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Sunday, August 24, 2025

માનસ વૈરાગ્ય – 962

 

રામ કથા - 962

માનસ વૈરાગ્ય – 962

Katowice, Poland

શનિવાર, તારીખ 23/08/2025 થી રવિવાર, તારીખ 31/08/2025

કેંદ્રીય પંક્તિઓ

सहज बिरागरूप मनु मोरा।

थकित होत जिमि चंद चकोरा॥

कहिअ तात सो परम बिरागी।

तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥

 

Day 1

Saturday, 23/08/2025

 

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥

ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥

 

मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चंद्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव कीजिए।

 

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4

 

ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान कहना चाहिए जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो।॥4

શબ્દ બ્રહ્મ છે, અશબ્દ પરમ બ્રહ્મ છે.

વૈરાગ્ય એટલે વિલાસથી ભાગવું એવો નથી પણ ભજન કરતાં કરતામ એટલી ઈંચાઈ પ્રાપ્ત કરવી કે જેથી આપણામાં કોઈ છિદ્ર જ ન રહે કે જ્યાંથી વિલાસ આપણામાં પ્રવેશી શકે.

શિવ વિશ્વાસનું ઘનીભૂત રુપ છે.

રામ સત્યનું ઘનીભૂત રુપ છે.

કૃષ્ણ પ્રેમનું ઘનીભૂત રુપ છે.

હનુમાનજી વૈરાગ્યનું ઘનીભૂત રુપ છે.

 

तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥

धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥

 

तदंतर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा - हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए। रघुकुल के स्वामी राम धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ प्रसन्न होकर चले।

જનક રાજા વિલાસી નગરી જનકપુરમાં રહેતા હોવા છતાં તેમનું મન વિરાગરુપ છે એવું કહે છે.

સમુદ્ર એ મોટામાં મોટો ખાડો છે. નદી એ સમુદ્રને મળવા નથી વહેતી પણ તે રસ્તામાં આવતા નાના નાના ખાડા ભરતી ભરતી સૌથી મોટા ખાડાને ભરવા જાય છે.

જનકપુરનો વિલાસ વર્ણવતાં તુલસીદાસ કહે છે કે ……….

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥

बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥

श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं॥3॥

गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥

बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥

मकरंद रस से मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे (बहुत से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला शीतल, मंद, सुगंध पवन बह रहा है॥4॥

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।

फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212।

पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुंदर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥212॥

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥

चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥

नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है॥1॥

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।

चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥2॥

कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं। सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं॥2॥

मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥

पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥3॥

सबके घर मंगलमय हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अंकित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥

होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥

जहाँ जनकजी का अत्यन्त अनुपम (सुंदर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!)। कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है॥4॥

धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।

सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥

उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे हैं। सीताजी के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है॥213॥

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥

बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख संकुल सब काला॥1॥

राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं, जो सब समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं॥1॥

सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥

पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥

बहुत से शूरवीर, मंत्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं॥2॥

देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।

कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥

(वहीं) आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए॥3॥

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि बृंद समेता॥

बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥

कृपा के धाम श्री रामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन्‌!' कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गए। मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं,॥4॥

संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।

चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥

तब उन्होंने पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानंदजी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने चले॥214॥

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥

बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥

राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए॥1॥

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥

तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥2॥

बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे॥2॥

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥

उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥

सुकुमार किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं। जब रघुनाथजी आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए। विश्वामित्रजी ने उनको अपने पास बैठा लिया॥3॥

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥

मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥

दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रों में जल भर आया (आनंद और प्रेम के आँसू उमड़ पड़े) और शरीर रोमांचित हो उठे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए॥4॥

 

प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।

बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥

मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्ग द्‍ (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा- ॥215॥

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥

हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?॥1॥

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥

ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥

मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए॥2॥

બાલકાંડ એ તપનો કાંડ છે.

અયોધ્યાકાંડ ત્યાગનો કાંડ છે.

અરણ્યકાંડ પાતિવ્રત ધર્મનો કાંડ છે.

કિષ્કિંધાકાંડ તૃષા પ્રધાન કાંડ છે.

સુંદરકાંડ સમુદ્ર તરણ પ્રધાનનો કાંડ છે.

લંકાકાંડ તારણનો કાંડ છે.

ઉત્તરકાંડ તૃપ્તિનો કાંડ છે.

 

Day 2

Sunday, 24/08/2025

વૈરાગિ અનુરાગી બની શકે?

અયોધ્યા વૈરાગી ભૂમિ છે.

કાશી જ્ઞાન ભૂમિ છે.

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥

जहाँ श्री शिव-पार्वती बसते हैं, उस काशी को मुक्ति की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और पापों का नाश करने वाली जानकर उसका सेवन क्यों न किया जाए?

વૃંદાવન પ્રેમ ભૂમિ છે.

દ્રઢ વૈરાગી સર્વ શ્રેષ્ઠ અનુરાગી છે.

નરસિંહ મહેતા પણ કહે છે કે “દ્રઢ વૈરાગ્ય જેના મનમાં રે ….”

રાગી મોહિત થાય,  પણ અનુરાગને ન જાણે.

ગંગાસતી કહે છે કે “કુપાઇતની આગળ પાનબાઈ …..”

ચોરી પાપ છે તેમજ સંગ્રહ પણ પાપ છે.

વેરડો જેટલો ઊલેચો તેટલું વધારે પાણી તેમાં ભરાય.

નિરંતર ઈર્ષા, દ્વેષ અહંકારને શું કહેવાનું?

હારીએ ન હિંમત વિચારીયે ન હરિનામ

બુદ્ધ પુરુષ આપણા મનના નિર્માતા છે તેમજ જ્ઞાતા પણ છે.

 

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2॥

हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥

 

तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥

कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥4॥

उसी अवसर पर वहाँ एक तपस्वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अवस्था का और सुंदर था। उसकी गति कवि नहीं जानते (अथवा वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता)। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी था॥4॥

વૈરાગી સમાન કોઈ અનુરાગી નથી.

જનક રાજા તપસ્વી વૈરાગી છે તેથી અનુરાગી છે.

 

सजल  नयन  तन  पुलकि  निज  इष्टदेउ  पहिचानि।

परेउ  दंड  जिमि  धरनितल  दसा    जाइ  बखानि॥110॥

अपने  इष्टदेव  को  पहचानकर  उसके  नेत्रों  में  जल  भर  आया  और  शरीर  पुलकित  हो  गया।  वह  दण्ड  की  भाँति  पृथ्वी  पर  गिर  पड़ा,  उसकी  (प्रेम  विह्वल)  दशा  का  वर्णन  नहीं  किया  जा  सकता॥110॥

राम  सप्रेम  पुलकि  उर  लावा।  परम  रंक  जनु  पारसु  पावा॥

मनहुँ  प्रेमु  परमारथु  दोऊ।  मिलत  धरें  तन  कह  सबु  कोऊ॥1॥

श्री  रामजी  ने  प्रेमपूर्वक  पुलकित  होकर  उसको  हृदय  से  लगा  लिया।  (उसे  इतना  आनंद  हुआ)  मानो  कोई  महादरिद्री  मनुष्य  पारस  पा  गया  हो।  सब  कोई  (देखने  वाले)  कहने  लगे  कि  मानो  प्रेम  और  परमार्थ  (परम  तत्व)  दोनों  शरीर  धारण  करके  मिल  रहे  हैं॥1॥

बहुरि  लखन  पायन्ह  सोइ  लागा।  लीन्ह  उठाइ  उमगि  अनुरागा॥

पुनि  सिय  चरन  धूरि  धरि  सीसा।  जननि  जानि  सिसु  दीन्हि  असीसा॥2॥

फिर  वह  लक्ष्मणजी  के  चरणों  लगा।  उन्होंने  प्रेम  से  उमंगकर  उसको  उठा  लिया।  फिर  उसने  सीताजी  की  चरण  धूलि  को  अपने  सिर  पर  धारण  किया।  माता  सीताजी  ने  भी  उसको  अपना  बच्चा  जानकर  आशीर्वाद  दिया॥2॥

कीन्ह  निषाद  दंडवत  तेही।  मिलेउ  मुदित  लखि  राम  सनेही॥

पिअत  नयन  पुट  रूपु  पियुषा।  मुदित  सुअसनु  पाइ  जिमि  भूखा॥3॥

फिर  निषादराज  ने  उसको  दण्डवत  की।  श्री  रामचन्द्रजी  का  प्रेमी  जानकर  वह  उस  (निषाद)  से  आनंदित  होकर  मिला।  वह  तपस्वी  अपने  नेत्र  रूपी  दोनों  से  श्री  रामजी  की  सौंदर्य  सुधा  का  पान  करने  लगा  और  ऐसा  आनंदित  हुआ  जैसे  कोई  भूखा  आदमी  सुंदर  भोजन  पाकर  आनंदित  होता  है॥3॥

વૈરાગી પરમ રસિક હોય છે.

વૈરાગ્ય એ પરમ જાગરણ છે.

નામ અને સ્મરણ વચ્ચે ૧૧ પડાવ છે.

નારદ સનત્કુમારોને મળે છે અને નીચે પ્રમાણે પ્રશ્ન કરે છે. જેમાં નામથી સ્મરણ વચ્ચેના ૧૧ પડાવ બતાવ્યા છે.

    નામથી આગળ વાણી છે.

    વાણી થી આગળ મન છે.

          મનથી આગળ ચિત છે.

          ચિતથી આગળ ધ્યાન છે.

          ધ્યાનથી આગળ વિજ્ઞાન છે.

          વિજ્ઞાનથી આગળ બળ છે.

          બળથી આગળ અન્ન છે.

          અન્નથી આગળ જલ છે.

          જલથી આગળ તેજ છે.

૧૦        તેજથી આગળ આકાશ છે.

૧૧         આકાશથી આગળ નામ સ્મરણ છે.

 

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥

जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥

 

इस जगत् रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥2॥

ભરત રામ ભગવાનના સ્વભાવ વિષે કહે છે કે ….

 

मैं  जानउँ  निज  नाथ  सुभाऊ।  अपराधिहु  पर  कोह    काऊ॥

मो  पर  कृपा  सनेहु  बिसेषी।  खेलत  खुनिस    कबहूँ  देखी॥3॥

अपने  स्वामी  का  स्वभाव  मैं  जानता  हूँ।  वे  अपराधी  पर  भी  कभी  क्रोध  नहीं  करते।  मुझ  पर  तो  उनकी  विशेष  कृपा  और  स्नेह  है।  मैंने  खेल  में  भी  कभी  उनकी  रीस  (अप्रसन्नता)  नहीं  देखी॥3॥

બુદ્ધ પુરુષ અપરાધી ઉપર પણ ક્રોધ ન કરે.

 

सिसुपन  तें  परिहरेउँ    संगू।  कबहुँ    कीन्ह  मोर  मन  भंगू॥

मैं  प्रभु  कृपा  रीति  जियँ  जोही।  हारेहूँ  खेल  जितावहिं  मोही॥4॥

बचपन  में  ही  मैंने  उनका  साथ  नहीं  छोड़ा  और  उन्होंने  भी  मेरे  मन  को  कभी  नहीं  तोड़ा  (मेरे  मन  के  प्रतिकूल  कोई  काम  नहीं  किया)।  मैंने  प्रभु  की  कृपा  की  रीति  को  हृदय  में  भलीभाँति  देखा  है  (अनुभव  किया  है)।  मेरे  हारने  पर  भी  खेल  में  प्रभु  मुझे  जिता  देते  रहे  हैं॥4॥

 

Day 3

Monday, 25/08/2025

આઠ જણાને કથા ન સંભળાવવી એવું ભગવાન શંકર પાર્વતીને કહે છે.

જ્યારે કથા શ્રવણમાં રસ જાગે ત્યારે સમજજો કે આપણા પાપ નષ્ટ થઈ રહ્યા છે.

 

रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दु:ख भागा॥

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

 

वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीता जी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥

વૈરાગ્ય અને બોધ આરોહણ કરવા માટેની બે પાંખો છે.

વૈરાગ્ય હાર્દિક હોય અને બોધ બૌધિક હોય.

વૈરાગ્યના પ્રકાર

વિષાદ વૈરાગ્ય

પ્રસાદ વૈરાગ્ય

સ્મશાન વૈરાગ્ય

હનુમાન વૈરાગ્ય

ભગવાન શંકર ૯ જણાને ધન્યવાદ આપે છે.

 

धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी।।

धन्य सो भूपु नीति जो करइ। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।3।।

 

वह देश धन्य है जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत-धर्मका पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता।।3।।

 

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।

धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।

 

वह धन धन्य है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है।) वही बुद्धि धन्य और परिपक्य है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन को तीसरी गति होती है।]

ધનની ત્રણ ગતિ – દાન, ભોગ અને નાશ છે.

 

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।

श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।127।।

 

हे उमा ! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।

 

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

मोर मुकुट पीतांबर धारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी ॥

जनम जनम की लगी लगन है,

साक्षी तारो भरा गगन है,

गिन गिन स्वाश आस कहती है,

आएँगे श्री कृष्ण मुरारी,

॥ बिनती सुनिए नाथ हमारी...॥

 

सतत प्रतीक्षा अपलक लोचन,

हे भव बाधा बिपति बिमोचन,

स्वागत का अधिकार दीजिए,

शरणागत है नयन पुजारी,

॥ बिनती सुनिए नाथ हमारी...॥

और कहूं क्या अंतर्यामी,

तन मन धन प्राणो के स्वामी,

करुणाकर आकर के कहिए,

स्वीकारी विनती स्वीकारी,

॥ बिनती सुनिए नाथ हमारी...॥

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

हृदयष्वर हरी हृदय बिहारी,

मोर मुकुट पीतांबर धारी,

बिनती सुनिए नाथ हमारी ॥

આકાશ – SKY ૭ છે અવકાશ – SPACE  અનંત છે.

 

मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी।।

तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।1।।

 

मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रक्खा था। जब तुम्हारे मनमें प्रेमकी अधिकता देखी तब मैंने श्रीरघुनाथजीकी यह कथा तुमको सुनायी।।1।।

 

यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।।

कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।2।।

 

यह कथा उनसे न कहनी चाहिये जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभावके हों और श्रीहरिकी लीलाको मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामीको, जो चराचरके स्वामी श्रीरामजीको नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिये।।2।।

કથા શ્રવણ માટે કથા સ્થાનમાં  જગ્યા મળે એ પૂણ્ય પ્રતાપનું પરિણામ છે.

ટીકા કરવી એ ખરાબ નથી પણ નિંદા કરવી એ ખરાબ છે.

પ્રભુ તારા બનાવેલા આજે તને બનાવે છે.

જેના ઉપર કથા દાતાની કૃપા ન થાય તે કથા શ્રવણ ન કરી શકે.

 

द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।

राम कथा के तेइ अधिकारी जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।

 

ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वे देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा कभी नहीं सुनानी चाहिये। श्रीरामजीकी कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त प्रिय है।।3।।

 

गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई।।

ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।4।।

 

जिनकी गुरुके चरणों में प्रीति हैं, जो नीति परायण और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी है। और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देनेवाली है, जिनको श्रीरघुनाथजी प्राणके समान प्यारे हैं।।4।।

જે તપસ્વી જ હોય તેને કથા ન સંભળાવવી.

કથા શ્રવણ એ પણ તપ છે.

જે ભક્ત ન હોય તેને કથા ન સંભળાવવી.

જેને ઈશ્વર, વેદ, શાસ્ત્ર, મહાત્મા, ગુરુ વગેરેમાં નિષ્ઠા ન હોય તે અભક્ત છે.

ઈર્ષાળુને કથા ન સંભળાવવી.

 

Day 4

Tuesday, 26/08/2025

વૈરાગ્યના પ્રકાર …….

 

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥

भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥1॥

हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है॥1॥

 

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥

तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥2॥

अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो॥2॥

પરશુરામ પણ વિવેક ચૂકીને લક્ષ્મણને બાલકુ એવું સંબોધન કરે છે તેમજ વિશ્વામિત્રને પણ તુમ કહે છે.

 

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥3॥

लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है॥3॥

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥4॥

इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते॥4॥

વૈરાગ્ય એ પણ એક રસ છે.

જે વૈરાગી હોય તેની આંખ ભીની થાય જ.

વૈરાગ્ય માટે કોઈ ખાસ વેશ ધારણ કરવો જરુરી નથી.

સાચા વૈરાગીના વેશ સાથે ૩ વસ્તુ જોડાયેલી છે.

                      વૈરાગીનો વેશ એ મૈત્રીનું કપડું છે.

                      વૈરાગીના વેશમાં એક કપડું કરુણાનું હોય.

                      વૈરાગી સદા ઉપકારી રહી અંતિમ શ્વાસ સુધી કંઇક આપતો રહે.

આવો વૈરાગી જ્યાં પણ જાય તે સમાધિ જ છે.

વૈરાગીનું દેહાભિમાન શુન્ય હોય. VACCANT MIND હોય.

નિંદા એ રોગ છે.

કોઈની નિંદા ન કરવી એ પરમ આરોગ્ય છે.

વૈરાગીની વૃત્તિ જ તેનું વસ્ત્ર છે.

કોઈ પણ પ્રકારનો સંકેત કર્યા વગર પોતાના ભિક્ષા પાત્રમાં જે આવે તેને ૫૬ ભોગ ગણી આરોગવું એ વૈરાગીનું વર્તન છે.

પોતે ભૂખ્યા રહીને બીજાને ભિજન કરાવવું, બીજાને જીતાડી પોતે હારી જવું એ વૈરાગીનો સ્વભાવ છે.

વૈરાગ ધારણ કરવાની એજ તિવ્રતા હોય છે. મનુ શતરુપામાં વૈરાગ ધારણ કરવાની તિવ્રતા આવે છે.

મનુ શતરુપાને તિવ્ર વૈરાગ્ય આવ્યો હતો.

પાર્વતી શ્રદ્ધા રુપે શંકર ભગવાન પાસે પ્રશ્ર કરી કથા શ્રવણ માટે વિનંતી કરે છે. અહીં પાર્વતી શ્રદ્ધા રુપ માતૃ સ્વરુપ છે તેની તુલસી તેને માતુ ભવાની કહે છે.

 

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥

पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥1॥

कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गईं।

Day 5

Wednesday, 27/08/2025