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Saturday, September 10, 2022

માનસ રામરક્ષા

 

 

રામ કથા - 903

માનસ રામરક્ષા

ZANZIBAR, TANZANIA

શનિવાર, ૧0/0૯/૨0૨૨ થી રવિવાર, ૧૮/0૯/૨0૨૨

મુખ્ય ચોપાઈ

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

 

1

Saturday, 10/09/2022

 

 ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥

सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥

 

 उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥3॥

 

तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥

बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥

 

 फिर वहाँ सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गए। कृपालु श्री रामजी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मणजी से रसीली कथाएँ कह रहे हैं॥2॥

  કોઈનું જીવન ડહોળવું નહીં અને પોતાનું જીવન ડહોળવા ન દેવું.

कुछ बात भूल जाना अच्छा हैं और कुछ बात भूल जाना अच्छा हैं।

करजा, प्रेम और शादी करने के बाद हि पता चलता हैं कि यह करने जैसा नहीं हैं।

 

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥2॥

 

 तब मैं विवाह करना चाहता था। हे प्रभु! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया? (प्रभु बोले-) हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं,॥2॥

 

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥

 

 मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ, जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथों) अलग करके बचा लेती है॥3॥

उध्यम से  धन्यवान बना जाता हैं, उध्योग से धनवान बना जाता हैं।

राम चरित मानस स्वयं राम रक्षा स्तोत्र हैं।

सहरोसा – सहर्ष

रहस्यो का खुलासा गुरु द्वारा हि हो शकता हैं।

मणि, माणेक और मोती  सर्प के मस्तक में पेदा होता हैं ऐसी मान्यता हैं, जिस के साथ झहर भी होता हैं।

 

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥

नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥

 

मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं॥1॥

मौन, काष्ट मौन नहीं लेकिन ईष्ट मौन होना चाहिये।

विध्या का उपयोग भोंकते कुत्ते का मुख बंद करने के लिये नहीं करना चाहिये।

धर्म संकट, अर्थ संकट, काम संकट, पारिवारिक संकट, राष्ट्र संकट, प्राण संकट वगेरे में राम चरित मानस रक्षा करता हैं।

गर्भ में ईश्वर रक्षा करता हैं, गोद में माता रक्षा करती हैं, बडे होने पर पिता रक्षा करता हैं, गुरुकूल में आचार्य रक्षा करता हैं, युवानी में – आसपास जब विपत्ति आये तब गुरुदेव रक्षा करता हैं।


2

Sunday, 11/09/2022

रक्षा और सुरक्षा में क्या फर्क हैं?

सुरक्षा व्यवस्था से होती हैं, रक्षा कृपा से होती हैं।

रक्षा का ईतजार करना पडता हैं, सुरक्षा का ईन्तजाम करना पडता हैं।
बुझर्ग जीवत हैं तो उनकी सेवा करो, अगर हयात नहीं हैं तो उनका स्मरण करे।

एक राजा के कहने पर राम ने सत्ता का त्याग किया और एक प्रजा - निंदक के कहने पर राम ने सीता का त्याग किया।

जो द्वैत को खत्म करकर द्वैत पेदा करे वह बंधु हैं।

 

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥

मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला॥2॥

 

तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूँसे की चोट उसे वज्र के समान लगी (सुग्रीव ने आकर कहा-) हे कृपालु रघुवीर! मैंने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है, काल है॥2॥

बंधु और भाई अलग हैं।

भाई शब्द सांसारिक हैं, बंधु शब्द आध्यात्मिक हैं। बंधु में एकत्व हैं।

सीता का वनवास हुआ तब राम का जनवास हुआ हैं।

श्रुति  सेतु  पालक  राम  तुम्ह  जगदीस  माया  जानकी।

जो  सृजति  जगु  पालति  हरति  रुख  पाइ  कृपानिधान  की॥

जो  सहससीसु  अहीसु  महिधरु  लखनु  सचराचर  धनी।

सुर  काज  धरि  नरराज  तनु  चले  दलन  खल  निसिचर  अनी॥

 

हे  राम!  आप  वेद  की  मर्यादा  के  रक्षक  जगदीश्वर  हैं  और  जानकीजी  (आपकी  स्वरूप  भूता)  माया  हैं,  जो  कृपा  के  भंडार  आपका  रुख  पाकर  जगत  का  सृजन,  पालन  और  संहार  करती  हैं।  जो  हजार  मस्तक  वाले  सर्पों  के  स्वामी  और  पृथ्वी  को  अपने  सिर  पर  धारण  करने  वाले  हैं,  वही  चराचर  के  स्वामी  शेषजी  लक्ष्मण  हैं।  देवताओं  के  कार्य  के  लिए  आप  राजा  का  शरीर  धारण  करके  दुष्ट  राक्षसों  की  सेना  का  नाश  करने  के  लिए  चले  हैं।

 

जब  जब  रामु  अवध  सुधि  करहीं।  तब  तब  बारि  बिलोचन  भरहीं॥

सुमिरि  मातु  पितु  परिजन  भाई।  भरत  सनेहु  सीलु  सेवकाई॥2॥

 

जब-जब  श्री  रामचन्द्रजी  अयोध्या  की  याद  करते  हैं,  तब-तब  उनके  नेत्रों  में  जल  भर  आता  है।  माता-पिता,  कुटुम्बियों  और  भाइयों  तथा  भरत  के  प्रेम,  शील  और  सेवाभाव  को  याद  करके-॥2॥

 

कृपासिंधु  प्रभु  होहिं  दुखारी।  धीरजु  धरहिं  कुसमउ  बिचारी॥

लखि  सिय  लखनु  बिकल  होइ  जाहीं।  जिमि  पुरुषहि  अनुसर  परिछाहीं॥3॥

 

कृपा  के  समुद्र  प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  दुःखी  हो  जाते  हैं,  किन्तु  फिर  कुसमय  समझकर  धीरज  धारण  कर  लेते  हैं।  श्री  रामचन्द्रजी  को  दुःखी  देखकर  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  भी  व्याकुल  हो  जाते  हैं,  जैसे  किसी  मनुष्य  की  परछाहीं  उस  मनुष्य  के  समान  ही  चेष्टा  करती  है॥3॥

आचार्य और गुरु में क्या फर्क हैं?

आचार्य देव कहा गया हैं फिर भी आचार्य और गुरु में बहुत अंतर हैं।

आचार्य गुरु कुल में हि रक्षा करता हैं जब कि गुरु गगन होने के नाते असिम हैं और गगन में यह असिम गुरु रक्षा करता हैं।

गुरु आसमा हैं, गुरु गगन हैं।
जितने तारे गगन में हैं इतने शत्रु होने पर भी उससे गुरु रक्षा करता हैं।

गुरु कभी भी निवृत नहीं होता हैं।

 

जोगवहिं  प्रभुसिय  लखनहि  कैसें।  पलक  बिलोचन  गोलक  जैसें॥

सेवहिं  लखनु  सीय  रघुबीरहि।  जिमि  अबिबेकी  पुरुष  सरीरहि॥1॥

 

प्रभु  श्री  रामचन्द्रजी  सीताजी  और  लक्ष्मणजी  की  कैसी  सँभाल  रखते  हैं,  जैसे  पलकें  नेत्रों  के  गोलकों  की।  इधर  लक्ष्मणजी  श्री  सीताजी  और  श्री  रामचन्द्रजी  की  (अथवा  लक्ष्मणजी  और  सीताजी  श्री  रामचन्द्रजी  की)  ऐसी  सेवा  करते  हैं,  जैसे  अज्ञानी  मनुष्य  शरीर  की  करते  हैं॥1॥

गुरु गम का पता लगाने में अनेक जन्मो जन्म लग जाते हैं।

जो दिखता हैं वह नहीं हैं और जो हैं वह दिखता नहीं हैं।

बुद्ध पुरुष कोई भी रुप में आता हैं और रक्षा करता हैं|

3

Monday, 12/09/2022

 

राम  राम  कहि  राम  कहि  राम  राम  कहि  राम।

तनु  परिहरि  रघुबर  बिरहँ  राउ  गयउ  सुरधाम॥155॥

 

राम-राम  कहकर,  फिर  राम  कहकर,  फिर  राम-राम  कहकर  और  फिर  राम  कहकर  राजा  श्री  राम  के  विरह  में  शरीर  त्याग  कर  सुरलोक  को  सिधार  गए॥155॥

दशरथ राजा छह बार राम बोलते हैं क्यों कि यह दिन राम विरह का छठ्ठा दिन, दसरथ की ज्ञान की छठ्ठी भीमिका में देह त्याग किया, राम नाम छहो शास्त्र का सार हैं, राम लखन और जानकी को राम् राम कहते हैं, श्रवण और उसके अंध माता पिता को राम राम कहते हैं, कौशल्या, सुमन और सुमित्रा जो प्राण त्याग के समय सामने हैं उनको राम राम कहते हैं, राम नाम षडेश्वर्य मंत्र हैं, छ वस्तु के उपर राम नाम हि रक्षा करते हैं, आकाश, धरती और पाताल को राम राम करते हैं।

 

तापस  अंध  साप  सुधि  आई।

राम रक्षा से गुरु रक्षा बडी हैं।

गुरु का स्वभाव हि रक्षा करना हैं, यह कर्म नहीं हैं, लेकिन करम – कृपा हैं।

भीख और भीक्षा अलग हैं, भीक्षा वृत्ति हैं व्यापार नहीं हैं।

 

जनम-जनम  रति  राम  पद  यह  बरदानु  न  आन॥

 

હું હાથને મારા ફેલાવું, તો તારી ખુદાઇ દુર નથી,

હું માંગુ ને તું આપી દે, એ વાત મને મંજુર નથી.

 

શા હાલ થયા છે પ્રેમીના, કહેવાની કશીય જરૂર નથી,

આ હાલ તમારા કહી દેશે, કાં સેંથીમાં સિંદુર નથી?

 

આ આંખ ઉધાડી હોય છતાં, પામે જ નહીં દર્શન તારા,

એ હોય ન હોય બરાબર છે, બેનૂર છે એમાં નૂર નથી.

 

જે દિલમાં દયાને સ્થાન નથી, ત્યાં વાત ન કર દિલ ખોલીને,

એ પાણી વિનાના સાગરની, ‘નાઝીરને કશી ય જરૂર નથી.

 

નાઝિર દેખૈયા

सर्जक की अहंकार मुक्त खुमारी होती हैं।

छुं शुन्य …..

 

न मोक्षस्य आकांक्षा भव-विभव-वांछा अपि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छा अपि न पुनः।

 

ખુદા તારી કસોટીની પ્રથા સારી નથી હોતી

કે સારા હોય છે એની દશા સારી નથી હોતી

 

બેફામ

गुरु प्रभाव से हमारी बहिर रक्षा करता हैं और स्वभाव से आंतर रक्षा करता हैं।

 

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां,

हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्न:।।

स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे,

दृष्टि: सतां दर्शनेअस्तु भवत्तनुनाम्।।

(श्रीमद्भागवतम 10वां स्कन्ध 10वां अध्याय श्लोक 38)

 

हे प्रभो ! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणोंका वर्णन करती रहे । हमारे कान आपकी रसमयी कथामें लगी रहें । हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाएँ । यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास-स्थान है । हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे ।

 

जिअन  मरन  फलु  दसरथ  पावा।  अंड  अनेक  अमल  जसु  छावा॥

जिअत  राम  बिधु  बदनु  निहारा।  राम  बिरह  करि  मरनु  सँवारा॥1॥

 

जीने  और  मरने  का  फल  तो  दशरथजी  ने  ही  पाया,  जिनका  निर्मल  यश  अनेकों  ब्रह्मांडों  में  छा  गया।  जीते  जी  तो  श्री  रामचन्द्रजी  के  चन्द्रमा  के  समान  मुख  को  देखा  और  श्री  राम  के  विरह  को  निमित्त  बनाकर  अपना  मरण  सुधार  लिया॥1॥

 

धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।

जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥

 

किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥85॥

 

धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।

जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥

 

किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥85॥

 

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।

देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥

अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।

दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

 

जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।

भरत राम को कहते हैं कि अब अयोध्या में हमारी रक्षा कौन करेगा?

तब राम कहते हैं कि गुरु का प्रभाव अयोध्या की रक्षा करेंगे।

 

राज  काज  सब  लाज  पति  धरम  धरनि  धन  धाम।

गुर  प्रभाउ  पालिहि  सबहि  भल  होइहि  परिनाम॥305॥

 

राज्य  का  सब  कार्य,  लज्जा,  प्रतिष्ठा,  धर्म,  पृथ्वी,  धन,  घर-  इन  सभी  का  पालन  (रक्षण)  गुरुजी  का  प्रभाव  (सामर्थ्य)  करेगा  और  परिणाम  शुभ  होगा॥305॥

यहां पति का अर्थ प्रतिष्ठा हैं।

भरोसो राखे वह सब नरसिंह महेता हैं और भगवान उनके कार्य करते हैं।

गुरु प्रभाव कंजुस को दातार बना देता हैं।

राम कार्य गुरु का शीतल स्वभाव करता हैं।

प्रभाव साकार होता हैं, स्वभाव निराकार होता हैं।

धन का अर्थ आत्म संपदा हैं जिस की रक्षा गुरु स्वभाव करता हैं।

धाम का अर्थ अपना ह्मदय हैं जिस की रक्षा गुरु स्वभाव करता हैं।

 

सहित  समाज  तुम्हार  हमारा।  घर  बन  गुर  प्रसाद  रखवारा॥

मातु  पिता  गुर  स्वामि  निदेसू।  सकल  धरम  धरनीधर  सेसू॥1॥

 

गुरुजी  का  प्रसाद  (अनुग्रह)  ही  घर  में  और  वन  में  समाज  सहित  तुम्हारा  और  हमारा  रक्षक  है।  माता,  पिता,  गुरु  और  स्वामी  की  आज्ञा  (का  पालन)  समस्त  धर्म  रूपी  पृथ्वी  को  धारण  करने  में  शेषजी  के  समान  है॥1॥

जय जय हनुमान गुंसाई

राम दुआरे तुम्ह रखवारे

होत न आज्ञा

सब सुख लहे

तुम्ह रक्षक काहु को डरना

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर

हमारे जीवन में अनेक संकट आते हैं, धर्म संकट, प्राण संकट, पारिवारिक संकट,

हजु तो दुःख आव्या बे चार ………..

 

तात  तुम्हारि  मोरि  परिजन  की।  चिंता  गुरहि  नृपहि  घर  बन  की॥

माथे  पर  गुर  मुनि  मिथिलेसू।  हमहि  तुम्हहि  सपनेहूँ  न  कलेसू॥1॥

 

हे  तात!  तुम्हारी,  मेरी,  परिवार  की,  घर  की  और  वन  की  सारी  चिंता  गुरु  वशिष्ठजी  और  महाराज  जनकजी  को  है।  हमारे  सिर  पर  जब  गुरुजी,  मुनि  विश्वामित्रजी  और  मिथिलापति  जनकजी  हैं,  तब  हमें  और  तुम्हें  स्वप्न  नें  भी  क्लेश  नहीं  है॥1॥ 

 

दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।

रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।

 

हे दस सिर और बीस भुजाओंवाले रावणका विनाश करके पृथ्वीके सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीरामजी ! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपको बाणरूपी अग्नि के प्रचण्ड तेजसे भस्म हो गये।।2।।

 

महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।

मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।

 

आप पृथ्वी मण्डल के अत्यन्त आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुश और तरकस धारण किये हुए हैं। महान् मद मोह और ममतारूपी रात्रिके अन्धकार समूहके नाश करनेके लिये आप सूर्य तेजोमय किरणसमूह हैं।।3।।

एक व्यक्ति के गुरु एक हि होता हैं, मार्ग दर्शक अनेक हो शकते हैं, गुरु दतात्रय के २४ मार्ग दर्शक हैं गुरु तो कोई एक हि हैं।

अगर हम ईर्षा, नींदा और द्वेष छोड दे तो गुरु हमे ढूंढता हुआ आयेगा।


4

Tuesday, 13/09/2022

आदि शंकर अपने निर्वाण के पहले ………….

 

रामहि  केवल  प्रेमु  पिआरा।  जानि  लेउ  जो  जान  निहारा॥

राम  सकल  बनचर  तब  तोषे।  कहि  मृदु  बचन  प्रेम  परिपोषे॥1॥

 

 

श्री  रामचन्द्रजी  को  केवल  प्रेम  प्यारा  है,  जो  जानने  वाला  हो  (जानना  चाहता  हो),  वह  जान  ले।  तब  श्री  रामचन्द्रजी  ने  प्रेम  से  परिपुष्ट  हुए  (प्रेमपूर्ण)  कोमल  वचन  कहकर  उन  सब  वन  में  विचरण  करने  वाले  लोगों  को  संतुष्ट  किया॥1॥ 

सब नर करहिं परस्पर प्रीति।

 

पांच तत्वो का अपराध करने से पर्यावरण बिगडा हैं, यह पांच तत्वो का अपराध नहीं करना चाहिये।

नारायण नुं नाम ज लेता वारे तेने ……….

आदि शंकर ने पांच रक्षा कवच – सदगुरु, सत संगती, ब्रह्म विचार, त्याग, शिव आत्मनुभव दिये हैं।

साधो सो गुरु सत्य कहावे ….

भूख एक रोग हैं और उसकी औषधि सम्यक आहार हैं। ………… आदि शंकर

शरीर साधन हैं, उसे तोडना नहीं चाहिये।

कालीदास ने संन्यास लेने के पहले यह श्लोक कहा जिसने उसे संन्यास नहीं दिया गया।

 

कदा कान्तागारे परिमलमिलत्पुष्यशयने

शयानः कान्तायाः कुचयुगमहं वक्षसि वहन् ।

अये कान्ते मुग्धे कुटिलनयने चन्द्रवदने

प्रसीदेति क्रोशन् निमीषमिव नेष्यामि दिवसान् ॥ २॥

 

सतसंग से विवेक जागृत होता हैं और विवेक हमारी रक्षा करता हैं।

ब्रह्मविचारणा सत्य के बारे में सदा विचारता हैं, राम रटण नित्य करने से हमारी रक्षा होती हैं।

त्याग करने से हमारी रक्षा होती हैं, जितनी वस्तु ज्यादा होगी उतनी असुरक्षा रहती हैं।

जितना संग्रह ज्यादा उतना उस में रहेल प्रवाही ज्यादा आंदोलित होता हैं, चांचल्य ज्यादा आता हैं।

शिव आत्म बोध हमारी रक्षा करता हैं।

 

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

 

मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥

 

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥

महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

 

जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥


जब तक अस्त न हो तब तक व्यस्त रहो और जब तक व्यस्त रहो तब तक मस्त रहो।

 

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥

 

नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते॥4॥

राम और शिव में साम्य

राम शिव को भजते हैं, शिव राम को भजते हैं, राम और शिव एक हि हैं।

महादेव सर्प रखते हैं, राम शेषनाग – लक्ष्मण रखते हैं, गले लगाते हैं।

शिव वन में रहते है, राम भी १४ वर्ष वनमें रहे हैं।

शिव त्रिशुल रखते हैं, राम त्रिशुल दूर करते हैं।

भगवान शिव सती के वियोग में भटकते हैं, राम भी जानकी के वियोग में भटकते हैं।

गणेश और कार्तिकेय, राम गुणशील हैं।

5

Wednesday, 14/09/2022

जिसकी पत्नी के नाक का हिरा मोटा उस का धंधा खोटा।

 

બસ   એટલી   સમજ   મને પરવરદિગાર દે,

સુખ    જ્યારે જ્યાં  મળે, બધાના વિચાર દે.

 

માની   લીધું   કે  પ્રેમની  કોઈ     દવા  નથી,

જીવનના   દર્દની   તો    કોઈ   સારવાર   દે.

 

ચાહ્યું   બીજું   બધું  તે   ખુદાએ   મને દીધું,

એ   શું   કે   તારા   માટે   ફક્ત ઈન્તજાર દે.

 

આવીને    આંગળીમાં    ટકોરા   રહી ગયા,

સંકોચ   આટલો  ન  કોઈ   બંધ   દ્વાર   દે.

 

પીઠામાં   મારું  માન  સતત  હાજરીથી  છે

મસ્જિદમાં રોજ જાઉં તો કોણ આવકાર દે !

 

નવરાશ  છે   હવે   જરા   સરખામણી કરું,

કેવો  હતો   અસલ   હું, મને  એ  ચિતાર દે.

 

તે  બાદ  માંગ  મારી     બધીયે    સ્વતંત્રતા,

પહેલાં  જરાક   તારી   ઉપર. ઈખ્તિયાર  દે.

 

આ   નાનાં-નાનાં   દર્દ તો થાતાં નથી સહન,

દે    એક   મહાન. દર્દ   અને  પારાવાર    દે.

 

સૌ પથ્થરોના બોજ  તો ઊંચકી લીધા અમે,

અમને નમાવવા   હો  તો  ફૂલોનો   ભાર  દે.

 

દુનિયામા   કંઇકનો   હું કરજદાર છું ‘મરીઝ,

ચૂકવું   બધાનું   દેણ   જો અલ્લાહ ઉધાર દે.

 

મરીઝ

 

राम नाम, हरि नाम वेद हैं।

 

ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च।सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च।तपः च स्वाध्यायप्रवचने च।

दमः च स्वाध्यायप्रवचने च।शमः च स्वाध्यायप्रवचने च।

अग्नयः च स्वाध्यायप्रवचने च।

अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च।

अतिथयः च स्वाध्यायप्रवचने च।

मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च।प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च।

प्रजनः च स्वाध्यायप्रवचने च।

प्रजातिः च स्वाध्यायप्रवचने च अनुष्ठेयानि सत्यम् एव अनुष्ठेयं इति सत्यवचाः राथीतरः मन्यते तपः एव अनुष्ठेयं इति तपोनित्यः पौरुशिष्टिः मन्यते स्वाधायप्रवचने एव अनुष्ठातव्ये इति नाकः मौद्गल्यः मन्यते ।

तत् हि तपः। तत् हि तपः। स्वाध्यायप्रवचने।

 

 

वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ सत्याचरण-ऋतम् हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ सत्य हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ तपश्चर्या हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ आत्म-प्रभुत्व (दम) हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ आत्म-शान्ति (शम) हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ गृहस्थस्य की अग्नियाँ हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ अग्निहोत्र हो; (वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ अतिथि-सेवा हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ मनुष्यत्व हो वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ सन्तति (प्रजा) हो; वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ प्रजनन का कार्य हो, वेद के स्वाध्याय एवं प्रवचन के साथ पुत्रों के पुत्र (प्रजाति) हों, -ये कर्तव्य हैं। ''सत्य सर्वप्रथम है" सत्यवादी ऋषि राथीतर (रथीतर के पुत्र) ने कहा। ''तप सर्वप्रथम है'' नित्य तपोनिष्ठ ऋषि पौरुशिष्टि (पुरुशिष्ट के पुत्र) ने कहा। "वेदों का स्वाध्याय एवं प्रवचन सर्वप्रथम है" मुद्गल पुत्र नाक ऋषि ने कहा। कारण, यह भी तपस्या है तथा यह भी तप है।

 

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

 

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

 

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे

कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

 

हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

 

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

 

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

           

 

 

 

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥

 

जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥

 

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

 

जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

 

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥

बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

 

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्‌जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥

 

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

 

जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी चले॥4॥

 

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥

 

समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात्‌ अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥

गीता योग शास्त्र हैं, राम चरित मानस प्रयोग शास्त्र हैं।

सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।।

गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।41।।

 

हे तात ! सुनो, माया से ही रचे हुए अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में हैं कि दोनों ही न देखे जायँ, इन्हें देखना यही अविवेक है।।41।।

 

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

 

हनुमान्‌जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥

 

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥

 

देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्‌जी से यह बात कही-॥1॥

 

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥

राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥

 

आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान्‌जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ,॥2॥

तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥

कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥

 

तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्‌जी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले॥3॥

 

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥

 

उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्‌जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्‌जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥4॥

 

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥

 

उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्‌जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्‌जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥4॥

 

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥

 

जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्‌जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥

 

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥

 

और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था॥6॥

 

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥

 

तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

 

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥

 

समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥

सिंहिका ईर्षा हैं।

 

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥

सोइ छल हनूमान्‌ कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥

 

उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्‌जी से भी किया। हनुमान्‌जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥

 

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥

तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥

 

पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्‌जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे॥3॥

 

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥

 

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥

सोने को सोने की ईर्षा नहीं होती हैं।

हनुमानजी सोने के हैं, मैनाक सोना का हैं, जानकी भी सोने की हैं।

 

मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।

हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।

 

।।9.10।। प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत् को रचती है। हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतुसे जगत् का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।

 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥

 

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

पांच संकट – पारिवारिक संकट, सामाजिक संकट, धर्म संकट, राष्ट्र संकट, प्राण संकट

दशरथ राजा के जीवन में यह पांचो संकट आये हैं।

हर व्यक्ति की आंखे अपनी माता की,आवाज पिता की और आत्मा गुरु की होती हैं।

6

Thursday, 15/09/2022

सीता भक्ति हैं, शांति हैं, छाया हैं, प्रकृति हैं।

जीवन में आनेवाले प्रलोभन हमारी भक्ति की यात्रा में बाधक हैं।

जो स्वयं भूखे हैं वह दूसरो को कैसे खिलायेगे?

सुरसा वासना हैं।

सिंहिका ईर्षा हैं।

हमारा प्रारब्ध हि पुरुषार्थ करने के लिये प्रेरित करता हैं।

हरि अनंत हैं, हरि कथा अनंत हैं और कथा का वक्ता भी अनंत हैं।

हरि कथा और कथा का वक्ता परिवर्तित हैं, रोज नया हैं।

जीव भी अविनाशी हैं।

 

सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।

 

हे तात ! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिये। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।

राम का अवतार कार्य सेतु बंध – जोडना हैं।

 

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

 

नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्‌जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥

लंका की मूल धारा जानने के लिये हनुमानजी रात को प्रवेश करनेका विचार करते हैं।

 

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।

 

।2.69।। सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।

 

 

 

।।2.69।। सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह (तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।

 

देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥

मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥

 

चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान्‌ को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥

 

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥

 

हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

 

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

 

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी॥2॥

एक वैरागी का मुक्का लगने से लंकिनी विरत्क हो गयी।

पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥

 

वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-॥3॥

 

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥

तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

 

जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥

 

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥

 

अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥1॥

 

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

 

और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्‌ का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥

 

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

 

उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥

लंका में हनुमानजी और सीता के लिये अग्नि शीतल हो जाती हैं।

जिसकी १० ममता छोड दे उसे अग्नि शीतल लगती हैं।

साधु का श्रिंगार राम भजन हैं।

एक हरि नाम संपूर्ण सुरक्षा देता हैं।

                  जननी – हनुमानजी ने अपनी जननी अंजनी की ममता छोड दी

                 जनन – पिता – हनुमानजी ने पिता की ममता छोड दी

                 बंधु

                 सुत

                 दारा – पत्नी

                 तन

                धन

                 धाम

                 भवन

१०              सुरद परिवार – सखा परिवार

 

सयन किएँ देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥

भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

 

हनुमान्‌जी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहाँ (उसमें) भगवान्‌ का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4॥

 

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

 

लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

 

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

 

उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्‌जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्‌जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

जागरण होते हि राम नाम का रटण होने लगता हैं।

समस्या आने से पहले समाधान उपर आता हि हैं।

राम नाम भक्ति के हाथ में सुरक्षित हैं।

 

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥

चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

 

तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥1॥

 

रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

 

वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥

 

वक्ता के चेहरे को पकडने की जरुरत नहीं हैं, वक्ता का वकतव्य पकडना चाहिये।

 

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

 

हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥

 

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥

 

हनुमान्‌जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥

 

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4॥

 

(वे चरित्र) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचंदजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान्‌जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा- हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?॥4॥

 

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥30॥

 

(हनुमान्‌जी ने कहा-) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥

राम का ध्यान दिवार हैं, नेत्र निज पांव ताला हैं (राम के पांव का ताला) – साधक को अपने चरन को जानना चाहिये कि यह चरन प्रक्षालन के योग्य हैं, रा और म रक्षक हैं। राम का नाम हर पल हमारा रक्षक हैं।

 

सहज  सुभाय  सुभग  तन  गोरे।  नामु  लखनु  लघु  देवर  मोरे॥

बहुरि  बदनु  बिधु  अंचल  ढाँकी।  पिय  तन  चितइ  भौंह  करि  बाँकी॥3॥

 

ये  जो  सहज  स्वभाव,  सुंदर  और  गोरे  शरीर  के  हैं,  उनका  नाम  लक्ष्मण  है,  ये  मेरे  छोटे  देवर  हैं।  फिर  सीताजी  ने  (लज्जावश)  अपने  चन्द्रमुख  को  आँचल  से  ढँककर  और  प्रियतम  (श्री  रामजी)  की  ओर  निहारकर  भौंहें  टेढ़ी  करके,॥3॥ 

 

खंजन  मंजु  तिरीछे  नयननि।  निज  पति  कहेउ  तिन्हहि  सियँ  सयननि॥

भईं  मुदित  सब  ग्रामबधूटीं।  रंकन्ह  राय  रासि  जनु  लूटीं॥4॥

 

खंजन  पक्षी  के  से  सुंदर  नेत्रों  को  तिरछा  करके  सीताजी  ने  इशारे  से  उन्हें  कहा  कि  ये  (श्री  रामचन्द्रजी)  मेरे  पति  हैं।  यह  जानकर  गाँव  की  सब  युवती  स्त्रियाँ  इस  प्रकार  आनंदित  हुईं,  मानो  कंगालों  ने  धन  की  राशियाँ  लूट  ली  हों॥4॥

राम का ध्यान भी रक्षक हैं।

 

बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥

 

 पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं-॥1॥

 

साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥

रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥2॥

 

साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन) अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया॥2॥

साहस, झूठ बोलना – उमर के बारे में गलत बोलना, चंचलता, छुपाना, डर, अविवेक, अपवित्रता और मिर्दयता  वगेरे रावण के अनुसार स्त्री के अवगुण हैं।

मातृ शरीर का साहस तो एक गुण हैं।

ग्रंथकार ने अमुक समय झुठ बोलनेको कहा हैं। अपने बच्चे की भूल  झूठ बोलकर अपने उपर लेना

स्त्री का गुण हैं।

कार्य कूशलता की चपलता गुण हैं।

स्त्री सदा पुरुष की छाया बनकर रहती हैं जो गुण हैं, यह माया का गुण हैं।

स्त्री पति के घर को साचवती हैं जो गुण हैं।

रसोई को चखना अविवेक हैं लेकिन वह भी गुण हैं। ससोइ को स्वादु बनाने का यह अविवेक गुण हैं।

मातृ शरीर की अपवित्रता अवगुण नहीं हैं।

निर्दयता – निर्दोष बालक के गांठ - गुमडा को दूर करना गुण हैं।

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Friday, 16/09/2022

हमारे शरीर के साथ २४ वस्तु जुडी हैं और उस की रक्षा अत्यंत जरुरी हैं।

 

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥2॥

 

तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा-) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है॥2॥

पांच प्राण

पांच कर्मेन्दिय

पांच ज्ञानेन्द्रिय

मन, बुद्धि, चित और अहंकार

कुल २४

यह २४ की रक्षा मनुष्य नहीं कर पाता हैं।

परमात्मा अकेला रम नहीं शकता हैं।

 

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम् ॥

 

अंतःकरण की रक्षा – मन की रक्षा हमारा गुरु करता हैं, गुरु मन का ज्ञाता हैं, और निर्माता भी हैं।

 

मेरो मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥

कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।

परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥

जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।

सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥

राधा पति में परमेश्वर को देखती हैं और मीरा परमेश्वर में पति को देखती हैं – राधा और मीरा एक हि हैं।

जो धर्म प्रेम करने की मना करे वह धर्म हि नहीं हैं।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

बहुरोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंध्रि निरादर के फल ए।।

भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।

 

लोग बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे अथाह भव सागर में पड़े रहते हैं।।5।।

 

मेरो मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥

कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।

परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥

जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।

सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥

 

जगदगुरु कृष्ण साधक के मन की मांग करता हैं, जिस लिये कृष्ण हमारे मन को ठीक कर दे, मन को व्यभिचारी न बनने दे।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

 

 

।।18.66।।सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

 

।।18.66।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

बुद्धि की सुरक्षा शिव करता हैं।

सती बुद्धि हैं जिस को शिव ने रक्षा करके श्रद्धा – पार्वती में परिवर्तित कर दी।

रावण ने भी शिव का विरोध नहीं किया हैं।

 

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी ।

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि ॥ २ ॥

 

हे गिरिशन्त (कैलासपर रहकर संसार का कल्याण करनेवाले अथवा वाणी में स्थित होकर लोगों को सुख देनेवाले या मेघ में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा लोगोंको सुख देनेवाले) ! हे रुद्र ! आपका जो मंगलदायक, सौम्य, केवल पुण्यप्रकाशक शरीर है, उस अनन्त सुखकारक शरीर से हमारी ओर देखिये अर्थात् हमारी रक्षा कीजिये ॥ २ ॥

 

महादेव हमें पता हि  न चले ऐसे हमारी रक्षा करता हैं।

 

शंकर तेरी जटा से,

बहती है गंग धारा,

काली घटा के अंदर,

जु दामिनी उजाला,

शंकर तेरी जटा से,

बहती है गंग धारा ॥

 

शिव बुद्धि प्रेरक हैं।

चित की रक्षा - संधान विष्णु करते हैं। विष्णु चित के देवता हैं।

हमारे अहंकार की रक्षा शंकर भगवान करते हैं। अहंकार जब अनावश्यक होता हैं तो उसे शिव नष्ट करते हैं।

गुरु के अनुग्रह का नंग पहनो, दूसरे नंग पहनने की आवश्यकता नहीं हैं।

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Saturday, 17/09/2022

 

पृथ्वी का रक्षण भगवान वराह करते हैं।
विवेक वराह हैं ऐसा गोस्वामीजी कहते हैं। हमारे पृथ्वी तत्व का रक्षण विवेक करता हैं।

पृथ्वी का लक्षण धैर्य, क्षमा हैं, सहनशीलता हैं।

ईस तरह हमारे धैर्य, क्षमा और सहनशीलता का रक्षण विवेक करता हैं।

 

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

 

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

साधु पुरुष का संग दुर्लभ हैं।

 

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥

 

भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे॥3॥

जल की रक्षा वरुण देव करते हैं।

भगवाननी कृपा, सदगुरु का धक्का हमारी जीवन नौका को आगे बढाती हैं।

हुकम करे तो दर्शन होता हैं, या तो हुं कम करने से दर्शन होता हैं।

परमात्मा के अनुग्रह का वायु हमारी नौका चलाता हैं।

शरीर की रक्षा वस्त्र करता हैं, शंकर का चिदाकाश आकाश की रक्षा करता हैं।

वस्त्र लज्जा का रक्षण करता हैं।

भारत में झिरो अखंडता – अखिल का प्रतीक हैं। अखिल ब्रह्मांड झिरो हैं।

अग्नि की रक्षा प्राणवायु करता हैं।

वायु की रक्षा विश्वास करता हैं, श्वास की रक्षा विश्वास करता हैं।

श्वास छूट जाय तो छूट जाय लेकिन विश्वास नहीं छूटना चाहिये।

कर्मेन्दीय

आंख की रक्षा पांपण करती हैं।
जीभ की रक्षा – जीभ स्वाद का कार्य करती हैं और वाणी का कार्य हैं – परम का दर्शन करता हैं।

भगवान राम हनुमानजी को चार बार गले लगाते हैं।

 

अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥

तब रघुपति उठाई उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥3॥

 

ऐसा कहकर हनुमान्‌जी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब श्री रघुनाथजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया॥3॥

भगवान राम अपने अश्रु से शंकरावतार हनुमानजी का अभिषेक करते है।

 

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4॥

 

(वे चरित्र) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचंदजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान्‌जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा- हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?॥4॥

 

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥

कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

 

फिर मन को सावधान करके शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे- हनुमान्‌जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया॥2॥

 

हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥

तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥

 

श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे॥1॥

हाथ

हाथ – कर की रक्षा करुणा करती हैं।

पांव की रक्षा तीर्थ स्थान की यात्रा करती हैं।

प्रसाद – प्रभु नो साक्षात र्शन

पैसा पर भरोसा छोड देना चाहिये, अर्थ का सदौपयोग करना चाहिये लेकिन उस के भरोसे सदा नहीं रहना चहिये, क्यों कि अर्थ कभी भी जा शकता हैं, ईसिलिये दशांश नीकालना चाहिये।

पैसा हाथ का मेल हैं लेकिन हाथ का मेल पैसा नहीं हैं।

प्रतिष्ठा का भरोसा नहीं रखना चाहिये, जगत में कभी भी प्रतिष्ठा दूर हो जाती हैं। गाम के गले गरणा नहीं बांधा जाता हैं।

प्रमाणपत्र पर भरोसा नहीं करना चाहिये।

पद पर भरोसा नहीं रखना चाहिये, पद कभी भी चला जा शकता हैं।

हद से ज्यादा परिवार के सदस्यो उपर भरोसा नहीं करना चाहिये, कभी कभी परिवार जन ज्यादा नुकशान करते हैं।

हमारे उपर तीन रुण हैं, ॠषि रुण और माता पिता का रुण, ईसिलिये जनोई में तीन धागे होते हैं।

हयात माता पिता की सेवा करने से और बिनहयात माता पिता के स्मरण करनेसे माता पिता का ॠण समाप्त होता हैं।

ॠषि रुण चुकाने के लिये ॠषि मुनि के दिये गये शास्त्रो का अनुसरण करे।

देव ॠण चुकाने के लिये यज्ञ याग करना चाहिये।

६ समय क्रोध नहीं करना चाहिये

                  सुबह ऊठते समय

                 रात को सोते समय

                 भोजन करते समय

                 घर से बाहर जाते समय

                 घर में प्रवेश करते समय

                 पूजा पाठ करते समय

शादी का उलटा दीशा होता हैं।

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Sunday, 18/09/2022

मानस बहुत गहन ग्रंथ हैं।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥

 

मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥

 

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥

 

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की॥4॥

 

जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।

गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥

 

देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई॥186॥

रक्षक दिखाई देता हैं जब कि संरक्षक अद्रश्य रहकर रक्षा करता हैं।

देवताओ के नायक ब्रह्माने प्रेम से स्तुति नहीं कि, हर्ष से स्तुति कि ईसिलिये परम वही समय प्रगट  नहीं होता हैं।

प्रेम से स्तुति करने परम तत्व प्रगट होता हैं।

मनु शत्रुपा प्रेम से स्तुति करते हैं तो परम प्रगट होता हैं।

दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥

भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥

 

राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए॥4॥

प्रेम कैसे प्रगटे?

 

सूधे मन सूधे बचन, सूधी सब करतूति।

तुलसी सूधी सकल विधि, रघुवर प्रेम प्रसूति॥

 

जिसका मन सरल है, वाणी सरल है और समस्त क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिए भगवान् श्री रघुनाथ जी के प्रेम को उत्पन्न करने वाली सभी विधियाँ सरल हैं अर्थात् निष्कपट (दंभ रहित) मन, वाणी और कर्म से भगवान् का प्रेम अत्यंत सरलता से प्राप्त हो सकता है।

सरल मन कया हैं?

कई लोग छल करके दीया बुझा दे ते हैं।

 

रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई।।

कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।4।।

 

हे भाई ! वह बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती है। और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देती हैं।।4।।

बहन – मातृ शरीर - साहस करे और हसाहस भी करे।

जिस से कलह पेदा हो ऐसा त्याग नहीं करना चाहिये।

सत्य भय से हमारी रक्षा करता हैं और अभय देता हैं।

प्रेम संग्रह से हमारी रक्षा करता हैं और त्याग देता हैं।

करुणा हिंसा से हमारी रक्षा करता हैं और अहिंसा देता हैं।

मानस स्वयं रक्षक हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

राम का सिमरण सत्य हैं, गाना प्रेम हैं, सतत श्रवण किसी का करुणा का प्रताप हैं, यही सत्य, प्रेम और करुणा हैं।

 

जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।

ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।

 

पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे मन ! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज। श्रीरामजीको भजने से किसने परम गति नहीं पायी ?।।4।।

 

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

 

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

 

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

 

 

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