રામ કથા - 928
માનસ માતોશ્રી
મુંબઈ
શનિવાર, તારીખ 02/12/2023
થી રવિવાર, તારીખ 10/12/2023
મુખ્ય ચોપાઈ
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
1
Saturday, 02/12/2023
सुंदरकांड
की पंक्तियां ………
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥5॥
हनुमान्जी
ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का
स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़
दो॥5॥
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला
बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥
हनुमान्जी
ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता! अब मैं
कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥
ધીરજ
રાખે એ ધાર્યુ કરે.
राम
चरित मानस – राम कथा मातोश्री – मातृश्री हैं।
रामायणजी
की आरति में उल्लेख हैं कि रामायण तात मातु हैं।
आरती श्री रामायण जी की ।
कीरति कलित ललित सिय पी की
॥
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी ।
सुभग सिंगार मुक्ति जुबती
की ॥
दलनि रोग भव मूरि अमी की ।
तात मातु सब बिधि तुलसी की ॥
कविता
भी मातोश्री हैं।
वेद
की संहिता माता हैं।
सत सृष्टि तांडव रचयिता नटराज
राज नमो नमः ।
हे आद्य गुरु शंकर पिता नटराज
राज नमो नमः ॥
तांडव
द्वारा सृष्टि की रचना करने वाले हे नटराज राज आपको नमन है। हे आदि गुरु शंकर परं पिता
नटराज राज आपको नमन है।
गीता,
सविता, सरिता, प्रसुता, वनिता, शील्पकार, गुरु, पालिका वगेरे माता हैं।
मातृत्व
आये बिना कानों में अमृत डाला नहीं जा शकता हैं।
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ
सुसमउ सिवा सन भाखा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ
नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥
श्री
महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से
शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम
रखा॥6॥
शिवजी
अनादि कवि हैं।
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम
कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई
फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
सत्संग
के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं।
सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन
तो फूल है॥4॥
साधु
संग से विवेक आयेगा।
साधु
कहता हैं कि वर्तमान पल में कार्य कर ले, रियाझ मत कर।
सत्य
का व्याख्यान होता हैं, परम सत्य का ध्यान होता हैं।
सत्यम
परम धीमहि
शास्त्रका
मनमुखी अर्थ करनेवाला अंत में रोगी होता हैं।
शास्त्र
का गुरु मुखी अर्थ करना चाहिये।
આસ્તિક
અને નાસ્તિક ની ટુંકી વ્યાખ્યા ….
આસ્તિક
એ છે જે હા પાડે, સ્વીકાર કરી લે અને નાસ્તિક એ છે જે ના પાડે, નકારે, નેગેટિવ વિચારે.
2
Sunday, 03/12/2023
मा
का अपराध करनेवाले की साधना पूर्ण तह सफल नहीं हो शकती हैं।
अपनी
मा का अनादार भरतजीने अपने परम प्रिय राम के लिये किया हैं।
परम
तत्व में बाधक बनती माता का अनादर एक खूब सुरत मोड पर करना चाहिये।
तुलसीदासजी
विनय पत्रिका में कहते हैं कि …….
जाके प्रिय न राम बैदेही
।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जदपि प्रेम सनेही ।।1।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण
बंधु , भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं
, भए मुद-मंगलकारी।।2।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द
सुसेब्य जहां लौं ।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै
,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।3।
तुलसी सो सब भांति परम
हित पूज्य प्रानते प्यारे ।
जासों होय सनेह राम –पद
, एतो मतो हमारो ।
तुलसीदास
जी कहते हैं कि जिसे सीता राम प्रिय नहीं हैं वह भले ही अपना कितना ही प्रिय क्यों
नहीं हो उसे बड़े दुश्मन के सामान छोड़ देना चाहिए | कवि अनेक उदाहरणों से सिद्ध करते
हैं प्रहलाद ने अपने पिता हिरणकश्यप का,विभीषण ने अपने भाई रावण का ,भरत ने अपनी माँ
,राजा बलि ने अपने गुरू और ब्रज की स्त्रियों ने कृष्ण के प्रेम में अपने पतियों का
परित्याग किया था | उन सभी ने अपने प्रियजनों को छोड़ा और उनका कल्याण ही हुआ |राम के
साथ प्रेम का नाता ही सबसे बड़ा नाता है ,सम्बन्ध है | नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द
सुसेब्य जहां लौं । मित्र और पूजनीय लोगों
के साथ हमारा सम्बन्ध ,उनके राम के साथ सम्बन्ध (प्रेम और स्नेह ) पर आधारित (जहां लौं )होना चाहिए | ऐसे सुरमे को आँख में लगाने से
क्या लाभ जिससे आँख ही फूट जाए ? तुलसी दास
जी कहते हैं कि वह व्यक्ति सब तरह से परम हित , पूज्य और प्राण से प्यारा है जिसके
ह्रदय में राम के पद है |यह उनकी व्यक्तिगत राय है |
सत्य,
प्रेम, करुणा के लिये जो अवरोध बने उसे एक खूब सुरत मोड पर – अच्छे मोड पर छोडना चाहिये।
अपने
हयात माता पिता की सेवा करो और जब हयात न हो तब स्मरण करो।
हम
पुरुष जो भी हैं वह मातोश्री शक्ति के से हैं।
दुर्ग
– किल्ला सदैव सिमित होता हैं लेकिन दुर्गा सदैव असिम होती हैं।
रामु काम सत कोटि सुभग
तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा।
नभ सत कोटि अमित अवकासा।।4।।
श्रीरामजीका
अरबों कामदेवोंके समान सुन्दर शरीर है। वे अनन्त कोटि दुर्गाओंके समान शत्रुनाशक हैं।
अरबों इन्द्र के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशोंके समान उनमें अनन्त अवकाश
(स्थान) है।।4।।
ब्रह्म
अक्रिय रहता हैं, उसको मातोश्री हि सक्रिय करती हैं।
हमारी
हरेक ईन्द्रीयो को मातोश्री सक्रिय करती हैं।
દરેક
સફળ પુરુષની પાછળ માતોશ્રી છે.
WE
ARE BORN OF LOVE AND LOVE IS OUR MOTHER.
RUMY
प्रेम
हमारी मातोश्री हैं।
मातृश्री
के पर्याय – सगोत्री शब्द -------------
o
मातृमनि
धन – संपदा
o
पूण्य
o
लोक
यात्रा
o
धर्म
– जीवंत धर्म
o
स्वर्ग
o
ॠषि
– प्रेमर्षि
o
पितृ
o
जननी
o
शिवा
o
धरती
o
दया
o
माता
o
त्रिभुवन
श्रेष्ठा
o
देवी
o
सर्व
दुःख हरा
जिसने
अपनी माता की सेवा नहीं की हैं उसने अपनी संपदा खो दी हैं।
मा
एकाक्षर मंत्र हैं।
मा
लोकयात्रा कराती हैं, हमें किसी लोक से इस लोक में जन्म देकर लाती हैं।
मा
सब व्यासन से – दुःख से दूर करती हैं।
परिवार
के सभी सदस्यो का धैर्य छूट जाय तो भी माता का धैर्य नहीं छूटता हैं।
माता
धीरज की मूर्ति हैं,सहनशीलता की मूर्ति हैं।
माता
फूल को कंटक और कंटक को फूल समजती हैं।
परिवार
में अगर बेटा गलत हैं तो भी माता उस का पक्ष लेती हैं।
माता
अपने परिवार के लिये माला जपती हैं।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
धैर्य,
धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी,
मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
3
Monday, 04/12/2023
संवाद
किसे कहे?
जब
बह्म बोले और प्रेम श्रवण करे तब वह संवाद हैं।
जब
बुद्धि बोले और तर्क सुने तब वह संवाद नहीं हैं लेकिन विवाद हैं।
કાગ
બાપુ કહે છે કે ……..
પૃથ્વી તણો પિંડો કર્યો
રજ લાવતો ક્યાંથી હશે
?
જગ ચાક ફેરવનાર
એ કુંભાર બેઠો ક્યાં હશે
?
આકાશના ઘડનારના ઘરને
ઘડ્યા કોણે હશે ?
અવકાશની માતા તણા
કોઠા કહો કેવડા હશે ?
કહે કાગ સર્જક સર્પનો
કેવો કઠીન ઝેરી હશે
પવને સુગંધ પ્રસરાવતો
મારો લાડીલો કેવો લહેરી
હશે
આ જાણવા જોવા તણી
દિલ ઝંખના ખટકી રહી
બ્રહ્માંડમાં ભટકી અને
મારી મતિ અંતે અટકી રહી
शबद
– शब्द बोले और सुरता सुने वह संवाद हैं।
इसीलिये
शबद साधना करने को कहा गया हैं।
ઉપરથી ઉજળા અને ભીતર ઘારી
આગ
પણ અજવાળે જ્યોતિ ઓરડા
જેને અડતા લાગે દાગ
શબ્દ
એક જાળ છે.
जब
शिव – शब्द बोले और पार्वति – सुरता सुने वह संवाद हैं।
राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।126॥
हे राम! आपका स्वरूप
वाणी के अगोचर,
बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय
और अपार है। वेद निरंतर
उसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन करते हैं॥126॥
राम भगति पथ परम प्रबीना।
ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
राम कथा सो कहइ निरंतर।
सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।2।।
वे
रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं, और बहुत कालके
हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ
पक्षी आदरसहित सुनते हैं।।2।।
ઘણ
રે બોલે ને એરણ સાંભળે એ સંવાદ છે.
શિખર
બોલે અને ખીણ સાંભળે એ સંવાદ છે.
સંવાદ
જીવન છે, વિવાદ મોત છે.
मातोश्री
का पर्याय मावली हैं।
यह सुभ संभु उमा संबादा।
सुख संपादन समन बिषादा।।
भव भंजन गंजन संदेहा। जन
रंजन सज्जन प्रिय एहा।।1।।
शम्भु-उमाका
यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और शोक का नाश करनेवाला है। जन्म-मरणका
अन्त करने वाला, सन्दहों का नाश करनेवाला, भक्तोंको आनन्द देनेवाला और संत पुरुषोंको
प्रिय है।।1।।
समर्थ
बोले और असमर्थ सुने वह संवाद हैं।
जो
सर्जन करता हैं वह मावली हैं।
मा
पर निष्ठा करो, पिता को प्रतिष्ठा दो।
निष्ठा
……
·
सान
निष्ठा
·
गुरु
निष्ठा
·
गुरु
मंत्र निष्ठा
·
गुरु
वचन निष्ठा
·
गुरु
शास्त्र निष्ठा
·
ग्रंथ
निष्ठा – वेद निष्ठा, शास्त्र निष्ठा
·
आश्रय
निष्ठा
·
मातृ
निष्ठा
·
आत्म
निष्ठा
अज्ञ
से सर्वज्ञ तक की यात्रा मातोश्री कराती हैं।
त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह
गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर
हृदयँ बिचारि॥66॥
(और
कहा-) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय
में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥
4
Tuesday, 05/12/2023
कुछ
भी न समजने का भी एक आनंद होता हैं।
प्रेम
हमें अहिंसक बनायेगा।
किशोरीजी
प्रेम सहित पूजा करती हैं।
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता।
गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥
सखियों
सहित सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजाजी के मंदिर में गईं। उन्होंने
बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर माँगा॥3॥
राम
और प्रेम सगोत्री हैं।
गुरु
किताब नहीं हैं, कलेजा हैं।
गुरु
कभी भी किसीके दरबार में नहीं जाता हैं, जहां गुरु होता हैं वहां दरबार होता हैं।
साधु
अभिमानी नहीं होना चाहिये लेकिन स्वाभिमानी अवश्य होना चाहिये।
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि
बिस्व कर बदर समाना॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥1॥
गुरुजी ज्ञान के समुद्र
हैं, इस बात को सारा जगत् जानता है, जिसके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है, वे भी मेरे लिए राजतिलक का साज सज रहे हैं। सत्य है, विधाता के विपरीत होने पर सब कोई विपरीत
हो जाते हैं॥1॥
व्याकुलता
और चिंता प्रेम का प्राण हैं, लक्षण हैं।
अश्रु
प्रेम का लक्षण हैं।
साधना
कठिन हो शकती हैं लेकिन साधल कठिन नहीं होना चाहिये।
व्याकुलता,
चिंता, अश्रु, वियोग और प्रियतम का नाम प्रेम के पंच प्राण हैं।
संयोग
क्षणिक होता हैं, वियोग शास्वत होता हैं।
जानकीजी
हनुमानजी को अजर अमर और राम के प्रेम पात्र होने का वरदान देती हैं।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि
काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
हे
पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर
बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में
मग्न हो गए॥2॥
विश्वास
जीवन हैं, संदेह मृत्यु हैं ………… स्वामी विवेकानंद
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न
सुखं संशयात्मनः।।4.40।।
।।4.40।।
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके
लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है।
5
Wednesday
राम
चरित मानस में कई मातोश्री पात्र हैं जो १६ श्रींगार में गीने जाए हैं।
1 बालकांड
में कौशल्या माता पहला श्रींगार हैं।
सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक
बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥2॥
उन्होंने
(अपनी पुरी में रहने वाले) सीताजी की निंदा करने वाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों)
के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौशल्या
रूपी पूर्व दिशा की वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है॥2॥
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू।
बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत
सुमंगल मूरति मानी॥3॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी।
करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता।
महिमा अवधि राम पितु माता॥4॥
जहाँ
(कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए पाले
के समान श्री रामचन्द्रजी रूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथजी
को पुण्य और सुंदर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ।
अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बड़ाई पाई
तथा जो श्री रामजी के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं॥3-4॥
कौशल्या
का औदार्य और स्वीकार श्रींगार हैं।
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥
हे तात! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा,
हो तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु
यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या
के समान है॥1॥
कौशल्या
का यह औदार्य हैं, स्वीकार हैं।
स्वीकार
छोडकर नकार करना दुःख को निमंत्रित करने समान हैं।
बीज
मंत्र जपीए जो जपत महेस ……
2 कैकेयी
मा अलंकार हैं।
मानस
मंथन से नीकले विष को पीनेवाला शंकर मा कैकेयी हैं।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥4॥
हे तात भरत! तुम सब प्रकार
से साधु हो। श्री रामचंद्रजी
के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ
ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी
को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है॥4॥
सुबह
का समय राम प्रहर हैं।
उस
के बाद काम प्रहर – कार्य करनेका प्रहर हैं।
शाम
का समय श्याम प्रहर हैं।
रात
का समय शिव प्रहर हैं।
3 मा
सुमित्रा उसका त्याग लक्ष्मण हैं और मौन शत्रुघ्न हैं।
4 जानकी
(उर्मिला, मांडवी, सुत्किर्ति सहित) का अलंकार धैर्य और शहनशीलता हैं।
5 शतरुपा
का अलंकार विवेक हैं।
6 अनसुया
पतिव्रता धर्म की आचार्या हैं।
असुया
का अर्थ अरर करना हैं। अनसुया में असुया नहीं हैं।
7 शबरी
का अलंकार प्रतिक्षा हैं।
8 वाली
पत्नी तारा का अलंकार विवेक और ज्ञान हैं।
9 स्वयंप्रभा
में अपनी खुद की प्रज्ञा हैं।
10 लंकिनी
जो संत हनुमानजी के स्पर्श से विरक्त हओ गई।
·
चक्षु
दिक्षा
·
स्मरण
दिक्षा
·
स्पर्श
दिक्षा
·
वचन
दिक्षा
11 त्रिजटा
की तीन जटा ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग हैं।
12 मंदोदरी
प्रातः स्मरणीय हैं, सती में प्रथम स्थान पर हैं।
6
Thursday, 07/12/2023
महाराणी
मैना जो हिमालय की पत्नी हैं उनके ३ स्वरुप आदि ऐविक, आदि भौतिक और आदि आध्यात्मिक
हैं।
हिमालय
को हम देवता मानते हैं।
मैना
बुद्धि हैं।
भगवान
भक्ति का श्रींगार करते हैं। रामजी सीताजी का श्रींगार करते हैं। सीता भक्ति हैं।
शरीर
एक वृक्ष हैं जिस की एक शाखा बुद्धि हैं जिस पर कई पक्षी जैसे चील, गीध, कौआ, तोता
बैठे हैं।
कथा
को सुननी नहीं हैं लेकिन कान से पिनी हैं।
कथा
का रस जैसा ओर कोई रस नहीं हैं।
दुष्ट
तर्क छोडकर कथा श्रवण करो।
हमारी
बुधि को किसी बुद्ध पुरुष से दिक्षित करनी चाहिये।
पार्वती
श्रद्धा हैं।
हम
हाथी, घोडा और पालखी दिया ऐसा गाते हैं जहां हाथी का संकेत हाथी में रहे मद को देना,
घोडा शक्ति का प्रतीक हैं जो कर्म का बल हैं उसे देने की बात हैं और पालखी को कहार
ऊठाते हैं और उसमें बैठता कोई ओर हैं वह दीनता का संकेत हें जिसे प्रभु को दिया जाता
हैं।
7
Friday, 08/12/2023
परम
तत्व बुद्धि से बाहर हैं।
बुद्धि
रास्ता हैं, मंझिल नहीं हैं।
बुद्ध
पुरुष को सुननेके लिये ५ वस्तु आवश्यक हैं।
बुद्ध
पुरुष ग्रंथावकार हैं।
1.
जीभ
पर राम रखकर बुद्ध पुरुष को सुनना चाहिये। श्रवण दरम्यान ओर कोई भी बात – विचार मन
में नहीं आना चाहिये।
2.
बुद्ध
पुरुष को अपने कान में कृष्ण रखकर सुनना चाहिये। कृष्ण का एक अर्थ कान हैं।
3.
बुद्धि
में पिता – शंकर को रखकर बुद्ध पुरुष को सुनना चाहिये।
4.
ह्मदय
में बुद्ध पुरुष को रखकर सुनना चाहिये।
5.
आंख
में मा को रखना चाहिये।
सुमति
कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ
सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
हे
नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि)
सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति)
रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥
अभयम
सुमति की संपदा हैं।
જીવતાં
આવડે તો લાંબુ જીવન આશીર્વાદ છે અને ન આવડે તો શ્રાપ છે.
बिना
मौका बोलना नहीं चाहिये।
अर्जुन
का मोह नष्ट करने के लिये कृष्ण ने ७०० श्लोक बोलना पडा।
दुनिया
में समजाने वाले बहुत हैं लेकिन समजनेवाला कोई कोई हैं।
पराधीन
स्वप्ने हु सुख नाहीं।
माता
सृष्टि समान पमाणनी हैं ….. कवि नानालाल
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्॥
8
Saturday, 09/12/2023
साधु
पुरुष का संग और बुद्ध पुरुष का संग एक हि हैं।
साधु
पुरुष, बुद्ध, पुरुष, परम पुरुष, परम गुरु एक हि हैं।
ऐसा
संग सिर्फ दो कृपा से प्राप्त होता हैं, साधु पुरुष की स्वयं की कृपा अथवा हरि कृपा।
बुद्ध
पुरुष की चरण रज का अभिषेक किसी की तुलना में नहीं आता हैं।
साधु
पुरुष का संग अंतिम उपलब्धी हैं, सर्वोत्तम उपलब्धी हैं।
साधु
संग दुर्लभ हैं।
सुकृती साधु नाम गुन गाना।
ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई।
श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥
सुकृती
(पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों
के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और
श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥
कथा
प्रवचन नहीं हैं।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
"यह
'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से
'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति
यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।
अभाव
का ऐश्वर्य होता हैं, साधु स्वभाव का ऐश्वर्य होता हैं।
कृतकृत्य
का अर्थ अब कुछ करनेका बाकी नहीं हैं ऐसा हैं और कृतार्थ का अर्थ सब कुछ हो गया ऐसा
हैं।
मानस
मात्तिश्री हैं जिस विग्रह के दो चरण, दो हाथ, दो नेत्र और एक मुख मिलकर कुल ७ होता
हैं।
બાલક
જ્યારે નાનું હોય ત્યારે માતા તેને પોતાની આંગળી પકડી ને ચાલતાં શીખવે છે અને જ્યારે
બાળક મોટૂં થાય છે ત્યારે તેને પોતાની રીતે ચાલવા કહે છે.
राम
कथा रुपी माता भी ऐसा हि करती हैं, वह गति देती हैं और सदगति भी देती हैं।
मानस
मातोश्री के दो हाथ वरद और अभयद हैं, वह वरद देती हैं और अभय करती हैं।
नेत्र
– चर्म चक्षु, दिव्य द्रष्टि
पावन पर्बत बेद पुराना। राम
कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी।
ग्यान बिराग नयन उरगारी।।7।।
वेद-पुराण
पवित्र पर्वत हैं। श्रीरामजीकी नाना प्रकारकी कथाएँ उन पर्वतों में सुन्दर खानें हैं।
संत पुरुष [उनकी इन खानोंके रहस्यको जाननेवाले] मर्मी हैं और सुन्दर बुद्धि [खोदनेवाली]
कुदाल है। हे गरुड़जी ! ज्ञान और वैराग्य- ये दो उनके नेत्र हैं।।7।।
मानस
मातोश्री के दो नेत्र ममता और समता हैं।
मानस
मातोश्री का मुख सतत राम नाम का रटण करता हैं।
एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा
सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥
इसमें
श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण
का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते
हैं॥1॥
9
Sunday, 10/12/2023
महापुरुषो
ए पंच तत्व से बने यह शरीर के लिये शरीर, घट, चरखा, तंबुर, दोकड (तबला) शब्द प्रयोग
किया हैं।
राम
चरित मानस में कुंभज ॠषि जे घडे से उत्पन्न हुए हैं वह राम कथा के वक्ता हैं जिन के
श्रोता भवानी और शंकर हैं।
कुंभार
सर्जक हैं।
हमें
तावडी तरह तपना चाहिये।
तावडी
जब हसती हैं तब वह महमान आने का संकेत हैं, अतिथि (महेमान) के रुप में परमेश्वर के
आने का संकेत हैं
इसी
लिये “अतिथि देवो भव” कहा गया हैं।
कुंभार
अपनी बनायी हुई तावडी के बेचनेके लिये उसे गधे पर ले जाता हैं।
तपो
और मुस्कराते हुए सहन करो
घडे
का घाट बनाने के लिये कुंभार एक हाथ से उस पर टपली मारता हैं और दूसरा हाथ घडे के अंदर
रखकर सहारा देता हैं, ईस से परमात्मा की कसोटी की प्रेरणा मिलती हैं।
कुंभार
के बनाये हुए नलिये परस्पर विरोधी धर्म का प्रतीक हैं।
परस्पर
विरोधी धर्म – प्रकृति परमात्मा हैं।
भगवान
शंकर भी अपने भवन में परस्पर विरोधी तत्वो को एक साथ रखते हैं।
परस्पर
विरोधी धर्माश्रय से हमारा रक्षण होगा।
कोडिया
अपनी क्षमता के अनुसार प्रकाश फेलाता हैं।
कोडिया
से हमें दुसरों के लिये प्रकाश फेलाने की प्रेरणा मिलती हैं। जीवन को दीपक बनाकर प्रकाश
फेलाना कोडिया का संदेश हैं।
घडा
शीखाता हैं कि आंख में तेज और भेज होना चाहिये।
मन,
वचन , कर्म से किसी को पीडा न पहोचाना अहिंसा हैं।
दरजी
कातर से काटता हैं और फिर सोय दोरा से सिलता हैं और छोटे से छोटे टुकडे को भी कलात्मक
बनाने के लिये उपयोग करता हैं।
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता।
सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता।।
सुनि उरगारि बचन सुख माना।
सादर बोलेउ काग सुजाना।।6।।
हे
कृपा धाम ! हे प्रभो ! ज्ञान और भक्तिमें कितना अन्तर है ? यह सब मुझसे कहिये। गरुड़जी
के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजीने सुख माना और आदरके साथ कहा-।।6।।
भक्ति
और प्रेम मणि हैं जो कभी भी बुझता नहीं हैं। और उस के प्रकाश से हमारी ग्रंथीओ का छेदन
होता हैं।
जब
गरुड काकभुषंडी से कथा सुनना समाप्त होता हैं तो उडान भरता हैं वैसे हमें कथा सुनकर
हमारी पांख को भी कुछ उडान करने के लिये खोलनी चाहिये।
सत्य,
प्रेम करुणा मानस की प्रस्थानत्रयी हैं।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि।
संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी
कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं
है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके
ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
सत्य,
प्रेम करुणा
राम
का स्मरण सत्य का सेवन करना हैं।
प्रेम
करनार गायेगा। राम का गायन प्रेम हैं।
कथा
श्रवण किसी के करुणा से मिलता हैं।
पाई न केहिं गति पतित पावन
राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल
तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि
अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं
राम नमामि ते।।1।।
अरे
मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी
? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर,
यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार
जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह
समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु
बिषम भव भीर।।130क।।
हे
श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं
है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि
प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय
लागहु मोहि राम।।130ख।।
जैसे
कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी
! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।
यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना
श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं
प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा
मानसम्।।1।।
श्रेष्ठ
कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर
[अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें
निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें
भाषाबद्ध किया।।1।।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं
विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं
शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं
भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति
नो मानवाः।।2।।
यह
श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको
देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा
मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी
अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।