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Sunday, July 21, 2024

ગુરુ પૂર્ણિમા - 2024

 


આજે રવિવાર, અષાઢ સુદ ૧૫, વિક્રમ સંવત 2080, તારીખ 21 જુલાઈ, 2024 ના રોજ ગુરુ પૂર્ણિમા મહોત્સવ છે.


આજે મારા ગુરુ પ્રાતઃ સ્મરણીય પૂજ્ય બ્રહ્માનંદપુરીજી મહારાજના ચરણ કમળમાં મારા દંડવત પ્રણામ કરું છું.


જગદગુરુ આદિ શંકરાચાર્ય ભગવાન




શંકરમ્‌ શંકરાચાર્યમ્‌ કેશવમ્‌ બાદરાયણમ્‌



સૂત્રભાષ્યકૃતૌ વંદે ભગવન્તૌ પુનઃ પુનઃ




કૃતે વિશ્વગુરુર્બ્રહ્મા ત્રેતાયાં ઋષિસતમઃ

દ્વાપરે વ્યાસ એવ સ્યાત કલાવત્ર ભવામ્યહમ્‌



જગદ્‌ગુરુ તરીકે સતયુગમાં બ્રહ્મા, ત્રેતાયુગમાં મહષિ વશિષ્ટ, દ્વાપરયુગમાં મહર્ષિ વેદ વ્યાસ અને કળિયુગમાં શંકરાચાર્યની ગણના થશે એવું આદિ શંકરનું વિધાન છે.


ગુરુ પરંપરા


નારાયણમ પદ્મભુવં વસિષ્ઠં શક્તિં ચ તત્પુત્ર પરાશરં ચ 


 વ્યાસં શુકં ગૌડપદં મહાન્તં ગોવિન્દ યોગીન્દ્રમથાસ્ય શિષ્યં  ll


શ્રી શંકરાચાર્યમથાસ્ય પદ્મપાદં ચ હસ્તામલકં ચ શિષ્યં


તં તોટકં વાર્તિકકારમન્યાનસ્મદ્રરૂન્‌ સંતતમાનતોસ્મિ  ll


સદાશિવ સમારમ્ભાં શંકરાચાર્ય મધ્યમાં  l


અસ્મદાચાર્યં પર્યન્તાં વન્દે ગુરૂપરંપરામ્‌  ll



આદિ શંકરાચાર્ય સંન્યાસ ધર્મ અને ગુરુ પરંપરાના અગિયારમા અધિષ્ઠાતા છે.


સત્‌યુગમાં (૧) નારાયણ, (૨) બ્રહ્મા, (૩) રુદ્ર


ત્રેતાયુગમાં (૪) વશિષ્ટ (૫) શક્તિ (૬) પારાશર


દ્વાપરયુગમાં (૭) વેદ વ્યાસ (૮) શુકદેવ


કળિયુગમાં (૯) ગૌડપાદ (૧૦)   ગોવિંદપાદ (૧૧) શંકરાચાર્ય


આદિ શંકરના ચાર મુખ્ય શિષ્ય હતા, (૧) હસ્તામલકાચાર્ય જે પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ દ્વારકા સ્થિત શારદા મઠના પ્રથમ મઠાધિશ હતા, (૨) પદ્‌મપાદ જે પૂર્વ દિશામાં આવેલ જગન્નાથમાં ગોવર્ધન મઠના પ્રથમ મઠાધિશ હતા, (૩) તોટકાચાર્ય જે ઉત્તર દિશામાં બદ્રિકાશ્રમમાં જ્યોતિર્મઠના પ્રથમ મઠાધિશ હતા અને (૪) સુરેશ્વરાચાર્ય દક્ષિણ દિશામાં રામેશ્વરમાં શૃગેરી મઠના પ્રથમ મઠાધિશ હતા.


પશ્ચિમામ્નાય શારદામઠ, પૂર્વામ્નાય ગોવર્ધનમઠ,

ઉત્તરામ્નાય જ્યોતિર્મઠ, દક્ષિણામ્નાય શૄગેરીમઠ.




ગુરુ ગોવિન્દ દોનોં ખડ઼ે, કાકે લાગૂં પાઁય ।

બલિહારી ગુરુ આપનો, ગોવિંદ દિયો બતાય ।।


બલિહારી ગુરુ આપનો, ઘડ઼ી-ઘડ઼ી સૌ સૌ બાર ।

માનુષ સે દેવત કિયા કરત ન લાગી બાર ।।


કબીરા તે નર અન્ધ હૈ, ગુરુ કો કહતે ઔર ।

હરિ રૂઠે ગુરુ ઠૌર હૈ, ગુરુ રુઠૈ નહીં ઠૌર ।।

  


गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर: ।

गुरुस्साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥


तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥


वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वती के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिव के मन को बहुत अच्छे लगे।


बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥

चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥


(पार्वती ने कहा -) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करनेवाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं।


 श्रीरुद्राष्टकं तुलसीदासकृतम् 


नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥


निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥


तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटिप्रभा श्रीशरीरम् ।

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥


चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥


प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशमखण्डमजं भानुकोटिप्रकाशम् ।

त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥


कलातीतकल्याणकल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

चिदानन्दसन्दोहमोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥


न यावद् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥


न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।

जराजन्मदुःखौघतातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥


रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥



Read More about ગુરુ ઈશાનના ઈશ છે - મોરારી બાપુ , published in the Divya Bhaskar daily dated July 21, 2024.


Read More about  ગરવા ગુરુનું ગૌરવ ગાન - હરદ્વાર ગોસ્વામી published in the Divya Bhaskar daily dated July 21, 2024.


Read the article published in the Divya Bhaskar daily by Manasi Pandya.


LISTEN AND ENJOY SANDESH BY PUJYA MORARI BAPU ON THE OCCASION OF GURU PURNIMA 2024.

Sunday, January 14, 2024

માનસ વનવાસ - 930

 

રામ કથા - 930

માનસ વનવાસ

જેતવન,

શનિવાર, તારીખ 13/01/2024 થી રવિવાર, તારીખ 21/01/2024

બીજ પંક્તિઓ

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी। 

चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

जौं  पितु  मातु  कहेउ  बन  जाना। 

तौ  कानन  सत  अवध  समाना॥1॥

 

 

1

Saturday, 13/01/2024

 

अयोध्याकांड में महारानी कैकेयी कहती हैं कि ………..

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥ 

योध्याकांडमें महारानी कौशल्या कहती हैं कि ………..

 

जौं  केवल  पितु  आयसु  ताता।  तौ  जनि  जाहु  जानि  बड़ि  माता॥

जौं  पितु  मातु  कहेउ  बन  जाना।  तौ  कानन  सत  अवध  समाना॥1॥

 

हे  तात!  यदि  केवल  पिताजी  की  ही  आज्ञा,  हो  तो  माता  को  (पिता  से)  बड़ी  जानकर  वन  को  मत  जाओ,  किन्तु  यदि  पिता-माता  दोनों  ने  वन  जाने  को  कहा  हो,  तो  वन  तुम्हारे  लिए  सैकड़ों  अयोध्या  के  समान  है॥1॥ 

बिना आश्रय बनायागया आश्रम श्रम से सिवा ओर कुछ नहीं हैं।

साधु वर्ण से पर हैं।

2

Sunday, 14/01/2024

 

नामु  मंथरा  मंदमति  चेरी  कैकइ  केरि।

अजस  पेटारी  ताहि  करि  गई  गिरा  मति  फेरि॥12॥

 

मन्थरा  नाम  की  कैकेई  की  एक  मंदबुद्धि  दासी  थी,  उसे  अपयश  की  पिटारी  बनाकर  सरस्वती  उसकी  बुद्धि  को  फेरकर  चली  गईं॥12॥ 

 

केहि  हेतु  रानि  रिसानि  परसत  पानि  पतिहि  नेवारई।

मानहुँ  सरोष  भुअंग  भामिनि  बिषम  भाँति  निहारई॥

दोउ  बासना  रसना  दसन  बर  मरम  ठाहरु  देखई।

तुलसी  नृपति  भवतब्यता  बस  काम  कौतुक  लेखई॥

 

'हे  रानी!  किसलिए  रूठी  हो?'  यह  कहकर  राजा  उसे  हाथ  से  स्पर्श  करते  हैं,  तो  वह  उनके  हाथ  को  (झटककर)  हटा  देती  है  और  ऐसे  देखती  है  मानो  क्रोध  में  भरी  हुई  नागिन  क्रूर  दृष्टि  से  देख  रही  हो।  दोनों  (वरदानों  की)  वासनाएँ  उस  नागिन  की  दो  जीभें  हैं  और  दोनों  वरदान  दाँत  हैं,  वह  काटने  के  लिए  मर्मस्थान  देख  रही  है।  तुलसीदासजी  कहते  हैं  कि  राजा  दशरथ  होनहार  के  वश  में  होकर  इसे  (इस  प्रकार  हाथ  झटकने  और  नागिन  की  भाँति  देखने  को)  कामदेव  की  क्रीड़ा  ही  समझ  रहे  हैं। 

सुनना और श्रवण करना अलग अलग हैं, श्रवण क्रिया और उपकरण हैं जब कि सुनना केवल क्रिया हैं।

भवनमें रहकर अपनी वृत्तिमें रुक जाना भवन में वनवास हैं। वनवास एकांत हैं।

वनमाली माला हैं, बेरखा हैं, गुरु की स्मृति हैं।

१० वस्तु से बुद्धत्व प्राप्त होता हैं।

बुद्ध कोई भी हो शकता हैं।

पारमिता का अर्थ संपूर्ण पूर्णता हैं, उस में कुछ कमी नहीं हैं, परिपूर्णता हैं।

 

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥

सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥

 

यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥

शरणागत हो कर श्रवण करो।

श्रवण के पांच सूत्र हैं।

1.       प्रसन्न होकर सुनना।

2.      शांत रहकर सुनना

3.      सहज भाव से सुनना, अपनी बगलवाले क्या कर रहे हैं उसे अन्देखा करकर सुननना चाहिये।

4.      एक इत से शर्वण करो, चित का विरोध न करो और निरोध भी न करो।

5.      किसी की शरण में रहकर श्रवण करो।

श्रवण भजन हैं भक्ति हैं।

 

सुनहु  प्रानप्रिय  भावत  जी  का।  देहु  एक  बर  भरतहि  टीका॥

मागउँ  दूसर  बर  कर  जोरी।  पुरवहु  नाथ  मनोरथ  मोरी॥1॥

 

(वह  बोली-)  हे  प्राण  प्यारे!  सुनिए,  मेरे  मन  को  भाने  वाला  एक  वर  तो  दीजिए,  भरत  को  राजतिलक  और  हे  नाथ!  दूसरा  वर  भी  मैं  हाथ  जोड़कर  माँगती  हूँ,  मेरा  मनोरथ  पूरा  कीजिए-॥1॥ 

 

तापस  बेष  बिसेषि  उदासी।  चौदह  बरिस  रामु  बनबासी॥

सुनि  मृदु  बचन  भूप  हियँ  सोकू।  ससि  कर  छुअत  बिकल  जिमि  कोकू॥2॥

 

तपस्वियों  के  वेष  में  विशेष  उदासीन  भाव  से  (राज्य  और  कुटुम्ब  आदि  की  ओर  से  भलीभाँति  उदासीन  होकर  विरक्त  मुनियों  की  भाँति)  राम  चौदह  वर्ष  तक  वन  में  निवास  करें।  कैकेयी  के  कोमल  (विनययुक्त)  वचन  सुनकर  राजा  के  हृदय  में  ऐसा  शोक  हुआ  जैसे  चन्द्रमा  की  किरणों  के  स्पर्श  से  चकवा  विकल  हो  जाता  है॥2॥ 

 

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Monday, 15/01/2024

भगवान बुद्ध के ६ सूत्र हैं।

1.       स्वदर्शन करना

2.      सम दर्शन करना

3.      छाया दर्शन – छाया दर्शन भ्रांति को नष्ट करता हैं, छाया भ्रमित करती हैं।

4.      सिद्ध दर्शन

5.      स्वप्न दर्शन

6.      शुद्ध दर्शन

मन का संग हि कुसंग हैं, अगर वह मन दुष्ट मन हैं तो।

बिना स्वप्न की निंद्रा समाधि हैं ……. विनोबा भावे

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Tuesday, 16/01/2024

परम प्रेम, परम विवेक, परम सत्य, परम वैराग्य और परम साधु पंचक हैं।

करुणा और मैत्री की छाया में प्रेम सुखदायी हैं।

तापस बेष की व्याख्या बताते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि ……….

 

तेहि  अवसर  एक  तापसु  आवा।  तेजपुंज  लघुबयस  सुहावा॥

कबि  अलखित  गति  बेषु  बिरागी।  मन  क्रम  बचन  राम  अनुरागी॥4॥

 

उसी  अवसर  पर  वहाँ  एक  तपस्वी  आया,  जो  तेज  का  पुंज,  छोटी  अवस्था  का  और  सुंदर  था।  उसकी  गति  कवि  नहीं  जानते  (अथवा  वह  कवि  था  जो  अपना  परिचय  नहीं  देना  चाहता)।  वह  वैरागी  के  वेष  में  था  और  मन,  वचन  तथा  कर्म  से  श्री  रामचन्द्रजी  का  प्रेमी  था॥4॥

वैराग्य की व्याख्या करते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि ……..

 

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥

 

ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान्‌ कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥4॥

 

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥

तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥

 

मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-॥3॥

 

सजल  नयन  तन  पुलकि  निज  इष्टदेउ  पहिचानि।

परेउ  दंड  जिमि  धरनितल  दसा  न  जाइ  बखानि॥110॥

 

अपने  इष्टदेव  को  पहचानकर  उसके  नेत्रों  में  जल  भर  आया  और  शरीर  पुलकित  हो  गया।  वह  दण्ड  की  भाँति  पृथ्वी  पर  गिर  पड़ा,  उसकी  (प्रेम  विह्वल)  दशा  का  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता॥110॥

 

राम  सप्रेम  पुलकि  उर  लावा।  परम  रंक  जनु  पारसु  पावा॥

मनहुँ  प्रेमु  परमारथु  दोऊ।  मिलत  धरें  तन  कह  सबु  कोऊ॥1॥

 

श्री  रामजी  ने  प्रेमपूर्वक  पुलकित  होकर  उसको  हृदय  से  लगा  लिया।  (उसे  इतना  आनंद  हुआ)  मानो  कोई  महादरिद्री  मनुष्य  पारस  पा  गया  हो।  सब  कोई  (देखने  वाले)  कहने  लगे  कि  मानो  प्रेम  और  परमार्थ  (परम  तत्व)  दोनों  शरीर  धारण  करके  मिल  रहे  हैं॥1॥

प्रेम तपस्वी हैं, प्रेम प्रकाशमय हैं, प्रेम बुढा नहीं होता हैं, प्रेम स्सुंदर हैं, अकथनीय हैं।

प्रेम परम वैराग्य हैं, परम संन्यासी हैं।

मानस में मध्य में प्रेम हैं और तुलसी लिखते हैं कि ….

 

सिय  राम  प्रेम पियूष  पूरन  होत  जनमु  न  भरत  को।

मुनि  मन  अगम  जम  नियम  सम  दम  बिषम  ब्रत  आचरत  को॥

दुख  दाह  दारिद  दंभ  दूषन  सुजस  मिस  अपहरत  को।

कलिकाल  तुलसी  से  सठन्हि  हठि  राम  सनमुख  करत  को॥

 

श्री  सीतारामजी  के  प्रेमरूपी  अमृत  से  परिपूर्ण  भरतजी  का  जन्म  यदि  न  होता,  तो  मुनियों  के  मन  को  भी  अगम  यम,  नियम,  शम,  दम  आदि  कठिन  व्रतों  का  आचरण  कौन  करता?  दुःख,  संताप,  दरिद्रता,  दम्भ  आदि  दोषों  को  अपने  सुयश  के  बहाने  कौन  हरण  करता?  तथा  कलिकाल  में  तुलसीदास  जैसे  शठों  को  हठपूर्वक  कौन  श्री  रामजी  के  सम्मुख  करता?

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Wednesday, 17/01/2024

१४ केन्द्र ऐसे हैं जिसका पालन करने से कोई भी व्यक्ति, कहीं भी, किसी भी समय वनवासी बन शकता हैं।

जीवन एक वन हैं जिस में हम निरंतर वनवासी बन शकते हैं।

निरंतर वर्तमान में जीना हि जीवन हैं।

बुद्ध पुरुष के पास बैठना एक बडा खजाना हैं।

१४    केन्द्र

1        वृंदावन जो प्रेम भूमि हैं, जहां किसी के प्रति नफरत, द्वैष पेदा नहीं होता हैं। अगर ऐसा हम जीते हैं तो हम वृंदावनवासी वनवासी हैं।

2       कामदवन – चित्रकूट का वन कामदवन हैं, यह वन हमारी कामना पुरी करनेवाला वन हैं, कामद का अर्थ कामना पुरी करनेवाला होता हैं। कामदवन में हमारी कामना सीताराम की चरणरज प्राप्ति की होनी चाहिये।

3       आनंदवन जो काशी में हैं, काशी रहनेवाला वनवासी हैं।

4       उपवन – जंगल के पास रहना

 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥

 

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

5       नैमिषवन जो साधना की सफलता का वन हैं, साधन सिद्धि का वन हैं।

6       मधुवन जहां अत्यंत मधुरता की प्राप्ति हो वह मधुवन हैं, सीताराम हि मधुर हैं।

7       अशोकवन जहां बैठकर शोक छूट जाय और श्लोक की धून लग जाय वह अशिकवन हैं।

8       दंडकवन जहां केवल काष्ट का वन हैं। ऐसी श्रापित भूमि भजन से, स्मरण की धारा से मीट जाती हैं।

9       तपोवन जहां तप करने की इच्छा पेदा हो वह तपोवन हैं।

10     त्रिभुवन जहां निरंतर गुरु का स्मरण होता हैं।

11      नंदनवन जहां आनंद हि बरसता रहे।

12     विंद्याचलवन ऐसे वन में प्रलोभन और कुसंग का खतरा रहता हैं, अगर हम कोई प्रलोभन वृत्ति न रखे और कुसंगी वृत्ति न रखे तो वह विंद्याचलवन का वनवास हैं।

13     मानसवन – मानस भी एक वन हैं।

14     बद्रीवन – यह तपस्या की भूमि हैं।

માનસ લોકભારતી - 929

 

રામ કથા - 929

માનસ લોકભારતી

સણોસરા, ગુજરાત

શનિવાર, તારીખ 30/12/2023 થી રવિવાર, તારીખ 07/01/2024

મુખ્ય ચોપાઈ

कथा जो सकल लोक हितकारी।

सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।

सकल लोक जग पावनि गंगा॥

सकल सुमंगल सजें आरती।

गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥

बिमल  बिबेक  धरम  नय  साली। 

भरत  भारती  मंजु  मराली॥4॥

 

1

Saturday, 30/12/2023

જમીન અને ભૂમિ – ધરતી માં ફેર છે.

 

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥

कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥

 

स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करने वाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं॥3॥

 

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

 

जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

 

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥

सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥

 

सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुंदर मंगलद्रव्य एवं आरती सजाए हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत से वेष धारण किए गा रही हों॥3॥

 

 

हियँ  सुमिरी  सारदा  सुहाई।  मानस  तें  मुख  पंकज  आई॥

बिमल  बिबेक  धरम  नय  साली।  भरत  भारती  मंजु  मराली॥4॥

 

फिर  उन्होंने  हृदय  में  सुहावनी  सरस्वती  का  स्मरण  किया।  वे  मानस  से  (उनके  मन  रूपी  मानसरोवर  से)  उनके  मुखारविंद  पर    विराजीं।  निर्मल  विवेक,  धर्म  और  नीति  से  युक्त  भरतजी  की  वाणी  सुंदर  हंसिनी  (के  समान  गुण-दोष  का  विवेचन  करने  वाली)  है॥4॥

 

 

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥

भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥

 

जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥

 

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

 

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा॥6॥

ગુરુ  પાંચ પ્રકારની શિક્ષા – વિદ્યા, વિનય, કર્મ કૌશલ્ય, શીલ અને ગુણ – અભય આપે છે.

 

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥

बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥

 

चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं॥3॥

ગુરુ પાંચ પ્રકારની દિક્ષા – શબ્દ દિક્ષા (શબ્દ એટલે ભ્રમ ન ફેલાવે તેવો બ્રહ્મ), સ્પર્શ દિક્ષા, રુપ દિક્ષા (જે આપણા સ્વરુપનું ભાન કરાવે, રસ દિક્ષા જે રસ પેદા થાય તેવી દિક્ષાઅ – સંગીતના રસની દિક્ષા અને ગંધ દિક્ષા આપે છે.

ગુરુ પાંચ ભિક્ષા આપે છે જેને ગુરુદત્ત ભિક્ષા કહેવાય છે. ગુરુ અશ્રુ ભિક્ષા – આંખમાં સંવેદનાના અશ્રુની ભિક્ષા, અભેદ ભિક્ષા, અનુભવ ભિક્ષા, અમન – શાંતિની ભિક્ષા અને અમલ ભિક્ષા આપે છે.

 

 

जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥

कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥

 यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥1॥

 

सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥

तनु पोषक निंदक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥

 

नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान्‌ विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान्‌ पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥

 

जाके प्रिय न राम-बदैही।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥

तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥

नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य कहौं कहाँ लौं।

अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥

तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।

जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥