है।)
आगम
विवेक
आप
- जल के साथ विवेक रखना चाहिये, जल का बिगाड नहीं करना चाहिये, प्रदुषित नहीं करना
चाहिये।
जल
के साथ योग्य विवेक न होने से जल संकट पेदा हुआ हैं।
प्रजा
के साथ राजाको विवेक रखना चाहिये। राजा जन रंजन करे और पालन भी करे।
देशका
विवेक – अपने देशका गर्व रखना चाहिये।
"जननी जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी"
काल
का विवेक
कर्म
का विवेक
जन्म
के खानदान का विवेक
ध्यानमें
विवेक होना चाहिये, यम , नियम, आसन, ध्यान, धारणा में विवेक होना चाहिये।
ध्यान
हो जाता हैं, करना नहीं पडता हैं।
दूसरोका
खयाल रखनेमें भी विवेक होना चाहिये।
गुरु
मंत्र करते समय गुरु को याद करना चाहिये।
5
Wednesday, 22/06/2022
योगका
प्रथम चरण वाक निरोध हैं। ………….. आदि शंकर
कम
बोलना – वाणी पर संयम - योग द्वारका प्रवेश द्वार हैं।
योग
का दूसरा चरण अपरिग्रह – संग्रह कम करना हैं।
किसीसे
कोई आशा न रखना भी योग का एक चरण हैं।
निरिहा
– निरिह का अर्थ ईच्छा हैं।
लोकेष्णा,
वितेष्णा, सुतेष्णा यह तीन आष्णा - ईच्छा हैं।
वित
का अर्थ लक्ष्मी हैं, श्री हैं, पैसा नहीं हैं।
शंकर का अद्वैतवाद रसहीन नहीं हैं, शंकर के कुल देवता बांकेबिहारी हैं – कृष्ण हैं
ज्प रसोवैसः हैं।
प्रेम
निरस नहीं हो शकता।
रज
और भष्म भीगी होती हैं
रज
से अंजन हो शकता हैं? रज को अपने आंसु से भीगी करके फिर उससे अंजन करनेसे आंख पवित्र
होती हैं।
शंकर
भगवान गीता का गान करनेको कहते हैं।
एक
हि नाम बार बार गाने से सहस्त्रनाम हो जाता हैं।
गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं
श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं
देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥27॥
उस
परम परमेश्वर का सदैव ध्यान कीजिए। उसकी महिमा का गुणगान कीजिए। हमेशा संतों की संगती
में रहिए और गरीब एवं बेसहारे व्यक्तियों की सहायता कीजिए।
अन्नदान
– भोजन कराना आध्यात्मकी एक विधा हैं।
पैसा
नहीं बांटो लेकिन कमाई का दसवां हिस्सा बांटो।
नित्य
एकांत अपना शील बन जाय – जब समय मिले तब एकान्तमें रहना योग का प्रवेश द्वार हैं।
व्यास
विराग ……….
९
का अंक रिक्त हैं, शून्य हैं।
मंगलाचरण
में ९ की वंदना की गई हैं।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां
छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे
वाणीविनायकौ॥1॥
अक्षरों,
अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना
करता हूँ॥1॥
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति
सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
श्रद्धा
और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके
बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं
शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि
चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
ज्ञानमय,
नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा
भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ
कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
श्री
सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न
कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं
क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां
नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
उत्पत्ति,
स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को
करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
यन्मायावशवर्ति
विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति
सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं
रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
जिनकी
माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी
में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल
चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से
पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता
हूँ॥6॥
नानापुराणनिगमागमसम्मतं
यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
अनेक
पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र
से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त
मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥
रय
रघुबंस ……….. स्तुति में ९ बार जय शब्द आया हैं।
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥
हे
रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि!
आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध
और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो॥1॥
बिनय सील करुना गुन सागर।
जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा।
जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥2॥
हे
विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो।
हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि
धारण करने वाले! आपकी जय हो॥2॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा।
जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता।
छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता॥3॥
मैं
एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय
हो। मैंने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मंदिर दोनों भाई! मुझे
क्षमा कीजिए॥3॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए
बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने।
जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥
हे
रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी
तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर
से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका
बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥4॥
सुमंत
की विदाय ……
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥
सुमंत
की ९ पीडा का वर्णन हैं।
व्यास
विरागमें ९ प्रकार के विराग का वर्णन हैं।
व्यास
पुत्र शुकदेवजीका वैराग्य …..
शुक
एक फल हैं – व्यास पुत्र हैं, उसमें ईतना वैराग्य हैं उस आम पेड – व्यास में कितना
वैराग्य होगा?
व्यास
के संसार के नीचे – सर्जक के नीचे परम वैराग्य हैं।
व्यासजी
का वैराग्य विशेष प्रकार का राग – लगाव हैं।
व्यास
का कृष्ण प्रत्ये का विशेष राग परम वैराग्य हैं, ईसीलिये व्यास महाभारत के बाद श्रीमदभागवत
की रचना करके दशम स्कंधमें कृष्ण प्रत्येके विशेष राग की रचना करते हैं।
समस्त
रागो से विरक्त होनेवाला वैराग्य, सब सिद्धि त्रुण समान लगे ऐसा वैराग्य।
निम्न
को छोडना त्याग नहीं हैं लेकिन श्रेष्ठ को छोडना त्याग हैं।
परम
श्रेष्ठ को पकडना त्याग हैं और ऐसे परम श्रेष्ठ को जग कल्याण के लिये छोडना परम त्याग
हैं।
कृष्णमें
साधन शुद्धि कम लेकिन साध्य शुद्धि ज्यादा हैं, राम साधन शुद्धि और साध्य शुद्धि दोनों
हैं।
विवेक
राजा हैं और वैराग्य सचिव हैं, सचिव का ज्यादा महत्व हैं।
परम
वैरागी विश्व शांति के लिये अपनी शांति दे देना परम वैराग्य हैं।
वस्त्र
त्याग भी एक त्याग हैं, शरीर छोडना भी त्याग हैं लेकिन वृत्तिका त्याग परम वैराग्य
हैं।
प्रेम
मार्ग में प्रियजन के लिये अपना प्राण त्याग कर देना परम वैराग्य हैं, दशरथ अपने प्रिय
रामके लिये अपने प्राण त्याग कर देते हैं।
द्वैत
से क्रोध पेदा होता हैं।
मुस्कहारट
के साथ मौन रहनेसे क्रोध दूर होता हैं।
कोई
अपने पीछे पडे तो अपना भजन बढाओ।
6
Thursday, 23/06/2022
व्यास
विलास …………..
विलास
का अर्थ परमात्मा में विलास हैं, उस विलास की यहां संवाद हैं। यह सद विलास हैं
हमारा
विलास और व्यास विलास अलग हैं।
शास्त्र
के विषय में बोलने के लिये, व्यास पीठ उपर बैठने के लिये तपस्त्या आवश्यक हैं।
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति
भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं
सृजाम्यहम्।।”
इस
श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं “जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, विनाश का
कार्य होता है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर आता हूँ और इस पृथ्वी
पर अवतार लेता हूँ।”
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय
च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि
युगे युगे।।”
इस
श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं “सज्जनों और साधुओं की रक्षा करने लिए और पृथ्वी पर
से पाप को नष्ट करने के लिए तथा दुर्जनों और पापियों के विनाश करने के लिए और धर्म
की स्थापना के लिए मैं हर युग में बार-बार अवतार लेता हूँ और समस्त पृथ्वी वासियों
का कल्याण करता हूँ।”
रामानंदी,
दशनाम गोस्वामी और वैष्णवी परंपरा सत्यम् शिवम् सुंदरम् हैं।
सच्चिदानन्द रूपाय विश्व
उत्पत्यादिहेतवे |
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय
वयं नुमः ||
जो
सत्य, चित्त और आनंद के स्वरूप हैं, जो संपूर्ण विश्व की उत्पत्ति और प्रलय के कारण
हैं | जो तीनों प्रकार के तापों (दैहिक, दैविक और भौतिक) का विनाश करने वाले हैं, उन
परम पिता भगवान श्री कृष्ण जी महाराज को हम सब प्रणाम करते हैं |
चित
विलास
डांडिया
रास चिद विलास हैं, ब्रह्न से रमण हैं।
आनंद
विलास …………….
भागवत
की भाषा समाधि की भाषा हैं जो योग की आखरी स्थिति हैं। यह व्यास भगवान का योग विलास
हैं।
भगवाद
गीता एक रत्न हैं, उसके १८ अध्याय १८ योग हैं।
योग
का एक अर्थ जोडना हैं, भगवान वेद व्यास ने जोडनेका कार्य किया हैं, यह भी एक योग विलास
हैं।
समान
धर्मी एक दूसरे को सन्मान नहीं देते हैं, क्यों कि द्वैत द्वेष पेदा करता हैं।
मोजमें रहना चाहिये लेकिन ईस के साथ हरि की खोज भी करनी चाहिये।
जो
आनंद में रहता हैं वह योग विलास प्राप्त करता हैं।
भाव
विलास ………
व्यास
भगवान रसिक हैं।
व्यास
विलास विरह विलास भी हैं।
श्री गुर पद नख मनि गन
जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ
जासू॥3॥
श्री
गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते
ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश
करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
सो
सु का अर्थ सूर्य होता हैं जो रात्रि का अंधकार दूर करता हैं।
7
Friday, 24/06/2022
ज्ञान
विलास …..
वाक
विलास – वाणी विलास …… वाणी का ऐश्वर्य और वाणी का माधुर्य …
कृष्ण
कथा में व्यासजी की ह्नदय की वाणी हैं।
कंठ
से जो स्वर नीकलता हैं वह ईश्वर तक पहुंचाता हैं।
भगवद
गीता के आखिरी चार श्लोक चतुष्लोकी हैं।
भक्ति
मार्ग में स्मरण होता हैं – बार बार याद करना।
हरि
का साक्षात्कार हम पचा नहीं शकते हैं। अर्जुन भी विश्वरुप को नहीं पचा शका हैं। हरि
की याद हि पर्याप्त हैं, अगर हम हरि को भूल जाये तो भी हरि हमें नहीं भूलता हैं।
मानस
की चतुष्लोकी …………..
गनिका अजामिल ब्याध गीध
गजादिखल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि
अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन
होहिं राम नमामि ते।।1।।
अरे
मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी
? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर,
यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार
जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।
रघुबंस भूषन चरित यह नर
कहहिं सुनहिं जे गावहीं।।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु
श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि
जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित
बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।
जो
मनुष्य रघुवंश के भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे
कलियुगके पाप और मन के मलको धोकर बिना ही परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं।
[अधिक क्या] जो मनुष्य पाँच-सात चौपाईयों को भी मनोहर जानकर [अथवा रामायण की चौपाइयों
को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको] हृदय में धारण कर लेता
है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्रीरामजी हरण कर लेते
हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयोंको भी समझकर
उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी
हर लेते हैं)।।2।।
सुंदर सुजान कृपा निधान
अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद
सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद
तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम
समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम]
सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी
ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला
दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त
कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह
समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु
बिषम भव भीर।।130क।।
हे
श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं
है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि
लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय
लागहु मोहि राम।।130ख।।
जैसे
कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी
! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।
यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं
सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं
प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं
स्वान्तस्तंमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा
मानसम्।।1।।
श्रेष्ठ
कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर
[अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें
निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें
भाषाबद्ध किया।।1।।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं
विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं
प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं
भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति
नो मानवाः।।2।।
यह
श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको
देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा
मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी
अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।
वास्तव
पचता नहीं हैं सिर्फ कल्पना हि काफी हैं।
द्वारकाधीशकी
कल्पना हि काफी हैं।
विचार
बुरा नहीं लेकिन विकार बुरा हैं।
व्यासजी
जब नाभीसे बोले होगे तब नभ डोल गया होगा।
व्यास
और शुक कभी कभी नाभीसे, ह्नदय से और कंठसे बोले हैं।
गीता,
पुराण वगेरे शास्त्र - यह सभ व्यासका वाणी विलास हैं।
व्यासका
वेदना विलास …… व्यासके विचार – व्यास वाणी सब मानते नहीं हैं यह व्यासकी वेदना हैं।
१८
पुराण …………
पर हित सरिस धर्म नहिं
भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर।
कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।1।।
हे
भाई ! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान
कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात ! समस्त पुराणों और वेदोंका यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत)
मैंने तुमसे कहा है, इस बातको पण्डित लोग जानते हैं।।1।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग
माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।
जगत्
में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है।
और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।
साधु
ऊग्र नहीं होता हैं लेकिन व्यग्र जरुर होता हैं, यह साधुकी वेदना हैं।
सच्चा
सर्जक विनोदी होता हैं।
स्याम गात कल कंज बिलोचन।
जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु
सायक पानी॥3॥
जिनका
श्याम शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करने वाले
और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं, वे कौसल्याजी के पुत्र हैं,
इनका नाम राम है॥3॥
8
Saturday, 25/06/2022
व्यास
विलाप ………….
साधुता
प्रवेश करे तब शास्त्रो का अति अवलोकन न करके हरिका अवलोकन - हरि नाम करना चाहिये।
धर्म
का शोषण और अधर्म का पोषण कभी भी न करना चाहिये।
स्वधर्म
में मरण कबुल हैं परधर्म – विधर्म में कभी भी शरण नहीं लेना चाहिये।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥
हे
वीर! साँवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे
हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे
हैं?॥4॥
गलत
शरणागति न हो जाय ईसीलिये संपूर्ण परिक्षण – निरिक्षण आवश्यक हैं।
दादाजीमें
क्या था उसकी मोरारीबापुकी नोंध ………….
·
ज्यादा
ग्रंथ अवलोकन करनेसे चित भटक जाता हैं, कभी कभी ग्रंथी छूटनेकी बजाय द्रढ हो जाती हैं।
·
साधु
ज्यादा व्याख्यान नहीं करता हैं, कथा आख्यान नहीं हैं।
·
प्रवचन
करने से आत्मा नहीं मिलता हैं लेकिन कथा से परमात्मा मिलता हैं।
गृहस्थ
होते हुए संन्यासी हो शकते हैं।
·
कभी
किसीको शिष्य नहीं बनाना।
·
बहुत
बडे बडे प्रोग्राम नहीं करना।
·
एकांतमें
रहना और प्रभुके नाममें रममाण रहना।
·
स्थान,
वस्तु, व्यक्ति, विचार और समय में किसीके आधिन नहीं रहना। आधिन रहनेसे भजनमें भंग पडता
हैं।
·
भीडमें
नहीं रहना।
·
सबसे
प्रमाणिक अंतर रखना। किसीके पक्षमें नहीं रहना
·
असत
और अनाथ को ओवरटेक कर लेना।
यह
सब भागवत के सप्तम स्कंधमें आता हैं।
जथा भूमि सब बीजमय, नखत
निवास अकास।
राम नाम सब धरममय, जानत
तुलसीदास॥
जैसे
सारी धरती बीजमय है, सारा आकाश नक्षत्रों का निवास है, वैसे ही राम नाम सर्वधर्ममय
है—तुलसीदास इस रहस्य को जानते हैं।
व्यास
विलाप ………..
1. जन्म और मृत्यु के बिचमें व्यासने विलाप
किया हैं, शुकके जन्म समय व्यासने विलाप किया हैं।
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव
।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽपि
नेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि
॥ २ ॥
2. जब लाक्षाग्रहमें पाडवो को जलानेकी घटना
समय व्यास ने विलाप किया हैं।
3. द्रौपदी चिर हरण की घटना के समय व्यास
ने विलाप किया हैं।
4. महाभारत के युद्ध के समापन समय सब विधवा
का वर्णन करते समय व्यास ने रुदन किया हैं।
5. पांडवोके स्वर्गारोहण के समय व्यासने
रुदन किया हैं।
6. प्रभास क्षेत्रसे कृष्ण की लीलाके समापन
के समय पर व्यासने रुदन किया हैं।
तुलसीका
रुदन ……..
सुमंत
विदाय, भरत विदाय, अंगद विदाय, दशरथ महाराज के निधन के समय, विश्वामित्रकी विदाय वगेरे
समय तुलसी रुदन हैं।
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Sunday, 26/06/2022
भगवान
व्यास विश्व गुरु हैं।
व्यास
विशेष ………….
भगवान
व्यासजी की विशेषता – कवि मनिसी हैं।
सुर,
मीरा, नरसिंह मेहता वगेरे कवि मनिसी हैं।
व्यास
केवल कवि नहीं हैं लेकिन मुनि भी हैं, कृष्ण की विभूति हैं, सात चिरंजीवी पैकी एक चिरंजीवी
हैं, चतुर्मुख न होते हुए ब्रह्ना हैं, विष्णु हैं, त्रिनेत्र न होते हुए शंकर हैं,
व्यासमें विशालता बहुत हैं।
बुद्ध
पुरुष शरीरसे लुप्त होते हैं छाया बनकर घुमते हैं।
समाज
शास्त्र, राज शास्त्र, वानप्रस्थ, संन्यास, धर्म शास्त्र वगेरे सब शास्त्रकी चर्चा
व्यास भगवानने की हैं, भगवान व्यासने ज्ञान की ज्योति जालाकर सब जगह उजाला किया हैं।
व्यास
ग्रंथ कर्ता हैं और उसके पात्र भी हैं।
तुलसी
औत वाल्मीकि भी कर्ता हैं और पात्र भी हैं।
व्यासके
जीवनमें विशाद हैं और परम विश्राम भी हैं।
व्यास
सतत विस्तरित रहे हैं – निरंतर विकसित हैं।
व्यास
एक प्रवाह हैं, विष्णुकी तरह विश्वरुप हैं।
व्यास
विश्वकी संपदा हैं, आध्यात्मिक धारा के गोमुख हैं, विश्व गुरु हैं।
दादाने
आजीविका का कोई प्रयास नहीं किया हैं। साधु आजीविका का प्रयास नहीं किया हैं।
व्यास
विशेष का अर्थ व्यास परम विश्राम भी हैं।
बादरायण
भगवान व्यास को प्रणाम।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि।
संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी
कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं
है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके
ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
स्मरण,
गायन और श्रवण यह तीन हि साधन हैं, लेकिन सिर्फ सुमिरन हि काफी हैं।
जासु पतित पावन बड़ बाना।
गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई।
राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।
पतितोंको
पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे
मन ! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज। श्रीरामजीको भजने से किसने परम गति नहीं पायी
?।।4।।
पाई न केहिं गति पतित पावन
राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध
गजादिखल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि
अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन
होहिं राम नमामि ते।।1।।
अरे
मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी
? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर,
यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार
जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।
जो
कुछ भी बेचता हैं वह सब गणिका हैं।