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Saturday, January 7, 2023

માનસ મકર સંક્રાન્તિ - 910

 


રામ કથા - 910

માનસ મકર સંક્રાન્તિ

શબરીમાલા, કેરાલા

શનિવાર, તારીખ 07/01/2023 થી રવિવાર તારીખ 15/07/2023

મુખ્ય ચોપાઈ

माघ मकरगत रबि जब होई।

तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

प्रति संबत अति होइ अनंदा।

मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥

 

 

1

Saturday, 01/07/2023

 

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

 

माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥।2॥

 

 

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥

प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥1॥

 

इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं॥1॥

जन्मजात बेरी भी अपने स्वार्थ के लिये एक हो जाते हैं।

समुद्र मंथन के समय देव और दानव अपने स्वार्थ के लिये एक हो जाते है।

स्वामी अयप्पा भगवान की चार मुद्रा हैं।

मकर राशी में सिर्फ दो हो अक्षर “ख” और “म” हैं।

विनय और खुशामत, पाखंड और घमंड, प्रेम और मोह वगेरे में बहुत पतली रेखा होती हैं।

डोंगरे बापा तीन प्रकार के स्नान बताते हैं – देव स्नान, मनुष्य स्नान, और राक्षस स्नान.

सूर्यकी सात गति हैं।

बालकांड सूर्यकी पहली गति हैं।

अयोध्याकांड में सुर्योदय और मध्यान के वीच की गति हैं।

अरण्यकांड मध्यभाग – मध्यान हैं, यह श्रींगारका कांड हैं।

किष्किन्धाकांड में थोडी दक्षिणायान की गति हैं।

सुंदरकांड मध्यान और सायंकाल के बीच की गति हैं।

लंकाकांड में सूर्य अस्त होता हैं।

उत्तरकांड में भोगी के लिये विश्राम और योगी के लिये परम विश्राम की गति हैं।

गुरु के बचन सूर्य हैं।

जब कथा शुरु होती हैं तब सूरज नीकलता हैं।

राज कौशिक कहते हैं कि ….

लगती थी बोलियां जहां कदम कदम पर

मुझको पता हैं बिकने से कैसे बचाउ

 

2

Sunday, 08/01/2023

धाम, नाम और काम में निष्ठा होनी चाहिये।

 

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

 

मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ 'र' 'आ' और 'म' रूप से बीज है। वह 'राम' नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भंडार है॥1॥

महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥

महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

 

जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥

नाम राम का हैं और रुप कृष्ण का हैं।

यह काल नाम महिमा का काल हैं।

 

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥

तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

 

भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं॥1॥

अवध वह हैं जहां किसीका वध नहीं होता हैं।

लंका का उलटा कालं हैं।

राम प्रेम हैं, रावण मोह हैं।

अहंकार और स्वाभिमान में पतली रेखा हैं।

क्रोध की नदी पाप के पहाड से नीकलती हैं।

मानस स्वयं रत्नाकर हैं।

 

सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य।

शोचिष्केशं विचक्षण॥

 

हे सर्वद्रष्टा सूर्यदेव ! आप तेजस्वी ज्वालाओ से युक्त दिव्यता  को धारण करते हुए सत्पवर्णी किरणो रुपी रथ मे सुशोभित होते हैं।

सूरज के रथ के सात घोडे हैं। और उनके सप्त रंग हैं।

सूरज के घोडे के सप्त रंग – लाल, पीला, केसरी, स्वर्णवर्णी, ताम्बवर्णी, धुम्रवर्णी और गौरवर्णी हैं।

सुर्यके लाल रंग का घोडा हमारा रुधिराभिसरण नियंत्रित करता हैं।

पीला रंग परिपक्वता का प्रतीक हैं। आम जब पक जाती हैं तो उस का रंग पीला हो जाता हैं।

केसरी रंग उष्णता का प्रतीक हैं। केसरी रंग वाली सूर्य किरण हमारी उष्णता – तापमान ठीक रखती हैं।

गुरु अग्नि हैं और हम समधी हैं। जब हमारी समधी अग्नि में मिल जाती हैं तब हम गुरु रुप हो जाते हैं।

संयमी व्यक्ति की उग्रता यह हैं।

अपना निष्ठा से करना श्रम हैं।

तप वह हैं जहां व्यक्ति सर्व द्वंद को बिना किसी द्वेष से प्रसन्न चित से स्वीकार करता हैं।

सूर्य के स्वर्णवर्णी रंग के किरण पूज्य माने गये हैं, स्वर्ण पूज्य हैं।

हमारा यह शरीर रुपी मंदिर में बैठा ईश्वर होने के नाते हम पूज्य हैं।

ताम्रवर्ण पवित्र माना गया हैं, हमें अपने को पवित्र रखना चाहिये।

हमें बाहर से स्वच्छता और भीतर से पवित्रता रखनी चाहिये।

गौरवर्ण सुंदरता का प्रतीक हैं। ऐसे किरण हमारी सुंदरता की रक्षा करते हैं।

कला द्रष्टि और विलासिता में पतली भेद रेखा हैं।

 

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

 

माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥।2॥

 

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥

भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥

 

श्री वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाजजी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है॥3॥

 

नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥

कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥4॥

हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा संदेह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात्‌ आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं) पर उस संदेह को कहते मुझे भय और लाज आती है (भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान न हुआ) और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है (क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ)॥4॥

 3

Monday, 09/01/2023

 

धुम्रवर्णी रंग रश्मि हमारी बुद्धि तर्क को तिव्र बनाती हैं।

सूर्य जगत की – सब जड चेतन की आत्मा हैं.

ऐसे सुर्य का सूर्य भगवान राम हैं।

 

मन  मुसुकाइ  भानुकुल  भानू।  रामु  सहज  आनंद  निधानू॥

बोले  बचन  बिगत  सब  दूषन।  मृदु  मंजुल  जनु  बाग  बिभूषन॥3॥

 

सूर्यकुल  के  सूर्य,  स्वाभाविक  ही  आनंदनिधान  श्री  रामचन्द्रजी  मन  में  मुस्कुराकर  सब  दूषणों  से  रहित  ऐसे  कोमल  और  सुंदर  वचन  बोले  जो  मानो  वाणी  के  भूषण  ही  थे-॥3॥

बुद्धि तर्क करती हैं, लेकिन ऐसे तर्क से कुछ प्राप्त नहीं होता हैं।

 

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥

तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥2॥

 

हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से श्री रामचन्द्रजी की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं॥2॥

जो आकाश के नीचे सिता हैं उसे दिल की उदारता, विचारो की व्यापकता, ह्मदय रोग न आना, असंगता वगेरे प्राप्त होता हैं।

राम अवतार नहीं हैं अवतारो के अवतार हैं, २४ अवतारो में १७ वे स्थान पर राम अवतार ऐसा उल्लेख नहीं हैं लेकिन सिर्फ अवतार ऐसा उल्लेख हैं।

राम भजते भजते परम पद पाया जाता हैं।

व्यासपीठ वक्ता कि नहीं हैं लेकिन व्यासपीठ स्वयं शंकर भगवान, काक भुषुंडी, याज्ञवल्क और तुलसीदासजी की हैं।

जब त्याग आयेगा तब हि भजन हो शकेगा।
भजन विधी मुक्त विधी हैं।

भजन करनेवाला त्याग करेगा हि।

राम और कृष्ण हि हिरो – HERO हैं, बाकी सब झिरो - ZERO हैं।

H – HANDSOME, सुंदर

राम और कृष्ण सुंदर हैं।

 

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम,

पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं।

 

उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है. उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है. पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है. ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हू.

 

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं ।

हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥१॥

 

 

E – EDUCATED

R – REGULAR

O - OBIDIENT

सूर्य के सूर्य भगवान राम के भी सात रश्मि रंग हैं।

रक्तामभूज – अरुण अयन आंख

पीला – पट पीत मानहु

केसर – कस्तुरी – भाल में केसर तिलक, बलिदान का रंग केसरी हैं,

राम त्याग मूर्ति हैं, राम ने राज त्याग किया, पादूका त्याग किया, सीता त्याग किया, कालपुरुष के साथ संवाद दरम्यान लक्ष्मण जब उनकी आज्ञा का अनादर करता हैं तब लक्ष्मण का भी त्याग

स्वर्णिम – सनातन धर्म के राम स्वर्णिम हैं। स्वर्णिम हनुमानजी के ह्मदय में बिराजीत राम स्वर्णिम हि होना चाहिये।

ताम्र – धनुष्य संधान के समय भगवान राम की आंखे ताम्रवर्ण हो जाती हैं।

धुर्म – नील सरोरुह ……

मानस में मकर – मकरी शब्द सात बार आया हैं।

हे भगवान सूर्य आप रथमें बिराजीत हैं, आप देवो के देव हैं, आप सब को कर्यरत करते हैं, सब को कार्य में गतिशील करते हैं, आप प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति पर निगाह रखते हैं। ईसी लिये भगवान सूर्य को हमारी प्रवृत्ति के साक्षी माने गये हैं। हमारे दरेक कार्य पर सूर्य की निगाह रहती हैं।

सूर्त उपासना की सात विधी हैं।
१  सनातन विधी – यज्ञ सनातन विधी हैं।

२ पुरातन विधी – जल चढाना, जल का अर्द्य देना

३ पूर्ण विधी - सूर्य नमस्कार जहां शरीर के सब अंग पृथ्वीको स्पर्श करते हैं।

४ सामन्य विधी – हाथ जोडकर नमस्कार करना

५ गुप्त विधी – मानसिक रुप में विधी करना, सूर्य उदित न हुआ हो तो भी मानसिक रुप में उदित हुआ मानकर विधी करना, आंख बंध रखकर गायत्री मंत्र जपना

६ विदित विधी – जन प्रसिद्ध विधी जहां ताम्र पात्र में चंदन, अक्षत, कुमकुम, जल, दर्भ वगेरे सूर्य को अर्पण करना, ओवारणा लेना

७ अविदित विधी – ऐसी विधी सिर्फ साधु जानता हैं, इसे गुरुगम विधी भी कहते हैं। ऐसी विधी गुरु बताना चाहे तब हि किसी कि प्राप्त होती हैं।

स्वामी अयप्पा भगवान योग मुद्रा के प्रतीक हैं।

कार्तिकेय पुरुषार्थ के प्रतीक हैं।

गणेश विवेक के प्रतीक हैं।

कार्तिकेय और गणेश स्वामी अयप्पा भगवान के सोतेले भाई हैं।

4

Tuesday, 10/01/2023

संयम और नियम कट्टर नहीं होने चाहिये, लेकिन कोमल होने चाहिये।

 

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

 

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

गुरु वचन सूर्य किरण हैं।

हमारा मस्तक का भाग मानस के सात कांड हैं। ईसिलिये हम पोथी को शिर रखते हैं।

हमारे शरीर में सात द्वार हैं।

तुलसी सात द्वार की बात करते हैं जो मानस के सात सोपान हैं।

बालकांड में राम चरित और भरत चरित हैं वह हमारी दो आंखे हैं, मानस का बालकांड हमारी दो आंखे हैं जो मानस के दो सोपान हैं।

अरण्यकांड और किष्किन्धाकांड में श्रवण का महिमा हैं, ईसीलिये यह दो कांड हमारे दो कान हैं।

हमारी नासिका के दो द्वार सुंदरकांड और लंकाकांड हैं। सुर्पंखा के नाक कटनेसे लंकाकांड हुआ हैं।

रावण राम को गुप्त रीत से प्रीति करता हैं।

गुरु गुप्त रुपमें सुर्य हैं।

गुरुके चहरेका दर्शन सूर्य दर्शन हैं।

छोटा बालक स्वयं सूर्य हैं। जिससे बालक से पहले जाग जाना सूर्योदय से पहले जाग जाना समान हैं।

दांपत्य जीवन में पति सूर्य हैं और पत्नी चंद्र हैं।

गुरु के साथ साथ चलना हमारी मृत्यु की यात्रा हैं।

 

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं

वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं

वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥

 

धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के (विकसित करने वाले) सूर्य, पाप रूपी घोर अंधकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि (क्रिया) में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज (आत्मज) तथा कलंकनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

शंकर स्वयं सूर्य हैं।

अगर हम रुद्राष्टक का गान सुबह में (सूर्योदय से पहले) करते हैं तो वह सूर्योदय से पहले का स्नान हैं।

हमारी निखालसता मंत्रको आमंत्रित करती हैं|


मंत्र दीक्षा के १२ स्थान हैं।

  1. गौशाला
  2. गुरुगृह – गुरु का निवास स्थान
  3. वृंदावन – कामदवन – नंदनवन जैसे स्थान जहां ऋषि मुनिओने साधना की हैं।
  4. उपवन – उद्यान
  5. पुष्पवाटिका
  6. नदी का तट
  7. गुफा
  8. पर्वत की चोटी
  9. पूण्य प्रदेश – तीर्थ स्थान
  10. ऐसी भूमि जहां बालु, मिट्टि हो
  11. ऐसा कोई भी स्थान जहां गुरु हमें बुलाये

5

Wednesday, 11/01/2023

यह दिनो में भीष्म निर्वाण का समय तय करते हैं।

यह समय एक विशेष समय हैं।

यह समय दरम्यान भगवान अयप्पा का जन्म हुआ हैं।

बिना जिज्ञासा बक्ता को मुखर होना नहीं चाहिये।

 

बोलेउ काकभुसंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी।।

सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।1।।

 

काकभुशुण्डिजीने कहा-पक्षिराजपर उनका प्रेम कम न था (अर्थात् बहुत था)- हे नाथ ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्रीरघुनाथजीके कृपापात्र हैं।।1।।

 

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरुपहिं चीन्हें।।

काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।2।।

 

ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है ? स्वरूपकी पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या [आसक्तिपूर्वक] कर्म हो सकते हैं ? दुष्टोंके संगसे क्या किसीके सुबुद्धि उत्पन्न हुई है ? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है ?।।2।।

भीष्म द्वीज हैं।

पक्षी द्वीज हैं।

संस्कारसे द्वीजत्व प्राप्त हो शकता हैं।

स्त्री द्वीज हैं और द्वीजत्व भी हैं, प्रसुता हैं।

शादी के बाद गोत्र बदल जाने पर द्वीजत्व प्राप्त होता हैं।

महापुरुष की आज्ञा न मानना उस महापुरुष के मृत्यु समान हैं।

जिसको स्वरुप का बोध हो गया हो उसका कर्म निष्काम कर्म होता हैं।

हमें भार बिना का भगवान चाहिये।

सूर्य हमारा वैद्य हैं।

पाप करनेवाले की आयु कम नहीं होती हैं लेकिन उसकी तेजस्विता कम हो जाती हैं।

मानसिक रोगो से तेजस्विता कम होती हैं।

गुरु और सूर्य सदा समयबध होते हैं।

गुरु और सूर्य उसके आश्रित को प्रमादी नहीं बनने देते हैं।

गुरु और सूर्य कभी भी छूट्टी नहीं लेते हैं।

गुरु और सूर्य मूर्छित को जागृत करते हैं।

जो सुबह में ध्यान करता हैं वह साधु हैं।
जो अपने ईष्टग्रंथ का स्वाध्याय करता हैं वह साधु हैं।

गायत्रीमंत्र की उपासना से बुद्धि का विकास होता हैं।

जो वेद के सूत्रो में अपनी बुद्धि से स्थिर हो गया हैं वह साधु हैं।

साधु को भोजन कराने से हमारी सहनशीलता बढती हैं।

 

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

 

माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥।2॥

 

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥

भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥

 

श्री वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाजजी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है॥3॥

 

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥

मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥

 

तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान्‌ के गुणों की कथाएँ कहते हैं॥4॥

 

ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।

ककहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥

 

ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान्‌ की भक्ति का कथन करते हैं॥44॥

 

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥

प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥1॥

 

इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं॥1॥

 

एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥

जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥2॥

 

एक बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर भरद्वाजजी ने रख लिया॥2॥

6

Thursday, 12/01/2023

स्वामी विवेकानंद नक्षत्र मंडल के एक नक्षत्र हैं।

अपने आप को समर्पित करना

बुद्ध पुरुष के चरणों में अपने आप को समर्पित करना श्रेष्ठ हैं।

दान करने से हमारे संचित कर्म खत्म हो जाते हैं।

दान करने से प्रारब्ध कर्म भी खत्म हो जाते हैं।

अबुध अवस्था में (बालक जैसी अवस्था में) किया गया कर्म संचित कर्म नहीं होता हैं।

बालककी दशा अबुध अवस्था होनेसे ऐसी अवस्था में जो भी कर्म होता हैं वह संचित नहीं गीना जाता हैं।

अभान अवस्था में – (बिना कोई ईरादा से ) किया गया कर्म संचित कर्म नहीं गीना जाता हैं।

अहंकार मुक्त अवस्था में किया गया कर्म संचित कर्म नहीं गीना जाता हैं।

निष्काम कर्म संचित कर्म नहीं माना जाता हैं।

जगत कल्याण के लिये किये गये कर्म संचित कर्म नहीं गीना जाता हैं।

प्रभु के लिये कया गया कर्म संचित कर्म नहीं गीना जाता हैं।

सहज कर्म अगर दुषित हैं फिर भी वह कर्म संचित कर्म नहीं गीना जाता हैं।

अपने आप को जग मंगल के लिये समर्पित कर देने से कल्याण होगा।

सत्य, तप, दान और पवित्रता धर्म के चार चरण हैं।

 

जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।

सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।124क।।

 

जिनका नाम जन्म मरण रूपी रोग की [अव्यर्थ] औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरनेवाला है, वे कृपालु श्रीरामजी मुझपर और आपपर सदा प्रसन्न रहें।।124(क)।।

जैसे औषधि लेने के लिये कई पथ्य – परेजी हैं वैसे हरि नाम जपने के लिये भी कई पथ्य हैं।

यह पथ्य नीम्न मुजब है।

  • 1.      जुठ न बोलना
  • 2.      निंदा न करना
  • 3.      आत्मश्लाघा नहीं करना
  • 4.      अपने मंत्रदाता का उल्लंघन न करना
  • 5.      चालाक – अति चतुर व्यक्ति के पास न बैठना, ऐसे व्यक्ति का संग न करना
  • 6.      अपनी प्रसंशा अगर कोई करता हैं तो उसे सुनना नहीं, ऐसे समय ऐसे विषय की चर्चा बदल देनी चाहिये।



प्रतिकर्म गुलामी हैं – प्रति क्रिया देना देना गुलामी हैं।

राम नाम और राम नाम जपनेवाला अमर हैं।

अपना भजन कभी भी बताना नहीं चाहिये।

मानस में सूर्य सुक्तम का वर्णन हैं। नीम्न पंक्तियां सूर्य सुक्तम हैं। यह मानस सूर्य सुक्तम हैं।

 

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥

बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥

 

मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया, रात बीतने पर श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे-॥3॥

 

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥

बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥

 

हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले-॥4॥

दोहा :

 

अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।

जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥

 

अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं॥238॥

चौपाई :

 

नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥

कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥

 

सब राजा रूपी तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अंधकार को हटा नहीं सकते। रात्रि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं॥1॥

 

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥

उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥

 

वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो गया॥2॥

 

रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥

तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।3॥

 

हे रघुनाथजी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है॥3॥

 

बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥

कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥

 

भाई के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री रामजी ने शौच से निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए। आकर उन्होंने गुरुजी के सुंदर चरण कमलों में सिर नवाया॥4॥

पंकज असंग रहता हैं, पंकज सिद्ध हैं।

कोक – चकवा चकवी विरही होते हैं, वह साधक हैं।

लोक – आम आदमी विषयी हैं।

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Friday, 13/01/2023

कबीर कहते हैं कि …..

 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया ना कोय

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

 

कबीर जी कहते हैं इस संसार में ग्रन्थों को पढ़ने वाले न जाने कितने ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। किन्तु इतना ज्ञान होने के बाद भी यदि उन्हें प्रेम की समझ नही है तो उन्हें विद्वान नही माना जा सकता।

जो पोथी को पढता हैं वह पंडित हो शकता हैं लेकिन उसे पोथी में से कुछ भी दिखाई नहीं देगा। जो पोथी का दर्शन करते हैं (मोरारीबापु पोथी का दर्शन करते हैं) उसे कभी न कभी कुछ द्रश्य अवश्य दिखाई देगा।

प्रेम की कोई किताब नहीं हैं।

आधि शंकर भगवान तीन वासना वताते हैं – लोक वासना, शास्त्र वासना और देह वासना।

ज्ञानी वह हैं जो उसने जो पाया हैं उसे लोगो में बांटता हैं।

शास्त्र के पास बैठना – शास्त्र स्वाध्याय करना शास्त्र वासना हैं।

देह वासना – देह को संभालना – भोग के लिये नहीं हैं लेकिन शास्त्र दर्शन के लिये जरुरी हैं।

ईर्षा हमारी आंख में रहती हैं और द्वेष हमारे दिल में रहता हैं।

अथर्ववेद कहता हैं कि ……..

हे तेजस्वी महापुरुष,  जो हमारा द्वेष करते हैं उस का तेज तुं हर ले और अगर हम द्वेष करे तो हमारा तेज भी हर ले।

આપો દ્રષ્ટિમાં તેજ અનોખું, સારી સૃષ્ટિમાં શિવરુપ દેખું।

આવી દિલમાં વસો, આવી હૈયે હસો, શાંતિ સ્થાપો.

 

राम चरित मानस में रक्त वर्ण चोपाई …..

 

अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥

कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥

 

भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में (क्रमशः) सुंदर धनुष और बाण हैं॥1॥

गायत्री मंत्र का स्वाध्याय – जाप , सूर्य साधना - सूर्य उपासना हैं।

ब्रह्म तेज का न होना दारिद्र हैं, किसी चिज का अभाव दारिद्र नहीं हैं।

शिवम्‌ शब्द निराकार शिव का निर्देश करता हैं जब कि शिव शब्द साकार शिव का निर्देश करता हैं।

शिवं का उलटा वंशी – वांसळी हैं।

सुदाम मे दाम पीछे हैं जब कि और दामोदर में दाम आले हैं।

सुदाम जो चार मुठ्ठी चावल लेकर भगवान कृष्ण के पास जाता हैं वह बुद्धि के चार दोष हैं।

बुद्धि के चार दोष हैं।

  1. भ्रम
  2. प्रमाद
  3. लोभ
  4. महत्व की बात को अनसुना करना


कुंभकर्ण तेजस्वी हैं लेकिन प्रमादी हैं।

लोभ – प्रलोभन द्वारा लोग लोभी बनाते हैं।

महत्व की बात न सुनना का प्रमाण सती हैं।

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Saturday, 14/01/2023

सूर्य उपरवाले को कम देखता हैं, नीचेवाले को ज्यादा देखता हैं।

जब भजन – भक्ति बढेगी तो भेद कम हो जायेगे।

जो सात का आश्रय करता है उसका भजन द्रढ हो जायेगा और उस की द्रष्टि सम बन जायेगी।

        नाम आश्रय – राम रसायण अमृत से भी ज्यादा उपर हैं।

 

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥

रामु सो अवध नृपति सुत सोई।

की अज अगुन अलखगति कोई॥4॥

 

और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं- ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?॥4॥

 

 

       रुप आश्रय – परमात्मा के रुप का आश्रय करना, ईस लिये परमात्मा की सुंदर मूर्ति पसंद करनी चाहिये।

       गुण आश्रय – प्रभु के गुण का आश्रय

       भाव आश्रय – परम की याद का आश्रय, परम की याद आते हि रोना शुरु हो जायेगा।

       अनंत का आश्रय

       आत्मभान का आश्रय -आत्म बोध – स्वरुप बोध हो गया हो उसका आश्रय

      विभूति आश्रय – विभु निराकार हैं

       गुरु आश्रय – गुरु आश्रय में उपरोक्त सातो आश्रय समाहित हैं। गुरु नाम जपने से नाम जप आही जाता हैं।

मैं सूर्य की भाति सुंदर और प्रकाशमान बनुं।

सादगी हि श्रींगार हैं।

अपना गुरु सब से सुंदर हैं।

कुछ वक्ता वंदनीय हैं।

गुरु अनंत हैं।

राम चरित मानस स्वयं गुरु हैं जिस में सब आश्रय समाहित हैं। उस में नाम हैं, रुप हैं, गुण हैं – मंगल  करनि हैं, सब हैं।

हरि कथा अनंता हैं।

मानस में अनेक विभूति हैं।

आदमी को सत्ता, धन, पद वगेरे का दोर मिलते हिं पतंग की तरह कापाकापी करता हैं। और अपने निकटवाला हि अपनी पतंग काटेगा।

ग्रंथ को हि गुरु बना दो, ऐसा गुरु दक्षिणा भी नहीं मागेगा।

जो ग्रंथ को गुरु मानेगा वह फिर उस ग्रंथ की निंदा नहीं करेगा।

उत्तरकांड में सूर्य सुक्तम हैं।

 

एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।

सानुकूल सबह पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।

 

इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्रीरामजी का गुण-गान करते हैं और कृपानिधान श्रीरामजी सदा सबपर अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं।।30।।

 

जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।

पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।1।।

 

[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! जबसे रामप्रतापरूपी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतोंके मनमें शोक हुआ।।1।।

 

जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।

अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।2।।

 

जिन-जिनके शोक हुआ, उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ [सर्वत्र प्रकाश छा जाने से] पहले तो अविद्यारूपी रात्रि नष्ट हो गयी। पापरूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गये और काम-क्रोधरूपी कुमुद मुँद गये।।2।।

 

बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।।

मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।3।।

 

भाँति-भाँति के [बन्धनकारक] कर्म, गुण, काल और स्वभाव-ये चकोर हैं, जो [रामप्रतापरूपी सूर्यके प्रकाशमें] कभी सुख नहीं पाते। मत्सर (डाह) मान, मोह और मदरूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता।।3।।

 

धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना।।

सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका।।4।।

 

धर्मरूपी तालाबों में ज्ञान, विज्ञान- ये अनेकों प्रकार के कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक-ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गये।।4।।

 

यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।

पछिले बाढ़िहिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।।31।।

 

यह श्रीरामप्रतापरूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं।।31।।

घुवड को सूर्य नहीं दिखाई देता हैं।

मत्सर एक प्रकार की जलन हैं जो द्वेष और ईर्षा जब मिलते तब आती हैं।

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Sunday, 15/01/2023

गुरु मुख से श्रवण किया गया शास्त्र हि पचेगा और संवाद स्थापित होगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो हमारी शास्त्र के प्रति निष्ठा कम होगी और हम शास्त्र की निंदा भी करने लगेंगे।

गुरु को स्मरण में रखकर हि शास्त्र श्रवण करना चाहिये।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब सीता का अग्निप्रवेश का समय आता हैं तब सीता आदीत्य भगवान को याद करती हैं।

जो सब से ऊच्च स्थान पर बैठा हैं उस से न्याय मांगना चाहिये।

बुद्ध पुरुष का क्रोध भी निर्वाणदायक होता हैं।

 

श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥

निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।

निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥

 

(वह मन ही मन सोचने लगा-) अपने परम प्रियतम को देखकर नेत्रों को सफल करके सुख पाऊँगा। जानकीजी सहित और छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत कृपानिधान श्री रामजी के चरणों में मन लगाऊँगा। जिनका क्रोध भी मोक्ष देने वाला है और जिनकी भक्ति उन अवश (किसी के वश में न होने वाले, स्वतंत्र भगवान) को भी वश में करने वाली है, अब वे ही आनंद के समुद्र श्री हरि अपने हाथों से बाण सन्धानकर मेरा वध करेंगे।

 

वृषभे चढी वहेला रे आवजो ….

 

सीता कहती हैं कि हे सूर्य भगवान आप सव से उपर हैं।

सीता सूर्य को ससुर कहती हैं। राम सूर्यवंशी हैं।

सीता चंद्र, अग्नि को भी याद करती हैं। क्यों कि राम रामचंद्र भी कहलाते हैं और राम का प्रागट्य अग्नि से हुआ हैं – अग्नि कुंड से खीर सहित अग्नि भगवान प्रगट होते हैं।

सीता वायु को भी याद करती हैं क्यों कि वायु पुत्र हनुमान सीता की पवित्रता के साक्षी हैं।

सीता की पवित्रता का साक्षी आकाश भी हैं क्यों कि सीता को आकाश मार्ग से लंका में लायी गई हैं।

राम सीता को निष्कलंक साबित करने के लिये कठोर बनकर सीता को अग्नि परीक्षा के लिये कहते हैं।

श्रोता के तीन प्रकार हैं – तमोगुणी श्रोता वह हैं जो मंगलाचरण से हि सो जाता हैं, रजो गुणी श्रोता वक्ता के कथन को पूर्वापर संबंध को सोचता हैं, वक्ता का कथन किस के बारे में हैं वह सोचता हैं, सत्व गुणी श्रोता शांति से श्रवण करता हैं।

गुणातित श्रोता वह हैं जो आंख से सुनता हैं और कान से पीता हैं, उस में ईन्द्रीय परिवर्तन होता हैं।

गुरु मुख शास्त्र श्रवण, पठन श्रोता में अहंकार पेदा नहीं देता हैं।

 

जौं तेहि आजु बंधे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥

जौं सत संकर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥7॥

 

यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूँगा॥7॥

दोहा :

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत।

अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत॥75॥

श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥75॥

                                                               गरूड के सात प्रश्न

                                                                                                                 i.     सब से बडा दुःख – दरिद्रता

                                                                                                               ii.     सब से बडा सुख – संत मिलन

                                                                                                              iii.     सब से बडा पाप – परनिंदा

                                                                                                              iv.     सब से बडा पूण्य – मन, वचन, कर्म से अहिंसा

                                                                                                               v.     सबसे बडी मूल्यवान चीज – मानव शरीर

                                                                                                              vi.     सबसे बडा रोग – मानसिक रोग

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।

मनुष्य शरीर श्रेष्ठ हैं, और यह शरीर परम की करुणा से प्राप्त हुआ हैं।

शंकराचार्य भगवान तीन वस्तु – मनुष्य शरीर, मानवता और साधु संग – को दुर्लभ बताते हैं।

 

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा।।11।।

 

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिये सुख दायक है। वेदोंमें अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।।1।।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।

सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।

 

यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।

गरुड कथा श्रवण करकर उडान भरता हैं – वक्ता वहीं रहता है जब कि श्रोता उडान भरता हैं, यह कथा श्रवण हैं।

 

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

 

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

 

जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।

ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।

 

पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे मन ! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज। श्रीरामजीको भजने से किसने परम गति नहीं पायी ?।।4।।

 

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

 

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

 

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।।

कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।

सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।

दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।

 

जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुगके पाप और मन के मलको धोकर बिना ही परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं। [अधिक क्या] जो मनुष्य पाँच-सात चौपाईयों को भी मनोहर जानकर [अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको] हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्रीरामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयोंको भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी हर लेते हैं)।।2।।

 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

 

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

 

दो.-मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

 

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

 

श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं

श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।

मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये

भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

 

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

 

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

 

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।

कथा अच्युत हैं।

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