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Sunday, November 19, 2023

માનસ ગુરુવર્યમ્ - 927

 

રામ કથા – 927

માનસ ગુરુવર્યમ્

ગુરુવાયુર, કેરાલા

શનિવાર, તારીખ 18/11/2023 થી રવિવાર, તારીખ 26/11/2023

મુખ્ય પંક્તિ

 

तुम्ह  तें  अधिक  गुरहि  जियँ  जानी। 

सकल  भायँ  सेवहिं  सनमानी॥

गुर  बिबेक  सागर  जगु  जाना। 

जिन्हहि  बिस्व  कर  बदर  समाना॥

 

1

Saturday, 18/11/2023

वाल्मीकिजी भगवान राम को कहते हैं कि ………………

तरपन  होम  करहिं  बिधि  नाना।  बिप्र  जेवाँइ  देहिं  बहु  दाना॥

तुम्ह  तें  अधिक  गुरहि  जियँ  जानी।  सकल  भायँ  सेवहिं  सनमानी॥4॥

 

जो  अनेक  प्रकार  से  तर्पण  और  हवन  करते  हैं  तथा  ब्राह्मणों  को  भोजन  कराकर  बहुत  दान  देते  हैं  तथा  जो  गुरु  को  हृदय  में  आपसे  भी  अधिक  (बड़ा)  जानकर  सर्वभाव  से  सम्मान  करके  उनकी  सेवा  करते  हैं,॥4॥

भरतजी गुरु को कहते हैं कि ………….

 

गुर  बिबेक  सागर  जगु  जाना।  जिन्हहि  बिस्व  कर  बदर  समाना॥

मो  कहँ  तिलक  साज  सज  सोऊ।  भएँ  बिधि  बिमुख  बिमुख  सबु  कोऊ॥1॥

 

गुरुजी  ज्ञान  के  समुद्र  हैं,  इस  बात  को  सारा  जगत्‌  जानता  है,  जिसके  लिए  विश्व  हथेली  पर  रखे  हुए  बेर  के  समान  है,  वे  भी  मेरे  लिए  राजतिलक  का  साज  सज  रहे  हैं।  सत्य  है,  विधाता  के  विपरीत  होने  पर  सब  कोई  विपरीत  हो  जाते  हैं॥1॥

वाल्मीकिजी भगवान राम को देखकर आनंदित हुए।


बालमीकि  मन  आनँदु  भारी।  मंगल  मूरति  नयन  निहारी॥

तब  कर  कमल  जोरि  रघुराई।  बोले  बचन  श्रवन  सुखदाई॥3॥

 

(मुनि  श्री  रामजी  के  पास  बैठे  हैं  और  उनकी)  मंगल  मूर्ति  को  नेत्रों  से  देखकर  वाल्मीकिजी  के  मन  में  बड़ा  भारी  आनंद  हो  रहा  है।  तब  श्री  रघुनाथजी  कमलसदृश  हाथों  को  जोड़कर,  कानों  को  सुख  देने  वाले  मधुर  वचन  बोले-॥3॥ 

गणेश, हनुमान, राम, लक्ष्मण, जानकी मंगलमूर्ति हैं।

जानकीजी की सुंदरता का वर्णन करते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि …………….

 

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

 

वह (सीताजी की शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥

अघोर का अर्थ शांत होता हैं।

राम कथा का पारायण हमें सात वस्तुसे परायण कराता हैं, सत्य परायण कराता हैं।

`           1          राम पारायण हमें राम परायण कराता हैं।

राम पारायण प्रेम परायण कराता हैं।

 

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।

सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।1।।

 

राम-राज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और है में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।।1।।

राम पारायण हमें करुणा परायण कराता हैं।

2       2    राम पारायण हमें नाम परायण बनाता हैं।

हरेक लाभ शुभ नहीं होता हैं लेकिन हरेक शुभ लाभ होता हैं।

सात व्रत – गंगा, गीता का पाठ, गायत्री मंत्र का जाप, गोपी चंदन, तुलसी माला, नाममें निष्ठा रखना और एकादशी का उपवास

3       3    धर्म परायणता, कर्म परायणता

4       4    गुरु परायणता – गुरु व्याक्ति नहीं हैं, बल्कि विचार हैं, अस्तित्व हैं।

5       ग्रंथ परायणता

6       6    श्रवण परायणता – कथा परायणता

7       7    शरण परायणता

2

Sunday, 19/11/2023

कलियुगमें संसारमें रहकर सन्यास की वृत्ति रखनी जरुरी हैं, कलियुगमें सन्यास लेनेकी मना हैं।

कलियुगमें आमिष भोगीको यज्ञ करनेकी मना हैं।

 

जौं  मागा  पाइअ  बिधि  पाहीं।    रखिअहिं  सखि  आँखिन्ह  माहीं॥

जे  नर  नारि    अवसर  आए।  तिन्ह  सिय  रामु    देखन  पाए॥3॥

यदि  ब्रह्मा  से  माँगे  मिले  तो  हे  सखी!  (हम  तो  उनसे  माँगकर)  इन्हें  अपनी  आँखों  में  ही  रखें!  जो  स्त्री-पुरुष  इस  अवसर  पर  नहीं  आए,  वे  श्री  सीतारामजी  को  नहीं  देख  सके॥3॥

जब हमारी आंख जप करेगी तो हमारी आंख में विकार नहीं आयेगा।

आकर्षण के तीन प्रकार हैं – देहका आकर्षण, दिलका आकर्षण और दिव्य आकर्षण।

सकल भाव के प्रकार

1          सद्भाव – हमें सद्भावसे गुरुका सेवन करना चाहिये।

2          साधु भाव

3          चंर्द्र भाव – शीतल भाव

4          भद्र भाव – कल्याणकारी भाव

5          गदगद भाव- विरहाग्नि भाव

6          शुद्र भाव – अपने गुरु के पास बैठकर अन्य गुरु से नाता रखना शुद्र भाव हैं।

सन्मानसे करनेका अर्थ कुछ भी न छिपाकर करना हैं।

 

3

Monday, 20/11/2023

विनोबाजी के आश्रमें लिखे हुए सुत्र ………..

अहमेव कालः

काल जारणम

स्नेह साहनम

कटुक वर्जनम – कटुका को छोडना

गुण निवेदनम – हमारे भले बुरे गुणोका हमारे श्रद्धा के स्थान समक्ष वर्णन करना चाहिये।

काल को निरंतर वर्तमान समजकर माणो।

जीव भी अविनाशी हैं, चैतन्य हैं, अमल हैं।

 

सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।

 

हे तात ! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिये। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।

संजोग युगो में नहीं आता हैं, सालो में नहीं आता हैं लेकिन घडी में आता हैं।

 

प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।

भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।4।।

 

संतजनो के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँतक कि स्वर्ग और मुक्तितक [भक्तिके समाने] तृणके समान हैं, जो भक्तिके पक्षमें हठ करता है, पर [दूसरेके मतका खण्डन करनेकी] मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है।।4।।

प्राप्त हि पर्याप्त हैं।

कपटी  कायर  कुमति  कुजाती।  लोक  बेद  बाहेर  सब  भाँती॥

राम  कीन्ह  आपन  जबही  तें।  भयउँ  भुवन  भूषन  तबही  तें॥1॥

 

मैं  कपटी,  कायर,  कुबुद्धि  और  कुजाति  हूँ  और  लोक-वेद  दोनों  से  सब  प्रकार  से  बाहर  हूँ।  पर  जब  से  श्री  रामचन्द्रजी  ने  मुझे  अपनाया  है,  तभी  से  मैं  विश्व  का  भूषण  हो  गया॥1॥

सहज और सरल मनुष्य पेदा करना राम कथा का उद्देश हैं।

 

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।

 

।4.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम नहीं जानते।।

 

प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।

संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥३॥

 

प्रेमरुपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेह का घी बनाना चाहिये और सन्देह रुपी समिधका क्षमारुपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये ॥३॥

 

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।

सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम।।

गुरुवर्यम बुद्ध पुरुष का शरीर जो पंच तत्व से बना हैं वह पंच तत्व हमारे शरीर के पंच तत्व से अलग हैं।

बुद्ध पुरुष का वायु तत्व हमें पवित्र करता हैं।

बुद्ध पुरुष का पृथ्वी तत्व सबको धारण करना, क्षमा करना, धैर्य रखना, सहन करना, सबका स्वीकार करना शीखाता हैं।

बुद्ध पुरुष का जल तत्व परिश्रम के अश्रु हैं।

बुद्ध पुरुष का तेज तत्व तपस्या हैं।

बुद्ध पुरुष का आकाश तत्व आकाश की तरह विशालता का प्रतीक हैं।


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Tuesday, 21/11/2023

मिलते रहेंगे तो जिन्दा रहेंगे।

गुरु का मन सुमन हैं, फूल हैं, फूल जैसा मासुम, नाजुक, असंग्रहित, तरोताजा होता हैं।

जैसे फूल अपनी सुगंध बांट देता हैं वैसे हि गुरु असंग्रहित होता हैं।

कृष्ण गुरुवर्य हैं।

गुरुवर्य की बुद्धि अव्यभिचारिणी होती हैं, उसका निर्णय बार बार बदलता नहीं हैं।

गुरुवर्य  का चित निरोध हैं, विरोध नहीं हैं, सिर्फ बोध हैं।

शिव त्रिभुवन गुरु है, राम, कृष्ण जगदगुरु हैं।

 

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥

 

वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥

જો આપણી આંગળી કંકુ વાળી થાય તો જ સામેના કપાળમાં ચાંલ્લો થાય.

गुरुवर्य में अहंकार नहीं होता हैं लेकिन आभास होता हैं। गुरुवर्य में मैं भी ब्रह्म हुं ऐसा अहंकार होता हैं।

आदि शंकरने शिवाष्टक की रचना की हैं।

सुबह का पहला प्रहर सतयुग हैं।

बुद्ध पुरुष सुबह में ध्यान में रहता हैं, ध्यान में दर्शन करता हैं।

 

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥

तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥

 

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥

सुबह का ९ से १० बजे का समय त्रेतायुग हैं। यज्ञ, कर्मकांड वगेरे का सम हैं।

ओफिस समय द्वापरयुग हैं।

सायंकाल कलियुग हैं।

चार पुरुषार्थ  ………

गुरुवर्य का धर्म सेवा हैं। सेवा धर्म कठिन हैं।

 

आगम  निगम  प्रसिद्ध  पुराना।  सेवाधरमु  कठिन  जगु  जाना॥

स्वामि  धरम  स्वारथहि  बिरोधू।  बैरु  अंध  प्रेमहि    प्रबोधू॥4॥

 

वेद,  शास्त्र  और  पुराणों  में  प्रसिद्ध  है  और  जगत  जानता  है  कि  सेवा  धर्म  बड़ा  कठिन  है।  स्वामी  धर्म  में  (स्वामी  के  प्रति  कर्तव्य  पालन  में)  और  स्वार्थ  में  विरोध  है  (दोनों  एक  साथ  नहीं  निभ  सकते)  वैर  अंधा  होता  है  और  प्रेम  को  ज्ञान  नहीं  रहता  (मैं  स्वार्थवश  कहूँगा  या  प्रेमवश,  दोनों  में  ही  भूल  होने  का  भय  है)॥4॥

गुरुवर्य का अर्थ पायो परम विश्राम हैं, कृतकृत्य भाव आना हैं, डकार आना हैं, तृप्ति हैं। ENOUGH FOR THIS LIFE हैं।

गुरुवर्य का काम पूर्ण काम अथवा निष्काम हैं।

गुरुवर्य का मोक्ष हैं।

માતા માટે તેને પોતાનાં બાળકો મળે, એની આ મમતા એ જ મોક્ષ છે.

5

Wednesday, 22/11/2023

दुसरे पर आधारित सुख कायम नहीं रहता हैं।

 

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनुहरि भजन न भव भय नासा।।4।।

 

निज-सुख (आत्मानन्द) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्वके बिना क्या स्पर्श हो सकता है ? क्या विश्वास के विना कोई भी सिद्धि हो सकती है ? इसी प्रकार श्रीहरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता।।4।।

प्रगाढ अंधेरा प्रकाश को जन्म देता हैं।

प्रगाढ अंधेरा प्रकाश का पिता हैं।

अंधेरा हमें विश्राम की ओर ले जाता हैं।

प्रकाश हमें प्रवृत्ति की तरफ ले जाता हैं जब कि अंधेरा हमें निवृत्ति कि तरफ गे जाता हैं। प्रवृत्ति हमें श्रमिक करती हैं।

सत्य की खोज अंधेरे में हुई हैं।

हनुमानजी सीता की खोज के लिये रात्रि के अंधेरे में लंका मे प्रवेश करते हैं।

प्रकाश परिषद हैं, अंधेरा उपनिषद हैं।

अंधेरा सार्वभौम सत्ता हैं।

राम जगदगुरु हैं, गुरुवर्यम हैं, जहां सात सागर हैं।

1          कृपा सिंधु

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

 

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

कृपा और करुणा में अंतर हैं।

राम कृपा सिंधु हैं, करुणासागर हैं।

कृपा कठोर हो शकती हैं, जब कि करुणा कभी भी कठोर नहीं हो शकती हैं।

कृपा कभी कभी बल हैं, अगर कृपा में शील हैं तो वह कृपा में बल नहीं आयेगा।

करुणा सरल तरल हैं, सार्वभौम हैं, सब के  लिये हैं।

गुरु सब जगह से नमकीन लगता हैं।

2          आनंद सागर

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

 

ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥

गुरु आनंद सिंधु हैं। राम आनंद सिंधु हैं।

3          सुख सागर

को  कहि  सकइ  प्रयाग  प्रभाऊ।  कलुष  पुंज  कुंजर  मृगराऊ॥

अस  तीरथपति  देखि  सुहावा।  सुख  सागर  रघुबर  सुखु  पावा॥1॥

 

पापों  के  समूह  रूपी  हाथी  के  मारने  के  लिए  सिंह  रूप  प्रयागराज  का  प्रभाव  (महत्व-माहात्म्य)  कौन  कह  सकता  है।  ऐसे  सुहावने  तीर्थराज  का  दर्शन  कर  सुख  के  समुद्र  रघुकुल  श्रेष्ठ  श्री  रामजी  ने  भी  सुख  पाया॥1॥ 

सुख सागर को जो सुख मिले वह सुख निज सुख हैं।

भगवान की अपनी निज महिमा – पादूका में प्रतिष्ठित हैं, पादूका निज महिमा हैं।

 

 

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।

भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट बरनी।।4।।

 

फिर श्रीरघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया; जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आये, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दिग्राम में रहने की रीति, इन्द्रपुत्र जयन्त की नीच करनी और फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी और आत्रिजी का मिलाप वर्णन किया।।4।।

भगवान शंकर पादूका का पूजन करनेको कहते हैं।

सत्य का आश्र करो, विवाद से दूर रहो।

4          विवेक सागर

 

गुर  बिबेक  सागर  जगु  जाना।  जिन्हहि  बिस्व  कर  बदर  समाना॥

मो  कहँ  तिलक  साज  सज  सोऊ।  भएँ  बिधि  बिमुख  बिमुख  सबु  कोऊ॥1॥

गुरुजी  ज्ञान  के  समुद्र  हैं,  इस  बात  को  सारा  जगत्‌  जानता  है,  जिसके  लिए  विश्व  हथेली  पर  रखे  हुए  बेर  के  समान  है,  वे  भी  मेरे  लिए  राजतिलक  का  साज  सज  रहे  हैं।  सत्य  है,  विधाता  के  विपरीत  होने  पर  सब  कोई  विपरीत  हो  जाते  हैं॥1॥

5          गुण सागर

 

राम  जनमि  जगु  कीन्ह  उजागर।  रूप  सील  सुख  सब  गुन  सागर॥

पुरजन  परिजन  गुरु  पितु  माता।  राम  सुभाउ  सबहि  सुखदाता॥3॥

 

श्री  रामचंद्रजी  ने  जन्म  (अवतार)  लेकर  जगत्‌  को  प्रकाशित  (परम  सुशोभित)  कर  दिया।  वे  रूप,  शील,  सुख  और  समस्त  गुणों  के  समुद्र  हैं।  पुरवासी,  कुटुम्बी,  गुरु,  पिता-माता  सभी  को  श्री  रामजी  का  स्वभाव  सुख  देने  वाला  है॥3॥

भगवान रुप सागर हैं, शील सागर हैं, गुण सागर हैं।

6          शील सागर

7          करुणा सागर

नतरु  जाहिं  बन  तीनिउ  भाई।  बहुरिअ  सीय  सहित  रघुराई॥

जेहि  बिधि  प्रभु  प्रसन्न  मन  होई।  करुना  सागर  कीजिअ  सोई॥1॥

 

अथवा  हम  तीनों  भाई  वन  चले  जाएँ  और  हे  श्री  रघुनाथजी!  आप  श्री  सीताजी  सहित  (अयोध्या  को)  लौट  जाइए।  हे  दयासागर!  जिस  प्रकार  से  प्रभु  का  मन  प्रसन्न  हो,  वही  कीजिए॥1॥

6

Thursday, 23/11/2023

शरणागति एक की हि होती हैं और एक बार हि होती हैं।

सात दुष्ट तर्क हैं।

            सबसे परम व्यक्ति पर संदेह करना दुष्ट तर्क हैं।

बालकांड में सती दुष्ट तर्क करती हैं।

 

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥

सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥

 

ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान्‌ श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।

अयोध्याकांड में मंथरा दुष्ट तर्क करती हैं जिस से राम का वनवास होता हैं और दशरथ राजा की मृत्यु होती हैं।

छोटे हेतु के लिये की गई जिद दुष्ट तर्क हैं।

अरण्यकांड में दुष्ट तर्क सुर्पंखा करती हैं जिस से रावण का नाश होता हैं।

किष्किन्धाकांड में वाली दुष्ट तर्क करता हैं।

सुंदरकांड में लंकिनी दुष्ट तर्क करती हैं, लंकिनी चोर को खाती हैं।

लंकाकांड में रावण दुष्ट तर्क करता हैं।

उत्तरकांड में अयोध्याकी जनता जानकी के चारित्र्य पर दुष्ट तर्क करती हैं।

गुरुवर्य कौन हैं?

 

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥

राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥

 

राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है॥3॥

ऐसे तो गुरु विरोध करता हि नहीं हैं, बोध और विरोध एक साथ नहीं रह शकते हैं।

भगवान शंकर क्रोध कर शकते हैं लेकिन गुरु क्रोध नहीं करता हैं।

बुद्ध पुरुष मा हैं, मातृत्व के बिना बुद्ध पुरुष नहीं बना जा शकता हैं।

मानस में गुर शब्द की पंक्तियां ……..

 

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥

 

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥

सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥

श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥

 

मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।

समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30 क॥

 

फिर वही कथा मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लड़कपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥30 (क)॥

 

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥

भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥

 

तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो॥1॥

 

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥

पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥

इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥1॥

 

संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।

होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45

 

हे प्रभो! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता॥45॥

 

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥

 

यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता॥3॥

 

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥

तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥

माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥

 

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥

 

वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥

 

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥

तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥

 

जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥

 

सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥

गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥2॥

धर्मरुचि मंत्री का श्री हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण- इन सबकी सदा सेवा करता रहता था॥2॥

 

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥

गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥

 

तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्‌! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं॥1॥

 

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥

राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥

 

राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है॥3॥

 

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥

गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥

एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥

 

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥

अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥

 

गुरु वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते॥4॥

 

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥

मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥

गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥

 

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥

 

ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥

परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥

 

(अन्तर्यामी) श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुराकर बोले॥2॥

 

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।

गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥

 

फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥225॥

 

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥

बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥

 

वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन किया॥3॥

 

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।

गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥

 

रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए॥226॥

 

 

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Friday, 24/11/2023

 

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Saturday, 25/11/2023

घोर का अर्थ भयंकर होता हैं, और अघोर का अर्थ जो भयंकर नहीं हैं ऐसा होता हैं।

गुरुवर्य  कौन हैं?

नास्ति तत्वम्‍ गुरु परम

 

 

 

 

 

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।

तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥

 

हे प्रभु! वेदों को प्रकाशित कर तू सभी प्राणियों पर कृपा की वर्षा करता है, अपने शान्त और आनन्दमय रूप द्वारा हम सब को प्रसन्न रखने का अनुग्रह करता है जिससे भय और पाप दोनों नष्ट हो जाते हैं।

गुरुवर्यम चिंता मुक्त रहता हैं, दीनता छोडकर भिक्षा मांगता हैं और भिक्षा भावसे भोजन करता हैं।

जगदगुरु कभी भी जीद न करे।

गुरुवर्यम बहती नदीका जल पिता हैं।

गुरुवरम निरंकुश होता हैं, निजतंत्र में रत रहता हैं, परम स्वतंत्र्य जीवन जीता हैं।

गुरुवर्यम अभय होता हैं, स्मशान मे क्षेत्रमें बिना भय – अजंपा निंद्रा लेता हैं।

गुरुवर्यम ऐसा वस्त्र पहनता हैं जिसे धोना, सुकाना नहीं पडता हैं आ तो दिगंबर रहता हैं।

गुरुवर्यम की शैया पृथ्वी पर रहती हैं।

बावा लोक, परलोक नहीं चाहता हैं। उसका घुमना वेदांत – उपनिषद, शास्त्र में होता हैं।

उपनिषद वेदांत हैं।

उसकी क्रिडा निरंतर ब्रह्ममय होती हैं।

हनुमानजी गुरुवर्यम हैं जो अभय हैं, असंग हैं, और अखंड विश्वास हैं।

श्रद्धा और विस्वास से जो पेदा होता हैं वह भरोंसा हैं।

हनुमानजी वैराग्य के विग्रह हैं।

हनुमानजी का जीवन प्रेम पूर्ण हैं, हनुमानजी प्रेमी हैं।

मारो गुरुवर्य कोण?

જે આપણને દર્પણ બતાવી દે તે આપણો ગુરુવર્યમ છે, જે આપણને આપણી નિજતા બતાવી દે, સ્વદર્શન કરાવે તે આપણો ગુરુવર્યમ છે.

गुरुवर्यम दीपक हैं, गुरु ज्योति हैं, गुरु उजाला हैं।

अपना गुरु हि हमें रुप देता हैं।

गुरु दिशा हैं अपनी जो दशा हैं वह अपने गुरु के कारण हि हैं। गुरु तस्वीर हैं और तकदीर भी हैं, गुरुवर्यम द्वार हैं, गुरु हमारे दील की घडकन हैं।

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Sunday, 26/11/2023

मानस हि गुरुवरम हैं, गुरु श्रेष्ठ हैं।

गुरु की कृपा से हि गुरु को जाना जाता हैं।

मानस गुरुवर्य क्रान्ति करता हैं।

विकार ६ हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर।

मानस गुरुवर्य के आश्रय से काम राम में परिवर्तित होता हैं, काम राम की ओर गति करता हैं।

 

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

 

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

मानस गुरुवर्य के आश्रय से क्रोध बोध में परिवर्तित हो जायेगा।

मानस गुरुवर्य के आश्रय से लोभ का क्षोभ होगा।

मानस हमारा मानस – ह्मदय परिवर्तित कर देता हैं।

गुरु जनो की, वैडिलो की सेवा करनेका अवसर मिले तो उसे आभार मानो, बोज न मानो।

संकोच भी सुक्ष्म अहंकार हैं।

मानस गुरुवर्य के आश्रय से हमारे मद को परम पद के आश्रय तक पहुंचा देता हैं।

मानस गुरुवर्य के आश्रय हमारे मोह को नेह में परिवर्तित कर देता हैं।

 

गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।।

भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक।।68क।।

 

श्रीरघुनाथजीके सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा सन्देह जाता रहा। हे काकशिरोमणि ! आपके अनुग्रह से श्रीरामजीके चरणोंमें मेरा प्रेम हो गया।।68(क)।।

मत्सर का अर्थ ईर्षा, मूढ बना देना, निंदा करना होता हैं, मानस गुरुवर्य के आश्रय से हम यह मत्सर से बच जाते हैं।

मानस मन को साधु बना देता हैं, मन को शीतल बना देता हैं, मन को दिक्षित कर देता हैं।

 

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।

मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥15 क॥

 

शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥15 (क)॥

संत शीतल साधु होता हैं।

गुरुवर्य CREATIVE होता हैं और हमारी बुद्धि को सर्जनात्मक बनाता हैं।

गुरुवर्य वह हैं जिसका मन साधु मन हैं, उसका अहंकार शिव बन जाता हैं।

जिस साधु का चित निरंतर प्रसन्न रहे वह गुरुवर्य हैं।

चित को प्रसन्न रखनेके लिये ६ उपाय भगवान आदि शंकराचार्य ने बताये हैं।

1.     हितकारी और जीतनी जरुरियात हो उतना भोजन करना।

2.      नित्य एकान्त सेवी रहना।

3.      दूसरों के हित के लिये एकबार हि बोलना।

4.      विहार और निंद्रा सिमित मात्रा में करना।

5.      अपने नियम खुद बनाना और उसके नियंत्रण में रहना।

6.      समय मिलते हि भजन करना।