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Sunday, January 14, 2024

માનસ લોકભારતી - 929

 

રામ કથા - 929

માનસ લોકભારતી

સણોસરા, ગુજરાત

શનિવાર, તારીખ 30/12/2023 થી રવિવાર, તારીખ 07/01/2024

મુખ્ય ચોપાઈ

कथा जो सकल लोक हितकारी।

सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।

सकल लोक जग पावनि गंगा॥

सकल सुमंगल सजें आरती।

गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥

बिमल  बिबेक  धरम  नय  साली। 

भरत  भारती  मंजु  मराली॥4॥

 

1

Saturday, 30/12/2023

જમીન અને ભૂમિ – ધરતી માં ફેર છે.

 

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥

कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥

 

स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करने वाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं॥3॥

 

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

 

जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

 

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥

सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥

 

सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुंदर मंगलद्रव्य एवं आरती सजाए हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत से वेष धारण किए गा रही हों॥3॥

 

 

हियँ  सुमिरी  सारदा  सुहाई।  मानस  तें  मुख  पंकज  आई॥

बिमल  बिबेक  धरम  नय  साली।  भरत  भारती  मंजु  मराली॥4॥

 

फिर  उन्होंने  हृदय  में  सुहावनी  सरस्वती  का  स्मरण  किया।  वे  मानस  से  (उनके  मन  रूपी  मानसरोवर  से)  उनके  मुखारविंद  पर    विराजीं।  निर्मल  विवेक,  धर्म  और  नीति  से  युक्त  भरतजी  की  वाणी  सुंदर  हंसिनी  (के  समान  गुण-दोष  का  विवेचन  करने  वाली)  है॥4॥

 

 

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥

भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥

 

जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥

 

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥

तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

 

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम रखा॥6॥

ગુરુ  પાંચ પ્રકારની શિક્ષા – વિદ્યા, વિનય, કર્મ કૌશલ્ય, શીલ અને ગુણ – અભય આપે છે.

 

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥

बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥

 

चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं॥3॥

ગુરુ પાંચ પ્રકારની દિક્ષા – શબ્દ દિક્ષા (શબ્દ એટલે ભ્રમ ન ફેલાવે તેવો બ્રહ્મ), સ્પર્શ દિક્ષા, રુપ દિક્ષા (જે આપણા સ્વરુપનું ભાન કરાવે, રસ દિક્ષા જે રસ પેદા થાય તેવી દિક્ષાઅ – સંગીતના રસની દિક્ષા અને ગંધ દિક્ષા આપે છે.

ગુરુ પાંચ ભિક્ષા આપે છે જેને ગુરુદત્ત ભિક્ષા કહેવાય છે. ગુરુ અશ્રુ ભિક્ષા – આંખમાં સંવેદનાના અશ્રુની ભિક્ષા, અભેદ ભિક્ષા, અનુભવ ભિક્ષા, અમન – શાંતિની ભિક્ષા અને અમલ ભિક્ષા આપે છે.

 

 

जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥

कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥

 यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥1॥

 

सदा रोगबस संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥

तनु पोषक निंदक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥

 

नित्य का रोगी, निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान्‌ विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निंदा करने वाला और पाप की खान (महान्‌ पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥

 

जाके प्रिय न राम-बदैही।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥

तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥

नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य कहौं कहाँ लौं।

अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥

तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।

जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥

 

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